लिखतों
की
ग्राह्यता
के
संबंध
में
अपर्याप्त
स्टाम्प
शुल्क
संबधी
प्रष्न
के
निराकरण
की
विधि
एवं
प्रक्रिया
भारतीय
स्टाम्प
अधिनियम,
1899 की
धारा
33 (1) के
अधीन
प्रत्येक
न्यायाधीष
का
यह
कत्र्तव्य
है
कि
वह
साक्ष्य
के
रूप
में
प्रस्तुत
प्रत्यके
ऐसी
लिखत
को
परिबद्ध
कर
ले,
जिसके
संबंध
में
उसे
यह
प्रतीत
होता
है
कि
वह
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
नहीं
है।
पी.
रामनाथ
अय्यर
की
द
ला
लेक्सिकान
(तृतीय
संस्करण-2012)
के
अनुसार
परिबद्ध
किये
जाने
से
अभिप्रेत
है,
विधि
की
अभिरक्षा
में
ले
लेना।
तदनुसार
किसी
दस्तावेज
को
परिबद्ध
किये
जाने
से
अभिप्राय
यह
है
कि
उसे
न्यायालय
की
सुरक्षित
अभिरक्षा
में
रख
लेना।
धारा
33 (1) के
अधीन
प्रत्येक
न्यायाधीष
के
लिए
यह
आबद्धकर
है
कि
वह
निम्नलिखित
परिस्थितियों
में
किसी
दस्तावेज
को
परिबद्ध
कर
ले
-
1.
न्यायाधीष
के
समक्ष
साक्ष्य
के
प्रयोजन
से
लिखत
प्रस्तुत
होना
चाहिए।
लिखत
को
अधिनियम
की
धारा
2 (14) में
परिभाषित
किया
गया
है,
जिसके
अनुसार
लिखत
के
अन्तर्गत
ऐसा
प्रत्येक
दस्तावेज
है,
जिसके
द्वारा
कोई
अधिकार
या
दायित्व,
सृष्ट,
अंतरित,
सीमित,
विस्तारित
या
अभिलेखबद्ध
किया
जाता
है
या
किया
जाना
तात्पर्यित
है।
स्पष्ट
है
कि
धारा
33 (1) के
प्रावधान
केवल
ऐसे
दस्तावजो
को
आवृत्त
करते
हैं,
जिनके
अधीन
किसी
अधिकार
या
दायित्व
का
प्रादुर्भाव,
अंतरण,
परिमिती,
विस्तारण
या
अभिलेखन
किया
जाता
है
एवं
यह
उपबन्ध
किसी
मौखिक
संव्यवहार
को
आवृत्त
नहीं
करते
हैं।
इसी
प्रकार
ये
उपबन्ध
उसी
मूल
दस्तावेज
के
संबंध
में
लागू
होते
हैं,
जिसके
द्वारा
ऐसे
अधिकार
या
दायित्व
को
सृष्ट,
अंतरित,
सीमित,
विस्तारित
या
अभिलिखित
किया
गया
है,
न
कि
ऐसे
किसी
दस्तावेज
की
प्रतिलिपि
या
उस
दस्तावेज
के
अनुवाद
आदि
के
संबंध
में
(कृपया
देखं
- जुपुदी
केषव
राव
विरूद्ध
पुलवरथी
बकें
ट
सुब्बाराव,
ए.आई.आर.
1971
एस.सी.1070,
हरिओम
अग्रवाल
विरूद्ध
प्रकाषचंद्र
मालवीय
(2007) 8 एस.सी.सी.
514, सुग्रीव
प्रसाद
दुबे
विरूद्ध
सीताराम
दुबे
2004 (1) एम.पी.एच.टी.
488 एवं
विजय
चैधरी
विरूद्ध
यूनियन
आफ
इंडिया,
2010 (1) एम.पी.एच.टी.
435)
इसी
प्रकार
आपराधिक
मामलों
में
दस्तावेज
किसी
अधिकार
या
दायित्व
को
उद्भूत,
अंतरित,
परिमित
या
विस्तारित
करने
के
प्रयाजे
न
से
प्रयुक्त
नही
होते
हैं,
अतः
आपराधिक
मामलो
में
दस्तावजो
का
परिबद्ध
किया
जाना
अपेक्षित
नहीं
है।
(कृपया
देखे
:- विष्वनाथ
विरूद्ध
काषीराम
जे.एल.जे.
1971 एस.एन.12)
पुनः
यह
भी
उल्लेखनीय
है
कि
इस
धारा
के
अधीन
प्रस्तुत
किये
जाने
से
अभिप्रेत
है
कि
प्रष्नगत
दस्तावेज
या
तो
समंस
के
प्रत्युत्तर
में
प्रस्तुत
किया
गया
हो
या
स्वेच्छया
न्यायिक
प्रयोजन
से
प्रस्तुत
किया
गया
हो।
दस्तावेजों
की
अनैच्छिक,
त्रुटिवष
या
दुर्घटनावष
प्रस्तुति,
इस
प्रावधान
से
आवृत्त
नही
है
(देखे-
इन
रि
नारायण
दास
नाथूराम
ए.आई.आर.,
1943 नागपुर
97)
अतएव
लिखत
को
परिबद्ध
किए
जाने
की
शक्ति
का
तब
तक
प्रयोग
नहीं
किया
जा
सकता
है,
जब
तक
कि
उसे
स्वेच्छया
साक्ष्य
में
प्रस्तुत
नहीं
किया
गया
हो
(देखे-
डिस्ट्रिक्ट
रजिस्ट्रार
एंड
कलेक्टर
हैदराबाद
विरूद्ध
केनरा
बैंक
(2005) 1 एस.सी.सी.
496)
2. ऐसी
लिखत
न्यायाधीष
की
राय
में
शुल्क
से
प्रभार्य
होना
चाहिए।
अधिनियम
की
धारा
3 में
शुल्क
से
प्रभार्य
लिखत
को
परिभाषित
किया
गया
है,
जिसके
अनुसार
अधिनियम
की
अनुसूची
में
वर्णित
विभिन्न
लिखतें
उस
शुल्क
से
प्रभार्य
होगी,
जो
शुल्क
ऐसी
लिखत
के
सम्मुख
उस
अनुसूची
में
विहित
किया
गया
है।
यदि
कोई
दस्तावेज
अनुसूची
में
वर्णित
नहीं
है,
तो
वह
शुल्क
से
प्रभार्य
नहीं
होगा
एवं
उसे
धारा
33 के
अधीन
परिबद्ध
नहीं
किया
जाना
चाहिए।
3.
न्यायाधीष
को
यह
प्रतीत
होना
चाहिए
कि
वह
लिखत
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
नहीं
है।
‘‘सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित’’
पद
अधिनियम
की
धारा
2 (11) में
परिभाषित
किया
गया
है
जिसके
अनुसार
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
से,
जबकि
वह
किसी
लिखत
के
बारे
में
प्रयुक्त
है,
यह
अभिप्रेत
है
कि
समुचित
रकम
से
अन्यून
रकम
का
असंजक
या
छापित
स्टाम्प
उस
लिखत
पर
लगा
हुआ
है,
ऐसा
स्टाम्प
भारत
में
तत्समय
प्रवृत्त
विधि
के
अनुसार
लगाया
गया
है
या
उपयोग
में
लाया
गया
है।
अर्थात्
किसी
लिखत
के
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
होने
के
लिए
तीन
अपेक्षाएं
हैं:-
(1) उस
पर
प्रयुक्त
स्टाम्प
उचित
धनराषि
का
हो,
(2) ऐसा
स्टाम्प
उचित
वर्णन
का
हो,
एवं
(3) ऐसा
स्टाम्प
तत्समय
प्रवृत्त
विधि
के
अनुसार
लगाया
या
उपयोग
में
लाया
गया
हो।
यह
उल्लेखनीय
है
कि
धारा
33 के
प्रयोज्य
होने
के
लिए
न्यायालय
को
मात्र
यह
प्रतीत
होना
पर्याप्त
है
कि
प्रष्नगत
लिखत
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
नहीं
है।
इस
हेतु
न्यायाधीष
की
पूर्ण
संतुष्टि
अपेक्षित
नहीं
है।
यदि
न्यायाधीष
लिखत
को
परिबद्ध
किये
जाने
के
पष्चात्
पक्षकारों
को
सुनने
के
उपरान्त
यह
अभिनिष्चित
करता
है
कि
वह
लिखत
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
है,
तो
वह
ऐसी
लिखत
को
मुक्त
कर
देगा।
लिखत
को
परिबद्ध
किये
जाने
का
प्रक्रम
एवं
प्रविधि
दस्तावेजों
को
परिबद्ध
किए
जाने
के
संबंध
में
प्रक्रियात्मक
उपबंध
सिविल
प्रक्रिया
संहिता
की
धारा
30 एवं
आदेष
13 नियम
8 में
अभिकथित
किए
गए
हैं।
सिविल
प्रक्रिया
संहिता,
1908 की
धारा
30 के
अनुसार
‘‘ऐसी
शर्तों
और
परिसीमाओं
के
अधीन
रहते
हुए
जो
विहित
की
जाये
न्यायालय
किसी
भी
समय
स्वप्रेरणा
से
या
किसी
भी
पक्षकार
के
आवेदन
पर,
ऐसा
आदेष
कर
सकेगा
जो
......
दस्तावेजों
...... के
जो
साक्ष्य
के
रूप
में
पेष
किये
जाने
योग्य
हो
...... परिबद्ध
किये
जाने
...... से
संबंधित
सभी
विषयों
के
बारे
में
आवष्यक
या
युक्तियुक्त
है।’’
इस
प्रकार
इस
प्रावधान
के
अनुसार
न्यायालय
‘‘किसी
भी
प्रक्रम
पर’’
दस्तावेजो
के
परिबद्ध
किये
जाने
का
आदेष
कर
सकता
है।
इसी
प्रकार
सिविल
प्रक्रिया
संहिता
1908 के
आदेष
13 नियम
8 के
अधीन
न्यायालय
पर्याप्त
हेतुक
दिखाई
देने
पर
अपने
समक्ष
प्रस्तुत
किसी
भी
दस्तावेज
को
ऐसी
अवधि
एवं
ऐसी
शर्तों
के
अधीन
जो
वह
उचित
समझें,
परिबद्ध
किये
जाने
का
आदेष
दे
सकता
है।
यह
उल्लेखनीय
है
कि
सिविल
प्रक्रिया
संहिता
की
धारा
30 एवं
आदेष
13 नियम
8 का
प्रावधान
दस्तावजे
परिबद्ध
किए
जाने
के
संबंध
में
सामान्य
विधि
अभिकथित
करता
है,
जबकि
स्टाम्प
अधिनियम
की
धारा
33 सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
न
की
गयी
लिखतो
के
संबंध
में
विनिर्दिष्ट
प्रावधान
करती
है।
धारा
30 एवं
आदेष
13 नियम
8 के
प्रावधान
वैवेकिक
हैं,
जबकि
स्टाम्प
अधिनियम
की
धारा
33 के
प्रावधान
आज्ञापक
है।
धारा
33 में
भी
यह
उल्लेख
है
कि
शुल्क
से
प्रभार्य
कोई
लिखत
जब
न्यायाधीष
के
समक्ष
प्रस्तुत
की
जाती
है
एवं
उसे
यह
प्रतीत
होता
है
कि
वह
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
नहीं
है,
तो
वह
उसे
परिबद्ध
कर
लेगा।
स्पष्ट
है
कि
धारा
33 के
अधीन
यह
आज्ञापक
निर्देष
दिया
गया
है
कि
शुल्क
से
प्रभार्य
कोई
लिखत
न्यायालय
के
समक्ष
प्रस्तुत
होने
पर
न्यायाधीष
को
उसके
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
होने
के
संबंध
में
शंका
होने
पर,
वह
प्रस्तुत
लिखित
की
परीक्षा
कर
यह
सुनिष्चित
करने
हेतु
कि
क्या
वह
लिखत
समुचित
मूल्य
एवं
विवरण
के
स्टाम्प
पर
तैयार
की
गयी
है,
उसे
परिबद्ध
कर
लेगा।
अतएव
साक्ष्य
के
प्रयोजन
से
प्रस्तुत
दस्तावेज
चाहे
वह
वादपत्र
के
साथ
प्रस्तुत
किए
गए
हैं
या
तत्पष्चात्,
न्यायालय
में
उसके
प्रस्तुत
किये
जाते
समय
ही
परीक्षा
किए
जाने
की
अपेक्षा
करते
हैं।
यह
परीक्षा
यह
जानने
के
लिए
होना
चाहिए
कि
क्या
उस
दस्तावेज
पर
उचित
शुल्क
संदाय
किया
गया
है
एवं
स्टाम्प
विहित
वर्णन
के
हैं
अथवा
क्या
वह
अधिनियम
की
धारा
35 के
अधीन
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
के
लिए
उत्तरदायी
है।
(इस
संबंध
में
देखे
- न्यायालय
फीस
अधिनियम
एवं
स्टाम्प
एक्ट
के
अधीन
माननीय
उच्च
न्यायालय
द्वारा
दिए
गए
निर्देष)
यह
परीक्षण
दस्तावेजो
के
साक्ष्य
में
ग्रहण
किये
जाने
तक
के
समय
के
लिए
स्थगित
नहीं
किया
जाना
चाहिए।
दस्तावेजो
की
आरंभिक
जाँच
न्यायाधीष
द्वारा
अपने
अधीक्षण
में
निष्पादन
लिपिक
द्वारा
भी
करायी
जा
सकती
है।
फिर
भी
यह
न्यायाधीष
का
ही
प्राथमिक
उत्तरदायित्व
है
कि
वह
दस्तावेज
की
विषय
वस्तु,
न
कि
दस्तावेज
के
वर्णन
या
शीर्षक
के
आधार
पर
दस्तावेज
पर
प्रभार्य
शुल्क
का
आंकलन
करे।
यह
भी
उल्लेखनीय
है
कि
ऐसी
जाँच
के
लिए
किसी
पक्षकार
की
आपत्ति
अपेक्षित
नहीं
है।
ऐसी
जाँच
न्यायाधीष
को
स्वतः
करनी
चाहिए।
यद्यपि
पष्चात्वर्ती
प्रक्रम
पर
कठिनाइयाँ
उत्पन्न
न
हो,
इसलिए
आदेष
पत्रिका
में
साक्ष्य
हेतु
प्रस्तावित
दस्तावेजो
की
प्रस्तुति
के
समय
ही
प्रतिपक्ष
का
ध्यान
दस्तावजे
की
आरे
आकृष्ट
करते
हुए
निर्देष
दिया
जा
सकता
है
कि
यदि
उन्हे
साक्ष्य
में
प्रस्तावित
दस्तावेजो
के
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
हाने
के
संबंध
में
कोई
आपत्ति
हो,
तो
वह
उसे
न्यायालय
के
समक्ष
प्रस्तुत
कर
सकता
है।
यह
भी
उल्लेखनीय
है
कि
धारा-36
के
अनुसार
किसी
भी
लिखत
को
केवल
साक्ष्य
में
गृहीत
किए
जाने
के
पूर्व
ही
परिबद्ध
किया
जा
सकता
है।
यदि
दस्तावेज
को
एक
बार
साक्ष्य
में
गृहीत
कर
लिया
जाता
है
तो
किसी
भी
पष्चात्वर्ती
प्रक्रम
पर
उसे
प्रष्नगत
नहीं
किया
जा
सकता
है।
किसी
दस्तावेज
के
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
नहीं
होने
के
आधार
पर
अग्राह्य
होने
संबंधी
आपत्ति
केवल
उस
दस्तावेज
को
प्रदर्ष
अंकित
किए
जाने
के
पूर्व
ही
उठाई
जा
सकती
है।
दस्तावेज
पर
न्यायालय
द्वारा
प्रदर्ष
अंकित
किए
जाने
के
पष्चात्
ऐसी
आपत्ति
विचारणीय
नहीं
है।
(देखें-
श्यामल
कुमार
राय
विरूद्ध
सुषील
कुमार
अग्रवाल
ए.आई.आर.
2007 एस.सी.
637, जवेरचंद्र
विरूद्ध
पुखराज
सुराना
ए.आई.आर.
1961 एस.सी.
1655 एवं
मनखां
विरूद्ध
मोहनलाल
2012 (3) एम.पी.एल.जे.
632)
जहाँ
तक
परिबद्ध
किये
जाने
की
प्राविधि
का
संबंध
है,
स्टाम्प
अधिनियम
में
कुछ
भी
नहीं
कहा
गया
है।
सिविल
प्रक्रिया
संहिता,
1908 के
आदेष
13 नियम
8 में
मात्र
यह
विहित
किया
गया
है
कि
किसी
दस्तावेज
को
परिबद्ध
किये
जाने
पर
न्यायालय
उसे
अपने
किसी
अधिकारी
की
अभिरक्षा
में
रखे
जाने
के
लिए
निर्देष
दे
सकेगा।
परिबद्ध
किए
जाने
की
प्रक्रिया
के
संबंध
में
एल.
पूरनचंद
विरूद्ध
एम्परर,
ए.आई.आर.
1942
लाहौर
257
के
न्यायदृष्टांत
में
प्रेक्षित
किया
गया
है
कि
दस्तावेज
के
परिबद्ध
किये
जाने
का
आदेष
मौखिक
नहीं
होना
चाहिए।
ऐसा
आदेष
लिखित
रूप
से
किया
जाना
चाहिए
तथा
प्रष्नगत
दस्तावेज
पर
‘‘परिबद्ध’’
शब्द
पृष्ठांकित
किया
जाना
चाहिए
एवं
संबंधित
न्यायाधीष
के
द्वारा
हस्ताक्षरित
किया
जाना
चाहिए।
इसके
अतिरिक्त
जिस
दस्तावेज
को
परिबद्ध
किया
गया
है,
उसका
वर्णन
एवं
उसके
परिबद्ध
किये
जाने
का
विवरण
आदेष
पत्रिका
में
लेखबद्ध
किया
जाना
चाहिए।
साथ
ही
मध्यप्रदेष
व्यवहार
न्यायालय
नियम,
1961 के
नियम
323 के
अधीन
विहित
प्रलेखों
की
सूची
के
स्तंभ
क्रमांक
5 (रिमार्क
कालम)
में
तत्संबंधी
प्रविष्टि
की
जानी
चाहिए।
इस
संबंध
में
नियम
324 का
ध्यान
रखा
जाना
चाहिए।
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
होने/न
होने
का
निर्धारण
किसी
लिखत
को
उपरोक्त
रीति
से
परिबद्ध
किये
जाने
के
पष्चात्
न्यायालय
को
धारा
33 (2) के
अधीन
यह
अभिनिर्धारित
करना
आवष्यक
है
कि
क्या
प्रष्नगत
लिखत
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
है
अथवा
नहीं।
इस
हेतु
एक
न्यायालय
द्वारा
मामले
में
उभयपक्ष
को
निर्देषित
किया
जाना
चाहिए
कि
वह
नियत
तिथि
पर
प्रष्नगत
लिखत
के
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
होने
अथवा
नही
होने
के
संबंध
में
अपने
तर्क
प्रस्तुत
करे।
नियत
तिथि
पर
उभयपक्ष
को
सुनने
के
पष्चात्
न्यायाधीष
के
द्वारा
उभयपक्षीय
तर्क
के
परिपेरक्ष्य
में
धारा
33
(2) के
अधीन
प्रष्नगत
लिखत
की
जाँच
यह
अभिनिष्चित
करने
के
प्रयोजन
से
की
जानी
चाहिए
कि
जिस
समय
ऐसी
लिखत
निष्पादित
की
गयी
थी,
तब
क्या
वह
तत्समय
प्रवृत्त
विधि
द्वारा
अपेक्षित
मूल्य
और
विवरण
के
स्टाम्प
से
स्टाम्पित
थी।
यह
उल्लेखनीय
है
कि
प्रभार्य
शुल्क
की
गणना
हेतु
प्रष्नगत
लिखत
के
निष्पादन
की
तिथि
पर
प्रवृत्त
स्टाम्प
शुल्क
विचारणीय
होगा
न
कि
ऐसे
निर्धारण
की
तिथि
पर
प्रवृत्त
स्टाम्प
शुल्क।
(कृपया
देखें:-
स्टेट
आफ
राजस्थान
विरूद्ध
मेसर्स
खंदक
जैन
ज्वेलर्स,
ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
509)
किसी
लिखत
पर
प्रभार्य
स्टाम्प
शुल्क
के
प्रष्न
का
निर्धारण
करते
निम्नलिखित
तथ्यो
को
विचार
मे
लिया
जाना
चाहिए
-
1.
स्टाम्प
शुल्क
लिखत
पर
प्रभार्य
होता
है
न
कि
संव्यवहार
पर।
2. लिखत
मे
अंतर्विष्ट
संव्यवहार
का
सार
स्टाम्प
शुल्क
का
निर्धारण
करता
है
न
कि
लिखत
का
प्रारूप
या
शीर्षक।
3. लिखत
की
प्रकृति
एवं
उसके
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
होने
के
निर्धारण
हेतु
न्यायालय
द्वारा
लिखत
की
अंतर्विषिष्टियो
;बवदजमदजेद्ध
न
कि
समपार्षविक
परिस्थितियाँ,
जो
कि
साक्ष्य
के
द्वारा
अभिलेख
पर
लायी
जा
सकती
है,
पर
विचार
करना
चाहिए।
दूसरे
शब्दों
में
कहा
जाये
दों
तो,
पक्षकारो
का
वह
आषय
जिसकी
पूर्ति
के
प्रयोजन
से
उस
लिखत
को
लेखबद्ध
किया
गया
है,
विचार
में
लिया
जाना
चाहिए।
ऐसे
निर्धारण
हेतु
अन्य
बाहरी
सामग्री
को
विचार
में
नहीं
लिया
जा
सकता
है।
(इस
नियम
का
एक
अपवाद
यह
है
कि
जहाँ
स्टाम्प
शुल्क
बाजार
मूल्य
पर
निर्भर
हो,
वहाँ
बाहरी
सामग्री
स्टाम्प
विधि
में
यथाविहित
रीति
से
विचार
मे
ली
जा
सकती
है।)
4. लिखत
की
वास्तविक
प्रकृति
के
निर्धारण
हेतु
दस्तावेज
को
सम्पूर्ण
रूप
से
पढ़ा
जाना
चाहिए
एवं
लिखत
के
मूल
प्रयोजन
की
पहचान
की
जानी
चाहिए।
(कृपया
देखें-
षिवकुमार
सक्सेना
विरूद्ध
मनीषचंद्र
सिन्हा
2004
(4) एम.पी.एच.टी.
475)
इस
प्रकार
यह
स्पष्ट
है
कि
लिखत
को
परिबद्ध
किये
जाने
के
पष्चात्
पक्षकारों
को
सुनवाई
का
अवसर
दिया
जाना
चाहिए
तथा
तत्पष्चात्
प्रष्नगत
लिखत
की
वास्तविक
प्रकृति
निर्धारित
की
जानी
चाहिए
एवं
तदनुसार
निर्धारित
वर्णन
के
लिखत
पर
ऐसे
लिखत
के
निष्पादन
की
तिथि
पर
प्रभार्य
स्टाम्प
शुल्क
की
गणना
की
जानी
चाहिए।
तत्पष्चात्
यह
अभिनिर्धारित
किया
जाना
चाहिए
कि
क्या
प्रष्नगत
लिखत
वस्तुतः
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
है,
अथवा
नहीं।
यदि
न्यायालय
यह
अभिनिर्धारित
करता
है
कि
लिखत
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
है,
तों
ऐसी
लिखत
परिबद्धता
से
मुक्त
हो
जायेगी।
यदि
न्यायालय
प्रष्नगत
लिखत
के
संबंध
मे
यह
अभिनिर्धारित
करता
है
कि
वह
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
नहीं
है,
तो
उसके
संबंध
में
अधिनियम
की
धारा
38 के
अधीन
कार्यवाही
की
जायेगी।
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
न
किये
गये
लिखत
साक्ष्य
मे
किसी
भी
प्रयोजन
हेतु
ग्राह्य
नहीं
है
धारा-35
के
अनुसार
कोई
भी
लिखत,
जिसके
संबंध
मे
न्यायालय
ने
यह
अभिनिर्धारित
किया
है
वह
‘‘सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित’’
नही
है,
साक्ष्य
मे
किसी
भी
प्रयाजे
न
से
ग्राह्य
नहीं
होगी।
दूसरे
शब्दों
में
ऐसी
लिखत
को
किसी
भी
परिस्थिति
में
साक्ष्य
के
रूप
में
ग्रहण
नहीं
किया
जा
सकता
है
अर्थात्
ऐसी
लिखत
को
साक्ष्य
में
ग्रहण
करने
के
संबंध
में
न्यायालय
को
कोई
भी
विवेकाधिकार
प्राप्त
नहीं
है।
लिखत
का
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
न
होना,
उसे
साक्ष्य
के
रूप
में
ग्रहण
किए
जाने
के
क्षेत्र
से
बहिष्कृत
कर
देता
है।
ऐसी
लिखत
कब
साक्ष्य
में
ग्रहण
की
जा
सकेगी
?
ऐसी
लिखत
धारा-35
के
परन्तुक
(क)
के
अधीन
साक्ष्य
मे
ग्राह्य
होगी।
इस
परंतुक
के
अनुसार-
(1) जहाँ
अवषेष
स्टाम्प
शुल्क
की
दस
गुनी
राषि
पाँच
रूपए
से
कम
है,
तो
अवषेष
प्रभार्य
स्टाम्प
शुल्क
एवं
पाँच
रूपए
शास्ति
के
रूप
मे
संदाय
करने
पर,
या
(2) जहाँ
अवषेष
स्टाम्प
शुल्क
की
दस
गुनी
राषि
पाँच
रूपए
से
अधिक
है,
वहाँ
अवषेष
प्रभार्य
स्टाम्प
शुल्क
एवं
ऐसे
अवषेष
शुल्क
के
दस
गुने
के
बराबर
शास्ति
संदाय
कर
दिए
जाने
पर
- ऐसी
लिखत
साक्ष्य
में
ग्राह्य
होगी।
अतएव
न्यायालय
जैसे
ही
यह
अभिनिर्धारित
करता
है
कि
लिखत
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
नहीं
है,
उसे
अपने
आदेष
मे
यह
उल्लेख
करना
चाहिए
कि
प्रष्नगत
लिखत
किसी
भी
प्रयोजन
के
लिए
साक्ष्य
मे
ग्राह्य
नहीं
है,
परंतु
यदि
संबंधित
पक्ष
धारा
35 के
परंतुक
(क)
के
अधीन
अमुक
अवषेष
प्रभार्य
स्टाम्प
शुल्क
एवं
अमुक
शास्ति
का
भुगतान
कर
देता
है,
तो
प्रष्नगत
लिखत
साक्ष्य
में
ग्राह्य
होगी।
यह
ज्ञातव्य
है
कि
अवषेष
प्रभार्य
शुल्क
एवं
शास्ति
आदेष
में
विनिर्दिष्ट
रूप
से
अभिव्यक्त
की
जानी
चाहिए।
तत्पष्चात
ऐसे
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
के
संदाय
हेतु
कार्यवाही
अग्रसर
करने
का
अवसर
संबंधित
पक्ष
को
दिया
जाना
चाहिए।
पक्षकार
का
विकल्प
(परिबद्ध
लिखतों
का
निराकरण)
-
संबंधित
पक्षकार
को
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
के
संदाय
का
उपर्युक्तानुसार
अवसर
प्रदान
किए
जाने
पर
उसके
समक्ष
दो
विकल्प
उपलब्ध
होते
हैं
-
(A) वह
न्यायालय
के
निर्देषाधीन
अपेक्षित
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
के
संदाय
हेतु
कार्यवाही
अग्रसर
करे,
या
(B) ऐसे
संदाय
हेतु
कोई
कार्यवाही
नहीं
करे
अथवा
न्याय-निर्णयन
हेतु
लिखत
को
कलेक्टर
स्टाम्प्स
को
प्रेषित
करने
के
लिए
आग्रह
करें।
प्रथम
विकल्प
का
चयन
करने
पर
न्यायालय
धारा
- 38 (1) के
अधीन
कार्यवाही
अग्रसर
करेगा
जबकि
द्वितीय
विकल्प
का
चयन
करने
पर
न्यायालय
धारा
- 38 (2) के
अधीन
कार्यवाही
करेगा।
न्यायालय
किसी
पक्षकार
को
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
के
भुगतान
के
लिए
बाध्य
नहीं
कर
सकता
है।
संबंधित
पक्ष
उपर्युक्त
में
से
किसी
भी
विकल्प
का
चयन
करने
के
लिए
स्वतंत्र
है।
(देखं-
सत्यनारायण
विरूद्ध
रामसिंह
2007
(3) एम.पी.एल.जे.
384)
जहाँ
संबंधित
पक्षकार
प्रथम
विकल्प
का
चयन
करता
है
अर्थात्
न्यायालय
के
निर्देषाधीन
अपेक्षित
शुल्क
एवं
शास्ति
के
संदाय
हेतु
आवदे
न
प्रस्तुत
करता
है,
वहाँ
न्यायालय
द्वारा
ऐसा
शुल्क
एवं
शास्ति
सिविल
कोर्ट
डिपाजिट
में
जमा
करने
हेतु
नाजिर
को
निर्देषित
करना
चाहिए।
नाजिर
ऐसी
राषि
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
के
रूप
में
ग्रहण
कर
उसकी
रसीद
संबंधित
पक्ष
को
प्रदान
करेगा।
तत्पष्चात्
जब
संबंधित
पक्ष
द्वारा
न्यायालय
के
समक्ष
यह
रसीद
प्रस्तुत
की
जाती
है,
तो
न्यायालय
को
उसके
आदेषानुसार
भुगतान
की
गयी
राषि
का
सत्यापन
करना
चाहिए
एवं
तत्संबंधी
सत्यापन
धारा-42
(1) के
अधीन
लिखत
पर
पृष्ठांकित
किया
जाना
चाहिए।
धारा-42
(1) के
अधीन
अनुप्रमाणन
मे
प्रष्नगत
दस्तावेज
पर
निम्नलिखित
तथ्य
पृष्ठांकित
किये
जाने
चाहिए-
1.
दस्तावेज
का
वर्णन
2.
प्रभार्य
स्टाम्प
शुल्क
3.
पक्षकार
द्वारा
संदत्त
स्टाम्प
शुल्क
4. अवषेष
स्टाम्प
शुल्क
5. शास्ति
6.
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
के
भुगतान
की
तिथि
एवं
रसीद
का
क्रमांक
7.
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
का
संदाय
करने
वाले
व्यक्ति
का
नाम
एवं
पता।
इस
विवरण
के
नीचे
न्यायाधीष
के
द्वारा
अपने
हस्ताक्षर
किये
जाने
चाहिए।
इस
कार्यवाही
का
पूर्ण
उल्लेख
आदेष
पत्रिका
में
भी
किया
जाना
चाहिए।
तत्पष्चात्
न्यायालय
के
द्वारा
ऐसी
लिखत
की
एक
अधिप्रमाणित
प्रति
संबंधित
पक्ष
से
उद्गृहीत
शुल्क
एवं
शास्ति
की
धनराषि
के
प्रमाणपत्र
के
साथ
धारा
38
(1) के
अधीन
कलेक्टर
स्टाम्प्स
को
प्रेषित
की
जानी
चाहिए।
प्रमाणपत्र
में
उपर्युक्त
तथ्यों
का
उल्लेख
करना
चाहिए।
अधिप्रमाणित
प्रति
भेजने
की
कार्यवाही
का
उल्लेख
आदेष
पत्रिका
में
भी
किया
जाना
चाहिए।
इस
कार्यवाही
के
पष्चात्
प्रष्नगत
लिखत
को
न्यायालय
के
द्वारा
साक्ष्य
विधि
के
अन्य
प्रावधानो
के
अधीन
रहते
हुए
साक्ष्य
मे
ग्रहण
किया
जा
सकेगा।
यदि
संबंधित
पक्ष
दूसरे
विकल्प
का
चयन
करता
है
अर्थात्
न्यायालय
के
निर्देषाधीन
स्टाम्प
के
शुल्क
एवं
शास्ति
का
संदाय
न्यायालय
द्वारा
विहित
समय
के
भीतर
नहीं
करता
है
अथवा
प्रष्नगत
लिखत
को
न्याय-निर्णयन
हेतु
कलेक्टर
स्टाम्प्स
को
प्रेषित
करने
का
आग्रह
करता
है,
तो
प्रष्नगत
मूल
लिखत
धारा
38
(2) के
अधीन
कलेक्टर
स्टाम्प्स
को
धारा
40 (1) के
अधीन
कार्यवाही
अग्रसर
करने
एवं
तत्पष्चात्
उसे
धारा
40 (3) के
अधीन
संबंधित
न्यायालय
को
वापिस
करने
के
निर्देष
के
साथ
प्रेषित
की
जाना
चाहिए।
जब
इस
प्रकार
मूल
लिखत
न्याय-निर्णयन
हेतु
कलेक्टर
स्टाम्प्स
को
प्रेषित
की
जाती
है,
तब
संबंधित
पक्ष
का
ध्यान
धारा
46 (2) की
ओर
आकर्षित
करते
हुए
उससे
यह
अपेक्षा
की
जानी
चाहिए
कि
वह
विहित
अवधि
में
प्रष्नगत
लिखत
के
कलेक्टर
स्टाम्प्स
को
प्रेषित
किये
जाने
के
पूर्व
अपने
खर्च
पर
उस
लिखत
की
सत्यापित
प्रति
प्राप्त
कर
ले।
यहाँ
यह
उल्लेखनीय
है
कि
यदि
ऐसी
लिखत
कलेक्टर
स्टाम्प्स
को
भेजे
जाने
और
न्यायालय
को
वापस
प्राप्त
होने
के
अनुक्रम
में
कहीं
खो
जाती
है
या
नष्ट
हो
जाती
है
या
विक्षत
हो
जाती
है
तो
धारा
46
(1) के
अधीन
न्यायालय
किसी
भी
दायित्व
के
अधीन
नहीं
होता
है।
जब
ऐसी
लिखत
धारा-40
के
अधीन
कलेक्टर
स्टाम्प्स
के
यहाँ
से
वापस
न्यायालय
को
प्राप्त
हो
जाएगी,
तब
वह
उसे
साक्ष्य
विधि
के
अन्य
प्रावधानो
के
अधीन
रहते
हुए
साक्ष्य
मे
ग्रहण
करगे
।
प्रष्न
यह
है
कि
जब
ऐसी
लिखत
कलेक्टर
स्टाम्प्स
को
न्याय
निर्णयन
हेतु
भेज
दी
गयी
है,
तो
क्या
संबंधित
न्यायालय
को
उसके
कलेक्टर
स्टाम्प्स
से
वापस
प्राप्त
होने
तक
विचारण
स्थगित
कर
देना
चाहिए।
इस
संबंध
में
वाई.
पेडा
वैंकय्या
विरूद्ध
आर.
डी.
ओ.
गुण्टूर
ए.
आई.
आर.
1981
आंध्रप्रदेष
274 के
प्रकरण
में
यह
प्रतिपादित
किया
गया
है
कि
यह
पक्षकार
का
विकल्प
है
कि
वह
न्यायालय
द्वारा
निर्धारित
स्टाम्प
शुल्क
एवं
शास्ति
का
संदाय
कर
लिखत
को
साक्ष्य
में
ग्राह्य
कराए
अथवा
उसे
धारा-38
के
अधीन
कलेक्टर
को
भेजे
जाने
का
आग्रह
करे।
न्यायालय,
लिखत
प्रस्तुत
करने
वाले
पक्षकार
को
ऐसे
शुल्क
एवं
शास्ति
का
भुगतान
कर
लिखत
को
साक्ष्य
में
ग्रहीत
करने
हेतु
बाध्य
नहीं
कर
सकता
है।
एक
बार
जब
लिखत
धारा
38 (2) के
अधीन
कलेक्टर
को
भेज
दी
जाती
है,
तो
वह
धारा
40 के
अनुसार
न्यायनिर्णीत
की
जायगी।
जहाँ
पक्षकार
लिखत
को
धारा
38 (2) के
अधीन
कलेक्टर
को
प्रेषित
किए
जाने
का
आग्रह
करता
है,
वहाँ
वह
धारा-40
के
अधीन
कलेक्टर
के
विनिष्चय
तक
के
लिए
वाद
का
विचारण
रोके
जाने
का
आग्रह
नहीं
कर
सकता
है।
निःसंदेह
कलेक्टर
धारा
40 (3) के
अधीन
लिखत
वापस
भेजेगा,
परंतु
न्यायालय
के
लिए
यह
आवष्यक
नहीं
है
कि
वह
धारा
40 (1) या
(3) के
अधीन
कलेक्टर
के
आदेष/कार्यवाही
की
प्रतीक्षा
में
विचारण
रोक
दे।
ऐसे
मामलो
में
यह
उचित
होगा
कि
न्यायालय
संबंधित
पक्ष
को
कलेक्टर
से
न्यायनिर्णयन
कराने
हेतु
युक्तियुक्त
समय
प्रदान
करे
एवं
प्रष्नगत
लिखत
के
साथ
कलेक्टर
को
भेजे
जाने
वाले
पत्र
में
मामले
में
साक्ष्य
हेतु
नियत
तिथि
का
उल्लेख
करते
हुए
कलेक्टर
से
नियत
तिथि
के
पूर्व
न्याय
निर्णयन
कर
न्यायालय
को
लिखत
के
वापस
भेजे
जाने
का
आग्रह
करें।
लिखत
की
वापिसी
की
प्रतीक्षा
में
विचारण
अनिष्चित
काल
के
लिए
स्थगित
नहीं
रखा
जाना
चाहिए।
उपसंहार
पूर्वोक्त
विवेचन
से
यह
स्पष्ट
है
कि:-
1. यह
न्यायाधीष
का
कत्र्तव्य
है
कि
वह
साक्ष्य
के
रूप
में
प्रस्तावित
ऐसी
प्रत्येक
लिखत
को
परिबद्ध
कर
ले,
जिसके
संबंध
में
उसे
यह
प्रतीत
होता
है
कि
वह
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
नहीं
है।
2. लिखत
के
सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
होने
के
लिए
न
केवल
लिखत
पर
प्रयुक्त
स्टाम्प
विहित
धनराषि
के
होना
चाहिए
बल्कि
विहित
वर्णन
के
भी
होने
चाहिए।
3.
शकंस्पद
लिखत
को
एक
बार
साक्ष्य
मे
ग्रहण
कर
लेने
के
पष्चात्
विचारण
या
अपील
के
किसी
भी
प्रक्रम
पर
स्टाम्प
शुल्क
संबंधी
आपत्ति
संधारणीय
नहीं
है।
4. लिखत
परिबद्ध
किए
जाने
के
पष्चात्
उस
लिखत
की
प्रकृति
के
निर्धारण
हेतु
उसकी
अंतर्विषिष्टियो
एवं
लिखत
के
पक्षकारों
के
आषय
की
जांच
की
जानी
चाहिए।
इस
हेतु
सामान्यतः
बाह्य
सामग्री
असंगत
होती
है।
5. लिखत
की
प्रकृति
का
निर्धारण
केवल
उसके
शीर्षक
के
आधार
पर
नहीं
होना
चाहिए।
6. लिखत
की
प्रकृति
का
निर्धारण
हो
जाने
के
पष्चात्
यह
देखा
जाना
चाहिए
कि
क्या
उस
पर
अनुसूची
में
यथाविहित
राषि
एवं
वर्णन
का
शुल्क
संदत्त
किया
गया
है।
7. सम्यक्
रूप
से
स्टाम्पित
न
की
गयी
लिखत
धारा
35 के
परंतुक
(क)
के
अधीन
विहित
शुल्क
एवं
शास्ति
संदाय
कर
देने
पर
साक्ष्य
में
ग्राह्य
होगी।
8. लिखत
प्रस्तुत
करने
वाला
पक्षकार
इस
हेतु
स्वतंत्र
है
कि
वह
न्यायालय
द्वारा
निर्देषित
शुल्क
एवं
शास्ति
का
संदाय
कर
लिखत
को
साक्ष्य
में
गृहीत
करा
ले
या
न्याय
निर्णयन
हेतु
कलेक्टर
को
प्रेषित
करने
का
आग्रह
करे।
न्यायालय
संबंधित
पक्षकार
को
शुल्क
एवं
शास्ति
के
संदाय
हेतु
बाध्य
नहीं
कर
सकता
है।
9.
पक्षकार
के
विकल्प
पर
न्याय
निर्णय
हेतु
लिखत
कलेक्टर
को
भेजे
जाने
की
स्थिति
में
पक्षकार
न्यायालय
से
विचारण
अनिष्चित
काल
तक
के
लिए
स्थगित
करने
का
आग्रह
नहीं
कर
सकता
है।
यद्यपि
न्यायालय
अपने
विवेक
के
अधीन
पक्षकार
को
कलेक्टर
से
लिखत
का
न्याय
निर्णयन
कराने
हेतु
युक्तियुक्त
समय
प्रदान
कर
सकता
है।
अवधेष
कुमार
गुप्ता
उपसंचालक,
न्यायिक
अधिकारी
प्रषिक्षण
एवं
अनुसंधान
संस्थान
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