श्रीमती
सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य, 2009 (2) दुर्घटना
और मुआवजा प्रकाशिका 161 (सु.को.) में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत
1. तीन मूल तथ्य स्थापित किए हैं:-
1. मृतक की आयु, 2. मृतक की आय, 3. आश्रितों की संख्या
2. जहां मृतक विवाहित है व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का निम्न सिद्धांत परिवार में आश्रितों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है:-
1. मृतक की आयु, 2. मृतक की आय, 3. आश्रितों की संख्या
2. जहां मृतक विवाहित है व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का निम्न सिद्धांत परिवार में आश्रितों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है:-
क्रमांक परिवार में आश्रितों की संख्या व्यक्तिगत एवं जीवन
यापन व्ययों के प्रति कटौती
1 2 से 3 1/3 (एक तिहाई)
2. 4 से 6 1/4 (एक चैथाई)
3. 6 से अधिक 1/5 (एक पांचवा)
3. यदि मृतक अविवाहित है तो व्यक्तिगत एवं जीवन यापन की कटौती 50 प्रतिशत (1/2 अर्थात् आधी) की जाएगी, अविवाहित मृतक की केवल माता ही आश्रित मानी जाएगी, पिता-भाई‘-बहिन नहीं अपवादिक परिस्थितियों में माने जाएंगे।
4. मृत्यु के मामले में प्रयोज्य गुणांक के संबध में मृतक की आयु के आधार पर निम्नलिखित गुणांक अभिनिर्धारित किया गया है:-
क्रमांक मृतक की आयु प्रयुक्त गुणांक
1. 15 वर्ष तक 20
2. 15 से 20 वर्ष 18
3. 21 से 25 वर्ष 18
4. 26 से 30 वर्ष 17
5. 31 से 35 वर्ष 16
6. 36 से 40 वर्ष 15
7. 41 से 45 वर्ष 14
8. 46 से 50 वर्ष 13
9. 51 से 55 वर्ष 11
10. 56 से 60 वर्ष 9
11. 61 से 65 वर्ष 7
12. 65 से अधिक 5
5. संपदा क्षति हेतु 5000/- रूपए, अंत्येष्टि व्ययों हेतु 5000/- रूपये और सहजीवन की क्षति हेतु 10000/- रूपए जोडे गए।
(सहजीवन की क्षति केवल विधवा/पति को ही दिलाई जाएगी)।
6. मृत शरीर के परिवहन के व्यय, मृत्यु
के पूर्व मृतक के चिकित्सीय उपचार को भी प्रदान किया जाएगा।
7 मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 163 (क) के अधीन किए गए दावों तथा धारा 166 के अधीन किए गए दावों के लिए दायित्व तथा मुआवजे की मात्रा के निर्धारण के सिद्धांत भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) हैं ।
8.
आश्रितता की क्षति के निर्धारण हेतु आय का निर्धारण होना चाहिए फिर उसमें
मृतक के व्यक्तिगत जीवन यापन की कटौती की जानी चाहिए उसके बाद मृतक की आयु
के संबंध में गुणांक कर उचित मुआवजा राशि निकाला जाना चाहिए।
9. वेतनवृद्धि की भावी प्रत्याशाओं जहां मृतक का कार्य स्थायी रहा हो वहां उसके वास्तविक वेतन में से कर की कटौती के उपरांत निम्नानुसार वृद्धि का सिद्धांत बताया है:-
मृतक की आयु वृद्धि प्रतिशत् में
40 वर्ष से कम 50 प्रतिशत्
40 से 50 वर्ष 30 प्रतिशत्
50 से अधिक कोई वृद्धि नहीं
10. जहा मृतक स्वनियोजित था या उसका वेतन निश्चित था (वार्षिक अभिवृद्धि इत्यादि के प्रावधान के बिना), न्यायालय सामान्य रीति से केवल मृत्यु के समय वास्तविक आय को ही स्वीकार करेगा। इस विधि से विचलन केवल आपवादिक मामलों में विशेष परिस्थितियों में किया जाना चाहिए।
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2009(।।) दु.मु.प्र. 161 (सु.को.)
उच्चतम न्यायालय
न्यायमूर्तिगण : मान्नीय आर.बी.रवीन्द्र्रन.
मान्नीय लोकेश्वर सिंह पैण्टा.
श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य
बनाम
दिल्ली परिवहन निगम एवं एक अन्य
(सिविल अपील सं. 3483 वर्ष 2008 (वि.अ.या.(सिविल)संख्या 8648 वर्ष 2007 से उद्भूत), निर्णीत दिनांक 15 अप्रेल 2009)
(प) मोटर वाहन अधिनियम 1988, धारा 168 और 173- मुआवजा- मात्रा मुआवजे की अभिवृद्धि हेतु अपील- मृतक एक वैज्ञानिक जिसे 4004 रूपये प्रतिमाह वेतन प्राप्त हो रहा था-विधवा, तीन अवयस्क बच्चों, माता पिता तथा पितामह के प्रति पारिवारिक योगदान को 2250 रूपये प्रतिमाह ग्रहण कर 22 के गुणक की प्रयोज्यता से, अधिकरण ने 5,94,000/-रूपये का मुआवजा अधिनिर्णीत किया-उच्च न्यायालय के समक्ष अपील पर, मृतक की आय 6,006 रूपये प्रतिमाह निर्धारित -मृतक के बड़े परिवार को दृष्टिगत रखते हुये, व्यक्तिगत व्ययों के लिये मृतक की आय के एक-चैर्था की कटौती की गयी तथा आश्रितता 4,504 रूपये प्रतिमाह अथवा 54048 रूपये प्रतिवर्ष निर्धारित-13 के गुणक को लागू कर मुआवजा-7,19,624 रूपये परिगणित जिसमें सहजीवन की क्षति तथा अंत्येष्टि व्यय सम्मिलित-अपील-निर्णीत यह आवश्यक नहीं कि मृतक का व्यक्तिगत व्यय आश्रितों की संख्या के आनुपातिक होना चाहिये- न्याय के हित में मृतक के व्यक्तिगत व्ययों हेतु उसकी आय के एक-पांचवे भाग की कटौती की गई-मृतक की आयु को दृष्टिगत रखते हुये युक्तियुक्त गुणक 15 निर्णीत -आश्रितता की क्षति 8,64,870 रूपये परिगणित -सम्पदा की क्षति हेतु 5,000 रूपये अंत्येष्टि व्ययों हेतु 5,000 रूपये और सहजीवन की क्षति हेतु 10,000 रूपये जोड़े गये-6 प्रतिशत प्रतिवर्ष ब्याज के साथ दावाकर्तागण को 8,84,870 रूपये का मुआवजा अधिनिर्णीत।
(पैरा 4, 5, 24 से 27)
(पप) मोटर वाहन अधिनियम 1988 धारा 168 -मुआवजा-मात्रा -निर्धारण-गुणक विधि द्वारा आश्रितता की क्षति का निर्धारण-मृत्यु के मामले में दावाकर्तागण को तीन मूल तथ्यों को स्थापित करना होगा अर्थात मृतक की आयु, मृतक की आय तथा आश्रितों की संख्या-समरूपता तथा संगतता कायम रखने के लिये अधिकरण को तीन स्तरों का अनुसरण करना होगा-गुण्य का निर्धारण, गुणक का निर्धारण और तत्पश्चात् आश्रितता की वास्तविक परिगणना। (पैरा 7 से 16)
(पपप) मोटर वाहन अधिनियम 1988 धारा 163-क और 166 - मुआवजा-मात्रा दोनो धाराओं के अधीन दावों के सम्बन्ध में- दायित्व और मुआवजे की धनराशि की मात्रा को निर्धारण करने के सिद्धांत बिलकुल भिन्न।
(पअ) मोटर वाहन अधिनियम 1988 धारा 166 -मुआवजा-गुणक-युक्तियुक्त गुणक द्वितीय अनुसूची के स्तम्भ 4 के अनुसार होना चाहिये -जहा तक मृतक की आय का सम्बन्ध है मृत्यु के पश्चात् हुये वेतन संशोधन को विचारण में ग्रहण नहीं किया जा सकेगा। (पैरा 20 व 24)
निर्दिष्ट वाद:
1951 ए.सी. 601: 1942 ए.सी. 601(1994) 2 एस.सी.सी. 176: 1997(1) दु.मु.प्र. 189: (1996) 4 एस.सी.सी. 362: (1996) 3 एस.सी.सी. 179: 1999 (2) दु.मु.प्र. 91: (2003) 3 एस0सी0सी0 148: (2004) 2 एस.सी.सी. 473: 2004 (2) दु.मु.प्र. 46 (2007) 5 एस0सी0सी0 428: (2005) 10 एस.सी.सी. 720 (2005) 6 एस.सी.सी. 236: (2006) 6 एस.सी.सी. 249।
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अधिवक्तागण की ओर से - श्री अशोक के. महाजन, अधिवक्ता।
प्रत्यर्थीगणकी ओर से -डा.मोनिका गुसाई, अधिवक्ता।
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निर्णय
आर.बी.रवीनद्र्रन न्यायमूर्ति- एक मोटर दुर्घटना दावा में दावाकर्ता ने मुआवजे की अभिवृद्धि की इप्सा करते हुये विशेष अनुमति द्वारा यह अपील दाखिलकी है।
2. 18 अप्रेल 1988 को हुई एक मोटर दुर्घटना में जिसमें दिल्ली परिवहन निगम के स्वामित्वाधीन बस संख्या डी.एल.पी. 829 अन्तर्ग्रस्त थी, राजिन्द्र प्रकाश नाम व्यक्ति की उसे हुई उपहतियों के कारण मृत्यु होगई थी। इस दुर्घटना तथा असामयिक मृत्यु के समय मृतक की आयु 38 वर्ष थी तथा वह 3402 रूपये प्रतिमाह वेतन एवं अन्य लाभों पर इंडियन कांउसिल आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च में वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत् था। उस विधवा, तीन अवयस्क बच्चे, माता पिता तथा पितामह (जो अब जीवित नहीं है) ने मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण नई दिल्ली के समक्ष 16 लाख रूपये का दावा दाखिल किया था। आई.सी.ए.आर.के एक अधिकारी जिसकी परीक्षा पी.डब्ल्यू 4 के रूप में की गई थी ने यह साक्ष्य दिया था कि आई.सी.ए.आर. की सेवा में सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष थी तथा मृत्यु के समय मृतक द्वारा प्राप्त किया जाने वाला वेतन प्रतिमाह 4004 रूपये था।
3. अधिकरण ने अपने निर्णय एवं अधिनिर्णय दिनांक 06 अगस्त 1993 के द्वारा दावे को अंशतः अनुज्ञात किया था। अधिकरण ने मृतक का मासिक वेतन 3402 रूपये ग्रहण कर मुआवजे की परिगणना की थी । उसने मृतक के व्यक्तिगत तथा जीवन निर्वाह व्ययों के प्रति एक-तिर्हा की कटौती की थी तथा परिवार के प्रति योगदान को 2250 रूपये प्रतिमाह (अथवा 27000 रूपये प्रतिवर्ष) निर्धारित किया था। इस साक्ष्य के परिप्रेक्ष्य में कि सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष थी, उसने निर्णीत किया था कि असामयिक मृत्यु के कारण सेवाकी खोई हुई अवधि 22 वर्ष थी। इस कारण उसने 22 का गुणक लागू किया था तथा परिवार को हुई आश्रितता की क्षति को 5,94,000 रूपये निर्धारित किया था। उसने उक्त धनराशि को याचिका की तिथि से भुगतान की तिथि तक 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर पर ब्याज के साथ अधिनिर्णीत किया था। अंतरिम मुआवजे के रूप में भुगतान की गई 15,000 रूपये की धनराशि की कटौती केपश्चात् उसने मुआवजे की शेष धनराशि को दावाकर्तागण के मध्य विभाजित किया था अर्थात् विधवा को 3,00,000 रूपये दो पुत्रियों में प्रत्येक को 75,000 रूपये, पुत्र को 50,000 रूपये पितामह को 19,000 रूपये तथा माता पिता में प्रत्येक को 30,000 रूपये ।
4. मुआवजे की मात्रा से असंतुष्ट होकर, अपीलार्थीगण ने अपील दाखिल की थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय दिनांक 15 फरवरी 2007 के द्वारा उक्त अपील को अंशतः अनुज्ञात किया था।उच्च न्यायालय का यह अभिमत था कि यद्यपि दावा याचिका में वेतन का उल्लेख 3402 रूपये तथा अन्य लाभों के साथ किया गया था पी. डब्ल्यू. 4 के साक्ष्य अनुसार वेतन को 4404 रूपये प्रतिमाह स्वीकार किया जाना चाहिये। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कि उसकी मृत्यु के समय मृतक की 22 वषो की सेवा शेष रह गई थी तथा उसे उस अवधि में वार्षिक बढ़ोतरी एवं वेतन संशोधन प्राप्त हुआ होता, उसने यह निर्णीत किया था कि उसकी सेवानिवृत्ति के समय तक उसका वेतन कम से कम दोगुना हो गया होता(8008 रूपये प्रतिमाह) । इस कारण उसने मृत की आय 6006 रूपये प्रतिमाह निर्धारित कीथी जो कि 4004 रूपये (मृत्यु के समय उसे प्राप्त वेतन) और 8008 रूपये (सेवानिवृत्ति के समय उसे प्राप्त होने वाला वेतन) की औसत धनराशि थी।परिवार के सदस्यों की अधिक संख्या को ध्यान में रखते हुये उच्च न्यायालय का यह अभिमत था कि मृतक के व्यक्तिगत तथा जीवन निर्वाह व्ययों केप्रति, मानक एकतिहाई कटौती के बजाय केवल एक चैथाई की कटौती की जानी चाहिये। इस प्रकार कटौती के पश्चात् उसने परिवार केप्रति योगादान को 4504 रूपये प्रतिमाह अथवा 54048 रूपये प्रतिवर्ष निर्धारित किया था। मृतक की आयु को ध्यान में रखते हुये उच्च न्यायालय के 13 के गुणक का प्रयोग किया था। इस प्रकार उसने 7,02,624 रूपये की आश्रितता की क्षति निर्धारित की थी। सहजीवन की क्षति के प्रति 15,000/-रूपये और अंत्येष्टि व्ययों के प्रति 2000 रूपये जोड़कर कुल मुआवजा 7,19,624 रूपये परिगणित किया गया था। इस प्रकार उसने दावा याचिका की तिथि से 6 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर पर ब्याज के साथ मुआवजे में 1,25,624 रूपये की अभिवृद्धि करते हुये अपील को निस्तारित किया था।
5. उक्त बढोतरी से संतुष्ट न होकर अपीलार्थीगण ने यह अपील दाखिल की है। उन्होंने यह तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने यह निर्णीत करने में त्रुटि कारित की थी कि भावी प्रत्याशओं के सम्बन्ध में कोई साक्ष्य नहीं था और यह कि यद्यपि परिगणना हेतु अपनायी गई विधि में कोई त्रुटि नहीं है उच्च न्यायालय को मृतक की आय के रूप में अधिक धनराशि स्वीकार करना चाहिये था। उन्होंने यह निवेदन किया था कि उच्च न्यायालय के समक्ष 2 जून 2000 और 5 मई 2005 को उच्च न्यायालय के संज्ञान मे यह लाते हुये दो आवेदन दाखिल किये गये थे कि वेतन संशोधनों को ध्यान में रखते हुये मृतक का वेतन 31 दिसंबर 1999 को 20,890 रूपये प्रतिमाह तथा 01 अक्टूबर 2005 को 32,678 रूपये प्रतिमाह होता यदि वह जीवित होता। वेतनमानों में संशोधित तथा पारिणामिक पुनरीक्षणों एवं पुननिर्धारणों को स्थापित करने के लिये अपीलार्थीगण ने नियोजक(आई.सी.ए.आर.) द्वारा जारी दृढ़ीकरण पत्र दिनांकित 07 दिसंबर 1998 और 28 अक्टूबर 2005 दाखिल किया था । उनकी व्यथा यह है कि उच्च न्यायालय ने आय तथा आश्रितता की क्षति की परिगणना करने के लिये इन अविवादित दस्तावेजों पर विचार नहीं किया था। उनका तर्क यह है कि मृतक की मासिक आय 18341 रूपये स्वीकार की जानी चाहिये जो कि 32678 रूपये(01 अक्टूबर 2005 को दर्शित आय) और 4004 रूपये (मृत्यु के समय आय) का औसत है। उनका निवेदन यह है कि मृतक के व्यक्तिगत जीवनयापन के व्ययों के प्रति केवल एक-आठवें भाग की कटौती की जानी चाहिये। उन्होंने यह इंगित किया कि भले ही एक चैथाई (4585 रूपये) की कटौती मृतक के व्यक्तिगत एवं जीवनयापन व्ययों के प्रति की गई थी परिवार के प्रति योगदार 13,756 रूपये प्रतिमाह अथवा 1,65,072 रूपये प्रतिवर्ष होना चाहिये था। उन्होंने निवेदन किया कि मोटर वाहन अधिनियम 1988 (संक्षिप्त में अधिनियम) की द्वितीय अनुसूची के सन्दर्भ में 38 वर्ष की आयु में करने वाले व्यक्ति के लिये युक्तियुक्त गुणक 16 का होगा और इस कारण आश्रितता की कुल क्षति 26,41,152 रूपये होगी। उन्होंने यह भी तर्क प्रस्तुत किया कि दावाकर्तागण को हुई पीड़ा एवं व्यथा के प्रति 1,00,000/-रूपये जोड़े जाने चाहिये। इस कारण उनका निवेदन यह है कि उन्हें देय मुआवजा 27,47,152 रूपये के रूप में परिगणित किया जाना चाहिये ।
6. पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत तर्को से निम्नलिखित प्रश्न उद्भूत होते हैं-
(प) क्या मृतक की आय के निर्धारण में भावी प्रत्याशाओं को विचारण में ग्रहणकिया जा सकेगा ? यदि हां तो क्या दावा कार्यवाहियों अथवा उसने उद्भूत अपीलों की लम्बितावस्था में हुये वेतन संशोधानों को विचारण में ग्रहण किया जाना चाहिये ?
(पप) क्या मृतक के व्यक्तिगत और जीवन-यापन व्ययों के प्रति कटौती एक चैथाई (1/4) से कम होनी चाहिये जैसे कि अपीलार्थीगण द्वारा तर्क दिया गया है या उसे एक-तिहाई(1/3) होना चाहिये जैसे कि प्रत्यर्थीगण द्वारा तर्क दिया गया है ?
(पपप) क्या उच्च न्यायालय ने गुणक को 13 के रूप में स्वीकार करने में त्रुटि कारित की थी ?
(पअ) मुआवजा क्या होना चाहिये ?
सामान्य सिद्धांत:-
7. विनिश्चिय हेतु उद्भूत प्रश्नों परविचारणके पूर्व मृत्यु के मामलों में मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुसंगत सिद्धांतों को उद्धरित करनायुक्तियुक्त होगा। पहले न्यायालयों /अधिकरणों के विनिश्चयों में काफी भिन्नतायें और असंगतताएं हुआ करती थीं क्योंकि कुछ के द्वारा नैन्सी बनाम ब्रिटिश कोलम्ब्या इलेक्ट्रिक रेलवे कंपनी लि0 1991 ए0सी0 601 में प्रतिपादित नैन्सी विधि का अनुसरण किया जाता था तथा कुछ के द्वारा डेविस सिद्धांत का अनुसरण किया जाता था। इन दोनों विधियों के बीच भिन्नता कोइस न्यायालय के द्वारा जनरल मैंनेजर केरल स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन बनाम सुसम्मा थामस (1994) 2 एस.सी.सी. 176: 1997 (1) दु.मु.प्र. 189 के मामले में विचार कर स्पष्ट किया गया है। व्यापक विचारणोपरान्त इस न्यायालय ने डेविस विधि को नैन्सी विधि से अधिक वरीयता प्रदान की है। सुसम्मा थामस में प्रतिपादित सिद्धांतों को हम निम्नानुसार उद्धरित कर रहे हैं:
‘‘ घातक दुर्घटना कार्यवाही में क्षति की मात्रा वह आर्थिक हानि होती है जिसे मृत्यु के कारण प्रत्येक आश्रित द्वारा उपगत किया जाता है। आश्रितों को क्षतिपूरित करने के लिये क्षति के निर्धारण में अनेक कठिनाइया होती हैं क्योंकि वस्तुओं की प्रकृति से, अनेक असम्भाव्यताओं को विचारण में ग्रहण किया जाना पड़ता है, उदाहरणार्थ मृतक एवं आश्रितों के जीवन की आशा, वह धनराशि जिसे मृतक ने अपने जीवन की शेष अवधि में अर्जित किया होता, वह धनराशि जिसका योगदान उसने उस अवधि में आश्रितों के प्रति दिया होता, यह सम्भावना कि मृतक ही जीवित न रहता अथवा आश्रित ही अपने जीवन की आशयित शेष अवधि तक जीवित न रह पाते, यह सम्भावनायें कि मृतक को अधिक उपयुक्त नियोजन या आय प्राप्त हुई होती अथवा वह अपना नियोजन अथवा आय पूरी रीति से खो देता।‘‘
‘‘क्षतिपूर्ति के निर्धारण का मामला स्वयं मृतक तथा उसके आश्रितों के लिये उपलब्ध शुद्ध आय का निर्धारण करना है और उसमें से उसकी आय के ऐसे भाग की कटौती करना है जो कि मृतक स्वयं के भरणपोषण तथा आमोद-प्रमोद हेतु व्यय करने के लिये आदी था, और तब यह निर्धारित करना कि अपनी शुद्ध आय का कितना भाग मृतक अपने आश्रितों के लाभ के लिये व्यय करने का आदी था। तब ऐसे अंक से गुणा कर पूंजीकृत किया जाना होगा जो एक उपयुक्त वर्षो की क्रय संख्या हो। ‘‘
‘‘ गुणक विधि में, मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये आश्रितता की क्षति अथवा गुण्य का निर्धारण अन्तग्र्रस्त होता है और गुण्य को उपयुक्त गुणक द्वारा पंजीकृत किया जाता है। गुणक का चयन मृतक की आयु (या दावाकर्तागण की आयु जो भी उच्चतर हो) द्वारा किया जाता है तथा इस परिगणना के द्वारा कि वह मूल धनराशि क्या होगी, जिसे एक स्थिर अर्थव्यवस्था के उपयुक्त ब्याज की दर पर निवेश किया जाता है तो वह वार्षिक ब्याज के रूप में गुण्य प्रदान करेगी। इसके निर्धारण में, इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाना होगा कि अन्ततः मूलधन भी उस अवधि में समाप्त हो जाना चाहिये जिस अवधि तक आश्रितता कायम रहने की आशा है।
‘‘ यह पुनरावृत्ति आवश्यक है कि गुणक विधि तार्किक रीति से सुदृढ़ तथा विधिक रीति से सुस्थापित है। कुछ मामले ऐसे हैं जिनमें जीवन की आशयित अवधि की क्षति की सॅम्पूर्ण भावी आय के जोड़ के आधार पर मुआवजे के निर्धारण की कार्यवाही की गई है उसमें से भावी जीवन की अनिश्चितताओं के प्रति कतिपय प्रतिशत की कटौती कर शेष धनराशि मुआवजे के रूप में अधिनिर्णीत की गई थी। यह स्पष्ट रीति से अवैज्ञानिक है। उदाहरणार्थ यदि मृत्यु के समय मृतक की आयु 25 वर्ष रही हो, तथा जीवन की आशा 70 वर्ष है, यह विधि आश्रितता की क्षति को 45 वर्षो से गुणा करेगी- वस्तुतः 45 का गुणक अपनाते हुये , तथा भावी जीवन की अनिश्चितताओं एवं एकमुश्त तुरन्त भुगतान के प्रति भले ही एक-तिहाई या एक-चैथाई की कटौती की जाये तब भी प्रभावी गुणक 30 और 34 के बीच होगा। यह पूर्णतया अननुज्ञेय है। ‘‘
य.पी.स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन बनाम त्रिलोक चन्द्र 1996(4) एस.सी.सी. 362 में इस न्यायालय ने डेविस विधि की वरीयता की पुनरावृत्ति करते समय जिसका अनुसरण सुसम्मा थामस के मामले में किया गया था, निम्नानुसार अधिकथित किया था:
‘‘ नैन्सी के मामले में भी विस्काउण्ट साइमन द्वारा अपनायी गई विधि में भी सर्वप्रथम वार्षिक आश्रितता की परिगणना की जाती है तथा तत्पश्चात् मृतक के संभावित लाभकारी जीवन के द्वारा गुणा किया जाता है। इसका सामान्य निर्धारण दीर्घकाल के आधार पर किया जाता है। किन्तु जीवन की अनिश्चितताओं पर प्रभाव रखने वाले विभिन्न कारकों जैसे मृतक अथवा आश्रित की असामयिक मृत्यु , पुनर्विवाह, त्वरित भुगतान तथा उचित एवं विवेकी निवेश द्वारा बढ़ी आय , के प्रति उचित कटौतिया भी आवश्यक होगी। सामान्य रीति से यह अनुभव किया गया था कि विभिन्न असम्भाव्यताओं पर कटौतियों के कारण मुआवजे का निर्धारण कतिपय जटिल तथा कठिन हो जाता है और प्रायः एक अनुमानित तथा सुगम रीति में, आश्रितता के एक-तिहाई और एक-चैथाई की कटौती की जाती है जो ग्रहण की गई जीवन की अवधि पर निर्भर करता है। इसी कारण,भारत और इंग्लैण्ड में भी डेविस के सू.त्र को साधारण तथा अधिक वास्तविक रूप में वरीयता प्रदान की गई है। लेकिन, जैसे इससे पूर्व अवलोकन किया गया है तथा जैसे कि सुसम्मा थामस के मामले में इंगित किया गया है सामान्य रीति से आग्ल न्यायालय 16 के गुणक से अधिक नहीं अपनाते। भारत में भी न्यायालयों ने उसी रीति का अनुसरण किया था जब तक कि अधिकरणों/न्यायालयों ने असम्भाव्यताओं के लिये कटौती किये बिना ही नैन्सी की विधि का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया था। डेविस में लार्ड राइट के द्वारा प्रतिपादित सूत्र के अधीन क्षति का निर्धारण करने के लिये सर्वप्रथम मृतक की मासिक आय का निर्धारण किया जाता है , तब उसमें से मृतक पर खर्च किये जाने वाले धनराशि की कटौती की जाती है और इस प्रकार मृतक के आश्रितों की क्षति निर्धारित वार्षिक आश्रितता को तत्पश्चात् एक उपयुक्त गुणक के प्रयोग द्वारा गुणा किया जाता है।
(बल दिया गया)
8. मुआवजा अधिनिर्णीत करने में समरूपता तथा संगतता एक गम्भीर चिन्ता का विषय रहा है। प्रत्येक जिले में एक अथवा अधिक दुर्घटना दावा अधिकरण होता/होते हैं। यदि एक ही तथ्यों पर विभिन्न अधिकरणों द्वारा भिन्न रीति से मुआवजे की परिगणना की जाती है दावाकर्ता , वादकर्ता, सामान्य व्यक्ति भ्रमित, चिन्तित और परेशान हो जाएंगे। यदि समान तथ्यों पर मुआवजे की मात्रा के निर्धारण में अधिकरणें में भिन्नता हो तो यह प्रणाली में असन्तोष तथा अविश्वास को उत्पन्न करेगा। हम त्रिलोकचंद्र में किये गये निम्नलिखित अवलोकनों को संदर्भित कर सकते हैं।
‘‘ हमने न्यायोचित मुआवजे की परिगणना करने की विधि की पुनरावृत्ति अनिवार्य समझी क्योंकि हाल ही में हमने यह अवलोकन किया है कि अधिकरणों और न्यायालयों द्वारा किये गये अधिनिर्णयों में, जिस सिद्धांत पर गुणक विधि विकसित की गई थी उसकी अनदेखी की गई है तथा पुनः अधिकरण/न्यायालय की वस्तुपरकता पर आधारित मिश्रित विधि उभरकर आई है जिससे मुआवजे के निर्धारण में, अनिश्चितता एवं युक्तियुक्त साम्यता की कमी आई है । यह समझा जाना चाहिये कि दुर्घटना के पीडित को अधिनिर्णय किये जाने योग्य मुआवजे की धनराशि अधिकरण /न्यायालय द्वारा उचित रीति से निर्धारित की जानी चाहिये जिसे कारित उपहति के आनुपातिक होना चाहिये।
अधिनिर्णीत मुआवजा मात्र इस कारण‘‘ न्यायोचित मुआवजा ‘‘ नहीं बन जाता क्योंकि अधिकरण उसे न्यायोचित मानता है। उदाहरणार्थ यदि उन्हीं तथा समान तथ्यों पर(मान लें कि मृतक 40 वर्षीय था तथा उसकी वार्षिक 45,000 रूपये थी एवं उसके उत्तरजीवी उसकी पत्नी तथा बच्चा थे ) एक अधिकरण 10,00,000 रूपये अधिनिर्णीत करता है, सभी यही विश्वास करते हैं कि धनराशि न्यायोचित है,यह नहीं कहा जा सकेगा कि जो प्रथम मामले तथा अन्य मामले में अधिनिर्णीत किया गया है वह न्यायोचित मुआवजा है। न्यायोचित मुआवजा इस प्रकार का पर्याप्त मुआवजा है जोकि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहा तक धन से यह सम्भव हो सके, मुआवजे के अधिनिर्णय से सम्बंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर इसे पारितोषिक, बहुंतायत अथवा लाभ का स्रोत नहीं होना चाहिये। यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अन्तग्र्रस्त होते हैं फिर भी उसे उद्देश्यपरक होना चाहिये। न्याय तथा न्यायोचित्य, व्यवहार में साम्या, न्याय निर्णयन में संगतता एवं पूर्णता और की प्रक्रिया तथा विनिश्चयों में उचितता तथा समरूपता से उद्भूत होते हैं। जबकि गणितीय सटीकता या समान अधिनिर्णय मुआवजे के निर्धारण में सम्भव नहीं हो सकते, वही तथा समान तथ्यों से उसी सीमा में अधिनिर्णय परिणामित होते हैं । जब कारक/उत्पाद सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों, संगतता और समरूपता ही न्यायोचित सुआवजा प्राप्त करने हेतु न्यायनिर्णयन का परिणाम होने चाहिये, भिन्नता और अस्पष्टता नहीं। सुसम्मा थामस के मामले में इस न्यायालय में यह अधिकथित किया था:
‘‘ इस कारण उपयुक्त विधि परिगणना हेतु गुणक विधि ही है केवल आपवादिक और असामान्य मामलों के सिवाय, कोई भी विचलन, सिद्धांत की असंगतता, समरूपता की कमी तथा मुआवजे के निर्धारण में अपूर्वानुमेयता के कारकों को जन्म दे सकता है। ‘‘
9. मूल रूप से मृत्यु के मामले में मुआवजे के निर्धारण के लिये दावाकर्तागण के द्वारा केवल तीन तथ्यों को स्थापित किये जाने की आवश्यकता होती है: (क) मृतक की आयु (ख) मृतक की आय और (ग) आश्रितों की संख्या। आश्रितता की क्षति के निर्धारण हेतु अधिकरण द्वारा निर्धारित किये जाने वाले विवाद्यक हैं (1) आय के निर्धारण के लिये जोड़/कटौतिया किया जाना, आयु के सन्दर्भ में लागू किये जाने वाला गुणक। यदि इन निर्धारणो को मानकीकृत किया जाये तो विनिश्चयों में समरूपता तथा संगतता होगी। विस्तृत साक्ष्य की आवश्यकता कम होगी। बीमा कंपनियों के लिये दुर्घटना दावों को अविलंब निस्तारित करना भी सरल होगा। समरूपता तथा संगतता रखने हेतु, अधिकरण द्वारा मृत्यु के मामले में मुआवजे का निर्धारण निम्नलिखित उपायों के अनुसरण द्वारा किया जाना चाहिये।
उपाय 1 (गुण्य का निर्धारण)
मृतक की प्रतिवर्ष आय का निर्धारण किया जाना चाहिये। उक्त आय में से, ऐसी धनराशि के सम्बन्ध में कटौती की जानी होगी जिसे मृतक ने व्यक्तिगत और जीवन-यापन खर्चो के प्रति स्वयं पर व्यय किया होता। शेष, जिसे आश्रित परिवार के प्रति योगदान माना जायेगा , गुण्य निर्मित करेगा।
उपाय-2 (गुणक का निर्धारण)
मृतक की आयु तथा सक्रिय जीवनवृत्त की अवधि को ध्यान में रखकर उपयुक्त गुणक का चयन किया जाना चाहिये। इसका अर्थ यह नहीं कि यदि दुर्घटना न हुई होती तो उन वर्षो की संख्या जब वह जीवित रहता अथवा कार्य करता। जीवन में अनेक अनिश्चितताओं तथा आर्थिक कारकों के सन्दर्भ में आयु के सन्दर्भ में इस न्यायालय के द्वारा गुणकों की एक तालिका चिन्हित की गई है। गुणक का चयन इस तालिका से किया जाना चाहिये जो मृतक की आयु के सन्दर्भ में हो।
उपाय 3 (वास्तविक परिगणना)
परिवार के प्रति वास्तविक योगदान (गण्य) को जब ऐसे गुणक द्वारा गुणा किया जाता है तो यह परिवार को हुई ‘‘आश्रितता की क्षति‘‘ प्रदान करता है।
तत्पश्चात् 5,000 रूपये से 10,000 रूपये के क्षेत्र में सम्पदा की क्षति के रूप में पारम्परिक धनराशि जोडी जा सकती है। जहा मृतक की उत्तरजीवी उसकी विधवा हो वहा सहजीवन की क्षति के शीर्षाधीन 5,000 रूपये से 10,000 रूपये के क्षेत्र में अन्य पारम्परिक धनराशि जोड़ी जानी चाहिये। किन्तु मृक के विधिक उत्तराधिकारीगण को कारित पीड़ा व्यथा अथवा कठिनाई के शीर्ष के अधीन कोई धनराशि अधिनिर्णीत नहीं की जानी चाहिये:
अंत्येष्टि व्ययों, मृत शरीर के परिवहन के व्यय (यदि उपगत किये गये हों) तथा मृत्यु की पूर्व मृतक के चिकित्सीय उपचार के व्ययों (यदि उपगत किये गये हो) को भी जोड़ा जाना चाहिये । प्रश्न (1) भावी प्रत्याशाओं के लिये आय में वृद्धि।
10 सामान्य रीति से मुआवजे की परिगणना का आरम्भ करने के लिये आयकर को कम कर मृतक की वास्तविक आय निर्धारित की जाती है। प्रश्न यह है कि क्या मृत्यु के समय की वास्तविक आय को आय के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये या क्या भावी प्रत्याशाओं का उल्लेख कर कोई धनराशि जोड़ी जानी चाहिये। सुसम्मा थामस में इस न्यायालय ने यह निर्णीत किया था कि गुण्य(आश्रितों के प्रति वार्षिक योगदान) को बढ़ाने के लिये जीवन तथा जीवन वृत्त में बढ़ोतरी की भावी आशाओं को भी धनराशि के निर्बन्धनों में व्यक्त किया जाना चाहिये और यह कि जहा मृतक का एक स्थिर कार्य रहा हो, न्यायालय भविष्य की प्रत्याशाओं का उल्लेख कर सकेगा तथा मृत्यु के समय मृतक की वास्तविक आय पर आश्रितता की क्षति का प्राक्कलन अयुक्तियुक्त होगा। उस मामले मे, मृतक का वेतन, जो मृत्यु के समय 39 वर्षीय था, 1,032 रूपये प्रतिमाह था। भावी प्रत्याशाओं से संबंधित साक्ष्य के परिप्रेक्ष्य में,इस न्यायालय का यह अभिमत था कि व्यक्तिगत जीवनयापन व्ययों की कटौती करने के पूर्व शुद्ध आय के रूप में 2,000 रूपये का उच्चतर प्राक्कलन किया जा सकेगा। सुसम्मा थामस में प्रदत्त विनिश्चय का अनुसरण सरला दीक्षित बनाम बलवंत यादव (1996) 3 एस.सी.सी. 179 में भी किया गया था जहा मृतक को 1,543 रूपये प्रतिमाह का शुद्ध वेतन प्राप्त हो रहा था पदोन्नति तथा बढ़ोतरी की भावी प्रत्याशाओं के सन्दर्भ में इस न्यायालय ने यह उपधारणा की थी कि जब तक वह सेवानिवृत्ति प्राप्त करेगा, उसकी आयु लगभग दोगुनी हो जायेगी अर्थात 3,000 रूपये। इस न्यायालय ने मृत्यु के समय वास्तविक आय तथा प्रक्कलित आय, यदि वह एक सामान्य जीवन व्यतीत करता , के औसत को ग्रहण किया था तथा मासिक आय 2200 रूपये प्रतिमाह निर्धारित किया था। अबाती बेजबरूआ बनाम डायरेक्टर जनरल जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (2003) 3 एस.सी.सी. 148 में 42,000 रूपये प्रतिवर्ष (3,500 रूपये प्रतिमाह) की वास्तविक वेतन आय के विरूद्ध जो मृतक को दुर्घटना के समय प्राप्त हो रही थी, इस न्यायालय ने उपधारण की थी कि मृतक जो लगभग 40 वर्षीय था, के भावी प्रत्याशाओं और जीवनवृत्त बढ़ोतरी को ध्यान में रखते हुये आय 45,000 रूपये प्रतिवर्ष होगी।
11. सुसम्मा थामस में इस न्यायालय ने आय में लगभग 100 प्रतिशत बढ़ोतरी की थी, सरला दीक्षित के मामले में आय में केवल 50 प्रतिशत बढ़ोतरी की गई थी तथा अबाती बेजबरूआ में आय में मात्र 7 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। असम्भाव्यताओं एवं अनिश्चितताओं को दृष्टिगत रखते हुये हम एक स्थिर नियम के रूप में भावी प्रत्याशाओं के प्रति मृतक की वास्तविक वेतन में वास्तविक वेतन का 50 प्रतिशत वृद्धि करने के पक्ष में है, जहा मृतक का कार्य स्थायी रहा हो और उसकी आयु 40 वर्ष से कम रही हो। जहा वार्षिक आय कराधीन हो, शब्दों ‘‘ वास्तविक वेतन‘‘ को ‘‘ वास्तविक वेतन में से कर की कटौती‘‘ के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिये। यदि मृतक की आयु 40 से 50 वर्ष हो तो अभिवृद्धि केवल 30 प्रतिशत होनी चाहिये। जहा मृतक की आयु 50 वर्ष से अधिक हो वहा कोई अभिवृद्धि नहीं होनी चाहिये। यद्यपि साक्ष्य से एक भिन्न प्रतिशत की अभिवृद्धि इंगित होगी। विभिन्न मानदण्डों को लागू करने या विभिन्न परिगणना की विधियों को अपनाने से बचने के लिये, अभिवृद्धि का मानकीकरण आवश्यक होगा। जहा तक मृतक स्वनियोजित था या उसका वेतन निश्चित था(वार्षिक अभिवृद्धि इत्यादि के प्रावधान के बिना), न्यायालय सामान्य रीति से केवल मृत्यु के समय वास्तविक आय को ही स्वीकार करेगा। इस विधि से विचलन केवल आपवादिक मामलों में विशेष परिस्थितियों में किया जाना चाहिये।
वास्ते: प्रश्न(पप) व्यक्तिगत जीवन-यापन व्ययों के लिये कटौती।
12. हमने पहले ही यह उल्लेख किया है कि आश्रितों के प्रति योगदान को प्राप्त करने हेतु आय में से मृतक के व्यक्तिगत तथा जीवन यापन व्ययों की कटौती की जानी चाहिये। मृतक के वास्तविक व्ययों को दर्शित करने हेतु किसी साक्ष्य को प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में इस सम्बन्ध में कोई भी साक्ष्य पूर्णतया अप्रमाणीय होगा और अविश्वसनीय होने के लिये सम्भाव्य होगा। दावाकर्तागण यह दावा करने के लिए प्रत्यक्षतः प्रवृत्त होंगे कि मृतक बहुत कम खर्चीला था तथा उसकी व्यय करने की कोई आदतें नहीं थीं और वह लगभग अपनी सम्पूर्ण आय परिवार पर व्यय किया करता था। कुछ मामलों में ऐसा हो सकता है। कोई भी दावाकर्ता यह स्वीकार नहीं करेगा कि मृतक एक खर्चीला व्यक्ति था, भले ही वह ऐसा रहा हो। किसी दावा याचिका में प्रत्यर्थीगण के लिये यह साक्ष्य प्रस्तुत करना भी बहुत कठिन होगा जो दर्शित करे कि मृतक अपनी आय का एक अत्यधिक भाग स्वयं पर व्यय कर रहा था या कि वह आय का बहुत कम भाग परिवार के प्रति योगदान के रूप में प्रदान कर रहा था। इस कारण मृतक के व्यक्तिगत तथा जीवन-यापन व्ययों के प्रति कटौतियों का मानवीकरण आवश्यक था। इस कारण यह प्रचलित हुआ कि मृतक के व्यक्तिगत और जीवन-यापन व्ययों के प्रति यदि मृतक विवाहित था तो आय का एक-तिहाई आधा (50 प्रतिशत) भाग यदि मृतक विवाहित था की कटौती की जाये। यह अनुभव तर्क तथा सुविधा के कारण उद्भूत की गयी है। वास्तव में एक-तिहाई को मोटर वाहन अधिनियम 1988 (संक्षिप्त में ‘मो वा अधिनियम) की धारा 163-क के अधीन दावा के लिये अधिनियम की द्वितीय अनुसूची के अधीन विधिक मान्यता प्राप्त हुयी है।
9. वेतनवृद्धि की भावी प्रत्याशाओं जहां मृतक का कार्य स्थायी रहा हो वहां उसके वास्तविक वेतन में से कर की कटौती के उपरांत निम्नानुसार वृद्धि का सिद्धांत बताया है:-
मृतक की आयु वृद्धि प्रतिशत् में
40 वर्ष से कम 50 प्रतिशत्
40 से 50 वर्ष 30 प्रतिशत्
50 से अधिक कोई वृद्धि नहीं
10. जहा मृतक स्वनियोजित था या उसका वेतन निश्चित था (वार्षिक अभिवृद्धि इत्यादि के प्रावधान के बिना), न्यायालय सामान्य रीति से केवल मृत्यु के समय वास्तविक आय को ही स्वीकार करेगा। इस विधि से विचलन केवल आपवादिक मामलों में विशेष परिस्थितियों में किया जाना चाहिए।
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2009(।।) दु.मु.प्र. 161 (सु.को.)
उच्चतम न्यायालय
न्यायमूर्तिगण : मान्नीय आर.बी.रवीन्द्र्रन.
मान्नीय लोकेश्वर सिंह पैण्टा.
श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य
बनाम
दिल्ली परिवहन निगम एवं एक अन्य
(सिविल अपील सं. 3483 वर्ष 2008 (वि.अ.या.(सिविल)संख्या 8648 वर्ष 2007 से उद्भूत), निर्णीत दिनांक 15 अप्रेल 2009)
(प) मोटर वाहन अधिनियम 1988, धारा 168 और 173- मुआवजा- मात्रा मुआवजे की अभिवृद्धि हेतु अपील- मृतक एक वैज्ञानिक जिसे 4004 रूपये प्रतिमाह वेतन प्राप्त हो रहा था-विधवा, तीन अवयस्क बच्चों, माता पिता तथा पितामह के प्रति पारिवारिक योगदान को 2250 रूपये प्रतिमाह ग्रहण कर 22 के गुणक की प्रयोज्यता से, अधिकरण ने 5,94,000/-रूपये का मुआवजा अधिनिर्णीत किया-उच्च न्यायालय के समक्ष अपील पर, मृतक की आय 6,006 रूपये प्रतिमाह निर्धारित -मृतक के बड़े परिवार को दृष्टिगत रखते हुये, व्यक्तिगत व्ययों के लिये मृतक की आय के एक-चैर्था की कटौती की गयी तथा आश्रितता 4,504 रूपये प्रतिमाह अथवा 54048 रूपये प्रतिवर्ष निर्धारित-13 के गुणक को लागू कर मुआवजा-7,19,624 रूपये परिगणित जिसमें सहजीवन की क्षति तथा अंत्येष्टि व्यय सम्मिलित-अपील-निर्णीत यह आवश्यक नहीं कि मृतक का व्यक्तिगत व्यय आश्रितों की संख्या के आनुपातिक होना चाहिये- न्याय के हित में मृतक के व्यक्तिगत व्ययों हेतु उसकी आय के एक-पांचवे भाग की कटौती की गई-मृतक की आयु को दृष्टिगत रखते हुये युक्तियुक्त गुणक 15 निर्णीत -आश्रितता की क्षति 8,64,870 रूपये परिगणित -सम्पदा की क्षति हेतु 5,000 रूपये अंत्येष्टि व्ययों हेतु 5,000 रूपये और सहजीवन की क्षति हेतु 10,000 रूपये जोड़े गये-6 प्रतिशत प्रतिवर्ष ब्याज के साथ दावाकर्तागण को 8,84,870 रूपये का मुआवजा अधिनिर्णीत।
(पैरा 4, 5, 24 से 27)
(पप) मोटर वाहन अधिनियम 1988 धारा 168 -मुआवजा-मात्रा -निर्धारण-गुणक विधि द्वारा आश्रितता की क्षति का निर्धारण-मृत्यु के मामले में दावाकर्तागण को तीन मूल तथ्यों को स्थापित करना होगा अर्थात मृतक की आयु, मृतक की आय तथा आश्रितों की संख्या-समरूपता तथा संगतता कायम रखने के लिये अधिकरण को तीन स्तरों का अनुसरण करना होगा-गुण्य का निर्धारण, गुणक का निर्धारण और तत्पश्चात् आश्रितता की वास्तविक परिगणना। (पैरा 7 से 16)
(पपप) मोटर वाहन अधिनियम 1988 धारा 163-क और 166 - मुआवजा-मात्रा दोनो धाराओं के अधीन दावों के सम्बन्ध में- दायित्व और मुआवजे की धनराशि की मात्रा को निर्धारण करने के सिद्धांत बिलकुल भिन्न।
(पअ) मोटर वाहन अधिनियम 1988 धारा 166 -मुआवजा-गुणक-युक्तियुक्त गुणक द्वितीय अनुसूची के स्तम्भ 4 के अनुसार होना चाहिये -जहा तक मृतक की आय का सम्बन्ध है मृत्यु के पश्चात् हुये वेतन संशोधन को विचारण में ग्रहण नहीं किया जा सकेगा। (पैरा 20 व 24)
निर्दिष्ट वाद:
1951 ए.सी. 601: 1942 ए.सी. 601(1994) 2 एस.सी.सी. 176: 1997(1) दु.मु.प्र. 189: (1996) 4 एस.सी.सी. 362: (1996) 3 एस.सी.सी. 179: 1999 (2) दु.मु.प्र. 91: (2003) 3 एस0सी0सी0 148: (2004) 2 एस.सी.सी. 473: 2004 (2) दु.मु.प्र. 46 (2007) 5 एस0सी0सी0 428: (2005) 10 एस.सी.सी. 720 (2005) 6 एस.सी.सी. 236: (2006) 6 एस.सी.सी. 249।
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अधिवक्तागण की ओर से - श्री अशोक के. महाजन, अधिवक्ता।
प्रत्यर्थीगणकी ओर से -डा.मोनिका गुसाई, अधिवक्ता।
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निर्णय
आर.बी.रवीनद्र्रन न्यायमूर्ति- एक मोटर दुर्घटना दावा में दावाकर्ता ने मुआवजे की अभिवृद्धि की इप्सा करते हुये विशेष अनुमति द्वारा यह अपील दाखिलकी है।
2. 18 अप्रेल 1988 को हुई एक मोटर दुर्घटना में जिसमें दिल्ली परिवहन निगम के स्वामित्वाधीन बस संख्या डी.एल.पी. 829 अन्तर्ग्रस्त थी, राजिन्द्र प्रकाश नाम व्यक्ति की उसे हुई उपहतियों के कारण मृत्यु होगई थी। इस दुर्घटना तथा असामयिक मृत्यु के समय मृतक की आयु 38 वर्ष थी तथा वह 3402 रूपये प्रतिमाह वेतन एवं अन्य लाभों पर इंडियन कांउसिल आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च में वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत् था। उस विधवा, तीन अवयस्क बच्चे, माता पिता तथा पितामह (जो अब जीवित नहीं है) ने मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण नई दिल्ली के समक्ष 16 लाख रूपये का दावा दाखिल किया था। आई.सी.ए.आर.के एक अधिकारी जिसकी परीक्षा पी.डब्ल्यू 4 के रूप में की गई थी ने यह साक्ष्य दिया था कि आई.सी.ए.आर. की सेवा में सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष थी तथा मृत्यु के समय मृतक द्वारा प्राप्त किया जाने वाला वेतन प्रतिमाह 4004 रूपये था।
3. अधिकरण ने अपने निर्णय एवं अधिनिर्णय दिनांक 06 अगस्त 1993 के द्वारा दावे को अंशतः अनुज्ञात किया था। अधिकरण ने मृतक का मासिक वेतन 3402 रूपये ग्रहण कर मुआवजे की परिगणना की थी । उसने मृतक के व्यक्तिगत तथा जीवन निर्वाह व्ययों के प्रति एक-तिर्हा की कटौती की थी तथा परिवार के प्रति योगदान को 2250 रूपये प्रतिमाह (अथवा 27000 रूपये प्रतिवर्ष) निर्धारित किया था। इस साक्ष्य के परिप्रेक्ष्य में कि सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष थी, उसने निर्णीत किया था कि असामयिक मृत्यु के कारण सेवाकी खोई हुई अवधि 22 वर्ष थी। इस कारण उसने 22 का गुणक लागू किया था तथा परिवार को हुई आश्रितता की क्षति को 5,94,000 रूपये निर्धारित किया था। उसने उक्त धनराशि को याचिका की तिथि से भुगतान की तिथि तक 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर पर ब्याज के साथ अधिनिर्णीत किया था। अंतरिम मुआवजे के रूप में भुगतान की गई 15,000 रूपये की धनराशि की कटौती केपश्चात् उसने मुआवजे की शेष धनराशि को दावाकर्तागण के मध्य विभाजित किया था अर्थात् विधवा को 3,00,000 रूपये दो पुत्रियों में प्रत्येक को 75,000 रूपये, पुत्र को 50,000 रूपये पितामह को 19,000 रूपये तथा माता पिता में प्रत्येक को 30,000 रूपये ।
4. मुआवजे की मात्रा से असंतुष्ट होकर, अपीलार्थीगण ने अपील दाखिल की थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय दिनांक 15 फरवरी 2007 के द्वारा उक्त अपील को अंशतः अनुज्ञात किया था।उच्च न्यायालय का यह अभिमत था कि यद्यपि दावा याचिका में वेतन का उल्लेख 3402 रूपये तथा अन्य लाभों के साथ किया गया था पी. डब्ल्यू. 4 के साक्ष्य अनुसार वेतन को 4404 रूपये प्रतिमाह स्वीकार किया जाना चाहिये। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कि उसकी मृत्यु के समय मृतक की 22 वषो की सेवा शेष रह गई थी तथा उसे उस अवधि में वार्षिक बढ़ोतरी एवं वेतन संशोधन प्राप्त हुआ होता, उसने यह निर्णीत किया था कि उसकी सेवानिवृत्ति के समय तक उसका वेतन कम से कम दोगुना हो गया होता(8008 रूपये प्रतिमाह) । इस कारण उसने मृत की आय 6006 रूपये प्रतिमाह निर्धारित कीथी जो कि 4004 रूपये (मृत्यु के समय उसे प्राप्त वेतन) और 8008 रूपये (सेवानिवृत्ति के समय उसे प्राप्त होने वाला वेतन) की औसत धनराशि थी।परिवार के सदस्यों की अधिक संख्या को ध्यान में रखते हुये उच्च न्यायालय का यह अभिमत था कि मृतक के व्यक्तिगत तथा जीवन निर्वाह व्ययों केप्रति, मानक एकतिहाई कटौती के बजाय केवल एक चैथाई की कटौती की जानी चाहिये। इस प्रकार कटौती के पश्चात् उसने परिवार केप्रति योगादान को 4504 रूपये प्रतिमाह अथवा 54048 रूपये प्रतिवर्ष निर्धारित किया था। मृतक की आयु को ध्यान में रखते हुये उच्च न्यायालय के 13 के गुणक का प्रयोग किया था। इस प्रकार उसने 7,02,624 रूपये की आश्रितता की क्षति निर्धारित की थी। सहजीवन की क्षति के प्रति 15,000/-रूपये और अंत्येष्टि व्ययों के प्रति 2000 रूपये जोड़कर कुल मुआवजा 7,19,624 रूपये परिगणित किया गया था। इस प्रकार उसने दावा याचिका की तिथि से 6 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर पर ब्याज के साथ मुआवजे में 1,25,624 रूपये की अभिवृद्धि करते हुये अपील को निस्तारित किया था।
5. उक्त बढोतरी से संतुष्ट न होकर अपीलार्थीगण ने यह अपील दाखिल की है। उन्होंने यह तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने यह निर्णीत करने में त्रुटि कारित की थी कि भावी प्रत्याशओं के सम्बन्ध में कोई साक्ष्य नहीं था और यह कि यद्यपि परिगणना हेतु अपनायी गई विधि में कोई त्रुटि नहीं है उच्च न्यायालय को मृतक की आय के रूप में अधिक धनराशि स्वीकार करना चाहिये था। उन्होंने यह निवेदन किया था कि उच्च न्यायालय के समक्ष 2 जून 2000 और 5 मई 2005 को उच्च न्यायालय के संज्ञान मे यह लाते हुये दो आवेदन दाखिल किये गये थे कि वेतन संशोधनों को ध्यान में रखते हुये मृतक का वेतन 31 दिसंबर 1999 को 20,890 रूपये प्रतिमाह तथा 01 अक्टूबर 2005 को 32,678 रूपये प्रतिमाह होता यदि वह जीवित होता। वेतनमानों में संशोधित तथा पारिणामिक पुनरीक्षणों एवं पुननिर्धारणों को स्थापित करने के लिये अपीलार्थीगण ने नियोजक(आई.सी.ए.आर.) द्वारा जारी दृढ़ीकरण पत्र दिनांकित 07 दिसंबर 1998 और 28 अक्टूबर 2005 दाखिल किया था । उनकी व्यथा यह है कि उच्च न्यायालय ने आय तथा आश्रितता की क्षति की परिगणना करने के लिये इन अविवादित दस्तावेजों पर विचार नहीं किया था। उनका तर्क यह है कि मृतक की मासिक आय 18341 रूपये स्वीकार की जानी चाहिये जो कि 32678 रूपये(01 अक्टूबर 2005 को दर्शित आय) और 4004 रूपये (मृत्यु के समय आय) का औसत है। उनका निवेदन यह है कि मृतक के व्यक्तिगत जीवनयापन के व्ययों के प्रति केवल एक-आठवें भाग की कटौती की जानी चाहिये। उन्होंने यह इंगित किया कि भले ही एक चैथाई (4585 रूपये) की कटौती मृतक के व्यक्तिगत एवं जीवनयापन व्ययों के प्रति की गई थी परिवार के प्रति योगदार 13,756 रूपये प्रतिमाह अथवा 1,65,072 रूपये प्रतिवर्ष होना चाहिये था। उन्होंने निवेदन किया कि मोटर वाहन अधिनियम 1988 (संक्षिप्त में अधिनियम) की द्वितीय अनुसूची के सन्दर्भ में 38 वर्ष की आयु में करने वाले व्यक्ति के लिये युक्तियुक्त गुणक 16 का होगा और इस कारण आश्रितता की कुल क्षति 26,41,152 रूपये होगी। उन्होंने यह भी तर्क प्रस्तुत किया कि दावाकर्तागण को हुई पीड़ा एवं व्यथा के प्रति 1,00,000/-रूपये जोड़े जाने चाहिये। इस कारण उनका निवेदन यह है कि उन्हें देय मुआवजा 27,47,152 रूपये के रूप में परिगणित किया जाना चाहिये ।
6. पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत तर्को से निम्नलिखित प्रश्न उद्भूत होते हैं-
(प) क्या मृतक की आय के निर्धारण में भावी प्रत्याशाओं को विचारण में ग्रहणकिया जा सकेगा ? यदि हां तो क्या दावा कार्यवाहियों अथवा उसने उद्भूत अपीलों की लम्बितावस्था में हुये वेतन संशोधानों को विचारण में ग्रहण किया जाना चाहिये ?
(पप) क्या मृतक के व्यक्तिगत और जीवन-यापन व्ययों के प्रति कटौती एक चैथाई (1/4) से कम होनी चाहिये जैसे कि अपीलार्थीगण द्वारा तर्क दिया गया है या उसे एक-तिहाई(1/3) होना चाहिये जैसे कि प्रत्यर्थीगण द्वारा तर्क दिया गया है ?
(पपप) क्या उच्च न्यायालय ने गुणक को 13 के रूप में स्वीकार करने में त्रुटि कारित की थी ?
(पअ) मुआवजा क्या होना चाहिये ?
सामान्य सिद्धांत:-
7. विनिश्चिय हेतु उद्भूत प्रश्नों परविचारणके पूर्व मृत्यु के मामलों में मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुसंगत सिद्धांतों को उद्धरित करनायुक्तियुक्त होगा। पहले न्यायालयों /अधिकरणों के विनिश्चयों में काफी भिन्नतायें और असंगतताएं हुआ करती थीं क्योंकि कुछ के द्वारा नैन्सी बनाम ब्रिटिश कोलम्ब्या इलेक्ट्रिक रेलवे कंपनी लि0 1991 ए0सी0 601 में प्रतिपादित नैन्सी विधि का अनुसरण किया जाता था तथा कुछ के द्वारा डेविस सिद्धांत का अनुसरण किया जाता था। इन दोनों विधियों के बीच भिन्नता कोइस न्यायालय के द्वारा जनरल मैंनेजर केरल स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन बनाम सुसम्मा थामस (1994) 2 एस.सी.सी. 176: 1997 (1) दु.मु.प्र. 189 के मामले में विचार कर स्पष्ट किया गया है। व्यापक विचारणोपरान्त इस न्यायालय ने डेविस विधि को नैन्सी विधि से अधिक वरीयता प्रदान की है। सुसम्मा थामस में प्रतिपादित सिद्धांतों को हम निम्नानुसार उद्धरित कर रहे हैं:
‘‘ घातक दुर्घटना कार्यवाही में क्षति की मात्रा वह आर्थिक हानि होती है जिसे मृत्यु के कारण प्रत्येक आश्रित द्वारा उपगत किया जाता है। आश्रितों को क्षतिपूरित करने के लिये क्षति के निर्धारण में अनेक कठिनाइया होती हैं क्योंकि वस्तुओं की प्रकृति से, अनेक असम्भाव्यताओं को विचारण में ग्रहण किया जाना पड़ता है, उदाहरणार्थ मृतक एवं आश्रितों के जीवन की आशा, वह धनराशि जिसे मृतक ने अपने जीवन की शेष अवधि में अर्जित किया होता, वह धनराशि जिसका योगदान उसने उस अवधि में आश्रितों के प्रति दिया होता, यह सम्भावना कि मृतक ही जीवित न रहता अथवा आश्रित ही अपने जीवन की आशयित शेष अवधि तक जीवित न रह पाते, यह सम्भावनायें कि मृतक को अधिक उपयुक्त नियोजन या आय प्राप्त हुई होती अथवा वह अपना नियोजन अथवा आय पूरी रीति से खो देता।‘‘
‘‘क्षतिपूर्ति के निर्धारण का मामला स्वयं मृतक तथा उसके आश्रितों के लिये उपलब्ध शुद्ध आय का निर्धारण करना है और उसमें से उसकी आय के ऐसे भाग की कटौती करना है जो कि मृतक स्वयं के भरणपोषण तथा आमोद-प्रमोद हेतु व्यय करने के लिये आदी था, और तब यह निर्धारित करना कि अपनी शुद्ध आय का कितना भाग मृतक अपने आश्रितों के लाभ के लिये व्यय करने का आदी था। तब ऐसे अंक से गुणा कर पूंजीकृत किया जाना होगा जो एक उपयुक्त वर्षो की क्रय संख्या हो। ‘‘
‘‘ गुणक विधि में, मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये आश्रितता की क्षति अथवा गुण्य का निर्धारण अन्तग्र्रस्त होता है और गुण्य को उपयुक्त गुणक द्वारा पंजीकृत किया जाता है। गुणक का चयन मृतक की आयु (या दावाकर्तागण की आयु जो भी उच्चतर हो) द्वारा किया जाता है तथा इस परिगणना के द्वारा कि वह मूल धनराशि क्या होगी, जिसे एक स्थिर अर्थव्यवस्था के उपयुक्त ब्याज की दर पर निवेश किया जाता है तो वह वार्षिक ब्याज के रूप में गुण्य प्रदान करेगी। इसके निर्धारण में, इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाना होगा कि अन्ततः मूलधन भी उस अवधि में समाप्त हो जाना चाहिये जिस अवधि तक आश्रितता कायम रहने की आशा है।
‘‘ यह पुनरावृत्ति आवश्यक है कि गुणक विधि तार्किक रीति से सुदृढ़ तथा विधिक रीति से सुस्थापित है। कुछ मामले ऐसे हैं जिनमें जीवन की आशयित अवधि की क्षति की सॅम्पूर्ण भावी आय के जोड़ के आधार पर मुआवजे के निर्धारण की कार्यवाही की गई है उसमें से भावी जीवन की अनिश्चितताओं के प्रति कतिपय प्रतिशत की कटौती कर शेष धनराशि मुआवजे के रूप में अधिनिर्णीत की गई थी। यह स्पष्ट रीति से अवैज्ञानिक है। उदाहरणार्थ यदि मृत्यु के समय मृतक की आयु 25 वर्ष रही हो, तथा जीवन की आशा 70 वर्ष है, यह विधि आश्रितता की क्षति को 45 वर्षो से गुणा करेगी- वस्तुतः 45 का गुणक अपनाते हुये , तथा भावी जीवन की अनिश्चितताओं एवं एकमुश्त तुरन्त भुगतान के प्रति भले ही एक-तिहाई या एक-चैथाई की कटौती की जाये तब भी प्रभावी गुणक 30 और 34 के बीच होगा। यह पूर्णतया अननुज्ञेय है। ‘‘
य.पी.स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन बनाम त्रिलोक चन्द्र 1996(4) एस.सी.सी. 362 में इस न्यायालय ने डेविस विधि की वरीयता की पुनरावृत्ति करते समय जिसका अनुसरण सुसम्मा थामस के मामले में किया गया था, निम्नानुसार अधिकथित किया था:
‘‘ नैन्सी के मामले में भी विस्काउण्ट साइमन द्वारा अपनायी गई विधि में भी सर्वप्रथम वार्षिक आश्रितता की परिगणना की जाती है तथा तत्पश्चात् मृतक के संभावित लाभकारी जीवन के द्वारा गुणा किया जाता है। इसका सामान्य निर्धारण दीर्घकाल के आधार पर किया जाता है। किन्तु जीवन की अनिश्चितताओं पर प्रभाव रखने वाले विभिन्न कारकों जैसे मृतक अथवा आश्रित की असामयिक मृत्यु , पुनर्विवाह, त्वरित भुगतान तथा उचित एवं विवेकी निवेश द्वारा बढ़ी आय , के प्रति उचित कटौतिया भी आवश्यक होगी। सामान्य रीति से यह अनुभव किया गया था कि विभिन्न असम्भाव्यताओं पर कटौतियों के कारण मुआवजे का निर्धारण कतिपय जटिल तथा कठिन हो जाता है और प्रायः एक अनुमानित तथा सुगम रीति में, आश्रितता के एक-तिहाई और एक-चैथाई की कटौती की जाती है जो ग्रहण की गई जीवन की अवधि पर निर्भर करता है। इसी कारण,भारत और इंग्लैण्ड में भी डेविस के सू.त्र को साधारण तथा अधिक वास्तविक रूप में वरीयता प्रदान की गई है। लेकिन, जैसे इससे पूर्व अवलोकन किया गया है तथा जैसे कि सुसम्मा थामस के मामले में इंगित किया गया है सामान्य रीति से आग्ल न्यायालय 16 के गुणक से अधिक नहीं अपनाते। भारत में भी न्यायालयों ने उसी रीति का अनुसरण किया था जब तक कि अधिकरणों/न्यायालयों ने असम्भाव्यताओं के लिये कटौती किये बिना ही नैन्सी की विधि का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया था। डेविस में लार्ड राइट के द्वारा प्रतिपादित सूत्र के अधीन क्षति का निर्धारण करने के लिये सर्वप्रथम मृतक की मासिक आय का निर्धारण किया जाता है , तब उसमें से मृतक पर खर्च किये जाने वाले धनराशि की कटौती की जाती है और इस प्रकार मृतक के आश्रितों की क्षति निर्धारित वार्षिक आश्रितता को तत्पश्चात् एक उपयुक्त गुणक के प्रयोग द्वारा गुणा किया जाता है।
(बल दिया गया)
8. मुआवजा अधिनिर्णीत करने में समरूपता तथा संगतता एक गम्भीर चिन्ता का विषय रहा है। प्रत्येक जिले में एक अथवा अधिक दुर्घटना दावा अधिकरण होता/होते हैं। यदि एक ही तथ्यों पर विभिन्न अधिकरणों द्वारा भिन्न रीति से मुआवजे की परिगणना की जाती है दावाकर्ता , वादकर्ता, सामान्य व्यक्ति भ्रमित, चिन्तित और परेशान हो जाएंगे। यदि समान तथ्यों पर मुआवजे की मात्रा के निर्धारण में अधिकरणें में भिन्नता हो तो यह प्रणाली में असन्तोष तथा अविश्वास को उत्पन्न करेगा। हम त्रिलोकचंद्र में किये गये निम्नलिखित अवलोकनों को संदर्भित कर सकते हैं।
‘‘ हमने न्यायोचित मुआवजे की परिगणना करने की विधि की पुनरावृत्ति अनिवार्य समझी क्योंकि हाल ही में हमने यह अवलोकन किया है कि अधिकरणों और न्यायालयों द्वारा किये गये अधिनिर्णयों में, जिस सिद्धांत पर गुणक विधि विकसित की गई थी उसकी अनदेखी की गई है तथा पुनः अधिकरण/न्यायालय की वस्तुपरकता पर आधारित मिश्रित विधि उभरकर आई है जिससे मुआवजे के निर्धारण में, अनिश्चितता एवं युक्तियुक्त साम्यता की कमी आई है । यह समझा जाना चाहिये कि दुर्घटना के पीडित को अधिनिर्णय किये जाने योग्य मुआवजे की धनराशि अधिकरण /न्यायालय द्वारा उचित रीति से निर्धारित की जानी चाहिये जिसे कारित उपहति के आनुपातिक होना चाहिये।
अधिनिर्णीत मुआवजा मात्र इस कारण‘‘ न्यायोचित मुआवजा ‘‘ नहीं बन जाता क्योंकि अधिकरण उसे न्यायोचित मानता है। उदाहरणार्थ यदि उन्हीं तथा समान तथ्यों पर(मान लें कि मृतक 40 वर्षीय था तथा उसकी वार्षिक 45,000 रूपये थी एवं उसके उत्तरजीवी उसकी पत्नी तथा बच्चा थे ) एक अधिकरण 10,00,000 रूपये अधिनिर्णीत करता है, सभी यही विश्वास करते हैं कि धनराशि न्यायोचित है,यह नहीं कहा जा सकेगा कि जो प्रथम मामले तथा अन्य मामले में अधिनिर्णीत किया गया है वह न्यायोचित मुआवजा है। न्यायोचित मुआवजा इस प्रकार का पर्याप्त मुआवजा है जोकि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहा तक धन से यह सम्भव हो सके, मुआवजे के अधिनिर्णय से सम्बंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर इसे पारितोषिक, बहुंतायत अथवा लाभ का स्रोत नहीं होना चाहिये। यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अन्तग्र्रस्त होते हैं फिर भी उसे उद्देश्यपरक होना चाहिये। न्याय तथा न्यायोचित्य, व्यवहार में साम्या, न्याय निर्णयन में संगतता एवं पूर्णता और की प्रक्रिया तथा विनिश्चयों में उचितता तथा समरूपता से उद्भूत होते हैं। जबकि गणितीय सटीकता या समान अधिनिर्णय मुआवजे के निर्धारण में सम्भव नहीं हो सकते, वही तथा समान तथ्यों से उसी सीमा में अधिनिर्णय परिणामित होते हैं । जब कारक/उत्पाद सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों, संगतता और समरूपता ही न्यायोचित सुआवजा प्राप्त करने हेतु न्यायनिर्णयन का परिणाम होने चाहिये, भिन्नता और अस्पष्टता नहीं। सुसम्मा थामस के मामले में इस न्यायालय में यह अधिकथित किया था:
‘‘ इस कारण उपयुक्त विधि परिगणना हेतु गुणक विधि ही है केवल आपवादिक और असामान्य मामलों के सिवाय, कोई भी विचलन, सिद्धांत की असंगतता, समरूपता की कमी तथा मुआवजे के निर्धारण में अपूर्वानुमेयता के कारकों को जन्म दे सकता है। ‘‘
9. मूल रूप से मृत्यु के मामले में मुआवजे के निर्धारण के लिये दावाकर्तागण के द्वारा केवल तीन तथ्यों को स्थापित किये जाने की आवश्यकता होती है: (क) मृतक की आयु (ख) मृतक की आय और (ग) आश्रितों की संख्या। आश्रितता की क्षति के निर्धारण हेतु अधिकरण द्वारा निर्धारित किये जाने वाले विवाद्यक हैं (1) आय के निर्धारण के लिये जोड़/कटौतिया किया जाना, आयु के सन्दर्भ में लागू किये जाने वाला गुणक। यदि इन निर्धारणो को मानकीकृत किया जाये तो विनिश्चयों में समरूपता तथा संगतता होगी। विस्तृत साक्ष्य की आवश्यकता कम होगी। बीमा कंपनियों के लिये दुर्घटना दावों को अविलंब निस्तारित करना भी सरल होगा। समरूपता तथा संगतता रखने हेतु, अधिकरण द्वारा मृत्यु के मामले में मुआवजे का निर्धारण निम्नलिखित उपायों के अनुसरण द्वारा किया जाना चाहिये।
उपाय 1 (गुण्य का निर्धारण)
मृतक की प्रतिवर्ष आय का निर्धारण किया जाना चाहिये। उक्त आय में से, ऐसी धनराशि के सम्बन्ध में कटौती की जानी होगी जिसे मृतक ने व्यक्तिगत और जीवन-यापन खर्चो के प्रति स्वयं पर व्यय किया होता। शेष, जिसे आश्रित परिवार के प्रति योगदान माना जायेगा , गुण्य निर्मित करेगा।
उपाय-2 (गुणक का निर्धारण)
मृतक की आयु तथा सक्रिय जीवनवृत्त की अवधि को ध्यान में रखकर उपयुक्त गुणक का चयन किया जाना चाहिये। इसका अर्थ यह नहीं कि यदि दुर्घटना न हुई होती तो उन वर्षो की संख्या जब वह जीवित रहता अथवा कार्य करता। जीवन में अनेक अनिश्चितताओं तथा आर्थिक कारकों के सन्दर्भ में आयु के सन्दर्भ में इस न्यायालय के द्वारा गुणकों की एक तालिका चिन्हित की गई है। गुणक का चयन इस तालिका से किया जाना चाहिये जो मृतक की आयु के सन्दर्भ में हो।
उपाय 3 (वास्तविक परिगणना)
परिवार के प्रति वास्तविक योगदान (गण्य) को जब ऐसे गुणक द्वारा गुणा किया जाता है तो यह परिवार को हुई ‘‘आश्रितता की क्षति‘‘ प्रदान करता है।
तत्पश्चात् 5,000 रूपये से 10,000 रूपये के क्षेत्र में सम्पदा की क्षति के रूप में पारम्परिक धनराशि जोडी जा सकती है। जहा मृतक की उत्तरजीवी उसकी विधवा हो वहा सहजीवन की क्षति के शीर्षाधीन 5,000 रूपये से 10,000 रूपये के क्षेत्र में अन्य पारम्परिक धनराशि जोड़ी जानी चाहिये। किन्तु मृक के विधिक उत्तराधिकारीगण को कारित पीड़ा व्यथा अथवा कठिनाई के शीर्ष के अधीन कोई धनराशि अधिनिर्णीत नहीं की जानी चाहिये:
अंत्येष्टि व्ययों, मृत शरीर के परिवहन के व्यय (यदि उपगत किये गये हों) तथा मृत्यु की पूर्व मृतक के चिकित्सीय उपचार के व्ययों (यदि उपगत किये गये हो) को भी जोड़ा जाना चाहिये । प्रश्न (1) भावी प्रत्याशाओं के लिये आय में वृद्धि।
10 सामान्य रीति से मुआवजे की परिगणना का आरम्भ करने के लिये आयकर को कम कर मृतक की वास्तविक आय निर्धारित की जाती है। प्रश्न यह है कि क्या मृत्यु के समय की वास्तविक आय को आय के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये या क्या भावी प्रत्याशाओं का उल्लेख कर कोई धनराशि जोड़ी जानी चाहिये। सुसम्मा थामस में इस न्यायालय ने यह निर्णीत किया था कि गुण्य(आश्रितों के प्रति वार्षिक योगदान) को बढ़ाने के लिये जीवन तथा जीवन वृत्त में बढ़ोतरी की भावी आशाओं को भी धनराशि के निर्बन्धनों में व्यक्त किया जाना चाहिये और यह कि जहा मृतक का एक स्थिर कार्य रहा हो, न्यायालय भविष्य की प्रत्याशाओं का उल्लेख कर सकेगा तथा मृत्यु के समय मृतक की वास्तविक आय पर आश्रितता की क्षति का प्राक्कलन अयुक्तियुक्त होगा। उस मामले मे, मृतक का वेतन, जो मृत्यु के समय 39 वर्षीय था, 1,032 रूपये प्रतिमाह था। भावी प्रत्याशाओं से संबंधित साक्ष्य के परिप्रेक्ष्य में,इस न्यायालय का यह अभिमत था कि व्यक्तिगत जीवनयापन व्ययों की कटौती करने के पूर्व शुद्ध आय के रूप में 2,000 रूपये का उच्चतर प्राक्कलन किया जा सकेगा। सुसम्मा थामस में प्रदत्त विनिश्चय का अनुसरण सरला दीक्षित बनाम बलवंत यादव (1996) 3 एस.सी.सी. 179 में भी किया गया था जहा मृतक को 1,543 रूपये प्रतिमाह का शुद्ध वेतन प्राप्त हो रहा था पदोन्नति तथा बढ़ोतरी की भावी प्रत्याशाओं के सन्दर्भ में इस न्यायालय ने यह उपधारणा की थी कि जब तक वह सेवानिवृत्ति प्राप्त करेगा, उसकी आयु लगभग दोगुनी हो जायेगी अर्थात 3,000 रूपये। इस न्यायालय ने मृत्यु के समय वास्तविक आय तथा प्रक्कलित आय, यदि वह एक सामान्य जीवन व्यतीत करता , के औसत को ग्रहण किया था तथा मासिक आय 2200 रूपये प्रतिमाह निर्धारित किया था। अबाती बेजबरूआ बनाम डायरेक्टर जनरल जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (2003) 3 एस.सी.सी. 148 में 42,000 रूपये प्रतिवर्ष (3,500 रूपये प्रतिमाह) की वास्तविक वेतन आय के विरूद्ध जो मृतक को दुर्घटना के समय प्राप्त हो रही थी, इस न्यायालय ने उपधारण की थी कि मृतक जो लगभग 40 वर्षीय था, के भावी प्रत्याशाओं और जीवनवृत्त बढ़ोतरी को ध्यान में रखते हुये आय 45,000 रूपये प्रतिवर्ष होगी।
11. सुसम्मा थामस में इस न्यायालय ने आय में लगभग 100 प्रतिशत बढ़ोतरी की थी, सरला दीक्षित के मामले में आय में केवल 50 प्रतिशत बढ़ोतरी की गई थी तथा अबाती बेजबरूआ में आय में मात्र 7 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। असम्भाव्यताओं एवं अनिश्चितताओं को दृष्टिगत रखते हुये हम एक स्थिर नियम के रूप में भावी प्रत्याशाओं के प्रति मृतक की वास्तविक वेतन में वास्तविक वेतन का 50 प्रतिशत वृद्धि करने के पक्ष में है, जहा मृतक का कार्य स्थायी रहा हो और उसकी आयु 40 वर्ष से कम रही हो। जहा वार्षिक आय कराधीन हो, शब्दों ‘‘ वास्तविक वेतन‘‘ को ‘‘ वास्तविक वेतन में से कर की कटौती‘‘ के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिये। यदि मृतक की आयु 40 से 50 वर्ष हो तो अभिवृद्धि केवल 30 प्रतिशत होनी चाहिये। जहा मृतक की आयु 50 वर्ष से अधिक हो वहा कोई अभिवृद्धि नहीं होनी चाहिये। यद्यपि साक्ष्य से एक भिन्न प्रतिशत की अभिवृद्धि इंगित होगी। विभिन्न मानदण्डों को लागू करने या विभिन्न परिगणना की विधियों को अपनाने से बचने के लिये, अभिवृद्धि का मानकीकरण आवश्यक होगा। जहा तक मृतक स्वनियोजित था या उसका वेतन निश्चित था(वार्षिक अभिवृद्धि इत्यादि के प्रावधान के बिना), न्यायालय सामान्य रीति से केवल मृत्यु के समय वास्तविक आय को ही स्वीकार करेगा। इस विधि से विचलन केवल आपवादिक मामलों में विशेष परिस्थितियों में किया जाना चाहिये।
वास्ते: प्रश्न(पप) व्यक्तिगत जीवन-यापन व्ययों के लिये कटौती।
12. हमने पहले ही यह उल्लेख किया है कि आश्रितों के प्रति योगदान को प्राप्त करने हेतु आय में से मृतक के व्यक्तिगत तथा जीवन यापन व्ययों की कटौती की जानी चाहिये। मृतक के वास्तविक व्ययों को दर्शित करने हेतु किसी साक्ष्य को प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में इस सम्बन्ध में कोई भी साक्ष्य पूर्णतया अप्रमाणीय होगा और अविश्वसनीय होने के लिये सम्भाव्य होगा। दावाकर्तागण यह दावा करने के लिए प्रत्यक्षतः प्रवृत्त होंगे कि मृतक बहुत कम खर्चीला था तथा उसकी व्यय करने की कोई आदतें नहीं थीं और वह लगभग अपनी सम्पूर्ण आय परिवार पर व्यय किया करता था। कुछ मामलों में ऐसा हो सकता है। कोई भी दावाकर्ता यह स्वीकार नहीं करेगा कि मृतक एक खर्चीला व्यक्ति था, भले ही वह ऐसा रहा हो। किसी दावा याचिका में प्रत्यर्थीगण के लिये यह साक्ष्य प्रस्तुत करना भी बहुत कठिन होगा जो दर्शित करे कि मृतक अपनी आय का एक अत्यधिक भाग स्वयं पर व्यय कर रहा था या कि वह आय का बहुत कम भाग परिवार के प्रति योगदान के रूप में प्रदान कर रहा था। इस कारण मृतक के व्यक्तिगत तथा जीवन-यापन व्ययों के प्रति कटौतियों का मानवीकरण आवश्यक था। इस कारण यह प्रचलित हुआ कि मृतक के व्यक्तिगत और जीवन-यापन व्ययों के प्रति यदि मृतक विवाहित था तो आय का एक-तिहाई आधा (50 प्रतिशत) भाग यदि मृतक विवाहित था की कटौती की जाये। यह अनुभव तर्क तथा सुविधा के कारण उद्भूत की गयी है। वास्तव में एक-तिहाई को मोटर वाहन अधिनियम 1988 (संक्षिप्त में ‘मो वा अधिनियम) की धारा 163-क के अधीन दावा के लिये अधिनियम की द्वितीय अनुसूची के अधीन विधिक मान्यता प्राप्त हुयी है।
13 किन्तु
कटौती का ऐसा प्रतिशत कोई अडिग
नियम नहीं है तथा मात्र एक
दिशानिर्देश है। सुसम्मा
थामस में
यह
अवलोकन किया गया था कि साक्ष्य
के अभाव में
मृतक
के व्यक्तिगत जीवन-यापन
व्ययों के प्रति एक-तिहाई
की कटौती तथा शेष को परिवार
के सदस्यो/आश्रितों
पर सम्भावित रीति से व्यय की
जानी वाली धनराशि मानना असामान्य
नहीं होगा। यूपीएसआरटीसी
बनाम
त्रिलोक चन्द्र (1996) 4 एससीसी
362 में
इस न्यायालय ने निर्णीत किया
था कि यदि मृतक के परिवार में
आश्रितों की संख्या अधिक हो,
परिवार
के प्रति योगदान के सम्बन्ध
में विशिष्ट साक्ष्य के अभाव
में,
मृतक
का अपने परिवार के प्रति योगदान
निर्धारित करने हेतु न्यायालय
इकाई विधि को अपना सकता है।
इस विधि द्वारा
प्रत्येक
वयस्क को दो इकाइया आबंटित
की जाती हैं तथा प्रत्येक
अवयस्क को एक तिहाई तथा कुल
इकाइयों की संख्या निर्धारित
की जाती है। तब आय को इकाइयों
की कुल संख्या से भाग दिया
जाता है। भागफल को दो से गुणा
किया जाता है ताकि मृतक के
व्यक्तिगत जीवन-यापन
के व्यय को प्राप्त किया जा
सके। इस न्यायालय ने निम्नलिखित
उदाहरण दिया था एक्स
पुरूष,
जिसकी
आयु लगभग 35
वर्ष
थी
की
एक दुर्घटना में मृत्यु हो
जाती है। उसके उत्तरजीवी उसकी
विधवा एवं तीन अवयस्क बच्चे
हैं। उसकी मासिक आय 3500
रूपये
थी। सर्वप्रथम एक्स पर प्रतिमाह
किये जाने वाले व्यय की कटौती
की जानी होगी। जहा कोई निश्चित
साक्ष्य उपलब्ध नहीं था,
वहा
अपनायी जाने वाली सामान्य
उपलब्ध विधि परिवार की इकाइयों
को विभाजित करता था एक वयस्क
के लिये दो इकाइया तथा एक
अवयस्क हेतु एक इकाई ग्रहण
करते हुये। इस प्रकार,
एक्स
और उसकी पत्नी 2$2=4
इकाइया
निर्मित करते हैं तथा प्रत्येक
अवयस्क एक इकाई अर्थात् कुल
तीन इकाई,
जिससे
योग 7
इकाइयों
का होगा। इस प्रकार प्रत्येक
इकाई का अंश रूपये 3,500/7=
500 रूपये
प्रतिमाह होगा। इस प्रकार यह
उपधारणा की जा सकेगी कि एक्स
पर 1000
रूपये
व्यय किया जाता था। क्योंकि
वह कार्यकारी सदस्य था,
उसके
परिवहन तथा जेब खर्च हेतु कुछ
प्रावधान का प्राक्कलन करना
होगा। वर्तमान मामले में,
हम
जेब खर्च को 250
रूपये
प्राक्कलित करते हैं। इस
प्रकार,
मृतक
एक्स पर व्यय की जाने वाली
धनराशि 1250
रूपये
प्रतिमाह परिगणित होती है,
जिससे
3500-1250=2250
रूपये
प्रतिमाह शेष बचता है। इस
धनराशि को एक्स के आश्रितों
की मासिक क्षति के रूप में
ग्रहण किया जा सकता है।’’
फकीरप्पा
बनाम कर्नाटक सीमेण्ट पाइप
फैक्ट्री,
(2004) 2 एससीसी
473ः2004(2)
दु मु प्र
46, में
उच्च न्यायालय के द्वारा मृतक
के व्यक्तिगत जीवन-यापन
के व्ययों के प्रति 50
प्रतिशत
कटौती की युक्तियुक्तता पर
विचार करते हुये,
इस
न्यायालय ने यह अवलोकन किया
थाः
‘‘व्यक्तिगत
व्ययों के लिये कटौती का प्रतिशत
क्या होगा इसे वैश्विक प्रयोज्यता
के किसी कठोर नियम अथवा सूत्र
के द्वारा शामिल नहीं किया
जा सकेगा। यह प्रत्येक मामले
की परिस्थितियों पर निर्भर
करेगा। मृतक निर्विवाद रीति
से अविवाहित था। बीमाकर्ता
का अभिमत यह है कि कि विवाह के
पश्चात् माता-पिता
के प्रति योगदान कम होगा और
इस कारण,
सम्पूर्ण
परिप्रेक्ष्य ग्रहण करते
हुये,
अधिकरण
और उच्च न्यायालय कटौती
निर्धारित करने में न्यायोचित
थे।’’
मामले
के विशिष्ट कारकों के परिप्रेक्ष्य
में,
इस
न्यायालय ने व्यक्तिगत और
जीवन-यापन
व्ययों के प्रति कटौती को आय
के एक-
तिहाई
तक ही सीमित किया था।
14. यद्यपि
कतिपय मामलों में,
व्यक्तिगत
और जीवन-यापन
व्ययों के प्रति कटौती की
परिगणना त्रिलोक चन्द्र में
इंगित इकाइयों के आधार पर की
गयी है,
सामान्य
सिद्धान्त मानकीकृत कटौतिया
लागू करना होगा। इस न्यायालय
के अनेक पश्चातवर्ती विनिश्चयों
पर विचारणोपरान्त,
हमारा
अभिमत यह है कि जहा मृतक
विवाहिता था,
मृतक
के व्यक्तिगत एवं जीवन-यापन
व्ययों के प्रति कटौती एक-तिहाई
(1/3)
होनी
चाहिए जहा परिवार में आश्रितों
की संख्या 2
से
3 हो,
एक-चैथाई
(1/4)
जहा
परिवार में आश्रितों की संख्या
4 से
6 हो
और एक-पाचवा
(1/5)
जहा
परिवार में आश्रितों की संख्या
छः से अधिक हो।
15. जहा
मृतक अविवाहित था तथा दावाकर्तागण
माता-पिता
हैं,
कटौती
हेतु एक भिन्न सिद्धान्त का
अनुसरण किया जाता है। अविवाहित
व्यक्ति के सम्बन्ध में,
व्यक्तिगत
और जीवन-यापन
व्ययों के प्रति 50
प्रतिशत
की कटौती की जाती है क्योंकि
यह उपधारणा की जाती है कि एक
अविवाहित स्वयं पर अधिक व्यय
करेगा। अन्यथा भी,
एक
लघु अवधि में उसके विवाह कर
लेने की सम्भावना होगी,
जिस
दशा में,
माता-पिता
और बच्चों के प्रति योगदान
काफी कम हो सकता है। अग्रेतर,
विपरीत
साक्ष्य के अध्यधीन पिता के
पास स्वयं की आय होना सम्भाव्य
होगा तथा उसे आश्रित नहीं माना
जायेगा तथा केवल माता को ही
आश्रित माना जा सकेगा। विपरीत
साक्ष्य के अभाव में,
भाईयों
व बहनों को आश्रित हीं माना
जा सकेगा,
क्योंकि
वे या तो स्वतंत्र और अर्जन
करने वाले होंगे,
या
विवाहित अथवा पिता पर आश्रित
होंगे। इस कारण भले ही मृतक
के उत्तरजीवी माता-पिता
और बच्चे हों,
केवल
माता को ही आश्रित माना जायेगा
तथा अविवाहित व्यक्ति के
व्यक्तिगत एवं जीवन-यापन
व्ययों को 50
प्रतिशत
माना जायेगा तथा 50
प्रतिशत
परिवार के प्रति योगदान माना
जायेगा। लेकिन,
जहा
अविवाहित व्यक्ति का परिवार
बड़ा हो,
तथा
मृतक की आय पर आश्रित हो,
जैसे
कि उस मामले में जहा उसकी
माता विधवा हो या अधिक संख्या
में अर्जन न करने वाले छोटे
भाई-बहन
हों,
उसके
व्यक्तिगत जीवन-यापन
व्ययों को एक-तिहाई
तक सीमित किया जा सकेगा तथा
परिवार के प्रति योगदान को
दो-तिहाई
ग्रहण किया जा सकेगा।
वास्ते:
प्रश्न
(3)-गुणक
का चयन
16. सुसम्मा
थामस में इस न्यायालय ने गुणक
से सम्बन्धित सिद्धान्त को
इस प्रकार अधिकथित किया था:
‘‘गुणक
वर्षों की ऐसी क्रय संख्या
को प्रतिनिधित्व करता है जिस
पर आश्रितता की क्षति पूजीकृत
की जाती है। उदाहरणार्थ,
ऐसा
मामला जहा वार्षिक आश्रितता
की क्षति 10000
रूपये
है। यदि 100000
रूपये
की धनराशि 10
प्रतिशत
वार्षिक ब्याज पर निवेश की
जाती है,
ब्याज
से आश्रितता की पूर्ति हो
सकेगी,
वस्तुतः,
इस
मामले में गुणक 10
का
होगा। यदि ब्याज की दर 10
प्रतिशत
नहीं बल्कि 5
प्रतिशत
प्रतिवर्ष हो,
10000 रूपये
पर वार्षिक आश्रितता की क्षति
को पूंजीकृत करने हेतु आवश्यक
गुणक 20
का
होगा। तब वह गुणक अर्थात्,
20 वर्षों
की क्रय संख्या ही शाश्वत रीति
से वार्षिक आश्रितता प्रदान
करेगा। तत्पश्चात् भविष्य
की अनिश्चितताओं,
त्वरित
एकमुश्त भुगतान हेतु प्रावधानों,
आश्रितता
कायम रहने की अवधि लघु होने
के कारण तथा आश्रितता के कायम
रहने की अवधि के मूलधन के भी
व्यय होने,
इत्यादि
को ध्यान में रखते हुए,
गुणक
को कम करने का प्रावधान भी
करना होगा। सामान्य रीति से
अंग्रेजी न्यायालयों में,
प्रभावी
गुणक 16
के
अधिकतम गुणक से अधिक नहीं
होता। यह मृतक व्यक्ति की आयु
(या
आश्रितों की आयु जो भी उच्चतर
हो)
के
बढ़ने के साथ-साथ
कम होता जायेगा।’’
17. मोटर
वाहन अधिनियम,
1988 को
1994
के
अधिनियम,
54 के
द्वारा संशोधित किया गया था,
अन्य
बातों के साथ-साथ,
धारा
163-क
और द्वितीय अनुसूची संरचना
सूत्र पर मुआवजे के भुगतान
से सम्बन्धित विशेष प्रावधान
निहित है,
जैसे
कि अधिनियम की द्वितीय अनुसूची
में इंगित है। द्वितीय अनुसूची
में,
मृतक
की आयु एवं आय के सन्दर्भ में
अधिनिर्णीत किये जाने वाले
मुआवजे को विहित करने वाली
एक तालिका है। यह 30000
रूपये
से 40000
रूपये
के वार्षिक क्षेत्र के सन्दर्भ
में अधिनिर्णीत किये जाने
वाले मुआवजे की धनराशि विनिर्दिष्ट
है। यह उस दशा में मुआवजे की
मात्रा को विनिर्दिष्ट नहीं
करती जहा मृतक की आय 40000
रूपये
से अधिक है। किन्तु यह मृतक
की आयु के सन्दर्भ में लागू
किये जाने वाले गुणक का प्रावधान
करती है। यह तालिका 15
के
गुणक से आरम्भ होती है,
18 तक
जाती है,
तत्पश्चात्
लगातार 5
तक
कम होती है। यह मृतक के व्यक्तिगत
व्ययों के प्रति एक-तिहाई
की मानक कटौती का भी प्रावधान
करती है। इस कारण,
जहा
आवेदन अधिनियम की धारा 163-क
के अधीन हो
मुआवजे
की परिगणना संरचना सूत्र के
आधार पर सम्भव होगा,
उस
दशा में भी जहा मृतक की
वार्षिक आय के सन्दर्भ में
मुआवजा विनिर्दिष्ट न हो,
या
वह 40000
रूपये
से अधिक हो,
(2/3 गुणित
ए आई
गुणित
एम)
के
सूत्र को लागूकर,
अर्थात्
मुआवजा वार्षिक आय के दो-तिहाई
को मृतक की आयु पर लागू होने
वाले गुणक से गुणा कर प्राप्त
किया जा सकेगा। जहा दावा
मोटर वाहन अधिनियम की धारा
163-क
के अधीन हो,
अपकृत्यजन्य
दायित्व के अनेक सिद्धान्त
अपवर्जित होंगे। लेकिन,
द्वितीय
अनुसूची तालिका में प्रदत्त
गुणक मापक्रम में कमिया/त्रुटिया
हैं। यह उन मामलों में कम मुआवजे
का प्रावधान तरना है जहा
18
का
उच्च गुणक प्रयोज्य हो,
तथा
ऐसे मामलों में जहा 15,
16 या
17
का
कम गुणक लागू हो वहा अधिक
मुआवजे का प्रावधान करता है।
तालिका में विनिर्दिष्ट मुआवजे
की मात्रा से,
यह
उपधारणा करना सम्भव होगा कि
अनुसूची में कोई विधिक त्रुटि
हुयी हो तथा गुणक के अंक
त्रुटिपूर्ण रीति से 20,
19, 18, 17, 16, 15, 14, 13, 12, 10, 8, 6 और
5
के
बदले 15,
16, 17, 18, 17, 16, 15, 13, 11, 8, 5 और
5
के
रूप में टंकित हो गये हों। एक
अन्य उल्लेखनीय असंगतता है,
अर्जन
न करने वाले व्यक्तियों की
न्यूनतम कल्पित आय 15000
रूपये
प्रतिवर्ष निर्धारित करने
के पश्चात्,
यह
तालिका उन मामलों में भी संदेय
मुआवजा विहित करती है जहा
वार्षिक आय 3000
रूपये
और 12000
रूपये
के बीच हो। यह मोटर वाहन अधिनियम
की धारा 163-क
के अधीन आवेदनों के सम्बन्ध
में त्रुटिपूर्ण स्थिति
उत्पन्न करती है,
क्योंकि
मुआवजा उस मामले में अधिक होगा
जहा मृतक कार्य नहीं कर रहा
था तथा कोई आय नहीं थी एवं उन
मामलों में जहा मृतक ईमानदारी
से 3000
रूपये
और 12000
रूपये
के बीच प्रतिवर्ष अर्जित कर
रहा था,
मुआवजा
कम होगा। चाहे जो भी मामला हो।
18. मोटर
वाहन अधिनियम की धारा 163-क
के अधीन किये गये दावों तथा
मोटर वाहन अधिनियम की धारा
166
के
अधीन किये गये दावों के लिये
दायित्व तथा मुआवजे की मात्रा
के निर्धारण के सिद्धांत भिन्न
हैं। (देखें:
ओरिएण्टल
इन्श्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड
बनाम मीना वरियाल,
(2007) 5 एस सी सी
428।
वास्तव में धारा 163-क
और द्वितीय अनुसूची धारा 166
के
अधीन आवेदनों में मुआवजे के
निर्धारण पर लागू नहीं होते।
त्रिलोक चन्द्र में,
इस
न्यायालय ने,
सुसम्मा
थामस में अधिकथित सिद्धान्तों
की पुनरावृत्ति करते हुये,
निर्णीत
किया था कि प्रभावी (अधिकतम)
गुणक
को 18
के
रूप में अभिवृद्ध किया जाना
चाहिए (16
के
बजाय जैसे सुसम्मा थामस में
इंगित है)
उन
मामलों में भी जो मोटर वाहन
अधिनियम की धारा 166
के
अधीन हो,
उस
सिद्धांत का अनुसरण कर जो धारा
163-क
और द्वितीय अनुसूची में है।
इस न्यायालय ने यह अवलोकन किया
था:
‘‘धारा
163-क
एक अध्यारोही खण्ड से आरम्भ
होती है तथा मुआवजे के भुगतान
का प्रावधान करती है,
जैसे
कि द्वितीय अनुसूची में इंगित
है,
मृतक
के विधिक प्रतिनिधिगण के लिये
अथवा उपहत के लिये,
जैसे
भी मामला हो। अब यदि हम द्वितीय
अनुसूची को देखें,
हम
घातक दुर्घटनाओं से उद्भूत
पर-पक्षकार
दुर्घटना उपहति दावों के लिये
मुआवजे की परिगणना की विधि
निर्धारित करने वाली तालिका
पाते हैं। प्रथम स्तम्भ दुर्घटना
के पीडितों का आयु समूह प्रदान
करता है,
द्वितीय
स्तम्भ गुणक इंगित करता है
तथा पश्चात्वर्ती क्षितिजीय
अंक मृतक पीडित के उत्तराधिकारियों
को संदेय मुआवजे की मात्रा
को हजारों में इंगित करते हैं।
इस तालिका के अनुसार,
पीडित
जिस आयु समूह से सम्बन्धित
हैं उसके आधार पर गुणक 5
से
18
के
बीच होता है। इस प्रकार इस
अनुसूची के अधीन अधिकतम गुणक
18
तक
हो सकता है और 16
नहीं
जैसे कि सुसम्मा थामस के
मामले में निर्णीत किया गया
था। इसके अतिरिक्त,
सभी
मामलों में गुणक का चयन पूर्णतया
मृतक की आयु पर ही निर्भर नहीं
करता। उदाहरणार्थ,
यदि
मृतक,
एक
अविवाहित व्यक्ति,
की
मृत्यु 45
वर्ष
की आयु में होती है,
तथा
उसके आश्रित उसके माता-पिता
हैं,
गुणक
के चयन में माता-पिता
की आयु भी सुसंगत होगी....हम
इस पर बल प्रदान करना प्रस्तावित
करते हैं कि गुणक 18
वर्षों
के क्रय कारक से अधिक नहीं हो
सकता। यह पूर्ववर्ती स्थिति
में,
कि
सामान्य रीति से वह 16
से
अधिक नहीं हो सकता,
एक
सुधार है...।’’
19. न्यू
इण्डिया एश्योरेन्स कम्पनी
लिमिटेड बनाम चाली,
(2005) 10 एस सी सी
720 में
इस न्यायालय ने यह उल्लेख किया
था कि मोटर वाहन अधिनियम की
धारा 166
के
अधीन दावों के सम्बन्ध में,
उच्चतर
प्रयोज्य गुणक 18
था
तथा उक्त गुणक को 21
से
25
वर्ष
के आयु समूह के लिए लागू किया
जाना चाहिए (सामान्य
उत्पादक वर्षों का आरम्भ)
तथा
न्यूनतम गुणक 60
से
70
वर्ष
(सामान्य
सेवानिवृत्ति की आयु)
के
व्यक्तियों के लिए होगा। इसी
की पुनरावृत्ति टी.एन.
स्टेट
रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन
लि.
बनाम
राजाप्रिया,
(2005) 6 एस सी सी
236 और
यू.पी.
स्टेट
रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन
बनाम कृष्णाबाला,
(2006) 6 एस सी सी
249 के
मामलों में की गयी थी। सुसम्मा
थामस,
त्रिलोक
चन्द्र और चार्ली (मोटर
वाहन अधिनियम की धारा 166
के
अधीन दावों के लिये)
में
इंगित गुणक,
समीपता
में,
मोटर
वाहन अधिनियम की धारा 163-क
के अधीन दावों के लिये द्वितीय
अनुसूची में उल्लिखित गुणक
के साथ निम्नानुसार प्रस्तुत
है (50
वर्षों
के पश्चात् युक्तियुक्त घोषणा
के साथ): .
Age
of Multi- Multi- Multiplier
Multiplier Multiplier
the
plier plier scale in
specified in actually used
deceased
scale as scales as Trilok second
in Second
envisaged adopted Chandra as column in
Schedule to
in by clarified in
the Table in M.V. Act (as
Susamma Trilok Charilie II Schedule
seen from the
Thomas Chandra to M.V. Act
quantum of
Compensation)
(1) (2) (3) (4)
(5) (6)
upto
15 yrs. - - 20 15 20
15
to 20 yrs. 16 18 18 16 19
21
to 25 yrs. 15 17 18 17 18
26
to 30 yrs. 14 16 17 18 17
31
to 35 yrs. 13 15 16 17 16
36
to 40 yrs. 12 14 15 16 15
41
to 45 yrs. 11 13 14 15 14
46
to 50 yrs. 10 12 13 13 12
51
to 55 yrs. 9 11 11 11 10
56
to 60 yrs. 8 10 09 08 08
61
to 65 yrs. 6 08 07 05 06
Above
65 yrs. 5 05 05 05 05
20. अधिकरण/न्यायालय
प्रभावी गुणकों को अपनाने
एवं लागू करते हैं। कुछ सुसम्मा
थामस (उपरोक्त
तालिका के स्तम्भ 2
में
उल्लिखित)
के
सन्दर्भ में गुणक का अनुसरण
करते हैं,
कुछ
त्रिलोक चन्द्र (उपरोक्त
तालिका के स्तम्भ 3
में
उल्लिखित)
के
सन्दर्भ में गुणक का अनुसरण
करते हैं,
कुछ
चर्ली (उपरोक्त
तालिका के स्तम्भ 4
में
उल्लिखित)
के
सन्दर्भ में गुणक का अनुसरण
करते हैं,
अनेक
न्यायालय/अधिकरण
मोटर वाहन अधिनियम की तालिका
के द्वितीय स्तम्भ में प्रदत्त
गुणक (उपरोक्त
तालिका के स्तम्भ 5
में
उल्लिखित)
का
अनुसरण करते हैं और कुछ मुआवजे
की मात्रा की परिगणना करते
समय वास्तव में द्वितीय अनुसूची
में अपनाए गये गुणक (उपरोक्त
तालिका के स्तम्भ 6
में
उल्लिखित)
का
अनुसरण करते हैं। उदाहरणार्थ,
यदि
मृतक की आयु 38
वर्ष
है,
सुसम्मा
थामस के अनुसार गुणक 12
का
होगा,
त्रिलोक
चन्द्र के अनुसार 14
चार्ली
के अनुसार 15
या
मोटर वाहन अधिनियम की द्वितीय
अनुसूची के स्तम्भ (2)
में
प्रदत्त गुणक के अनुसार 16
अथवा
मोटर वाहन अधिनियम की द्वितीय
अनुसूची में वास्तविक रीति
से अपनाया गया गुणक 15
होगा।
कुछ अधिकरण,
जैसे
कि इस मामले में,
22 का
गुणक लागू करते हैं,
सेवानिवृत्ति
की आयु के सन्दर्भ में शेष
वर्षों को ग्रहण करने के द्वारा।
इस प्रकार की असंगतता को निवारित
करना आवश्यक है। हम धारा 166
के
अधीन आने वाले मामलों से
सम्बन्धित है न कि मोटर वाहन
अधिनियम की धारा 163-क
के अधीन। मोटर वाहन अधिनियम
की धारा 166
के
अधीन आने वाले मामलों में
डेविस की विधि प्रयोज्य होगी।
21. इस
कारण हम यह निर्णीत करते हैं
कि प्रयुक्त किये जाने वाला
गुणक उपरोक्त तालिका के स्तम्भ
(4) में
उल्लिखित गुणक होना चाहिए
(सुसम्मा
थामस,
त्रिलोक
चन्द्र और चार्ली को लागूकर
तैयार किया गया),
जो
18 के
प्रभावी गुणक से प्रारम्भ
होता है (15
से
20 और
21 से
25 वर्ष
के आयु समूह हेतु),
प्रत्येक
पांच वर्षों के लिये एक इकाई
द्वारा जिसे कम किया जाता है,
अर्थात्,
26 ये
30 वर्ष
हेतु एम-17,
31 से
35 वर्ष
हेतु एम-16,
36 से
40 वर्ष
हेतु,
एम-15,
41 से
45 वर्ष
हेतु एम-14,
46 से
50 वर्ष
हेतु एम-13,
तत्पश्चात्
प्रत्येक पाच वर्षों के
लिये दो इकाइयों द्वारा कम
किया हुआ अर्थात् 51
से
55 वर्ष
हेतु एम-11,
56 से
60 वर्ष
हेतु एम-9,
61 से
65 वर्ष
हेतु एम-7
और
66 से
70 वर्ष
हेतु एम-5।
22. इस
मामले में और उपर अवलोकन किया
गया है,
मृत्यु
के समय मृतक का वेतन 4004
रूपये
था। इस न्यायालय द्वारा
प्रतिपादित सिद्धांतों को
साक्ष्य पर लागू करने के द्वारा
उच्च न्यायालय ने निष्कर्षित
किया था कि उसकी सेवानिवृत्ति
के समय तक उसका वेतन कम से कम
दोगुना (8008
रूपये)
हो
चुका होता और परिणामस्वरूप
मासिक आय को 4,004
रूपये
और 8,008
रूपये
के औसत अर्थात् 6,006
रूपये
प्रतिमाह अथवा 72,072
रूपये
प्रतिवर्ष निर्धारित किया
था। हम यह पाते हैं कि उक्त
निष्कर्ष इस विधिक सिद्धान्त
की संगतता में है कि भावी
प्रत्याशाओं का उल्लेख करते
हुये,
वास्तविक
वेतन में लगभग 50
प्रतिशत
जोड़ा जा सकता है।
23. अपीलार्थीगण
के विद्वान अधिवक्ता ने यह
तर्क दिया कि जब भविष्य में
होने वाली आय के सम्बन्ध में
वास्तविक आंकड़े उपलब्ध हों,
तो
आय की परिणगना के लिये केवल
50
प्रतिशत
की निम्न काल्पनिक वृद्धि
ग्रहण करना उचित नहीं होगा।
उसने यह निवेदन किया कि यद्यपि
मृतक मृत्यु के समय 4,004
रूपये
प्रतिमाह प्राप्त कर रहा था,
नियोजक
के द्वारा जारी किये गये प्रमाण
पत्र (उच्च
न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत)
के
अनुसार,
वेतन
संशोधनों तथा अभिवृद्धियों
के आधार पर,
वर्ष
2005
में
उसका वेतन 32,678
रूपये
हुआ होता,
और
इसका कोई कारण नहीं है कि क्यों
उक्त धनराशि को सेवानिवृत्ति
के समय उसकी आय नहीं माना जा
सकेगा। यह तर्क दिया गया था
कि जिस आय को परिगणना का आधार
होना चाहिए,
उसे
4,004
रूपये
और 8,008
रूपये
का औसत नहीं,
बल्कि
4,004
रूपये
और 32,
678 रूपये
औसत होना चाहिए।
24. अपीलार्थीगण
की यह धारण कि आय की परिगणना
के लिये वास्तविक वेतन संशोधनों
को विचारण में स्वीकार किया
जाना चाहिए,
उचित
नहीं है। अपीलार्थीगण के इस
तर्क के विरूद्ध कि यदि मृतक
जीवित होता तो उसे संशोधित
वेतनमानों का लाभ प्राप्त
हुआ होता यह भी सम्भव है कि
यदि दुर्घटना में उसकी मृत्यु
न हुयी होती उसकी मृत्यु बुरे
स्वास्थ्य अथवा अन्य दुर्घटना
के कारण हुयी होती,
या
वह नियोजन खो देता या उसके साथ
कोई अन्य विपदा अथवा आपदा हो
सकती थी। जीवन में अनिश्चितताए
अनेक होती हैं। अन्य महत्वपूर्ण
पहलू है,
दुर्घटना
के समय ऐसे साक्ष्य की अविद्यमानता।
इस मामले में,
दुर्घटना
एवं मृत्यु वर्ष 1988
में
घटित हुयी थी। अधिनिर्णय को
अधिकारण द्वारा वर्ष 1993
में
पारित गया था। उच्च न्यायालय
ने अपील का विनिश्चय वर्ष 2007
में
किया था। दावा कार्यवाहिया
और अपील की लगभग दो दशकों तक
लम्बितावस्था एक अप्रत्याशित
परिस्थिति है,
और
यह अपीलार्थीगण को इन दो दशकों
में होने वाले वेतन संशोधन
का आश्रय लेने का हकदार नहीं
बनायेगा। यदि वर्ष 1988
में
दाखिल की गयी दावा याचिका को
1988-89
वर्ष
में ही निस्तारित किया गया
होता,
और
यदि अपील को उच्च न्यायालय
के द्वारा वर्ष 1989-90
में
विनिश्चत किया गया होता,
तब
निश्चित रीति से मुआवजे का
निर्धारण मृत्यु के समय लागू
होने वाले वेतन मान के अनुसार
विनिश्चित किया किया गया होता
और भावी वेतनमान संशोधनों के
सन्दर्भ में नहीं। यदि दावाकर्तागण
के तर्क को स्वीकार कर लिया
जाता है,
इससे
निम्नलिखित परिस्थिति उत्पन्न
होती:
दावाकर्तागण
केवल उन्हीं वेतनमानों पर
विश्वास कर सकेंगे जो दुर्घटना
के समय प्रवृत्त था यदि वे
त्वरित रीति से मामले को संस्थित
कर सके। किन्तु यदि वे कार्यवाहियों
को विलम्बित करते हैं,
वे
संशोधित उच्चतर वेतनमानों
पर विश्वास कर सकेंगे जो
लम्बितावस्था के दौरान प्रभावी
होंगे। निश्चित रीति से
कार्यकुशलता के जिये इस प्रकार
दण्ड प्रदान नहीं किया जा
सकेगा। इस कारण,
हम
तर्क को व्यक्त करते हैं कि
मृत्यु के पश्चात् तथा अन्तिम
सुनवाई के पूर्व वेतन में
संशोधनों को मुआवजे की परिगणना
हेतु आय के निर्धारण के उद्देश्य
के लिये विचारण में ग्रहण किया
जाना चाहिए।
25. अपीलार्थीगण
ने तत्पश्चात् यह तर्क दिया
था कि इस तथ्य को ध्यान में
रखते हुए कि मृतक के परिवार
में उसे सम्मिलित कर 8
सदस्य
थे तथा क्योंकि सम्पूर्ण
परिवार उसी पर आश्रित था,
मृतक
के व्यक्तिगत जीवन-यापन
के प्रति कटौती न तो मानक
एक-तिहाई
न ही उच्च न्यायालय द्वारा
निर्धारित एक-चैथाई
बल्कि एक-आठवा
हिस्सा होना चाहिए। हम इस तर्क
से सहमत हैं कि सभी मामलों में
व्यक्तिगत जीवन व्ययों के
प्रति काटौती निर्धारित
एक-तिहाई
नहीं हो सकती (जब
तक परिगणना धारा 163-क
सहपठित मोटर वाहन अधिनियम की
द्वितीय अनुसूची के अधीन न
हो)।
व्यक्तिगत और जीवन-यापन
व्ययों के प्रति कटौती निश्चित
रीति से परिवार के सदस्यों
की संख्या के अनुसार घट-बढ़
सकती है। किन्तु जैसे इससे
पहले अवलोकन किया गया है,
मृतक
का व्यक्तिगत जीवन-यापन
व्यय आश्रितों की संख्या के
अनुरूप होने की आवश्यकता नहीं
है। अर्जन करने वाला सदस्य
होने के कारण मृतक स्वयं पर,
परिवार
के अन्य सदस्यों की अपेक्षा
अधिक व्यय कर रहा होता इस तथ्य
के अलावा कि वह यात्रा/परिवहन
और अन्य आवश्यकताओं पर भी खर्च
कर रहा होगा। इस कारण,
हमारा
अभिमत यह है कि न्याय का हित
पूर्ण होगा यदि मृतक के व्यक्तिगत
जीवन-यापन
व्ययों के प्रति एक-पाचवें
हिस्से की कटौती की जाये। इस
कटौती के पश्चात्,
परिवार
(आश्रितों)
के
प्रति योगदान 57,658
रूपये
प्रतिवर्ष निर्धारित किया
जाता है। मृत्यु के समय मृतक
की आयु (38
वर्ष)
के
सन्दर्भ में गुणक 15
का
होगा। इस कारण आश्रितता की
कुल क्षति रूपये 57,658
ग
15=8,46,870
रूपये
होगी।
26. इसके
अतिरिक्त,
दावाकर्तागण
‘सम्पदा की क्षति’ के शीर्ष
के अधीन 5,000
रूपये,
तथा
अंत्येष्टि व्ययों के प्रति
5,000
रूपये
के भी हकदार होंगे। विधवा
सहजीवन की क्षति के रूप में
10,000
रूपये
की हकदार होगी। इस प्रकार,
कुल
मुआवजा 8,84,870
रूपये
होगा। उच्च न्यायालय द्वारा
अधिनिर्णीत 7,19,624
रूपये
की कटौती के पश्चात्,
अभिवृद्धि
1,65,246
रूपये
होगी।
27. तदनुसार
हम अपील को अंशतः अनुज्ञात
करते हैं। अपीलार्थीगण,
याचिका
की तिथि से भुगतान की तिथि तक
6
प्रतिशत
वार्षिक की दर पर ब्याज के साथ
पहले ही अधिनिर्णीत धनराशि
के अतिरिक्त 1,65,246
रूपये
की उक्त धनराशि के हकदार होंगे।
हमारे द्वारा अधिनिर्णीत
वर्द्धित मुआवजा केवल विधवा
को ही प्राप्त होगा। पक्षकार
अपने-अपने
व्ययों का स्वयं वहन करेंगे।
-अपील
अंशतः अनुज्ञात
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