Saturday, 7 June 2014

व्यवहार प्रकरणों अथवा दाण्डिक परिवाद प्रकरणों में मुख्त्यार को पक्षकार के स्थान पर या विकल्प में अभिसाक्ष्य देने का अधिकार है?

क्या व्यवहार प्रकरणों अथवा दाण्डिक
परिवाद प्रकरणों में पक्षकार/पीडित व्यक्ति
द्वारा नियुक्त मुख्त्यार को पक्षकार/पीडित
व्यक्ति के स्थान पर या विकल्प में
अभिसाक्ष्य देने का अधिकार है?

 
जहां तक व्यवहार प्रकरणों का संबंध है, आदेश 3
नियम 1 व्यवहार प्रक्रिया संहिता
मुख्तारनामा धारक को पक्षकार की ओर से
’कार्य’ निष्पादित करने का अधिकार प्रदान करती
है। प्रश्न यह है कि क्या ’कार्य’ की श्रेणी में
पक्षकार की ओर से
’अभिसाक्ष्य’ दिया जाना भी
सम्मिलित है? माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा
जानकी वासुदेव भोजवानी एवं अन्य वि.
इंडसिंध बैंक लिमिटेड, ए.आई.आर. 2005
सु.को. 439
के न्यायदृष्टांत में विनिर्णीत किया
गया है कि ’कार्य’ शब्द का विस्तार पक्षकार के
स्थान पर एवं उसकी ओर से ’अभिसाक्ष्य’ देने
तक का नहीं है। ऐसा अभिकर्ता या मुख्त्यार
केवल उन्हीं बिंदुओं पर सक्षम साक्षी हो सकता
है जो उसके बतौर मुख्त्यार द्वारा किए गए कार्य
से संबंध में रखते हो। उन बिन्दुओं पर साक्ष्य
प्रस्तुत करने से वह निषेधित है जो पक्षकार द्वारा
स्वयं संपादित कृत्यों से संबंध रखते हों। इसी
प्रकार उन बिन्दुओं पर भी ऐसा मुख्त्यार साक्ष्य
नहीं दे सकता है जो कि मूल अभिकर्ता/
पक्षकार की व्यक्तिगत जानकारी के विषयक हो
और जिनके संबंध में पक्षकार का प्रतिपरीक्षण
किए जाने का अधिकार विपक्ष को प्राप्त हो।
दाण्डिक परिवाद प्रकरणों का जहां तक प्रश्न है,
तो डा. अनिल कुमार हरितवाल वि. संत
प्रकाश गुप्ता एवं अन्य, 2001 (3) एम.
पी.एच.टी. 325
के प्रकरण में यह विनिश्चत
किया गया कि मुख्त्यार को परिवादी की ओर से
परिवाद प्रस्तुत करने का अधिकार है। यह
प्रकरण धारा 138 पराक्राम्य लिखत अधिनियम से
संबंधित था। इस न्यायदृष्टांत में धारा 2 पावर
आफ एटार्नी अधिनियम, 1882 का हवाला दिया
गया, जिसके अनुसार मुख्त्यार द्वारा किये गये
कार्य के विषय में यह उपधारणा होगी कि उक्त
कार्य उस व्यक्ति का है जिसने मुख्त्यार नियुक्त
किया था। इस प्रकार यदि मुख्त्यार परिवाद
प्रस्तुत कर रहा है तो यही माना जाएगा कि
मुख्त्यार के नियोक्ता अर्थात् ‘Payee’  या
‘holder in due course’
 ने परिवाद प्रस्तुत किया
है जो कि धारा 142 (a) में विहित निर्धारित
परिवादी है। ऐसा मुख्त्यार यद्यपि परिवाद प्रस्तुत
करने में सक्षम तो है, तथापि परिवादी की
हैसियत से साक्ष्य नहीं दे सकता है। ऐसा
अभिनिर्धारण महेन्द्र कुमार आर्मस्टंग एवं
अन्य, 2005 (2) एम.पी.एल.जे. 419
के निर्णय
में किया गया है। इस निर्णय में आगे कहा गया
है कि धारा 138 पराक्राम्य लिखत अधिनियम के
परिवाद का संज्ञान मुख्तार की साक्ष्य के आधार
पर लिया जा सकता है एवं धारा 204 दण्ड
प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत आदेशिका जारी की
जा सकती है परन्तु परिवादी की साक्ष्य के बिना
प्रकरण का अंतिम रूप से विनिश्चयन नहीं हो
सकता है। इस निर्णय में भोजवानी (पूर्वोक्त) में
उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को
निष्कर्ष का आधार बनाया गया है।

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