Friday, 6 June 2014

50 बल्क लीटर के मामलों का विचारण किस मजिस्टेंट द्वारा किया जा सकता है ?

50 बल्क लीटर से अधिक मदिरा के

विनिर्माण, परिवहन, कब्जा, विक्रय आदि से

संबंधित मामलों का विचारण किस मजिस्टेंट

द्वारा किया जा सकता है ?


मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम, 1915 की

धारा-34
(2) के अधीन पचास बल्क लीटर से

अधिक मदिरा के विधि विरूद्ध विनिर्माण

परिवहन, कब्जा, विक्रय आदि को ऐसे कारावास

से जिसकी अवधि एक वर्ष से कम नहीं होगी

किन्तु जो तीन वर्ष तक की हो सकेगी तथा ऐसे

जुर्माने से जो 25000 रूपये से कम का

नहीं होगा किन्तु जो एक लाख रूपये तक का

हो सकेगा के दण्ड से दण्डनीय बनाया गया है।

इस प्रावधान में कारावास के साथ न्यूनतम

पच्चीस हजार रूपये का अर्थदण्ड किया जाना

आज्ञापक है। चूंकि दं.प्र.सं. की धारा 29(2) के

अधीन प्रथम वर्ग मजिस्टेंट दस हजार रूपये से

अधिक के जुर्माने का दण्डादेश देने हेतु सशक्त

नहीं है अतः प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या

उक्त अपराध का विचारण प्रथम वर्ग मजिस्टेंट

का न्यायालय कर सकता है या नहीं।

मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम में इस अधिनियम

के अधीन दण्डनीय अपराध के विचारण हेतु

न्यायालय की अधिकारिता बाबत कोई प्रावधान

नहीं है। अतएव इस अधिनियम के अधीन

दण्डनीय अपराधों पर दण्ड प्रक्रिया संहिता

की धारा 26 (ख) (2) के सामान्य प्रावधान ही

प्रयोज्य होंगे।

‘‘धारा -26 न्यायालय, जिनके द्वारा अपराध

विचारणीय हैं - इस संहिता के अधीन रहते हुए -

        (क) ................................................

        (ख) किसी अन्य विधि के अधीन किसी अपराध

का विचारण, जब उस विधि में इस निमित्त कोई

न्यायालय
उल्लिखित है, तब उस न्यायालय द्वारा
  किया जाएगा और जब कोई न्यायालय इस

प्रकार उल्लिखित नहीं है तब -

           (1) ..........................................
           (2) किसी अन्य ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा

सकता है जिसके द्वारा उसका विचारणीय होना

प्रथम अनुसूची में दर्शित किया गया है।’’

संहिता की प्रथम अनुसूची भाग-प्प् में अन्य

विधियों के विरूद्ध अपराधों के वर्गीकरण के

अधीन तीन वर्ष और उससे अधिक किन्तु सात

वर्ष से अनधिक के कारावास से दण्डनीय

अपराधों को संज्ञेय, अजमानतीय तथा प्रथम वर्ग

मजिस्टेंट के द्वारा विचारणीय दर्शित किया गया

है। इस अनुसूची में जुर्माने के संबंध में ऐसा

कोई उल्लेख नहीं है जो विचारण की

अधिकारिता के प्रश्न का निर्धारण करता हो।

अधिनियम की धारा 34
(2) के अधीन दण्डनीय

अपराध हेतु अधिकतम तीन वर्ष के कारावास का

दण्ड विहित किया गया है। अतएव यह अपराध

प्रथम वर्ग मजिस्टेंट की विचारण की अधिकारिता

के अधीन होगा। यदि अभियुक्त तथा अभियोजन

की साक्ष्य सुनने के पश्चात् ऐसे मजिस्टेंट

की यह राय है कि अभियुक्त दोषी है तो ऐसी

अवस्था में उसे मामले को दं.प्र.सं. की धारा 325

के अधीन अपनी राय अभिलिखित करते हुए

मामले एवं अभियुक्त को मुख्य मुख्य न्यायिक

मजिस्टेंट को भेजना चाहिये। ऐसी स्थिति में

प्रथम वर्ग मजिस्टेंट द्वारा विरचित आरोप एवं

साक्षियों की अंकित की गई साक्ष्य, अवैध नहीं

होती है। इस बिन्दु पर रमेश विरूद्ध

मध्यप्रदेश राज्य, 2003 (1) एम.पी.एच.टी.

392
का न्याय दृष्टांत अवलोकनीय है।

यह उल्लेखनीय है कि प्रथम वर्ग मजिस्टेंट द्वारा

ऐसे मामलों का विचारण अवैध न होने पर भी

दोष सिद्धि की अवस्था में उत्पन्न होने वाली

कठिनाइयों के निवारणार्थ प्रशासनिक रूप से यह

उचित होगा कि ऐसे मामलों का विचारण जहां

तक संभव हो सके मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट या

अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट द्वारा

सम्पादित किया जाए। सत्र न्यायाधीश एवं मुख्य

न्यायिक मजिस्टेंट को कार्य विभाजन आदेश

जारी करते समय इसे ध्यान में लेना चाहिये।

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