क्या एक प्रतिवादी, सह-प्रतिवादी के विरूद्ध
प्रतिदावा संस्थित कर सकता है?
सह-प्रतिवादी के विरूद्ध प्रतिदावा लाये
जाने पर न्यायालय द्वारा क्या प्रक्रिया
अपनायी जानी चाहिए ?
आदेश 8 नियम 6-क सिविल प्रक्रिया संहिता, के
अंतर्गत प्रतिवादी को वादी के दावे के विरूद्ध
किसी अधिकार या दावे के लिए जो वाद प्रस्तुत
किये जाने के पूर्व या पश्चात् किन्तु प्रतिवादी द्वारा
अपनी प्रतिरक्षा परिदत् करने या इसके लिए
परिसीमित समय व्यतीत हो जाने के पूर्व किसी
वाद हेतुक के संबंध में प्रोद्भूत हुआ हो,
प्रतिदावा करने का अधिकार दिया गया है। ऐसा
प्रतिदावा न्यायालय की अधिकारिता की धन
संबंधी सीमाओं के अंदर संस्थित किया जा
सकता है। ऐसा प्रतिदावा वाद पत्र के रूप में
माना जाएगा जिसके लिए वाद पत्रों को लागू
होने वाले नियम लागू होंगे। प्रावधान से स्पष्ट है
कि प्रतिवादी, वादी के दावे के विरूद्ध ही
प्रतिदावा संस्थित कर सकता है। प्रतिदावे को
वाद पत्र के रूप में मान्य करने का तात्पर्य यह
नहीं है कि ऐसा प्रतिदावा अन्य सभी प्रयोजनों
के लिए एक नया वाद पत्र होगा। इसलिए
सह-प्रतिवादी के विरूद्ध अनुतोष की मांग
प्रतिदावे के माध्यम से नहीं की जा सकती है।
सह-प्रतिवादी के विरूद्ध प्रतिदावा पोषणीय नहीं
है। जैसा कि माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय
ने उधवदास त्यागी विरूद्ध श्रीमूर्ति राधाकृष्ण
मंदिर, 2002 (1) एम.पी. वीकली नोट 31, में
प्रतिपादित किया है। ऐसा ही मत कुलवंत सिंह
विरूद्ध गुरूचरण सिंह, ए.आई.आर. 2003
पंजाब एवं हरियाणा 1, में प्रतिपादित किया
गया है।
आदेश 8 नियम 6-ग सिविल प्रक्रिया संहिता
में यह प्रावधान किया गया है कि जहाँ प्रतिदावा
के संबंध में वादी कि यह दलील है कि प्रतिवादी
के दावे का निराकरण स्वतंत्र वाद के रूप में
किया जाना चाहिए, वहाँ न्यायालय प्रतिदावे के
अपवर्जन का आदेश कर सकता है। इस तरह
से जहाँ प्रतिवादी ने सह-प्रतिवादी के विरूद्ध
अनुतोष के लिए प्रतिदावा प्रस्तुत किया है
वहाँ न्यायालय के लिए यह उपयुक्त होगा कि
ऐसे मामले में आदेश 8 नियम 6-ग सिविल
प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत प्रतिदावे का अपवर्जन
करने और प्रतिवादी को सह-प्रतिवादी के विरूद्ध
ऐसे किसी अनुतोष, जो प्रतिदावे के माध्यम से
चाहा गया है, के संबंध में पृथक और स्वतंत्र
वाद संस्थित करने का निर्देश देते हुए आदेश
पारित करे।
प्रतिदावा संस्थित कर सकता है?
सह-प्रतिवादी के विरूद्ध प्रतिदावा लाये
जाने पर न्यायालय द्वारा क्या प्रक्रिया
अपनायी जानी चाहिए ?
आदेश 8 नियम 6-क सिविल प्रक्रिया संहिता, के
अंतर्गत प्रतिवादी को वादी के दावे के विरूद्ध
किसी अधिकार या दावे के लिए जो वाद प्रस्तुत
किये जाने के पूर्व या पश्चात् किन्तु प्रतिवादी द्वारा
अपनी प्रतिरक्षा परिदत् करने या इसके लिए
परिसीमित समय व्यतीत हो जाने के पूर्व किसी
वाद हेतुक के संबंध में प्रोद्भूत हुआ हो,
प्रतिदावा करने का अधिकार दिया गया है। ऐसा
प्रतिदावा न्यायालय की अधिकारिता की धन
संबंधी सीमाओं के अंदर संस्थित किया जा
सकता है। ऐसा प्रतिदावा वाद पत्र के रूप में
माना जाएगा जिसके लिए वाद पत्रों को लागू
होने वाले नियम लागू होंगे। प्रावधान से स्पष्ट है
कि प्रतिवादी, वादी के दावे के विरूद्ध ही
प्रतिदावा संस्थित कर सकता है। प्रतिदावे को
वाद पत्र के रूप में मान्य करने का तात्पर्य यह
नहीं है कि ऐसा प्रतिदावा अन्य सभी प्रयोजनों
के लिए एक नया वाद पत्र होगा। इसलिए
सह-प्रतिवादी के विरूद्ध अनुतोष की मांग
प्रतिदावे के माध्यम से नहीं की जा सकती है।
सह-प्रतिवादी के विरूद्ध प्रतिदावा पोषणीय नहीं
है। जैसा कि माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय
ने उधवदास त्यागी विरूद्ध श्रीमूर्ति राधाकृष्ण
मंदिर, 2002 (1) एम.पी. वीकली नोट 31, में
प्रतिपादित किया है। ऐसा ही मत कुलवंत सिंह
विरूद्ध गुरूचरण सिंह, ए.आई.आर. 2003
पंजाब एवं हरियाणा 1, में प्रतिपादित किया
गया है।
आदेश 8 नियम 6-ग सिविल प्रक्रिया संहिता
में यह प्रावधान किया गया है कि जहाँ प्रतिदावा
के संबंध में वादी कि यह दलील है कि प्रतिवादी
के दावे का निराकरण स्वतंत्र वाद के रूप में
किया जाना चाहिए, वहाँ न्यायालय प्रतिदावे के
अपवर्जन का आदेश कर सकता है। इस तरह
से जहाँ प्रतिवादी ने सह-प्रतिवादी के विरूद्ध
अनुतोष के लिए प्रतिदावा प्रस्तुत किया है
वहाँ न्यायालय के लिए यह उपयुक्त होगा कि
ऐसे मामले में आदेश 8 नियम 6-ग सिविल
प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत प्रतिदावे का अपवर्जन
करने और प्रतिवादी को सह-प्रतिवादी के विरूद्ध
ऐसे किसी अनुतोष, जो प्रतिदावे के माध्यम से
चाहा गया है, के संबंध में पृथक और स्वतंत्र
वाद संस्थित करने का निर्देश देते हुए आदेश
पारित करे।
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