प्रारम्भिक वाद प्रश्न की विरचना किन परिस्थितियों में की जानी
चाहिये ?
प्रारंभिक वादप्रश्न विरिचित कर उसके आधार पर वाद का निराकरण करने के विषय में व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 में आदेश 14 नियम 2 उपनियम (2) के प्रावधान सुसंगत हैं, जो निम्नवत् हैं -
Order 14 Rule (2) (ii). - Where issues both of law and of fact arise in the same suit, and the Court is of opinion that the case or any part thereof may be disposed of on an issue of law only, it may try that issue first if that issue relates to -
(a) the jurisdiction of the Court, or
(b) a bar to the suit created by any law for the time being in force, and for that purpose may, if it thinks fit, postpone the settlement of the other issues until after that issue has been determined, and may deal with the suit in accordance with the decision on that issue."
नियम 2 के उक्त प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा हुए संशोधन के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये हैं। उक्त प्रावधानों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि न्यायालय विधि के किसी वादप्रश्न को प्रारंभिक वादप्रश्न के रूप में उसी दिशा में निराकृत कर सकता है जबकि विधि का ऐसा वादप्रश्न या तो न्यायालय की अधिकारिता के विषय में हो या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अंतर्गत वाद के वर्जन के विषय में हो। ऐसी दशा में किसी ऐसे वादप्रश्न का जो विशुद्ध विधि का तो है लेकिन न्यायालय की अधिकारिता का विधि के अंतर्गत वाद के वर्जन के विषय में नहीं है, निराकरण प्रारंभिक वादप्रश्न के रूप में नहीं किया जायेगा। समान रूप से यदि वादप्रश्न न्यायालय की अधिकारिता या विधि के अन्तर्गत वाद के वर्जन से संबंधित है लेकिन विशुद्ध रूप से विधि का वादप्रश्न नहीं है तो भी उसका निराकरण प्रारम्भिक वादप्रश्न के रूप में नहीं किया जा सकेगा। साथ ही ऐसा वादप्रश्न जिसका विनिश्चिय साक्ष्य के बिना करना संभव नहीं है, शुद्ध विधि का वादप्रश्न नहीं होगा तथा उसका विनिश्चय प्रारम्भिक वादप्रश्न के रूप में नहीं किया जा सकता है। न्यायशुल्क के संदाय का प्रश्न सीधे तौर पर न्यायालय की अधिकारिता से संबंध रखता है।
अतः उसे वादोत्तर प्रस्तुत करने से पूर्व उठाया जा सकता है; संदर्भः दिलीप सिंह विरूद्ध मालम सिंह, ए.आई.आर. 1986 एम.पी. 270 । न्याय दृष्टांत सुजीर केशव नायक विरूद्ध सुजीर गनेश नायक, ए.आई.आर. 1992 एस. सी. 1326 में किया गया विधिक प्रतिपादन भी इस संबंध में उल्लेखनीय है जिसमें यह ठहराया गया है कि न्यायशुल्क का प्रश्न न्यायालय की अधिकारिता से जुड़ा हुआ है। अतः प्रतिवादी द्वारा इस विषय में आपत्ति उठाये जाने पर उसे प्रारम्भिक वादप्रश्न के रूप में निराकृत किया जाना चाहिये।
चाहिये ?
प्रारंभिक वादप्रश्न विरिचित कर उसके आधार पर वाद का निराकरण करने के विषय में व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 में आदेश 14 नियम 2 उपनियम (2) के प्रावधान सुसंगत हैं, जो निम्नवत् हैं -
Order 14 Rule (2) (ii). - Where issues both of law and of fact arise in the same suit, and the Court is of opinion that the case or any part thereof may be disposed of on an issue of law only, it may try that issue first if that issue relates to -
(a) the jurisdiction of the Court, or
(b) a bar to the suit created by any law for the time being in force, and for that purpose may, if it thinks fit, postpone the settlement of the other issues until after that issue has been determined, and may deal with the suit in accordance with the decision on that issue."
नियम 2 के उक्त प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा हुए संशोधन के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये हैं। उक्त प्रावधानों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि न्यायालय विधि के किसी वादप्रश्न को प्रारंभिक वादप्रश्न के रूप में उसी दिशा में निराकृत कर सकता है जबकि विधि का ऐसा वादप्रश्न या तो न्यायालय की अधिकारिता के विषय में हो या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अंतर्गत वाद के वर्जन के विषय में हो। ऐसी दशा में किसी ऐसे वादप्रश्न का जो विशुद्ध विधि का तो है लेकिन न्यायालय की अधिकारिता का विधि के अंतर्गत वाद के वर्जन के विषय में नहीं है, निराकरण प्रारंभिक वादप्रश्न के रूप में नहीं किया जायेगा। समान रूप से यदि वादप्रश्न न्यायालय की अधिकारिता या विधि के अन्तर्गत वाद के वर्जन से संबंधित है लेकिन विशुद्ध रूप से विधि का वादप्रश्न नहीं है तो भी उसका निराकरण प्रारम्भिक वादप्रश्न के रूप में नहीं किया जा सकेगा। साथ ही ऐसा वादप्रश्न जिसका विनिश्चिय साक्ष्य के बिना करना संभव नहीं है, शुद्ध विधि का वादप्रश्न नहीं होगा तथा उसका विनिश्चय प्रारम्भिक वादप्रश्न के रूप में नहीं किया जा सकता है। न्यायशुल्क के संदाय का प्रश्न सीधे तौर पर न्यायालय की अधिकारिता से संबंध रखता है।
अतः उसे वादोत्तर प्रस्तुत करने से पूर्व उठाया जा सकता है; संदर्भः दिलीप सिंह विरूद्ध मालम सिंह, ए.आई.आर. 1986 एम.पी. 270 । न्याय दृष्टांत सुजीर केशव नायक विरूद्ध सुजीर गनेश नायक, ए.आई.आर. 1992 एस. सी. 1326 में किया गया विधिक प्रतिपादन भी इस संबंध में उल्लेखनीय है जिसमें यह ठहराया गया है कि न्यायशुल्क का प्रश्न न्यायालय की अधिकारिता से जुड़ा हुआ है। अतः प्रतिवादी द्वारा इस विषय में आपत्ति उठाये जाने पर उसे प्रारम्भिक वादप्रश्न के रूप में निराकृत किया जाना चाहिये।
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