भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के अधीन उपबंधित किसी अपराध के अभियुक्त को उपलब्ध
सुरक्षा
दांडिक विधि का सामना करने वाला व्यक्ति अंततः प्राण व दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित हो जाता है, अतः भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20 स्वैच्छिक व अत्यधिक दंड के विरूद्ध अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सुरक्षा प्रदान करने का आष्वासन देता है। अनुच्छेद 20 में प्रदत्त अधिकार एक महत्वपूर्ण मूलभूत अधिकार है एवं यह अधिकार उन व्यक्तियो को प्राप्त है, जिन पर किसी प्रकार का अपराध करने का अभियोग लगाया गया है। यह अनुच्छेद अपराध के अभियुक्त व्यक्तियो को अपनी रक्षा करने के लिए निम्नतीन प्रकार की संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करता हैः-
1. कार्योत्तर विधि से संरक्षण [Protection from Expostfacto law अनुच्छेद 20 (1)]
2. दोहरे जोखिम से संरक्षण [Protection from double jeopardy अनुच्छेद 20 (2)] एवं
3. आत्मअभिषंसन के विरूद्ध संरक्षण [Protection from self-incrimination अनुच्छेद 20(3)]
कार्योत्तर विधि से संरक्षण (अनुच्छेद 20 (1))
अनुच्छेद 20 (1) में वर्णित ’’कार्योत्तर विधियों से संरक्षण’’ से तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति, कार्य के समय प्रवृत्त विधि एवं उसमें वर्णित सीमा तक के ही दण्ड से ही दण्डित किया जायेगा। जब किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक कृत्य के लिए दण्डित किया जाना है, तब उक्त व्यक्ति को अनुच्छेद 20 (1) दो प्रकार से संरक्षण प्रदान करता हैः-
(अ) कोई व्यक्ति किसी ऐसे कृत्य के लिए दंडित नहीं किया जाएगा, जो उसे करते समय किसी प्रवृत्त विधि के अंतर्गत दंडनीय न हो।
(ब) कोई व्यक्ति कार्य करते समय प्रवृत्त विधि में वर्णित दण्ड की सीमा से अधिक दण्ड से दंडित नहीं किया जाएगा (पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध एस. के. घोष, ए. आई. आर. 1963 एस.सी. 255)।
इस संबंध मे अवलाके नीय है कि विधान मंडल साधारणतः भूतलक्षी व भविष्यलक्षी विधियाँ निर्मित कर सकता है, परंतु अनुच्छेद 20 (1) विधान मंडल को भूतलक्षी आपराधिक विधियाँ निर्मित करने से वर्जित करता है। अनुच्छेद 20(1) का संरक्षण केवल आपराधिक कार्यवाहियों में प्रयोज्य है (मकबूल विरूद्ध स्टेट, ए.आई. आर. 1953 एस. सी. 325)। व्यवहार विधियों के संबंध में विधान मंडल भूतलक्षी प्रावधान/विधि निर्मित करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है। व्यवहार विधियों से तात्पर्य यह है कि
(अ) कर अधिरोपण करने की शक्ति
(ब) धारा 2 (2) मध्यप्रदेष आबकारी अधिनियम 1915 के अधीन पट्टे के संबंध में ड्यूटी, भूतलक्षी प्रभाव से अधिरोपित करने के लिए राज्य सरकार सषक्त है, क्योंकि कर/ड्यूटी व्यवहार क्षेत्राधिकार मे आते हैं, न कि शास्ति के रूप में। प्रवृत्त विधि से तात्पर्य ऐसी विधि से है, जो वास्तव में अस्तित्व में है और आपराधिक कृत्य करते समय प्रवर्तनीय है (राव षिवबहादुर सिंह विरूद्ध स्टेट आफ विंध्य प्रदेष ए.आई. आर., 1953 एस.सी. 394)।
कार्योत्तर विधि के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय व माननीय उच्च न्यायालयो के द्वारा समय-समय पर निर्णयज विधि एवं मार्गदर्षक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए है, जो मुख्यतः निम्नानुसार हैं:-
(अ) भूतलक्षी कृत्य का संरक्षण:- इस संबंध मे सोनी देवराज बाबूभाई विरूद्ध गुजरात राज्य, ए.आई. आर. 1991 एस. सी. 2173 अवलोकनीय है। इसमें माननीय न्यायालय के द्वारा यह घोषित किया कि धारा 304-बी भा.द.वि., जो कि दिनांक 19/11/1986 को संषोधन के माध्यम से जोड़ी गयी थी तथा दहेज-मृत्यु का सुभिन्न अपराध सृजित करते हुए कम से कम सात वर्ष के कारावास का उपबंध करती है, इस प्रकार की मृत्यु पर लागू नहीं होगी, जो अंतः स्थापित दिनांक के पूर्व हुई हो।
(ब) वर्धित दण्ड:- इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केदारनाथ बाजोरिया विरूद्ध पष्चिम बंगाल राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 404, में महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसके तथ्य इस प्रकार से हैं कि अपीलार्थी अभियुक्त ने वर्ष 1947 में एक विधि के अंतर्गत दण्डनीय अपराध किया, जिसके तहत निर्धारित कारावास या जुर्माना या दोनों के दण्डादेष का प्रावधान था। उक्त अधिनियम में पष्चात्वर्ती संषोधन कर जुर्माना राषि में वृद्धि कर दी गयी, जो कि अभियुक्त के पास से प्राप्त राषि के बराबर थी। सर्वोच्च न्यायालय ने पष्चात्वर्ती संषोधन को अनुच्छेद 20 (1) का उल्लघंन मानते हुए अमान्य किया।
(स) अनुच्छेद 20 (1) की सुरक्षा कब लागू नहीं:- अनुच्छेद 20 (1) केवल दोषसिद्धि और दंड से संरक्षण प्रदान करता है न कि विचारण प्रक्रिया में संषोधन से। यदि किसी अपराध में विचारण प्रक्रिया संबंधी प्रावधान, किसी व्यक्ति के कृत्य के समय प्रवृत्त विधि के पष्चात् विधान मंडल द्वारा संषोधित किए जाते है, तो विचारण प्रक्रिया संबंधी प्रावधान के संषोधन से संरक्षण प्राप्त नहीं है (आर.एस.बी.सिंह विरूद्ध विंध्य प्रदेष राज्य, (उपरोक्त)) इस संबंध में बिहार राज्य विरूद्ध शैलबाला, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 329 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया कि निवारक निरोध के विरूद्ध या किसी व्यक्ति से सुरक्षा की मांग या अजमानतीय मामलों मे अनुच्छेद 20 (1) का संरक्षण प्राप्त नहीं होगा। इसी प्रकार माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्यवहार प्रकृति के मामलों मे अनुच्छेद 20 (1) के उपबंध लागू न होने के संबंध मे महत्वपूर्ण निर्णय हाथी सिंह मेनुफेक्चरिंग कंपनी विरूद्ध भारत संघ, ए.आई.आर. 1960 एस.सी. 923 में प्रतिपादित किया गया कि व्यवहार दायित्व के संबंध में भूतलक्षी प्रभाव के प्रावधान अधिरोपित किये जा सकते है, परंतु इसका विस्तार अनुच्छेद 20 (1) में प्राप्त संरक्षण के उल्लंघन तक नहीं किया जा सकता है।
(द) लाभकारी उपबंध:- माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 20 (1) के प्रावधान का लचीला निर्वाचन करते हुए रतनलाल विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 444 में अभिनिर्णित किया गया कि यदि कोई भूतलक्षी विधि किसी कठोरता को कम करती है तब लाभकारी उपबंध का
निर्वाचन अभियुक्त के पक्ष मे किया जाना चाहिए। ऐसी विधि, जो किसी दंड में न्यूनतम अर्थदंड या न्यनू तम कारावास की सजा का प्रावधान करती है तो ऐसे न्यूनतम दंड से व्यक्ति को दंडित किया जा सकेगा, चाहे उसके कार्य करते समय उक्त अपराध में वह न्यूनतम दंड प्रावधानित था या नहीं तथा उसे ऐसा नहीं समझा जाएगा कि वह किसी वर्धित दंड का प्रावधान है, (के. सतबंत सिंह विरूद्ध स्टेट, ए.आई.आर. 1960 एस.सी. 266)।
दोहरे दंड से संरक्षण
भारतीय संविधान मे अनुच्छेद 20 (2) मे किसी अपराध के अभियुक्त/दोषी व्यक्ति को बचाव प्रदत्त किया गया है-’’ किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा।’’ उक्त सिद्धांत का प्रेरणा स्त्रोत अंग्रेजी व अमेरिकन न्याय शास्त्र का सर्वविदित सिद्धांत nemo debet bis vexari (अर्थात् किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दोहरे दण्ड से दंडित नहीं किया जाना चाहिए)। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त संरक्षण उक्त दोनों दोषो में प्रदत्त संरक्षण की अपेक्षा सीमित है, क्योंकि यदि दोनों दोषो में किसी अभियुक्त व्यक्ति का एक बार विचारण किया जा चुका है एवं उसे परीक्षण में उन्मोचित कर दिया गया हो, तो भी पुनः उस कृत्य के अपराध के लिए विचारित नहीं किया जाएगा, किंतु भारतीय संविधान के अनुसार उक्त अनुच्छेद में संरक्षण तभी प्राप्त है, जब उसे अभियोजित तथा दंडित किया गया हो। यदि परीक्षण में उसे न्यायालय के द्वारा उन्मोचित कर दिया गया हो तो पुनः उसी के अपराध के लिए परीक्षण वर्जित नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (2)autrefois
convict पर आधारित है, न कि autrefois acquit पर। अनुच्छेद 20 (2) के संरक्षण के लिए तीन आवष्यक तत्व हैं:-
1. व्यक्ति का अभियुक्त होना आवष्यक है।
2. कार्यवाही न्यायिक अभिकरण के समक्ष न्यायिक प्रकृति की हो, अर्थात् प्रथम अभियोजन सक्षम न्यायालय/न्यायाधिकरण के समक्ष होना चाहिए (असिस्टेंट कलेक्टर आफ कस्टम विरूद्ध एलआर.मिलवानी, ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 962 एवं मकबूल विरूद्ध स्टेट, (उपरोक्त))। न्यायिक कार्यवाही का आषय है प्रकरण का निर्णय शपथ पर साक्ष्य के अनुसार हो।
3. उस व्यक्ति का अभियोजन किसी विधि विहित अपराध के संबंध मे हो और दण्ड का प्रावधान हो।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 20 (2) के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर व्याख्या कर इस प्रावधान को स्पष्ट किया गया है:-
(अ) धारा 300 द.प्र.सं. व अनुच्छेद 20 (2):- संविधान के अनुच्छेद 20 (2) का संरक्षण अन्य अर्थां मे आपराधिक प्रांड. न्याय का सिद्धांत है, जिसका समवर्ती प्रावधान धारा 300 द.प्र.स. मे स्थापित है, परंतु धारा 300 द.प्र.स. के प्रावधान का संरक्षण अनुच्छेद 20 (2) के संरक्षण से विस्तृत है। जहाँ अनुच्छेद 20 (2) मे प्रावधान है कि ’’किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित एवं दंडित नहीं किया जाएगा।’’ वहीं दूसरी ओर धारा 300 (1) प्रावधानित करती है कि ’’व्यक्ति न तो उसी अपराध के लिए पुनः विचारण का भागी होगा और न उन्ही तथ्यो पर किसी अन्य अपराध के लिए विचारण का भागी होगा।’’ यदि पूर्ववर्ती अभियोजन का परिणाम दोषमुक्ति है, तो उक्त सुरक्षा प्राप्त नहीं है, परंतु कलावती एवं अन्य विरूद्ध हिमाचल प्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 131 मे माननीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा मत प्रतिपादित किया गया कि धारा 300- द.प्रं.सं. दोषमुक्ति की दषा में भी पुनः विचारण किए जाने का प्रतिषेध करती है। कल्ला वीरा राघव राव विरूद्ध गोरनटिया वेकेंटेष्वरा राव एवं अन्य ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 641 में माननीय न्यायालय के द्वारा यह मत प्रतिपादित किया गया कि द.प्र.सं. की धारा 300 मे समान तथ्य तथा दोषमुक्ति पर पुनः विचारण का प्रतिषेध किया गया है, वहीं अनुच्छेद 20 (2) समान अपराध मे दोषसिद्धि की दषा मे ही प्रयोज्य है।
(ब) विभागीय या प्रषासनिक कार्यवाहियां न्यायिक कार्यवाही नहीं हैः- गुलाम अहमद विरूद्ध स्टेट आफ जम्मू एंड कष्मीर, ए.आई.आर. 1954 जे.एडं के. 59 के प्रकरण में यह मत प्रतिपादित किया गया कि निवारक निरोध न तो अभियोजन है और न ही दण्ड। अतः निवारक निरोध मे निरूद्ध व्यक्ति को अभियोजित किया जा सकता है; ऐसे प्रकरण मे अनुच्छेद 20 (2) का संरक्षण प्राप्त नहीं है। मकबूल हसन विरूद्ध बंबई राज्य, (उपरोक्त) के प्रकरण मे माननीय उच्चतम न्यायालय ने निर्णित किया कि कस्टम अधिकारी न्यायालय नहीं है, अतः कस्टम अधिकरण के द्वारा जब्तषुदा सोना राजसात करने और जुर्माना वसूलने की कार्यवाही जो कस्टम एंड गोल्ड कंट्रोल एक्ट के अंतर्गत की जाती है, उनसे अनुच्छेद 20 (2) के अंतर्गत दोहरे दंड से संरक्षण प्राप्त नहीं है। इसी प्रकार वी.के. अग्रवाल विरूद्ध बसंतराज, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1106 के प्रकरण में निर्णित किया गया है कि कस्टम एक्ट के अंतर्गत गठित अपराध सुभिन्न अपराध है तथा उसके अंतर्गत की गई दोषसिद्धि न्यायिक कार्यवाही नहीं है। उक्त कृत्य के लिए पृथक से आरोप विरचित किया जा सकता है। एस. वेंकटरमन विरूद्ध भारत संघ, ए.आई.आर. 1954 एस.सी. 375, के प्रकरण में कर्मचारी को पब्लिक सर्विस एक्ट 1961 के अंतर्गत जांच में नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। न्यायालय ने प्रथम कार्यवाही को विभागीय कार्यवाही माना, एवं यह माना की यह न्यायिक प्रकृति की नहीं थी। यदि दूसरी कार्यवाही प्रथम कार्यवाही की अनुवर्ती है, तब भी अनुच्छेद 20 (2) का संरक्षण प्राप्त नहीं होता है। राजनारायण लाल बंषीलाल विरूद्ध मेनका फिरोज मिस्त्री, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 29 के वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि अर्धन्यायिक निकायों द्वारा की गई कार्यवाही बाद में किसी न्यायालय के समक्ष अभियोजन में बाधा उत्पन्न नहीं करती है।
(स) दोष मुक्ति मे दूसरे अभियोजन से वर्जन नहीं:- यदि कोई कृत्य एकाधिक सुभिन्न अधिनियमों में अपराध है, तो ऐसी स्थिति में अनुच्छेद 20 (2) के प्रावधान आकर्षित नहीं होते हैं तथाउनका संरक्षण प्राप्त नहीं होगा स्टेट आफ बिहार विरूद्ध मुराद अली खान, (1988) 4 एस.सी.सी. 655, यदि पूर्ववर्ती कार्यवाही में बिना किसी युक्तियुक्त एवं तार्किक निष्कर्ष के कार्यवाही समाप्त कर दी गई है, ऐसी स्थिति मे उसी अपराध के लिए पष्चात्वर्ती संज्ञान और विचारण जो किसी अन्य अधिकरण के द्वारा किया गया हो, दोहरे विचारण की परिधि में नहीं आता है (षिवप्रसाद पांडे विरूद्ध सी.बी. आई, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 1974)। इसी अनुक्रम में लियो राय फ्रे विरूद्ध अधीक्षक जिला कारगार, ए.आई.आर. 1958 एस.सी. 119 में याचिकाकर्ता को धारा 107 (8) सी. कस्टम एक्ट 1878 के अपराध का दोषी पाया गया था तथा विधि अनुसार दंडित भी किया गया था। तत्पष्चात् उसे धारा 120 बी भा.द.सं. के तहत अभियोजित किया गया, जिस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अभिनिर्णित किया गया कि द्वितीय अभियोजन वर्जित नहीं, क्योंकि दोनो अपराध भिन्न हैं। अतः अनुच्छेद 20 (2) का लाभ याचिकाकर्ता को प्राप्त नहीं होगा।
(द) दोहरे जोखिम का सिद्धांत:- दोहरे दंड का बचाव निष्चित रूप से आपराधिक मामलों में विबंधन से भिन्न है - प्यारसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1969 एस.सी.सी. 379 मे व्यक्त किया गया है कि जहां किसी विवाद्यक तथ्य को सक्षम न्यायालय के द्वारा निर्णित कर दिया गया हो तथा ऐसे निर्णय में अभियुक्त के पक्ष में कुछ बाते आई हो तब ऐसा निष्कर्ष अभियोजन के विरूद्ध विबंधन/प्रांड-न्याय तो गठित कर सकता है, परंतु अभियुक्त के विरूद्ध सुभिन्न अपराध के विचारण तथा दोषसिद्धि का वर्जन नहीं करेगा।
अनुच्छेद 20 (3) आत्म अभिषंसन के विरूद्ध प्रतिषेध
अनुच्छेद 20 (3) आत्म अभिषंसन के विरूद्ध प्रतिषेध सिद्धांत को समाविष्ट करता है। जिसका मूल ब्रिटिष आपराधिक न्याय शास्त्र के सर्वविदित सूत्र nemo seipsum accusari है अर्थात् कोई भी व्यक्ति स्वयं के विरूद्ध साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं होगा। अपराधी के अपराध को सिद्ध करने का भार
भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार अभियोजन पर होता है न कि अपराधी पर। अतः अपराधी को अपराध मे स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देने के लिए दबाव डालकर बाध्य नही किया जा सकता। परिणामतः अभियुक्त का पुलिस अधिकारी के समक्ष, जब वह अभिरक्षा में था, दिये गये स्वयं के दोषारोपण संबंधी कथन का प्रयोग उसके विरूद्ध नहीं किया जा सकता है। करतार सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब, (1994) 3 एस.सी.सी. 569, अनुच्छेद 20 (3) का मुख्य उद्देष्य अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरूद्ध दोषारोपण करने वाली बाध्यता से संरक्षण प्रदान करना है। हमारे देष के आपराधिक विधि का आधारभूत सिद्धांत है कि एक अभियुक्त व्यक्ति के निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है और उसे स्वयं के विरूद्ध शपथ पर कथन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है (के. जोसेफ विरूद्ध एम.ए. नारायणन, ए.आई.आर. 1964 एस.सी. 1552) उक्त अनुच्छेद के अंतर्गत संरक्षण के लिये निम्न तथ्य आवष्यक है:-
1. व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त हो।
2. यह साक्षी बनने की बाध्यता के विपरीत संरक्षण है।
3. यह ऐसी बाध्यता के विरूद्ध संरक्षण है जिसका परिणाम स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देना है। यह अभियुक्त के द्वारा स्वयं को दोषारोपित किये जाने के विरूद्ध संरक्षण है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह ऐसी बातों की भी सूचना न दे, जिसकी प्रवृत्ति उसे दोषी बनाने की नहीं है (आर.बी.षाह. विरूद्ध डी.केगुहा, ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 1196)
किसी अपराध के अभियुक्त से तात्पर्य:- ऐसा व्यक्ति जिसके विरूद्ध किसी अपराध का विचारण प्रारंभ किया गया है तथा उसकी प्रास्थिति एक अपराध के अभियुक्त की है, तत्समय वह व्यक्ति, एक अपराध का अभियुक्त व्यक्ति है। इस धारा का संरक्षण किसी ऐसे व्यक्ति, जिसके विरूद्ध प्रथम सूचना प्रतिवेदन पंजीबद्ध कर दिया गया हो, को प्राप्त है (एम.पी.षर्मा विरूद्ध सतीष चन्द्र ए.आई.आर. 1954 एससी. 300) न्यायालय अवमानना की कार्यवाही में किसी व्यक्ति की प्रास्थिति किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति की नहीं होती है (देल्ही जुडिषियल सर्विस एसोसिएषन विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 2176)।
अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत ’’साक्षी होना’’ से तात्पर्य:- माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा एम.पी. शर्मा विरूद्ध सतीष चन्द्र, (उपरोक्त) के प्रकरण में अनुच्छेद 20 (3) के विस्तार की विस्तृत रूप से व्याख्या की गयी है - ’’यह अधिकार उस व्यक्ति का है जिस पर अपराध करने का आरोप लगाया गया है, यह सुरक्षा स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देने पर उपलब्ध होगी।’’ इसी प्रकरण में यह भी स्पष्ट किया गया है कि वास्तविक विचारण या जांच का न्यायालय के समक्ष प्रारंभ होना आवष्यक नहीं है, अपितु यदि व्यक्ति का नाम प्रथम सूचना प्रतिवेदन में अभियुक्त के रूप मे लेख होने पर या विवेचना का आदेष होने पर भी इस अधिकार का े गारंटी के रूप मे प्राप्त किया जा सकता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसी प्रकरण मे स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 20 (3) में “to be a witness” प्रयुक्त है न कि “appear as witness”. Every possible volitional act which furnishes evidence is testimony and testimonial compulsion connotes a coercion which procures the positive volitional evidentiary acts of the person as opposed to the negative attitude of silence or submission on his part”
अभियुक्त को स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देने की बाध्यता एवं संरक्षण की सीमाएं:- उपरोक्त के संबंध में न्यायदृष्टांत एम.पी. शर्मा विरूद्ध सतीष चन्द्र, (उपरोक्त) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा साक्षी शब्द का विषद अर्थ निकाला गया तथा इसके अंतर्गत सभी प्रकार की साक्ष्य जैसे मौखिक, दस्तावेजी या अन्य प्रकार उदाहरणार्थ अंगुष्ट चिन्ह या हस्ताक्षर भी सम्मिलित मानते हुए सभी से संरक्षण प्रदान किया गया है, परंतु उक्त न्यायदृष्टांत में प्रतिपादित मत की पुनः व्याख्या न्यायदृष्टांत स्टेट आफ बाम्बे विरूद्ध काथी कालू अघोर, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 1808 में करते हुए एम.पी. शर्मा के प्रकरण में साक्षी बनने के लिए विषय व्याख्या को सीमित कर दिया गया। इसमें साक्ष्य का अर्थ मौखिक साक्ष्य या ऐसे लिखित कथन जो उसके विपरीत लगाए आरोपो से संबंधित विवादास्पद विषय पर प्रकाष डालते तक सीमित किया गया तथा यह मत प्रतिपादित किया गया कि इसमें ऐसे कथन या तथ्य शामिल नहीं है, जो व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित हो, इसके अंतर्गत अंगुष्ट चिन्ह, हाथ-पैर की उंगलियों के चिन्ह एवं हस्तलेख आदि सम्मिलित नहीं माने गए एवं इन्हें प्रदान करने को अपने विरूद्ध साक्ष्य देना नहीं माना गया है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति वी. के. कृष्ण अय्यर के द्वारा न्यायदृष्टांत नंदिनी सत्पथी विरूद्ध पी. एल. धनी., ए. आई. आर. 1978 एस.सी. 1025 के प्रकरण में ’’बाध्यता’’ शब्द का विस्तार कर दिया गया तथा घोषित किया गया कि इसके अंतर्गत शारीरिक मानसिक दबाव, थका देने वाली पूछताछ, भय उत्पन्न करके प्राप्त अभिसाक्ष्य सम्मिलित हैं तथा महत्वपूर्ण रूप से व्याख्या की, कि यदि शंका के आधार पर व्यक्ति से पूछताछ की गयी हो एवं वह व्यक्ति अभियुक्त नहीं हो, तब भी अनुच्छेद 20 (3) का संरक्षण प्राप्त होगा।
रक्त नमूने के संबंध में विधिक स्थिति:- क्या अभियुक्त को उसके रक्त का नमूना देने के लिए बाध्य किया जा सकता है?
न्याय दृष्टांत स्टेट आफ बाम्बे विरूद्ध काथी कालू औघट, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 1808 (11 न्यायमूर्तिगण की पीठ) में माननीय सर्वोच्च न्यायायल के द्वारा यह धारित किया गया था कि यदि अभियुक्त हस्ताक्षर अथवा अंगुष्ट चिन्ह इत्यादि का नमूना देता है, तो इसे स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देना नहीं कहा जा सकता है। यहां ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि उपरोक्त प्रकरण मे स्वय के रक्त का नमूना देने से संबंधित परिस्थिति प्रष्नगत नहीं थी। इसके उपरांत न्याय दृष्टांत गौतम कुन्दू विरूद्ध स्टेट आफ वेस्ट बंगाल ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 2295 मे यह कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसके रक्त का नमूना देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, परंतु एक तो यह प्रकरण धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता का था एवं दूसरा यह प्रकरण दण्ड प्रक्रिया संहिता के उक्त संषोधित प्रावधान के पूर्व का था। अमृत सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 123 वाले प्रकारण में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रष्न यह था कि क्या अभियुक्त को उसके बालों का नमूना देने के लिए बाध्य किया जा सकता है। इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह धारित किया गया कि बालों का नमूना देना अथवा न देना उसकी इच्छा पर निर्भर है, उसे नमूने देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। हलप्पा विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2010 सी.आर.एल.जे. 4341 में माननीय कर्नाटक उच्च न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 53 ए दण्ड प्रक्रिया संहिता, जो कि वर्ष 2005 के संषोधन से जोड़ी गयी है, अल्ट्रा वायरस नहीं है। डी.एन.ए. जांच के लिए अभियुक्त के रक्त का नमूना उसकी सहमति के बिना लिया जा सकता है एवं यह संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का उल्लघंन नहीं है। इस प्रकरण में यह भी कहा गया है कि न्याय दृष्टांत अमृत सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 132 दो न्यायमूर्तिगण की पीठ का न्याय दृष्टांत, न्याय दृष्टांत स्टेट आफ बाम्बे विरूद्ध काथी कालू औघड़, ए.आई. आर. 1961 एस.सी. 1808 (11 न्यायमूर्तिगण की पीठ) के प्रकाष में अच्छी विधि नहीं है, क्योंकि काथी कालू औघड वाले प्रकरण मे 11 न्यायमूर्तिगण की पीठ के द्वारा यह धारित किया गया था कि यदि अभियुक्त हस्ताक्षर अथवा अंगुष्ट चिन्ह आदि का नमूना देता है, तो इसे स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देना नहीं कहा जा सकता है।
न्याय दृष्टांत कृष्ण कुमार मलिक विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा ए. आई. आर. 2011 एस.सी. 2877 में निर्णय चरण 45 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने बलात्कार के एक मामले में धारा 53 ए दण्ड प्रक्रिया संहिता के संषोधित प्रावधान के प्रकाष में यह कहा है कि अभियोजन को अभियुक्त के विरूद्ध इस प्रकार के मामलों में अपना प्रकरण प्रमाणित करने के लिए उसका डी. एन. ए. परीक्षण करवाना चाहिए।
अतः दण्ड प्रक्रिया संहिता के संषोधित प्रावधान धारा 53 ए, धारा 53 के स्पष्टीकरण एवं धारा 54 के प्रकाष में नवीनतम वैधानिक स्थिति यह स्पष्ट होती है कि अभियुक्त को उसके रक्त का नमूना देने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
संविधान के अनुच्छेद 20 (3) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रावधानो के परिप्रेक्ष्य मे अभिरक्षा मे लिए गये कथन:- धारा 27 भारतीय साक्ष्य अधिनियम एवं अनुच्छेद 20 (3) के संबंध में काथी कालू के प्रकरण में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मत पारित किया गया कि अभियुक्त की पुलिस अभिरक्षा में तथ्य की खोज के संबंध में ली गई साक्ष्य ग्राह्य है तथा ऐसी साक्ष्य अनुच्छेद 20 (3) के उल्लघंन में नहीं है। न्यायदृष्टांत श्यामलाल मोहनलाल विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 1251 मे माननीय न्यायालय के द्वारा यह मत प्रतिपादित किया गया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 73 न्यायालय को अधिकार प्रदान करती है कि वह अभियुक्त व्यक्ति से उसके किसी चिन्ह, की जानकारी तथा हस्तलिपि, हस्ताक्षर या अंगुष्ट चिन्ह का नमूना प्राप्त कर सके, जिससे कि उसकी अन्य से तुलना की जा सके। इसमें अनुच्छेद 20 (3) का उल्लघंन नहीं होता है।
धारा 91 एवं धारा एवं 94 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत ली गई साक्ष्य अनुच्छेद 20 (3) के उल्लघंन में नहीं है (स्टेट विरूद्ध श्यामलाल, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 1251 एवं स्टेट विरूद्ध काथी कालू, ए.आईआर. 1961 एस.सी. 1808) इसी अनुक्रम में युसूफ अली ए.आई.आर. 1968 एस.सी. 147 के प्रकरण में दो व्यक्तियां े के बीच बातचीत को पुलिस ने एक व्यक्ति की अनुमति से टेप रके ॅार्ड कर लिया था। इसे साक्ष्य के रूप मे प्रयोग किया जा सकता था, क्योंकि यह स्वैच्छिक था। मात्र ’’जानकारी के बिना’’ के आधार पर उसे साक्ष्य मे अग्राहय नही किया जा सकता है। अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत तलाषी वारटं नही आता है। यदि कोई व्यक्ति तलाषी के समय अभियुक्त नहीं है, परंतु बाद में हो जाता है, तब वह अनुच्छेद 20 (3) के संरक्षण का दावा नहीं कर सकता है।
किसी प्रषासनिक निकाय के द्वारा की जा रही कार्यवाही में भी 20 (3) का संरक्षण प्राप्त नहीं होता है। न्यायालय अवमाना की कार्यवाही अपराधिक कार्यवाही नही है। अतः इसमे 20 (3) का संरक्षण प्राप्त नहीं है (दिल्ली न्यायिक सेवा संघ तीस हजारी न्यायालय गुजरात राज्य, ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 2177)
अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत मौन रहने का अधिकार:- अनुच्छेद 20 (3) प्रावधित करता है कि किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरूद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। ऐसी स्थिति मे अभियुक्त व्यक्ति के मौन रहने का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक स्वतंत्रता के अधिकार तक विस्तारित है आलोक नाथ दत्त विरूद्ध पष्चिम बंगाल राज्य, (2007) 12 एस.सी.सी. 230, अपराधी स्वयं की स्वतंत्र सम्मति के बिना कोई स्वीकृति करने या विवरण देने हेतु बाध्य नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के द्वारा प्रदत्त यह मूलाधिकार, नागरिक व राजनैतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्षन (ICCPR) के अनुच्छेद 14 में भी अंगीकृत किया गया है। इसे अक्सर, मौन रहने का अधिकार भी कहा जाता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के द्वारा प्रदत्त सुरक्षा को अनुच्छेद 21 के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए; क्योंकि अनुच्छेद 20 मे प्रदत्त अधिकारों को दिए बिना अनुच्छेद 21 के उद्देष्य की पूर्ति नही हो पाएगी। अतः व्यक्ति के प्राण व दैहिक स्वतंत्रता को वास्तविक अर्थों में प्राप्त करने के लिए अनुच्छेद 20 व 21 को संयुक्त रूप में ही देखा जाना चाहिए। अनुच्छेद 20 में प्रदत्त अधिकार व्यक्तियों को अत्याचार व यातना से सुरक्षा प्रदान करने हेतु अनिवार्य है।
दांडिक विधि का सामना करने वाला व्यक्ति अंततः प्राण व दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित हो जाता है, अतः भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20 स्वैच्छिक व अत्यधिक दंड के विरूद्ध अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सुरक्षा प्रदान करने का आष्वासन देता है। अनुच्छेद 20 में प्रदत्त अधिकार एक महत्वपूर्ण मूलभूत अधिकार है एवं यह अधिकार उन व्यक्तियो को प्राप्त है, जिन पर किसी प्रकार का अपराध करने का अभियोग लगाया गया है। यह अनुच्छेद अपराध के अभियुक्त व्यक्तियो को अपनी रक्षा करने के लिए निम्नतीन प्रकार की संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करता हैः-
1. कार्योत्तर विधि से संरक्षण [Protection from Expostfacto law अनुच्छेद 20 (1)]
2. दोहरे जोखिम से संरक्षण [Protection from double jeopardy अनुच्छेद 20 (2)] एवं
3. आत्मअभिषंसन के विरूद्ध संरक्षण [Protection from self-incrimination अनुच्छेद 20(3)]
कार्योत्तर विधि से संरक्षण (अनुच्छेद 20 (1))
अनुच्छेद 20 (1) में वर्णित ’’कार्योत्तर विधियों से संरक्षण’’ से तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति, कार्य के समय प्रवृत्त विधि एवं उसमें वर्णित सीमा तक के ही दण्ड से ही दण्डित किया जायेगा। जब किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक कृत्य के लिए दण्डित किया जाना है, तब उक्त व्यक्ति को अनुच्छेद 20 (1) दो प्रकार से संरक्षण प्रदान करता हैः-
(अ) कोई व्यक्ति किसी ऐसे कृत्य के लिए दंडित नहीं किया जाएगा, जो उसे करते समय किसी प्रवृत्त विधि के अंतर्गत दंडनीय न हो।
(ब) कोई व्यक्ति कार्य करते समय प्रवृत्त विधि में वर्णित दण्ड की सीमा से अधिक दण्ड से दंडित नहीं किया जाएगा (पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध एस. के. घोष, ए. आई. आर. 1963 एस.सी. 255)।
इस संबंध मे अवलाके नीय है कि विधान मंडल साधारणतः भूतलक्षी व भविष्यलक्षी विधियाँ निर्मित कर सकता है, परंतु अनुच्छेद 20 (1) विधान मंडल को भूतलक्षी आपराधिक विधियाँ निर्मित करने से वर्जित करता है। अनुच्छेद 20(1) का संरक्षण केवल आपराधिक कार्यवाहियों में प्रयोज्य है (मकबूल विरूद्ध स्टेट, ए.आई. आर. 1953 एस. सी. 325)। व्यवहार विधियों के संबंध में विधान मंडल भूतलक्षी प्रावधान/विधि निर्मित करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है। व्यवहार विधियों से तात्पर्य यह है कि
(अ) कर अधिरोपण करने की शक्ति
(ब) धारा 2 (2) मध्यप्रदेष आबकारी अधिनियम 1915 के अधीन पट्टे के संबंध में ड्यूटी, भूतलक्षी प्रभाव से अधिरोपित करने के लिए राज्य सरकार सषक्त है, क्योंकि कर/ड्यूटी व्यवहार क्षेत्राधिकार मे आते हैं, न कि शास्ति के रूप में। प्रवृत्त विधि से तात्पर्य ऐसी विधि से है, जो वास्तव में अस्तित्व में है और आपराधिक कृत्य करते समय प्रवर्तनीय है (राव षिवबहादुर सिंह विरूद्ध स्टेट आफ विंध्य प्रदेष ए.आई. आर., 1953 एस.सी. 394)।
कार्योत्तर विधि के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय व माननीय उच्च न्यायालयो के द्वारा समय-समय पर निर्णयज विधि एवं मार्गदर्षक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए है, जो मुख्यतः निम्नानुसार हैं:-
(अ) भूतलक्षी कृत्य का संरक्षण:- इस संबंध मे सोनी देवराज बाबूभाई विरूद्ध गुजरात राज्य, ए.आई. आर. 1991 एस. सी. 2173 अवलोकनीय है। इसमें माननीय न्यायालय के द्वारा यह घोषित किया कि धारा 304-बी भा.द.वि., जो कि दिनांक 19/11/1986 को संषोधन के माध्यम से जोड़ी गयी थी तथा दहेज-मृत्यु का सुभिन्न अपराध सृजित करते हुए कम से कम सात वर्ष के कारावास का उपबंध करती है, इस प्रकार की मृत्यु पर लागू नहीं होगी, जो अंतः स्थापित दिनांक के पूर्व हुई हो।
(ब) वर्धित दण्ड:- इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केदारनाथ बाजोरिया विरूद्ध पष्चिम बंगाल राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 404, में महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसके तथ्य इस प्रकार से हैं कि अपीलार्थी अभियुक्त ने वर्ष 1947 में एक विधि के अंतर्गत दण्डनीय अपराध किया, जिसके तहत निर्धारित कारावास या जुर्माना या दोनों के दण्डादेष का प्रावधान था। उक्त अधिनियम में पष्चात्वर्ती संषोधन कर जुर्माना राषि में वृद्धि कर दी गयी, जो कि अभियुक्त के पास से प्राप्त राषि के बराबर थी। सर्वोच्च न्यायालय ने पष्चात्वर्ती संषोधन को अनुच्छेद 20 (1) का उल्लघंन मानते हुए अमान्य किया।
(स) अनुच्छेद 20 (1) की सुरक्षा कब लागू नहीं:- अनुच्छेद 20 (1) केवल दोषसिद्धि और दंड से संरक्षण प्रदान करता है न कि विचारण प्रक्रिया में संषोधन से। यदि किसी अपराध में विचारण प्रक्रिया संबंधी प्रावधान, किसी व्यक्ति के कृत्य के समय प्रवृत्त विधि के पष्चात् विधान मंडल द्वारा संषोधित किए जाते है, तो विचारण प्रक्रिया संबंधी प्रावधान के संषोधन से संरक्षण प्राप्त नहीं है (आर.एस.बी.सिंह विरूद्ध विंध्य प्रदेष राज्य, (उपरोक्त)) इस संबंध में बिहार राज्य विरूद्ध शैलबाला, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 329 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया कि निवारक निरोध के विरूद्ध या किसी व्यक्ति से सुरक्षा की मांग या अजमानतीय मामलों मे अनुच्छेद 20 (1) का संरक्षण प्राप्त नहीं होगा। इसी प्रकार माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्यवहार प्रकृति के मामलों मे अनुच्छेद 20 (1) के उपबंध लागू न होने के संबंध मे महत्वपूर्ण निर्णय हाथी सिंह मेनुफेक्चरिंग कंपनी विरूद्ध भारत संघ, ए.आई.आर. 1960 एस.सी. 923 में प्रतिपादित किया गया कि व्यवहार दायित्व के संबंध में भूतलक्षी प्रभाव के प्रावधान अधिरोपित किये जा सकते है, परंतु इसका विस्तार अनुच्छेद 20 (1) में प्राप्त संरक्षण के उल्लंघन तक नहीं किया जा सकता है।
(द) लाभकारी उपबंध:- माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 20 (1) के प्रावधान का लचीला निर्वाचन करते हुए रतनलाल विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 444 में अभिनिर्णित किया गया कि यदि कोई भूतलक्षी विधि किसी कठोरता को कम करती है तब लाभकारी उपबंध का
निर्वाचन अभियुक्त के पक्ष मे किया जाना चाहिए। ऐसी विधि, जो किसी दंड में न्यूनतम अर्थदंड या न्यनू तम कारावास की सजा का प्रावधान करती है तो ऐसे न्यूनतम दंड से व्यक्ति को दंडित किया जा सकेगा, चाहे उसके कार्य करते समय उक्त अपराध में वह न्यूनतम दंड प्रावधानित था या नहीं तथा उसे ऐसा नहीं समझा जाएगा कि वह किसी वर्धित दंड का प्रावधान है, (के. सतबंत सिंह विरूद्ध स्टेट, ए.आई.आर. 1960 एस.सी. 266)।
दोहरे दंड से संरक्षण
भारतीय संविधान मे अनुच्छेद 20 (2) मे किसी अपराध के अभियुक्त/दोषी व्यक्ति को बचाव प्रदत्त किया गया है-’’ किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा।’’ उक्त सिद्धांत का प्रेरणा स्त्रोत अंग्रेजी व अमेरिकन न्याय शास्त्र का सर्वविदित सिद्धांत nemo debet bis vexari (अर्थात् किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दोहरे दण्ड से दंडित नहीं किया जाना चाहिए)। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त संरक्षण उक्त दोनों दोषो में प्रदत्त संरक्षण की अपेक्षा सीमित है, क्योंकि यदि दोनों दोषो में किसी अभियुक्त व्यक्ति का एक बार विचारण किया जा चुका है एवं उसे परीक्षण में उन्मोचित कर दिया गया हो, तो भी पुनः उस कृत्य के अपराध के लिए विचारित नहीं किया जाएगा, किंतु भारतीय संविधान के अनुसार उक्त अनुच्छेद में संरक्षण तभी प्राप्त है, जब उसे अभियोजित तथा दंडित किया गया हो। यदि परीक्षण में उसे न्यायालय के द्वारा उन्मोचित कर दिया गया हो तो पुनः उसी के अपराध के लिए परीक्षण वर्जित नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (2)autrefois
convict पर आधारित है, न कि autrefois acquit पर। अनुच्छेद 20 (2) के संरक्षण के लिए तीन आवष्यक तत्व हैं:-
1. व्यक्ति का अभियुक्त होना आवष्यक है।
2. कार्यवाही न्यायिक अभिकरण के समक्ष न्यायिक प्रकृति की हो, अर्थात् प्रथम अभियोजन सक्षम न्यायालय/न्यायाधिकरण के समक्ष होना चाहिए (असिस्टेंट कलेक्टर आफ कस्टम विरूद्ध एलआर.मिलवानी, ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 962 एवं मकबूल विरूद्ध स्टेट, (उपरोक्त))। न्यायिक कार्यवाही का आषय है प्रकरण का निर्णय शपथ पर साक्ष्य के अनुसार हो।
3. उस व्यक्ति का अभियोजन किसी विधि विहित अपराध के संबंध मे हो और दण्ड का प्रावधान हो।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 20 (2) के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर व्याख्या कर इस प्रावधान को स्पष्ट किया गया है:-
(अ) धारा 300 द.प्र.सं. व अनुच्छेद 20 (2):- संविधान के अनुच्छेद 20 (2) का संरक्षण अन्य अर्थां मे आपराधिक प्रांड. न्याय का सिद्धांत है, जिसका समवर्ती प्रावधान धारा 300 द.प्र.स. मे स्थापित है, परंतु धारा 300 द.प्र.स. के प्रावधान का संरक्षण अनुच्छेद 20 (2) के संरक्षण से विस्तृत है। जहाँ अनुच्छेद 20 (2) मे प्रावधान है कि ’’किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित एवं दंडित नहीं किया जाएगा।’’ वहीं दूसरी ओर धारा 300 (1) प्रावधानित करती है कि ’’व्यक्ति न तो उसी अपराध के लिए पुनः विचारण का भागी होगा और न उन्ही तथ्यो पर किसी अन्य अपराध के लिए विचारण का भागी होगा।’’ यदि पूर्ववर्ती अभियोजन का परिणाम दोषमुक्ति है, तो उक्त सुरक्षा प्राप्त नहीं है, परंतु कलावती एवं अन्य विरूद्ध हिमाचल प्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 131 मे माननीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा मत प्रतिपादित किया गया कि धारा 300- द.प्रं.सं. दोषमुक्ति की दषा में भी पुनः विचारण किए जाने का प्रतिषेध करती है। कल्ला वीरा राघव राव विरूद्ध गोरनटिया वेकेंटेष्वरा राव एवं अन्य ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 641 में माननीय न्यायालय के द्वारा यह मत प्रतिपादित किया गया कि द.प्र.सं. की धारा 300 मे समान तथ्य तथा दोषमुक्ति पर पुनः विचारण का प्रतिषेध किया गया है, वहीं अनुच्छेद 20 (2) समान अपराध मे दोषसिद्धि की दषा मे ही प्रयोज्य है।
(ब) विभागीय या प्रषासनिक कार्यवाहियां न्यायिक कार्यवाही नहीं हैः- गुलाम अहमद विरूद्ध स्टेट आफ जम्मू एंड कष्मीर, ए.आई.आर. 1954 जे.एडं के. 59 के प्रकरण में यह मत प्रतिपादित किया गया कि निवारक निरोध न तो अभियोजन है और न ही दण्ड। अतः निवारक निरोध मे निरूद्ध व्यक्ति को अभियोजित किया जा सकता है; ऐसे प्रकरण मे अनुच्छेद 20 (2) का संरक्षण प्राप्त नहीं है। मकबूल हसन विरूद्ध बंबई राज्य, (उपरोक्त) के प्रकरण मे माननीय उच्चतम न्यायालय ने निर्णित किया कि कस्टम अधिकारी न्यायालय नहीं है, अतः कस्टम अधिकरण के द्वारा जब्तषुदा सोना राजसात करने और जुर्माना वसूलने की कार्यवाही जो कस्टम एंड गोल्ड कंट्रोल एक्ट के अंतर्गत की जाती है, उनसे अनुच्छेद 20 (2) के अंतर्गत दोहरे दंड से संरक्षण प्राप्त नहीं है। इसी प्रकार वी.के. अग्रवाल विरूद्ध बसंतराज, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1106 के प्रकरण में निर्णित किया गया है कि कस्टम एक्ट के अंतर्गत गठित अपराध सुभिन्न अपराध है तथा उसके अंतर्गत की गई दोषसिद्धि न्यायिक कार्यवाही नहीं है। उक्त कृत्य के लिए पृथक से आरोप विरचित किया जा सकता है। एस. वेंकटरमन विरूद्ध भारत संघ, ए.आई.आर. 1954 एस.सी. 375, के प्रकरण में कर्मचारी को पब्लिक सर्विस एक्ट 1961 के अंतर्गत जांच में नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। न्यायालय ने प्रथम कार्यवाही को विभागीय कार्यवाही माना, एवं यह माना की यह न्यायिक प्रकृति की नहीं थी। यदि दूसरी कार्यवाही प्रथम कार्यवाही की अनुवर्ती है, तब भी अनुच्छेद 20 (2) का संरक्षण प्राप्त नहीं होता है। राजनारायण लाल बंषीलाल विरूद्ध मेनका फिरोज मिस्त्री, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 29 के वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि अर्धन्यायिक निकायों द्वारा की गई कार्यवाही बाद में किसी न्यायालय के समक्ष अभियोजन में बाधा उत्पन्न नहीं करती है।
(स) दोष मुक्ति मे दूसरे अभियोजन से वर्जन नहीं:- यदि कोई कृत्य एकाधिक सुभिन्न अधिनियमों में अपराध है, तो ऐसी स्थिति में अनुच्छेद 20 (2) के प्रावधान आकर्षित नहीं होते हैं तथाउनका संरक्षण प्राप्त नहीं होगा स्टेट आफ बिहार विरूद्ध मुराद अली खान, (1988) 4 एस.सी.सी. 655, यदि पूर्ववर्ती कार्यवाही में बिना किसी युक्तियुक्त एवं तार्किक निष्कर्ष के कार्यवाही समाप्त कर दी गई है, ऐसी स्थिति मे उसी अपराध के लिए पष्चात्वर्ती संज्ञान और विचारण जो किसी अन्य अधिकरण के द्वारा किया गया हो, दोहरे विचारण की परिधि में नहीं आता है (षिवप्रसाद पांडे विरूद्ध सी.बी. आई, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 1974)। इसी अनुक्रम में लियो राय फ्रे विरूद्ध अधीक्षक जिला कारगार, ए.आई.आर. 1958 एस.सी. 119 में याचिकाकर्ता को धारा 107 (8) सी. कस्टम एक्ट 1878 के अपराध का दोषी पाया गया था तथा विधि अनुसार दंडित भी किया गया था। तत्पष्चात् उसे धारा 120 बी भा.द.सं. के तहत अभियोजित किया गया, जिस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अभिनिर्णित किया गया कि द्वितीय अभियोजन वर्जित नहीं, क्योंकि दोनो अपराध भिन्न हैं। अतः अनुच्छेद 20 (2) का लाभ याचिकाकर्ता को प्राप्त नहीं होगा।
(द) दोहरे जोखिम का सिद्धांत:- दोहरे दंड का बचाव निष्चित रूप से आपराधिक मामलों में विबंधन से भिन्न है - प्यारसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1969 एस.सी.सी. 379 मे व्यक्त किया गया है कि जहां किसी विवाद्यक तथ्य को सक्षम न्यायालय के द्वारा निर्णित कर दिया गया हो तथा ऐसे निर्णय में अभियुक्त के पक्ष में कुछ बाते आई हो तब ऐसा निष्कर्ष अभियोजन के विरूद्ध विबंधन/प्रांड-न्याय तो गठित कर सकता है, परंतु अभियुक्त के विरूद्ध सुभिन्न अपराध के विचारण तथा दोषसिद्धि का वर्जन नहीं करेगा।
अनुच्छेद 20 (3) आत्म अभिषंसन के विरूद्ध प्रतिषेध
अनुच्छेद 20 (3) आत्म अभिषंसन के विरूद्ध प्रतिषेध सिद्धांत को समाविष्ट करता है। जिसका मूल ब्रिटिष आपराधिक न्याय शास्त्र के सर्वविदित सूत्र nemo seipsum accusari है अर्थात् कोई भी व्यक्ति स्वयं के विरूद्ध साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं होगा। अपराधी के अपराध को सिद्ध करने का भार
भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार अभियोजन पर होता है न कि अपराधी पर। अतः अपराधी को अपराध मे स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देने के लिए दबाव डालकर बाध्य नही किया जा सकता। परिणामतः अभियुक्त का पुलिस अधिकारी के समक्ष, जब वह अभिरक्षा में था, दिये गये स्वयं के दोषारोपण संबंधी कथन का प्रयोग उसके विरूद्ध नहीं किया जा सकता है। करतार सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब, (1994) 3 एस.सी.सी. 569, अनुच्छेद 20 (3) का मुख्य उद्देष्य अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरूद्ध दोषारोपण करने वाली बाध्यता से संरक्षण प्रदान करना है। हमारे देष के आपराधिक विधि का आधारभूत सिद्धांत है कि एक अभियुक्त व्यक्ति के निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है और उसे स्वयं के विरूद्ध शपथ पर कथन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है (के. जोसेफ विरूद्ध एम.ए. नारायणन, ए.आई.आर. 1964 एस.सी. 1552) उक्त अनुच्छेद के अंतर्गत संरक्षण के लिये निम्न तथ्य आवष्यक है:-
1. व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त हो।
2. यह साक्षी बनने की बाध्यता के विपरीत संरक्षण है।
3. यह ऐसी बाध्यता के विरूद्ध संरक्षण है जिसका परिणाम स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देना है। यह अभियुक्त के द्वारा स्वयं को दोषारोपित किये जाने के विरूद्ध संरक्षण है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह ऐसी बातों की भी सूचना न दे, जिसकी प्रवृत्ति उसे दोषी बनाने की नहीं है (आर.बी.षाह. विरूद्ध डी.केगुहा, ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 1196)
किसी अपराध के अभियुक्त से तात्पर्य:- ऐसा व्यक्ति जिसके विरूद्ध किसी अपराध का विचारण प्रारंभ किया गया है तथा उसकी प्रास्थिति एक अपराध के अभियुक्त की है, तत्समय वह व्यक्ति, एक अपराध का अभियुक्त व्यक्ति है। इस धारा का संरक्षण किसी ऐसे व्यक्ति, जिसके विरूद्ध प्रथम सूचना प्रतिवेदन पंजीबद्ध कर दिया गया हो, को प्राप्त है (एम.पी.षर्मा विरूद्ध सतीष चन्द्र ए.आई.आर. 1954 एससी. 300) न्यायालय अवमानना की कार्यवाही में किसी व्यक्ति की प्रास्थिति किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति की नहीं होती है (देल्ही जुडिषियल सर्विस एसोसिएषन विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 2176)।
अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत ’’साक्षी होना’’ से तात्पर्य:- माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा एम.पी. शर्मा विरूद्ध सतीष चन्द्र, (उपरोक्त) के प्रकरण में अनुच्छेद 20 (3) के विस्तार की विस्तृत रूप से व्याख्या की गयी है - ’’यह अधिकार उस व्यक्ति का है जिस पर अपराध करने का आरोप लगाया गया है, यह सुरक्षा स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देने पर उपलब्ध होगी।’’ इसी प्रकरण में यह भी स्पष्ट किया गया है कि वास्तविक विचारण या जांच का न्यायालय के समक्ष प्रारंभ होना आवष्यक नहीं है, अपितु यदि व्यक्ति का नाम प्रथम सूचना प्रतिवेदन में अभियुक्त के रूप मे लेख होने पर या विवेचना का आदेष होने पर भी इस अधिकार का े गारंटी के रूप मे प्राप्त किया जा सकता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसी प्रकरण मे स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 20 (3) में “to be a witness” प्रयुक्त है न कि “appear as witness”. Every possible volitional act which furnishes evidence is testimony and testimonial compulsion connotes a coercion which procures the positive volitional evidentiary acts of the person as opposed to the negative attitude of silence or submission on his part”
अभियुक्त को स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देने की बाध्यता एवं संरक्षण की सीमाएं:- उपरोक्त के संबंध में न्यायदृष्टांत एम.पी. शर्मा विरूद्ध सतीष चन्द्र, (उपरोक्त) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा साक्षी शब्द का विषद अर्थ निकाला गया तथा इसके अंतर्गत सभी प्रकार की साक्ष्य जैसे मौखिक, दस्तावेजी या अन्य प्रकार उदाहरणार्थ अंगुष्ट चिन्ह या हस्ताक्षर भी सम्मिलित मानते हुए सभी से संरक्षण प्रदान किया गया है, परंतु उक्त न्यायदृष्टांत में प्रतिपादित मत की पुनः व्याख्या न्यायदृष्टांत स्टेट आफ बाम्बे विरूद्ध काथी कालू अघोर, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 1808 में करते हुए एम.पी. शर्मा के प्रकरण में साक्षी बनने के लिए विषय व्याख्या को सीमित कर दिया गया। इसमें साक्ष्य का अर्थ मौखिक साक्ष्य या ऐसे लिखित कथन जो उसके विपरीत लगाए आरोपो से संबंधित विवादास्पद विषय पर प्रकाष डालते तक सीमित किया गया तथा यह मत प्रतिपादित किया गया कि इसमें ऐसे कथन या तथ्य शामिल नहीं है, जो व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित हो, इसके अंतर्गत अंगुष्ट चिन्ह, हाथ-पैर की उंगलियों के चिन्ह एवं हस्तलेख आदि सम्मिलित नहीं माने गए एवं इन्हें प्रदान करने को अपने विरूद्ध साक्ष्य देना नहीं माना गया है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति वी. के. कृष्ण अय्यर के द्वारा न्यायदृष्टांत नंदिनी सत्पथी विरूद्ध पी. एल. धनी., ए. आई. आर. 1978 एस.सी. 1025 के प्रकरण में ’’बाध्यता’’ शब्द का विस्तार कर दिया गया तथा घोषित किया गया कि इसके अंतर्गत शारीरिक मानसिक दबाव, थका देने वाली पूछताछ, भय उत्पन्न करके प्राप्त अभिसाक्ष्य सम्मिलित हैं तथा महत्वपूर्ण रूप से व्याख्या की, कि यदि शंका के आधार पर व्यक्ति से पूछताछ की गयी हो एवं वह व्यक्ति अभियुक्त नहीं हो, तब भी अनुच्छेद 20 (3) का संरक्षण प्राप्त होगा।
रक्त नमूने के संबंध में विधिक स्थिति:- क्या अभियुक्त को उसके रक्त का नमूना देने के लिए बाध्य किया जा सकता है?
न्याय दृष्टांत स्टेट आफ बाम्बे विरूद्ध काथी कालू औघट, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 1808 (11 न्यायमूर्तिगण की पीठ) में माननीय सर्वोच्च न्यायायल के द्वारा यह धारित किया गया था कि यदि अभियुक्त हस्ताक्षर अथवा अंगुष्ट चिन्ह इत्यादि का नमूना देता है, तो इसे स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देना नहीं कहा जा सकता है। यहां ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि उपरोक्त प्रकरण मे स्वय के रक्त का नमूना देने से संबंधित परिस्थिति प्रष्नगत नहीं थी। इसके उपरांत न्याय दृष्टांत गौतम कुन्दू विरूद्ध स्टेट आफ वेस्ट बंगाल ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 2295 मे यह कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसके रक्त का नमूना देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, परंतु एक तो यह प्रकरण धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता का था एवं दूसरा यह प्रकरण दण्ड प्रक्रिया संहिता के उक्त संषोधित प्रावधान के पूर्व का था। अमृत सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 123 वाले प्रकारण में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रष्न यह था कि क्या अभियुक्त को उसके बालों का नमूना देने के लिए बाध्य किया जा सकता है। इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह धारित किया गया कि बालों का नमूना देना अथवा न देना उसकी इच्छा पर निर्भर है, उसे नमूने देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। हलप्पा विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2010 सी.आर.एल.जे. 4341 में माननीय कर्नाटक उच्च न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 53 ए दण्ड प्रक्रिया संहिता, जो कि वर्ष 2005 के संषोधन से जोड़ी गयी है, अल्ट्रा वायरस नहीं है। डी.एन.ए. जांच के लिए अभियुक्त के रक्त का नमूना उसकी सहमति के बिना लिया जा सकता है एवं यह संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का उल्लघंन नहीं है। इस प्रकरण में यह भी कहा गया है कि न्याय दृष्टांत अमृत सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 132 दो न्यायमूर्तिगण की पीठ का न्याय दृष्टांत, न्याय दृष्टांत स्टेट आफ बाम्बे विरूद्ध काथी कालू औघड़, ए.आई. आर. 1961 एस.सी. 1808 (11 न्यायमूर्तिगण की पीठ) के प्रकाष में अच्छी विधि नहीं है, क्योंकि काथी कालू औघड वाले प्रकरण मे 11 न्यायमूर्तिगण की पीठ के द्वारा यह धारित किया गया था कि यदि अभियुक्त हस्ताक्षर अथवा अंगुष्ट चिन्ह आदि का नमूना देता है, तो इसे स्वयं के विरूद्ध साक्ष्य देना नहीं कहा जा सकता है।
न्याय दृष्टांत कृष्ण कुमार मलिक विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा ए. आई. आर. 2011 एस.सी. 2877 में निर्णय चरण 45 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने बलात्कार के एक मामले में धारा 53 ए दण्ड प्रक्रिया संहिता के संषोधित प्रावधान के प्रकाष में यह कहा है कि अभियोजन को अभियुक्त के विरूद्ध इस प्रकार के मामलों में अपना प्रकरण प्रमाणित करने के लिए उसका डी. एन. ए. परीक्षण करवाना चाहिए।
अतः दण्ड प्रक्रिया संहिता के संषोधित प्रावधान धारा 53 ए, धारा 53 के स्पष्टीकरण एवं धारा 54 के प्रकाष में नवीनतम वैधानिक स्थिति यह स्पष्ट होती है कि अभियुक्त को उसके रक्त का नमूना देने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
डी. एन. ए. प्रोफाइल:- क्या डी. एन. ए. प्रोफाइल अनुच्छेद 20 (3) के अर्थों में प्रमाण संबंधी बाध्यता के अंतर्गत है ? डी.एन.ए. प्रोफाईल तकनीक द.प्र.सं. की धारा 53 तथा 53. क मे अभियुक्त के चिकित्सकीय परीक्षण तथा धारा 164. क में पीडिता के चिकित्सीय परीक्षण में वर्णित है। इसकी साक्ष्यिक मान्यता साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 के अंतर्गत है। डी.एन.ए. प्रोफाइल डी.एन.ए. नमूने के आधार पर फारेनसिक विशेषज्ञो द्वारा तैयार किया गया ज्ञात तत्वों का लेख प्रमाण है। अपराधियों एवं संदेही व्यक्तियो के डी.एन.ए. प्रोफाइल तैयार करना एवं उन्हे संधारित करना तथा ऐसे डी.एन. ए. नमूने के अस्तित्व प्रोफाइल से मिलान से प्राणभूत तत्व उद्भूत होता है, जो विषिष्ट आपराधिक कृत्य के संदेही व्यक्ति की साक्ष्य की कडियों को जोड़ता है, एवं यह परीक्षण अनुच्छेद 20 (3) की परिधि में नहीं आता है। इस प्रकार यदि डी.एन.ए. प्रोफाइल तकनीक को परीक्षण के उद्देष्यों के लिए विकसित किया गया हो, तब उसका उपयोग न्यायिक क्रियान्वयन मे भविष्य मे आने वाली चुनौतियो का सामना करने में किया जा सकेगा (सेल्वी विरूद्ध स्टेट आफ कर्नाटका, ए.आई.आर.2010 एस.सी. 1974) (3 न्यायमूर्तिगण की पीठ)।
नार्को टेस्ट:- नार्को टेस्ट के संबंध में न्यायदृष्टांत सेल्वी विरूद्ध स्टेट आफ कर्नाटक, (उपरोक्त) अवलोकनीय है, जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मत प्रतिपादित किया गया कि अभियुक्त के संदर्भ में नार्को टेस्ट की बाध्यता उसके युक्तियुक्त एवं ऋजु विचारण के अधिकार को प्रभावित करती है। इस उपाय के द्वारा वह अपने विधिक सहायता के अधिकार से वंचित हो जाता है। पौलीग्राफी और ब्रेन मेपिंग जैसे परीक्षण न्यायाधीष के रूप में सत्य के अन्वेषण में बाधा उत्पन्न करते हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे परीक्षण आपराधिक विचारण में साक्ष्य के क्षीण मानक तथ्य है। ऐसी स्थिति में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त सिद्धांत के अनुसरण में नार्को परीक्षण कराने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।संविधान के अनुच्छेद 20 (3) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रावधानो के परिप्रेक्ष्य मे अभिरक्षा मे लिए गये कथन:- धारा 27 भारतीय साक्ष्य अधिनियम एवं अनुच्छेद 20 (3) के संबंध में काथी कालू के प्रकरण में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मत पारित किया गया कि अभियुक्त की पुलिस अभिरक्षा में तथ्य की खोज के संबंध में ली गई साक्ष्य ग्राह्य है तथा ऐसी साक्ष्य अनुच्छेद 20 (3) के उल्लघंन में नहीं है। न्यायदृष्टांत श्यामलाल मोहनलाल विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 1251 मे माननीय न्यायालय के द्वारा यह मत प्रतिपादित किया गया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 73 न्यायालय को अधिकार प्रदान करती है कि वह अभियुक्त व्यक्ति से उसके किसी चिन्ह, की जानकारी तथा हस्तलिपि, हस्ताक्षर या अंगुष्ट चिन्ह का नमूना प्राप्त कर सके, जिससे कि उसकी अन्य से तुलना की जा सके। इसमें अनुच्छेद 20 (3) का उल्लघंन नहीं होता है।
धारा 91 एवं धारा एवं 94 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत ली गई साक्ष्य अनुच्छेद 20 (3) के उल्लघंन में नहीं है (स्टेट विरूद्ध श्यामलाल, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 1251 एवं स्टेट विरूद्ध काथी कालू, ए.आईआर. 1961 एस.सी. 1808) इसी अनुक्रम में युसूफ अली ए.आई.आर. 1968 एस.सी. 147 के प्रकरण में दो व्यक्तियां े के बीच बातचीत को पुलिस ने एक व्यक्ति की अनुमति से टेप रके ॅार्ड कर लिया था। इसे साक्ष्य के रूप मे प्रयोग किया जा सकता था, क्योंकि यह स्वैच्छिक था। मात्र ’’जानकारी के बिना’’ के आधार पर उसे साक्ष्य मे अग्राहय नही किया जा सकता है। अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत तलाषी वारटं नही आता है। यदि कोई व्यक्ति तलाषी के समय अभियुक्त नहीं है, परंतु बाद में हो जाता है, तब वह अनुच्छेद 20 (3) के संरक्षण का दावा नहीं कर सकता है।
किसी प्रषासनिक निकाय के द्वारा की जा रही कार्यवाही में भी 20 (3) का संरक्षण प्राप्त नहीं होता है। न्यायालय अवमाना की कार्यवाही अपराधिक कार्यवाही नही है। अतः इसमे 20 (3) का संरक्षण प्राप्त नहीं है (दिल्ली न्यायिक सेवा संघ तीस हजारी न्यायालय गुजरात राज्य, ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 2177)
अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत मौन रहने का अधिकार:- अनुच्छेद 20 (3) प्रावधित करता है कि किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरूद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। ऐसी स्थिति मे अभियुक्त व्यक्ति के मौन रहने का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक स्वतंत्रता के अधिकार तक विस्तारित है आलोक नाथ दत्त विरूद्ध पष्चिम बंगाल राज्य, (2007) 12 एस.सी.सी. 230, अपराधी स्वयं की स्वतंत्र सम्मति के बिना कोई स्वीकृति करने या विवरण देने हेतु बाध्य नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के द्वारा प्रदत्त यह मूलाधिकार, नागरिक व राजनैतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्षन (ICCPR) के अनुच्छेद 14 में भी अंगीकृत किया गया है। इसे अक्सर, मौन रहने का अधिकार भी कहा जाता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के द्वारा प्रदत्त सुरक्षा को अनुच्छेद 21 के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए; क्योंकि अनुच्छेद 20 मे प्रदत्त अधिकारों को दिए बिना अनुच्छेद 21 के उद्देष्य की पूर्ति नही हो पाएगी। अतः व्यक्ति के प्राण व दैहिक स्वतंत्रता को वास्तविक अर्थों में प्राप्त करने के लिए अनुच्छेद 20 व 21 को संयुक्त रूप में ही देखा जाना चाहिए। अनुच्छेद 20 में प्रदत्त अधिकार व्यक्तियों को अत्याचार व यातना से सुरक्षा प्रदान करने हेतु अनिवार्य है।
न्यायिकअधिकारीगण जिला- षिवपुरी, भोपाल, मंडला
धन्वाद सर
ReplyDeleteधन्वाद सर
ReplyDeleteThank you sir
ReplyDeleteThanks a lot Sir
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