स्वर्णसिंह प्रकरण (2004) 3 उम. नि. प. 24-MACT
स्वर्णसिंह प्रकरण (2004) 3 उम. नि. प. 24
(उच्चतम् न्यायालय)
नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम स्वर्णसिंह और अन्य
मुख्य न्यायमूर्ति बी.एन. खरे,
न्यायमूर्ति डी.एम. धर्माधिकारी और
न्यायमूर्ति एस.बी.सिन्हा
बीमा शर्तों का उल्लंघन, फर्जी लायसेंस, लर्निंग लायसेंस, पे एण्ड री-कव्हर, अदृश्य कारणों जैसे मैकेनिकल असफलता आदि में लायसेंस का बचाव नहीं व अनुज्ञप्ति की शर्तों का मामूली भंग मान्य नहीं, के संबंध में प्रतिपादित महत्वपूर्ण सिद्धांत:-
1. मोटरयान अधिनियम की धारा 149 (2)(क)(पप) और 3 -पर-व्यक्ति
जोखिम के संबंध में बीमा शर्तों का उल्लंघन अर्थात् यान चालन अनुज्ञप्ति न
होना, जाली होना आदि प्रमाणित करने का भार बीमा कंपनी का है न कि वाहन
स्वामी या चालक का। मात्र चालन अनुज्ञप्ति का न होना, उसका जाली या
अविधिमान्य होना या सुसंगत समयबिन्दु पर यान चालन के लिए चालक की अयोग्यता
स्वयमेव ही बीमाकृत व्यक्ति या परव्यक्ति के विरूद्ध बीमाकर्ता को उपलब्ध
प्रतिरक्षाए नहीं है बीमाकर्ता को अपने दायित्व को टालने के लिए यह साबित
करना चाहिए कि बीमाकृत व्यक्ति ने यान चलाने में उपेक्षा बरती और उसने बीमा
पालिसी की शर्त पूरी करने में युक्तियुक्त सावधानी नहीं बरती या सम्यक्
रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त चालक नहीं था।
2.
मोटरयान अधिनियम की धारा 149 (4) व (5) परव्यक्ति जोखिम-बीमा कंपनी
के विरूद्ध पारित डिक्री-डिक्री की प्रथम बार ही पुष्टि करना बीमा कंपनी का
कानूनी दायित्व है और इस दायित्व को यह कहकर टाला नहीं जा सकता है कि
सुसंगत समय पर यान ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाया जा रहा था जिसके पास
अनुज्ञप्ति नहीं थी।
3.
मोटरयान अधिनियम की धारा 149 (2)-यदि दुर्घटना ऐसे किसी अन्य अदृश्य या
मध्यवर्ती कारण से, जिसका अपेक्षित प्रकार का अनुज्ञप्ति (लायसेंस) रखने से
कोई संबंध नहीं होता है तो बीमाकर्ता कंपनी लायसेंस की शर्तों के तकनीकी
भंगों के कारण दायित्व टाल नहीं सकती है।
4.
मोटरयान अधिनियम की धारा 149 (2), 4(3), 7(2), 10(3) और धारा 14-
परव्यक्ति जोखिम-शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति (लर्निंग लायसेंस) धारण करने वाले
व्यक्ति के यान से दुर्घटना-शिक्षार्थी यान चलाने का हकदार व्यक्ति सम्यक्
रूप से अनुज्ञा प्राप्त व्यक्ति होता है अतः बीमाकर्ता परव्यक्ति के पक्ष
में पारित डिक्री की तुष्टि के लिए दायी है।
5.
यदि बीमाकंपनी को किसी धनराशि का संदाय करने के लिए दायी बनाया जाता है तो
वह बीमाकृत व्यक्ति की ओर से परव्यक्ति को संगत सम्पूर्ण राशि वसूल कर
सकती है।
मोटरयान अधिनियम, 1988 (1988 का 59) - धारा 165 और धारा 168- प्रतिकर
दावे- दावा अधिकरण की अधिकारित न केवल दावेदार और दावाकर्ताओं, बीमाकर्ता
और चालक के मध्य के दावों तक ही सीमित है अपितु यह बीमाकर्ता और बीमाकृत
व्यक्ति के मध्य के विवादों को भी विनिश्चत करने के लिए सशक्त है और दावा
अधिकरण द्वारा अवधारित दावे प्रवर्तनीय है।
कानूनों का निर्वचन - अधिनियम के अधीन विरचित नियमों के किसी भी उपबंध को अनावश्यक नहीं समझा जाना चाहिए।
निर्णीतानुसरण का सिद्धांत - पर व्यक्ति के पक्ष में प्रथम बार पारित डिक्री की तुष्टि करने का बीमाकर्ता का दायित्व दीर्घकाल से प्रवर्तन में है और इससे साधारणतः विचलन नहीं किया जा सकता है।
मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा 149(2)(क)(पप) और उपधारा (4) तथा (5) के परन्तुक के निवर्चन के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत अधिकथित करने के लिए नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड ने मोटरयान दावा अधिकरण के अधिनिर्णय और उच्च न्यायालयों के निर्णयों को आक्षेपित करते हुए उच्चतम न्यायालय में विशेष इजाजत से विभिन्न याचिकाएं फाईल की। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से मिलकर बने तीन न्यायाधीशों वाले न्यायपीठ द्वारा उक्त अधिनियम की उक्त धारा के उपबंधों का निवर्चन करके विशेष याचिकाएं खारिज करते हुए,
अभिनिर्धारित - बीमाकर्ता मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा 163क या धारा 166 के अधीन फाईल दावा याचिका में, अन्य बातों के साथ-साथ, उक्त अधिनियम की धारा 149(2)(क)(पप) के निबंधनों के अनुसार प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने का हकदार है (पैरा 105 (पप))
इस बाबत् किसी प्रकार का संदेह या विवाद नही है कि अधिनियम की धारा 149(2) के अधीन बीमाकर्ता जिसे प्रतिकर की कोई कार्यवाही किये जाने की सूचना दे दी गई है, उसमें वर्णित किन्हीं आधारों पर कार्यवाही की प्रतिरक्षा कर सकता है। तथापि, खंड(क) इन शब्दों के साथ होता है ’’ कि पालिसी की विनिर्दिष्ट का भंग हुआ है’’ जिनसें यह विवक्षित है कि बीमाकर्ता की कार्यवाही का प्रतिरक्षा कथन पालिसी की निबंधनों पर आधारित होगा। उक्त उपखंड में विभाजक प्रकृति की तीन शर्ते हैं अर्थात् बीमाकर्ता दायित्व से मुक्ति पा सकता है जब (क) नामित व्यक्ति यान चलाए: (ख) वह ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाया जा रहा था जिसके पास उचित रूप से प्रदान की गयी अनुज्ञप्ति नहीं थी: और (ग) चालक ऐसा व्यक्ति है जिसे चालन अनुज्ञप्ति धारण करने या प्राप्त करने के लिए निरर्हित कर दिया गया है। इस तथ्य की भी अवेक्षा कर सकते हैं कि जबकि धारा 3 में ’’प्रभावी अनुज्ञप्ति’’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। धारा 149(2) में उचित रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त शब्दों का प्रयोग किया गया है। यदि दुर्घटना की तारीख पर कोई व्यक्ति चालन अनुज्ञप्ति धारण नहीं करता है तो वह अधिनियम की धारा 141 के निबंधनों के अनुसार अभियोजन के लिए उत्तरदायी हो सकता है, किन्तु धारा 149 पर व्यक्ति के जोखिमों से संबंधित बीमा के संबंध में है। किसी कानून का उपबंध जो ऐसे किसी उपबंध, जो पर-व्यक्ति के लिए हितकर है, की बनिस्वत शास्तिक प्रकृति का है, का निर्वचन भिन्न रूप से किया जाना चाहिए। यह भी सर्वविदित है कि भिन्न अभिव्यक्तियां में अंतर्विष्ट उपबंधों का अर्थान्वयन साधारणतः भिन्न रूप से ही किया जाता है। अतः न्यायालय की राय में मोटरयान अधिनियम की धारा 3 में प्रयुक्त ’’ प्रभावी अनुज्ञप्ति’’ शब्दों का अर्थ धारा 149 की उपधारा (2) के लिए नहीं लगाया जा सकता है। यह भी अवेक्षा करना चाहेंगे कि धारा 149 की उपधारा (2) में प्रयुक्त उचित रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त’ शब्दों का प्रयोग भूतकाल में किया जाता है।
बीमाकर्ता का दायित्व कानूनी दायित्व है। पर-व्यक्ति के पक्ष में पारित अनुज्ञप्ति की तुष्टि करने का बीमाकर्ता का दायित्व भी कानूनी दायित्व है। इस प्रकार यदि कोई दायित्व निर्णय के द्वारा स्थापित कर किया गया है, तो यह अनुज्ञेय नहीं होगा कि दायित्व का आधार सिद्ध करने के लिए अवधारण के परे विचार किया जाये। (पैरा 68 और 71)
अधिनियम की धारा 149 की उपधारा (4) के साथ संलग्न परंतुक के प्रति निर्देश केवल धारा 149 की उपधारा (2) के अधीन किया जा सकता है। यह एक स्वतंत्र उपबंध है और इस उपबंध को मोटरयान अधिनियम, 1939 की धारा 96(4) के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। इसके अलावा यह कहना एक बात है बीमाकर्ता बीमा की संविदा के निबंधनों के भंग के कारण अपने दायित्व को टालने का हकदार होगा और यह कहना कुछ और बात है कि यान का बीमा बिल्कुल ही नहीं हुआ है। यदि याची के विद्वान काउंसेल के निवेदन को स्वीकार कर लिया जाता है तो यह अधिनियम की धारा 149 की उपधारा(4) के साथ ही उपधारा (5) के परंतुक को भी निरर्थक कर देगा और न ही उपधारा(1) में अंतर्विष्ट बीमा कंपनीके दायित्व खंड को कोई प्रभावी अर्थ प्रदान किया जा सकता है। कमला वाले(उपर्युक्त) मामलें में दिये गये विनिश्चय को पूर्वोक्त संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। धारा 149 की उपधारा(5) जो बीमाकर्ता पर दायित्व अधिरोपित करती है, को भी पूर्ण रूप से प्रभावी बनाया जाना चाहिए। यह हो सकता है कि बीमा कंपनी की तुष्टि के लिए दायी न हो, इसलिये इसका दायित्व शून्य हो जाता है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसका बिल्कुल भी आरंभिक दायित्व नहीं था। इस प्रकार, यदि बीमा कंपनी को किसी धनराशि का संदाय करने के लिए दायी बनाया जाता है तो वह बीमाकृत व्यक्ति की ओर से पर-व्यक्ति को संदत्त संपूर्ण राशि वसूल सकती है। यदि अधिनियम के तात्पर्य और उददेश्य को ध्यान में रखकर उसके हितप्रद संबंधी का यह निर्वचन नहीं किया जाता है, तो हम हितकर उपबंधों को प्रभावी बनाने की स्थिति में नहीं है। अधिनियम की धारा 149 की उपधारा(7) जिसकी ओर से याची के विद्वान कांउसिल द्वारा न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया गया और जिसकी भाषा नकारात्मक है, की अब अवेक्षा की जा सकती है। उक्त स्थिति में उसकी उपधारा (1) के साथ पढ़ा जाना चाहिए। धारा 149 की उपधारा (2) के निबंधनों के अनुसार दायित्व टालने का अधिकार निर्बधित है जैसाकि इसमें इसके पहले उल्लेख किया जा चुका है। यह कहना एक बात है कि बीमा कंपनी प्रतिरक्षा का पक्षकथन करने की हकदार है, किन्तु यह कहना एक दूसरी बात है कि इस तथ्य के बावजूद कि मामलें के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसका कथन स्वीकार कर लिया गया, अधिकरण को प्रथम दो बार ही डिक्री तुष्टि के लिए और तत्पश्चात् उससे इसकी वसूली करने का निर्देश करने की शक्ति प्राप्त है। ये दोनों मामले अलग-अलग है और उसका अनुशीलन उसके संदर्भ में किया जाना आवश्यक है। अधिनियम की धारा 5 के निबंधनों के अनुसार मोटरयान के स्वामी की यह जिम्मेदारी है कि वह यह देखे कि किसी भी यान को ऐसे व्यक्ति के सिवाए जो अधिनियम की धारा 3 या 4 के उपबंधों की तुष्टि नहीं करता, चलाया नहीं जा सकता है। अतः ऐसे मामले में जहा चालक के पास स्वीकृततः कोई अनुज्ञप्ति नहीं है और जिस यान के स्वामी द्वारा मानपूर्वक ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाये जाने की अवज्ञा प्रदान कर दी गयी थी तो बीमाकर्मा अपनी प्रतिरक्षा में सफल होने पर दायित्व को टालने का हकदार है। तथापि उस स्थिति में यह बात भिन्न हो सकती है जहा तथ्य का यह विवादित प्रश्न उत्पन्न हो कि क्या चालक के पास विधिमान्य अनुज्ञप्ति थी या जहा यान के स्वामी ने यान चलाने को मानपूर्वक अनुज्ञा प्रदान करके बीमा की संविदा के निबंधनों और अधिनियम के उपबंधों का भंग किया। ऐसे मामले में यान के चालक की बिल्कुल भी कोई भूमिका नहीं हो सकती है अर्थात् ऐसा मामला दुर्घटना तकनीकी त्रुटि या दैविक घटना के कारण हो। (पैरा 77, 78 और 79)
ऐसे प्रत्येक मामले में अधिकरण के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत किये जाने पर इस बाबत् विनिश्चय किया जाना चाहिए कि चालक जो एक प्रकार के यान के लिए अनुज्ञप्ति रखता है, किन्तु उसे अन्य प्रकार का यान चलाते हुए पाया गया, दुर्घटना का प्रमुख या अभिदायी कारण था। यदि तथ्यों के आधार पर यह पाया जाता है कि दुर्घटना प्रमुखतः किसी अन्य अदृश्य या अंतरस्थ कारणों से हुई है जैसे कि मैकेनिकल असफलता और समरूप ऐसे अन्य कारणों जिनका उस चालक, जिसके पास अपेक्षित प्रकार की अनुज्ञप्ति रही है, से कोई संबंध नहीं है, तो बीमाकर्ता को चालन अनुज्ञप्ति से संबंधित शर्तो के मात्र तकनीकी भंग के कारण अपने दायित्व को टालने के लिए अनुज्ञात नही किया जा सकता। (पैरा 84)
अधिनियम की धारा 149 की उपधारा(2) के उपखंड(पप) की व्याप्ति का अर्थान्वयन किया और उसे अवधारित किया। अनुज्ञप्ति की शर्तो का मामूली रूप से भंग जैसे कि चालक की आयु के बारे में चिकित्सकीय दृष्टि से स्वस्थ न होने संबंधी प्रमाण पत्र और इसी प्रकार की अन्य बातों का न होना दुर्घटना का प्रत्यक्ष कारण न होना यानों के प्रयोग के मामले में नगण्य विचलन के मामूली भंग माने जायेगे। अनुज्ञप्ति की शर्तों से संबंधित ऐसे मामूली और नगण्य विचलनों के आधार पर पर-व्यक्तियों को बीमा के सुरक्षा संबंधी फायदे से वंचित नहीं किया जा सकता। पैरा(85)
मोटर यान अधिनियम, 1988 में शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति प्रदान किये जाने के लिए उपबंध है (देखे धारा 7(3) धारा 7(2), धारा 10(3) और धारा 14)। इस प्रकार शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति उक्त अधिनियमों के उपबंधों के अंतर्गत अनुज्ञप्ति भी है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि जब किसी यान को अनुज्ञप्ति में उल्लिखित शर्तो के अधीन शिक्षार्थी द्वारा चलाया जाता है तो वह ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिसको बीमाकर्ता द्वारा पर-व्यक्ति के दावे को टालने का अधिकार प्रदान करने के लिए सम्यक रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त नहीं है। यह कहा जा सकता कि वह व्यक्ति जिसके पास शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति है, यान चलाने का अधिकार नहीं है। यदि बीमा की संविदा में ऐसे कोई शर्त विद्यमान है कि यान शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति रखने वाले व्यक्ति द्वारा चलाया जा सकता है तो यह उक्त अधिनियम की धारा 149(2) के उपबंधों के प्रतिकूल नहीं है। (पैरा-88)
उक्त अधिनियम में अंतर्विष्ट उपबंधों में यान चालन अनुज्ञप्ति जो अन्यथा शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति होती है... किये जाने के लिए भी उपबंध है। अधिनियम की धारा 3(2) और 6 में यान चालन अनुज्ञप्ति प्रदान किये जाने के मामले में निर्बधन के लिए उपबंध है। धारा 7 में शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति प्रदान किये जाने के मामले में ऐसे निर्बंधनों का वर्णन है। धारा 8 और 9 में यान चालन अनुज्ञप्ति प्रदान किये जाने की रीति और शर्तो के लिए उपबंध है। धारा 15 में यान चालन अनुज्ञप्ति के नवीनीकरण के लिए उपबंध है। शिक्षार्थी अनुज्ञप्तिया केन्द्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा अपनी नियम बनाने की शक्ति के प्रयोग में विरचित नियमों के अधीन प्रदान की जाती है। कानून की शर्तो के अधीन प्रदान की गयी शिक्षार्थी अनुज्ञप्तियों में शर्ते जोड़ी है। इस प्रकार शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति धारण करने वाला व्यक्ति भी ’’सम्यक रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त..’’ की परिधि के अंतर्गत आयेगा क्योंकि ऐसी अनुज्ञप्ति भी अधिनियम के उपबंधों और उनके अधीन रचित नियमों के अधीन प्रदान की जाती है। अब यह विधि का सुस्थिर सिद्धांत है कि विधिमान्य रूप से रचित नियम कानून का भाग बन जाते हैं। अतः ऐसे नियमों को मुख्य अधिनियमिति के भाग रूप में पढ़ा जाना आवश्यक है। यह भी विधि का सुस्थापित सिद्धांत है कि कानून के निर्वचन के लिए नियम के अधीन सभी उपबंधों को प्रभावी बनाये जाने का प्रयास किया जाना चाहिए। किसी भी उपबंध को फालतू नहीं माना जाना चाहिए।
बीमाकर्ता द्वारा दायित्व से बचने के लिए पालिसी की शर्त का भंग अर्थात् अधिनियम की धारा 149 की उपधारा 2(क)(पप) में यथाअंतर्विष्ट चालक अयोग्यता या चालक द्वारा अविधिमान्य चालन अनुज्ञप्ति को बीमाकृत व्यक्ति द्वारा किया गया साबित होना चाहिए। मात्र चालन अनुज्ञप्ति का न होना, उसका जाली या विधिमान्य होना या सुसंगत समयबिंदु पर यान चालन के लिए चालक की योग्यता स्वयमेव ही बीमाकृत व्यक्ति या पर-व्यक्ति के विरूद्ध बीमाकर्ता को उपलब्ध प्रतिरक्षायें नहीं है। बीमाकृत व्यक्ति के विरूद्ध अपने दायित्व से बचने के लिए बीमाकर्ता को यह साबित करना चाहिए कि बीमाकृत व्यक्ति अपेक्षा का दोषी था, उसे सम्यक रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त चालक या ऐसे व्यक्ति द्वारा जो सुसंगत समय पर यान के चालन के अयोग्य नहीं था, यानों के प्रयोग के संबंध में पालिसी की शर्तो का पूरा करने के मामले में युक्तियुक्त सावधानी बरतने में विफल रहा। (पैरा 105(पप))
कानूनों का निर्वचन - अधिनियम के अधीन विरचित नियमों के किसी भी उपबंध को अनावश्यक नहीं समझा जाना चाहिए।
निर्णीतानुसरण का सिद्धांत - पर व्यक्ति के पक्ष में प्रथम बार पारित डिक्री की तुष्टि करने का बीमाकर्ता का दायित्व दीर्घकाल से प्रवर्तन में है और इससे साधारणतः विचलन नहीं किया जा सकता है।
मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा 149(2)(क)(पप) और उपधारा (4) तथा (5) के परन्तुक के निवर्चन के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत अधिकथित करने के लिए नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड ने मोटरयान दावा अधिकरण के अधिनिर्णय और उच्च न्यायालयों के निर्णयों को आक्षेपित करते हुए उच्चतम न्यायालय में विशेष इजाजत से विभिन्न याचिकाएं फाईल की। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से मिलकर बने तीन न्यायाधीशों वाले न्यायपीठ द्वारा उक्त अधिनियम की उक्त धारा के उपबंधों का निवर्चन करके विशेष याचिकाएं खारिज करते हुए,
अभिनिर्धारित - बीमाकर्ता मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा 163क या धारा 166 के अधीन फाईल दावा याचिका में, अन्य बातों के साथ-साथ, उक्त अधिनियम की धारा 149(2)(क)(पप) के निबंधनों के अनुसार प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने का हकदार है (पैरा 105 (पप))
इस बाबत् किसी प्रकार का संदेह या विवाद नही है कि अधिनियम की धारा 149(2) के अधीन बीमाकर्ता जिसे प्रतिकर की कोई कार्यवाही किये जाने की सूचना दे दी गई है, उसमें वर्णित किन्हीं आधारों पर कार्यवाही की प्रतिरक्षा कर सकता है। तथापि, खंड(क) इन शब्दों के साथ होता है ’’ कि पालिसी की विनिर्दिष्ट का भंग हुआ है’’ जिनसें यह विवक्षित है कि बीमाकर्ता की कार्यवाही का प्रतिरक्षा कथन पालिसी की निबंधनों पर आधारित होगा। उक्त उपखंड में विभाजक प्रकृति की तीन शर्ते हैं अर्थात् बीमाकर्ता दायित्व से मुक्ति पा सकता है जब (क) नामित व्यक्ति यान चलाए: (ख) वह ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाया जा रहा था जिसके पास उचित रूप से प्रदान की गयी अनुज्ञप्ति नहीं थी: और (ग) चालक ऐसा व्यक्ति है जिसे चालन अनुज्ञप्ति धारण करने या प्राप्त करने के लिए निरर्हित कर दिया गया है। इस तथ्य की भी अवेक्षा कर सकते हैं कि जबकि धारा 3 में ’’प्रभावी अनुज्ञप्ति’’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। धारा 149(2) में उचित रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त शब्दों का प्रयोग किया गया है। यदि दुर्घटना की तारीख पर कोई व्यक्ति चालन अनुज्ञप्ति धारण नहीं करता है तो वह अधिनियम की धारा 141 के निबंधनों के अनुसार अभियोजन के लिए उत्तरदायी हो सकता है, किन्तु धारा 149 पर व्यक्ति के जोखिमों से संबंधित बीमा के संबंध में है। किसी कानून का उपबंध जो ऐसे किसी उपबंध, जो पर-व्यक्ति के लिए हितकर है, की बनिस्वत शास्तिक प्रकृति का है, का निर्वचन भिन्न रूप से किया जाना चाहिए। यह भी सर्वविदित है कि भिन्न अभिव्यक्तियां में अंतर्विष्ट उपबंधों का अर्थान्वयन साधारणतः भिन्न रूप से ही किया जाता है। अतः न्यायालय की राय में मोटरयान अधिनियम की धारा 3 में प्रयुक्त ’’ प्रभावी अनुज्ञप्ति’’ शब्दों का अर्थ धारा 149 की उपधारा (2) के लिए नहीं लगाया जा सकता है। यह भी अवेक्षा करना चाहेंगे कि धारा 149 की उपधारा (2) में प्रयुक्त उचित रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त’ शब्दों का प्रयोग भूतकाल में किया जाता है।
बीमाकर्ता का दायित्व कानूनी दायित्व है। पर-व्यक्ति के पक्ष में पारित अनुज्ञप्ति की तुष्टि करने का बीमाकर्ता का दायित्व भी कानूनी दायित्व है। इस प्रकार यदि कोई दायित्व निर्णय के द्वारा स्थापित कर किया गया है, तो यह अनुज्ञेय नहीं होगा कि दायित्व का आधार सिद्ध करने के लिए अवधारण के परे विचार किया जाये। (पैरा 68 और 71)
अधिनियम की धारा 149 की उपधारा (4) के साथ संलग्न परंतुक के प्रति निर्देश केवल धारा 149 की उपधारा (2) के अधीन किया जा सकता है। यह एक स्वतंत्र उपबंध है और इस उपबंध को मोटरयान अधिनियम, 1939 की धारा 96(4) के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। इसके अलावा यह कहना एक बात है बीमाकर्ता बीमा की संविदा के निबंधनों के भंग के कारण अपने दायित्व को टालने का हकदार होगा और यह कहना कुछ और बात है कि यान का बीमा बिल्कुल ही नहीं हुआ है। यदि याची के विद्वान काउंसेल के निवेदन को स्वीकार कर लिया जाता है तो यह अधिनियम की धारा 149 की उपधारा(4) के साथ ही उपधारा (5) के परंतुक को भी निरर्थक कर देगा और न ही उपधारा(1) में अंतर्विष्ट बीमा कंपनीके दायित्व खंड को कोई प्रभावी अर्थ प्रदान किया जा सकता है। कमला वाले(उपर्युक्त) मामलें में दिये गये विनिश्चय को पूर्वोक्त संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। धारा 149 की उपधारा(5) जो बीमाकर्ता पर दायित्व अधिरोपित करती है, को भी पूर्ण रूप से प्रभावी बनाया जाना चाहिए। यह हो सकता है कि बीमा कंपनी की तुष्टि के लिए दायी न हो, इसलिये इसका दायित्व शून्य हो जाता है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसका बिल्कुल भी आरंभिक दायित्व नहीं था। इस प्रकार, यदि बीमा कंपनी को किसी धनराशि का संदाय करने के लिए दायी बनाया जाता है तो वह बीमाकृत व्यक्ति की ओर से पर-व्यक्ति को संदत्त संपूर्ण राशि वसूल सकती है। यदि अधिनियम के तात्पर्य और उददेश्य को ध्यान में रखकर उसके हितप्रद संबंधी का यह निर्वचन नहीं किया जाता है, तो हम हितकर उपबंधों को प्रभावी बनाने की स्थिति में नहीं है। अधिनियम की धारा 149 की उपधारा(7) जिसकी ओर से याची के विद्वान कांउसिल द्वारा न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया गया और जिसकी भाषा नकारात्मक है, की अब अवेक्षा की जा सकती है। उक्त स्थिति में उसकी उपधारा (1) के साथ पढ़ा जाना चाहिए। धारा 149 की उपधारा (2) के निबंधनों के अनुसार दायित्व टालने का अधिकार निर्बधित है जैसाकि इसमें इसके पहले उल्लेख किया जा चुका है। यह कहना एक बात है कि बीमा कंपनी प्रतिरक्षा का पक्षकथन करने की हकदार है, किन्तु यह कहना एक दूसरी बात है कि इस तथ्य के बावजूद कि मामलें के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसका कथन स्वीकार कर लिया गया, अधिकरण को प्रथम दो बार ही डिक्री तुष्टि के लिए और तत्पश्चात् उससे इसकी वसूली करने का निर्देश करने की शक्ति प्राप्त है। ये दोनों मामले अलग-अलग है और उसका अनुशीलन उसके संदर्भ में किया जाना आवश्यक है। अधिनियम की धारा 5 के निबंधनों के अनुसार मोटरयान के स्वामी की यह जिम्मेदारी है कि वह यह देखे कि किसी भी यान को ऐसे व्यक्ति के सिवाए जो अधिनियम की धारा 3 या 4 के उपबंधों की तुष्टि नहीं करता, चलाया नहीं जा सकता है। अतः ऐसे मामले में जहा चालक के पास स्वीकृततः कोई अनुज्ञप्ति नहीं है और जिस यान के स्वामी द्वारा मानपूर्वक ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाये जाने की अवज्ञा प्रदान कर दी गयी थी तो बीमाकर्मा अपनी प्रतिरक्षा में सफल होने पर दायित्व को टालने का हकदार है। तथापि उस स्थिति में यह बात भिन्न हो सकती है जहा तथ्य का यह विवादित प्रश्न उत्पन्न हो कि क्या चालक के पास विधिमान्य अनुज्ञप्ति थी या जहा यान के स्वामी ने यान चलाने को मानपूर्वक अनुज्ञा प्रदान करके बीमा की संविदा के निबंधनों और अधिनियम के उपबंधों का भंग किया। ऐसे मामले में यान के चालक की बिल्कुल भी कोई भूमिका नहीं हो सकती है अर्थात् ऐसा मामला दुर्घटना तकनीकी त्रुटि या दैविक घटना के कारण हो। (पैरा 77, 78 और 79)
ऐसे प्रत्येक मामले में अधिकरण के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत किये जाने पर इस बाबत् विनिश्चय किया जाना चाहिए कि चालक जो एक प्रकार के यान के लिए अनुज्ञप्ति रखता है, किन्तु उसे अन्य प्रकार का यान चलाते हुए पाया गया, दुर्घटना का प्रमुख या अभिदायी कारण था। यदि तथ्यों के आधार पर यह पाया जाता है कि दुर्घटना प्रमुखतः किसी अन्य अदृश्य या अंतरस्थ कारणों से हुई है जैसे कि मैकेनिकल असफलता और समरूप ऐसे अन्य कारणों जिनका उस चालक, जिसके पास अपेक्षित प्रकार की अनुज्ञप्ति रही है, से कोई संबंध नहीं है, तो बीमाकर्ता को चालन अनुज्ञप्ति से संबंधित शर्तो के मात्र तकनीकी भंग के कारण अपने दायित्व को टालने के लिए अनुज्ञात नही किया जा सकता। (पैरा 84)
अधिनियम की धारा 149 की उपधारा(2) के उपखंड(पप) की व्याप्ति का अर्थान्वयन किया और उसे अवधारित किया। अनुज्ञप्ति की शर्तो का मामूली रूप से भंग जैसे कि चालक की आयु के बारे में चिकित्सकीय दृष्टि से स्वस्थ न होने संबंधी प्रमाण पत्र और इसी प्रकार की अन्य बातों का न होना दुर्घटना का प्रत्यक्ष कारण न होना यानों के प्रयोग के मामले में नगण्य विचलन के मामूली भंग माने जायेगे। अनुज्ञप्ति की शर्तों से संबंधित ऐसे मामूली और नगण्य विचलनों के आधार पर पर-व्यक्तियों को बीमा के सुरक्षा संबंधी फायदे से वंचित नहीं किया जा सकता। पैरा(85)
मोटर यान अधिनियम, 1988 में शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति प्रदान किये जाने के लिए उपबंध है (देखे धारा 7(3) धारा 7(2), धारा 10(3) और धारा 14)। इस प्रकार शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति उक्त अधिनियमों के उपबंधों के अंतर्गत अनुज्ञप्ति भी है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि जब किसी यान को अनुज्ञप्ति में उल्लिखित शर्तो के अधीन शिक्षार्थी द्वारा चलाया जाता है तो वह ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिसको बीमाकर्ता द्वारा पर-व्यक्ति के दावे को टालने का अधिकार प्रदान करने के लिए सम्यक रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त नहीं है। यह कहा जा सकता कि वह व्यक्ति जिसके पास शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति है, यान चलाने का अधिकार नहीं है। यदि बीमा की संविदा में ऐसे कोई शर्त विद्यमान है कि यान शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति रखने वाले व्यक्ति द्वारा चलाया जा सकता है तो यह उक्त अधिनियम की धारा 149(2) के उपबंधों के प्रतिकूल नहीं है। (पैरा-88)
उक्त अधिनियम में अंतर्विष्ट उपबंधों में यान चालन अनुज्ञप्ति जो अन्यथा शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति होती है... किये जाने के लिए भी उपबंध है। अधिनियम की धारा 3(2) और 6 में यान चालन अनुज्ञप्ति प्रदान किये जाने के मामले में निर्बधन के लिए उपबंध है। धारा 7 में शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति प्रदान किये जाने के मामले में ऐसे निर्बंधनों का वर्णन है। धारा 8 और 9 में यान चालन अनुज्ञप्ति प्रदान किये जाने की रीति और शर्तो के लिए उपबंध है। धारा 15 में यान चालन अनुज्ञप्ति के नवीनीकरण के लिए उपबंध है। शिक्षार्थी अनुज्ञप्तिया केन्द्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा अपनी नियम बनाने की शक्ति के प्रयोग में विरचित नियमों के अधीन प्रदान की जाती है। कानून की शर्तो के अधीन प्रदान की गयी शिक्षार्थी अनुज्ञप्तियों में शर्ते जोड़ी है। इस प्रकार शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति धारण करने वाला व्यक्ति भी ’’सम्यक रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त..’’ की परिधि के अंतर्गत आयेगा क्योंकि ऐसी अनुज्ञप्ति भी अधिनियम के उपबंधों और उनके अधीन रचित नियमों के अधीन प्रदान की जाती है। अब यह विधि का सुस्थिर सिद्धांत है कि विधिमान्य रूप से रचित नियम कानून का भाग बन जाते हैं। अतः ऐसे नियमों को मुख्य अधिनियमिति के भाग रूप में पढ़ा जाना आवश्यक है। यह भी विधि का सुस्थापित सिद्धांत है कि कानून के निर्वचन के लिए नियम के अधीन सभी उपबंधों को प्रभावी बनाये जाने का प्रयास किया जाना चाहिए। किसी भी उपबंध को फालतू नहीं माना जाना चाहिए।
बीमाकर्ता द्वारा दायित्व से बचने के लिए पालिसी की शर्त का भंग अर्थात् अधिनियम की धारा 149 की उपधारा 2(क)(पप) में यथाअंतर्विष्ट चालक अयोग्यता या चालक द्वारा अविधिमान्य चालन अनुज्ञप्ति को बीमाकृत व्यक्ति द्वारा किया गया साबित होना चाहिए। मात्र चालन अनुज्ञप्ति का न होना, उसका जाली या विधिमान्य होना या सुसंगत समयबिंदु पर यान चालन के लिए चालक की योग्यता स्वयमेव ही बीमाकृत व्यक्ति या पर-व्यक्ति के विरूद्ध बीमाकर्ता को उपलब्ध प्रतिरक्षायें नहीं है। बीमाकृत व्यक्ति के विरूद्ध अपने दायित्व से बचने के लिए बीमाकर्ता को यह साबित करना चाहिए कि बीमाकृत व्यक्ति अपेक्षा का दोषी था, उसे सम्यक रूप से अनुज्ञप्ति प्राप्त चालक या ऐसे व्यक्ति द्वारा जो सुसंगत समय पर यान के चालन के अयोग्य नहीं था, यानों के प्रयोग के संबंध में पालिसी की शर्तो का पूरा करने के मामले में युक्तियुक्त सावधानी बरतने में विफल रहा। (पैरा 105(पप))
No comments:
Post a Comment