Tuesday, 3 June 2014

चोटों के संबंध में राजकुमार प्रकरण 2011MACT

                     चोटों के संबंध में राजकुमार प्रकरण 2011                    

                                               राजकुमार बनाम अजय कुमार एवं एक अन्य
                                                   2011(1)दु.मु.प्र. 475 (सु.को.) दो जज

    इस प्रकरण में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत :-


1.    सभी चोटों (अथवा चोटों के कारण होने वाली स्थायी अपंगता) का परिणाम अर्जन क्षमता  में हानि नहीं होता है।

2.    किसी व्यकित के सम्पूर्ण शरीर के सन्दर्भ में स्थायी अपंगता का प्रतिशत, अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत नहीं माना जा सकता। दूसरे शब्दों में, अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वहीं नहीं होता जो स्थायी  अपंगता की प्रतिशत हो (कुछ मामलों को छोड़कर जिनमें साक्ष्य के आधार पर अधिकरण इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो कि अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वहीं है जो स्थायी अपंगता का प्रतिशत  है।

3.    चिकित्सक, जिसने घायल-दावेदार का उपचार किया हो जिसने बाद में उसका परीक्षण किया हो, उसकी स्थायी विकलांगता के सम्बन्ध में साक्ष्य दे सकता है। अर्जन क्षमता में हानि का आंकलन अधिकरण द्वारा समस्त साक्ष्यों के सन्दर्भ में किया जाना होगा।

4.    एक ही प्रकार की स्थायी, अपंगता का परिणाम भिन्न-भिन्न व्यकितयों में, उनके व्यवसाय की प्रकृति, कार्य, आयु, शिक्षा एवं अन्य तथ्यों, के अनुसार अर्जन क्षमता में भिन्न-भिन्न प्रतिशत की हानि हो सकती है।

5.    घायल दावेदार के मामले में व्यकितगत खर्चों के विरूद्ध एक-तिहार्इ अथवा कोर्इ प्रतिशत कटौती की आवश्यकता नहीं है।

व्यकितगत चोट में मामलों में मद :-

    आर्थिक क्षति (विशेष क्षति) 
  
(प्रथम)-    उपचार, अस्पताल में रहने, दवाओं, परिवहन, पौषिटक भोजन एवं प्रकीर्ण व्ययों से सम्बनिधत व्यय।
(द्वितीय)-    अर्जन की हानि (व अन्य लाभ) जो वह घायल न होने की सिथति में प्राप्त करता, यथा
                ए. उपचार की अवधि में अर्जन की हानि,
                बी. स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि।
(तीसरा)-        भविष्य में होने वाले चिकित्सीय व्यय।

गैर-आर्थिक क्षति (सामान्य क्षति)

(चौथा)-        चोटों के परिणामस्वरूप  होने वाली पी(ड़ा, कष्ट-भोग की क्षतिपूर्ति।
(पांचवा)-     सुख-सुविधा की हानि (एवंया विवाह की संभावनाओंं की हानि)
(छटवा)-     जीवन की आपेक्षाओं की हानि (सामान्य जीवन काल का कम होना)


    सामान्य व्यकितगत चोटोंं के प्रकरणों में केवल मद सं. (प्रथम), (द्वितीय) (ए), एवं (चौथा) के अंंतर्गत प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत की जावेगी। केवल गम्भीर चोटों के प्रकरण में जबकि इस आशय के विशिष्ट चिकित्सकीय साक्ष्य हों जो दावेदार के साक्ष्य का समर्थन करते हों, तो मद सं. (दूसरा) (बी), (तीसरा) (पांचवा) और (छटवा) में से किसी के अंंतर्गत प्रतिपूर्ति प्रदान की जा सकती है, जो कि स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि, भविष्य के चिकित्सीय व्ययों, सुख-सुविधाओं की हानि (औरया विवाह की सम्भावनाओं की हानि) तथा जीवन की अपेक्षाओं की हानि के सम्बन्ध में हो। मद संख्या (प्रथम) एवं मद संख्या (द्वितीय) (बी) के अन्तर्गत आर्थिक क्षति का आकलन अधिक कठिन नहीं होता क्योंकि इनमें वास्तविक व्यय की प्रतिपूर्ति निहित होती है एवं जिसे साक्ष्य से सरलतापूर्वक जाना जा सकता है। भविष्य के चिकित्सीय व्यय मद के अन्तर्गत अधिनिर्णय-मद (तीसरा)-भविष्य में उपचार की आवश्यकता एवं उसके मूल से संबंधी विशिष्ट चिकित्सीय साक्ष्य पर निर्भर करता है। गैर-आर्थिक क्षति-मद संख्या (चौथा), (पांचवा) एवं (छटवा)- के आकलन में परिसिथतियों, यथा आयु, चोट का प्रकारउससे दावेदार में आयी अक्षमता एवं उसका प्रभाव दावेदार के भावी जीवन पर, के परिपेक्ष्य में एक-मुश्त राशि का निर्धारण निहित होता है। इस न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के निर्णयोंं में इन मदों के अन्तर्गत अधिनिर्णय हेतु आवश्यक दिशा-निर्देश निहित है।
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                     2011(1) दु.मु.प्र. 475 (सु.को.)
                                उच्चतम न्यायालय

न्यायमूर्तिगण माननीय आर.वी. रवीन्द्रन, 
माननीय एच.एल. गोखले
राजकुमार 
बनाम 
अजय कुमार एवं एक अन्य
(सिविल अपील सं. 8981 वर्ष 2010 (वि.अ.या.(सि.) सं. 10383 वर्ष 2007 से उद्भूत), (निर्णीत दिनांक 18 अक्टूबर, 2010)
(1) मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 168-प्रतिपूर्ति की मात्रा-सड़क दुर्घटना-स्थायी विकलांगता की दशा को देखते हुए, भविष्य में अर्जन क्षमता की हानि का आंकलन-संगत सिद्धांतों की चर्चा एवं व्याख्या-सिद्धान्तों की व्याख्या उद्धरणों के आलोक में की गई।(पैरा 13 एवं 14)
उक्त सिद्धान्त निम्नवत् हैं:
(अ)    सभी चोटों (अथवा चोटों के कारण होने वाली स्थायी अपंगता) का परिणाम अर्जन क्षमता में हानि नहीं होता।
(ब)    किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण शरीर के सन्दर्भ में स्थायी अपंगता का प्रतिशत, अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत नहीं माना जा सकता। दूसरे शब्दों में, अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वही नहीं होता जो स्थायी अपंगता की प्रतिशत हो (कुछ मामलों को  छोड़कर, जिनमें साक्ष्य के आधार पर अधिकारण इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो कि अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वही है जो स्थायी अपंगता का प्रतिशत है)।
(स)    चिकित्सक, जिसने घायल दावेदार का उपचार किया हो या जिसने बाद में उसका परीक्षण किया हो, उसकी स्थायी विकलांगता की सीमा के आंकलन हेतु, केवल स्थायी विकलांगता के संबंध में साक्ष्य दे सकता है। अर्जन क्षमता में हानि का आंकलन अधिकरण द्वारा समस्त साक्ष्यों के सन्दर्भ में किया जाना होगा।
(द)    एक ही प्रकार की स्थायी अपंगता का परिणाम भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में, उनके व्यवसाय की प्रकृति, कार्य, आयु शिक्षा एवं अन्य तथ्यों, के अनुसार अर्जन क्षमता में भिन्न-भिन्न प्रतिशत की हानि हो सकती है।
(2)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 168-आर्थिक एवं गैर-आर्थिक क्षतियों का आंकलन-सिद्धान्त-मदों की सूची-जिनके अन्तर्गत व्यक्तिगत चोट के मामलों में प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत की जाती है।(पैरा 20)
(3)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 168-आर्थिक एवं गैर-आर्थिक क्षतियों का आंकलन-सिद्धांत-मदों की सूची-जिनके अन्तर्गत व्यक्तिगत चोट के मामलों में प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत की जाती है।
(4)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 168-सड़क दुर्घटना दिनांक 01 अक्टूबर, 1991 में अपीलार्थी घायल-बांये पैर की दोंनो हड्डियों एवं बांये रेडियस में फ्रैक्चर-उपचार 01.10.1991 से 16.06.1992 तक चला-दुर्घटना के समय घायल की आयु 25 वर्ष थी- पनीर विक्रेता के रूप में कार्य कर 3000 रूपये प्रतिमाह अर्जित करता था-अधिकरण ने मासिक आय 900 रूपये आंकलित करते हुए 94700 रूपये की प्रतिपूर्ति राशि अधिनिर्णित की-उच्चतम न्यायालय द्वारा घायल की आय 18000 रूपये प्रतिवर्ष आंकलित-विकलांगता के कारण अर्जन क्षमता में हानि 20 प्रतिशत मानी-18 का गुणक लागू-भविष्य में अर्जन में हानि 64800 रूपये आंकलित, जो अधिकरण द्वारा 55080 रूपये निर्धारित की गई थी-उपचार की अवधि में अर्जन की हानि 12750 रूपये आंकलित। (पैरा 2, 19 एवं 21)
(5)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 165 (1), 168(1) एवं 169 (1)-दावा अधिकरण कार्य प्रणाली एवं शक्ति-चोटों, विशेषकर स्थायी विकलांगता जनक चोटों के संबंध में चिकित्सकीय साक्ष्यों के समय अधिकरण को मूक दर्शक नहीं होना चाहिए-उसे सक्रिय अन्वेषक बन कर सत्यता की जांच करनी चाहिए ताकि न्यायोचित प्रतिपूर्ति निर्धारित की जा सके।(पैरा 11)
(6)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 169-दावा अधिकरण के कर्तव्य एवं अधिकार-चोट संबंधी मामलों में चिकित्सकीय साक्ष्य-संबंधित चिकित्सक द्वारा साक्ष्य हेतु उपस्थित होने में आना-कानी-इतने समय में वह दस अन्य मरीजों का उपचार कर उनको जीवन दान प्रदान कर सकता है-अधिकरण चिकित्सकों के मूल्यवान समय को ध्यान में रखते हुए उनके साक्ष्य को प्राथमिकता प्रदान कर उनका समय नष्ट होने से बचायें।(पैरा 16)
(7)    चिकित्सीय प्रमाणपत्र-घायल का उपचार दिल्ली के सरकारी अस्पताल में हुआ-विकलांगता प्रमाण-पत्र उत्तर प्रदेश के सरकारी अस्पताल द्वारा जारी-उच्च न्यायालय द्वारा विकलांगता प्रमाण-पत्र अस्वीकृत-विकलांगता प्रमाण-पत्र, चिकित्सा परिषद् जिसमें एक अस्थि रोग विशेषज्ञ भी था, के आंकलन के आधार पर मुख्य चिकित्सा अधिकारी द्वारा निर्गत-उच्च न्यायालय द्वारा कथित विकलांगता प्रमाण-पत्र अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए था। (पैरा 17)
(8)    शब्द विकलांगता परिभाषित-यथा, सामान्य मानव द्वारा की जा सकने वाली किसी क्रिया को करने में होने वाली रूकावट या कमी-दो प्रकार-स्थायी विकलांगता एवं अस्थायी विकलांगता-स्थायी विकलांगता के भी दो प्रकार-अंशतः स्थायी विकलांगता एवं पूर्णतः स्थायी विकलांगता। (पैरा 6)
(9)    स्थायी विकलांगता-अर्जन क्षमता पर प्रभाव का आंकलन-देखा जाना चाहिए कि स्थायी विकलांगता ‘‘भौतिक विकलांगता है या क्रियात्मक विकलांगता’’-दोनों में अन्तर एवं उनकी व्याख्या।(10)
(10)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 171-ब्याज-अधिकरण द्वारा 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से ब्याज, याचिका के दिनांक से भुगतान के दिनांक तक, अधिनिर्णीत-ब्याज की दर सही मानी गई। (पैरा 22)
    निर्दिष्ट वाद:
        2010 ए.सी.जे. 2867: 2010 (3) दु.मु.प्र. 518 (सु.को.); 1970 ए.सी.जे. 259 (एच.एल.इंग्लैण्ड); 1970 ए.सी.जे. 110 (एस.सी.); 1995 ए.सी.जे. 366; 2010 ए.सी.जे. 2713ः 2010 (1) दु.मु.प्र. 1 (सु.को.)।
अधिवक्तागण:
        अपीलार्थी की ओर से-कु0 मनजीत चावला, अधिवक्ता।
        प्रतिवादीगण की ओर से-श्री अनुराग पाण्डेय, अधिवक्ता।
                                  निर्णय
    आर.वी. रवीन्द्रन, न्यायमूर्ति-अवकाश प्रदत्त। सुना।
2.    अपीलार्थी 1 अक्टूबर, 1991 को एक मोटर दुर्घटना में घायल हुआ था और उसकी बांयी टांग की दोनों हड्डियों में फ्रैक्चर हुआ तथा बांया रेडियस का भी फ्रैक्चर हुआ। वह 1 अक्टूबर, 1991 से 16 जून, 1992 तक उपचाराधीन रहा। मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण ने अधिनिर्णय दिनांक 20 जुलाई, 2002 द्वारा 94,700 रूपये की प्रतिपूर्ति, याचिका के दिनांक से वसूली तक 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से ब्याज सहित, अधिनिर्णीत की। अधिनिर्णीत राशि इस प्रकार बनी, 11000 रूपये चिकित्सीय व्यय, परिवहन वह विशिष्ट आहार के विरूद्ध 3,600 रूपये, उपचार अवधि में अर्जन में हानि के विरूद्ध 25,000 रूपये, पीड़ा एवं कष्ट भोग के लिए तथा 55,080 रूपये भविष्य के अर्जन में हानि के विरूद्ध। भविष्य के अर्जन में हानि के आगणन हेतु, अधिकरण ने न्यूनतम मजदूरी अर्थात् 891 रूपये को पूर्णकित कर 900 रूपये को अपीलार्थी की मासिक आय मानी और उससे एक-तिहाई की कटौती व्यक्तिगत व्यय के विरूद्ध की, और विकलांगता प्रमाण-पत्र में दर्शायी गई विकलांगता की प्रतिशत (45 प्रतिशत) को मितव्ययी विकलांगता मानते हुए, अधिकरण द्वारा 600 रूपये के 45 प्रतिशत को भविष्य के अर्जन में हानि आगणित की गई, जो 270 रूपये प्रतिमाह या 3,240 रूपये प्रतिवर्ष होता है। इसमें 17 का गुणक लागू करते हुए 55,080 रूपये को भविष्य के अर्जन में हानि माना गया। अपीलार्थी ने प्रतिपूर्ति राशि में वृद्धि की मांग करते हुए एक अपील योजित की। उच्च न्यायालय ने कथित अपील की आक्षेपित निर्णय दिनांक 31 जनवरी, 2007 द्वारा इस आधार पर निरस्त कर दिया कि अपीलार्थी द्वारा प्रस्तुत विकलांगता प्रमाण पत्र विश्वसनीय नहीं था। उच्च न्यायालय के कथित निर्णय का विरोध इस अपील में विशेष अवकाश द्वारा किया गया है।
3.    अपीलार्थी ने दो व्यथा प्रस्तुत की है: (1) यह कि 900 रूपये के रूप में मासिक आय का आंकलन बहुत कम है; और (2) भविष्य  के अर्जन में हानि के आकलन हेतु आय के एक-तिहाई की कटौती (व्यक्तिगत एवं जीविका व्यय के विरूद्ध) नहीं की जानी चाहिए थी। इसलिए, हमारे विचारार्थ उठने वाले प्रश्न यह हैं कि क्या प्रतिपूर्ति के आकलन हेतु अपनाये गये सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण थे और क्या अधिनिर्णित प्रतिपूर्ति को बढ़ाये जाने की आवश्यकता है।
चोट के प्रकरणों में प्रतिपूर्ति संबंधी सामान्य सिद्धान्तः
4.    मोटर वाहन अधिनियम, 1988 (संक्षेप में ‘‘अधिनियम’’) यह स्पष्ट करता है कि अधिनिर्णय न्यायोचित होना चाहिए, जिसका अर्थ यह होता है कि प्रतिपूर्ति द्वारा, यथासम्भव, दावेदार को दुर्घटना से पूर्व की स्थिति में ले आया जाय। क्षतिपूर्ति अधिनिर्णित करने का उद्देश्य होता है कि किसी गलत कार्य से हुई हानियों की भरपाई की जाय, जहा तक धन द्वारा संभव हो, जो एक उचित एवं तर्कसंगत निष्पक्ष प्रक्रिया द्वारा हो। न्यायालय अथवा अधिकरण को हानियों का आकलन उद्देश्यपूर्ण ढंग से करना चाहिए तथा किसी अनुमान पर विचार नहीं करना चाहिए, यद्यपि कतिपय स्थिति में विकलांगता की प्रकृति एवं उसके परिणामों का संदर्भ अपरिहार्य होता है। किसी व्यक्ति को मात्र भौतिक चोटों की प्रतिपूर्ति ही नहीं की जाती है अपितु इस चोट के परिणाम स्वरूप होने वाली हानि के लिए भी। इसका अर्थ यह हुआ कि उसे सम्पूर्ण जीवन जीने में होने वाली असमर्थता के लिए, उन सामान्य सुखों का उपभोग करने में होने वाली असमर्थता के लिए, जिनका भोग वह चोट न लगने की स्थिति में कर सकता था तथा उतना धन अर्जित करने में असमर्थता जितना वह अर्जित करता था अथवा करता, के लिए प्रतिपूर्ति करनी चाहिए। (देखें, सी.के. सुब्रामनिया अइयर बनाम टी. कुन्दीकुट्टन नायर, 1970 ए.सी.जे. 110 (सु.को.); आर.डी. हत्तंगडी बनाम पेस्ट कन्ट्रोल (इण्डिया) लि., 1995 ए.सी.जो. 366 (सु.को.) तथा बेकर बनाम विलोहनी, 1970 ए.सी.जे. 259 (एच.एल. इंग्लैण्ड)।
5.    मद जिनके अन्तर्गत व्यक्तिगत चोट के मामलों में प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत की जाती है, निम्नवत हैं:
आर्थिक क्षति (विशेष क्षति)
(1)    उपचार, अस्पताल में रहने, दवाओं, परिवहन, पौष्टिक भोजन एवं प्रकीर्ण व्ययों से सम्बन्धित व्यय।
(2)    अर्जन की हानि (व अन्य लाभ) जो वह घायल न होने की स्थिति में प्राप्त करता, यथा
(अ)    उपचार की अवधि में अर्जन की हानि;
(ब)    स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि।
(3)    भविष्य में होने वाले चिकित्सीय व्ययं
गै-आर्थिक क्षति(सामान्य क्षति)
(4)    चोटों के परिणामस्वरूप होने वाली पीड़ा, कष्ट-भोग की क्षतिपूर्ति।
(5)    सुख-सुविधा की हानि (एवं/या विवाह की संभावनाओं की हानि)
(6)    जीवन की अपेक्षाओं की हानि (सामान्य जीवन काल का कम होना)
    सामान्य व्यक्तिगत चोटों के प्रकरणों में केवल मद सं0 (1), (2)(अ), एवं (4) के अन्तर्गत प्रतिपूर्ति अधिनिर्णित की जावेगी। केवल गम्भीर चोटों के प्रकरण में जबकि इस आशय के विशिष्ट चिकित्सकीय साक्ष्य हों जो दावेदार के साक्ष्य का समर्थन करते हों, तो मद सं. (2)(ब), (3), (5), (6) में से किसी के अन्तर्गत प्रतिपूर्ति प्रदान की जा सकती है, जो कि स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि, भविष्य के चिकित्सकीय व्ययों, सुख-सुविधाओं की हानि (और/या विवाह की सम्भावनाओं की हानि) तथा जीवन की अपेक्षाओं की हानि के सम्बन्ध में हो। मद संख्या (1) एवं मद संख्या (2)(अ) के अन्तर्गत आर्थिक क्षति का आकलन अधिक कठिन नहीं होता क्योंकि इनमें वास्तविक व्यय की प्रतिपूर्ति निहित होती है एवं जिसे साक्ष्य से सरलतापूर्वक जाना जा सकता है। भविष्य के चिकित्सकीय व्यय मद के अन्तर्गत अधिनिर्णय-मद (3)-भविष्य में उपचार की आवश्यकता एवं उसके मूल्य से संबंधी विशिष्ट चिकित्सकीय साक्ष्य पर निर्भर करता है। गैर-आर्थिक क्षति-मद संख्या (4), (5) एवं (6)-के आकलन में परिस्थितियों, यथा आयु, चोट का प्रकार/उससे दावेदार में आयी अक्षमता एवं उसका प्रभाव दावेदार के भावी जीवन पर, के परिपेक्ष्य में एक-मुश्त राशि का निर्धारण निहित होता है। इस न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के निर्णयों में इन मदों के अन्तर्गत अधिनिर्णय हेतु आवश्यक दिशा निर्देश निहित है, यदि आवश्यकता समझी जाय। प्रायः जो मद कठिनाई पैदा करता है, वह है-मद (2)(अ)-स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि। इस मामले में हमें इसी आकलन पर विचार करना है।
स्थायी विकलांगता के कारण अर्जन में भावी हानि का आंकलन:
6.    अपंगता का सम्बन्ध किसी क्रिया को उस प्रकार करने की क्षमता में कमी या अवरोध से होता है, जैसे कोई सामान्य मनुष्य कर सकता है। स्थायी विकलांगता  शरीर के किसी भाग के प्रयोग में हानि अक्षमता को सन्दर्भित  करती है, जो उपचार अवधि के अन्त में एवं अधिकतम शरीरिक सुधार के बाद रह गयी हो एवं घायल के शेष जीवनकाल में बने रहने की सम्भावना हो। अस्थायी विकलांगता, चोट के कारण किसी अंग के प्रयोग में आयी इस हानि अथवा अक्षमता को सन्दर्भित करती है, जो कि उपचार अवधि पूर्ण होने के बाद समाप्त हो जायेगी। स्थायी विकलांगता या तो आंशिक अथवा पूर्णतः हो सकती है। आंशिक स्थायी विकलांगता, किसी व्यक्ति द्वारा दुर्घटना से पूर्व किए जा सकने वाले समस्त कार्यों एवं शरीरिक क्रियाओं को करने में अक्षमता को संदर्भित करती है, यद्यपि उनमें से कुछ को करने में वह सक्षम है और अब कोई लाभदायक क्रिया में लगने के योग्य है। पूर्णतः स्थायी विकलांगता, दुर्घटना के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति द्वारा कोई व्यवसायिक या सेवायोजन सम्बन्धी क्रिया करने में अक्षमता को सन्दर्भित करती है। मोटर दुर्घटना में आयी चोटों से हो सकने वाली स्थायी विकलांगताओं के अनेक प्रकार हैं यदि इनकी तुलना अक्षमताओं वाले व्यक्तियों (समान अवसर, अधिकारों की सुरक्षा एवं पूर्ण प्रतिभाग) अधिनियम, 1995 (संक्षेप में ‘‘अपंगता अधिनियम’’) से की जाय। किन्तु अपंगता अधिनियम की धारा 2 (1) में वर्णित कोई अक्षमता, किसी मोटर दुर्घटना में लगी चोटों का परिणाम हो, तो उन्हें प्रतिपूर्ति के दावे के उद्देश्य से स्थायी विकलांगता माना जा सकता है।
7.    चिकित्सकों द्वारा स्थायी विकलांगता का प्रतिशत सम्पूर्ण शरीर के परिपेक्ष्य में व्यक्त किया जाता है, एवं कभी-कभी अंग विशेष के परिपेक्ष्य में। जब कोई अपंगता प्रमाण-पत्र दर्शाता हो कि घायल को बांयी ओर के निचले अंग की 45 प्रतिशत विकलांगता हुई है, तो यह वही नहीं होगी जो सम्पूर्ण शरीर के सापेक्ष 45 प्रतिशत की विकलांगता हो। किसी अंग के सभी कार्यों के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किसी अंग (या शरीर के भाग) की विकलांगता की सीमा को, निश्चय ही, सम्पूर्ण शरीर की विकलांगता की सीमा नहीं माना जा सकता। यदि दाहिने हाथ मे स्थायी विकलांगता 60 प्रतिशत हो तथा बांयी टांग की स्थायी विकलांगता 80 प्रतिशत हो, तो इसका यह अर्थ नहीं होगा कि सम्पूर्ण शरीर के सापेक्ष स्थायी विकलांगता 140 प्रतिशत (अर्थात् 80 प्रतिशत $ 60 प्रतिशत) होगी। यदि शरीर के भिन्न भागों में भिन्न प्रतिशत की विकलांगता हो तो उनके योग के रूप में दर्शायी जाने वाली स्थायी विकलांगता, सम्पूर्ण शरीर के सापेक्ष 100 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती।
8.    जब चोटों के परिणामस्वरूप दावेदान को स्थायी विकलांगता हुई हो तो भविष्य में अर्जन की हानि के मद में प्रतिपूर्ति का आकलन, ऐसी विकलांगता के उसकी अर्जन क्षमता के प्रभाव पर निर्भर करेगा। अधिकरण को यांत्रिक रूप से, स्थायी विकलांगता के प्रतिशत को, आर्थिक हानि अथवा अर्जन क्षमता की हानि के रूप में लागू नहीं करना चाहिए। अधिकांश मामलों में आर्थिक हानि का प्रतिशत, अर्थात् अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत, जो किसी स्थायी विकलांगता के कारण हो, स्थायी विकलांगता के प्रतिशत से भिन्न होगा। कुछ अधिकरण गलत रूप से यह मान लेते हैं कि सभी प्रकरणों में, स्थायी विकलांगता की कोई सीमा (प्रतिशत) से अर्जन क्षमता में हानि उतनी ही होगी, प्ररिणामतः, यदि प्रस्तुत साक्ष्य दर्शाते हैं कि स्थायी विकलांगता 45 प्रतिशत है तो यह अवधारित कर लिया जाता है कि भविष्य की अर्जन क्षमता में हानि भी 45 प्रतिशत होगी। अधिकांश मामलों में, अर्जन क्षमता में हानि की सीमा (प्रतिशत) को स्थायी विकलांगता की सीमा (प्रतिशत) से बराबरी करने का परिणाम, या तो बहुत कम अथवा अत्यधिक प्रतिपूर्ति का अधिनिर्णय होगा। अधिकरण द्वारा जिस बात का आकलन किया जाना चाहिए वह है, घायल की अर्जन क्षमता पर स्थायी विकलांगता का प्रभाव, और अर्जन क्षमता में हानि का आकलन आय के प्रतिशत के रूप में करने के बाद, उसका परिमाणीकरण धन के रूप में किया जाना होगा ताकि भविष्य में अर्जन में हानि का पता लगाया जा सके (मानक गुणक विधि लागू करते हुए जिसका प्रयोग निर्भरता की हानि के निर्धारण हेतु किया जाता है)। तथापि, कतिपय मामलों में हम देखते हैं कि साक्ष्यों पर विचार करने तथा आकलन के बाद अधिकरण यह पाते हैं कि स्थायी विकलांगता के परिणामस्वरूप अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत लगभग वही है जो कि स्थायी विकलांगता का प्रतिशत है, और जिसमें, निःसंदेह, अधिकरण प्रतिपूर्ति के निर्धारण हेतु उसी प्रतिशत को अपनाएगा (उदाहरणार्थ देखें, अरविंद कुमार मिश्रा बनाम न्यू इण्डिया एश्योरेन्स कं0लि0, 2010 ए0सी0जे0 2867: 2010 (3) दु0मु0प्र0 518 (सु0को0) तथा यादव कुमार बनाम डिविजनल मैनेजर नेशनल इन्श्योरेन्स  कं0लि0, 2010 ए0सी0जे0 2713: 2010 (1) दु0मु0प्र0 1 (सु0को0) में इस न्यायालय के निर्णय)
9.    इसलिए, अधिकरण को पहले यह निर्णय करना होता है कि क्या कोई स्थायी विकलांगता है, और यदि है तो उस स्थायी विकलांगता की मात्रा। इसका अर्थ यह हुआ कि अधिकरण को साक्ष्य के आधार पर विचार कर निर्णय करना चाहिए कि: (1) क्या अक्षमता स्थायी है या अस्थायी; (2) यदि अक्षमता स्थायी है, तो क्या वह स्थायी पूर्ण अक्षमता है या स्थायी आंशिक अक्षमता; (3) यदि अक्षमता का प्रतिशत किसी अंग  विशेष के संदर्भ में व्यक्त किया गया है, तो उस अंग की इस अक्षमता का सम्पूर्ण शरीर की कार्यक्षमता पर प्रभाव, जो कि उस व्यक्ति द्वारा भोगी गयी स्थायी विकलांगता है। यदि अधिकरण इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि कोई स्थायी विकलांगता नहीं है तो अग्रेतर, भविष्य की अर्जन क्षमता में हानि के निर्धारण का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु यदि अधिकरण का निष्कर्ष है कि स्थायी विकलांगता है तो वह आगे कार्यवाही कर उसकी मात्रा का पता लगायेगा। जब अधिकरण चिकित्सीय साक्ष्य पर आधारित, दावेदार की स्थायी विकलांगता की मात्रा ज्ञात कर लेता है, तो उसको निर्धारित करना होता है कि क्या इस विकलांगता का प्रभाव उसकी अर्जन क्षमता पर है या होगा।
10.    स्थायी विकलांगता के वास्तविक अर्जन क्षमता पर प्रभाव का निर्धारण तीन चरणों में होता है। अधिकरण को पहले पता लगाना होता है कि स्थायी विकलांगता के बावजूद दावेदार कौन-कौन से कार्य कर सकता है और स्थायी विकलांगता के परिणामस्वरूप क्या नहीं कर सकता है (इसकी आवश्यकता, मद जीवन की सुविधाओं में हानि हेतु प्रतिपूर्ति के अधिनिर्णय के लिए भी होगी) दूसरा चरण है, उसके व्यवसाय, व्यापार एवं कार्य की प्रकृति का पता लगाना जो दुर्घटना के पूर्व था, और उसकी आयु भी। तृतीय चरण है, यह ज्ञात करना कि क्या (1) दावेदार किसी प्रकार की भी आजीविका के अर्जन में पूर्णतः अक्षम हो गया है, या (2) क्या इस स्थायी विकलांगता को बावजूद, दावेदार अब भी प्रभावी रूप से वह सब कार्य करता रहेगा जो कि वह पूर्व में करता था, अथवा (3) क्या अपने पूर्व की क्रियाओं एवं कार्यों जो करने में वह बाधित है किन्तु कुछ अन्य या कम स्तर की कार्यवाही एवं क्रियायें कर सकता है ताकि वह अपनी आजीविका अर्जित कर रहा है या कर सकता है। उदाहरणार्थ, यदि किसी दावेदार का बांया हाथ काट दिया जाता है, तो उसकी स्थायी भौतिक या क्रियात्मक अक्षमता का आकलन 60 प्रतिशत के अलग हो सकता है। यदि यह दावेदार चालक या बढ़ई था तो उसकी अर्जन क्षमता में वास्तविक हानि वस्तुतः 100 प्रतिशत होगी यदि वह दावेदार किसी सरकारी सेवा में लिपिक था, तो उसके बांये हाथ की हानि का परिणाम उसकी सेवा की हानि नहीं होगा और उसे लिपिक के रूप में जारी रखा जा सकता है क्योंकि वह अपने लिपिकीय कार्य कर सकता है और इस प्रकरण में अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत 100 प्रतिशत नहीं होगा, जैसा कि चालक या बढ़ई के मामले हुआ, और न ही 60 प्रतिशत होगा, जो कि वास्तविक भौतिक अक्षमता है, बल्कि इससे बहुत कम। वस्तुतः, यदि दावेदार सरकारी सेवा में बना रहा है, तो ‘‘भविष्य के अर्जन की हानि’’ मद के अन्तर्गत कोई प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी, यद्यपि उसे एक हाथ खोने के एजव में, मद-‘‘सुविधाओं में हानि’’ के अन्तर्गत प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत की जा सकती है। कभी-कभी, घायल दावेदार को सेवा में तो बनाये रखा जा सकता है किन्तु अक्षमता के कारण, हो सकता है उसे पूर्व में धारित पद से सम्बन्धित कार्य करने के योग्य न पाया जाय और उसे किसी अन्य निम्नतर पद पर स्थानांतरित कर दिया जाये जिसका वेतन कम हो, ऐसे प्रकरण में भविष्य की अर्जन क्षमता में हानि के मद में सीमित अधिनिर्णय होना चाहिए, उसकी घटी हुई अर्जन क्षमता को देखते हुए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि जब भविष्य में अर्जन क्षमता की हानि को 100 प्रतिशत मानते हुए (अथवा 50 प्रतिशत से अधिक मानते हुए) प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत की जाती है तो सुविधाओं की हानि, अथवा जीवन की अपेक्षाओं की हानि, मद के अन्तर्गत पृथक् प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत करने की आवश्यकता समाप्त हो सकती है, केवल प्रतिकस्वरूप थोड़ी राशि का अधिनिर्णय सुख-सुविधाओं की हानि या जीवन की अपेक्षाओं की हानि मद के अन्तर्गत दिया जा सकता है, क्योंकि अन्यथा हो सकता है कि प्रतिपूर्ति का अधिनिर्णय दोहरा हो जाय। यथास्थिति।
11.    चोटों एवं उनके प्रभाव, विशेषकर स्थायी विकलांगता कारक, के सम्बन्ध में जब चिकित्सकीय साक्ष्य प्रस्तुत किए जायें तो अधिकरण को मूक दर्शक नहीं होना चाहिए। अधिनियम की धारा 168 एवं 169 यह स्पष्ट करती है कि अधिकरण को तटस्थ अधिनिर्णायक के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए जैसा कि सिविल सूट में होता है, अपितु उसे एक सक्रिय अन्वेषक एवं सत्य के चाहने वाले के रूप में होना चाहिए जिसे न्यायोचित प्रतिपूर्ति के निर्धारण हेतु ‘‘दावे की जाचं’’ करनी होती है। इसलिए अधिकरण को सही एवं सच्ची स्थिति ज्ञात करने हेतु एक सक्रिय भूमिका अपनानी चाहिए ताकि वह ‘न्यायोचित प्रतिपूर्ति’ का आकलन कर सके। व्यक्तिगत चोटों के मामलों को देखते समय अधिकरण को यथासम्भव स्वयं को चिकित्सा शब्दकोष तथा स्थायी भौतिक अक्षमता के मूल्यांकन हेतु एक हस्तपुस्तिका से युक्त करना चाहिए 
(उदाहरणार्थ Mannual for Evaluation of Permanent Physical Impairment for Orthopedic Surgeons,
जिसे Americal Academy of Orthopedic Surgeons द्वारा तैयार किया गया है, अथवा इसका भारतीय समतुल्य या अन्य अधीकृत अभिलेख) ताकि चिकित्सकीय साक्ष्य को समझा जा सके और भौतिक एवं क्रियात्मक अक्षमता का आंकलन किया जा सके। अधिकरण को, कर्मकारों के प्रतिकर अधिनियम, 1923 की प्रथम अनुसूची को भी ध्यान में रखना चाहिए जिसमें, कर्मकारो के मामले में, विभिन्न प्रकार की चोटों में होने वाली स्थायी विकलांगता के संबंध में कुछ संकेत प्रदान किए गये हैं। यदि साक्ष्य देने वाला चिकित्सक किन्हीं चिकित्सकीय शब्दों का प्रयोग करता है तो अधिकरण को उसे निर्देशित करना चाहिए कि वह साधारण गैर-चिकित्सकीय भाषा में भी बताये कि चोट की प्रकृति एवं प्रभाव क्या है। यदि कोई चिकित्सक स्थायी विकलांगता के प्रतिशत के बार में साक्ष्य देता है तो अधिकरण को उससे स्पष्ट करने की मांग करनी चाहिए कि कथित अक्षमता का प्रतिशत उसके सम्पूर्ण शरीर के सापेक्ष क्रियात्मक अक्षमता है अथवा वह मात्र किसी एक अंग के सन्दर्भ में है। यदि स्थायी अक्षमता का प्रतिशत किसी अंग विशेष के सन्दर्भ में बताया गया हो तो अधिकरण को चिकित्सक की राय लेनी होगी कि क्या इस क्रियात्मक स्थायी अक्षमता को सम्पूर्ण शरीर के सापेक्ष परिवर्तित किया जा सकता है, यदि हा तो प्रतिशत बतायें।
12.    अधिकरण को उस समय भी सतर्कता से काम लेना चाहिए जब उसने उसे चिकित्सक का विशिष्ट साक्ष्य स्वीकार करना प्रस्तावित किया हो जिसने घायल का उपचार नहीं किया लेकिन जो ‘तत्कालिक’ विकलांगता प्रमाण पत्र प्रदान करता है, बिना किसी चिकित्सीय आंकलन के। ऐसे अनधिकृत चिकित्सकों के अनेक दृष्टांत हैं जो घायल का उपचार किए बिना तुरन्त उदार विकलांगता प्रमाण पत्र देते हैं ताकि दावेदार की सहायता हो सके। किन्तु जहा पर विकलांगता प्रमाणपत्र सम्यक् रूप से गठित चिकित्सा परिषद् द्वारा प्रदान  किया गया हो, तो उन्हें स्वीकार किया जा सकता है यदि ऐसे प्रमाण पत्र की सत्यता के सम्बन्ध में साक्ष्य हों। अधिकरण को सदैव उस चिकित्सक के साक्ष्य की मांग करनी चाहिए जिसने घायल का उपचार किया हो अथवा जिसने स्थायी विकलांगता का आंकलन किया हो। मात्र अक्षमता प्रमाण-पत्र अथवा अस्पताल से छुट्टी का प्रमाण-पत्र, उसमें दर्शायी गयी अक्षमता का प्रमाण नहीं होंगे जब तक कि चिकित्सक, जिसने दावेदार का उपचार किया अथवा जिसने दावेदार का चिकित्सकीय परीक्षण करा हो और विकलांगता की सीमा का आंकलन करा हो, को इस प्रमाण-पत्रों के सन्दर्भ में प्रति-परीक्षण हेतु बुलाया नहीं जाता। यदि अधिकरण, दावेदार द्वारा प्रस्तुत चिकित्सकीय साक्ष्य से संतुष्ट नहीं है, वह एक चिकित्सा परिषद् का गठन कर सकता है(प्रख्यात स्थानीय अस्पतालों/चिकित्सा विद्यालयों से सलाह से उसके द्वारा अनुरक्षित सूची में से ) और दावेदार को इस चिकित्सा परिषद् को अक्षमता के आंकलन हेतु संदर्भित कर सकता है।
13.    अब हम उपर चर्चित सिद्धांतों को इस प्रकार संक्षेपित कर सकते हैं।
    (1) सभी चोटों (अथवा चोटों के कारण होने वाली स्थाई अपंगता) का परिणाम अर्जन क्षमता में हानि नहीं होता,
    (2) किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण शरीर के संदर्भ में स्थाई अपंगता का प्रतिशत अर्जन क्षमता में  हानि का प्रतिशत नहीं माना जा सकता दूसरे शब्दों में अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वही नहीं होता जो स्थाई अपंगता की प्रतिशत हो। (कुछ मामलों को छोड़कर जिनमें साक्ष्य के आधार पर अधिकरण इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो कि अ र्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वही है जो स्थाई अपंगता का प्रतिशत है)
    (3) चिकित्सक जिसने घायल दावेदार का उपचार किया हो, जिसने बाद में उसका परीक्षण किया हो उसकी स्थाई विकलांगता के संबंध में साक्ष्य दे सकता है। अर्जन क्षमता में हानि का आंकलन अधिकरण द्वारा समस्त साक्षियों के संदर्भ में किया जाना होगा।
    (4) एक ही प्रकार की स्थाई अपंगता का परिणाम भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में उनके व्यवसाय की प्रकृति, कार्य, आयु, शिक्षा एवं अन्य तथ्यों के अनुसार अर्जन क्षमता भिन्न-भिन्न प्रतिशत की हानि हो सकती है।
14.    भविष्य के अर्जन की हानि के आंकलन की, निम्नांकित उद्धरण के सन्दर्भ में व्याख्या की जा रही है:
    उद्धरण ‘अ’: घायल कर्मकार की आयु 30 वर्ष थी और दुर्घटना के समय वह 3,000 रूपये प्रतिमाह अर्जित कर रहा था। चिकित्सक के साक्ष्य के अनुसार, चोट के कारण उसके अंग की स्थायी अपंगता 60 प्रतिशत थी और फलस्वरूप उस व्यक्ति की स्थायी विकलांगता का आंकलन 30 प्रतिशत किया गया। अधिकरण द्वारा आंकलित अर्जन क्षमता में हानि, साक्ष्य के आधार पर 15 है क्योंकि दावेदार अपनी सेवा में कार्यरत है, किन्तु निम्नतर संवर्ग में। प्रतिपूर्ति का आगणन निम्नानुसार होगाः
(अ) दुर्घटना से पूर्व वार्षिक आय                                                 36000 रूपये
(ब) भविष्य में अर्जन की हानि, प्रतिवर्ष (पूर्व को                             5400 रूपये  
    वार्षिक आय का 15 प्रतिशत)
(स) आयु के सन्दर्भ में लागू गुणक                                               17
(द) भविष्य में अर्जन की हानि (5400 गुणित 17)                         91800 रूपये
    उद््धरण ‘ब--घायल एक 30 वर्षीय चालक था जो 3000 रूपये प्रतिमाह अर्जित करता था। उसका हाथ काट दिया गया और उसकी स्थायी अपंगता 60 प्रतिशत आंकलित की गई। उसे अपनी सेवा से निकाल दिया गया क्योंकि अब वह चालन नहीं कर सकता था। उसे कोई अन्य सेवायोजन प्राप्त होने की सम्भावना भी क्षीण थी, और यदि कोई कार्य मिलेगा भी तो वेतन कम ही होगा। इसलिए अधिकरण ने उसकी भविष्य में अर्जन क्षमता की हानि को 75 प्रतिशत आंकलित किया। प्रतिपूर्ति का अगणन निम्नानुसार होगा:
(अ) दुर्घटना से पूर्व वार्षिक आय                                                36000 रूपये
(ब) भविष्य में अर्जन की हानि, प्रतिवर्ष (पूर्व की                            27000 रूपये
   वार्षिक आय का 75 प्रतिशत)
(स) आयु के सन्दर्भ में लागू गुणक                                               17
(द) भविष्य में अर्जन की हानि (27000 गुणित 17)                      45900 रूपये
    उद्धरण ‘स’: घायल की आयु 25 वर्ष और वह इन्जीनियरिंग के अन्तिम वर्ष का छात्र था। दुर्घटना के परिणामस्वरूप वह दो माह तक कोमा में रहा, उसका दाहिना हाथ काट दिया गया और दृष्टि भी प्रभावित हुई। उसकी स्थायी अक्षमता 70 प्रतिशत आंकलित की गई। क्योंकि घायल अपने चयनित कैरियर के अनुश्रवण के लिए अयोग्य हो गया और क्योंकि उसे जीवनपर्यन्त एक नौकर की सहायता की आवश्यकता हो गई, अतः भविष्य में अर्जन क्षमता में हानि का आंकलन भी 70 प्रतिशत किया गया। प्रतिपूर्ति का आगणन इस प्रकार होगा:
(अ) यदि वह इन्जीनियर के रूप में सेवायोजित होता तो            60000 रूपये
न्यूनतम वार्षिक आय जो वह प्राप्त करता
(ब) भविष्य में अर्जन की हानि, प्रतिवर्ष (आपेक्षित वार्षिक            42000 रूपये
आय का 70 प्रतिशत)
(स) लागू गुणक (25 वर्ष)                                                    18
(द) भविष्य में अर्जन की हानि (42000 गुणित 18)                 756000 रूपये
    (नोट: उद्धरण (अ) एवं (ब) में अपनाये गये आंकड़े काल्पनिक हैं। तथापि उद्धरण (स) के आंकड़े, अरविंद कुमार मिश्रा (उक्त) में निर्णय के वास्तविक आंकड़ों पर आधार हैं।)
15.     अधिनियम में धारा 163-ए जोड़े जाने के बाद (14 नवम्बर, 1994 से) यदि घायल द्वारा उस धारा के अन्तर्गत प्रतिपूर्ति का दावा किया जाता है, अपंगता आरोपित करते हुए, और यदि भविष्य में अर्जन में हानि की मात्रा का दावा अधिनियम की द्वितीय अनुसूची के अन्तर्गत आता है, तो अधिकरण को प्रतिपूर्ति के निर्धारण हेतु निम्नांकित सिद्धान्त लागू करने पड़ सकते हैं, जो कि अधिनियम की द्वितीय अनुसूची के नोट (5) में निहित है:
    5. गैर-घातक दुर्घटनाओं में अक्षमता:
    गैर-घातक दुर्घटनाओं में दुर्घटना ग्रस्त की अक्षमता के मामले में निम्नांकित प्रतिपूर्ति का भुगतान किया जायेगा:
    आय की हानि, यदि हो, अक्षमता की वास्तविक अवधि हेतु जो बावन सप्ताह से अधिक नहीं होगी।
    इसके अतिरिक्त निम्नांकित में से कोई एक:
    (अ) स्थायी पूर्ण विकलांगता के मामले में भुगतान योग्य राशि का आगणन आय में वार्षिक हानि को, प्रतिपूर्ति निर्धारण के दिनांक पर आयु के लिए लागू गुणक से गुणा करके किया जायेगा, अथवा
    (ब) स्थायी आंशिक विकलांगता के मामले में उस प्रतिपूर्ति का ऐसा प्रतिशत जो स्थायी पूर्ण विकलांगता, जैसा कि उपर बिन्दु (अ) में वणित है, के मामले में भुगतान योग्य होता। चोटें जिनके परिणामस्वरूप स्थायी पूर्ण विकलांगता/स्थायी आंशिक विकलांगता तथा अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत, कर्मकारों के प्रति अधिनियम, 1923 के अन्तर्गत अनुसूची 1 के अनुसार होगा। (जोर दिया गया)
16.    इस परिप्रेक्ष्य में हम उन परेशानियों को सन्दर्भित करेंगे जिनका सामना दावेदारों को व्यस्त शल्य चिकित्सकों या उपचार करने वाले चिकित्सकों, जिन्होंने उनका उपचार किया, को साक्ष्य देने हेतु उपस्थिति कराने में करना पड़ता है। इनमें से अधिकांश अधिकरण के समक्ष उपस्थित होने में आना-कानी करते हैं जिसका स्पष्ट कारण है कि या तो अधिकरण में उपस्थित होकर एक मामले में साक्ष्य देने में उनका सम्पूर्ण दिवस नष्ट हो सकता है अथवा क्योंकि उनके साक्ष्य को अभिलिखित किए जाने में कोई प्राथमिकता नहीं दर्शायी जाती या क्योंकि दावा याचिका ऐसे स्थान पर योजित होती है जो उस स्थान से बहुत दूर होता है जहां पर उपचार किया गया। कई बार, दावेदार उन चिकित्सकों को बुलाने के लिए कोई कड़ी कार्यवाही नहीं करना चाहते हैं, जिन्होंने उनका उपचार किया है, क्योंकि वे उनका सम्मान करते हैं एवं आभारी होते हैं अथवा उन्हें यह भय होता है कि उन्हें उनकी इच्छा के विरूद्ध आने के लिए दबाव डाला गया तो हो सकता है वे उनके पक्ष में साक्ष्य न दें। इस कारण घायलय दावेदार बाध्य हो जाते हैं ‘‘व्यवसायिक’’ प्रमाण-पत्र दाताओं के पास जाने के लिए, और जिनके साक्ष्य अधिकांशतया सन्तोषजनक नहीं पाये जाते हैं। अधिकरणों को यह समझना चाहिए कि कोई व्यस्त शल्य चिकित्सक जितना समय किसी एक दुर्घटना प्रकरण में साक्ष्य देने के लिए अधिकरण में उपस्थित होने में व्यय करता है उतने समय में वह दस प्राणों को बचा सकता है अथवा बीस शल्य क्रियाए कर सकता है। अनेक व्यस्त शल्य चिकित्सक, चिकित्सा-विधिक मामलों में उपचार करने से मना कर देते हैं इस परिकल्पना के आधार पर कि यदि उन्हें अपने पूर्व के मरीजों के सम्बन्ध में साक्ष्य देने हेतु अपने दिन अधिकरण में बिताने पड़े तो उनका व्यवसाय एवं वर्तमान मरीज प्रभावित हो सकते हैं। इसका समाधान यह नहीं है कि चिकित्सक को, साक्ष्य देने हेतु अधिकरण में उपस्थित होने के लिए बाध्य किया जाये। इसका समाधान चिकित्सकों के बहुमूल्य समय को समझने और समन्वय करने में है। प्रथमतः, प्रयास किया जाना चाहिए  कि उपचार करने वाले चिकित्सक का साक्ष्य उनके सुविधानुसार समय ले कर अभिलेखित किया जाय। दूसरे, यदि चिकित्सक साक्ष्य देने हेतु अधिकरण में उपस्थित होता है तो उनका साक्ष्य अविलम्ब अभिलेखित किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उन्हें सुनिश्चित किया जा सके कि उन्हें सुनिश्चित किया जा सके कि उन्हें प्रतीक्षा  करनी पड़े। तृतीय, चिकित्सकों को साक्ष्य देने हेतु अधिकरण में उपस्थित होने के लिए निश्चित समय दिया जाये बजाय इसके कि वे प्रातः 10-30 या 11-00 बजे आ कर कोर्ट हाल में प्रतीक्षा करते रहें। चैथा, ऐसे मामलों में जिनमें प्रतिवादी द्वारा प्रमाण-पत्रों का विरोध नहीं किया गया हो, उनमें उनकी सहमति से, मौखिक साक्ष्य की आवश्यकता को समाप्त कर दिया जाय। विशेषज्ञों के साक्ष्य प्राप्त करने हेतु इन छोटे-छोटे उपायों एवं किन्हीं अन्य उचित उपायों द्वारा न्यायोचित प्रतिपूर्ति का आकलन सुनिश्चित किया जा सकता है, और इससे अधिक यह दर्शायेगा कि न्यायालय/ अधिकरण वादी एवं साक्ष्यों के प्रति सहानुभूति रखते हैं।
प्रतिपूर्ति का आंकलन:
17.    इस मामले में अधिकरण ने अक्षमता प्रमाण-पत्र पर कार्यवाही की है किन्तु उच्च न्यायालय को उसके स्वीकार्य होने पर संदेह था क्योंकि उसने पाया कि घायल का उपचार दिल्ली के सरकारी अस्पताल में हुआ था जबकि अशक्तता प्रमाण-पत्र उत्तर प्रदेश राज्य के जिला अस्पताल द्वारा जारी किया गया था। उच्च न्यायालय द्वारा प्रदत्त अस्वीकृति का कारण, दो कारणोंवश उचित नहीं प्रतीत होता है। पहला, यह कि, यद्यपि दुर्घटना दिल्ली में हुई और घायल दावेदार का उपचार, दुर्घटना के बाद दिल्ली के अस्पताल में हुआ था, क्योंकि वह उत्तर प्रदेश में जिला गाजियाबाद के पड़ोस में स्थित, चिरोरी मण्डी का निवासी था, जो कि दिल्ली के बाहरी क्षेत्र में है, हो सकता है कि उसने अपने निवास के स्थान पर उपचार जारी रखा हो। दूसरा, यह कि यह प्रमाण-पत्र मुख्य चिकित्सा अधिकारी, गाजियाबाद द्वारा निर्गत किया गया है एवं जो चिकित्सा परिषद्, जिसमें एक हड्डी रोग शल्य चिकित्सा भी है, द्वारा किए गए आंकलन के आधार पर है। इसलिए हमारी राय है कि उच्च न्यायालय को कथित अपंगता प्रमाण-पत्र अस्वीकार नहीं करना चाहिए था
18.    अधिकरण ने इस आधार पर कार्यवाही की है कि घायल दावेदार की स्थायी विकलांगता 45 प्रतिशत थी और उसके भविष्य में अर्जन क्षमता की हानि भी 45 प्रतिशत थी। अधिकरण ने इस तथ्य को नजर अन्दाज किया है कि विकलांगता प्रमाण-पत्र में 45 प्रतिशत अक्षमता बांये नीचे के अंग हेतु संदर्भित है न कि सम्पूर्ण शरीर के सम्बन्ध में। एक अंग की कथित स्थायी अक्षमता को शरीर की क्रियात्मक अक्षमता नहीं माना जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि इससे उती ही हानि अर्जन क्षमता में होगी, क्योंकि इस अक्षमता से वह पनीर विक्रेता के रूप में अपना व्यवसाय करने में बाधित नहीं होगा, यद्यपि, इससे उसके सुचारू रूप से कार्य करने में अवरोध हो सकता है। सामान्यतः, स्पष्ट एवं पर्याप्त साक्ष्य के अभाव के कारण इस पहलू पर अग्रेतर साक्ष्य हेतु मामले की पुनः सुनवाई करने की आवश्यकता होती। तथापि, प्रकरण को पुनरोद्धारित किए जाने के बजाय, लगभग दो दशकों के दीर्घकाल के बाद तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर न्याय करने हेतु हम शरीर की स्थायी क्रियात्मक अक्षमता 25 प्रतिशत आंकलित किया जाना प्रस्तावित करते हैं तथा भविष्य में अर्जन क्षमता की हानि 20 प्रतिशत।
19.    साक्ष्य दर्शाते हैं कि दुर्घटना के समय अपीलार्थी की आयु लगभग 25 वर्ष थी और वह अपना जीवकोपार्जन एक पनीर विक्रेता के रूप में कर रहा था। उसने दावा किया कि वह 3000 रूपये प्रतिमाह अर्जित करता था। अधिकरण ने अवधारित किया कि क्योंकि अपीलार्थी की आय का कोई स्वीकार्य साक्ष्य नहीं है उसे 900 रूपये प्रतिमाह आंकलित किया जाना चाहिए क्योंकि न्यूनतम मजदूरी 891 रूपये प्रतिमाह थी। किसी फेरीवाले से उसकी आय के सम्बन्ध में किसी खाते अथवा अन्य अभिलेख की अपेक्षा करना बहुत कठिन होगा। क्योंकि दुर्घटना वर्ष 1991 में हुई थी, अधिकरण को उसकी आय कम से कम 1500 रूपये प्रतिमाह मानना चाहिए था (50 रूपये प्रतिदिन की दर से) अथवा 18000 रूपये प्रतिवर्ष, आय के संबंध में कोई अभिलेखीय  साक्ष्य न होते हुए भी।
20.    अक्षमता युक्त घायल दावेदार में मामले में, जिसका आगणन किया जाता है वह होती है भविष्य में अर्जन की हानि, जो दावेदार को देय होती है (जैसा कि, घातक दुर्घटना के मामले में, जहा मृतक के आश्रित परिजन दावेदार होते हैं, निर्भरता की हानि आगणित की जाती है) इसलिए, व्यक्तिगत जीवन व्यय के विरूद्ध, आय से एक-तिहाई या कोई अन्य प्रतिशत कटौती करने की आवश्यकता नहीं है।
21.    जब अपीलार्थी की आय 18000 रूपये प्रतिवर्ष आंकलित है तो क्रियात्मक अक्षमता के कारण अर्जन की हानि 18000 रूपये का 20 प्रतिशत होगी जो कि 3600 रूपये प्रतिवर्ष होता है। क्योंकि दुर्घटना के समय अपीलार्थी की आयु 25 वर्ष थी, लागू किए जाने वाला गुणक होगा 18। अतः, भविष्य में आय की हानि होगी 3600 x 18 = 64800 रूपये (न कि 55080 रूपये जो कि दावा अधिकरण द्वारा निर्धारित किया गया)  हमारी यह भी राय है कि उपचार की अवधि (01 अक्टूबर, 1991 से 16 जून, 1992) में आय की हानि, साढ़े साठ महीनों के लिए 1500 रूपये की दर से 12750 रूपये होनी चाहिए, न कि 3600 रूपये जो कि अधिकरण द्वारा निर्धारित की गई। इन दो मदों में बढ़ोत्तरी की 20000 रूपये में पूर्णांकित किया जाता है।
22.    उपरोक्त के दृष्टिगत, हम इस अपील को अंशतः स्वीकार करते हैं और प्रतिपूर्ति में 20000 रूपये की वृद्धि करते हैं, जिस पर अधिकरण द्वारा अधिनिर्णीत दर से ब्याज देय होगा, याचिका के दिनांक से भुगतान के दिनांक तक। -अपील अंशतः अनुज्ञात

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