धारा 98 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत
प्रस्तुत आवेदन पत्र के निराकरण की
प्रक्रिया क्या होनी चाहिए ?
धारा 98 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत
आवेदन पत्र प्रस्तुत होने पर उसके निराकरण
हेतु क्या प्रक्रिया अपनायी जावे इसमें भ्रमपूर्ण
स्थिति रहती है क्योंंकि इस धारा के अन्तर्गत
इसके लिए कोई प्रक्रिया विहित नहीं है।
इसके अन्तर्गत किसी स्त्री या 18 वर्ष की कम
आयु की किसी बालिका के किसी विधि विरूद्ध
प्रयोजन के लिए अपहृत किये जाने या विधि
विरूद्ध रखे जाने का शपथ पर परिवाद किये
जाने की दशा में जिला मजिस्टंट उपखण्ड
मजिस्टंट या प्रथम वर्ग मजिस्टंट यह आदेश
कर सकता है कि उस स्त्री को तुरंत स्वतंत्र
किया जावे या वह बालिका उसके पति,
माता-पिता, संरक्षक या अन्य व्यक्ति को, जो
उस बालिका का विधि पूर्ण भार साधक है, तुरन्त
वापस कर दी जावे और ऐसे आदेश का
अनुपालन ऐसे बल के प्रयोग द्वारा जैसा
आवश्यक हो, करा सकता है।
इसके लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि शपथ
पर परिवाद किया जावे। ऐसे परिवाद प्रस्तुती पर
इसका संक्षिप्त जांच उपरान्त निराकरण अपेक्षित
है जिसके लिए यह आवश्यक है कि संबंधित
मजिस्टंट परिवाद प्रस्तुत करने वाले परिवादी का
शपथ पर परीक्षण करे और अनावेदक को
परिवाद के संबंध में कारण बताओं सूचना पत्र
जारी करते हुए ऐसी स्त्री अथवा बालिका को
विधि अनुसार कार्यवाही के लिए प्रस्तुत करने का
कहें। (देखे - विधि दृष्टांत कृष्णा साहू विरूद्ध
मध्य प्रदेश राज्य, 1989 जे.एल.जे. पृष्ठ
110) शपथ पर परिवाद का केवल यह तात्पर्य नहीं है
कि न्यायालय के समक्ष ही परिवादी का कथन
लिया जावे, यदि परिवाद के समर्थन में परिवादी
का शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया है तो यह
पालन पर्याप्त है (देखे - तुलसी दास विरूद्ध
चेतनदास, ए.आई,आर, 1933 नागपुर पृष्ठ
374) ऐसे मामले में मजिस्टंट को दोनों पक्षों को
सुनवाई का अवसर दिये जाने के उपरांत ही
दोनों परिस्थितियाँ यथा, विधि विरूद्ध रखा जाना
और ऐसा विधि विरूद्ध प्रयोजन के लिए होना,
पाये जाने पर ही उचित आदेश दिया जाना
चाहिए (देखे - जीनत के.व्ही. विरूद्ध कदीजा
एवं अन्य 2007 क्रिमनल ला जर्नल पृष्ठ
600 एवं राज्य विरूद्ध बिल्ली एवं अन्य,
ए.आई.आर. 1953 नागपुर 128)
मजिस्टंट को ऐसी सुनवाई के दौरान पक्षकारों
के सिविल अधिकारों का विनिश्चय करने का
अधिकार नहीं है। ऐसा विवाद संबंधित सक्षम
सिविल न्यायालय द्वारा ही निराकृत किया जा
सकता है। (देखे- धापू विरूद्ध पूरीलाल,
ए.आई.आर. 1959 एम.पी. 356)
प्रस्तुत आवेदन पत्र के निराकरण की
प्रक्रिया क्या होनी चाहिए ?
धारा 98 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत
आवेदन पत्र प्रस्तुत होने पर उसके निराकरण
हेतु क्या प्रक्रिया अपनायी जावे इसमें भ्रमपूर्ण
स्थिति रहती है क्योंंकि इस धारा के अन्तर्गत
इसके लिए कोई प्रक्रिया विहित नहीं है।
इसके अन्तर्गत किसी स्त्री या 18 वर्ष की कम
आयु की किसी बालिका के किसी विधि विरूद्ध
प्रयोजन के लिए अपहृत किये जाने या विधि
विरूद्ध रखे जाने का शपथ पर परिवाद किये
जाने की दशा में जिला मजिस्टंट उपखण्ड
मजिस्टंट या प्रथम वर्ग मजिस्टंट यह आदेश
कर सकता है कि उस स्त्री को तुरंत स्वतंत्र
किया जावे या वह बालिका उसके पति,
माता-पिता, संरक्षक या अन्य व्यक्ति को, जो
उस बालिका का विधि पूर्ण भार साधक है, तुरन्त
वापस कर दी जावे और ऐसे आदेश का
अनुपालन ऐसे बल के प्रयोग द्वारा जैसा
आवश्यक हो, करा सकता है।
इसके लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि शपथ
पर परिवाद किया जावे। ऐसे परिवाद प्रस्तुती पर
इसका संक्षिप्त जांच उपरान्त निराकरण अपेक्षित
है जिसके लिए यह आवश्यक है कि संबंधित
मजिस्टंट परिवाद प्रस्तुत करने वाले परिवादी का
शपथ पर परीक्षण करे और अनावेदक को
परिवाद के संबंध में कारण बताओं सूचना पत्र
जारी करते हुए ऐसी स्त्री अथवा बालिका को
विधि अनुसार कार्यवाही के लिए प्रस्तुत करने का
कहें। (देखे - विधि दृष्टांत कृष्णा साहू विरूद्ध
मध्य प्रदेश राज्य, 1989 जे.एल.जे. पृष्ठ
110) शपथ पर परिवाद का केवल यह तात्पर्य नहीं है
कि न्यायालय के समक्ष ही परिवादी का कथन
लिया जावे, यदि परिवाद के समर्थन में परिवादी
का शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया है तो यह
पालन पर्याप्त है (देखे - तुलसी दास विरूद्ध
चेतनदास, ए.आई,आर, 1933 नागपुर पृष्ठ
374) ऐसे मामले में मजिस्टंट को दोनों पक्षों को
सुनवाई का अवसर दिये जाने के उपरांत ही
दोनों परिस्थितियाँ यथा, विधि विरूद्ध रखा जाना
और ऐसा विधि विरूद्ध प्रयोजन के लिए होना,
पाये जाने पर ही उचित आदेश दिया जाना
चाहिए (देखे - जीनत के.व्ही. विरूद्ध कदीजा
एवं अन्य 2007 क्रिमनल ला जर्नल पृष्ठ
600 एवं राज्य विरूद्ध बिल्ली एवं अन्य,
ए.आई.आर. 1953 नागपुर 128)
मजिस्टंट को ऐसी सुनवाई के दौरान पक्षकारों
के सिविल अधिकारों का विनिश्चय करने का
अधिकार नहीं है। ऐसा विवाद संबंधित सक्षम
सिविल न्यायालय द्वारा ही निराकृत किया जा
सकता है। (देखे- धापू विरूद्ध पूरीलाल,
ए.आई.आर. 1959 एम.पी. 356)
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