संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन संबंधी वाद
में पारित आज्ञप्ति में आधिपत्य की सहायता
प्रदान नहीं किये जाने पर भी क्या प्रवर्तन
न्यायालय में आज्ञप्ति धारी को विवादित
सम्पति का आधिपत्य प्रदान कर सकता
है ?
इस संबंध में विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की
धारा 28 (3) (बी) सन्दर्भ योग्य है जो कतिपय
परिस्थितियो में आज्ञप्तिधारी को विवादित
सम्पत्ति का आधिपत्य दिलाने हेतु सशक्त
करती है । इसी प्रकार सम्पत्ति अन्तरीण
अधिनियम की धारा 55 यह उपबंधित करती
है कि विपरीत अनुबंध के अभाव में विक्रेता,
क्रेता को विकिृत सम्पत्ति का आधिपत्य प्रदान
करने के दायित्वाधीन होगा ।
इसके अतिरिक्त यदि प्रवर्तन न्यायालय
आधिपत्य की सहायता प्रदान किये बिना मात्र
विक्रय पत्र के निष्पादन की सहायता ही
प्रदान करता है तो इसे विक्रय की संविदा की
आज्ञप्ति का प्रभावी प्रर्वतन नहीं माना जा
सकता है क्योंकि ऐसी आज्ञप्ति का प्रभावी
प्रवर्तन तभी हो सकता है जब आज्ञप्ति धारी
को विवादित सम्पत्ति का आधिपत्य भी
दिलाया जाये ।
अतः निष्पादन न्यायालय संविदा के विनिर्दिष्ट
अनुपालन के वाद में पारित आज्ञप्ति में
आधिपत्य करने की सहायता का उल्लेख नहीं
होने पर भी आज्ञप्ति के प्रवर्तन में आधिपत्य
प्रदान करने की सहायता दे सकता है ।
उक्त विधिक स्थिति के संबंध में माननीय
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत
बाबूलाल विरूद्ध हजारीलाल किशोरी
लाल एवं अन्य, ए.आई.आर. 1982 सु.को.
818 एवं माननीय मध्यप्रदेश उच्च
न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत सुंदर लाल
विरूद्ध गोपाल, 2003, (1) एम.पी.एच.टी.
330, बाटा शू कम्पनी विरूद्ध प्रीतमदास
1983 जे.एल.जे. 422 तथा दादुलाल
विरूद्ध श्रीमती देव कुअर बाई, ए.आई.
आर. 1963 एम.पी. 86 में प्रतिपादित न्याय
सिद्धांत उल्लेखनीय हैं ।
में पारित आज्ञप्ति में आधिपत्य की सहायता
प्रदान नहीं किये जाने पर भी क्या प्रवर्तन
न्यायालय में आज्ञप्ति धारी को विवादित
सम्पति का आधिपत्य प्रदान कर सकता
है ?
इस संबंध में विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की
धारा 28 (3) (बी) सन्दर्भ योग्य है जो कतिपय
परिस्थितियो में आज्ञप्तिधारी को विवादित
सम्पत्ति का आधिपत्य दिलाने हेतु सशक्त
करती है । इसी प्रकार सम्पत्ति अन्तरीण
अधिनियम की धारा 55 यह उपबंधित करती
है कि विपरीत अनुबंध के अभाव में विक्रेता,
क्रेता को विकिृत सम्पत्ति का आधिपत्य प्रदान
करने के दायित्वाधीन होगा ।
इसके अतिरिक्त यदि प्रवर्तन न्यायालय
आधिपत्य की सहायता प्रदान किये बिना मात्र
विक्रय पत्र के निष्पादन की सहायता ही
प्रदान करता है तो इसे विक्रय की संविदा की
आज्ञप्ति का प्रभावी प्रर्वतन नहीं माना जा
सकता है क्योंकि ऐसी आज्ञप्ति का प्रभावी
प्रवर्तन तभी हो सकता है जब आज्ञप्ति धारी
को विवादित सम्पत्ति का आधिपत्य भी
दिलाया जाये ।
अतः निष्पादन न्यायालय संविदा के विनिर्दिष्ट
अनुपालन के वाद में पारित आज्ञप्ति में
आधिपत्य करने की सहायता का उल्लेख नहीं
होने पर भी आज्ञप्ति के प्रवर्तन में आधिपत्य
प्रदान करने की सहायता दे सकता है ।
उक्त विधिक स्थिति के संबंध में माननीय
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत
बाबूलाल विरूद्ध हजारीलाल किशोरी
लाल एवं अन्य, ए.आई.आर. 1982 सु.को.
818 एवं माननीय मध्यप्रदेश उच्च
न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत सुंदर लाल
विरूद्ध गोपाल, 2003, (1) एम.पी.एच.टी.
330, बाटा शू कम्पनी विरूद्ध प्रीतमदास
1983 जे.एल.जे. 422 तथा दादुलाल
विरूद्ध श्रीमती देव कुअर बाई, ए.आई.
आर. 1963 एम.पी. 86 में प्रतिपादित न्याय
सिद्धांत उल्लेखनीय हैं ।
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