Thursday, 29 May 2014

अभिवचनों का संशोधन आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी



अभिवचनों का संशोधन आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी


विचारण न्यायालयों में प्रायः कुछ अंतरवर्ती आवेदन सिविल प्रकरणों में अधिकतर प्रस्तुत होते है उनमें एक अभिवचनों में संशोधन बावत् आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी. के तहत प्रस्तुत होता है। यह आवेदन कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर पेश किया जाता है व इस आवेदन को स्वीकार करने या अस्वीकार करने बावत् प्रश्न प्रत्येक न्यायाधीश के समक्ष उत्पन्न होता है। यहां हम इसी आवेदन के निराकरण में ध्यान रखे जाने योग्य वैधानिक स्थितियों पर विचार करेंगे।

आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी. इस प्रकार है:-

न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम पर, किसी भी पक्षकार को, ऐसी रीति से और ऐसे निबंधनों पर, जो न्याय संगत हो अपने अभिवचनों के परिवर्तित या संशोधित करने के लिये अनुज्ञात कर सकेगा और वे सभी संशोधन किये जायेंगे जो दोनों पक्षकारों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्न के अवधारण के प्रयोजन के लिए आवश्यक हो:

परंतु विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् संशोधन के लिए किसी आवेदन को तब तक अनुज्ञात नहीं किया जायेगा जब तक की न्यायालय इस निर्णय पर न पहुंचे कि सम्यक तत्परता बरतने पर भी वह पक्षकार, विचारण प्रारंभ होने से पूर्व वह विषय नहीं उठा सका था।

इस प्रकार आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी. का अवलोकन करे तो यह स्पष्ट होता है कि यह प्रावधान आंशिक रूप से आज्ञापक और आंशिक रूप से विवेकाधिकार पर आधारित है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत राजेश कुमार अग्रवाल विरूद्ध के.के. मोदी, ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 1647 में भी यह बतलाया है कि यह प्रावधान आंशिक रूप से आज्ञापक व आंशिक रूप से वैवेकीय है।

वर्ष 2002 में संशोधन करके इस प्रावधान में एक परंतुक जोड़ा गया है जिसके प्रकाश में विचारण प्रारंभ होने के पूर्व यदि संशोधन आवेदन पेश होता है तो उसे न्याय दृष्टांत राज कुमार विरूद्ध मेसर्स एस.के. स्वर्गी एण्ड कंपनी, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2303 से मार्गदर्शन लेकर उदारतापूर्वक स्वीकार करना चाहिये। इस न्याय दृष्टांत में यह कहां गया है कि ऐसे संशोधन जो विचारण प्रारंभ होने के पूर्व चाहे जाये उन्हें विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् के संशोधनों की अपेक्षा उदारतापूर्वक स्वीकार करना चाहिये।

धारा 153 सी.पी.सी. के प्रावधान भी ध्यान में रखना चाहिये जिसके अनुसार, न्यायालय किसी भी समय और खर्च संबंधी ऐसी शर्तो पर या अन्यथा जो वह ठीक समझे वाद के किसी भी कार्यवाही में की किसी भी त्रुटि या गलती को संशोधित कर सकेगा, और ऐसी कार्यवाही द्वारा उठाये गये या उस पर अवलंबित वास्तविक प्रश्न या विवाद्यक के अवधारण के प्रयोजन के लिये सभी आवश्यक संशोधन किये जायेंगे।

लिखित आवेदन व शपथ पत्र की आवश्यकता:-    संशोधन के लिये किसी पक्षकार का लिखित आवेदन होना आवश्यक है न्यायालय स्वप्रेरणा से अभिवचनों को संशोधित नहीं कर सकता हैं। न्याय दृष्टांत सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया, ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 3353 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने यह भी प्रतिपादित किया है कि संशोधन आवेदन के साथ शपथ पत्र आवश्यक है यह शपथ पत्र शपथकर्ता पर एक अतिरिक्त दायित्व डालता है कि आवेदन में कहे गये तथ्य सत्य है।

न्यायालय किसी पक्ष को ऐसे निर्देश नहीं दे सकती कि न्यायालय की इच्छानुसार वह उसके अभिवचनों को संशोधित करे इस संबंध में न्याय दृष्टांत सीताराम विरूद्ध दामोदर प्रसाद, 1994 (1) डब्ल्यू.एन. 76 अवलोकनीय हैं।

इस तरह अभिवचनों में संशोधन के लिये एक लिखित आवेदन और समर्थन में शपथ पत्र होना आवश्यक होता हैं।

एक बार संशोधन स्वीकार हो जाने के बाद वह पक्ष उसे विड्रा नहीं कर सकता उसे आदेश का पालन करना होगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजपाल विरूद्ध जगदीश, 1996 (2) डब्ल्यू.एन. 10 अवलोकनीय हैं।

कोई पक्षकार स्वयं के अभिवचनों में संशोधन कर सकता है विपक्षी के अभिवचनों में संशोधन नहीं कर सकता है।

संशोधन संबंधी सामान्य सिद्धांत

1. न्याय दृष्टांत रेवाजीतू बिल्डर्स एण्ड डव्लपर्स विरूद्ध मेसर्स नारायण स्वामी, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2897 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने संशोधन आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करते समय ध्यान रखने योग्य सिद्धांत बतलाये है जो इस प्रकार है:-

1. क्या चाहा गया संशोधन प्रकरण के उचित व प्रभावी निराकरण के लिये आवश्यक है।

2. क्या संशोधन आवेदन सद्भावनापूर्ण है या दुर्भावनापूर्ण है।

3. संशोधन ऐसा नहीं होना चाहिये जो दूसरे पक्ष के हितों पर ऐसा प्रतिकूल प्रभाव डाले जिसकी पूर्ति प्रतिकर दिलाकर भी नहीं की जा सकती हो।

4. क्या संशोधन अस्वीकार करे तो इससे लिटिगेशन बढ़ेगा या अन्याय होगा।

5. क्या प्रस्तावित संशोधन मामले की प्रकृति और चरित्र को मूलभूत या संवैधानिक रूप से बदलता है।

6. यह एक सामान्य नियम है कि न्यायालय ऐसे संशोधन स्वीकार नहीं करते है जो संशोधन के आवेदन दिनांक पर अवधि बाधित होते है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसी मामले में यह भी कहां है कि ये कुछ महत्वपूर्ण कारक है जो उदाहरण स्वरूप है परिपूर्ण नहीं है, इनको संशोधन आवेदन के निराकरण के समय मस्तिष्क में रखना चाहिये।

न्याय दृष्टांत पीरगोंडा एच. पाटिल विरूद्ध काला गोंडा एस. पाटिल, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 363 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है कि:-

1. ऐसे सभी संशोधन स्वीकार किये जाना चाहिये जो पक्षकारों में उत्पन्न वास्तविक विवाद के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये आवश्यक हो।

2. जिससे अन्य पक्ष के साथ अन्याय न होता हो।

ऐसे संशोधन अस्वीकार करना चाहिये यदि उनसे विपक्षी को उसी अवस्था में न रखा जा सकता हो जहां वह पहले था और प्रतिकारात्मक खर्च दिलाकर भी क्षति की पूर्ति न की जा सकती हो।

यह एक सामान्य नियम है कि ऐसा संशोधन जो अवधि बाधित हो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिये।

अंततः विचारणीय परीक्षण यही है कि क्या संशोधन विपक्षी के साथ अन्याय किये बिना स्वीकार किया जा सकता है या नहीं।

न्याय दृष्टांत पंजाब नेशनल बैंक विरूद्ध इंडियन बैंक (2003) 6 एस.सी.सी. 79 भी इस संबंध में अवलोकनीय हैं।

2. लिखित कथन में संशोधन:- न्यायालय को वाद पत्र की तुलना में लिखित कथन में संशोधन की अनुमति देते समय अधिक उदार रहना चाहिये जैसा कि न्याय दृष्टांत सुशील कुमार विरूद्ध मनोज कुमार, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 2544 में प्रतिपादित किया गया है।

न्याय दृष्टांत उषा बाला साहेब स्वामी विरूद्ध किरण ए. स्वामी, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 1663 में भी कहां गया है कि वाद पत्र के संशोधन और लिखित कथन के संशोधन दोनों की प्रार्थना मंे अंतर होता है लिखित कथन के संशोधन के समय न्यायालय को अधिक उदार रहना चाहिये प्रतिवादी वैकल्पिक बचाव, अतिरिक्त बचाव ले सकता है वाद की प्रकृति में परिवर्तन वाद पत्र के संशोधन के समय ध्यान रखना होता है।

न्याय दृष्टांत सुशील कुमार विरूद्ध एम.पी. राज्य सहकारी बैंक, आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2238 भी अवलोकनीय हैं।

न्याय दृष्टांत आंध्रा बैंक विरूद्ध ए.बी.एन. अमरो बैंक एन.व्ही., ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 2511 के अनुसार प्रतिवादी नया बचाव ले सकता हैं।

न्याय दृष्टांत विमल चंद जैन विरूद्ध रमाकांत जाजू, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 1550 के अनुसार यह स्थापित विधि है कि प्रतिवादी वैकल्पिक बचाव ले सकता है लेकिन संशोधन द्वारा ऐसे बचाव लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती जो एक दूसरे को नष्ट करने वाले हो।

न्याय दृष्टांत अरविन्द कुमार विरूद्ध निमाड़ वनिता विश्व खण्डवा, 2004 (3) एम.पी.जे.आर. 176 के अनुसार वैकल्पिक /असंगत बचाव संशोधन के माध्यम से लिये जा सकते है लेकिन यदि वे दूसरे पक्ष के हितों को गंभीर रूप से प्रभावित करते हो तब न्यायालय ऐसे संशोधन अस्वीकार कर सकता हैं।

न्याय दृष्टांत ट्रांस मेरिन कार्पोरेशन विरूद्ध जेनसर टेक्नोलाॅजीसा लिमिटेड, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2552 के मामले में निष्कासन के वाद में मकान मालिक किराये दार के संबंध स्वीकार किये गये किरायेदार पश्चात्वर्ती प्रक्रम पर स्वत्व को चुनौती नहीं दे सकता स्वत्व को चुनौती देने वाला ऐसा संशोधन आवेदन स्वीकार नहीं करना चाहिये।

न्याय दृष्टांत श्रीमती सुशीला बाई विरूद्ध खलील अहमद, 2011 (3) एम.पी.एच.टी. 387 के मामले में प्रतिवादी ने लिखित कथन देने के बाद कांउटर क्लेम जोड़ना चाहा था जिस प्रार्थना को अस्वीकार किया गया था।

न्याय दृष्टांत बोल्ले पाण्डा पी. पोनाछा विरूद्ध के.एम. माण्डप्पा, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2003 के मामले में वादी ने स्वत्व घोषणा और आधिपत्य का वाद पेश किया प्रतिवादी ने लिखित कथन दिया बाद में संशोधन द्वारा आधिपत्य की पुनः प्राप्ति का काउंटर क्लेम जोड़ना चाहा उसका मामला था कि वादी ने बाद में अतिक्रमण कर लिया यह अभिमत दिया गया कि काउंटर क्लेम का वाद कारण लिखित कथन पेश करने के पूर्व उत्पन्न होना नहीं कहां जा सकता ऐसा काउंटर क्लेम चलने योग्य नहीं होने से संशोधन अस्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत गौतम स्वरूप विरूद्ध लीला जेटली, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 363 के मामले में वादी उसके पिता द्वारा की गई वसियत के आधार पर संपत्ति में उसका आधा हिस्सा है ऐसा मामला लेकर आया था प्रतिवादी ने लिखित कथन में विल के निष्पादन से इंकार नहीं किया गया था और वादी का पूरा मामला स्वीकार कर लिया था।

प्रतिवादी ने दूसरा लिखित कथन पेश करने की अनुमति का आवेदन दिया जो निरस्त किया गया प्रतिवादी ने लिखित कथन में संशोधन का आवेदन स्वीकारोक्ति के स्पष्टीकरण के बावत् दिया जो अस्वीकार किया गया प्रतिवादी का पक्ष यह था कि उसने कोई अभिभाषक नियुक्त नहीं किये लिखित कथन नहीं दिया लिखित कथन पर उसके हस्ताक्षर नहीं है।

न्याय दृष्टांत दिलीप भारती विरूद्ध श्रीमती मीरा बाई, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 406 डी.बी. के मामले में प्रतिवादी ने पूरे लिखित कथन को रिप्लेस करने का आवेदन दिया उसका पक्ष था कि उसके अभिभाषक ने उसके ज्ञान में लाये बिना लिखित कथन दिया है यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रतिवादी ने उसके साथ कपट होने के बारे में कोई आक्षेप नहीं लगाये है लिखित कथन के प्रत्येक पृष्ठ पर उसके हस्ताक्षर है प्रतिवादी उसके द्वारा की गई स्वीकारोक्ति वापस नहीं ले सकता।

3. विलंब:- न्याय दृष्टांत देल्ही डव्लपमेंट अथार्टी विरूद्ध एस.एस. अग्रवाल, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 3265 में यह प्रतिपादित किया गया है विलंब पर विचार किये बिना संशोधन आवेदन स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये।

न्याय दृष्टांत गायत्री विमन्स वेलफेयर एशोसिएशन विरूद्ध गोवरम्मा, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 785 में अपील के प्रक्रम पर प्रतिवादी ने लिखित कथन में प्रतिदावा आधिपत्य के अनुतोष हेतु जोड़ने की प्रार्थना संशोधन आवेदन के माध्यम से की थी।

वादी का आधिपत्य लंबे समय से स्थापित व अबाधित था उसके पक्ष में स्थायी व्यादेश की आज्ञप्ति थी संशोधन आवेदन विलंब से देने का कारण भी नहीं बताया था संशोधन अस्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत महावीर प्रसाद विरूद्ध रतन लाल, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2117 में विभाजन के वाद में प्रारंभ डिक्री पारित होने के 21 वर्ष बाद संशोधन आवेदन दिया जो अस्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत श्रीमती आमना बेगम विरूद्ध श्रीमती सुशीला बाई, ए.आई.आर. 2010 एम.पी. 141 डी.बी. के मामले में वादी का प्रमाण पूर्ण हो जाने के बाद प्रतिवादी ने लिखित कथन में संशोधन चाहा तथ्य पश्चातवर्ती घटना से संबंधित भी नहीं था विलंब का कारण भी नहीं दिया गया था संशोधन अस्वीकार करना उचित माना गया।

न्याय दृष्टांत सुरेन्द्र कुमार शर्मा विरूद्ध माखन सिंह, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2671 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है विलंब अपने आप में संशोधन आवेदन को अस्वीकार करने का पर्याप्त आधार नहीं है न्यायालय को यह देखना चाहिये कि क्या ऐसा संशोधन पक्षकारों में उत्पन्न वास्तविक विवाद का समाधान कर सकता है। क्या विरोधी पक्षकार को प्रतिकारात्मक खर्च दिलाकर कम्पनसेट किया जा सकता है। न्याय दृष्टांत साउथ कोंकण डिस्टलरी विरूद्ध प्रभाकर गजानंद नायक, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1177 के मामले में भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह प्रतिपादित किया है कि ऐसा कोई आत्यांतिक नियम नहीं है कि जहां संशोधन द्वारा चाहा गया अनुतोष परिसीमा अवधि द्वारा बाधित हो ऐसे प्रत्येक मामले में संशोधन अस्वीकार ही करना चाहिये जहां संशोधन से न्याय के उद्देश्य की पूर्ति हो रही हो और आगामी लिटिगेशन रोका जा सकता हो वहां ऐसा संशोधन भी स्वीकार करना चाहिये।

न्याय दृष्टांत नार्थ इस्टर्न रेल्वे एडमिनिशटेशन विरूद्ध भगवान दास, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2139 में यह प्रतिपादित किया है कि यदि संशोधन पक्षकारों में उत्पन्न विवाद के निराकरण के लिये आवश्यक हो और विपक्षी के साथ अन्याय पूर्ण न हो तब अपील के प्रक्रम पर भी स्वीकार किया जा सकता हैं।

न्याय दृष्टांत हसमत राई विरूद्ध रघूराथ, ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 1711 में म.प्र. स्थान नियंत्रण के मामले में द्वितीय अपील में संशोधन पश्चातवर्ती घटना पर आधारित होने से जोड़ा गया था।

न्याय दृष्टांत उक्त राजकुमार विरूद्ध मेसर्स एस.के. स्वर्गी, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2303 के मामले में अंतिम तर्क के प्रक्रम पर संशोधन चाहा गया था जबकि तथ्य पूर्व से पक्षकार के ज्ञान में थे ऐसा संशोधन अस्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत उक्त चंन्द्रकांत विरूद्ध राजेन्द्र सिंह, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2234 के मामले में प्रतिवादी ने आज्ञापक व्यादेश के प्रकरण में प्रमाण समाप्त होने के बाद विभाजन अनुबंध के बारे में संशोधन और उसे पेश करने का अनुतोष चाहा प्रतिवादी ने उसके प्रमाण में विभाजन अनुबंध के बारे में कुछ नहीं कहां था संशोधन में विलंब का कारण भी नहीं दर्शाया था ऐसा संशोधन अस्वीकार किया गया।

4. गुणदोष पर विचार:- न्याय दृष्टांत उक्त राजेश कुमार अग्रवाल विरूद्ध के.के. मोदी, ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 1674 में यह प्रतिपादित किया गया है कि संशोधन स्वीकार करते समय उसके गुणदोष पर विचार नहीं करना चाहिये यही विधि उक्त न्याय दृष्टांत आंध्रा बैंक विरूद्ध ए.बी.एन. अमरो बैंक, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 2511 में भी प्रतिपादित की गई है इन दोनों मामलों में यह कहां गया है कि मुख्य विचार केवल यह करना चाहिये कि क्या संशोधन वास्तविक विवाद के निराकरण में आवश्यक है या नहीं।

न्याय दृष्टांत उषा देवी विरूद्ध रिजवान अहमद, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1147 में भी यही विधि प्रतिपातिदत की गई है कि संशोधन आवेदन पर विचार करते समय उसके गुणदोष विचार योग्य तथ्य नहीं होते है।

न्याय दृष्टांत उमा गुप्ता विरूद्ध सुशीला, 1989 जे.एल.जे. 617 के अनुसार संशोधन की सत्यता व असत्यता पर या गुणदोष पर आवेदन पर विचार करते समय विचार नहीं करना चाहिये।

5. अवधि बाधित संशोधन:- न्याय दृष्टांत वन विभाग कर्मचारी गृह निर्माण सहकारी संस्था मर्यादित विरूद्ध रमेश चंद, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 41 में एक घोषणा और निषेधाज्ञा के वाद में अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन का दावा करने में वादी ने लोप किया यह माना जायेंगा की वादी ने वह दावा त्याग दिया है 11 वर्ष बाद संशोधन आवेदन पेश करके अनुबंध पालन का दावा जोड़ना चाहा ऐसा संशोधन स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 54 के अनुसार अवधि बाधित हो चुका है।

न्याय दृष्टांत के. राहेजा कंस्टेªक्शन लिमिटेड विरूद्ध एलीयंस मिनिस्टर्स, ए.आई.आर., 1995 एस.सी. 1768 में निषेधाज्ञा के एक वाद में 7 वर्ष बाद अनुबंध पालन संबंधी संशोधन जोड़ना चाहा था जो अस्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत अम्बया काल्या मात्रे विरूद्ध स्टेट आफ महाराष्ट्र, (2011) 9 एस.सी.सी. 325 में तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के एक मामले में यह प्रतिपादित किया की रेफरेंस आवेदन में प्रतिकर की राशि में संशोधन का आवेदन, भूमि स्वामी के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह रेफरंेस आवेदन में प्रतिकर की राशि विशेष रूप से बतलाये अतः प्रतिकर की राशि के संशोधन के बारे में कोई परिसीमा लागू नहीं होती है।

इसी मामले में यह भी कहां गया है कि ऐसा संशोधन जिसके द्वारा एक प्रकृति की आपत्ति से दूसरी प्रकृति की आपत्ति जोड़ना चाही हो वह धारा 18 में उल्लेखित परिसीमा अवधि के बाद अनुमति के योग्य नहीं होती हैं।

अतः भूमि अधिग्रहण अधिनियम से संबंधित मामलों में उक्त दोनों ही स्थितियों में संशोधन के समय ध्यान रखना चाहिये।

न्याय दृष्टांत साउथ कोंकण डिस्टीलरी विरूद्ध प्रभाकर गजानंद नायक, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1177 के मामले में फर्म के विघटन के मामले में प्रतिवादी ने लिखित कथन में भविष्य के हानि का क्लेम जोड़ने की प्रार्थना 13 वर्ष बाद की थी जो अवधि बाधित क्लेम था विलंब का स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया था ऐसा संशोधन अस्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत शिव गोपाल साह विरूद्ध सीताराम, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 1478 में निष्कासन के एक वाद में प्रतिवादी ने विक्रय पत्र के आधार पर विरोधी स्वत्व दर्शाया वादी और सहवादी 15 वर्ष तक मौन रहे 15 वर्ष बाद विक्रय पत्र बोगस है ऐसी घोषणा का संशोधन चाहा विलंब का कोई कारण नहीं दर्शाया वादी ऐसा अवधि बाधित क्लेम नहीं जोड़ सकता।

न्याय दृष्टांत आशूतोष विरूद्ध प्राणोदेवी, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2171 में वादी ने स्वत्व घोषणा और प्रतिवादी द्वारा तृतीय पक्ष के हित में किये गये विक्रय पत्र को अपास्त करवाने का अनुतोष चाहा वादी ने 13 वर्ष बाद धारा 22 हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम, 1956 के प्रकाश में क्रय करने के अधिमानी अधिकार (प्रीफरेन्शियल राइट) का संशोधन जोड़ना चाहा वादी का पक्ष था की वह संपत्ति का सहस्वामी हो उसे संपत्ति क्रय करने का अधिमानी अधिकार है।

सामान्यतः ऐसा अधिकार 1 वर्ष के भीतर दावा किया जाता है ऐसा संशोधन खारिज किया गया।

न्याय दृष्टांत टी.एन. अलोय फोन्ड्री कंपनी लिमिटेड विरूद्ध टी.एन. इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड (2004) 3 एस.सी.सी. 392 में यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्य नियम यह है कि ऐसा संशोधन जो संशोधन आवेदन देने की तारीख पर अवधि बाधित हो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिये इस मामले में न्याय दृष्टांत एल.जे. लेच एण्ड कंपनी लिमिटेड विरूद्ध जार्डन स्कीनर एण्ड कंपनी, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 375 पर विश्वास करते हुये उक्त विधि प्रतिपादित की गई हैं।

न्याय दृष्टांत पंकाजा विरूद्ध येल्लाप्पा, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 4102 में यह प्रतिपादित किया गया है कि स्थायी निषेधाज्ञा के वाद में स्वत्व घोषणा का अनुतोष जोड़ना चाहा स्वत्व संबंधी तथ्य वाद में पहले से दर्ज थे यह नहीं कहां जा सकता की नया अनुतोष जोड़ा गया है विलंब के आधार पर संशोधन अस्वीकार नहीं कर सकते है यदि न्याय के उद्देश्य के लिये आवश्यक हो और लिटिगेशन बढ़ने से रोकने के लिए आवश्यक हो तब अवधि बाधित अनुतोष भी जोड़ सकते हैं।

6. पश्चातवर्ती घटना के बारे में:- न्याय दृष्टांत पी.सी. हवलदार विरूद्ध जोगन दास, ए.आई.आर. 2009 एम.पी. 129 डी.बी. में यह प्रतिपादित किया है कि पश्चातवर्ती घटना पर आधारित संशोधन स्वीकार किया जाना चाहिये।

न्याय दृष्टांत कमला बाई विरूद्ध श्रीमती प्रिती रायजादा, आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 603 डी.बी. में भी विचारण प्रारंभ होने के बाद दिया गया संशोधन आवेदन पत्र पश्चातवर्ती घटनाक्रम के बारे में होने से स्वीकार करना उचित माना गया सम्यक तत्परता के साथ आवेदन दिया गया था।

न्याय दृष्टांत संपत कुमार विरूद्ध अय्या कन्नू, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 3369 के मामले में स्थायी व्यादेश के वाद में वादी को बलपूर्वक बेकब्जा कर दिया गया उसने स्वत्व घोषणा व पारिणामिक रूप से आधिपत्य वापसी का संशोधन चाहा जो स्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत रघू तिलक डी. जोन विरूद्ध एस. रामप्पन, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 699 के मामले में वादी ने वादग्रस्त संपत्ति पर बनी बाउण्ड्री वाल को गिराने से प्रतिवादी को रोकने के स्थायी व्यादेश का वाद पेश किया गया। वाद लंबित रहने के दौरान प्रतिवादी ने बाउण्ड्री वाल गिरा दी वादी ने क्षतिपूर्ति का संशोधन चाहा जो स्वीकार किया गया परिसीमा का प्रश्न वाद प्रश्न बनाकर तय हो सकता है।

न्याय दृष्टांत राजाराम नारायण विरूद्ध राजाराम, ए.आई.आर. 1996 एम.पी. 12 के मामले में निर्माण से रोकने के लिये निषेधाज्ञा का वाद था वाद लंबन के दौरान निर्माण कर लिया गया आज्ञापक व्यादेश का संशोधन जोड़ना चाहा जो स्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत मन्नी लाल दुबे विरूद्ध ज्ञासी राम, 1993 (1) डब्ल्यू.एन. 10 के मामले में वादी ने आधिपत्य की पुर्नस्थापना बावत संशोधन जोड़ना चाहा जिसे स्वीकार किया गया।

यदि प्रतिवादी लिखित कथन में मकान मालिक के स्वत्वों से इंकार करे और मकान मालिक निष्कासन के आधार के रूप में इस बावत् संशोधन करना चाहे तो उसे अनुमति देना चाहिये इस संबंध में न्याय दृष्टांत रमेश चंद्र विरूद्ध राजेश कुमार, 1995 जे.एल.जे. 583 अवलोकनीय हैं।

इस प्रकार पश्चातवर्ती घटना के आधार पर यदि संशोधन आवेदन दिया जाता है और सम्यक तत्परता से दिया जाता है तो उसे संशोधन के अन्य सामान्य सिद्धांत को ध्यान में रखते हुये स्वीकार किया जा सकता हैं।

7. पारिणामिक संशोधन:- न्याय दृष्टांत बिकाराम सिंह विरूद्ध रामबाबू, ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 2036 में यह प्रतिपादित किया है कि वाद पत्र में संशोधन होने पर पारिणामिक संशोधन आवेदन स्वीकार करना चाहिये।

जब कभी वाद पत्र में संशोधन आवेदन को स्वीकार किया जावे तब प्रतिवादी को पारिणामिक संशोधन का एक अवसर अवश्य देना चाहिये।ध्

8. प्रतिवादी को सूचना पत्र:- न्याय दृष्टांत हरिराम कीर विरूद्ध स्टेट बैंक आॅफ इंडिया, 2005 (3) एम.पी.एच.टी. 147 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां प्रतिवादी के विरूद्ध पूर्व से एकपक्षीय कार्यवाही करने के आदेश हो और कोई संशोधन आवेदन दिया जाये जिसमें चाहा गया संशोधन तात्विक प्रकृति का न हो तब प्रतिवादी को पुनः सूचना पत्र देना आवश्यक नहीं होता है लेकिन जहां संशोधन तात्विक प्रकृति का हो वहां प्रतिवादी को पुनः सूचना पत्र देना चाहिये।

न्याय दृष्टांत बंसीधर विरूद्ध अलोक कुमार, ए.आई.आर. 2011 एम.पी. 144, महेश सिंह विरूद्ध सेवा राम, 2000 (1) एम.पी.एल.जे. 407 भी इस संबंध में अवलोकनीय हैं।

9. आर्थिक क्षेत्राधिकार के बाहर का संशोधन और क्षेत्राधिकार में लाने के लिये संशोधन:- कभी-कभी ऐसे संशोधन आवेदन भी प्रस्तुत होते है जो न्यायालय के आर्थिक क्षेत्राधिकार के बाहर के होते है ऐसी दशा में न्याय दृष्टांत कृष्ण कुमार विरूद्ध मंगल प्रसाद, ए.आई.आर. 2006 एम.पी. 227 (डी.बी.) से मार्गदर्शन लेना चाहिये जिसके अनुसार ऐसे संशोधन जिनके  परिणाम स्वरूप न्यायालय के आर्थिक क्षेत्राधिकार में वृद्धि हो जाती है वे भी स्वीकार किये जा सकते है और न्यायालय के लिये यह उचित होता है की वह ऐसे संशोधन स्वीकार करके वाद को उचित न्यायालय में पेश करने के लिए लौटा दे।

न्याय दृष्टांत वीरेन्द्र कुमार विरूद्ध शारदा बाई, 1993 (1) डब्ल्यू.एन. 190 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ऐसा संशोधन जो वाद को न्यायालय के क्षेत्राधिकार में लाने के लिये प्रस्तावित हो उससे इंकार नहीं करना चाहिये और एक बार ऐसा संशोधन स्वीकार करने के बाद उसका प्रभाव दावा दायर करने के समय से हो जाता हैं।

न्याय दृष्टांत दुर्गा प्रसाद विरूद्ध कुमारी श्वाती गुप्ता, 1993 (2) डब्ल्यू.एन. 29 के अनुसार यदि वाद का मूल्यांकन कम करने का संशोधन चाहा जाये तो इसे स्वीकार किया जा सकता है वाद की प्रचलनशीलता को विपक्षी चाहे तो चुनौती दे सकता हैं।

10. परंतुक के बारे में:- वर्ष 2002 में आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी. में संशोधन करके एक परंतुक जोड़ा गया है। जिस पर हमें विचार करना होगा परंतुक इस प्रकार है:-

परंतु विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् संशोधन के लिये किसी आवेदन को तब तक अनुज्ञात नहीं किया जायेगा जब तक की न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे कि सम्यक तत्परता बरतने पर भी वह पक्षकार, विचारण प्रारंभ होने से पूर्व वह विषय नहीं उठा सका था।

न्याय दृष्टांत जसप्रीत कोर विरूद्ध राम कृष्ण 2010 (3) एम.पी.एल.जे. 387 डी.बी. के अनुसार परंतुक केवल विचारण प्रारंभ होने के पश्चात ही लागू होता है विचारण प्रारंभ होने के पूर्व परंतुक लागू नहीं होता।

न्याय दृष्टांत सुमेश सिंह विरूद्ध फूलन देवी, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 2831 के अनुसार वर्ष 2002 में जोड़ा गया यह परंतुक इस परंतुक के बाद प्रस्तुत मामलों पर ही लागू होगा न्याय दृष्टांत स्टेट बैंक आफ हैदाराबाद विरूद्ध टाउन म्यूनिसिपल काउंसिल, (2007) 1 एस.सी.सी. 765 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि वर्ष 2002 के संशोधन के लागू होने के पूर्व के प्रकरणों पर परंतुक लागू नहीं होगा।

न्याय दृष्टांत चन्द्रकांत विरूद्ध राजेन्द्र सिंह, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2234 में यह प्रतिपातिदत किया गया है कि आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी. में परंतुक जोड़ने का उद्देश्य विलंब को कम करना और प्रकरणों की तेज गति से सुनवाई करना है।

इसी न्याय दृष्टांत में शब्द सम्यक तत्परता का अर्थ एक प्रज्ञावान व्यक्ति उसके मामले में जैसा आचरण करता है उसे बतलाया गया है।

न्याय दृष्टांत जे. सेम्यूएल विरूद्ध गट्टू महेश, (2012) 2 एस.सी.सी. 300 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनुबंध के विशिष्ट पालन के मामले में शब्द सम्यक तत्परता पर प्रकाश डाला है और यह प्रतिपादित किया है कि पक्षकार जो कोई अनुतोष चाहता है उसे सम्यक तत्पर रहना चाहिये और यह संशोधन के लिए एक आवश्यकता है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।

न्याय दृष्टांत विद्या बाई विरूद्ध पद्मलता, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1433 के अनुसार जिस दिन वाद प्रश्न विरचित किये जाते है उस दिन विचारण प्रारंभ होता है।

न्याय दृष्टांत अजेन्द्र प्रसाद जी एन. पाण्डे विरूद्ध स्वामी केशव प्रसाद दास जी, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 806 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि विचारण उस दिन प्रारंभ होता है जिस दिन वाद प्रश्न विरचित किये जाते है और प्रकरण साक्ष्य के लिये नियत किया जाता हैं।

इस तरह एक बार वाद प्रश्न विरचित करने के बाद जैसे ही प्रकरण साक्ष्य के लिये नियत कर दिया जाता है विचारण प्रारंभ हो जाता है और विचारण प्रारंभ होने के बाद जो संशोधन आवेदन पेश होता है उसमें यह तथ्य विचार योग्य होता है कि क्या वह संबंधित पक्षकार संशोधन के माध्यम से जो विषय उठाना चाहता है उसे सम्यक तत्परता बरतने पर भी विचारण प्रारंभ होने के पूर्व नहीं उठा सका था यदि ऐसा है तब वह संशोधन स्वीकार किया जायेगा।

अन्य दशा में अर्थात विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् यदि आवेदन दिया है और आवेदन में उठाये गये तथ्य विचारण प्रारंभ होने के पूर्व उठाये जा सकते थे तब मुख्य विचारणीय प्रश्न यह रहेगा कि क्या प्रस्तावित संशोधन पक्षकारों में उत्पन्न वास्तविक विवाद को निराकरण के लिये आवश्यक प्रकृति का है और साथ ही उसके स्वीकार करने से दूसरे पक्ष को कोई ऐसी हानि तो नहीं हो रही है जिसकी पूर्ति प्रतिकारात्मक खर्च देकर भी नहीं कराई जा सकती है इन दो कारकों पर विचार करके ही विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् दिये गये संशोधन आवेदन स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिये सामान्य सिद्धांत जो उपर दिये गये है वे इन आवेदन पर भी लागू होंगे।

11. मोटर दुर्घटना प्रकरणों में संशोधन:- न्याय दृष्टांत आनंद कुमार जैन विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1125 में एक मोटर दुर्घटना दावा में संशोधन आवेदन पत्र स्वीकार किया गया था अतः ये प्रावधान अर्थात अभिवचनों में संशोधन के प्रावधान क्लेम प्रकरणों पर भी लागू होते है।

12. माध्यस्थ व सुलह अधिनियम, 1996 के मामले:- न्याय दृष्टांत स्टेट आफ महाराष्ट्र विरूद्ध मेसर्स हिन्दूस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1299 के मामले में अवार्ड को अपास्त करने के आदेश के विरूद्ध अपील में अपील के मेमोरेण्डम में संशोधन की अनुमति दी गई थी और यह प्रतिपादित किया गया था कि यदि न्यायहित में आवश्यक हो तो ऐसा संशोधन किया जा सकता है ऐसा संशोधन धारा 34 (3) अधिनियम 1996 से पूरी तरह वर्जित नहीं होता है।

इस मामले में यह भी कहां गया कि अवार्ड को अपास्त करने का बिलकुल नया आधार जिसके बारे में मूल आवेदन कोई भूमिका न हो अपील के स्तर पर नहीं जोड़ा जा सकता है ऐसा संशोधन अस्वीकार किया गया।

13. वाद व संविदा दोनों में संशोधन:- न्याय दृष्टांत पूरन राम विरूद्ध भागू राम, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1960 के मामले में अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में संपत्ति के विवरण में त्रुटि थी वादी ने वाद और संविदा दोनों में संशोधन आवेदन दिया।

धारा 26 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के प्रकाश में संविदा में भी संशोधन स्वीकार किया जा सकता है अतः वाद और संविदा दोनों में संशोधन स्वीकार किया गया।

इस तरह जहां मामला उक्त धारा 26 से कवर होता हो वहां ऐसा संशोधन भी स्वीकार किया जा सकता है।

14. निष्पादन आवेदन में संशोधन:- संशोधन के सामान्य सिद्धांतों के अधीन रहते हुये निष्पादन आवेदन में भी संशोधन किया जा सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती तारकदासी विरूद्ध बट्ट कृष्ण राय, ए.आई.आर. 1964 कलकत्ता 42 अवलोकनीय हैं।

15. न्याय शुल्क से बचने के लिए संशोधन:- न्याय दृष्टांत अशोक कुमार विरूद्ध हरिशंकर, 1987 (2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 33 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मूल्य अनुसार न्याय शुल्क देने से बचने के लिये संशोधन आवेदन दिया ऐसा संशोधन अस्वीकार किया जाना चाहिये।

16. विधिक स्थिति के बारे में संशोधन:- संशोधन के माध्यम से विधिक स्थिति समाविष्ट करना चाहा विधि या विधि की स्थिति अभिवचन करना आवश्यक नहीं होता है ऐसा संशोधन न्याय संगत नहीं कहां जा सकता इस संबंध में न्याय दृष्टांत मालती विरूद्ध एम.पी.ई.बी., 1996 (1) डब्ल्यू.एन. 8 अवलोकनीय हैं।

व्यवहार वाद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णयों का सार संशोधन के माध्यम से जोड़ना कोई पक्ष यदि चाहे तो उसे ऐसी अनुमति नहीं दी जानी चाहिये क्योंकि यह अभिवचनों के सिद्धांत के विरूद्ध हैं।

17. साक्ष्य के बारे में अभिवचन:- न्याय दृष्टांत गोपाल शर्मा विरूद्ध श्रीमती सावित्री देवी, 1994 (1) डब्ल्यू.एन. 192 के अनुसार चाहा गया संशोधन पूर्व से अभिवचन में था साक्ष्य के बारे अभिवचन किया जाना आवश्यक नहीं होता है ऐसा संशोधन उचित रूप से अस्वीकार किया गया।

18. धारा 125 दं.प्र.सं. के आवेदन में संशोधन:- न्याय दृष्टांत अहसान अंसारी विरूद्ध स्टेट आफ झारखण्ड, 2007 सी.आर.एल.जे. एन.ओ.सी. 766 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 125 दं.प्र.सं. के आवेदन में संशोधन आवेदन पत्र चलने योग्य होता हैं।

19. धारा 138 एन.आई. एक्ट के परिवाद में संशोधन:- न्याय दृष्टांत पंडित गोरे लाल विरूद्ध राहुल पंजाबी, 2009 (5) एम.पी.एच.टी. 323 के मामले में अंतिम तर्क की स्टेज पर परिवादी ने चेक नंबर के सुधार के लिये आवेदन दिया ऐसा टंकन त्रुटि सुधार बावत् आवेदन न्याय हित में स्वीकार करना उचित माना गया।

न्याय दृष्टांत चन्द्रपाल विरूद्ध अशोक लीलेण्ड, 2012 आई.एल.आर. एम.पी. 302 में यह प्रतिपादित किया गया है कि न्याय हित में परिवाद में संशोधन स्वीकार किया जा सकता हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती शशी श्रीवास्तव विरूद्ध जगदीश सिंह, 2007 (4) एम.पी.एच.टी. 480 भी अवलोकनीय हैं।

20. अपील के मेमोरेण्डम में संशोधन:- अपील न्यायालय को अपील के मेमोरेण्डम में आदेश 6 नियम 17 और धारा 107 सी.पी.सी. के प्रकाश में संशोधन करने की शक्तिया है इस संबंध में न्याय दृष्टांत ए.आई.आर. 1948 पटना 97 डी.बी. अवलोकनीय हैं।

21. चुनाव याचिका में संशोधन:- न्याय दृष्टांत (1994) 2 जे.टी. एस.सी. 66 के अनुसार चुनाव याचिका में भी संशोधन के प्रावधान रिप्रजेंटेशन आफ पीपुल एक्ट के प्रावधानों के अधीन रहते हुये लागू होते हैं।

22. लौटाये गये वाद में संशोधन:- न्याय दृष्टांत हनामाथप्पा विरूद्ध चन्द्र शेखर अप्पा, ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 1307 के अनुसार जो वाद वादी को सक्षम न्यायालय में पेश करने के लिये लौटा दिया जाता है उसमें वह आवश्यक संशोधन करके प्रस्तुत कर सकता है ऐसे वाद को खारिज करना उचित नहीं माना है क्योंकि ऐसे वाद में संशोधन की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होती है।

23. संशोधन की विधि:- न्याय दृष्टांत गुरदी लाल सिंह विरूद्ध राजकुमार, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1003 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभिवचनों में संशोधन की अनुमति मिलने के बाद मूल अभिवचन में संशोधन करना चाहिये उसे लाल स्याही से अंडर लाईन करना चाहिये या हाई लाईट करना चाहिये।

इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि पारिणामिक संशोधन सिर्फ मूल संशोधन की सीमा तक होना चाहिये।

इस तरह संशोधन आवेदन के निराकरण के बाद संबंधित पक्ष से मूल अभिवचन में संशोधन करवाना चाहिये और उन्हें लाल स्याही से अंडर लाईन करवाना चाहिये या हाई लाईट करवाना चाहिये।

24. डाक्टरिन आफ रीलेट बेक:- न्याय दृष्टांत कन्हैया लाल विरूद्ध मुक्ति लाल ए.आई.आर. 2007 एम.पी. 1 डी.बी. में यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्य नियम यह है कि संशोधन जो वाद पत्र में किया जाता है वह वाद प्रस्तुती दिनांक से माना जाता है जो की डाक्टरिन आफ रीलेट बेक के सिद्धांत के आधार पर होता है लेकिन जहां ऐसा मामला हो जिसमें यह प्रश्न की चाहा गया संशोधन अवधि बाधित है या नहीं विचारण के लिये खुला हो वहां यह सिद्धांत लागू नहीं होता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न न्याय दृष्टांतों पर विचार करते हुये यह विधि प्रतिपादित की गई।

न्याय दृष्टांत चिमन लाल विरूद्ध मिश्री लाल, 1985 जे.एल.जे. (एस.सी.) 74 के अनुसार म.प्र. स्थान नियंत्रण अधिनियम के मामले में संशोधन किया गया संशोधन वाद दिनांक से रीलेट बेक होता है लेकिन यह अवैध मांग सूचना पत्र को वैध नहीं कर सकता है दोनां अलग-अलग बाते हैं।

25. प्रतिकारात्मक खर्च लगाने के बारे में:- न्याय दृष्टांत उक्त रेवा जीतू बिल्डर्स विरूद्ध नारायण स्वामी, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2897 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिकारात्मक खर्च अधिरोपित करने के उद्देश्य बताये है जो इस प्रकार है:-

1. ऐसे संशोधन जो दुर्भावना पूर्वक विधिक कार्यवाही को विलंबित करने के लिये पेश होते है उन्हें निरूत्साहित करना।

2. विरोधी पक्ष को विलंब और उसे हुई असुविधा के लिये क्षतिपूर्ति दिलवाना।

3. संशोधन के प्रकाश में उसके विरोध स्वरूप कार्यवाही में लगने वाले खर्च दिलवाना।

4. पक्षकारों को यह स्पष्ट संदेश देना की वे उनके मूल अभिवचन तैयार करने में सावधान रहे।

इस तरह संशोधन आवेदन स्वीकार करते समय प्रतिकारात्मक खर्च अधिरोपित करने में उक्त उद्देशों को ध्यान में रखना चाहिये।

26. विविध:- संशोधन स्वीकार करने या न करने के बारे में कुछ अन्य स्थितिया निम्न प्रकार से है:-

न्याय दृष्टांत उक्त विद्या बाई विरूद्ध पदमलता, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1433 के मामले में वादी के मुख्य परीक्षण का शपथ पत्र पेश करने के बाद प्रतिवादी ने लिखित कथन में संशोधन चाहा था जो आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी. के परंतुक के तहत वर्जित है यह संशोधन अस्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत उक्त सुशील कुमार विरूद्ध मनोज कुमार, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 2544 में यह प्रतिपादित किया गया है कि संशोधन द्वारा एक पक्षकार अपनी स्वीकारोक्ति को स्पष्ट कर सकता है।

न्याय दृष्टांत उक्त सुरेन्द्र कुमार विरूद्ध माखन सिंह, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2671 के मामले में बकाया किराये के आधार पर निष्कासन का वाद था संशोधन के बाद भी वाद निष्कासन का ही रहना था वाद की प्रकृति में परिवर्तन करने वाला संशोधन है इस आधार पर उसकी निरस्ती उचित नहीं मानी गई।

उक्त न्याय दृष्टांत उषा देवी विरूद्ध रिजवान अहमद, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1147 में वादी ने वादग्रस्त संपत्ति का विवरण त्रुटिपूर्ण दिया है प्रतिवादी द्वारा लिखित कथन में ध्यान दिलाने के बाद भी ध्यान नहीं दिया था चूंकि संशोधन विवाद के निराकरण के लिए आवश्यक था इसलिये 10 हजार रूपये प्रतिकारात्मक खर्च पर स्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत भरत कृष्णदास ठक्कर विरूद्ध मेसर्स किरण कंस्ट्रक्शन, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2134 के मामले में घोषणा के वाद में अनुबंध पालन का अनुतोष जोड़ना चाहा था मूल वाद की प्रकृति ने तात्विक परिवर्तन होने से उसे अनुमति योग्य नहीं माना गया।

न्याय दृष्टांत एम.सी. अग्रवाल एच.यू.एफ. विरूद्ध मेसर्स सहारा इंडिया, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2887 के मामले में निष्कासन अंतरवर्ती लाभ और आज्ञापक व्यादेश के वाद में ऐसा संशोधन चाहा गया कि अंतरवर्ती लाभ परिसर के किराये के बराबर दिलवाया जाये इस संशोधन से वाद की प्रकृति में परिवर्तन नहीं होगा बल्कि अंतरवर्ती लाभ की मात्रा निकालने में यह संशोधन सहायक होगा अतः वास्तविक विवाद के निराकरण में उचित होने से उसे अस्वीकार करना उचित नहीं माना गया।

न्याय दृष्टांत रामचरण विरूद्ध दामोदर, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 2577 में स्वत्व घोषणा के वाद में संशोधन आवेदन विलंब से दिया गया था संशोधन से वादी के क्लेम को समाधानप्रद तरीके से न्यायालय निराकृत कर सके इसमें सहायता मिलना प्रतीत होती थी ऐसा संशोधन स्वीकार किया गया विरोधी पक्ष को खर्च दिलवाया जा सकता था।

न्याय दृष्टांत राजकुमार विरूद्ध दिपेन्द्र कोर, ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 1592 के मामले में स्थायी निषेधाज्ञा का वाद था बाद में अनुबंध पालन का अनुतोष जोड़ा गया लेकिन तत्परता और तैयारी के बारे में अभिवचन नहीं किये गये इस बावत् संशोधन आवेदन दिया गया जिसे स्वीकार किया जाना उचित माना गया।

न्याय दृष्टांत लक्खी राम विरूद्ध त्रिखा राम, ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 1230 में भी तत्परता और तैयारी बावत अभिवचन का संशोधन स्वीकार किया गया था और इसे उचित माना गया था।

लेकिन न्याय दृष्टांत जे. सेम्यूएल विरूद्ध गट्टू महेश, (2012) 2 एस.सी.सी. 300 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2002 के आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी. के संशोधन के प्रकाश में जोड़े गये परंतुक की विवेचना करते हुये यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुबंध के विशिष्ट पालना के वाद में तत्परता और तैयारी के अभिवचन आवश्यक होते है और ऐसे अभिवचन को जोड़ने के लिए विचारण प्रारंभ होने के बाद संशोधन आवेदन पत्र दिया गया जो टंकण त्रुटि मानते हुये स्वीकार कर लिया गया इसे उचित नहीं माना गया और यह प्रतिपादित किया गया कि पक्षकार सम्यक रूप से सर्तक नहीं था इसे टंकण त्रुटि नहीं मान सकते आवेदन अस्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत सी.एम. वीर कुट्टी विरूद्ध सी.एम. मुथू कुट्टी, ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 1533 के मामले में प्रारंभिक आज्ञप्ति पर अपील थी कुछ संपत्ति का सही व पूर्ण विवरण दर्ज नहीं था कुछ का उल्लेख छूट गया था ऐसा संशोधन स्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत जयजय राम मनोहर लाल विरूद्ध नेशनल बिल्डिंग, ए.आई.आर. 1969 एस.सी. 1267 के अनुसार तकनीकी आधार पर संशोधन आवेदन निरस्त नहीं करना चाहिये।

न्याय दृष्टांत म्यूनिशिपल कार्पोरेशन विरूद्ध लाला पंचम, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 1008 पांच न्यायमूर्तिगण की पीठ के मामले में यह प्रतिपादित किया गया कि संशोधन द्वारा एक नया मामला वादी ने जोड़ना चाहा ऐसा संशोधन स्वीकार नहीं करना चाहिये इस संबंध में न्याय दृष्टांत ए.के. गुप्ता विरूद्ध दामोदर वेल्ही कार्पोरेशन, ए.आई.आर. 1967 एस.सी. 96, मेसर्स मोदी स्पिनिंग विरूद्ध मेसर्स लद्दाराम, ए.आई.आर. 1977 एस.सी. 680, हाजी मोहम्मद विरूद्ध मोहम्मद इकबाल, ए.आई.आर. 1978 एस.सी. 798 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ भी अवलोकनीय है।

न्याय दृष्टांत पुरूषोत्तम उम्मेद भाई एण्ड कंपनी विरूद्ध मेसर्स मणी लाल एण्ड संस, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 325 के मामले में फर्म के नाम से वाद ऐसे भागीदार के नाम से पेश कर दिया गया जो भारत के बाहर व्यापार करता था यह वाद के शीर्षक लिखने या विवरण लिखने की त्रुटि है जिसे धारा 153 सी.पी.सी. में सुधारा जा सकता है आदेश 6 नियम 17 सी.पी.सी. के आवेदन की आवश्यकता नहीं हैं ऐसा प्रतिपादित किया गया।

न्याय दृष्टांत दानपति विरूद्ध घनश्याम दास, 2009 (2) एम.पी.जे.आर. 333 में वादी ने गेंहू के थोक व्यापार के लिये परिसर की आवश्यकता बतलाई थी बाद में उसने खली भूसा आदि के व्यापार की आवश्यकता बतलाई केवल व्यापार बदलने से सद्भाविक आवश्यकता बदल गई है ऐसा नहीं माना जा सकता संशोधन स्वीकार किया गया।

न्याय दृष्टांत रामचन्द्र विरूद्ध श्रीमती इन्द्रा बाई, 1993 (2) डब्ल्यू.एन. 79 के अनुसार प्रकरण को विलंबित करने के आशय से दिया गया संशोधन आवेदन निरस्त करना उचित माना गया।

विधि का बिन्दु व वाद के चलने योग्य न होने का बिन्दु संशोधन के बिना भी उठाया जा सकता है ऐसा संशोधन विलंब कारित करने के लिये किया जा रहा है इस आधार पर निरस्त किया गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजेन्द्र सिंह विरूद्ध राम भजन सिंह, 2000 (2) डब्ल्यू.एन. 54 अवलोकनीय हैं।

अस्थायी निषेधाज्ञा का आवेदन निरस्त होने के बाद वादी ने स्वत्व घोषणा और आधिपत्य वापसी का संशोधन चाहा इसे वाद की प्रकृति में परिवर्तन नहीं माना गया संशोधन स्वीकार किया गया। न्याय दृष्टांत मित्र मंडल सहकारी संस्था विरूद्ध डाॅं. आर.सी जैन, 1985 एन.पी.डब्ल्यू.एन. 481 अवलोकनीय हैं।

यदि संशोधन आवेदन में गलत प्रावधान लिख दिया है तब भी इससे कोई प्रभाव नहीं होता है।

उक्त संपूर्ण विवेचन से निम्न लिखित रूप से अभिवचनों में संशोधन की विधि मुख्य रूप से स्पष्ट होती है:-

1. ऐसे सभी संशोधन जो पक्षकारों में उत्पन्न वास्तविक विवाद के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये आवश्यक हो उन्हें समाविष्ट करने की अनुमति देना चाहिये यदि ऐसी अनुमति देने से विपक्षी के हितों पर ऐसा प्रतिकूल असर न गिरता हो जिसकी पूर्ति प्रतिकारात्मक खर्च देकर भी न करवाई जा सके।

2. यह एक सामान्य नियम है कि संशोधन आवेदन दिनांक पर जो अनुतोष अवधि बाधित हो चुका हो उसे स्वीकार करने की अनुमति नहीं देना चाहिये।

3. वाद पत्र और लिखित कथन में संशोधन के समय मानदण्ड भिन्न होते है लिखित कथन में संशोधन की अनुमति देते समय न्यायालय को अधिक उदार रहना चाहिये प्रतिवादी वैकल्पिक बचाव, अतिरिक्त बचाव भी ले सकता है और वाद की प्रकृति में परिवर्तन का सिद्धांत केवल वाद पत्र के संशोधन के समय महत्वपूर्ण होता हैं लेकिन प्रतिवादी भी ऐसे बचाव नहीं ले सकता जो एक दूसरे को नष्ट करने वाले हो।

4. पश्चातवर्ती घटनाक्रम के आधार पर किये गये संशोधन स्वीकार करना चाहिये संशोधन आवेदन पर विचार करते समय उसकी सत्यता या गुणदोष नहीं देखना चाहिये।

5. वाद प्रश्न जिस दिन विरचित किये जाते है और मामला साक्ष्य के लिये नियत किया जाता है उस दिन से विचारण प्रारंभ होता है। विचारण प्रारंभ होने के पश्चात प्रस्तुत संशोधन आवेदन पत्र में यह देखना चाहिये की क्या संबंधित पक्ष सम्यक तत्परता के बाद भी उस मामले को विचारण प्रारंभ होने के पूर्व नहीं उठा सका था लेकिन अंततः यदि संशोधन पक्षकारों में उत्पन्न वास्तविक विवाद की न्यायपूर्ण निराकरण के लिए आवश्यक है और उससे विपक्षी को ऐसी क्षति संभावित नहीं है जिसकी पूर्ति प्रतिकारात्मक खर्च दिलाकर न कि जा सके तब ऐसे संशोधन जो विचारण प्रारंभ होने के पश्चात भी किये जा रहे है स्वीकार करना चाहिये लेकिन उचित प्रतिकारात्मक खर्च भी विलंब कारित करने वाले पक्षकार पर अधिरोपित करना चाहिये।

6. संशोधन के लिये लिखित आवेदन जो शपथ पत्र से समर्थित हो दिया जाना चाहिये।

इस प्रकार किसी भी पक्ष द्वारा उसके अभिवचनों में संशोधन का आवेदन कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर पेश होने पर उक्त वैधानिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुये आवेदन का त्वरित निराकरण करना चाहिये ऐसे आवेदनों को अधिक समय तक लंबित नहीं रखना चाहिये बल्कि आवेदन पेश होने पर एक लघु अवसर देकर विपक्षी यदि लिखित जवाब देना चाहे तो उसका लिखित जवाब लेकर, उभय पक्ष को सुनकर उक्त वैधानिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुये मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में एक उचित आदेश पारित करना चाहिये।

7 comments:

  1. क्‍या आदेश 6 नियम 17 को अपील प्रकरणों में लागू किया जा सकता है

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    1. प्रथम अपील स्तर पर वादपत्र में क्या संशोधन सम्भव है

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  2. वादपत्र के अन्तर्गत आवेदनपत्रों में संशोधन की सी.पी.सी में क्या व्यवस्था है?कृपया प्रकाश डालने का कष्ट करें।

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  3. Lowercase Harne ke baad appeal May appeal karne se pehle hai prativadi ki Mrityu Ho Jaye to kya prativadi Waaris appeal main sanshodhan kar sakte

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  4. यदि मूल आवेदन में आवेदकगण के किसी एक व्यक्ति का हस्ताक्षर भूलवश छूट गया हो तो क्या आदेश 6 नियम 17 CPC के तहत आवेदन प्रस्तुत कर जोड़ा जा सकता है? कृपया मार्गदर्शन देने का कष्ट करें.

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  5. कब वैकल्पिक या अशगत अभि वचन की अनुमति दी जाती है

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  6. धारा 166 मो.व्ही एक्ट के तहत आवेदन पेश किया निर्णय हो गया । आवेदन मे ही पिता का नाम गलत लेख हो गया तो निर्णय मे भी गलत लिख गया निष्पादन शेष है क्या इस स्थिति मे दावे और निर्णय मे संशोधन हो सकता है क्या सही नाम लिखा जा सकता है ? कृपया मार्ग दर्शन करे ?

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