क्या आदेश 33 नियम 2 व्य.प्र.सं. के
आवेदन के लम्बित रहने के समयावधि में
अस्थाई निषेधाज्ञा अंतर्गतआदेश 39 नियम
1 व 2 व्य.प्र.सं. प्रदान की जा सकती हैं ?
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 39
नियम 1 में अस्थायी व्यादेश के संबंध में निम्न
प्रावधान करती हैं:-
वे दशाएँ जिनमें अस्थायी व्यादेश दिया
जा सकेगा
जहाँ किसी वाद में शपथपत्र द्वारा या अन्यथा
यह साबित कर दिया जाता है कि -
(क) वाद में विवादग्रस्त किसी संपत्ति के बारे
में यह खतरा है कि वाद का कोई भी पक्षकार
उसका दुव्र्ययन करेगा, उसे नुकसान
पहुंचाएगा या अन्य संक्रांत करेगा या डिक्री
के निष्पादन में उसका सदोष विक्रय कर
दिया जाएगा; अथवा (ख) प्रतिवादी अपने लेनदारों को (कपट
वंचित) करने की दृष्टि से अपनी संपत्ति को
हटाने या व्ययनित करने की धमकी देता
है या आशय रखता है;
(ग) प्रतिवादी वादी को वाद में विवादग्रस्त
किसी संपत्ति से बेकब्जा करने की या वादी
को उस संपत्ति के संबध् में अन्यथा क्षति
पहुंचाने की धमकी देता हैं।
वहाँ न्यायालय ऐसे कार्य को अवरूद्ध करने
के लिये आदेश द्वारा अस्थायी व्यादेश दे
सकेगा, या संपत्ति को दुव्र्ययित किए जाने,
नुकसान पहुंचाए जाने, अन्य संक्रांत किए
जाने, विक्रय किए जाने, हटाए जाने या
व्ययनित किए जाने से (अथवा वादी को वाद
में विवादग्रस्त संपत्ति से बेकब्जा करने या
वादी को उस संपत्ति के संबंध में अन्यथा
क्षति पहुंचाने से) रोकने और निवारित करने
के प्रयोजन से ऐसे अन्य आदेश जो न्यायालय
ठीक समझे, तब तक के लिए कर सकेगा
जब तक उस वाद का निपटारा न हो
जाये या जब तक अतिरिक्त आदेश न दे दिए
जाए।
यदि हम उपरोक्त प्रावधान देखें तो स्पष्ट है
कि आदेश 39 नियम 1 व्य.प्र.सं. के अधीन
न्यायालय तभी कोई आदेश पारित कर सकता
जब कि -
(1) उसके समक्ष कोई वाद लम्बित हो और
(2) आदेश 39 (1) (क) (ख) (ग) व्य.प्र.सं. में
वर्णित परिस्थितियाँ विद्यमान हो।
अब प्रश्न यह है कि क्या अकिंचन की जांच
के लंबित रहते हुये आवेदन को वाद माना
जाना चाहिये ? आदेश 33 नियम 2 व्य.प्र.
सं. यह प्रावधान करता है कि अंकिचन
के रूप में वाद लाने की अनुज्ञा के हर
आवेदन में वाद पत्र के लिये आवश्यक
विष्टियाँ अंतर्विष्ट होगी। आदेश 33 नियम 5
व्य.प्र.सं. में वे परिस्थितियाँ प्रकट की हैं जिनमें
आवेदन नामंजूर किया जायेगा। आदेश 33
नियम 8 व्य.प्र.सं. के प्रावधानों के अनुसार
आवेदन स्वीकार होने की दशा में आवेदन
पंजीकृत किया जायेगा और उसे वाद पत्र
समझा जायेगा। आदेश 33 नियम 15 (क) व्य.
प्र.सं. यह प्रावधान करती है कि यदि
न्यायालय निर्धन के रूप में वाद प्रस्तुत करने
की अनुमति नहीं देता तो न्यायशुल्क दिये
जाने के लिये समय अनुज्ञात करेगा।
यदि उपरोक्त प्रावधानों को देखें तो स्पष्ट है
कि निर्धन के रूप में दावा प्रस्तुत करने के
लिये आवेदन वास्तव में दावा $ आवेदन है।
आवेदन के निराकरण तक दावे का
रजिस्टेंशन स्थगित रहता है। वैसे भी यदि
कोई दावा उचित न्याय शुल्क या बगैर न्याय
शुल्क के प्रस्तुत किया जाता है तो भी
न्यायालय आदेश 7 नियम 11 व्य.प्र.सं. के
अनुसार उसकी जांच करेगा यदि कम पाता है
तो पक्षकार को पूर्ति का आदेश करेगा। इसी
के समतुल्य प्रक्रिया आदेश 33 नियम 15 (क)
व्य.प्र.सं. में विहित है। आदेश 33 नियम 5 व्य.
प्र.सं. में भी यह प्रावधान है कि वाद
कारण यदि दर्शित नहीं है तो आवेदन
नामंजूर किया जायेगा। ऐसा ही प्रावधान
आदेश 7 नियम 11 व्य.प्र.सं. में भी विहित हैं।
माननीय नागपुर उच्च न्यायालय ने
चुन्नालाल बनाम सामा, ए.आई.आर. 1955
नागपुर 259 में ऐसा ही मत निर्धारित किया
है कि निर्धन के रूप में आवेदन प्रस्तुत
दिनांक से दावा प्रस्तुत हो जाता है। ऐसी
स्थिति में आदेश 39 नियम 1 व 2 व्य.प्र.सं.
के आवेदन पर अंकिचन के रूप में वाद
प्रस्तुत करने की अनुमति में आवेदन के लंबित
रहते हुये विचार किया जा सकता है। दोमा
जी बनाम श्रीमती उब्राबाई, 1967 एम.
पी.एल.जे. एस.एन. 104 में माननीय म.प्र.
उच्च न्यायालय ने भी ऐसा ही मत निर्धारित
किया है कि अंकिचन के रूप में वाद प्रस्तुत
करने के आवेदन के लंबित रहने की दशा में
भी आदेश 39 नियम 1 व 2 व्य.प्र.सं. का
आवेदन पोषणीय हैं।
आवेदन के लम्बित रहने के समयावधि में
अस्थाई निषेधाज्ञा अंतर्गतआदेश 39 नियम
1 व 2 व्य.प्र.सं. प्रदान की जा सकती हैं ?
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 39
नियम 1 में अस्थायी व्यादेश के संबंध में निम्न
प्रावधान करती हैं:-
वे दशाएँ जिनमें अस्थायी व्यादेश दिया
जा सकेगा
जहाँ किसी वाद में शपथपत्र द्वारा या अन्यथा
यह साबित कर दिया जाता है कि -
(क) वाद में विवादग्रस्त किसी संपत्ति के बारे
में यह खतरा है कि वाद का कोई भी पक्षकार
उसका दुव्र्ययन करेगा, उसे नुकसान
पहुंचाएगा या अन्य संक्रांत करेगा या डिक्री
के निष्पादन में उसका सदोष विक्रय कर
दिया जाएगा; अथवा (ख) प्रतिवादी अपने लेनदारों को (कपट
वंचित) करने की दृष्टि से अपनी संपत्ति को
हटाने या व्ययनित करने की धमकी देता
है या आशय रखता है;
(ग) प्रतिवादी वादी को वाद में विवादग्रस्त
किसी संपत्ति से बेकब्जा करने की या वादी
को उस संपत्ति के संबध् में अन्यथा क्षति
पहुंचाने की धमकी देता हैं।
वहाँ न्यायालय ऐसे कार्य को अवरूद्ध करने
के लिये आदेश द्वारा अस्थायी व्यादेश दे
सकेगा, या संपत्ति को दुव्र्ययित किए जाने,
नुकसान पहुंचाए जाने, अन्य संक्रांत किए
जाने, विक्रय किए जाने, हटाए जाने या
व्ययनित किए जाने से (अथवा वादी को वाद
में विवादग्रस्त संपत्ति से बेकब्जा करने या
वादी को उस संपत्ति के संबंध में अन्यथा
क्षति पहुंचाने से) रोकने और निवारित करने
के प्रयोजन से ऐसे अन्य आदेश जो न्यायालय
ठीक समझे, तब तक के लिए कर सकेगा
जब तक उस वाद का निपटारा न हो
जाये या जब तक अतिरिक्त आदेश न दे दिए
जाए।
यदि हम उपरोक्त प्रावधान देखें तो स्पष्ट है
कि आदेश 39 नियम 1 व्य.प्र.सं. के अधीन
न्यायालय तभी कोई आदेश पारित कर सकता
जब कि -
(1) उसके समक्ष कोई वाद लम्बित हो और
(2) आदेश 39 (1) (क) (ख) (ग) व्य.प्र.सं. में
वर्णित परिस्थितियाँ विद्यमान हो।
अब प्रश्न यह है कि क्या अकिंचन की जांच
के लंबित रहते हुये आवेदन को वाद माना
जाना चाहिये ? आदेश 33 नियम 2 व्य.प्र.
सं. यह प्रावधान करता है कि अंकिचन
के रूप में वाद लाने की अनुज्ञा के हर
आवेदन में वाद पत्र के लिये आवश्यक
विष्टियाँ अंतर्विष्ट होगी। आदेश 33 नियम 5
व्य.प्र.सं. में वे परिस्थितियाँ प्रकट की हैं जिनमें
आवेदन नामंजूर किया जायेगा। आदेश 33
नियम 8 व्य.प्र.सं. के प्रावधानों के अनुसार
आवेदन स्वीकार होने की दशा में आवेदन
पंजीकृत किया जायेगा और उसे वाद पत्र
समझा जायेगा। आदेश 33 नियम 15 (क) व्य.
प्र.सं. यह प्रावधान करती है कि यदि
न्यायालय निर्धन के रूप में वाद प्रस्तुत करने
की अनुमति नहीं देता तो न्यायशुल्क दिये
जाने के लिये समय अनुज्ञात करेगा।
यदि उपरोक्त प्रावधानों को देखें तो स्पष्ट है
कि निर्धन के रूप में दावा प्रस्तुत करने के
लिये आवेदन वास्तव में दावा $ आवेदन है।
आवेदन के निराकरण तक दावे का
रजिस्टेंशन स्थगित रहता है। वैसे भी यदि
कोई दावा उचित न्याय शुल्क या बगैर न्याय
शुल्क के प्रस्तुत किया जाता है तो भी
न्यायालय आदेश 7 नियम 11 व्य.प्र.सं. के
अनुसार उसकी जांच करेगा यदि कम पाता है
तो पक्षकार को पूर्ति का आदेश करेगा। इसी
के समतुल्य प्रक्रिया आदेश 33 नियम 15 (क)
व्य.प्र.सं. में विहित है। आदेश 33 नियम 5 व्य.
प्र.सं. में भी यह प्रावधान है कि वाद
कारण यदि दर्शित नहीं है तो आवेदन
नामंजूर किया जायेगा। ऐसा ही प्रावधान
आदेश 7 नियम 11 व्य.प्र.सं. में भी विहित हैं।
माननीय नागपुर उच्च न्यायालय ने
चुन्नालाल बनाम सामा, ए.आई.आर. 1955
नागपुर 259 में ऐसा ही मत निर्धारित किया
है कि निर्धन के रूप में आवेदन प्रस्तुत
दिनांक से दावा प्रस्तुत हो जाता है। ऐसी
स्थिति में आदेश 39 नियम 1 व 2 व्य.प्र.सं.
के आवेदन पर अंकिचन के रूप में वाद
प्रस्तुत करने की अनुमति में आवेदन के लंबित
रहते हुये विचार किया जा सकता है। दोमा
जी बनाम श्रीमती उब्राबाई, 1967 एम.
पी.एल.जे. एस.एन. 104 में माननीय म.प्र.
उच्च न्यायालय ने भी ऐसा ही मत निर्धारित
किया है कि अंकिचन के रूप में वाद प्रस्तुत
करने के आवेदन के लंबित रहने की दशा में
भी आदेश 39 नियम 1 व 2 व्य.प्र.सं. का
आवेदन पोषणीय हैं।
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