Friday, 30 May 2014

अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश का कार्य

                   अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश का कार्य
                   न्यायालय व विभिन्न शाखाओं के बारे में


1. जब भी किसी न्यायाधीश को प्रशिक्षण के पश्चात् नियमित न्यायालय में पदस्थ किया जाता है तब न्यायालय में बैठते ही कुछ कर्मचारियों से उन्हें रोजाना कार्य लेना होता है और वे दैनिक संपर्क में रहते है अतः प्रत्येक न्यायाधीश को यदि उन कर्मचारियों के वैधानिक कत्र्तव्यों और दायित्वों के बारे में जानकारी होती है तो उनसे कार्य लेने में अपेक्षाकृत आसानी होती है और किसी न्यायालय के कार्य पर न्यायाधीश का नियंत्रण भी इससे अच्छा रहता है यहां हम किसी भी न्यायालय के प्रमुख कर्मचारियों के कत्र्तव्यों के बारे में चर्चा करेंगे। किसी भी न्यायालय में मुख्य रूप से निम्न लिखित कर्मचारी पदस्थ होते है:-
1. व्यवहार प्रस्तुतकार या सिविल रीडर
2. निष्पादन लिपिक या एक्सीक्यूशन क्र्लक/ क्रिमिनल रीडर
3. साक्ष्य लेखक
4. स्टेनो ग्राफर /क्र्लक स्टेनो
5. आदेशिका लेखक या प्रोसेस राईटर
6. बोर्ड प्यून
उक्त कर्मचारीगण के मध्यप्रदेश सिविल न्यायालय नियम, 1961 एवं नियम एवं आदेश अपराधिक के अनुसार कत्र्तव्य इस प्रकार होते है। परिशिष्ट - ए
2. न्यायालय के कार्य के अतिरिक्त कुछ शाखाए या सेक्शन भी होते है जिनकी कार्य प्रणाली समझना आवश्यक होता है क्योंकि उन शाखाओं का न्यायालय के कार्य पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है और कभी-कभी न्यायाधीश को उन शाखाओं का प्रभारी अधिकारी भी बनाया जाता है अतः इन शाखाओं के कर्मचारी और उनके कत्र्तव्य भी समझना आवश्यक होता है जो निम्न प्रकार से हैं:-
1. प्रतिलिपि शाखा
2. नजारत
3. अभिलेखागार या रिकार्ड रूम
4. ग्रंथालय या लाईब्रेरी
5. लेखा शाखा
6. सांख्यिकी या स्टेटीकल शाखा
7. मालखाना
8. कर्मचारीगण के सामान्य व्यवहार आचरण एवं मध्यप्रदेश सिविल सेवा आचरण नियम, 1965
उक्त शाखाओं के कर्मचारियों के कत्र्तव्य एवं दायित्व इस प्रकार है। परिशिष्ट - बी
3. व्यवहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार, गठन, वर्ग के बारे में
मध्यप्रदेश व्यवहार न्यायालय अधिनियम, 1958 के प्रकाश में:-
इस अधिनियम की धारा 2 ए के अनुसार ’’उच्चतर न्यायिक सेवा का संवर्ग’’ अर्थात केडर आफ हायर ज्यूडिशियल सर्विस से तात्पर्य जिला न्यायाधीशों का संवर्ग और उसके अंतर्गत जिला न्यायाधीश तथा अपर जिला न्यायाधीश आते है।
उक्त अधिनियम की धारा 2 बी के अनुसार ’’निम्नतर न्यायिक सेवा का संवर्ग’’ अर्थात केडर आफ लावर ज्यूडिशियल सर्विस से तात्पर्य सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग तथा सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग से गठित होने वाला सिविल न्यायाधीश का संवर्ग आता है।
उक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है की एक केडर उच्चतर न्यायिक सेवा का है और दूसरा केडर निम्नतर न्यायिक सेवा का है प्रथम केडर में सभी जिला जज और अपर जिला जज आते है जबकि द्वितीय केडर में सभी व्यवहार न्यायाधीश या सिविल जज वर्ग 1 और 2 आते है।
उक्त अधिनियम की धारा 2 डी के अनुसार किसी वाद या मूल कार्यवाही के संबंध में ’’मूल्य’’ से तात्पर्य ऐसे वाद या मूल कार्यवाही की विषय वस्तु की रकम या उसका मूल्य है।
4. सिविल न्यायालयों के वर्ग या क्लासेस आफ सिविल कोर्ट
धारा 3 सिविल न्यायालयों के वर्ग (1) तत्समय प्रवर्त किसी अन्य विधि के अधीन स्थापित न्यायालयों के अतिरिक्त सिविल न्यायालयों के निम्न लिखित वर्ग होते है:-
        1. जिला न्यायाधीश का न्यायालय
        2. व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग का न्यायालय
        3. व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग का न्यायालय
धारा 3 (2) के अनुसार जिला न्यायाधीश के प्रत्येक न्यायालय का पीठासीन उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जिला न्यायाधीश होता है और उच्च न्यायालय जिला न्यायाधीश के न्यायालय में अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए उच्चतर न्यायिक सेवा के केडर में से अपर जिला न्यायाधीशों को भी नियुक्त कर सकता है।
धारा 3 (3) के अनुसार सिविल न्यायाधीश के न्यायालय का अपर न्यायाधीश निम्नतर न्यायिक सेवा से नियुक्त किया जा सकता है।
धारा 3 (4) के अनुसार जिला न्यायाधीश के न्यायालय के अंतर्गत अपर जिला न्यायाधीश का न्यायालय भी आता है तथा व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग या व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय के अंतर्गत उस न्यायालय के अपर व्यवहार न्यायाधीश का न्यायालय भी आयेगा।
धारा 4 सिविल जिले (1) राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किया गया कोई राजस्व जिला सिविल जिला भी होगा,
परंतु राज्य सरकार उच्च न्यायालय की सिफारिश पर ऐसे सिविल जिलों की सीमाओं या संख्या में परिवर्तन कर सकेगी या नये सिविल जिले का सृजन या निर्माण कर सकेगी।
धारा 4 (2) के अनुसार उप धारा 1 के अधीन सिविल जिले की सीमाओं या उनकी संख्या में परिवर्तन किये जाने पर या नये सिविल जिले का निर्माण किये जाने पर उच्च न्यायालय वादों अपीलों तथा कार्यवाहियों को वर्तमान जिले के न्यायालयों में से ऐसे अन्य न्यायालय को, जिन्हें ऐसे परिवर्तन या निर्माण के परिणाम स्वरूप क्षेत्रीय अधिकारिता प्राप्त हो गई हो, अंतरित किये जाने के बारे में तथा उनसे संबंधित किसी अन्य विषय के संबंध में ऐसा आदेश कर सकेगा जैसा वह उचित समझे।
वर्तमान में मध्यप्रदेश में 50 सिविल जिले है।
धारा 5 सिविल न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकार:-

ए. प्रत्येक व्यवहार जिले के लिए जिला न्यायाधीश के न्यायालय और
बी. प्रत्येक व्यवहार जिले के लिए अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग और व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के उतने न्यायालयों की स्थापना कर सकेगी जितने उसे उचित प्रतीत हो।
धारा 6 सिविल न्यायालयों की प्रारंभिक अधिकारिता (1) तत्समय प्रवृत किसी अन्य विधि के प्रावधानों के अधीन रहते हुये:-
ए. सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय को दो लाख 50 हजार रूपये तक के किसी भी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं।
बी. सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग को 10 लाख तक के मूल्य के किसी भी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं।
सी. जिला न्यायाधीश के न्यायालयों को मूल्य के संबंध में बिना किसी सीमा के किसी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं।
धारा 6 (2) के अनुसार उप धारा 1 के खण्ड ए और बी में उल्लेखित न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाए वह होगी जिन्हें राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा नियत करे।
धारा 7 प्रारंभिक अधिकारिता का मुख्य सिविल न्यायालय (1) जिला न्यायाधीश का न्यायालय सिविल जिले की प्रारंभिक अधिकारिता का मुख्य सिविल न्यायालय होता हैं।
धारा 7 (2) के अनुसार कोई अपर जिला न्यायाधीश जिला न्यायालय के कृत्यों, जिनमें आरंभिक अधिकारिता वाले प्रधान सिविल न्यायालय के कृत्य भी सम्मिलित है, में से किन्ही भी ऐसे कृत्यों का निर्वाहन करेगा, जो की जिला न्यायाधीश साधारण या विशेष आदेश द्वारा उसे सौपे और ऐसे कृत्यों का निर्वाहन करने में वह उन शक्तियों का प्रयोग करेगा जिनका की प्रयोग जिला न्यायाधीश करते हैं।
धारा 8 अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति (1) जब कभी यह आवश्यक या उचित प्रतीत होता है जिला न्यायाधीश, अपर जिला न्यायाधीश, सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग, सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय के लिए अपर न्यायाधीश या अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति उक्त न्यायालयों में की जा सकेगी और ऐसे अपर न्यायाधीश उस न्यायालय की, जिसमें की उसे नियुक्त किया गया है, अधिकारिता का तथा उस न्यायालय के न्यायाधीशों की शक्तियों का प्रयोग उस प्राधिकारी के जिसके द्वारा उसकी नियुक्ति की गई है, किन्हीं ऐसे साधारण या विशेष आदेशों के अधीन रहते हुये करेगा, जो की वह प्राधिकारी उन वादों जिनका की विचारण, सुनवाई या अवधारण ऐसे अपर न्यायाधीश द्वारा कर सकेगा के वर्ग या मूल्य के संबंध में दे।
धारा 8 (2) के अनुसार किसी अधिकारी को एक या अधिक न्यायालयों का अपर न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकेगा और किसी अधिकारी को, जो किसी एक न्यायालय में है किसी अन्य न्यायालय का अथवा अन्य न्यायालयों का अपर न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकेगा।
धारा 9 कुछ न्यायालयों को लघुवाद न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से विनिहित करने की शक्ति (1) उच्च न्यायालय अधिसूचना द्वारा किसी सिविल न्यायालय में लघुवाद न्यायालय की शक्तिया उस विधि के अधीन निहित कर सकेगा, जो किसी क्षेत्र में लघुवाद न्यायालय के संबंध में उस समय प्रवर्त हो, ऐसी शक्ति का प्रयोग उन मामलों में किया जा सकेगा, जो उस न्यायालय की अधिकारिता की सीमाओं के भीतर या ऐसी सीमाओं के भीतर किसी विशिष्ट क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं।
धारा 9 (2) के अनुसार लघुवाद स्वरूप के व्यवहार वादों का मूल्य जिला न्यायाधीश के न्यायालय की दशा में 1 हजार रूपये, व्यवहार न्यायाधीश वर्ग 1 के न्यायालय की दशा में 5 सौ रूपये और व्यवहार न्यायाधीश वर्ग 2 की दशा में 2 सौ रूपये से अधिक नहीं होगा।
धारा 10 कुछ कार्यवाहियों में सिविल न्यायाधीशों द्वारा जिला न्यायालय के क्षेत्राधिकार का प्रयोग (1) उच्च न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा किसी सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग को संज्ञान लेने और किसी जिला जज के पास लंबित मामले को सिविल जज प्रथम वर्ग को अंतरित करने का आदेश निम्न मामलों के बारे में दे सकता है:-
ए. भाग 1 से 8 के अधीन भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम, 1925
बी. भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम 1925 के भाग 9 के अधीन किसी कार्यवाही जिसका निराकरण जिला प्रत्यायोजन द्वारा नहीं किया जा सकता।
सी. गार्जियन एण्ड वार्ड एक्ट, 1890 या
डी. प्रोविनसियल एनशोलवेंसी एक्ट, 1920
धारा 10 (2) के अनुसार भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम, 1925 की धारा 388 में किसी बात के होते हुये भी उच्च न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा जिला न्यायाधीश की श्रेणी से निम्न के किसी न्यायाधीश को उस अधिनियम के भाग 10 के अधीन जिला न्यायाधीश के अधिकारों का प्रयोग करने की शक्ति दे सकता है।
धारा 10 (3) जिला न्यायाधीश उसके नियंत्रण के किसी सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग द्वारा संज्ञान ली गई या उसे अंतरित ऐसी कार्यवाही को वापस ले सकता है जिनका या तो वह स्वयं निपटारा कर सकता है या किसी सक्षम न्यायालय को अंतरित कर सकता हैं।
धारा 10 (4) के अनुसार इस धारा के अधीन सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग द्वारा संज्ञान ली गई अथवा उसे हस्तांतरित की गई कार्यवाहियों जिला न्यायाधीश के समक्ष कार्यवाहियों को लागू होने वाली विधि और नियमों के अनुसार उसके द्वारा निपटाई जायेगी।
धारा 11 के अनुसार जिला न्यायालय के न्यायाधीश को भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के अधीन किसी मूल कार्यवाही की सुनवाई और निर्णय करने का क्षेत्राधिकार होगा और वह उस सिविल जिले का इस अधिनियम के तहत जिला न्यायालय समझा जायेगा।
धारा 12 सिविल न्यायालयों के बैठने का स्थान (1) प्रत्येक व्यवहार न्यायालय उन स्थानों में बैठेगा, जहां उच्च न्यायालय अधिसूचना द्वारा निर्देशित करे अथवा ऐसे किसी निर्देश के अभाव में उस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर किसी भी स्थान में बैठेगा।
धारा 12 (2) के अनुसार इस अधिनियम के अंतर्गत स्थापित किये गये किसी न्यायालय के प्रत्येक अपर न्यायाधीश उस न्यायालय की जिसके की वे अपर न्यायाधीश है, अधिकारिता के स्थानीय सीमाओं के भीतर ऐसे स्थान या स्थानों पर बैठेगे जैसा उच्च न्यायालय निर्देशित करे।
धारा 12 (3) के अनुसार जिला न्यायाधीश और जिले के अन्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय की पूर्व मंजूरी से और पक्षकारों को सम्यक सूचना देने के पश्चात अस्थायी रूप से किसी विशिष्ट वर्ग के मामलों के सुनवाई के लिए जिले किसी अन्य स्थान पर अस्थायी रूप से बैठ सकेंगे।
धारा 13 अपीलीय क्षेत्राधिकार (1) तत्समय प्रवृत किसी विधि द्वारा अन्यथा उपबंधित स्थिति को छोड़कर मूल क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाले न्यायालयों की डिक्रीयों या आदेशों से अपीले निम्नांकित प्रारंभिक अधिकारिता वाले न्यायालय में होगी:-
ए. व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग या व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग की अज्ञाप्ति या आदेश से जिला न्यायाधीश के न्यायालय में अपील होगी।
बी. जिला न्यायाधीश के न्यायालय की डिक्री या आदेश से उच्च न्यायालय में अपील होगी।
स्पष्टीकरण:- सिविल न्यायाधीश के न्यायालय या जिला न्यायाधीश के न्यायायल के अंतर्गत इस न्यायालय का अपर न्यायाधीश भी आयेगा।
धारा 14 जिले के सिविल न्यायालयों और न्यायाधीशों पर अधिक्षण तथा नियंत्रणः- उच्च न्यायालय के साधारण अधिक्षण तथा नियंत्रण के अधीन रहते हुये जिला न्यायाधीश अपनी अधिकारिता के भीतर के स्थानीय क्षेत्र में इस अधिनियम के अधीन स्थापित किये गये समस्त अन्य सिविल न्यायालयों का तथा ऐसे न्यायालयों में नियुक्त किये गये समस्त अपर न्यायाधीशों के बारे में उसका यह कत्र्तव्य होगा की वह:-
ए. अपने नियंत्रण के अधीन न्यायालयों तथा कार्यालयों की कार्यवाहियों का निरीक्षण करे या निरीक्षण करवाये।
बी. किन्ही मामालों के बारे में ऐसे प्रशासनिक निर्देश दे जैसे वह उचित समझे।
सी. जिले में अधीनस्थ न्यायालयों तथा न्यायाधीशों से ऐसी रिपोर्ट तथा रिटर्न मगाये जो उच्च न्यायालय द्वारा विहित किये जावे या जिनकी प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए उसे अपेक्षा हो।
धारा 15 कार्य विभाजन की शक्ति (1) सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 में या किसी क्षेत्र में तत्समय प्रर्वत लघुवाद न्यायालयों से संबंधित विधि में या इस अधिनियम में अंतरविष्ट किन्ही अन्य उपबंधों में किसी बात के होते हुये भी जिला न्यायाधीश लिखित आदेश द्वारा यह निर्देश दे सकेगा की उसके न्यायालय द्वारा सिविल जिले में धारा 5 के अधीन स्थापित किये गये अन्य सिविल न्यायालयों के अपर न्यायाधीशों के बीच कार्य परस्पर ऐसी रीति में किया जाये, जैसा की वह उचित समझे,
परंतु लघुवाद न्यायालय उसके धन संबंधी अधिकारिता से बाहर कार्य करने के लिए सशक्त नहीं की जा सकेगी।
धारा 15 (2) के अनुसार सक्षम अधिकारिता वाले किसी न्यायालय में संस्थित किसी वाद अपील या कार्यवाही में का कोई भी न्यायिक कार्य केवल इस तथ्य के कारण अविधिमान्य नहीं होगा की ऐसा संस्थित किया जाना उप धारा 1 में निर्दिष्ट किये गये कार्य वितरण आदेश के अनुसार नहीं था।
धारा 15 (3) के अनुसार जब कभी किसी ऐसे न्यायालय को जो कि उप धारा 2 में उल्लेखित है, यह प्रतीत हो की उसके समक्ष लंबित किसी वाद अपील या कार्यवाही का संस्थित किया जाना उप धारा 1 के अधीन किये गये कार्य वितरण आदेश के अनुरूप नहीं था, तो वह ऐसे वाद अपील या कार्यवाही का अभिलेख समूचित आदेश के लिए जिला न्यायालय को प्रस्तुत करेगा तथा उसके संबंध में जिला न्यायाधीश संबंधित अभिलेख का अंतरण या तो कार्य वितरण आदेश के अनुसार समूचित न्यायालय को करते हुये या उसका अंतरण सक्षम अधिकारिता वाले किसी अन्य न्यायालय को करते हुये आदेश पारित कर सकेगा।
धारा 15 (4) के अनुसार उप धारा 1 के अधीन सिविल कार्य का वितरण करते समय जिला न्यायाधीश ऐसे सिद्धां
तो द्वारा मार्गदर्शित होगा जो उच्च न्यायालय द्वारा विहित की जाये।
धारा 15 की इस कार्यवाही को सामान्यतः कार्य विभाजन पत्रक या डिस्ट्रीब्यूशन मेमो कहते है अतः जब भी कोई वाद अपील या अन्य कार्यवाही किसी भी न्यायाधीश के समक्ष प्रथम बार प्रस्तुत हो तो उसे कार्य विभाजन पत्रक के प्रकाश में यह संतुष्टि कर लेना चाहिए की ऐसी कार्यवाही का उसे कार्य विभाजन पत्रक के अनुसार क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
धारा 16 व्यक्तिगत हित वाले प्रकरण का विचारण न करना (1) कोई भी न्यायाधीश किसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही की सुनवाई या निर्णय नहीं करेगा जिसमें वह एक पक्षकार है या जिस कार्यवाही से वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित हैं।
उप धारा (2) के अनुसार जब भी ऐसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही किसी न्यायाधीश के समक्ष आती है तो वह उसकी एक रिपोर्ट मय अभिलेख जिला न्यायाधीश महोदय को भेजेंगे जो या तो उसे स्वयं निपटा सकते है या निपटारे के लिए किसी अन्य न्यायालय को अंतरित कर सकते हैं।
उप धारा (3) के अनुसार यदि जिला न्यायाधीश के समक्ष ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो तो वह इसकी रिपोर्ट माननीय उच्च न्यायालय को करते हैं।
धारा 18 जिला न्यायाधीश के पद पर अस्थायी रिक्ती जहा जिला न्यायाधीश मृत्यु या अवकाश पर होने के कारण या बीमारी या अन्य कारण से अनुपस्थित हो तब वरिष्ठतम जिले के अगले न्यायाधीश को उनके कत्र्तव्य अस्थायी रूप से पालन करने के लिए माननीय उच्च न्यायालय सशक्त कर सकता है।
धारा 19 के अनुसार जिला न्यायाधीश भी जब वह जिले में ही मुख्यालय छोड़कर जा रहे हो तब ऐसी शक्तिया वरिष्ठतम अपर न्यायाधीश या उनके भी न होने पर सिविल न्यायाधीश को प्रत्यायोजित कर सकते हैं।
धारा 21 अवकाश (1) राज्य शासन के अनुमोदन के अधीन रहते हुये उच्च न्यायालय उन दिनों की एक सूची तैयार करेगा जिसके अनुसार उसके अधीन सिविल न्यायालय में प्रति वर्ष अवकाश मनाये जायेंगे।
(2) के अनुसार ऐसी सूची राजपत्र में प्रकाशित की जायेगी।
(3) के अनुसार कोई न्यायिक कार्य केवल इस कारण अमान्य न होगा की वह अवकाश के दिन में कर लिया गया था।
(4) के अनुसार जिला न्यायाधीश अवकाश के दौरान अत्यावश्यक सिविल मामले के निपटारे के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकेगे जैसे वह ठीक समझे।
धारा 22 मुद्रा या सील प्रत्येक व्यवहार न्यायालय ऐसे प्रकार और परिणाम की मुद्रा का जैसा राज्य सरकार विहित करे उसके द्वारा जारी की गई सभी आदेशिकाओं जारी आदेशों और पारित डिक्रीयों में उपयोग करेंगे।
धारा 23 में नियम बनाने की शक्ति आदि दिये गये हैं।
व्यवहार प्रक्रिया संहिता
धारा 3 सी.पी.सी. के अनुसार जिला न्यायालय उच्च न्यायालय के अधीनस्थ है और जिला न्यायालय से अवर या निम्न श्रेणी का सिविल न्यायालय और लघुवाद न्यायालय उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय के अधीनस्थ हैं।
धारा 6 धन संबंधी अधिकारिता अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय किसी बात का प्रभाव ऐसा नहीं होगा की वह किसी न्यायालय को उन वादों पर अधिकारिता दे दे जिनकी रकम या जिनकी विषय वस्तु का मूल्य उसकी मामूली अधिकारिता की धन संबंधी सीमाओं से अधिक है।
धारा 9 के अनुसार न्यायालयों को उन वादों के सिवाये जिनका उनके द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित है सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी।
धारा 12 एवं 15 से 21 ए तथा 26 भी क्षेत्राधिकार के बारे में ध्यान रखे जाने योग्य है।
क्षेत्राधिकार के बारे में और उक्त प्रावधानों के बारे में वैधानिक स्थिति
धारा 9 सी.पी.सी. पर
1. न्याय दृष्टांत कमलकांत गोयल विरूद्ध मेसर्स लूपिन लेबोलेटरीज लिमिटेड, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 2191 में यह प्रतिपादित किया गया है कि:-
1. धारा 84 (4) कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के तहत रजिस्ट्रार आफ कंपनी का यह कत्र्तव्य है कि वह स्वयं एक जांच गठित करे इस संबंध में कंपनी - इश्यू आफ शेयर सर्टीफीकेटस - रूल्स, 1960
में भी प्रावधान हैं।
मामला यह था की वादी यह वाद लेकर आया था की एक बैग जिसमें सभी शेयर सर्टीफीकेट रखे थे और ट्रांसफर डीट भी रखी थी वह गुम गया वादी इस घोषणा का वाद लेकर आया की प्रतिवादी शेयर सर्टीफीकेट किसी अन्य को अंतरित न करे और डूप्लीकेट शेयर सर्टीफीकेट जारी करे ऐसी घोषणा की जावे।
न्याय दृष्टांत श्रीपाल जैन विरूद्ध टोरेंट फर्मा सूटीकल लिमिटेड, 1995 सप्लीमेंट (4) 590 पर भरोसा करते हुये यह प्रतिपादित किया गया की व्यवहार न्यायालय को ऐसा वाद सुनने का अधिकार नहीं हैं क्योंकि कंपनी अधिनियम की धारा 84 (4) और उक्त नियम, 1960 के अनुसार रजिस्ट्रार आफ कंपनी को स्वयं जांच गठित करना चाहिए और उचित आदेश करना चाहिए साथ ही धारा 41 (एच) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अधीन जहां समानतः प्रभावकारी अनुतोष उपलब्ध हो वहां निषेधाज्ञा नहीं देना चाहिए।
2. न्याय दृष्टांत प्रताप सिंह विरूद्ध मंगल खान, 2011 (3) एम.पी.एल.जे. 306 में धारा 185 म.प्र. भू-राजस्व संहिता के प्रावधानों के प्रकाश में यह प्रतिपादित किया गया की वादी एक अधिपति कृषक के रूप में संपत्ति के आधिपत्य में था जिसे वापस पाने के लिए वह वाद लेकर आया था प्रतिवादी ने जमीन पर अतिक्रमण करने का अभिवचन किया था वादी का आधिपत्य नायब तहसीलदार के आदेशानुसार था ऐसे में यह माना गया की वादी का बहतर स्वत्व है और आधिपत्य की पुनः प्राप्ति का उसका वाद चलने योग्य हैं।
3. वादी ने घोषणा का वाद पेश किया जो टेजर ट्रोव एक्ट, 1878 के प्रकाश में चलने योग्य नहीं पाया गया क्योंकि यह अधिनियम एक संपूर्ण संहिता है यदि कलेक्टर ऐसा निर्देश दे कि स्वत्व के निराकरण के लिए पक्षकार व्यवहार न्यायालय जावे तभी व्यवहार वाद प्रचलन योग्य होता है कलेक्टर ने ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया था और जांच करके संपत्ति स्वामी रहित घोषित कर दी थी अतः न्याय दृष्टांत देव कुमार बेन साह विरूद्ध स्टेट आफ म.प्र., 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 146 पर भरोसा करते हुये यह प्रतिपादित किया गया की व्यवहार न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं हैं।
अवलोकनीय न्याय दृष्टांत अजीज उद्दीन कुरेसी विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 978
4. न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन विरूद्ध दीनदयाल शर्मा, 2010 (4) एम.पी.एल.जे. 274 (एस.सी.) में यह प्रतिपादित किया गया था कि सेवा से डिसमिस किये जाने के विवाद के बारे में व्यहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार का प्रश्न - कर्मचारी ने यह अभिकथन किया था कि विभागीय जांच उसके डिसमिसल के आदेश के पूर्व किया जाना चाहिये था, ऐसा अधिकार औद्योगिक विवाद के रूप में उपलब्ध होता है और प्रवर्तित कराया जा सकता है ऐसे मामलों में व्यवहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार नहीं होना पाया गया।
न्याय दृष्टांत चीफ इंजीनियर हायडल प्रोजेक्टर विरूद्ध रविन्द्रनाथ, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1513 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी वर्क चार्ज के आधार पर कर्मचारी था उसके सेवा से निकालने के बारे में विवाद था ऐसा विवाद औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में आयेगा व्यवहार न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं हैं।
           जहां क्षेत्राधिकार संबंधी आपत्ति अपील के स्तर पर उठायी गई हो वहां भी ’’कोरम नान जूडिश’’ का सिद्धांत लागू होगा और जहां मूल डिक्री ही क्षेत्राधिकार के बिना दी गई हो वहां यह तात्विक नहीं है की ऐसी आपत्ति प्रारंभिक स्तर पर क्यों नहीं उठाई गई
        न्याय दृष्टांत मंटू सरकार विरूद्ध आरियनटल इंश्योरेंश कंपनी (2009) 2 एस.सी.सी. 244 में भी इस स्थिति को भी स्पष्ट किया गया है कि जहां वाद की विषय वस्तु और आर्थिक क्षेत्राधिकार के बारे में प्रश्न हो वहां आर्थिक क्षेत्राधिकार न होने पर निर्णय शून्य नहीं होगा जब तब की न्याय की विफलता और विपक्षी के हितों पर प्रतिकूल असर गिरना प्रमाणित न हो जबकि विषय वस्तु का मामला हो तब बिना क्षेत्राधिकार के निर्णय शून्य होगा।
5. न्याय दृष्टांत राघविन्दर सिंह विरूद्ध बेन्त कोर (2011) 1 एस.सी.सी. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि वाद प्रीमेच्योर हो तब भी प्रत्येक मामले में उसका निरस्त किया जाना आवश्यक नहीं होता है क्योंकि यह क्षेत्राधिकार की जड़ तक नहीं जाता है न्यायालय को केवल यह देखना चाहिए की प्रतिवादी को क्या कोई अपूर्णणीय प्रीज्यूडीस हुआ है या उसके साथ अन्याय हुआ हैं।
6. न्याय दृष्टांत राम कन्या बाई विरूद्ध जगदीश, (2011) 7 एस.सी.सी. 452 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि तहसीलदार ने धारा 131 म.प्र. भू-राजस्व संहिता के अंतर्गत किसी वाद का निराकरण किया है तो कोई भी पक्षकार उसके सुखाधिकार स्थापित करने के लिए व्यवहार न्यायालय में जा सकता है व्यवहार न्यायालय को व्यवहार प्रकृति के सभी वादों को सुनने का अधिकार होता है जब तब की उनका संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्छित रूप से वर्जित न किया हो।
7. क्या व्यवहार न्यायालय को खसरों के गलत इंद्राज को सुधारने संबंधी वाद के विचारण की अधिकारिता है ?
नहीं, केवल तहसीलदार ऐसे विवाद को निराकृत कर सकता है यदि वाद चलने योग्य न हो या क्षेत्राधिकार न हो तब वाद को सक्षम न्यायालय में पेश करने के लिए लौटा देना चाहिए अपीलीय या रीविजन न्यायालय भी ऐसा कर सकती हैं। इस संबंध में अवलोकनीय न्याय दृष्टांत भगवान दास विरूद्ध श्रीराम, 2010 वाल्यूम 2 एम.पी.जे.आर. 26
8. क्या वक्फ ट्रीब्यूनल किसी किरायेदार के निष्कासन संबंधी वाद /विवाद के लिए सक्षम हो ?
नहीं, ऐसे वाद केवल व्यवहार न्यायालय में ही पेश किये जा सकते हैं अवलोकनीय न्याय दृष्टांत रमेश गोर्वधन विरूद्ध सुगरा हुमायू मिर्जा वक्फ (2010) 8 एस.सी.सी. 726
9. न्याय दृष्टांत लालजी विरूद्ध सीताराम, 2009 (1) एम.पी.जे.आर. 149 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी का मामला यह है कि प्रतिवादीगण ने अवैध रूप से और अप्राधिकृत तरीके से प्रतिकर की राशि प्राप्त कर ली है जो की शासन द्वारा भूमि के अधिग्रहण के कारण दी गई थी इस मामले में धारा 18 एवं 29 भूमि अधिग्रहण अधिनियम पर विचार करते हुये यह निष्कर्ष दिया की ऐसा वाद चलने योग्य है क्योंकि इसमें अधिग्रहण को चुनौती नहीं दी गई है।
लेकिन न्याय दृष्टांत देवकुमार बेन साह विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी, 2005 (3) जे.एल.जे. 286 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 6 भू-अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की अधिसूचना को चुनौती देने का वाद चलने योग्य नहीं होता है।
10. जहां दो न्यायालयों को किसी विषय वस्तु पर समवर्ति क्षेत्राधिकार हो वहां पक्षकार अनुबंध द्वारा किसी एक न्यायालय को क्षेत्राधिकार रहेगा ऐसा तय कर सकते है और दूसरे न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं होगा ऐसा तय कर सकते हैं यह लोक नीति के विरूद्ध नहीं है इस संबंध में न्याय दृष्टांत फिटजी लिमिटेड विरूद्ध संदीप गुप्ता, 2006 (4) एम.पी.एल.जे. 518 अवलोकनीय हैं।
लेकिन न्याय दृष्टांत श्री शुभ लक्ष्मी फेब्रिक्स प्राईवेट लिमिटेड विरूद्ध चांदमल (2005) 10 एस.सी.सी. 704 में यह प्रतिपादित किया है कि जिस न्यायालय को क्षेत्राधिकार ही न हो पक्षकार अनुबंध करके उस न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं दे सकते हैं।
11. न्याय दृष्टांत द्वारका प्रसाद अग्रवाल विरूद्ध रमेश चन्द्र, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 2696 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो कोई क्षेत्राधिकार संबंधी आपत्ति उठाता है उसको प्रमाणित करने का भार उसी पर होता हैं।
12. न्याय दृष्टांत सोपान सुखदेव साबले विरूद्ध असिस्टेण्ट चरेटी कमीश्नर, (2004) 3 एस.सी.सी. 137 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि वादी ऐसे अनुतोष को जो न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर का हो उसे कम करना चाहता हो तो उसे इसकी अनुमति दी जा सकती हैं।
13. न्याय दृष्टांत स्वामी आत्मानंद विरूद्ध श्रीरामकृष्ण तपोवनम्, (2005) 10 एस.सी.सी. 51 में न्याय दृष्टांत धूलाबाई विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., (1968) 3 एस.सी.आर. 662 पर विचार किया गया है जो धारा 9 सी.पी.सी. में व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाधित होने के बारे में एक महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत है जिसमें सारी वैधानिक स्थिति स्पष्ट होती हैं साथ ही न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट रोड ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन विरूद्ध बालमुकुंद (2009) 4 एस.सी.सी. 299 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ भी अवलोकनीय हैं।
14. न्याय दृष्टांत देव श्याम विरूद्ध पी. सविता रम्मा (2005) 7 एस.सी.सी. 653 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि अंतरनिहित क्षेत्राधिकार के अभाव में कोई आदेश पारित किया गया है तो वह शून्य होता हैं।
14ए. किसी स्वामी के जीवन काल में उसके संभाव्य उत्तराधिकारियों को संपत्ति में कोई स्वत्व या अधिकार नहीं होते है संपत्ति के स्वामी ने संपत्ति विक्रय की और उस विक्रय व्यवहार को अपने जीवन काल में चुनौती नहीं दी अपीलार्थी को उस व्यवहार को चुनौती देना का अधिकारी नहीं माना गया अवलोकनीय न्याय दृष्टांत बिपता बाई विरूद्ध श्रीमती क्षिप्रा बाई, आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 1402
14बी. सहकारी भूमि विकास बैंक अधिनियम, 1966 (म.प्र.) की धारा 27, 64 और 82 अपीलार्थी ने बैंक से एन.ओ.सी. प्राप्त करके भूमि खरीदी अपीलार्थी को सूचना पत्र दिये बिना उसी भूमि को किसी अन्य व्यक्तियों के बकाया के लिए कुर्क किया गया चाहे सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार वर्जित किया गया हो फिर भी सिविल न्यायालय को यह अधिकार है कि वह अधिनियम के प्रावधानों की पालना की गई है या नहीं और न्यायिक प्रक्रिया की मूलभूत सिद्धांतों का पालन किया है या नहीं यह देखे वाद चलने योग्य पाया गया न्याय दृष्टांत सीताराम विरूद्ध कापरेटिव भूमि विकास बैंक, आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 1707 अवलोकनीय हैं।
14सी. न्याय दृष्टांत विमला बाई विरूद्ध बोर्ड आफ रेव्यनू, (1) एम.पी.जे.आर. 321 भी भूमि स्वामी के अधिकारों के बारे में सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार के संबंध में महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत हैं।
14डी. न्याय दृष्टांत अब्दुल गफूर विरूद्ध स्टेट आफ उत्तराखण्ड, 2008 (10) एस.सी.सी. 97 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां बहस के योग्य प्रश्न हो वहां न्यायालय को कारण लिखे बिना वाद को संक्षिप्त से निरस्त नहीं करना चाहिए।
अन्य प्रावधानों पर
15. वादी और प्रतिवादी में संविदा हुई जिसमें अनुच्छेद 9 में यह शर्त थी कि ’’आल डिस्प्यूट शैल बी सबजेक्ट टू सतना कोर्ट’’ जबलपुर में कुछ वाद कारण उत्पन्न हुआ वादी ने जबलपुर में वाद पेश किया वादी ने केवल सतना न्यायालय को ही क्षेत्राधिकार रहेगा ऐसी सहमति नहीं दी थी अतः जबलपुर में प्रस्तुत वाद चलने योग्य पाया गया न्याय दृष्टांत रजिस्ट्रार महात्मा गाधी चित्रकूट विरूद्ध एम.सी. मोदी, आई.एल.आर. 2007 एम.पी. 1851 अवलोकनीय हैं।
न्याय दृष्टांत लाइफ केयर इंटरनेशनल विरूद्ध महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 175 में भी आउसटर आफ ज्यूरिडिक्शन को स्पष्ट किया है जिसके तहत शब्द आनली, एलान, एक्सक्लूजिव जैसे कोई शब्द अनुबंध के आउसटर क्लाज में काम में नहीं लिये गये है केवल ’’एग्रीमेंट शैल बी सबजेक्ट टू ज्यूरीडिक्शन आफ कोर्ट एट बाम्बे’’ लिखा हुआ था न्यायालय के क्षेत्राधिकार को अपवर्जित करने का आशय स्पष्ट असंदिग्ध और विनिर्दिष्ट रूप से होना चाहिए और ऐसे कोई शब्द जैसे आनली, एलान, एक्सक्लूजिव काम में नहीं लिये गये हैं इंदौर न्यायालय को क्षेत्राधिकार माना गया।
न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड विरूद्ध यूनीवरशल पेट्रोल केमीकल्स (2009) 3 एस.सी.सी. 107 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के मामले में अनुबंध द्वारा यदि किसी एक न्यायालय के बारे में क्षेत्राधिकार होना सीमित कर लिया जाता है तो वह वेध और बंधनकारी है और यह आरबीटेªशन के मामले में भी लागू होता हैं।
16. न्याय दृष्टांत लक्ष्मण प्रसाद विरूद्ध प्रोडिजी इलेक्ट्रोनिक्स (2008) 1 एस.सी.सी. 618 में यह प्रतिपादित किया गया है कि हागकोंग की कंपनी और उसके कर्मचारी के बीच हागकोंग में एक संविदा निष्पादित हुआ जिसके अनुसार संविदा को हागकोंग के कानून के अनुसार अर्थ लगाया जायेगा। ऐसी शर्त व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार को वर्जित नहीं करती हैं वाद कारण जहां उत्पन्न हुआ वहां वाद चलने योग्य हैं।
17. जहां सेवा में कमी हुई हो या उपेक्षा हुई हो या सुविधा में कमी हुई हो तभी सेवा प्रदाता के विरूद्ध वाद कारण उत्पन्न होता है उपभोगता फोरम और स्थायी लोक अदालत केवल असुविधा या हार्डशिप या सिमपेथी के आधार पर प्रतिकर नहीं दिला सकते क्योंकि कारण ऐसा था जो सेवा प्रदाता के नियंत्रण के बाहर था और उसने सद्भावना पूर्वक कार्य किया था इस संबंध न्याय दृष्टांत इंटर ग्लोबल एवीएशन लिमिटेड विरूद्ध एन. सचिदानन्द (2011) 7 एस.सी.सी. 463 अवलोकनीय हैं।
18. न्याय दृष्टांत रूचि माजू विरूद्ध संजीव माजू, (2011) 6 एस.सी.सी. 479 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गार्जियन एण्ड वार्ड एक्ट, 1890 धारा 9 (1) के तहत प्रादेशिक क्षेत्राधिकार उस स्थान पर होता है जहां अवयस्क सधारणतया रहता है रेसीडेंस का तात्पर्य किसी फ्लाईंग विजिट या केजूवल स्टे से अधिक होता है इस मामले में क्षेत्राधिकार के निर्धारण का परीक्षण बतलाया गया
19. न्याय दृष्टांत मेसर्स अर्जना साड़ी प्रोपराइटर जुगल किशोर विरूद्ध एम.पी. हेण्डीक्राफ्ट एण्ड हेण्डलूम डवलपमेंट कार्पोरेशन, 2010 (5) एम.पी.एच.टी. 443 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद कारण और प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के लिए सभी आवश्यक, तात्विक, इंटीग्रल तथ्य निश्चित कर लेना चाहिए जब तब ये तत्व किसी स्थान पर न हो वाद कारण उत्पन्न होना इंफर नहीं किया जा सकता।
20. न्याय दृष्टांत ए.के. लक्ष्मीपति विरूद्ध राव साहब अन्ना लाल एच. लाहोटी चेरीटेबल ट्रस्ट (2010) 1 एस.सी.सी. 287 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी चेरीटेबल या धार्मिक ट्रस्ट से संबंधित संपत्ति के अंतरण के मामले में प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के बारे में लागू होने वाली विधि वह होगी जहां चेरीटेबल ट्रस्ट का मुख्यालय पंजीकृत हो।
21. न्याय दृष्टांत श्री जयराम एजूकेशनल ट्रस्ट विरूद्ध ए.जी. सैयद मोहिद्दीन, (2010) 2 एस.सी.सी. 513 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद जो धारा 92 सी.पी.सी. के तहत प्रस्तुत किया गया हो वहां मूल क्षेत्राधिकार की आरंभिक आधिकारिता वाली प्रधान सिविल न्यायालय वाली या राज्य सरकार द्वारा सशक्त किसी अन्य न्यायालय को क्षेत्राधिकार होगा जिसमें कोई आर्थिक लिमिट नहीं है धारा 92 सी.पी.सी. के मामलों में धारा 15 से 20 सी.पी.सी. के प्रावधान भी लागू नहीं होंगे।
22. क्या धारा 34 माध्यस्थ एवं सुलह अधिनियम का आवेदन अपर जिला जज के न्यायालय में चलने योग्य है ?
धारा 7 (2) म.प्र. सिविल कोर्ट एक्ट के तहत अपर जिला जज, जिला जज की समस्त शक्तिया प्रयोग कर सकता हैं अतः आवेदन चलने योग्य हैं न्याय दृष्टांत म.प्र. एस.ई.बी. विरूद्ध अनसालदू एनरजीया एस.पी.ए., ए.आई.आर. 2008 एम.पी. 328 अवलोकनीय हैं साथ ही न्याय दृष्टांत प्रताप सिंह हारडीया विरूद्ध संजीव चावरेकर, 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 477 डी.बी. भी इसी संबंध में है।
न्याय दृष्टांत एन.के. सक्सेना विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2008 (2) एम.पी.एच.टी. 365 डी.बी.
में भी यह स्पष्ट किया गया है कि केवल धारा 24 सी.पी.सी. में अपर जिला जज को जिला जज के अधीनस्थ बतलाया गया है अन्यथा 1982 से अपर जिला जज वे शक्तिया प्रयोग कर रहे है जो जिला जज करते हैं।
23. न्याय दृष्टांत दुर्गश चैरसिया विरूद्ध प्रकाश कुशवाहा, 2010 (2) एम.पी.एच.टी. 369 डी.बी. में दोनों पक्षों ने उनकी साक्ष्य दे दी थी विचारण पूर्ण हो चुका था केवल अंतिम तर्क होना था और निर्णय होना था विचारण न्यायालय ने वाद आर्थिक क्षेत्राधिकार न होने से लौटाया ऐसे लौटाने का परिणाम पुनः विचारण होगा आदेश अपास्त किया गया और विचारण न्यायालय को यह निर्देशित किया गया कि वह मामले को धारा 15 (3) एम.पी. सिविल कोर्ट, 1958 के तहत जिला जज को उचित आदेश के लिए भेजे।
धारा 15 (3) म.प्र. सिविल कोर्ट एक्ट के अनुसार ऐसे मामले में जिला जज उचित आदेश कर सकते है।
24. न्याय दृष्टांत हरसद चिमन लाल विरूद्ध डी.एफ.एल. (2005) 7 एस.सी.सी. 791 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 20 धारा 15 से 19 की शर्तो के अधीन है सहमति या अधित्याजन या मोन स्वीकृति यदि न हो तो वह क्षेत्राधिकार प्रदान नहीं कर सकती है।
25. न्याय दृष्टांत राम बोहारी विरूद्ध टाटा फायनेंश, 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है की संपत्ति गलत तरीके से ली गई यह एक दुष्कृत्य है सिविल न्यायालय को ऐसे मामले में क्षेत्राधिकार है प्रतिवादी कंपनी ने ट्रक को अवैधानिक तरीके से जब्त किया क्योंकि मासिक किस्त में चूक हुर्ह थी व्यवहार वाद चलने योग्य पाया गया।
26. यदि वाद आदेश 9 नियम 1 और 2 सी.पी.सी. के तहत अनुपस्थिति में खारीज हो जाता है तब उसी वाद कारण पर नया वाद धारा 12 सी.पी.सी. के प्रकाश में चलने योग्य नहीं होता न्याय दृष्टांत गोविन्द दास विरूद्ध विक्रम सिंह, 2006 (3) एम.पी.जे.आर. 56 अवलोकनीय हैं।
27. न्याय दृष्टांत बिट्ठल भाई विरूद्ध यूनियन बैंक, (2005) 4 एस.सी.सी. 315 में अपरिपक्व शूट के बारे में स्थिति स्पष्ट की गई हैं।
28. न्याय दृष्टांत कुसुम इनगोटस् एण्ड अलायस विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया, (2004) 6 एस.सी.सी. 254 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद कारण वाद लाने के अधिकार को दर्शाता है हर क्रिया कोर्स आफ एक्शन पर आधारित होती हैं मामले में वाद कारण को स्पष्ट किया गया।
29. न्याय दृष्टांत मोदी इंटरटेनमेंट नेटवर्क विरूद्ध डब्ल्यू.एस.जी. क्रिकेट प्राईवेट लिमिटेड (2003) 4 एस.सी.सी. 341 में भी व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार और एण्टीसूट इंजेक्शन को स्पष्ट किया गया हैं।
                        ज्योत्री

1 comment:

  1. बहुत ही महात्‍वपूर्ण जानकारी है। बहुत-बहुत धन्‍यवाद

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