Friday, 6 June 2014

अपराध के संज्ञान हेतु विहित परिसीमा काल के विस्तारण हेतु क्या अभियुक्त को सुना जाना आवष्यक है? परक्राम्य लिखत में?

अपराध के संज्ञान हेतु विहित परिसीमा
काल के विस्तारण हेतु क्या अभियुक्त को
सुना जाना आवष्यक है? यदि न्यायालय ने
परिसीमा काल पर विचार किये बिना किसी
अपराध का संज्ञान कर लिया है तब क्या
न्यायालय ऐसे विलंब की माफी पश्चातवर्ती
प्रक्रम पर कर सकता है? परक्राम्य लिखत
अधिनियम, 1881 की धारा-142 (ख) के
परंतुक के अधीन संज्ञान हेतु परिसीमा काल
के विस्तारण हेतु क्या प्रक्रिया होगी ?

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 के अधीन
कतिपय अपराधों के संज्ञान हेतु परिसीमा काल
विहित किया गया है तथा ऐसे परिसीमा काल
की समाप्ति के पश्चात् संबंधित अपराध का
संज्ञान वर्जित किया गया है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-473 के अधीन
विलंब का उचित समाधान होने अथवा न्यायहित
में न्यायालय ऐसे परिसीमा काल के अवसान के
पश्चात् भी विलंब को माफ करते हुए किसी
अपराध का संज्ञान करने हेतु सशक्त है।
प्रश्न यह है कि क्या ऐसे विहित परिसीमा काल
के विस्तारण हेतु अभियुक्त को सुना जाना
आवश्यक है। चूंकि परिसीमा अवधि के अवसान
पर अभियुक्त को एक मूल्यवान अधिकार प्राप्त
होता है क्योंकि अवधि बाधित अभियोग
पत्र/परिवाद गुणावगुण पर विचारित नहीं हो
सकता है जब तक कि विलंब को माफ न कर
दिया जाये। अतएव यह प्राकृतिक न्याय की
अपेक्षा है कि अभियुक्त को तत्संबंधी मूल्यवान
अधिकार से वंचित किये जाने के पूर्व सूचना दी
जाए एवं सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाये।

 (देखें - Krishna Sanghi v. State of M.P.,
1977 CriLJ 90 (M.P.), and State of
Maharashtra vs. Sharadchandra Vinayak
Dongre, AIR 1995 SC 231)

स्पष्ट है कि अपराध के संज्ञान हेतु विहित
परिसीमा काल के विस्तारण हेतु अभियुक्त को
सुना जाना आवश्यक है।
पुनः यदि न्यायालय ने परिसीमा काल पर विचार
किए बिना किसी अपराध का संज्ञान कर लिया
है तो भी पश्चात्वर्ती किसी भी प्रक्रम पर
विचारण की समाप्ति के पूर्व यदि ऐसे विलंब को
माफ करने हेतु आवेदन न्यायालय के समक्ष
प्रस्तुत किया जाता है तो न्यायालय अपने
समाधान के अधीन ऐसे विलंब को माफ कर
सकता है।
द.प्र.सं. की धारा - 473 के अधीन परिसीमा
काल के विस्तारण हेतु कोई प्रक्रम विहित नहीं
किया गया है। अतएव न्यायालय संज्ञान कर
लिये जाने के उपरांत अभियोजन पक्ष की ओर
से विलंब को माफ करने हेतु प्रस्तुत आवेदन पर
सुनवाई से प्रवारित नहीं है। इस बिंदु पर  

Sukhdev Raj v. State of Punjab, 1994 SCC
(Cri) 1480 = 1994 Supp(2) SCC 398,
Sureshbhai K. Desai v. State of Gujarat,
1983 CriLJ 1684 (Gujrat High Court), R.
V. Kunhiraman v. Inspector of Police,
Special Police Establishment, CBI,
Cochin, 1998 CriLJ 3679 (Kerala High
Court) तथा  Sulochana v. State Registrar of
Chits, (Investigation and Prosecutor)
Madras, 1978 CriLJ 116 (Madras High
Court)

के न्यायदृष्टांतों में प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है।
यह भी उल्लेख किया जाना अपेक्षित है कि
विलंब की माफी यद्यपि न्यायालय के विवेक का
विषय है परंतु ऐसे विवेक का प्रयेाग
विनिर्दिष्ट एवं सकारण आदेश द्वारा अग्रसरित
होना चाहिये। (देखें-State of Himanchal
Pradesh v. Tara Datt 2000 CriLJ 485=AIR
2000 SC 297)

परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 142
(ख) के परंतुक के अधीन न्यायालय धारा 138
के अधीन दण्डनीय अपराध के संज्ञान हेतु विहित
परिसीमा काल के विस्तारण हेतु सशक्त है यदि
परिवादी यह समाधान कर देता है कि उसके
पास विहित अवधि में ऐसा न करने का पर्याप्त
कारण था।
इस प्रावधान के अधीन परिसीमा काल के
विस्तारण हेतु भी पूर्ववर्णित प्रक्रिया का अनुसरण
किया जाना आज्ञापक है अर्थात विलंब से प्रस्तुत
परिवाद पत्र पर प्रसंज्ञान लेने से पूर्व अभियुक्त
को सुनवाई का अवसर दिया जाना आवश्यक
है। इस बिंदु पर Prashant Goel v. State,
2007(1) Crimes 78 (Delhi High Court)

 के न्याय दृष्टांत में प्रतिपादित विधि अवलोकनीय
है।

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