एक आपराधिक प्रकरण में प्रतिभूति पर
मुक्त रहते हुए कोई आरोपी यदि किसी
अन्य प्रकरण में अभिरक्षा में रहता है तो
क्या पहले प्रकरण में कारावास की
दण्डाज्ञा होने पर उसे ऐसे अन्य प्रकरण
में बिताई अभिरक्षा की अवधि के
समायोजन की प्रात्रता होगी?
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत महाराष्टं
राज्य विरूद्ध नजाकत उर्फ मुबारक
अली, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2255 में यह
विधि प्रतिपादित की गई है कि एक से अधिक
प्रकरणों में किसी आरोपी के विचाराधीन बंदी
(Under trial prisoner) होने की दशा में उसे
सिद्धदोष ठहराये जाने पर उसके द्वारा अभिरक्षा
में व्यतीत अवधि धारा 428 द.प्र.सं. के अंतर्गत
ऐसे प्रत्येक प्रकरण में उसे दी गई दण्डाज्ञा में
से समायोजित की जायेगी।
किन्तु यदि किसी एक आपराधिक प्रकरण में
कोई आरोपी प्रतिभूति पर मुक्त हो चुका हो और
उसके पश्चात् किसी दूसरे प्रकरण में अभिरक्षा में
निरूद्ध होता है और यदि पहले प्रकरण में ऐसे
आरोपी के प्रतिभूति एवं बंध पत्र
निरस्त/समपहृत नहीं किये गये है तथा आगामी
विचारण हेतु ऐसे आरोपी को धारा 267 द.प्र.सं.
के अंतर्गत कारागार से उपस्थिति के लिये
आदेश (Production Warrant) से आहूत किया
जाता है, तब ऐसा आरोपी इस पहले प्रकरण में
विचाराधीन बंदी नहीं होगा एवं इस प्रकरण
में यदि दोष सिद्धि पर उसे कारावास की
दण्डाज्ञा दी जाती है, तब अन्य प्रकरण में
विचाराधीन बंदी के रूप में बिताई गई कारावास
की अवधि, उसकी उक्त कारावास की दण्डाज्ञा
में से समायोजित नहीं की जाएगी।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि पहले प्रकरण
में प्रतिभूति का आदेश आरोपी के पक्ष में हो
जाता है किन्तु अन्य प्रकरण में अभिरक्षा में होने
से, या उसके द्वारा आदेशानुसार प्रतिभूति, बंधपत्र
प्रस्तुत नहीं किये जाने से या अन्यथा किसी
कारण से पहले प्रकरण में उसे प्रतिभूति पर
मुक्त नहीं किया जाता है तब इस पहले प्रकरण
में भी आरोपी विचाराधीन बंदी होगा और अन्य
प्रकरणों में उसके द्वारा व्यतीत कारावास की
अवधि इस पहले प्रकरण में उसे दोषसिद्धि पर
दी गई दण्डाज्ञा में से समायोजित की जायेगी।
मुक्त रहते हुए कोई आरोपी यदि किसी
अन्य प्रकरण में अभिरक्षा में रहता है तो
क्या पहले प्रकरण में कारावास की
दण्डाज्ञा होने पर उसे ऐसे अन्य प्रकरण
में बिताई अभिरक्षा की अवधि के
समायोजन की प्रात्रता होगी?
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत महाराष्टं
राज्य विरूद्ध नजाकत उर्फ मुबारक
अली, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2255 में यह
विधि प्रतिपादित की गई है कि एक से अधिक
प्रकरणों में किसी आरोपी के विचाराधीन बंदी
(Under trial prisoner) होने की दशा में उसे
सिद्धदोष ठहराये जाने पर उसके द्वारा अभिरक्षा
में व्यतीत अवधि धारा 428 द.प्र.सं. के अंतर्गत
ऐसे प्रत्येक प्रकरण में उसे दी गई दण्डाज्ञा में
से समायोजित की जायेगी।
किन्तु यदि किसी एक आपराधिक प्रकरण में
कोई आरोपी प्रतिभूति पर मुक्त हो चुका हो और
उसके पश्चात् किसी दूसरे प्रकरण में अभिरक्षा में
निरूद्ध होता है और यदि पहले प्रकरण में ऐसे
आरोपी के प्रतिभूति एवं बंध पत्र
निरस्त/समपहृत नहीं किये गये है तथा आगामी
विचारण हेतु ऐसे आरोपी को धारा 267 द.प्र.सं.
के अंतर्गत कारागार से उपस्थिति के लिये
आदेश (Production Warrant) से आहूत किया
जाता है, तब ऐसा आरोपी इस पहले प्रकरण में
विचाराधीन बंदी नहीं होगा एवं इस प्रकरण
में यदि दोष सिद्धि पर उसे कारावास की
दण्डाज्ञा दी जाती है, तब अन्य प्रकरण में
विचाराधीन बंदी के रूप में बिताई गई कारावास
की अवधि, उसकी उक्त कारावास की दण्डाज्ञा
में से समायोजित नहीं की जाएगी।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि पहले प्रकरण
में प्रतिभूति का आदेश आरोपी के पक्ष में हो
जाता है किन्तु अन्य प्रकरण में अभिरक्षा में होने
से, या उसके द्वारा आदेशानुसार प्रतिभूति, बंधपत्र
प्रस्तुत नहीं किये जाने से या अन्यथा किसी
कारण से पहले प्रकरण में उसे प्रतिभूति पर
मुक्त नहीं किया जाता है तब इस पहले प्रकरण
में भी आरोपी विचाराधीन बंदी होगा और अन्य
प्रकरणों में उसके द्वारा व्यतीत कारावास की
अवधि इस पहले प्रकरण में उसे दोषसिद्धि पर
दी गई दण्डाज्ञा में से समायोजित की जायेगी।
No comments:
Post a Comment