क्या प्रतिवादी का सहवादी के रूप में
अन्तर्विनियमन अनुज्ञेय है?
समान्यतः प्रधान वादकारी होने के रूप में वादी
को यह तय करने का अधिकार हैं कि उसके
साथ वादी के रूप में किन व्यक्तियों को शामिल
किया जाये। लेकिन कतिपय स्थितियों में वाद
बाहुल्यता से बचने तथा निहित विवाद का
सम्यक् एवं प्रभावी निराकरण करने के लिये
प्रतिवादी का सहवादी के रूप में अन्तर्विनियमन
(Transposition) आवश्यक हो सकता है।
अन्तर्विनियमन की ऐसी अधिकारिता का स्त्रोत
व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 नियम 10
(2) में विहित प्रावधान हैं जो न्यायालय को इस
बारे में विस्तृत विवेकाधिकार प्रदान करते हैं।
न्यायदृष्टांत आर.एस. मदनप्पा वि.चन्द्रम्मा
एवंएक अन्य, ए.आई.आर.
1965 एस.सी. 1812 में माननीय सर्वोच्च
न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है
कि प्रतिवादी के रूप में संयोजित व्यक्ति को
मामले की परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए
न केवल उसकी प्रार्थना पर सहवादी के रूप में
अन्तर्विनियमिति (Transpose) किया जा सकता
है, अपितु न्यायालय स्वमेव आदेश 1 नियम 10
(2) व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत ऐसा
आदेश दे सकता है। न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र वि.
राजेश्वर, ए.आई.आर. 1931 पी.सी. 162 में
प्रिवी काउन्सिल के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया
गया है कि प्रतिवादी को सहवादी के रूप में
अन्तर्विनियमित करने की अधिकारिता का प्रयोग
न्यायालय को पक्षकारों के मध्य सम्यक् न्याय
करने के उद्देश्य से करना चाहिये। न्याय
दृष्टांत वासुदेव नारायणसिंह आदि वि. शेष
नारायणसिंह आदि, ए.आई.आर. 1979 पटना
73 में अन्तर्विनियमन की उपादेयता स्पष्ट करते
हुये यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि
प्रतिवादी के द्वारा किये जाने वाले अधिकार का
दावा वादी के वादकारण पर ही आधारित है तो
उस दशा में ऐसे प्रतिवादी को सहवादी के रूप
में अन्तर्विनियमित करना विधिक रूप से उचित
होगा। बंटवारे के वादों में ऐसी स्थिति
सामान्यतया दृष्टिगोचर होती है।
अन्तर्विनियमन अनुज्ञेय है?
समान्यतः प्रधान वादकारी होने के रूप में वादी
को यह तय करने का अधिकार हैं कि उसके
साथ वादी के रूप में किन व्यक्तियों को शामिल
किया जाये। लेकिन कतिपय स्थितियों में वाद
बाहुल्यता से बचने तथा निहित विवाद का
सम्यक् एवं प्रभावी निराकरण करने के लिये
प्रतिवादी का सहवादी के रूप में अन्तर्विनियमन
(Transposition) आवश्यक हो सकता है।
अन्तर्विनियमन की ऐसी अधिकारिता का स्त्रोत
व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 नियम 10
(2) में विहित प्रावधान हैं जो न्यायालय को इस
बारे में विस्तृत विवेकाधिकार प्रदान करते हैं।
न्यायदृष्टांत आर.एस. मदनप्पा वि.चन्द्रम्मा
एवंएक अन्य, ए.आई.आर.
1965 एस.सी. 1812 में माननीय सर्वोच्च
न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है
कि प्रतिवादी के रूप में संयोजित व्यक्ति को
मामले की परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए
न केवल उसकी प्रार्थना पर सहवादी के रूप में
अन्तर्विनियमिति (Transpose) किया जा सकता
है, अपितु न्यायालय स्वमेव आदेश 1 नियम 10
(2) व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत ऐसा
आदेश दे सकता है। न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र वि.
राजेश्वर, ए.आई.आर. 1931 पी.सी. 162 में
प्रिवी काउन्सिल के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया
गया है कि प्रतिवादी को सहवादी के रूप में
अन्तर्विनियमित करने की अधिकारिता का प्रयोग
न्यायालय को पक्षकारों के मध्य सम्यक् न्याय
करने के उद्देश्य से करना चाहिये। न्याय
दृष्टांत वासुदेव नारायणसिंह आदि वि. शेष
नारायणसिंह आदि, ए.आई.आर. 1979 पटना
73 में अन्तर्विनियमन की उपादेयता स्पष्ट करते
हुये यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि
प्रतिवादी के द्वारा किये जाने वाले अधिकार का
दावा वादी के वादकारण पर ही आधारित है तो
उस दशा में ऐसे प्रतिवादी को सहवादी के रूप
में अन्तर्विनियमित करना विधिक रूप से उचित
होगा। बंटवारे के वादों में ऐसी स्थिति
सामान्यतया दृष्टिगोचर होती है।
नाबालिक अवस्था मे अगर राजीनामे से वाद उपखंड अधिकारी द्वारा डिक्री किया जाता है तो क्या उस डिक्री को सिविल न्यायालय में अपास्त हेतु वाद लाया जा सकता है या नही सम्मानीय अधिवक्तागण अपनी राय दे
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