अन्वेषण के दौरान पुलिस अधिकारी द्वारा
धारा 161 द.प्र.सं. के अंतर्गत साक्षियों के
लिये गये कथन की प्रति यदि अभियुक्त को
नहीं दी जाती है तो विचारण पर इसका
क्या प्रभाव होगा ?
धारा 161 (1) दं.प्र.सं. यह प्रावधान करती है
कि किसी संज्ञेय अपराध के अन्वेषण के समय
पुलिस अधिकारी किसी ऐसे व्यक्ति की, जो
मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों से परिचित
है, मौखिक परीक्षा कर सकेगा । इसमें वे
कथन भी सम्मिलित हैं जो मर्ग की जांच के
समय लिये गये । (देखिये बेदीलाल रजक
विरूद्ध स्टेट आफ मध्यप्रदेश, एम.पी.एल.
जे. 496) तथा वे कथन भी सम्मिलित हैं जो
प्रारंभिक जांच के दौरान लिये गये हैं ।
(देखिये दामोदर देव विरूद्ध स्टेट आफ
मध्यप्रदेश, 1998 (2) छ 217) । धारा
161(3) यह प्रावधान करती है कि ऐसा
अधिकारी कथन को लेख बद्ध करता है तो
वह उसका पृथक से सही अभिलेख तैयार
करेगा । धारा 170 यह प्रावधान करती है कि
अन्वेषण के पश्चात् यदि पुलिस अधिकारी की
यह राय है कि अभियुक्त के विरूद्ध पर्याप्त
आधार है तो वह धारा 173(2) की रिपोर्ट
संबंधित मजिस्टेंट को अभियुक्त के विचारण
के लिये भेजेगा । धारा 173 (5) यह प्रावधान
करती है कि रिपोर्ट के साथ अन्वेषण के
दौरान धारा 161 के तहत लिये गये कथन,
जिन्हें अभियोजन साक्ष्य के दौरान प्रस्तुत
करना चाहता है, भेजेगा । धारा 207
न्यायालय पर यह कर्तव्य अधिरोपित करती है
वह अभियुक्त को आरोप पत्र एवं समस्त
दस्तावेजों की प्रति उपलब्ध कराये ।
यदि हम धारा 173 (5) दं.प्र.सं. एवं 207 द.प्र.
सं. की शब्दावली देखें तो आज्ञापक प्रावधान
प्रतीत होता है । धारा 173 (5)एवं 207 दोनों
ही “shall” शब्द का प्रयोग करते हैं ।
परंतु यह आवश्यक नहीं है कि जहां
“shall” शब्द का प्रयोग हो वह आज्ञापक ही हो ।
निश्चित ही धारा 161 के कथन एवं दस्तावेज
अभियुक्त को देने के पीछे उददेश्य यह है कि
अभियुक्त को विचारण के पूर्व यह ज्ञात हो
जाये कि उसके विरूद्ध क्या आरोप हैं एवं
किस प्रकृति की साक्ष्य उसके विपरीत
अभियोजन प्रस्तुत करेगा । वास्तव में इसका
उददेश्य मात्र यह है कि अभियुक्त को
विचारण के पूर्व अभियोग की पूरी तस्वीर
स्पष्ट हो सके, जिससे वह अपना उचित
बचाव कर सके । परन्तु इसके अभाव में
न्यायालय का विचारण का क्षेत्राधिकार
प्रभावित नहीं होता । यद्यपि बलराम विरूद्ध
इम्परर, ए.आई.आर. 1945 Nag. 1 एवं
मगनलाल विरूद्ध इम्परर, ए.आई.आर.
1946 Nag. 173 में माननीय उच्च न्यायालय
ने यह निर्धारित किया है कि अन्वेषण के
दौरान लिये कथनों की प्रति अभियुक्त को
प्रदान नहीं किया जाना प्रक्रिया की मूलभूत
कमी है और इससे अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा
करने में असमर्थ होता है इसलिये ऐसा साक्षी,
जिनके कथन अभियुक्त को नहीं दिये गये,
उनकी अभिसाक्ष्य साक्ष्य में ग्राह्य नहीं है ।
परन्तु नारायण राव विरूद्ध आंध्रपेरदश
राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 737 में
माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह मत दिया
कि अभियुक्त को धारा 161 के कथनों की
प्रति नहीं दी जाना मात्र विचारण को दूषित
नहीं करता है । उपरोक्त मत का अनुसरण
करते हुए उच्चतम न्यायालय ने नूर खान
विरूद्ध स्टेट आफ राजस्थान, ए.आई.आर.
1964 एस.सी. 286 में विधि को स्थिर करते
हुए यह प्रतिपादित किया कि अभियोग पत्र के
साथ प्रस्तुत दस्तावेजों की प्रति अभियुक्त को
नहीं देने से विचारण तब तक दूषित नहीं
होता जब तक न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं
पहुंचे कि इसके अभाव में अभियुक्त पूर्वाग्रह
से ग्रसित हुआ है । यदि न्यायालय ऐसा
पाता है तो ऐसी कमी को दूर करने के लिये
प्रतियां दिलाने का आदेश कर सकता है तथा
पुनः प्रतिपरीक्षण का मौका दे सकता है ।
परन्तु पूर्वाग्रह का आंकलन करने के लिये
न्यायालय को देखना होगा कि क्या अभियुक्त
ने विचारण न्यायालय से सही समय पर
इसकी मांग की ? तथा किस प्रकार से
अभियुक्त ने साक्षियों का विचारण के दौरान
प्रतिपरीक्षण किया एवं किस प्रकार से मामले
की पैरवी (Conduct) की । यदि कोई पूर्वाग्रह
कारित नहीं हुआ है तो दोष सिद्धि अवैधानिक
नहीं है । नवीनतम वाद शकीला अब्दुल
गफ्फार खान विरूद्ध वसंत रघुनाथ
धोबले, (2003) 7 एस.सी.सी. 749,
सुनीता देवी विरूद्ध बिहार राज्य, (2005)
1 एस.सी.सी. 608 में भी माननीय उच्चतम
न्यायालय ने यही निर्धारित किया है कि धारा
161 दं.प्र.सं के कथनों की प्रति अभियुक्त को
नहीं देने मात्र से ही विचारण दूषित नहीं
होता।
धारा 161 द.प्र.सं. के अंतर्गत साक्षियों के
लिये गये कथन की प्रति यदि अभियुक्त को
नहीं दी जाती है तो विचारण पर इसका
क्या प्रभाव होगा ?
धारा 161 (1) दं.प्र.सं. यह प्रावधान करती है
कि किसी संज्ञेय अपराध के अन्वेषण के समय
पुलिस अधिकारी किसी ऐसे व्यक्ति की, जो
मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों से परिचित
है, मौखिक परीक्षा कर सकेगा । इसमें वे
कथन भी सम्मिलित हैं जो मर्ग की जांच के
समय लिये गये । (देखिये बेदीलाल रजक
विरूद्ध स्टेट आफ मध्यप्रदेश, एम.पी.एल.
जे. 496) तथा वे कथन भी सम्मिलित हैं जो
प्रारंभिक जांच के दौरान लिये गये हैं ।
(देखिये दामोदर देव विरूद्ध स्टेट आफ
मध्यप्रदेश, 1998 (2) छ 217) । धारा
161(3) यह प्रावधान करती है कि ऐसा
अधिकारी कथन को लेख बद्ध करता है तो
वह उसका पृथक से सही अभिलेख तैयार
करेगा । धारा 170 यह प्रावधान करती है कि
अन्वेषण के पश्चात् यदि पुलिस अधिकारी की
यह राय है कि अभियुक्त के विरूद्ध पर्याप्त
आधार है तो वह धारा 173(2) की रिपोर्ट
संबंधित मजिस्टेंट को अभियुक्त के विचारण
के लिये भेजेगा । धारा 173 (5) यह प्रावधान
करती है कि रिपोर्ट के साथ अन्वेषण के
दौरान धारा 161 के तहत लिये गये कथन,
जिन्हें अभियोजन साक्ष्य के दौरान प्रस्तुत
करना चाहता है, भेजेगा । धारा 207
न्यायालय पर यह कर्तव्य अधिरोपित करती है
वह अभियुक्त को आरोप पत्र एवं समस्त
दस्तावेजों की प्रति उपलब्ध कराये ।
यदि हम धारा 173 (5) दं.प्र.सं. एवं 207 द.प्र.
सं. की शब्दावली देखें तो आज्ञापक प्रावधान
प्रतीत होता है । धारा 173 (5)एवं 207 दोनों
ही “shall” शब्द का प्रयोग करते हैं ।
परंतु यह आवश्यक नहीं है कि जहां
“shall” शब्द का प्रयोग हो वह आज्ञापक ही हो ।
निश्चित ही धारा 161 के कथन एवं दस्तावेज
अभियुक्त को देने के पीछे उददेश्य यह है कि
अभियुक्त को विचारण के पूर्व यह ज्ञात हो
जाये कि उसके विरूद्ध क्या आरोप हैं एवं
किस प्रकृति की साक्ष्य उसके विपरीत
अभियोजन प्रस्तुत करेगा । वास्तव में इसका
उददेश्य मात्र यह है कि अभियुक्त को
विचारण के पूर्व अभियोग की पूरी तस्वीर
स्पष्ट हो सके, जिससे वह अपना उचित
बचाव कर सके । परन्तु इसके अभाव में
न्यायालय का विचारण का क्षेत्राधिकार
प्रभावित नहीं होता । यद्यपि बलराम विरूद्ध
इम्परर, ए.आई.आर. 1945 Nag. 1 एवं
मगनलाल विरूद्ध इम्परर, ए.आई.आर.
1946 Nag. 173 में माननीय उच्च न्यायालय
ने यह निर्धारित किया है कि अन्वेषण के
दौरान लिये कथनों की प्रति अभियुक्त को
प्रदान नहीं किया जाना प्रक्रिया की मूलभूत
कमी है और इससे अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा
करने में असमर्थ होता है इसलिये ऐसा साक्षी,
जिनके कथन अभियुक्त को नहीं दिये गये,
उनकी अभिसाक्ष्य साक्ष्य में ग्राह्य नहीं है ।
परन्तु नारायण राव विरूद्ध आंध्रपेरदश
राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 737 में
माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह मत दिया
कि अभियुक्त को धारा 161 के कथनों की
प्रति नहीं दी जाना मात्र विचारण को दूषित
नहीं करता है । उपरोक्त मत का अनुसरण
करते हुए उच्चतम न्यायालय ने नूर खान
विरूद्ध स्टेट आफ राजस्थान, ए.आई.आर.
1964 एस.सी. 286 में विधि को स्थिर करते
हुए यह प्रतिपादित किया कि अभियोग पत्र के
साथ प्रस्तुत दस्तावेजों की प्रति अभियुक्त को
नहीं देने से विचारण तब तक दूषित नहीं
होता जब तक न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं
पहुंचे कि इसके अभाव में अभियुक्त पूर्वाग्रह
से ग्रसित हुआ है । यदि न्यायालय ऐसा
पाता है तो ऐसी कमी को दूर करने के लिये
प्रतियां दिलाने का आदेश कर सकता है तथा
पुनः प्रतिपरीक्षण का मौका दे सकता है ।
परन्तु पूर्वाग्रह का आंकलन करने के लिये
न्यायालय को देखना होगा कि क्या अभियुक्त
ने विचारण न्यायालय से सही समय पर
इसकी मांग की ? तथा किस प्रकार से
अभियुक्त ने साक्षियों का विचारण के दौरान
प्रतिपरीक्षण किया एवं किस प्रकार से मामले
की पैरवी (Conduct) की । यदि कोई पूर्वाग्रह
कारित नहीं हुआ है तो दोष सिद्धि अवैधानिक
नहीं है । नवीनतम वाद शकीला अब्दुल
गफ्फार खान विरूद्ध वसंत रघुनाथ
धोबले, (2003) 7 एस.सी.सी. 749,
सुनीता देवी विरूद्ध बिहार राज्य, (2005)
1 एस.सी.सी. 608 में भी माननीय उच्चतम
न्यायालय ने यही निर्धारित किया है कि धारा
161 दं.प्र.सं के कथनों की प्रति अभियुक्त को
नहीं देने मात्र से ही विचारण दूषित नहीं
होता।
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