Monday, 2 June 2014

रेशमा कुमारी - सरला वर्मा के निष्कर्षो का अनुसरण MACT

                       2013 (2) दु0मु0प्र0 145 (एस0सी0)
                                 उच्चतम न्यायालय

न्यायामूर्तिगण     माननीय आर.एम0लोढ़ा         
                        माननीय जे0चेलामेश्वर                
                        माननीय सदर बी0लोकुर        
       
       रेशमा कुमारी एवं अन्य
            बनाम
        मदन मोहन एवं एक अन्य

                            { सिविल अपील सं. 4646 एवं
                              4647 वर्ष 2009 के साथ सी0
                              ए0सं0 4647 वर्ष 2009,निर्णीत
                                   दिनांक 2 अप्रैल, 2013}

(प)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 163-क, 166, 168 एवं 173-मुआवजा-गुणक की प्रयोज्यता तथा भावी प्रत्याशाओं के संबंध में गुण्य का निर्धारण-अधिनियम द्वारा दावाकर्तागण को यह चयन प्रदान किया गया है कि वे धारा 163-क में यथा प्रावधानित संरचनात्मक सूत्र के आधार पर मुआवजे की ईप्सा करें अथवा धारा 166 के अधीन धारा 165 (1) में विनिर्दिष्ट प्रकृति की दुर्घटना से उद्भूत दुर्घटना में मुआवजे के लिये आवेदन करें-दावाकर्तागण की धारा 163-क और धारा 166 में प्रावधानित अनुतोषों में से किसी एक का चयन करना होगा-गुणक विधि पर आधारित मुआवजे का अधिनिर्णय स्थापित प्रारूप है-गुणक का प्रयोग मृतक की आयु को दृष्टिगत रखते हुये किया जाना चाहिए ताकि गुणक के चयन में समरूपता और संगतता प्राप्त की जा सके-गुण्य सामान्यतया मृतक की मृत्यु की तिथि पर आश्रितता के शुद्ध वार्षिक मूल्य पर आधारित होता है-जब शुद्ध वार्षिक क्षति निर्धारित कर ली जाती है ऐसी धनराशि को गुणक द्वारा गुणा किया जाना होगा कि आश्रितता की क्षति प्राप्त की जा सके-भावी प्रत्याशाओं के प्रति आय बढ़ोत्तरी का मानकीकरण युक्तियुक्त मुआवजा अभिप्राप्त करने में निश्चितता पाने में सहायक होगा।
                                 {पैरा 1, 13, 33 एवं 36}
(पप)     मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 163-क एवं 166-मुआवजा-त्रुटिहीन दायित्व-उसके चालक की उपेक्षापूर्ण चालन के कारण दुर्घटना के पीडित को प्रतिपूरित करने के लिये अपराधग्रस्त वाहन के स्वामी का दायित्व अपकृत्य की विधि पर आधारित है-स्वामी के दायी ठहराए जाने के पूर्व यह साबित करना आवश्यक होगा कि चालक ने अपने नियोजन के अनुक्रम में कृत्य किया था तथा वह उपेक्षापूर्ण था-बिना किसी उपेक्षा के स्वामी के दायित्व का विचार विधि के मूल सिद्धांत के विपरीत है।                               {पैरा 2}
(पपप)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 163-क, 166 एवं 168-मुआवजा-अधिनियम की द्वितीय अनुसूची के अधीन प्रावधानित संरचनात्मक सूत्र के आधार पर मुआवजे का भुगतान करने से सामान्यतया विचलन नहीं किया जाना चाहिए-अधिनियम की धारा 168, मुआवजे के निर्धारण हेतु धारा 166 के निर्बन्धनों में दिशानिर्देश अवधारित करती है-संरचनात्मक सूत्र से विचलन केवल आपवादिक मामलों में ही किया जाना चाहिए-मुआवजे की धनराशि प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में न्यायोचित एवं उपयुक्त होनी चाहिए।    {पैरा 20}
(पअ)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 166-मुआवजा-आश्रिता की सीमा-निर्धारण-यह प्रत्येक व्यक्तिगत मामले की विशिष्ट परिस्थिति के परीक्षण पर निर्भर करता है-गुण्य या आश्रितता का मूल्यांकन किसी सीमा तक गणितीय व्यायाम होता है-गुण्य सामान्य रूप से मृतक की मृत्यु की तिथि पर आश्रितता के शुद्ध वार्षिक मूल्य पर निर्भर करता है-आश्रितता की क्षति अभिप्राप्त करने के लिये अधिकरण के द्वारा आय प्राप्त करने के लिये बढ़ोत्तरी/कटौतियों पर, मृतक के व्यक्तिगत व्ययों के लिये किये जाने वाली कटौतियों पर और मृतक की आयु के संदर्भ में लागू किये जाने वाले गुणक पर विचार किया जाना चाहिए।{पैरा 33}
(अ)    मोटर वाहन अधिनियम, 1988-धारा 173-मुआवजा-भावी प्रत्याशाए-मृतक की वास्तविक वेतन आय में वास्तविक वेतन के 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी जहां मृतक के पास स्थायी नौकरी थी और उसकी आयु 40 वर्ष से कम थी- यदि मृतक की आयु 40 से 50 वर्ष थी तो बढ़ोत्तरी 30 प्रतिशत होनी चाहिए-जहां मृतक की आयु 50 वर्ष से अधिक हो, कोई बढ़ोत्तरी नहीं होनी चाहिए-जहां मृतक स्वयं नियोजित था या बिना वार्षिक बढ़ोत्तरी के वह निश्चित वेतन पर था न्यायालयों/अधिकरणों के द्वारा मृत्यु के समय वास्तविक आय ही ग्रहण की जाएगी।                                                    {पैरा 35}
विर्दिष्ट वादः
        (1994) 2 एस0सी0सी0 176: 1997 (1) दु0मु0प्र0 189, (1996)3 एस0सी0सी0 179: 1996
(2) दु0मु0प्र0 91, (1996) 4 एस0सी0सी0 362,  (2001) 2 एस0सी0सी0 9: 2001 (1) दु0मु0प्र0 359, (2002) 6 एस0सी0सी0 306: 2000(2) दु0मु0प्र0 391, (2003) 3 एस0सी0सी0 148: 2003 (2) दु0मु0प्र0 121, (2007) 10 एस0सी0सी0 1: 2008 (1) दु0मु0प्र0 5, (1977) 2 एस0सी0सी0 441 (1987) 3 एस0सी0सी0 234,  (2004) 5 एस0सी0सी0 385, (2008) 4 एस0सी0सी0 162: 2008 (2) दु0मु0प्र0 463, (2009) 6 एस0सी0सी0 121: 2009 (2) दु0मु0प्र0 161, (2005) 10 एस0सी0सी0 720: 2006 (1) दु0मु0प्र0 1, (2004) 2 एस0सी0सी0 473, (2005) 6 एस0सी0सी0 236: 2006 (1) दु0मु0प्र0 22, (2006) 6 एस0सी0सी0 249: 2006(3) दु0मु0प्र0 43 (1913) ए0सी0 1, 1970 (2) एस0सी0आर0 688, 1942 (1) आल0ई0आर0 657, 1951 (2) आल0ई0आर0 448, 1962 (2) आल0ई0आर0 178, (2009) 4 एस0सी0सी0 513.

                                      निर्णय
आर0एम0लोढ़ा, न्यायमूर्ति-दो न्यायाधीशों की पीठ  (एस.बी.सिन्हा और सीरियाक जोसेफ, न्यायमूर्तिगण) ने दो सामान्य प्रश्नों पर इन अपीलों की सुनवाई की कार्यवाही की थी, नामतः (1) क्या मोटर वाहन अधिनियम, 1988  (संक्षिप्त में ‘‘1988 अधिनियम‘‘) से संलग्न द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट गुणक सभी मामलों में ईमानदारी से लागू किया जाना चाहिए? और  (2) क्या गुण्य के निर्धारण के लिये अधिनियम, 1988 कोई प्रक्रिया प्रदान करता है, विशिष्ट रूप से भावी प्रत्याशा के निर्धारण के लिये अधिनियम, 1988 कोई प्रक्रिया प्रदान करता है, विशिष्ट रूप से भावी प्रत्याशा के निर्धारण के संबंध में। सुनवाई के अनुक्रम में इस न्यायालय के कुछ विनिश्चयों को उद्धारित किया गया था, नामतः जनरल मैनेजर केरल राज्य सड़क परिवहन निगम, त्रिवेन्द्रम् बनाम सुसम्मा थामस एवं अन्य,  (1994) 2 एस0सी0सी0 176: 1997 (1) दु0मु0प्र0 189, सरला दीक्षित  (श्रीमती) एवं एक अन्य बनाम बलवन्त यादव एवं अन्य,  (1996) 3 एस0सी0सी0 179: 1996 (2) दु0मु0प्र0 91; उ0प्र0 राज्य सड़क परिवहन निगम एवं अन्य बनाम त्रिलोक चन्द्र एवं अन्य  (1996) 4 एस0सी0सी0 362; कौशनुमा बेगम  (श्रीमती) एवं अन्य बनाम न्यू इंण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी लि0 एवं अन्य, (2001) 2 एस0सी0सी0 9: 2001(1) दु0मु0प्र0 359; यूनाईटेड इंण्डिया इंश्योरेंस कंपनी लि0 एवं अन्य बनाम पैट्रीशिया जीन महाजन एवं अन्य (2002) 6 एस0सी0सी0 281: 2003(1) दु0मु0प्र0 161; ज्योति कौल एवं अन्य बनाम म0प्र0 राज्य एवं एक अन्य, (2002) 6 एस0सी0सी0 306:  2001(2) दु0मु0प्र0 391; अबाती बेजबरूआ बनाम डिप्टी डायरेक्टर जनरल, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण एवं एक अन्य,  (2003) 3 एस0सी0सी0 148: 2003(2) दु0मु0प्र0 121; न्यू इंण्डिया इंश्योरेंस कंपनी लि0 बनाम शान्ति पाठक (श्रीमती) एवं अन्य (2007) 10 एस0सी0सी0 1: 2008(2) दु0मु0प्र0 51, पीठ का ध्यान अधिनियम, 1988 की धारा 163-क और 166 की ओर भी आकर्षित किया गया था। पीठ का यह अभिमत था कि यह प्रश्न कि क्या द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट गुणक को, अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन आने वाले मामले में संदेय मुआवजे की परिगणना के लिये, दिशा-निर्देश के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए या नहीं वृहद पीठ के द्वारा विनिश्चित किया जाना होगा। संदर्भ आदेश दिनांकित 23 जुलाई, 2009 में, उपरोक्त विवाद्यक को वृहद पीठ को संदर्भित करने के लिये इंगित किये गये कारण निम्नानुसार पठित हैं:
‘‘39.    हमने एतस्मिन्पूर्व उल्लेख किया है कि पैट्रीशिया जीन महाजन और अबाती बेजबरूआ (उपरोक्त) और उनका अनुसरण करने वाले अन्य मामलों में, मुआवजे की परिगणना करने के लिये, अधिनियम की धारा 166 के अधीन भी द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट गुणक को दिशानिर्देशक माना गया था। लेकिन शान्ति पाठक (उपरोक्त) के मामले में, इस न्यायालय ने कम गुणक की प्रयोज्यता का तर्क प्रस्तुत किया था यद्यपि उसमें कोई विधिक सिद्धांत प्रतिपादित नहीं किया गया है।
40.    त्रिलोक चन्द्र के मामले में, इस न्यायालय ने द्वितीय अनुसूची में कतिपय परिगणना की त्रुटियों को इंगित किया है। किन्तु हमें यह प्रतीत होता है कि उसमें कोई त्रुटी नहीं है। गुणक विधि लागू किये जाने पर मुआवजे की माग को भले ही उच्च अथवा न्यून धनराशि कहा जाए, केवल द्वितीय अनुसूची में ही मुआवजे की धनराशि का भुगतान किये जाने की उपेक्षा होगा।
41.    अधिनियम, 1988 की धारा 163-क किसी गुणक की प्रयोज्यता के संबंध में अधिकथन नहीं करती। द्वितीय अनुसूची के निर्बन्धनों में गुणक को अघातक दुर्घटना में निर्योग्यता के मामले में लागू किये जाने की अपेक्षा है। ‘‘त्रुटीहीन दायित्व‘‘ के मामले में, मृत्यु की दशा में, मुआवजे के भुगतान पर, विचारण के मुकाबले में स्थायी पूर्ण निर्योग्यता और स्थायी आंशिक योग्यता के मामले में संदेय मुआवजे की धनराशि को विभिन्न मानकों द्वारा द्वितीय अनुसूची के निर्बन्धनों में लागू किया जाना होगा। जबकि घातक दुर्घटना के मामले मे, मृतक की आयु और आय पर निर्भर करते हुये द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट राशि का भुगतान किया जाना होगा जहां गुणक लागू किये जाने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु स्थायी पूर्ण निर्योग्यता एवं स्थायी आंशिक निर्योग्यता अंतग्र्रस्त करने वाले मामलों में, संदेय मुआवजे की मात्रा, आय की वार्षिक क्षति को मुआवजे का निर्धारण करने की तिथि पर उपहत की आयु पर प्रयोज्य गुणक से गुणा करने के द्वारा अभिप्राप्त किया जा सकेगा और स्थायी आंशिक निर्योग्यता के मामले में, मुआवजे का ऐसा प्रतिशत जो द्वितीय अनुसूची के मद (क) के अधीन विनिर्दिष्ट रूप में संदेय होगा।
42.    विधान सभा ने अपनी बुद्धिमत्ता में, स्थायी पूर्ण निर्योग्यता के मामले में मुआवजे की उच्च धनराशि प्रदान करने और स्थायी आंशिक निर्योग्यता के मामले में, निर्योग्यता के प्रतिशत पर निर्भर करते हुये, मुआवजे की आनुपातिक धनराशि प्रदान करने का विनिश्चय किया थ।
43.    इस प्रकार प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि यद्यपि किसी भी मामले में, द्वितीय अनुसूची में उल्लेख किये गये गुणक को दिशानिर्देश के रूप में ग्रहण किया जा सकेगा किन्तु वह निर्णायक नहीं होता है। हमारे विचार से यद्यपि, यदि पीडित की आयु 17 या 20 वर्ष हो और उसकी वार्षिक आय रूपये 40,000 तो उसके विधिक प्रतिनिधियों को द्वितीय अनुसूची में यथा विनिर्दिष्ट रूपये 7,60,000 की धनराशि प्राप्त होगी किन्तु यदि मुआवजा प्रदान किये जाने के लिये आवेदन अधिनियम, 1988 की धारा 166 के निर्बन्धनों में दाखिल किया जाता है तो उतनी धनराशि का भुगतान नहीं किया जा सकेगा, यद्यपि पूर्ववर्ती मामले में मुआवजे की धनराशि का निर्धारण ‘‘त्रुटीहीन दायित्व‘‘ के आधार पर। उपरोक्त परिस्थितियों में, हमारे अभिमत में न्यायालयों से कतिपय सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने की उपेक्षा होगी।
44.    हमें धारा 163-क को प्रस्तुत करने के लिये 1994 के अधिनियम 54 के उद्देश्यों और कारणों के कथन का ज्ञान है, जिसके माध्यम से आयु/आय के आधार पर सड़क दुर्घटनाओं के पीडितों को मुआवजे का भुगतान करने हेतु नया पूर्वनिश्चित सूत्र प्रदान किया गया है, जो अधिक उदार और तर्कसंगत है। यह ऐसा हो सकता है किन्तु यह इस तर्क के मिथ्या ठहराता है कि क्यों ऐसी ही समान परिस्थिति में, उपहत दावाकर्ता या मृत्यु के मामले में उत्तराधिकारी, विधिक प्रतिनिधि, मोटर वाहन के चालक की ओर से उपेक्षा के सबूत पर द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट राशि से कम राशि प्राप्त करेगें। हमारे अभिमत में न्यायालयों के द्वारा इस कारक को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
45    अभिमत की विभिन्नता को दृष्टिगत रखते हुये तथा क्योंकि मामले के इस पहलू पर पूर्व के विनिश्चयों में विचार नहीं किया गया है, विशेष रूप से, त्रिलोक चन्द्र (उपरोक्त) के मामले में किये गये अनुमोदनों के बावजूद विधान सभा से किसी भी स्पष्टीकरण के अभाव में, हमारे अभिमत में, यह विवाद्यक वृहद् पीठ के द्वारा विनिश्चित किया जाएगा। तद्नुसार निर्देश किया जाता है।‘‘
2.    हम उपरोक्त संदर्भ से संबंधित हैं। इससे पहले कि हम अधिनियम, 1988 की धारा 163-क और 166 में निहित प्रावधानों को संदर्भित करें, यह उल्लेख किया जाना सुसंगत होगा कि विधायन ने परिनियम में त्रुटीहीन दायित्वों के प्रावधानों को अन्तः स्थापित करना किस पृष्ठ भूमि में आवश्यक समझा था। यह इस प्रकार हुआ था कि मीनू बी0मेहता एवं एक अन्य बनाम बालकृष्ण रामचन्द्र नयन एवं एक अन्य, (1977) 2 एस0सी0सी0 441 के मामले में, इस प्रश्न पर विचारण करते हुये कि क्या सार्वजनिक सड़क पर वाहन के प्रयोग को अन्तग्र्रस्त करने वाली दुर्घटना से परिणामित उपहति का तथ्य दायित्व का आधार होगा और क्या चालक की ओर से उपेक्षा को साबित करना आवश्यक नहीं है, इस न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अभिनिर्धारित किया था कि एक बार दुर्घटना में, उसके सेवक के उपेक्षापूर्ण चालन के कारण पीडित को प्रतिपूरित करने का कार के स्वामी का दायित्व अपकृत्य की विधि पर आधारित है और इससे पूर्व कि मालिक को दायी अभिनिर्धारित किया जाए यह साबित करना अनिवार्य होगा कि सेवक ने अपने नियोजन के अनुक्रम में कृत्य किया था और यह कि वह उपेक्षापूर्ण था। इस न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि बिना किसी उपेक्षा के स्वामी के दायित्व की धारणा विधि के सिद्धान्तों के विरूद्ध है। मात्र यह तथ्य कि एक सार्वजनिक स्थान में वाहन के प्रयोग से किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई या किसी पक्षकार को उपहति हुई, सवामी पर दायित्व अधिरोपित किये जाने को न्यायोचित् नहीं ठहराएगा। इस न्यायालय ने मेसर्स रूबी इंश्योरेंस कंपनी बनाम गोविंदराज (ए0ए0ओ0 सं0 607 वर्ष 1973 और 296 वर्ष 1974) निर्णीत दिनांक 13 दिसंबर, 1976 के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय का उल्लेख किया था, जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि सीमित विस्तार तक उपेक्षा के सबूत के होते हुये भी, दावाकर्तागण के लिये आच्छादन प्रदान करने हेतु सामाजिक बीमा आवश्यक है। इस न्यायालय ने यह अधिकथित किया था कि  ‘‘ जब तक इन विचारों को विधायन के द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता और उन्हें युक्तियुक्त अधिनियमितियों में विहित नहीं किया जाता, न्यायालय विद्यमान विधि को ही प्रभावी करने तथा उन्हीं के द्वारा प्रबन्धन करने के लिये बाध्य है। हम यह अधिकथित करने के द्वारा निष्कर्षित करते हैं कि उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों के अभिमत को विधि में कोई समर्थन प्राप्त नहीं है तथा यह अभिनिर्धारित करते हैं कि मोटर दुर्घटना वाद में मुआवजे का भुगतान करने के लिये स्वामी अथवा बीमा कम्पनी को दायी निर्णीत किये जाने के पूर्व उपेक्षा का सबूत आवश्यक होगा।‘‘
3.    विधान सभा ने इस न्यायालय के उपरोक्त अभिमत को यथा भारतीय विधि आयोग की संस्तुतियों को ध्यान में रखते हुये मोटर वाहन अधिनियम, 1939  (संक्षिप्त में ‘‘अधिनियम, 1939‘‘) को संशोधित कर उसमें धारा 92-क अन्तःस्थापित किया था, जो यह प्रावधान करती है कि धारा 92-क की उपधारा (1) के अधीन मुआवजे के किसी भी दावे में दावाकर्ता से यह अभिवाक् कर साबित करने की उपेक्षा नहीं होगी कि जिस मृत्यु अथवा स्थायी निर्योग्यता के संबंध में दावा किया गया है, यह सम्बन्धित वाहन के स्वामी अथवा स्वामियों या किसी अन्य व्यक्ति के त्रुटिपूर्ण कृत्य, उपेक्षा अथवा व्यतिक्रम के कारण था।
4.    गुजरात राज्य सड़क परिवहन विभाग, अहमदाबाद बनाम रमनभाई प्रभात भाई एवं एक अन्य, (1987) 3 एस0सी0सी0 234 के मामले में, दो न्यायाधीशों की पीठ ने यह अभिनिर्धारित किया था कि धारा 92-क के अधीन अधिनिर्णीत किये जाने वाला मुआवजा वाहन के स्वामी अथवा किसी अन्य व्यक्ति की ओर से उपेक्षा के सबूत के बिना था जो सामान्य विधि के सिद्धान्त से स्पष्ट विचलन था कि दावाकर्ता को मोटर वाहन दुर्घटना के कारण कारित मृत्यु अथवा स्थायी निर्योग्यता के लिये मुआवजे का दावा करने के पूर्व मोटर वाहन के स्वामी या चालक के ओर से उपेक्षा को स्थापित करना होगा। मीनू बी0मेहता (उपरोक्त) के मामले में किये गये कतिपय अवलोकनों को रमनभाई प्रभातभाई (उपरोक्त) में प्रासंगित अभिनिर्धारित किया गया था।
5.    अधिनियम, 1988 ने अधिनियम, 1939 का स्थान ले लिया था। अधिनियम, 1988 का अध्याय ग कतिपय मामलों में त्रुटि के बिना दायित्व से संव्यवहार करता है। धारा 140 की उपधारा (3) यह प्रावधान करती है कि उपधारा (1) के अधीन मुआवजे के लिये किसी भी दावे में, दावाकर्ता से यह अभिवाक् कर स्थापित करने की उपेक्षा नहीं होगी कि जिस मृत्यु अथवा निर्योग्यता के सम्बन्ध में दावा किया गया है, वह सम्बन्धित वाहन या वाहनों के स्वामी या स्वामियों के त्रुटिपूर्ण कृत्य, उपेक्षा अथवा व्यतिक्रम के कारण था। अधिनियम, 1988 का अध्याय ग्प् पर पक्षकार जोखिमों के विरूद्ध मोटर वाहनों के बीमा से संव्यवहार करता है। अध्याय ग्प्प् दावा अधिकरणों से संव्यवहार करता है। धारा 166 दुर्घटना से उद्भूत मुआवजे के दावे के लिये आवेदन का प्रावधान करती है जो कुछ संशोधन के पश्चात् निम्नानुसार पठित है:
‘‘धारा-166-प्रतिकर के लिये आवेदन-(1) धारा 165 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट प्रकार की दुर्घटना से उद्भूत प्रतिकर के लिये आवेदन निम्नलिखित द्वारा किया जा सकेगा अर्थात् -
(क)    उस व्यक्ति द्वारा, जिसे क्षति हुयी है; या
(ख)    सम्पत्ति का स्वामी द्वारा ; या
(ग)    जब दुर्घटना के परिणामस्वरूप मृत्यु हुई है, तब मृतक के सभी या किसी विधिक प्रतिनिधि द्वारा; या
(घ)    जिस व्यक्ति को क्षति पहुंची है उसके द्वारा अथवा सम्यक् रूप से प्राधिकृत किसी अभिकर्ता द्वारा अथवा मृतक के सभी या किसी विधिक प्रतिनिधि द्वारा;
    परंतु जहा प्रतिकर के लिये किसी आवेदन में मृतक के सभी विधिक प्रतिनिधि सम्मिलित नहीं हुये हैं, वहा वह आवेदन मृतक के सभी विधिक प्रतिनिधियों की ओर से या उनके फायदे के लिये किया जाएगा और जो विधिक प्रतिनिधि ऐसे सम्मिलित नहीं हुए हैं, उन्हें आवेदन के प्रत्यार्थियों के रूप में पक्षकार बताया जाएगा।
(2)    उपधारा (1) के अधीन प्रत्येक आवेदन दावाकर्ता के विकल्प पर, उस दावा अधिकरण की जिसकी उस क्षेत्र पर अधिकारिता थी जिसमें दुर्घटना हुई है, अथवा उस दावा अधिकरण को जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर दावाकर्ता निवास करता है या कारवार करता है अथवा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रतिवादी निवास करता है, किया जाएगा और वह ऐसे प्रारूप में होगा और उसमें ऐसी विशिष्टिया
होगी जो विहित की जाये।
    परंतु जहा धारा 140 के अधीन प्रतिकर के लिये कोई दावा ऐसे आवेदन में नहीं किया जाता है, वहा उस आवेदन में आवेदक के हस्ताक्षर के ठीक पूर्व उस आशय का एक पृथक कथन होगा।
(4)    दावा अधिकरण धारा 118 की उपधारा (6) के अधीन उसको भेजी गयी दुर्घटनाओं की किसी रिपोर्ट को इस अधिनियम के अधीन प्रतिकर के लिये आवेदन के रूप में समझेगा।‘‘
6.    1994 के अधिनियम 54 के द्वारा धारा 163-क अधिनियम, 1988 में लायी गई थी जो 14 नवम्बर, 1994 से प्रभावी हुई थी। धारा 163-क को उद्धरित किया जा सकता है जो निम्नानुसार पठित है:
        ‘‘ 163-क. संरचना सूत्र के आधार पर प्रतिकर के संदाय की बाबत विशेष उपबन्ध-(1) इस अधिनियम में अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि या विधि का बल रखने वाली किसी लिखत से किसी बात के होते हुये भी, मोटर वाहन का स्वामी या प्राधिकृत बीमाकर्ता मोटर वाहन के उपयोग से हुई दुर्घटना के कारण हुई मृत्यु या स्थायी निःशक्तता की दशा में, यथास्थिति विधिक वारिसों या आहत व्यक्ति को, दूसरी अनुसूची में उपवर्णित प्रतिकर का संदाय करने के लिये दायी होगा।
        स्पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये ‘‘स्थायी निःशक्तता‘‘ का वही अर्थ और विस्तार है जो कर्मकार प्रतिकर अधिनियम, 1923 (1923 का 8) में है।
        (2)    उपधारा (1) के अधीन प्रतिकर के लिये किसी दावे में, दावाकर्ता से यह अपेक्षा नहीं की जाएगी कि वह अभिवचन करे या यह सिद्ध करे कि वह मृत्यु या स्थानीय निःशक्तता जिसकी बाबत दावा किया गया है, सम्बंधित वाहन या वाहनों के स्वामी या किसी अन्य व्यक्ति के दोषपूर्ण कार्य या उपेक्षा या व्यतिक्रम के कारण हुई थी।
        (3)    केंद्रीय सरकार, जीवन निर्वाह की लागत को ध्यान में रखते हुये राजपत्र में अधिसूचना द्वारा समय समय पर दूसरी अनुसूची का संशोधन कर सकेगी।‘‘
7.    साथ ही धारा 163-क की उपधारा (3) जीवन निर्वाह की लागत को दृष्टिगत रखते हुये केन्द्रीय सरकारी को द्वितीय अनुसूची को समय-समय पर संशोधित करने के लिये सशक्त करती है।
8.    अधिनियम, 1988 में धारा 163-क की अन्तः स्थापना के परिणामस्वरूप अधिनियम, 1988 में कतिपय संशोधन किये गये थे। धारा 140 में उपधारा (5) जो अन्तः स्थापित की गयी थी निम्नानुसार पठित है:
        ‘‘किसी व्यक्ति की मृत्यु या शारीरिक क्षति के संबंध में उपधारा (2) में किसी बात के होते हुये भी जिसके लिये वाहन का स्वामी अनुतोष के रूप में प्रतिकर देने का दायी है, वह तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन प्रतिकर का संदाय करने का भी दायी होगा;
        परन्तु किसी अन्य विधि के अधीन किए जाने वाले प्रतिकर की ऐसी रकम को इस धारा या धारा 163-क के अधीन संदेय प्रतिकर की रकम में से घटा दिया जाएगा।‘‘
9.    धारा 163-क के साथ-साथ अधिनियम, 1988 में धारा 163-ख भी लायी गयी थी जो निम्नानुसार पठित हैः
        ‘‘163-ख. कतिपय दशाओं में दावा फाइल करने का विकल्प-जहा कोई व्यक्ति धारा 140 और धारा 163-क के अधीन प्रतिकर का दावा करने का हकदार है वहां वह केवल उक्त धाराओं में से किसी एक धारा के अधीन दावा फाईल करेगा न कि दोनों धाराओं के अधीन।‘‘
10.    अधिनियम, 1988 दावाकर्तागण को धारा 163-क में प्रावधानित संरचनात्मक सूत्र पर मुआवजे की ईप्सा करने या धारा 166 के अधीन धारा 165 की उप-धारा (1) में विनिर्दिष्ट प्रकृति की दुर्घटना से उद्भूत मुआवजे के लिये आवेदन करने का चयन प्रदान करता है। दावाकर्तागण को धारा 163-क और धारा 163-क और धारा 166 में प्रावधानित दो अनुतोषों में से किसी एक का चयन करना होगा। धारा 163-क में प्रदान किया गया अनुतोष धारा 166 में प्रदान किये गये अनुतोष में वृद्धि नहीं किन्तु यह धारा 166 का वैकल्पिक अनुक्रम प्रदान करती है। अधिनियम, 1988 में धारा 163-क अन्तः स्थापित करने के द्वारा  विधान सभा ने मुआवजे के भुगतान हेतु अनुतोष प्रदान किया है, अधिनियम 1988 में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि अथवा विधि का बल रखने वाले किसी लिखत में किसी भी तथ्य के होते हुये कि, मोटर वाहन का स्वामी या प्राधिकृत बीमाकर्ता संरचनात्मक सूत्र के आधार पर मुआवजे का भुगतान करने के लिये दायी होगा जैसे कि द्वितीय अनुसूची में इंगित है, मोटर वाहन के प्रयोग से उद्भूत दुर्घटना में मृत्यु अथवा स्थायी निर्योग्यता की दशा में। धारा 163-क का विशेष लक्ष्य यह है कि उसके अधीन किये गये दावे के लिये दावाकर्तागण से यह अभिवचन करने या स्थापित करने की अपेक्षा नहीं की जाती है कि जिस मृत्यु अथवा स्थायी निर्योग्यता के लिये दावा किया गया है, वह संबंधित वाहन के स्वामी अथवा स्वामियों के दोषपूर्ण कृत्य या उपेक्षा या व्यतिक्रम के कारण थी। धारा 163-क की योजना अपकृत्य के सामान्य सिद्धांत की विधि से यह विचलन है कि पीडित अथवा उसके उत्तराधिकारियों को मोटर दुर्घटना में प्रतिपूरित करने के लिये वाहन के स्वामी का दायित्व केवल चालक की उपेक्षा के सबूत पर ही उद्भूत होता है। धारा 163-क ने वाहन के चालक की उपेक्षा के सबूत की अपेक्षा को समाप्त कर दिया है जहा दुर्घटना का पीडित अथवा उसके आश्रित मुआवजे के लिये धारा 163-क के अधीन आवेदन करने का चयन करते हैं। जब मुआवजे के लिये आवेदन धारा 163-क के अधीन किया जाता है, मुआवजे का भुगतान द्वितीय अनुसूची में यथा इंगित अनुसार किया जाता है। द्वितीय अनुसूची की तालिका को इस न्यायालय के द्वारा त्रुटिपूर्ण पाया गया है, जिससे हम कुछ समय पश्चात् संदर्भित करेगें।
11.    दूसरी ओर धारा 166 के अधीन उद्भूत होने वाली दुर्घटना के लिये मुआवजे का आवेदन करते समय, दावाकर्ता के लिये यह आवश्यक है कि वह वाहन के चालक अथवा स्वामी की ओर से हुई उपेक्षा को साबित करे। वाहन के चालक या स्वामी की ओर से हुयी उपेक्षा को साबित करने का भार दावाकर्ता पर होगा, और उसे साबित किये जाने पर, दावाकर्ता मुआवजे का हकदार होगा। हमारे समक्ष यह प्रश्न है कि क्या धारा 166 के अधीन मुआवजे के लिये किये गये आवेदन पर विचार करते समय मुआवजे की धनराशि का निर्धारण करने हेतु द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट गुणक को दिशानिर्देशक माना जा सकेगा या नहीं।
12.    सुसम्मा थामस (उपरोक्त) के मामले में, इस न्यायालय ने (1) डेविस एवं एक अन्य बनाम पावेल डफ्रिन एसोसिएटेड कोलियरीज लि0, 1942(1) आल0ई0आर0 657 और (2) नैन्सी बनाम ब्रिटिश कोलाम्बिया इलेक्ट्रिक रेलवे कम्पनी लि0, 1951(2) आल0ई0आर0 448 के मामलों में हाउस आफ लार्डस के दो विनिश्चयों का उल्लेख किया था, जिनमें दो विभिन्न विधिया-एकमुश्त विधि और गुणक विधि-घातक दुर्घटना वादों में मुआवजे की परिगणना एवं निर्धारण हेतु अपनायी गयी थी। इस न्यायालय ने डेविस (उपरोक्त) के मामले में अपनायी गयी गुणक विधि को वरीयता प्रदान की है। इस प्रकार अभिनिर्धारित करते समय, इस न्यायालय ने मेलेट बनाम मैक मोंगाले, 1969(2) आल0ई0आर0178 के मामले में हाउस आफ लाडर्स के अन्य विनिश्चय को भी सन्दर्भित किया था। सुसम्मा थामस (उपरोक्त) में यह अवधारित किया गया है कि गुणक विधि तर्कसंगत तथा विधिक रूप से सुस्थापित विधि है। गुणक वर्षो की संख्या की क्रय क्षमता का प्रतिनिधित्व करता है जिस पर आश्रितता की क्षति पूंजीकृत की जाती है। गुणक विधि में, मामले की परिस्थितियों के संदर्भ में आश्रितता की क्षति अथवा गुण्य का निर्धारण किया जाता है और युक्तियुक्त गुणक के द्वारा गुण्य को पंजीकृत किया जाता है। गुणक का चयन मृतक की आयु द्वारा (अथवा दावाकर्तागण की आयु जो भी उच्चतर हो) निर्धारित किया जाता है और यह परिगणना करने के द्वारा कि वह मूल धनराशि क्या होगी जिसे एक स्थिर अर्थव्यवस्था के युक्तियुक्त ब्याज दर पर निवेश किया जाए, वह वार्षिक ब्याज के रूप में गुण्य प्रदान करेगी। इसका निर्धारण करने में, न्यायालय ने अधिकथित किया था कि इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाना होगा कि अन्ततः मूल धनराशि भी उस अवधि तक समाप्त हो जानी चाहिए जिस अवधि तक आश्रितता कायम रहने की आशा की जाती है। सुसम्मा थामस (उपरोक्त) के मामले में इस न्यायालय ने यह उल्लेख किया था कि अंग्रेजी न्यायालयों ने 16 से अधिक प्रभावी गुणक को शायद ही लागू किया है।
13.    मोटर दुर्घटना के मामले में गुणक विधि के आधार पर मुआवजे का अधिनिर्णय अब भारत में एक स्थापित प्रक्रम है। त्रिलोक चन्द्र (उपरोक्त) के मामले में, तीन न्यायाधीशों की पीठ ने उसी की पुनरावृत्ति की थी जो गुणक विधि के आधार पर दुर्घटना के मामलों में मुआवजे के निर्धारण हेतु सुसम्मा थामस (उपरोक्त) में अधिकथित किया गया था। त्रिलोक चन्द्र के मामले में, न्यायालय ने धारा 163-क और द्वितीय अनुसूची पर विचार किया था, जिन पर सुसम्मा थामस (उपरोक्त) के मामले में विचार नहीं किया गया था क्योंकि धारा 163-क उस समय परिनियम पर नहीं थी जब सुसम्मा थामस (उपरोक्त) का निर्णय प्रदान किया गया था। यह अवलोकन किया गया था कि अधिनियम, 1988 में धारा 163-क और 163-ख के अन्तः स्थापन के द्वारा परिस्थिति में परिवर्तन आया है। द्वितीय अनुसूची के अधीन अधिकतम गुणक 18 तक हो सकता था और 16 नहीं जैसे कि
सुसम्मा थामस (उपरोक्त) में अभिनिर्धारित किया गया था किन्तु न्यायालय ने मुआवजे की परिगणना में अनेक त्रुटिया पायीं थीं और द्वितीय अनुसूची में परिगणित धनराशि को भी त्रुटिपूर्ण पाया था। महत्वपूर्ण रूप में त्रिलोक चन्द्र में इस न्यायालय ने यह अधिकथित किया था कि अधिकरणों और न्यायालयों के द्वारा तत्कालगणक का आश्रय नहीं लिया जा सकेगा; अनुसूची का प्रयोग केवल दिशानिर्देशक के रूप में किया जा सकेगा। यही न्यायालय ने रिपोर्ट के परिच्छेद 17 और 18 में अधिकथित किया था:
‘‘17. 1994 के संशोधन अधिनियम 54 के द्वारा यथा संशोधित मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की अधिनिमिति के द्वारा परिस्थिति में परिवर्तन हुआ है। जहां तक मुआवजे का निर्धारण किये जाने का संबंध है संशोधन के द्वारा लाया गया महत्वपूर्ण परिवर्तन अध्याय ग्प् में धारा 163-क और 163-ख की अन्तः स्थापना है जिसका शीर्षक है, ‘‘पर-पक्षकार जोखिमों के विरूद्ध मोटर वाहनों का बीमा।‘‘ धारा 165-क एक अध्यारोही खण्ड से आरम्भ होती है तथा मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को या उपहत व्यक्ति को, जैसा भी मामला हो, द्वितीय अनुसूची में यथा इंगित रूप में, मुआवजे के भुगतान का प्रावधान करती है। अब यदि हम द्वितीय अनुसूची पर विचार करें, हम घातक दुर्घटनाओं से उद्भूत पर-पक्षकार दुर्घटना उपहति के मामलों के लिये मुआवजे की परिगणना की विधि को सुनिश्चित करने वाली तालिका पाते हैं। प्रथम स्तम्भ दुर्घटना के पीडितों का आयु समूह प्रदान करता है, द्वितीय स्तम्भ गुणक को इंगित करता है तथा पश्चात्वर्ती समस्तरीक अंक मृतक पीडित के उत्तराधिकारियों को संदेय मुआवजे की मात्रा इंगित करते हैं। इस तालिका के अनुसार, उस आयु समूह पर निर्भर करते हुये जिसमें पीडित का, गुणक 5 से 18 के बीच रहता है। इस प्रकार, इस अनुसूची के अधीन अधिकतम गुणक 18 तक हो सकेगा और 16 नहीं जैसे सुसम्मा थामस, (1994) 2 एस0सी0सी0 176: 1997(1) दु0मु0प्र0 189, के मामले में अभिनिर्धारित किया गया था।
18.    हम यह तुरन्त इंगित करना चाहते हैं कि अनुसूची में परिगणित मुआवजा और धनराशि में अनेक त्रुटिया हैं। उदाहरणार्थ, मद 1 में, 15 वर्ष के पीडित के लिये, दर्शित किया गया गुणक 15 वर्ष है और गुण्य रूपया 3,000 दर्शित किया गया है। इसका योग 3,000ग्15 =45,000 होना चाहिए किन्तु इसे रूपये 60,000 परिगणित किया गया है। इसी प्रकार, द्वितीय मद में, गुणक 16 है और वार्षिक आय रूपये 9,000 है; इसका योग रूपये 1,44,000 होना चाहिए था किन्तु इसे रूपया 1,71,000 दर्शित किया गया है। संक्षिप्त में, इस प्रकार की त्रुटियों की कमी नहीं है। न ही अधिकरणों, न ही न्यायालयों द्वारा इस शीघ्रगणक का आश्रय लिया जा सकता है। इसका उपयोग दिशा-निर्देशों के रूप में ही किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त गुणक का चयन सदैव सभी मामलों में मृतक की आयु पर ही निर्भर नहीं सकता। उदाहरणार्थ, यदि मृतक, एक अविवाहित, पुरूष की मृत्यु 45 वर्ष में हो जाती है, और उसे आश्रितगण उसके माता पिता हैं, तो गुणक के चयन में माता पिता की आयु भी सुसंगत होगी। किन्तु से त्रुटिया केवल वास्तविक परिगणनाओं तक ही सीमित हैं अन्य मदों के सम्बंध में नहीं। हम जिस पर बल देने का प्रस्ताव कर रहे हैं वह यह है कि गुणक 18 वर्षो के क्रय कारक से अधिक नहीं हो सकता। यह पूर्व स्थिति का सुधार है कि सामान्य रूप में, यह 16 से अधिक नहीं हो सकेगा। हम उचित विधिक स्थिति को अधिकथित करना आवश्यक समझाते हैं क्योंकि न्यायालयों और अधिकरणों के द्वारा उच्चतर गुणक का प्रयोग किया जा रहा है, जैसे वर्तमान मामले में, वहां अधिकारी ने 24 के गुणक का प्रयोग किया जिसे उच्च न्यायालय ने 34 तक बढ़ा दिया, जिसके द्वारा डेविस के मामले में गुणक प्रणाली की पृष्ठभूमि के विषय में अनभिज्ञता दर्शित की गयी है।‘‘
14.    सूपे. देई (श्रीमती) एवं अन्य बनाम नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड एवं एक अन्य (2009) 5 एस0सी0सी0 513 (सिविल अपील सं0 2753 वर्ष 2002, निर्णीत दिनांक 16 अप्रैल, 2002) के मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इस प्रश्न पर विचार किया था कि अधिनियम, 1988 की द्वितीय अनुसूची को क्या धारा 166 के अधीन मुआवजे के लिये किये गये आवेदन को विनिश्चित करने में लागू किया जा सकता है या नहीं ? इस न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि अधिनियम, 1988 की धारा 163-क के अधीन द्वितीय अनुसूची जो उस धारा के अधीन दावे के निर्धारण के उद्देश्य हेतु मुआवजे की धनराशि प्रदान करती है, उसे अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन मुआवजे का निर्धारण करने के लिये दिशा-निर्देश के रूप में ग्रहण किया जा सकेगा। द्वितीय अनुसूची अपने निर्बन्धनों में, अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन किये गये दावे पर लागू नहीं होती।
15.    पैट्रीशिया जीन महाजन (उपरोक्त) के मामले में, न्यायालय के समक्ष अधिनियम, 1988 की धारा 163-क और 166 पर विचार करने का अवसर था। धारा 163-क के संबंध में, न्यायालय ने अधिकथित किया था, ‘‘इस प्रावधान के उल्लेखनीय लक्षण यह हैं कि यह मोटर वाहन के प्रयोग से उद्भूत दुर्घटना के कारण मृत्यु अथवा स्थायी निर्योग्यता की दशा में मुआवजें का प्रावधान करती है। मुआवजे की धनराशि द्वितीय अनुसूची में इंगित रूप में होगी। दावाकर्ता के यह अभिवचन करने या साबित करने की अपेक्षा नहीं होती कि मृत्यु अथवा स्थायी निर्योग्यता दोषापूर्ण कृत्य या उपेक्षा या वाहन के स्वामी अथवा अन्य व्यक्ति के व्यतिक्रम के कारण हुई थी।‘‘
16.    तत्पश्चात् न्यायालय के अधिनियम, 1988 की धारा 165 और 166 को संदर्भित किया था तथा यह अवलोकन किया था कि धारा 166 के अधीन दावा द्वितीय अनुसूची के अनुसार मुआवजे को धनराशि प्रदान नहीं करती; अपितु धारा 168 यह स्पष्ट करती है कि अधिकरण को ही मुआवजे की ऐसी धनराशि अभिप्राप्त करना होगा जो वह मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में न्यायोचित् समझे। किन्तु न्यायालय ने यह अवलोकन अवश्य किया था कि द्वितीय अनुसूची में यथा प्रावधानित संरचनात्मक सूत्र ही धारा 166 के अधीन किये गये दावे के साथ संव्यवहार करते समय मुआवजे की परिगणना के लिये सुरक्षित दिशा निर्देश होगा।
17.    पैट्रीशिया जीन महाजन (उपरोक्त) में, उस मामले में व्याप्त तथ्यों के परिपेक्ष्य में, इस न्यायालय ने रिपोर्ट (पृष्ठ 294 और 295) के परिच्छेद 19 और 20 में निम्नानुसार अभिनिर्धारित किया था:
        ‘‘19.    वर्तमान मामले में हम यह जानते हैं कि मृतक के माता पिता की आयु 69/73 वर्ष थी। दो पुत्रियों की आयु 17 वर्ष और 19 वर्ष थी। इस मामले में मुख्य प्रश्न हमारे समक्ष है यह कि प्रदत्त परिस्थितियों में, गुण्य की राशि भी सुसंगत है। विद्वान एकल न्यायाधीश के द्वारा निर्धारित और खण्ड पीठ द्वारा उचित रीति से मान्य आश्रितता से धनराशि 2,26,297 डालर होती है। 10 का गुणक लागू करते हुये, ब्याज के साथ तथा रूपये 47 के परिवर्तन दर के साथ यह धनराशि रूपये 10.38 करोड़ होती है तथा 13 के गुणक से, रूपये 30 के परिर्वतन दर पर ब्याज सहित धनराशि रूपये 16.17 करोड़ होगी। ये धनराशिया वास्तव में बहुत अधिक हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था, राजस्व संबंधी और आर्थिक परिस्थिति को दृष्टिगत रखते हुये यह धनराशि निश्चित रूप में अत्यधिक है, यद्यपि अमरीकी परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में, यह ऐसा नहीं होगा। इस कारण, जहा दो स्थानों, अर्थात् जिस स्थान से पीडित संबंधित है और वह स्थान जहा मुआवजे का भुगतान किया जाता है, के बीच इतनी अधिक आर्थिक परिस्थितियों और जीवन स्तर में भिज्ञता है, सही एवं स्वर्णिम संतुलन बताया जाना होगा ताकि युक्तियुक्त और उचित मध्यावर्ती अभिप्राप्त किया जा सके ! भारतीय मानकों की दृष्टि से उन्हें बहुत अधिक मुआवजा प्रदान नहीं किया जा सकेगा और साथ ही बहुत कम मुआवजा भी प्रदान नहीं किया जा सकेगा, उस देश की पृष्ठभूमि में जहा अधिकतर आश्रित लाभार्थी निवास करते हैं। आश्रितों में से हो नामतः माता-पिता जिनकी आयु 69/73 वर्ष है, भारत में निवास करते हैं किन्तु उनमें से चार संयुक्त राष्ट्र में है। श्री सोली जे0 सोराबजी ने निवेदन किया कि गुण्य की धनराशि निश्चित तौर पर सुसंगत होगी और यदि यह उचित धनराशि हो तो युक्तियुक्त रीति से न्यून गुणक लागू किया जा सकेगा। हम इस निवेदन में प्रबलता पाते हैं। जैसे एतस्मिन्पूर्व इंगित है, सभी तथ्यों एवं कारकों पर विचार करते हुये, हमें यह प्रतीत होता है कि 7 के गुणक की प्रयोज्यता निश्चित रूप से न्यूतम है। गुणक के अंक में कुछ विचलन का अर्थ यह नहीं होगा कि लागू किये गये गुणक और अनुसूचित गुणक जो इस मामले में 13 हैं, के बीच व्यापक भिन्नता होगी। 7 और 13 के बीच भिन्नता काफी व्यापक है। जैसे एतस्मिन्पूर्व अवलोकन किया गया है, गुण्य की उच्च धनराशि और आश्रितों की आयु को दृष्टिगत रखते
हुये तथा इस तथ्य को भी ध्यान में रखते हुये कि माता-पिता भारत में निवास कर रहे हैं, हमारे अभिमत में, 10 का गुणक युक्तियुक्त होगा तथा यह एक उचित मुआवजा प्रदान करेगा, अर्थात् 10 वर्षो की क्रय क्षमता। तद्नुसार हम यह अभिनिर्धारित करते हैं कि विद्वान एकल न्यायाधीश के द्वारा लागू किया गया 10 का गुणक पुनः स्थापित किया जाना चाहिए, 13 के गुणक के बजाय जिसे खण्ड पीठ के द्वारा लागू किया गया था। हम दावाकर्तागण की ओर से किये गये निवेदनों में प्रबलता पाते हैं कि किन्हीं भी परिस्थितियों में गुण्य की राशि युक्तियुक्त गुणक की प्रयोज्यता के लिये सुसंगत विचारण नहीं होगी। हमने एतस्मिन्पूर्व की गयी विवेचना में अपने कारणों को प्रदान किया है।
20.    न्यायालय वास्तविकताओं की पूर्ण अनदेखी नहीं कर सकेगा। गुणक विहित करते समय द्वितीय अनुसूची में अधिकतम आय रूपये 40,000 परिकल्पित थी, किन्तु इसे उच्चतर आय के मामलों में विहित गुणक को लागू करने के लिये इसे एक सुरक्षित दिशा निर्देश माना जा सकेगा किन्तु ऐसे मामलों में जहा आय में अन्तर इतना व्यापक हो, जैसे वर्तमान मामलों में, आय 2,26,297 डालर है ऐसी परिस्थिति में, यह नहीं कहा जा सकेगा कि गुणक में कुछ विचलन अनुज्ञेय नहीं होगा। इस कारण द्वितीय अनुसूची में यथा प्रावधानित गुणक को लागू किये जाने से किया गया विचलन इस मामले में आवश्यक हो सकेगा। एतस्मिन्पूर्व इंगित करकों के अतिरिक्त गुण्य की राशि को भी विचारण में लिया जाना होगा जो इस मामले में, रूपये 2,26,297 डालर होती है, अर्थात् रूपये 30 की दर पर परिवर्तन करने के द्वारा लगभग रूपये 63 लाख। भारतीय मानकों के द्वारा, यह निश्चित ही उच्च धनराशि है। इस कारण, उचित मुआवजे के उद्देश्य के लिये, गुण्य को भारी धनराशि में कम गुणक लागू किया जा सकेगा। सुसम्मा थामस (उपरोक्त) के मामले में किये गये अवलोकनों के अनुसार भी गुणक के अंक में विचलन युक्तियुक्त रूप से अनुज्ञेय होगा। जिस मामले में सिवाय उसके माता-पिता के किसी अन्य उत्तरजीवी के एक अविवाहित पुरूष की 45 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी थी।‘‘
18.    पैट्रीशिया जीन महाजन (उपरोक्त) में उल्लेखनीय अवलोकन यह है कि (1) उचित मुआवजे के उद्देश्य के लिये एक भारी राशि के गुण्य पर एक कम गुणक लागू किया जा सकता है, और ;पपद्ध रयुक्तियुक्त मामलों में गुणक के अंक में विचलन युक्तियुक्त रूप में अनुज्ञेय होगा।
19.    दीपल गिरीशभाई सोनी एवं अन्य बनाम यूनाईटेड इंडिया इंश्योरेंस कम्पनी  लि0, बड़ौदा, (2004) 5 एस0सी0सी0 385 के मामले में, तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष विचारण हेतु जो प्रश्न उद्भूत हुआ था वह यह था कि क्या अधिनियम, 1988 की धारा 163-क के अधीन कार्यवाही अंतिम कार्यवाही थी और दावाकर्ता, जिसे धारा 163-क के अधीन मुआवजा प्रदान किया गया था, वह धारा 166 के निर्बन्धनों में त्रुटि के दायित्व के आधार पर अग्रेतर दावों के लिये कार्यवाही करने से अपवर्जित था या नहीं। इस न्यायालय ने धारा 163-क और 166 के साथ अधिनियम, 1988 में निहित विधिक प्रावधानों पर विचार किया था। धारा 163-क के संबंध में न्यायालय ने निम्नानुसार अधिकथित किया था:
‘‘42.    इस प्रकार धारा 163-क को ऐसे वर्ग के व्यक्त्
यों को तुरन्त अनुतोष प्रदान करने के लिये अधिनियमित किया गया था जिनकी वार्षिक आय रूपये 40,000 से अधिक नहीं थी, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कि अधिनियम की धारा 163-क सपठित उसकी द्वितीय अनुसूची के निर्बन्धनों में, मुआवजे का भुगतान संरचनात्मक सूत्र पर किया जाना होगा न केवल पीडित की आयु और उसकी आय को ध्यान में रखते हुये अपितु उससे सुसंगत अन्य कारकों को भी दृष्टिगत रखते हुये। इस कारण उसके अधीन किया गया अधिनिर्णय दावे के पूर्ण और अंतिम निस्तारण में होगा जैसे कि अधिनियम से संलग्न विभिन्न द्वितीय अनुसूची के विभिन्न स्तम्भों से प्रतीत होगा। यह प्रकृति में अंतरिम नहीं है ...........। उसके स्तंभ 2 से 6 में निहित शीर्षों के साथ मुआवजे के अन्य शीर्ष कोई सन्देह नहीं रख छोड़ने कि विधान सभी ने पीडितों के एक वर्ग को पर्याप्त मुआवजा प्रदान करने के उद्देश्य से एक व्यापक योजना अवधारित करने का आशय किया था, जिन्हे लम्बी वादकरण की प्रक्रिया, जो मोटर वाहन के प्रयोग से उद्भूत किसी अन्य त्रुटि या मोटर वाहन के चालक की ओर से हुई उपेक्षा के कारण घटित दुर्घटना को साबित करने हेतु अपेक्षित है, के बिना, मुआवजे की धनराशि की आवश्यकता होती है।
         गगग                             गगग                                 गगग
46.    धारा 163-क जिसका सर्वोपरि प्रभाव होता है, संरचनात्मक सूत्र के आधार पर मुआवजे के भुगतान हेतु विशेष प्रावधानों का प्रावधान करना है। धारा 163-क की उपधारा (1) में अध्यारोही खण्ड निहित है जिसके निर्बन्धनों में, मोटर वाहन के प्रयोग के उद्भूत दुर्घटना के कारण मृत्यु अथवा स्थायी निर्योग्यता के मामले में, मोटर वाहन का स्वामी या उसका प्राधिकृत बीमाकर्ता मुआवजे का भुगतान करने के लिये दायी होगा जैसे कि द्वितीय अनुसूची में इंगित है, पीडित के विधिक उत्तराधिकारियों को जैसा भी मामला हो .....................।
        गगग                             गगग                                   गगग
51.    हमारे अभिमत में धारा 163-क के अधीन परिकल्पित योजना कोई संदेह नहीं रख छोड़ती कि उसके कारण, पक्षकारों के अधिकारों और दायित्वों का अन्तिम निर्धारण किया जाना चाहिए। उपरोक्त उल्लेखित प्रावधानों के अधीन संदेय मुआवजे की धनराशि को न तो परिवर्तित न ही किन्हीं अन्य कार्यवाहियों में उसमें फेरफार किया जाना होगा। इसमें धारा 140 के असमान उच्चतम मुआवजे के विरूद्ध अपास्त किये जाने का कोई प्रावधान है। उक्त प्रावधान के निर्बन्धनों में, एक विशिष्ट तथा विनिर्दिष्ट वर्ग के नागरिक, नामतः, वे व्यक्ति जिनकी आय रूपये 40,000 प्रतिवर्ष है, उसमें आच्छादित होते हैं, जबकि धारा 140 और 166 समाज के सभी वर्गो के लिये हैं।
52.    यह सत्य है कि धारा 163-ख दावाकर्ता को विकल्प प्रदान करती है कि वह या तो धारा 140 अथवा अधिनियम की धारा 163-क के अधीन, जैसा भी मामला हो, दावा करे किन्तु इसे अत्याधिक सावधानी बरतते हुये इस कारण अन्तः स्थापित किया गया था कि वादकरण के पक्षकारों के मस्तिष्क से यह भ्रम हटा दिया जाए इस तथ्य के सम्बंध में कि दोनों भी त्रुटिहीन दायित्व के आधार पर दावे से संबंधित है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कि अधिनियम की धारा 166 त्रुटि दायित्व पर दावा दाखिल करने के लिये संपूर्ण उपकरण का प्रावधान करती है, दावाकर्ता को यह विकल्प प्रदान करने का प्रश्न कि वे अपने दावे को धारा 163-क और धारा 166 के अधीन भी अनुसरित कर सकेंगें, उद्भूत नहीं होता। यदि विद्वान अधिवक्ता के निवेदन को स्वीकार कर लिया जाता है तो उससे असंगतता उत्पन्न होगी।‘‘
         गगग                             गगग                                  गगग
20.    अबाती बेजबरूआ (उपरोक्त) के मामले में, दो न्यायाधीशों की पीठ ने अधिनियम, 1988 में प्रस्तुत संरचनात्मक सूत्र के संदर्भ में निम्नानुसार अवलोकन किया था:
‘‘अब यह विधि का सुस्थापित सिद्धांत है कि जैसे कि द्वितीय अनुसूची में प्रावधानित है, संरचनात्मक सूत्र के आधार पर मुआवजे के भुगतान से सामान्य रीति से विचलन नहीं किया जाना चाहिए। मोटर वाहन अधिनियम की धारास 168 मुआवजे की धनराशि के निर्धारण के लिये उसकी धारा 166 निर्बन्धनों में दिशानिर्देश अवधारित करती है। लेकिन, जैसे कि इस न्यायालय के द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है, संरचनात्मक सूत्र से विचलन आपवादिक मामलों में ही किया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त मुआवजे की धनराशि प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में न्यायोचित् एवं उपयुक्त होनी चाहिए।‘‘
21.    शान्ति पाठक (उपरोक्त) के मामले में इस न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एक बहुत ही संक्षिप्त आदेश में, ऐसे मामले में जहा उसकी मृत्यु के समय मृतक की आयु 25 वर्ष थी 8 का गुणक लागू किया था।
22.    ओरिएण्टल इंश्योरेंस कम्पनी लि0 बनाम जाशुबेन एवं अन्य (2008) 4 एस0सी0सी0 162: 2008(2) दु0मु0प्र0 463, के मामले में, इस न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ ने ऐसे मामले में जहा दुर्घटना के समय मृतक की आयु 25 वर्ष थी 13 का गुणक लागू किया था।
23.    सरला वर्मा (श्रीमती) एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं एक अन्य, (2009) 6 एस0सी0सी0 121: 2009 (2) दु0मु0प्र0 161, के मामले में, इस न्यायालय के समक्ष अधिनियम, 1988 की धारा 166 के मुकाबले धारा 163-क की विशिष्टियों पर विचारण करने का अवसर था। न्यायालय ने उसी की पुनरावृत्ति की थी जो पूर्व के विनिश्चयों में अधिकथित किया गया था, यह कि धारा 163-क के अधीन दावों और धारा 166 के अधीन दावों के लिये दायित्व और मुआवजे की मात्रा के निर्धारण से संबंधित सिद्धांत भिन्न-भिन्न हैं। यह अधिकथित किया गया था कि धारा 163-क और द्वितीय अनुसूची अपने निर्बन्धनों  में, धारा 166 के अधीन आवेदनों में मुआवजे के निर्धारण पर लागू नहीं होती। यह अधिकथित करते हुये कि धारा 163-क में विशेष प्रावधान है, इस न्यायालय ने कथित किया था कि:
‘‘34.    ...................... मोटर वाहन अधिनियम की धारा 163-क में संरचनात्मक सूत्र के आधार पर जैसे कि अधिनियम की द्वितीय अनुसूची में इंगित है, मुआवजे का भुगतान करने के लिये विशेष प्रावधान विहित है। द्वितीय अनूसूची में, मृतक की आयु और अन्य के संदर्भ में अधिनिर्णीत किये जाने वाले मुआवजे को विहित करते हुये एक तालिका दी गयी है। यह रूपये 3000 से 40,000 तक की वार्षिक आय के संदर्भ में अधिनिर्णीत किये जाने वाले मुआवजे को विनिर्दिष्ट करती है। यह उस मामले में जहा मृतक की वार्षिक आय रूपये 40,000 से अधिक हो, मुआवजे की मात्रा विनिर्दिष्ट नहीं करती। किन्तु यह मृतक की आयु के संदर्भ में लागू किये जाने वाले गुणक का प्रावधान करती है। यह तालिका 15 के गुणक से आरम्भ होती है, 18 तक जाती है और तत्पश्चात् 5 तक नीचे आती है। यह मृतक के व्यक्तिगत जीवन यापन के कारण एक-तिहाई की मानक कटौती का भी प्रावधान करती है। इस कारण जहा आवेदन अधिनियम की धारा 163-क के अधीन किया गया हो, वह संरचनात्मक सूत्र के आधार पर मुआवजे की परिगणना सम्भव हो सकेगी, वहा भी जहा मुआवजा मृतक की वार्षिक आय के संदर्भ में विनिर्दिष्ट न हो अथवा आय रूपये 40,000 से अधिक हो, इस सूत्र को लागू करने के द्वारा (2/3 ग ए0आई0 ग एम0) अर्थात् वार्षिक आय को दो-तिहाई मृतक की आयु पर प्रयोज्य गुणक द्वारा गुणा कर मुआवजा प्रदान करेगा। जब दावा मोटर वाहन अधिनियम की धारा 163-क के अधीन किया जाता है तो अपकृत्य दायित्व के अनेक सिद्धांत अपवर्जित किये जाते हैं।‘‘
24.    लेकिन इस न्यायालय ने द्वितीय अनुसूची तालिका में प्रदत्त गुणक-मापक्रम में अनेक कमिया/त्रुटया पायी थी तथा यह अवलोकन किया था कि तालिका लागू किये जाने से असंगतता परिणामित होगी। रिपोर्ट के परिच्छेद 35 और 36 (पृ0 137) निम्नानुसार है:
‘‘35.    द्वितीय अनुसूची तालिका में प्रदत्त गुणक मापक्रम में कमिया/त्रुटिया हैं। यह उन मामलों के लिये कम मुआवजे का प्रावधान करती हैं जहा 18 का उच्चतर गुणक लागू होता है और उन मामलों में संदर्भ में अधिक मुआवजे का प्रावधान करती हैं जहा 15, 16 या 17 का कम गुणक लागू होता है। तालिका में विनिर्दिष्ट मुआवजे की मात्रा से, यह उपधारणा सम्भव हो सकती है कि अनुसूची में कुछ लिपिकीय त्रुटिया हैं और ‘‘गुणक‘‘ अंक गलत रीति से 15, 16, 17, 18, 17, 16, 15, 13, 11, 8, 5 और 5 टंकित हो गये हैं, 20, 19, 18, 17, 16, 15, 14, 12, 10, 8, 6 और 5 के बजाय।
36.    अन्य उल्लेखनीय असंगतता यह है कि अर्जन न करने वाले व्यक्तियों की कल्पित न्यूनतम आय को रूपये 15,000 प्रतिवर्ष विहित करने के पश्चात् यह तालिका उन मामलों में भी मुआवजे के भुगतान को विहित करती है जहा वार्षिक आय रूपये 3,000 और रूपये 12,000 के बीच हो। यह मोटर वाहन अधिनियम की धारा 163-क के अधीन आवेदन के संबंध में विषम स्थिति उत्पन्न करती है, क्योंकि उन मामलों में मुआवजा उच्चतर होगा जहा मृतक कार्यरत् नहीं था और उसकी कोई भी आय नहीं थी, उन मामलों के मुकाबले जहा मृतक ईमानदारी से रूपये 3,000 और रूपये 12,000 के बीच आय अर्जित कर रहा था। जैसा भी मामला हो।‘‘
25.    न्यू इंण्डिया इंश्यारेंस कम्पनी लि0 बनाम चार्ली एवं एक अन्य (2005)10 एस0सी0सी0 720: 2006 (1) दु0मु0प्र0 1; तमिलनाडु राज्य सड़क परिवहन निगम बनाम एस0 राजप्रिया एवं अन्य, (2005) 6 एस0सी0सी0 236: 2006
(1) दु0मु0प्र0 22; और उ0प्र0 राज्य सड़क परिवहन निगम बनाम कृष्ण बाला एवं अन्य, (2006) 6 एस0सी0सी0 249: 2006 (3) दु0मु0प्र0 43, के मामले में इस न्यायालय के विनिश्चयों को संदर्भित करते हुये, सरला वर्मा में रिपोर्ट के परिच्छेद 39 (पृ0 138) में इस न्यायालय ने निम्नानुसार अवलोकन किया था:
        ‘‘39.    न्यू इंडिया इंश्योरेंस कम्पनी लि0 बनाम चार्ली, के मामले में इस न्यायालय ने यह उल्लेख किया था कि मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166 के अधीन दावों के संबंध में, उच्चतम प्रयोज्य गुणक 18 था और यह कि यह गुणक 21 से 25 वर्षो के आयु समूह पर लागू किया जाना चाहिए  (सामान्य उत्पादक वर्षों का प्रारम्भ) और न्यूनतम गुणक 60 से 70 वर्ष के आयु समूह के व्यक्तियों (सामान्य सेवानिवृत्ति की आयु) के लिये होगा। इसी की पुनरावृत्ति तमिलनाडु राज्य सड़क परिवहन निगम लि0 बनाम एस0राजप्रिया और उ0प्र0 एस0आर0टी0सी0 बनाम कृष्ण बाला (उपरोक्त) में की गयी थी।‘‘
26.    सरला वर्मा (उपरोक्त) के मामले में न्यायालय ने अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन दावों के लिये सुसम्मा थामस, त्रिलोक चन्द्र और चार्ली  (उपरोक्त) में इंगित गुणक की तुलना धारा 167-क के अधीन दावों के लिये द्वितीय अनुसूची में उल्लेखित गुणक से की थी (50 वर्षो के बाद युक्तियुक्त सभी के साथ) जो निम्नानुसार है-
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        मृत्यु के मामले में सरला वर्मा (उपरोक्त)  मामले में प्रयोज्य गुणांक के संबध में मृतक की आयु के आधार पर निम्नलिखित गुणांक  अभिनिर्धारित किया गया है:-

           क्रमांक        मृतक की आयु                 प्रयुक्त गुणांक
          1.              15 वर्ष तक                  -        20
          2.              15 से 20 वर्ष                        18
          3.              21 से 25 वर्ष                        18
          4.              26 से 30 वर्ष                        17
          5.              31 से 30 वर्ष                        16
          6.              36 से 40 वर्ष                        15
          7.              41 से 45 वर्ष                        14
          8.              46 से 50 वर्ष                        13
          9.              51 से 55 वर्ष                        11
          10.            56 से 60 वर्ष                          9
          11.            61 से 65 वर्ष                          7
          12.            65 से अधिक                          5
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 27.    रिपोर्ट के परिच्छेद 42 में  (पृष्ठ 140) इस न्यायालय ने सरला वर्मा (उपरोक्त) यह अवधारित किया था कि किसी भी मामले में गुणक का प्रयोग निम्नलिखित रीति में किया जाएगा:
‘‘42.    इस कारण हम यह अभिनिर्धारित करते हैं कि प्रयुक्त किये जाने वाला गुणक उपरोक्त तालिका (सुसम्मा थामस, त्रिलोक चन्द्र और चार्ली को लागू कर तैयार की गयी) के स्तम्भ (4) में उल्लेखित रूप में होना चाहिए जो 18  (15 से 20 और 21 से 25) वर्ष के आयु समूहों के लिये के प्रभावी गुणक से आरम्भ होता है, जिसे प्रत्येक पांच वर्षो के लिये एक ईकाई द्वारा कम किया जाना चाहिए, अर्थात् 26 से 30 वर्ष के लिये एम-17, 31 से 35 वर्ष के लिये एम-16, 36 से 40 वर्ष के लिये एम-15, 41 से 45 वर्ष के लिये एम-14, 46 से 50 वर्ष के लिये एम-13, तत्पश्चात् उसे प्रत्येक पांच वर्षो के लिये दो इकाईयों द्वारा घटाया जाना चाहिए अर्थात् 51 से 55 वर्ष के लिये एम-11, 56 से 60 वर्ष के लिये एम-9, 61 से 65 वर्ष के लिये एम-7 और 66 से 70 वर्ष के लिये एम-5।‘‘
28.    सरला वर्मा (उपरोक्त) में यह कार्य धारा 166 के अधीन किये गये मोटर दुर्घटना दावों में मुआवजा अधिनिर्णीत करते समय गुणक के चयन में समरूपता और संगतता को सुनिश्चित करने के लिये किया गया था।
29.    अधिनियम, 1988 की धारा 168 यह दिशानिर्देश प्रदान करती है कि दावा अधिकरण के द्वारा मुआवजे की ऐसी राशि अधिनिर्णीत की जाएगी जो उसे न्यायोचित प्रतीत होती है। अभिव्यक्ति ‘‘न्यायोचित‘‘ का अर्थ यह है कि निर्धारित की गयी धनराशि उचित, युक्तियुक्त और स्वीकृत विधिक मानकों द्वारा साम्यापूर्ण होनी चाहिए न कि कोई लाटरी। प्रत्यक्षतः ‘‘न्यायोचित् मुआवजे‘‘ का अर्थ ‘‘सम्पूर्ण‘‘ अथवा ‘‘उपयुक्त‘‘ मुआवजा नहीं होगा। न्यायोचित मुआवजे के सिद्धांत में प्रत्येक व्यक्तिगत मामले में विशिष्टतया व्याप्त विशिष्ट परिस्थिति के परीक्षण की अपेक्षा होगी।
30.    लगभग एक दशक पूर्व टैफ वेल रेलवे कम्पनी बनाम वेनकिन्स,  (1913) ए0सी0 1, के मामले में हाउस आफ लाड्स ने यह परीक्षण अवधारित किया था कि घातक दुर्घटना के मामले में क्षतिपूर्ति अधिनिर्णय, मृतक के परिवार द्वारा आर्थिक लाभ की युक्तियुक्त आशा के लिये मुआवजा प्रदान करता है। मुआवजा अधिनिर्णीत करने का उद्देश्य है मृतक जो परिवार का अर्जनकर्ता था, के आश्रितों को आर्थिक रूप में, उसी स्थिति में रखना, मानो वह अपने सामान्य जीवनकाल तक जीवित रहता, यह दावाकर्तागण को इसमें बेहतर आर्थिक स्थिति में रखने हेतु निर्मित नहीं किया गया है, जिसमें वे अन्यथा होते यदि दुर्घटना घटित न हुई होती। साथ ही मुआवजे का निर्धारण सटीक विज्ञान नहीं है और इस कार्य में प्राक्कलन तथा अनुमानों पर आधारित निर्धारण का कार्य अन्तग्र्रस्त होता है क्योंकि विचारण में अनेक असम्भावनाओं और अनिश्चित आकस्मिकताओं को ग्रहण करना पड़ता है।
31.    सी0के0सुब्रहमनिया अयर एवं अन्य बनाम टी0कुन्हीकुट्टन नायर एवं अन्य  (1970)2 एस0सी0आर0 688 के मामले में इस न्यायालय ने टैफ वेल रेलवे के मामले में प्रकाशित विधिक दर्शन की पुनरावृत्ति की थी, दावा वादों में मुआवजे के अधिनिर्णय के लिये तथा यह अधिकथित किया था कि मानव जीवन के मूल्य से मापने के लिये को सटीक समरूप नियम नहीं है और क्षतिपूर्ति की मात्रा सटीक गणितीय परिगणनाओं द्वारा अभिप्राप्त नहीं की जा सकती। प्रकट रूप में, प्रत्येक मामले में क्षतिपूर्ति का अधिनिर्णय उस मामले की विशिष्ट परिस्थितियों एवं तथ्यों पर निर्भर करेगा किन्तु इस प्रकार निर्धारित मुआवजे की धनराशि में औचित्य का तत्व ही अंतिम निदेशक कारक होता है।
32.    सुसम्मा थामस (उपरोक्त) में, इस न्यायालय ने यद्यपि मोटर वाहन अधिनियम, 1939 की धारा 110-ख के संदर्भ में- यह अधिकथित किया था कि न्यायोचित मुआवजे को सुनिश्चित करने हेतु गुणक विधि स्वीकृत मानक है जिससे अधिनिर्णयों में समरूपता और निश्चितता कायम होगी। हमारा अभिमत यह है कि
सुसम्मा थामस (उपरोक्त) में किया गया यह कथन अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन किये गये घातक दुर्घटना दावों में भी लागू होगी। हमारे अभिमत में, गुणक विधि पर आधारित मुआवजे का निर्धारण उचित उपलब्ध साधन है तथा यह अत्याधिक संतोषजनक विधि है तथा न्यायालयों और अधिकरणों द्वारा इसका नियमित अनुसरण किया जाना चाहिए।
33.    हमने गुणक के चयन के लिये सरला वर्मा (उपरोक्त) में तैयार की गयी तालिका का उल्लेख किया है। सरला वर्मा (उपरोक्त) में यह तालिका इस न्यायालय के तीन विनिश्चयों के संदर्भ में तैयार की गयी है, नामतः
सुसम्मा थामस (उपरोक्त), त्रिलोक चंद्र (उपरोक्त) और चार्ली (उपरोक्त) जो अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन किये गये दावों के लिये है। न्यायालय ने यह कहा था कि तालिका के स्तम्भ (4) में दर्शित गुणक का प्रयोग मृतक की आयु के सन्दर्भ में किया जाना चाहिए। सरला वर्मा (उपरोक्त) में तैयार की गयी तालिका को लागू कराने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि गुणक के चयन में समरूपता और संगतता अभिप्राप्त की जा सकती है। आश्रितता की सीमा का निर्धारण प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थिति के परीक्षण पर निर्भर करता है। आश्रितता अथवा गुण्य को मूल्यांकित करना कुछ सीमा तक गणितीय कार्य होता है। गुण्य सामान्यतया मृतक की मृत्यु की तिथि पर आश्रितता के शुद्ध वार्षिक मूल्य पर आधारित होता है। एक बार शुद्ध वार्षिक क्षति (गुण्य) निर्धारित कर लिया जाता है, मृतक की आयु पर विचार करते हुये, तो आश्रितता की क्षति अभिप्राप्त करने के लिये ऐसी धनराशि को एक ‘‘गुणक‘‘ से गुणा किया जाना पड़ता है। सरला वर्मा के मामले में, इस न्यायालय ने धारा 166 के अधीन किये गये दावे में आश्रितता की क्षति के प्राक्कलन तथा मुआवजे के निर्धारण के अन्यथा जटिल कार्य को सरल बनाने की चेष्टा की है। सरला वर्मा के मामले में उचित रीति से यह कथन किया गया है कि मृत्यु दावे के मामले में दावाकर्तागण को  (क) मृतक की आयु; (ख) मृतक की आय; (ग) आश्रितों की संख्या को मुआवजे के उद्देश्य के लिये स्थापित करना होगा। आश्रितता की क्षति अभिप्राप्त करने के लिये अधिकरण के द्वारा (1) आय प्राप्त करने के लिये की जाने वाली बढ़ोत्तरिया/कटौतिया; (2) मृतक के व्यक्तिगत जीवन-यापन व्ययों के प्रति की जाने वाली कटौतियां; और (3) मृतक की आयु के संदर्भ में लागू किये जाने वाला गुणक, पर विचार किया जाना चाहिए। हम यह नहीं सोचते कि हमारे लिये इस विवाद्यक पर विधि की व्याख्या करना आवश्यक है क्योंकि हम सरला वर्मा में व्यक्त अभिमत से पूर्णतया सहमत हैं।
34.    यदि तालिका के स्तम्भ (4) में इंगित गुणक, सपठित सरला वर्मा के मामले में प्रदत्त रिपोर्ट के परिच्छेद 42 का अनुसरण किया जाता है, घातक दुर्घटना के मामलों में मुआवजे के दावों में गुणक के चयन में व्यापक विभिन्नता से बचा जा सकेगा। गुणक के चयन के लिये एक मानक विधि निश्चित रूप में विभिन्नता की टेढ़ी-मेढ़ी विधियों से उत्तम होती है। समय है कि हम गुणक के चयन की मानक विधि अपनाएं साथ ही भावी प्रत्याशाओं के लिये और व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के लिये कटौती के लिये भी। न्यायालयों ने कुछ विदेशी क्षेत्राधिकारों में यह उन्नति की है। इन्हीं कारणों से, हम यह सोचते हैं कि हम मृत्यु के मामलों में, धारा 166 के अधीन दाखिल किये गये दावा आवेदनों में गुणक के चयन हेतु सरला वर्मा (उपरोक्त) में प्रदत्त तालिका को अनुमोदित करें। तदनुसार करते हैं। यदि गुणक के चयन हेतु सरला वर्मा में तालिका के स्तम्भ (4) का अनुसरण किया जाता है, तो ऐसे दावाकर्तागण को जिन्होंने धारा 166 के अधीन आवेदन करने का चयन किया हो, मोटर वाहन के चालक की ओर से हुई उपेक्षा के सबूत पर उन व्यक्तियों के मुकाबले जिन्होने धारा 163-क के अधीन आवेदन करने का चयन किया है, कम धनराशि अधिनिर्णीत किये जाने की कोई संभावना नहीं होगी। जहा तक उन मामलों का सम्बंध है जहा पीडित की आयु 15 वर्ष तक होती है, हमारा यह सुविचारित अभिमत है कि ऐसे मामलों में, धारा 163-क अथवा 166 जिसके अधीन मुआवजे का दावा किया गया है, के होते हुये भी, 15 का गुणक तथा द्वितीय अनुसूची में इंगित निर्धारण सरला वर्मा की तालिका के स्तम्भ (4) में इंगित सुधार के अध्यधीन, अनुसरित किया जाना चाहिए। यह इस तथ्य को सुनिश्चित करने के लिये है कि ऐसे मामलो में दावाकर्तागण को कम धनराशि अधिनिर्णीत न की जाए जब आवेदन अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन किया गया हो। मृत्यु के अन्य सभी मामलों में, जहा आवेदन धारा 166 के अधीन की गयी हो, सरला वर्मा के मामलों में प्रदत्त तालिका के स्तम्भ (4) में यथा इंगित गुणक का अनुसरण किया जाना चाहिए।
35.    भावी प्रत्याशाओं के प्रति आय में बढ़ोत्तरी के विषय में सरला वर्मा के मामले में, इस न्यायालय ने सुसम्मा थामस, सरला दीक्षित और अबाती बेजबरूआ के मामलों में प्रदत्त पूर्व विनिश्चयों का उल्लेख किया था तथा रिपोर्ट के परिच्छेद 24 में निम्नानुसार अभिनिर्धारित किया था:
        ‘‘24.    ...............असम्भाव्यताओं तथा अनिश्चितताओं के परिपेक्ष्य में, हम एक सटीक नियम के रूप में, भावी प्रत्याशाओं के प्रति मृतक के वास्तविक वेतन आय में वास्तविक वेतन के 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी को अपनाए जाने के पक्ष में है, जहा मृतक के पास स्थायी नौकरी थी तथा उसकी आयु 40 वर्ष से कम थी।  (जहा वार्षिक आय करारोपण के क्षेत्र में हो, वहा शब्दों ‘‘ वास्तविक वेतन‘‘ का अर्थ ‘‘ कर काटकर प्राप्त वास्तविक वेतन होना चाहिए) । यदि मृतक की आयु 40 वर्ष से 50 वर्ष थी, बढ़ोत्तरी केवल 30 प्रतिशत होनी चाहिए। यदि मृतक की आयु 50 वर्ष से अधिक हो वहा कोई बढ़ोत्तरी नहीं होनी चाहिए।  यद्यपि साक्ष्य के द्वारा बढ़ोत्तरीर का भिन्न प्रतिशत इंगित हो सकता है, अलग अलग प्रतिमानों को लागू किये जाने तथा परिगणना की अलग अलग विधियों को अपनाए जाने के निवारित करने हेतु बढ़ोत्तरी को मानकीकृत करना आवश्यक है। जहा मृतक स्वयं नियोजित था या उसका वेतन निश्चित वेतन था। (वार्षिक बढ़ोत्तरी इत्यादि के प्रयोजन के बगैर) न्यायालयों के द्वारा सामान्य रूप में मृत्यु के समय वास्तविक आय को ही ग्रहण किया जाएगा। इससे विचलन केवल विशेष परिस्थितियों को अन्तर्ग्रस्त करने वाले आपवादिक मामलों में ही किया जाना चाहिए।‘‘
36    भावी प्रत्याशाओं के लिये आय में बढ़ोत्तरी के मानकीकरण से युक्तियुक्त मुआवजा अभिप्राप्त करने में निश्चिता लाने में सहायता मिलेगी। हम इस विधि को अनुमोदित करते हैं कि भावी प्रत्याशाओं के प्रति मृतक के वास्तविक वेतन आय में वास्तविक वेतन के 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की जाए जहा मृतक के पास एक स्थायी नौकरी थी और उसकी आयु 40 वर्ष से कम थी और यह बढ़ोत्तरी केवल 30 प्रतिशत होनी चाहिए यदि मृतक की आयु 40 से 50 वर्ष थी तथा जहा मृतक की आयु 50 वर्ष से अधिक हो कोई बढ़ोत्तरी नहीं की जाएगी। जहा वार्षिक आय करारोपण के क्षेत्र में हो, वास्तविक वेतन का अर्थ होगा कर को कटौती के पश्चात् वास्तविक वेतन। ऐसे मामलों में जहा मृतक स्वनियोजित था अथवा वह वार्षिक बढ़ोत्तरी के प्रावधान के बिना एक निश्चित वेतन प्राप्त कर रहा था, मृत्यु के समय वास्तविक वेतन, भावी प्रत्याशाओं के प्रति किसी बढ़ोत्तरी के बिना ही युक्तियुक्त होगा। उपरोक्त सिद्धान्त से विचलन केवल असाधारण परिस्थितियों में तथा बहुत आपवादिक मामलों में ही न्यायोचित् होगा।
37.    व्यक्तिगत और जीवन यापन व्ययों की कटौती के संबंध में, सरला वर्मा (उपरोक्त) में इस न्यायालय ने सुसम्मा थामस, त्रिलोक चन्द्र (उपरोक्त) और फकीरप्पा एवं एक अन्य बनाम कर्नाटक सीमेण्ट पाईप फैक्ट्रिी एवं अन्य, (2004) 2 एस0सी0सी0 473: 2004(2) दु0मु0प्र0 46, के मामले पर विचार किया था तथा रिपोर्ट के परिच्छेद 30, 31 और 32 में अन्ततः निम्नानुसार अभिनिर्धारित किया थाः
‘‘30. ................. इस न्यायालय के अनेक पश्चात्वर्ती विनिश्चयों पर विचारणोपरांत हमारा अभिमत यह है कि जहा मृतक विवाहित था, मृतक के व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती एक-तिहाई (1/3) होनी चाहिए, जहा आश्रित पारिवारिक सदस्यों की संख्या 2 से 3 हो, एक चैथाई  (1/4) और जहा आश्रित पारिवारिक सदस्यों की संख्या 4 से 6 हो और एक-पांचवा (1/5) जहा आश्रित पारिवारिक सदस्यों की संख्या छह से अधिक हो।
31.    जहा मृतक अविवाहित था और दावाकर्तागण माता-पिता हैं कटौती एक भिन्न सिद्धांत का अनुसरण करती है। अविवाहित पुरूषों के संबंध में, सामान्य रूप में व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति 50 प्रतिश की कटौती की जाती है क्योंकि यह उपधारणा की जाती है कि अविवाहित पुरूष स्वयं पर अधिक व्यय करेगा। अन्यथा भी, कुछ ही समय में उसके विवाह कर लेने की संभावना होगी जिस दशा में माता पिता और भाई बहनों के प्रति योगदान काफी कम हो जाने की संभावना होगी। अग्रेतर, विपरीत साक्ष्य के अध्याधीन पिता के पास सम्भवतः उसकी अपनी आय होगी और उसे आश्रित नहीं माना जा सकेगा और केवल माता को ही आश्रित माना जा सकेगा। विपरीत साक्ष्य के अभाव में, भाईयों और बहनों को आश्रित नहीं माना जाएगा क्योंकि या तो वे स्वावलम्बी होगें अर्जन कर रहे होगें अथवा विवाहित होगें या पिता पर आश्रित होगें।
32.    इस प्रकार भले ही मृतक के उत्तरजीवी उसके माता-पिता और भाई-बहिनें हों, केवल उसकी माता को ही आश्रित माना जा सकेगा और अविवाहित पुरूष के व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्यय 50 प्रतिशत माने जायेगें तथा परिवार के प्रति योगदान 50 प्रतिशत। लेकिन, जहा अविवाहित पुरूष का परिवार वृहद् हो, और वे मृतक की आय पर आश्रित हों, जैसे कि ऐसे मामले में जहा उसकी विधवा माता हो और अनेक संख्या में अर्जन न करने वाले भाई और बहनें हों, उसके व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों को एक तिहाई तक सीमित किया जाएगा और परिवार के प्रति योगदान को दो तिहाई-ग्रहण किया जाएगा।‘‘
38.    उपरोक्त से व्यक्तिगत तथा जीवन यापन व्ययों के प्रति युक्तियुक्त कटौती हेतु दिशा निर्देश प्राप्त होता है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति की कुल आय का वह अनुपात जिसे वह बचाता अथवा अन्य के भरण पोषण हेतु व्यय करता है, वह उसके जीवन यापन व्ययों का भाग नहीं होता किन्तु जब वह पूर्णतया स्वयं पर व्यय करता है तो ऐसा होता है। व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का प्रतिशत परिवार में आश्रितों की संख्या के संदर्भ में विभिन्न हो सकती है और यह अनिवार्य नहीं कि मृतक के व्यक्तिगत जीवन यापन व्यय आश्रितों की संख्या के अनुसार ही हों।
39.    हमारे अभिमत में, सरला वर्मा के मामल में, न्यायालय ने, व्यक्तिगत जीवन यापन व्ययों की कटौती के पहलू पर परिच्छेद 30, 31 और 32 में इस न्यायालय द्वारा निर्धारित मानकों का सामान्यतया अनुसरण किया जाना चाहिए जब तक कि एतस्मिन्पूर्व परिच्छेद में उल्लेखित परिस्थितियों में विचलन हेतु मामला निर्मित न किया जाए।
40.    जो कुछ विवेचना हमने एतस्मिन्पूर्व की है, उसके परिपेक्ष्य में हम अपने निष्कर्षो को निम्नानुसार सारांशित करते हैंः
   (1)
    अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन मुआवजे के लिये किये             गये आवेदनों में, मृत्यु के मामले में, जहा मृतक की आयु 15 वर्ष और इससे
       अधिक हो, दावा अधिकरण द्वारा सरला वर्मा के मामले में तैयार की गयी 
        तालिका के स्तम्भ  (4)  में  इंगित गुणक का चयन किया जाएगा,   उस 
        निर्णय के परिच्छेद 42 के  साथ पठन  पर।
   
(2)     उन मामलों में जहा मृतक की आयु 15 वर्ष तक हों, इस बात के                   होते हुये भी कि मुआवजे का दावा धारा 166 अथवा धारा 163-क                    के अधीन किया गया है, 15 का गुणक तथा द्वितीय  अनुसूची में                         यथा इंगित निर्धारण का अनुसरण किया जाएगा, सरला वर्मा के                        मामले में तालिका के स्तम्भ (6) में इंगित संशोधन के अध्यधीन।
   
(3)     उपरोक्त के परिणामस्वरूप, मृत्यु के मामलों में, धारा 166 के अधीन                दाखिल किये गये दावा आवेदनों पर विचार करते समय जहा                          मृतक की आयु 15 वर्ष से अधिक हो, दावा अधिकरण के लिये                        अधिनियम, 1988 की द्वितीय अनुसूची से दिशानिर्देश की ईप्सा                         करने या उस पर विश्वास करने की आवश्यकता नहीं होगी।
   
(4)     मृत्यु के मामलों में मुआवजे का निर्धारण करने के लिये दावा                         अधिकरणों के द्वारा सरला वर्मा के मामले के परिच्छेद 19 में                          अधिकथित कदमों तथा दिशानिर्देशों का अनुसरण किया जाना                         होगा।
   
(5)     भावी प्रत्याशाओं के लिये आय में बढ़ोत्तरी करते समय, अधिकरणों                   के द्वारा सरला वर्मा (उपरोक्त) के मामले में प्रदत्त निर्णय के                          परिच्छेद 24 का अनुसरण किया जाएगा।
   
(6)     जहा तक व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के लिये कटौती का                     विषय है, यह निर्देशित किया जाता है कि अधिकरणों के द्वारा                         सामान्यतया सरला वर्मा (उपरोक्त) के मामले में प्रदत्त निर्णय के                      परिच्छेद 30, 31 और 32 में विहित मानकों का अनुसरण किया                       जाएगा, उपरोक्त परिच्छेद 38 में हमारे द्वारा किये गये अवलोकनों                       के अध्यधीन।
   
(7)     उपरोक्त सिद्धान्त यथावश्यक परिवर्तन सहित सभी लम्बित मामलों                    में लागू होगें जहा उपरोक्त पहलू विचाराधीन हैं।
41.    सन्दर्भ का उत्तर तद्नुसार प्रदान किया जाता है। सिविल अपीलों को अब सुनवाई एवं निस्तारण के लिये नियमित पाठ के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।



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