Friday, 6 June 2014

क्या अधीनस्थ न्यायालय को उच्च न्यायालय या SC के निर्णय एवं आदेशों को विभेदित कर सकने का अधिकार है ?

क्या अधिकरण अथवा अधीनस्थ
न्यायालय को यह अधिकार हैं कि वह
माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय एवं
आदेशों को इस आधार पर गलत कह
सकें कि माननीय उच्च न्यायालय ने
संबंधित विधिक प्रावधान अथवा
संशोधित प्रावधान पर विचार न करते
हुए निर्णय एवं आदेश पारित किए
हैं ?

उक्त विधिक प्रश्न का विश्लेषणात्मक उत्तर
हाल ही में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की
इंदौर पीठ की खंडपीठ द्वारा नेशनल
टेक्सटाइल्स कारपोंरेशन लिमिटेड (म प्र) 

बनाम इन्कमटेक्स कमिश्नर भोपाल,
I.T.R. No. 4 of 2005  4 व 2005

में दिनांक पारित निर्णय में मिलता हैं।
     

उपरोक्त निर्णय मे यह प्रकट किया गया हैं
कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के
प्रावधानों के अनुसार उच्चतम न्यायालय द्वारा
निर्मित विधि उच्च न्यायालय एवं सभी
अधीनस्थ न्यायालयों पर बंधनकारी प्रभाव
रखती हैं। यद्यपि यह सही हैं कि ऐसा कोई
प्रावधान भारतीय संविधान में नहीं हैं कि उच्च
न्यायालय द्वारा निर्मित विधि अधिनस्थ
न्यायालय पर बंधनकारी होगी परन्तु माननीय
उच्चतम न्यायालय कामिर्शयल कम्पनी
ईस्ट इंडिया लिमिटेड ने बनाम
कलेक्टर आफ कस्टम, ए आई आर
1962 सु.को 1893
में यह प्रतिपादित किया
हैं कि उच्च न्यायालय को भारतीय संविधान
के अनुच्छेद 227 के अनुसार उसके
क्षेत्राधिकार के अंतर्गत कार्यरत सभी अधीनस्थ
न्यायालयों एवं अधिकरणों पर निरीक्षण की
शक्ति प्राप्त हैं और उन पर उच्च
न्यायालय द्वारा निर्मित विधि बंधनकारी है।
इसी मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने
यह भी निर्धारित किया है कि ऐसा पालन
उनके कार्य की सुगमता के लिए भी
आवश्यक है अन्यथा इससे विधि के प्रशासन
में भ्रम उत्पन्न होगा और विधि की प्रतिष्ठा
को अपूर्णनीय क्षति होगी।
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा सुगंधी
सुरेश कुमार बनाम जगदीशन, ए आईआर  

2002 सु को  681 में यह निर्धारित
किया है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित
विधि सभी उच्च न्यायालयों एवं अधीनस्थ
न्यायालयों एवं अधिकरणों पर बंधनकारी हैं।
उच्च न्यायालय के लिए ऐसा अनुज्ञेय नहीं
कि वह उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित
विधि को यह कहकर अमान्य करें कि
उच्चतम न्यायालय ने विधि के प्रावधान पर
उचित रुप से विचार नहीं किया हैं। उच्चतम
न्यायालय द्वारा घोषित विधि की
औचित्यतता एवं वैधानिकता का परीक्षण करने
का अधिकार उच्च न्यायालय या अधीनस्थ
न्यायालयों को नहीं हैं। इसी मामले में
माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट मत
दिया है कि उच्च न्यायालय या अन्य
अधीनस्थ न्यायालय इस आधार पर निर्णय को
विभेदित नहीं कर सकते कि माननीय उच्चतम
न्यायालय ने किसी विधिक प्रावधान को या
संशोधित प्रावधान को विधि का विश्लेषण
करते समय विचार नहीं लिया। उच्चतम
न्यायालय या उच्च न्यायालय ऐसी निर्णय द्व
ारा निर्धारित विधि चाहे वह किसी विधि के
प्रावधानों को ध्यान में न रखते हुए घोषित की
गई है, अधीनस्थ न्यायालय को उस पर कोई
टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है। उच्चतम
न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय ऐसी निर्णय
विधि को प्रभावहीन घोषित कर सकेंगे और
जब तक वह प्रभावहीन घोषित नहीं हो जाती
तब तक वह अधीनस्थ न्यायालयों पर बंधकारी
हैं।
माननीय उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त न्याय
दृष्टांतों में प्रतिपादित सिद्धान्त का विस्तृत
विश्लेषण विवेचन कर माननीय उच्च
न्यायालय मध्यप्रदेश की खण्डपीठ द्वारा राज्य
मे कार्यरत सभी अधीनस्थ न्यायालयों
/अधिकरणों को यह स्पष्ट किया हैं कि
उच्चतम न्यायालय एवं राज्य के उच्च
न्यायालय के ऐसे न्याय दृष्टांत प्रस्तुत होने
पर क्या करना चाहिए ? माननीय मध्यप्रदेश
उच्च न्यायालय के अनुसार ऐसी परिस्थति में
भी प्रस्तुत विनिश्चय उन पर पूर्णतः बाध्यकारी
है और अधीनस्थ न्यायालयों/अधिकरणों को
उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के
किसी विनिश्चय पर अपनी ओर से कोई
अभिमत देने या ऐसे विनिश्चय को किस तरह
से दिया गया, को प्रश्नगत बनाने का
अधिकार नहीं है और न ही उसे किसी ऐसे
विधिक सिद्धान्त को केवल इस आधार पर
अमान्य या अनदेखा करने का अधिकार है कि
उनमें विधि के किसी विशिष्ट प्रावधान पर
विचार नहीं किया गया।
माननीय उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा
उपरोक्त मान्य विधिक सिद्धान्त का एक
सुस्थापित अपवाद भी प्रकट किया है, जिसके
अनुसार अधीनस्थ न्यायालयों/अधिकरणों को
किसी प्रकरण विशेष की विशिष्ट परिस्थितियों
में उच्च न्यायालय/उच्चतम न्यायालय के
किसी विनिश्य में घोषित विधि को उसके
तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर विभेदित
कर सकने का अधिकार है लेकिन इस संबंध
में न्यायालयों/अधिकरणों को इसके कारण
देना आवश्यक है। इसके कारण देना
आवश्यक है। इस प्रकार उपरोक्तानुसार ही
उच्च न्यायालय/उच्चतम न्यायालयों के
विनिश्चय (न्याय दृष्टांत) को विभेदित किया
जा सकता है अन्यथा नहीं, जब तक की
प्रश्नगत विनिश्चय को माननीय उच्चतम
न्यायालय द्वारा या संबंधित उच्च
न्यायालय द्वारा की वृहद् पीठ द्वारा अमान्य
नहीं किया जाता।

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