विरोधी आधिपत्य
प्रायः दीवानी विचारण न्यायालयों में विरोधी आधिपत्य के आधार पर सम्पत्ति पर स्वत्व परिपक्व कर लेने के वाद लाये जाते हैं या प्रतिवादी ऐसी प्रतिरक्षा लेता है अतः विरोधी आधिपत्य क्या है और इसके बारे में नवीनतम वैधानिक स्थिति क्या है यह जानकारी ऐसे मामलों के विचारण और निराकरण के लिए आवश्यक होती है यहा हम इसी संबंध में चर्चा करेगे।
1. विरोधी आधिपत्य क्या है ?
जब किसी व्यक्ति का किसी दूसरे व्यक्ति के स्वामित्व की सम्पत्ति पर,उस दूसरे व्यक्ति की जानकारी में, उसके स्वामित्व को नकारते हुए, अबाध, शांतिपूर्ण, 12 वर्ष से अधिक समय तक/राज्य की दशा में 30 वर्ष से अधिक समय तक लगातार आधिपत्य रहता है, तब उस व्यक्ति के बारे में यह कहाॅ जाता है कि उसने उस सम्पत्ति के बारे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व कर लिये हैं।
2. विरोधी आधिपत्य के बारे में धारा 27 एवं अनुच्छेद 64 एवं 65 परिसीमा अधिनियम, 1963 के प्रावधान ध्यान में रखना चाहिए।
3. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस कानून पर मत:- माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विरोधी आधिपत्य के कानून को वास्तविक स्वामी के लिए बहुत कठोर या हार्श तथा बेईमान व्यक्ति के लिए हवा से गिरा हुआ फल या विन्ड फाल बतलाया है और कहा है कि यह कानून अनुपातहीन, विवेकहीन और अंसगत है कानून से ऐसे व्यक्ति को लाभ नहीं होना चाहिए जो अनुचित रीति से वास्तविक स्वामी की संपत्ति का आधिपत्य ले लेता है अतः यह अत्यावश्यक है कि विरोधी आधिपत्य के कानून पर पुनः विचार किया जाये भारत सरकार को गंभीरता से विरोधी आधिपत्य के कानून पर विचार करके युक्तियुक्त परिवर्तन की अनुशंसा की जाती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत हेमा जी बाघ जी जाट विरूद्ध भिखा भाई के. हरिजन, ए.आई.आर 2009 एस.सी.103 अवलोकनीय है।
लेकिन अब तक विरोधी आधिपत्य के कानून में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। म.प्र. उच्च न्यायालय का इस कानून पर मतः- माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत यशवंत राव विरूद्ध श्रीमती जहूर बी 1995(2) डबलू एन 92 में यह प्रतिपादित किया है कि ये प्रावधान एक व्यक्ति को बेईमान होने के लिए प्रोन्नत करते हैं और इस सिद्धांत का नेतृत्व करते हैं कि डपहीज पे तपहीज साथ ही ये प्रावधान असंवैधानिक है और संविधान के अनुच्छेद 300-ए के उल्लंघन में है।
4. विधि व तथ्य का मिश्रित प्रश्न एवं आवश्यक अभिवचन व प्रमाण पत्र के बारे में -
विरोधी आधिपत्य का बिंदु विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है यह पूरी तरह विधि का प्रश्न नहीं है, इसलिये जो व्यक्ति विरोधी आधिपत्य के आधार पर दावा करता है उसे निम्नलिखित बिंदु दर्शाना चाहिए:-
ए- वह किस तारीख को आधिपत्य में आया ?
बी- आधिपत्य की प्रकृति क्या थी ?
सी- क्या उसके आधिपत्य में आने का तथ्य दूसरे पक्षकार की
प्रायः दीवानी विचारण न्यायालयों में विरोधी आधिपत्य के आधार पर सम्पत्ति पर स्वत्व परिपक्व कर लेने के वाद लाये जाते हैं या प्रतिवादी ऐसी प्रतिरक्षा लेता है अतः विरोधी आधिपत्य क्या है और इसके बारे में नवीनतम वैधानिक स्थिति क्या है यह जानकारी ऐसे मामलों के विचारण और निराकरण के लिए आवश्यक होती है यहा हम इसी संबंध में चर्चा करेगे।
1. विरोधी आधिपत्य क्या है ?
जब किसी व्यक्ति का किसी दूसरे व्यक्ति के स्वामित्व की सम्पत्ति पर,उस दूसरे व्यक्ति की जानकारी में, उसके स्वामित्व को नकारते हुए, अबाध, शांतिपूर्ण, 12 वर्ष से अधिक समय तक/राज्य की दशा में 30 वर्ष से अधिक समय तक लगातार आधिपत्य रहता है, तब उस व्यक्ति के बारे में यह कहाॅ जाता है कि उसने उस सम्पत्ति के बारे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व कर लिये हैं।
2. विरोधी आधिपत्य के बारे में धारा 27 एवं अनुच्छेद 64 एवं 65 परिसीमा अधिनियम, 1963 के प्रावधान ध्यान में रखना चाहिए।
3. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस कानून पर मत:- माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विरोधी आधिपत्य के कानून को वास्तविक स्वामी के लिए बहुत कठोर या हार्श तथा बेईमान व्यक्ति के लिए हवा से गिरा हुआ फल या विन्ड फाल बतलाया है और कहा है कि यह कानून अनुपातहीन, विवेकहीन और अंसगत है कानून से ऐसे व्यक्ति को लाभ नहीं होना चाहिए जो अनुचित रीति से वास्तविक स्वामी की संपत्ति का आधिपत्य ले लेता है अतः यह अत्यावश्यक है कि विरोधी आधिपत्य के कानून पर पुनः विचार किया जाये भारत सरकार को गंभीरता से विरोधी आधिपत्य के कानून पर विचार करके युक्तियुक्त परिवर्तन की अनुशंसा की जाती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत हेमा जी बाघ जी जाट विरूद्ध भिखा भाई के. हरिजन, ए.आई.आर 2009 एस.सी.103 अवलोकनीय है।
लेकिन अब तक विरोधी आधिपत्य के कानून में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। म.प्र. उच्च न्यायालय का इस कानून पर मतः- माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत यशवंत राव विरूद्ध श्रीमती जहूर बी 1995(2) डबलू एन 92 में यह प्रतिपादित किया है कि ये प्रावधान एक व्यक्ति को बेईमान होने के लिए प्रोन्नत करते हैं और इस सिद्धांत का नेतृत्व करते हैं कि डपहीज पे तपहीज साथ ही ये प्रावधान असंवैधानिक है और संविधान के अनुच्छेद 300-ए के उल्लंघन में है।
4. विधि व तथ्य का मिश्रित प्रश्न एवं आवश्यक अभिवचन व प्रमाण पत्र के बारे में -
विरोधी आधिपत्य का बिंदु विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है यह पूरी तरह विधि का प्रश्न नहीं है, इसलिये जो व्यक्ति विरोधी आधिपत्य के आधार पर दावा करता है उसे निम्नलिखित बिंदु दर्शाना चाहिए:-
ए- वह किस तारीख को आधिपत्य में आया ?
बी- आधिपत्य की प्रकृति क्या थी ?
सी- क्या उसके आधिपत्य में आने का तथ्य दूसरे पक्षकार की
जानकारी मे था ?
डी- उसका आधिपत्य कब से सतत् है ?
ई- उसका आधिपत्य खुले रूप से और अबाध है ?
एक व्यक्ति जो विरोधी आधिपत्य का दावा करता है उसके पक्ष में साम्या या इक्विटी नहीं होती है क्योंकि वह वास्तविक स्वामी के अधिकारों का हनन करता है इसलिये उसके लिए आवश्यक है कि वह स्पष्ट रूप से सभी तथ्यों जो विरोधी आधिपत्य के लिए आवश्यक है उनका अभिवचन करे और उन्हें स्थापित भी करें।
इस संबंध में उक्त न्याय दृष्टांत हेमा जी वाघ जी जाट एवं न्याय दृष्टांत डा महेशचंद्र शर्मा विरूद्ध श्रीमती राजकुमारी शर्मा , ए.आई.आर 1996 एस.सी.869 अवलोकनीय है जिसमें सारतः उक्त विधि प्रतिपादित की गई है।
न्याय दृष्टांत कृष्णा मूर्ति एस. सेटलूर विरूद्ध ओ.व्ही. नरसिम्हा सेट्टी, 2007 (3) एस.पी.एल.जे 15 एस.सी. में भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि विरोधी आधिपत्य का प्रश्न केवल तथ्य का साधारण प्रश्न नहीं है बल्कि विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है जिसमें वादी को भी विरोधी अभिवचन के सभी तत्वों को अभिवचन करना चाहिए और प्रमाणित भी करना चाहिए।
न्याय दृष्टांत बी.लीलावती विरूद्ध होन्नाम्मा (2005) 11 एस.सी.सी. 115 भी विरोधी आधिपत्य के स्पष्ट अभिवचन, प्रमाण व इसके तथ्य का प्रश्न होने के संबंध में अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत पार्वतीबाई विरूद्ध सोनाबाई, ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 381 में यह प्रतिपादित किया है कि वह व्यक्ति जो विरोधी आधिपत्य के आधार पर दावा करता है उसे यह निश्चित तारीख स्थापित करना चाहिए जहा से उसका विरोधी आधिपत्य प्रारंभ हुआ है।
न्याय दृष्टांत एम.मदरैई विरूद्ध मुत्थू (2007) 3 एस.सी.सी. 114 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विरोधी आधिपत्य के तथ्यों को प्रमाणित करना चाहिए विभिन्न न्याय दृष्टांतों को विचार में लिया गया है।
न्याय दृष्टांत रमेश सिंह विरूद्ध रामचंद, 2004(1) एम.पी.एल.जे. 112 में यह प्रतिपादित किया गया है कि आधिपत्य की प्रकृति और वह कब से प्रारंभ हुआ इस बारे में स्पष्ट अभिवचन और प्रमाण होना चाहिए।
न्याय दृष्टांत बाबूलाल जैन विरूद्ध अचल कुमार 2011(3) एम.पी.एच.टी. 426 में विरोधी आधिपत्य के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है और बतलाया गया है कि जहा कोई व्यक्ति अन्य की सम्पत्ति पर बिना किसी अधिकार के प्रवेश करता है और 12 वर्ष तक मूल स्वामी के विरूद्ध लगातार अपना कब्जा बनाये रखता है वहा वास्तविक स्वामी के स्वत्व 12 वर्ष की अवधि के बाद समाप्त हो जाते हैं और उस व्यक्ति के स्वत्व परिपक्व हो जाते हैं।
जहा किसी पक्ष का प्रारंभ में अनुमत आधिपत्य या परिमीसिव पजेशन रहा हो और उसके आधार पर वह बाद में विरोधी या एडवर्स हो गया हो तब उस पक्ष को यह स्पष्ट अभिवचन करना चाहिए कि उसका अनुमत आधिपत्य किस दिनांक विशेष से विरोधी हुआ।
क्या वास्तविक भौतिक आधिपत्य जरूरी है ?
न्याय दृष्टांत श्रीमती चंद्रकांता बेन जे मोदी विरूद्ध वाडीलाल डी मोदी ए.आई.आर 1989 एस.सी.1269 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वास्तविक भौतिक आधिपत्य वादी का होना आवश्यक नहीं है यह तथ्य की सम्पत्ति वादी के किरायेदार के कब्जे में थी इसका विरोधी आधिपत्य पर कोई प्रभाव नहीं होगा।
रेवेन्यू रिकार्ड के इंद्राज:-
रेवेन्यू कागजात के इंद्राज विरोधी आधिपत्य की साक्ष्य नहीं होते हैं केवल लंबा आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं होता है जब तक कि वास्तविक स्वामी के ज्ञान में और उससे विरोधी रहते हुए आधिपत्य स्थापित न किया जावे इस संबंध में न्याय दृष्टांत कल्याण सिंह विरूद्ध जीथी बाई, 1995 एम.पी.एल.जे नोट 35 अवलोकनीय है।
लेकिन न्याय दृष्टांत पूनाबाई विरूद्ध उमराव 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 261 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विरोधी आधिपत्य का दावा रेवेन्यू कागजात से पुष्टि नहीं होने से दावा उचित रीति से निरस्त किया गया।
स्वामी निश्चित होना चाहिए:-
जो व्यक्ति विरोधी आधिपत्य के आधार पर किसी सम्पत्ति पर अपना स्वत्व अर्जित होना बतलाता है उसे यह निश्चित होना चाहिए कि सम्पत्ति का असली स्वामी कौन है यदि यह निश्चित नहीं है तब विरोधी आधिपत्य का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है।
जहा स्वामित्व निश्चित न हो वहा वास्तविक स्वामी के बारे में निष्कर्ष आना चाहिए इस संबध में न्याय दृष्टांत सुमित्रा बाई विरूद्ध अब्दुल वाहिद 2009 (4) एम.पी.जे.आर 341 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत टी.अंजनप्पा विरूद्ध सोमा लिंगाप्पा (2006) 7 एस.सी.सी. 570 मे यह प्रतिपादित किया है कि वह व्यक्ति जो विरोधी आधिपत्य के आधार पर दावा कर रहा है और वह वास्तविक स्वामी कौन इस बारे में निश्चित न हो वहा विरोधी आधिपत्य का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है।
न्याय दृष्टांत पी.टी.मुनी चिकन्ना रेडडी विरूद्ध रेवाम्मा ए.आई.आर 2007 एस.सी.1753 में यह प्रतिपादित किया गया है कि आधिपत्य विरोधी होना चाहिए ताकि वास्तविक स्वामी को युक्तियुक्त सूचना और अवसर मिल सके।
न्याय दृष्टांत धर्म राजन विरूद्ध वाली म्मलन, ए.आई.आर 2008 एस.सी. 850 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसके विरूद्ध विरोधी आधिपत्य है, ऐसा अभिवचन नहीं था जो उचित नहीं माना गया।
अब हम विरोधी आधिपत्य के विभिन्न मामले जो विचारण न्यायालय के सामने प्रायः आते हैं उन पर विचार करेगें।
5. बटाईदार के बारे में
बटाईदार या अधबटाईदार सामान्यतः वे व्यक्ति होते हैं जो किसी अन्य के स्वामित्व की कृषि भूमि पर खेती करके फलल उगाते हैं और मूल स्वामी को उसमें से अंश देते हे। कुछ वर्षो बाद ये व्यक्ति अपने आप को मालिक बतलाने लगते हैं तब विवाद प्रारंभ होता है।
न्याय दृष्टांत रूप सिंह विरूद्ध राम सिंह, ए.आई.आर 2000 एस.सी.1485 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि जहा प्रतिवादी का वादग्रस्त भूमि का आधिपत्य पटटेदार के रूप में अथवा बटाई करार के अंतर्गत हो वहा उसके द्वारा विरोधी आधिपत्य वास्तविक स्वामी की जानकारी में होना तर्क पूर्ण और विश्वसनीय साक्ष्य से प्रमाणित करना आवश्यक है केवल लंबे समय का आधिपत्य से अनुमत आधिपत्य प्रतिकूल आधिपत्य में परिवर्तित नहीं हो जायेगा।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत ठाकुर किशन सिंह विरूद्ध अरविन्द कुमार ए.आई.आर. 1985 एस.सी. 73 भी अवलोकनीय है, जिसमंे यह प्रतिपादित किया गया है कि जो व्यक्ति प्रारंभ में भूमि के अनुमत आधिपत्य मे आता है उस पर यह भारी प्रमाण भार रहता है कि वह यह स्थापित करे कि उसका आधिपत्य कब विरोधी हुआ केवल लंबे समय के आधिपत्य से अनुमत आधिपत्य विरोधी आधिपत्य में परिवर्तित नहीं होता है।
न्याय दृष्टांत घनश्याम दास विरूद्ध भरोसा, 2003 (1) एम.पी.जे.आर एस.एन 5 मे माननीय म.प्र. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि बटाईदार का आधिपत्य अनुमत आधिपत्य होता है वह विरोधी आधिपत्य का आधार नहीं हो सकता। संबंधित व्यक्ति को ऐसे स्पष्ट अभिवचन करने होगे कि उसका आधिपत्य स्वामी के विरूद्ध कब से विरोधी हुआ अर्थात् शुरूवाती बिंदु कब से है तथा लगातार 12 वर्ष तक स्वामी की जानकारी में ऐसा विरोधी आधिपत्य होना चाहिए केवल लंबे समय तक आधिपत्य से मूल स्वामी के विरूद्ध कोई अधिकार उत्पन्न नहीं होते।
किसी व्यक्ति का बटाईदार के रूप में अनुमत आधिपत्य मौखिक साक्ष्य से स्थापित हो जाता है तो केवल एक या दो वर्ष के खसरा इंद्राज के आधार पर विरोधी आधिपत्य क्लेम नहीं किया जा सकता इस संबंध में न्याय दृष्टांत चूडा मणि विरूद्ध श्रीमती गंगी, 1999 (1) डब्ल्यू.एन. 154 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत कालू विरूद्ध मदन लाल, 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 385 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुमत आधिपत्य को होसटाईल पजेशन से नहीं जोड़ा जा सकता।
6. किरायेदार के बारे में -
कभी-कभी किरायेदार जब लंबे समय से किसी मकान में रहता है तब वह भी मकान उसे विक्रय नहीं किये जाने या किसी अन्य कारण से स्वयं को मालिक बताने लगता है।
इन मामलों में यह ध्यान रखना चाहिए कि किरायेदार और मकान मालिक के संबंध तब तक बने रहते है जब तक स्पष्ट रूप से किरायेदार मकान मालिक के स्वत्वों से इंकार करके स्वयं को मालिक बताना प्रारंभ न कर दे और उसी समय से परिसीमा अवधि 12 वर्ष की प्रारंभ हेाती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत अजीत चोपड़ा विरूद्ध साधूराम (2007) 1 एस.सी.सी. 114 से मार्गदर्शन लिया जा सकता है जिसमें इस संबंध में उक्त वैधानिक स्थिति को स्पष्ट किया है।
न्याय दृष्टांत सहोदरी राय विरूद्ध सूरजप्रसाद ए.आई.आर. 1954 एस.सी.758 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुमत आधिपत्य विरोधी नहीं होता जब तक कि प्रतिवादी उसके विरूद्ध विरोधी होने का अभिकथन नहीं करता है। किराये की रसीद मकान मालिक और किरायेदारों के संबंध स्थापित करे यह आवश्यक नहीं है लेकिन ऐसा भुगतान अनुमत उपभोग जो कि कोई अधिकार या स्वत्व नहीं होता यह दर्शाता है।
लेकिन न्याय दृष्टांत चंद्रभागा बाई विरूद्ध रामकृष्ण, ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 2549 में वादी ने न्यायालय के नीलाम कार्यवाही में वादग्रस्त मकान खरीदा था। उसके पास नीलाम का विक्रय प्रमाण पत्र था जिसमें वादग्रस्त रूम स्पष्ट रूप से नहीं दिखलाया था जिसमें प्रतिवादी किराये से रहता था। यह प्रमाणित हुआ था कि प्रतिवादी विगत तीस वर्षो से अधिक समय से स्वामी के रूप में सम्पत्ति के आधिपत्य में था। नगरनिगम के रिकार्ड में प्रतिवादी ने किरायेदार होने का कथन किया था। इस मामले में प्रतिवादी का वादग्रस्त सम्पत्ति पर विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व होना पाया है।
7. सह-स्वामी के बारे में:-
कभी कभी संयुक्त हिन्दू परिवार का कोई सदस्य नौकरी, व्यापार या किसी अन्य कारण से जहा परिवार की सम्पत्ति है उससे भिन्न किसी शहर में रहने लगता है लेकिन वह संयुक्त हिन्दू परिवार का सदस्य बना रहता है जो सदस्य सम्पत्ति के आधिपत्य में रहते है कभी कभी वे स्वयं को सम्पत्ति का मालिक दर्शान लगते है।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में संशोधन के बाद पुत्रियों को भी पुत्र के समान सम्पत्ति में अधिकार मिलने लगे हैं वे विवाह के बाद अपने ससुराल चली जाती है तब भाई सम्पत्ति पर अकेले मालिक होना दर्शान लगते हैं।
उक्त विवादों में यह ध्यान रखना चाहिए कि सह-स्वामीयों के मामलों में यह माना जाता है कि एक सह-स्वामी का आधिपत्य सभी सह-स्वामीयों के लिये आधिपत्य है यदि एक सह-स्वामी सम्पत्ति के आधिपत्य में पाया जाता है तो यह उपधारित किया जायेगा कि वह संयुक्त स्वत्व के आधार पर में है जब तक कि उसे ऐसे स्पष्ट अभिवचन न करे कि उसका आधिपत्य अन्य सह-स्वामी को आउसट करते हुए उनके स्वत्वों को नकारते हुऐ खुले रूप से लगातार स्वयं को अकेले स्वामी मानते हुए हैं उक्त तथ्यों के बारे में स्पष्ट अभिवचन और प्रमाण होने चाहिए।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत पी.लक्ष्मी रेडडी विरूद्ध एल.लक्ष्मी रेडडी ए.आई.आर 1957 एस.सी. 314, गोविन्दा मल विरूद्ध आर.पेरूमल चेटटीयार ए.आई.आर 2007 एस.सी.204, मोहम्मद बकार विरूद्ध नाईम उल निशा बी.बी. ए.आई.आर. 1956 एस.सी.548, मोहम्मद मोईनूउददीन अली विरूद्ध जगदीश कालीता (2004) 1 एस.सी.सी. 271 अवलोकनीय है जिनमें सारतः उक्त विधि प्रतिपादित की गयी है।
न्याय दृष्टांत नंद किशोर विरूद्ध रमेश चंद, 2003 (4) एम.पी.एच.टी. 114 में यह प्रतिपादित किया गया है कि सगे भाईयों के बीच या सह स्वामीयों के बीच विरोधी आधिपत्य नहीं होता है जब तब कि विभाजन न हुआ हो तब तक प्रत्येक सह स्वामी अन्य सह स्वामी के आधिपत्य में है ऐसा माना जाता है और ऐसे में विरोधी आधिपत्य के तत्व अनुपस्थित रहते है यह स्थापित विधि है केवल लंबा आधिपत्य विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व करने के लिए पर्याप्त नहीं होता।
न्याय दृष्टांत अकबर अली विरूद्ध अजगर अली, आई.एल.आर. 2011 एम.पी.एस.एन. 64 डी0बी0 में यह प्रतिपादित किया गया है कि स्वामी के मृत्यु के बाद उसके वैध प्रतिनिधि प्लाट के मालिक हो गये। अपीलार्थी लगातार आधिपत्य में रहा उसका आधिपत्य सभी स्वामीयों का संयुक्त आधिपत्य माना जायेगा क्योंकि अन्य स्वामीयों के आउसटर का साक्ष्य नहीं था विरोधी आधिपत्य प्रमाणित नहीं माना गया।
8. अपंजीकृत विक्रय पत्र के बारे मे:-
अपंजीकृत विक्रय पत्र के आधार पर खुले रूप से सतत शांतिपूर्ण लंबे समय से आधिपत्य होने पर एवं ऐसे विक्रय पत्र धारी का भू राजस्व अभिलेख में नामान्तरण भी हो चुका हो तब न्यायालय ऐसे आधिपत्य को डिस्टर्ब नहीं कर सकते, इस संबंध में माननीय उच्च न्यायालय का न्याय दृष्टांत देपाली विरूद्ध डाडी 1999 राजस्व निर्णय 407 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत कालीका प्रसाद विरूद्ध छत्रपाल सिंह, ए.आई.आर 1997 एस.सी. 1699 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहा पक्षकार उसका आधिपत्य किसी अवैध दस्तावेज के आधार पर होना दावा करता है ऐसा आधिपत्य भी मूल स्वामी के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य होता है। इस संबंध मे न्याय दृष्टांत होतम सिंह विरूद्ध सेवाराम, 2004(2) एम पी एच टी 379 खंडपीठ अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत बोंदर सिंह विरूद्ध निहाल सिंह ए.आई.आर 2003 एम.सी. 1905 में वादी अपंजीकृत और अमुद्राकित विक्रय पत्र जो उसके पक्ष में पूर्व स्वामी ने निष्पादित किया था उसके आधार पर सम्पत्ति के आधिपत्य में था। वादी का अतिक्रामक होना और प्रतिवादी के पिता के समय से सम्पत्ति के आधिपत्य में होना स्वीकृत था। राजस्व अधिकारी के आदेश से भी वादी का गत 26-27 वर्षो से आधिपत्य था ऐसा स्थापित हुआ था। ऐसे विक्रय पत्रों को आधिपत्य की प्रकृति देखने के लिए उपयोग में लिया जा सकता है। विरोधी आधिपत्य प्रमाणित पाया गया।
9. जहा सम्पत्ति का अंतरण प्रतिषिद्ध हो:-
कभी कभी ऐसे मामले भी आते हैं जिनमें सम्पत्ति का अंतरण विधि द्वारा निषेध होता है या अंतरण सक्षम प्राधिकारी के अनुमति से ही हो सकता है उसे धारा 165(6) म.प्र.भू राजस्व संहिता के तहत अनुसूचित जनजाति के सदस्यो की भूमि का अंतरण कलेक्टर की अनुमति से ही हो सकता है ऐसे मामलो में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते है इसे ध्यान रखना चाहिए।
न्याय दृष्टांत लीनाबाई गमांगो विरूद्ध दयानिधि, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3487, अमरेन्द्र प्रताप सिंह विरूद्ध तेज बहादुर प्रजापति, ए.आई.आर 2004 ए.सी. 3782 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत डी.एन.वेंकटारायप्पा विरूद्ध स्टेट आफ कर्नाटक, ए.आई.आर 1997 एस.सी. 2930 में भी अनुसूचित जनजाति के सदस्य की भूमि का मामला था जिसका अंतरण निषेधित था इस शर्त पर भूमि आवंटित की गयी थी ऐसी भूमि के बारे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व न होना निर्धारित किया गया।
न्याय दृष्टांत शंकरलाल विरूद्ध श्रीमती पान कुवर बाई , 2000(2) एम.पी.एच.टी. 140 में यह प्रतिपादित किया गया कि जहा भूमि कृषक से अकृषक का अंतरित होना हो और ऐसा अंतरण कलेक्टर की अनुमति से ही हो सकता है जैसा की धारा 188 भोपाल स्टेट लेण्ड रेवेन्यू एक्ट में प्रावधान है ऐसे मामलों में भी विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं हेाते हैं।
10. ईनाम भूमि, वतन भूमि, सेवा भूमि, देव स्थान भूमि मे बारे में:-
यदि वादग्रस्त भूमि किसी व्यक्ति को ईनाम के रूप में या वतन भूमि जैसे की पुराने शासकों द्वारा दी जाती थी या देव स्थान की भूमि हो या सेवा भूमि हो उनके बारे में भी विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते हैं।
न्याय दृष्टांत महादेव राव वामन सौदालगेकर विरूद्ध रघुनाथ व्ही.देश पाण्डे ए.आई.आर 1923 पी.सी.205, करीमुल्ला खान विरूद्ध भाून प्रताप सिंह ए.आई.आर. 1949 नागपुर 265 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ईनाम भूमि, वतन भूमि, देवस्थान भूमि का अंतरण राज्य के हितों के कारण निषेध होता है अतः इनके बारे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते हैं।
न्याय दृष्टांत भगवंत राव विरूद्ध विश्वास राव, ए.आई.आर 1960 एस.सी.642 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पटेल को जो ईनाम भूमि दी जाती है उसे राजस्व प्राधिकारी पुनः ले सकते है और किसी अन्य को दे सकते है यह भूमि पटेल को उसकी पटेल के कार्यालय की सेवाओं के लिए दी जाती है उसके परिवार का कोई हक नही बनता है इन भूमियों पर भी विरोधी आधिपत्य नहीं बनता है।
न्याय दृष्टांत चंद्रमोहन आर पाटिल विरूद्ध बापू.के.पाटिल . ए.आई.आर 2003 एस.सी. 1754 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वतनदार की हैसियत से दी गयी भूमि जो तत्कालीन विधि के अनुसार बंटने योग्य नही थी बाद में वतन/ईनाम कानून के एबालिश होने के बाद सम्पत्ति वतनदार के पूरे परिवार मे आ गयी। अतः अब बंटने योग्य हो गयी। ऐसी सम्पत्ति पर विरोधी आधिपत्य परिपक्व नहीं होना माना गया।
11. बंधन के बारे में:-
बंधन गृहीता का आधिपत्य अनुमत आधिपत्य होता है जब तक कि यह न दर्शाया जाये कि वह विरोधी हो चुका है इस संबंध में न्याय दृष्टांत विरेन्द्र नाथ विरूद्ध मोहम्मद जीमल, ए.आई.आर 2004 एस.सी. 3856, रामनाथ विरूद्ध बैजनाथ 2005(4) एम.पी.एल.जे. 72 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत नागूबाइर अम्माल विरूद्ध बी. शामाराव . ए.आई.आर. 1996 एस.सी.593 में तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने प्रतिपादित किया है कि यह सुस्थापित विधि है कि विरोधी आधिपत्य पूर्व माडगेजी के अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है जोकि सम्पत्ति के विक्रय के बारे में होते हे और विक्रय की तारीख के पूर्व क्रेता के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य प्रारंभ नहीं होता है।
12. केवल लंबा आधिपत्य:-
केवल लंबा आधिपत्य जब तक कि मूल स्वामी के विरूद्ध उसके विरोधी होने का तथ्य न दर्शाया हो ऐसे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते है इस संबंध में न्याय दृष्टांत देवा विरूद्ध सज्जन कुमार ए.आई.आर 2003 एस.सी. 3907 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत अन्ना किली विरूद्ध वेडा नायागम ए.आई.आर 2008 एस.सी. 346 में यह प्रतिपादित किया गया है कि केवल 12 वर्ष से अधिक समय का लंबा आधिपत्य ही पर्याप्त नहीं है बल्कि आधिपत्य प्रारंभ होने के समय से ऐनीमस पोसीडेण्डी भी दर्शाना चाहिए।
13 धारा 60-बी सुखाधिकार अधिनियम के बारे में:-
जहा प्रतिवादी ने उसके भाई से संबंधित भूमि पर उसके भाई की सहमति से या उसकी जानकारी में मकान बना लिया वहा एक भाई ने दूसरे भाई को ऐसी अनुज्ञप्ति दी जिसका प्रतिसंहरण नहीं हो सकता है ऐसे में जिस भाई ने मकान बनाया उसे यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपना मकान हटा ले क्योंकि यहा विबंध की बाधा आती हे।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत राम बिलास विरूद्ध जगत राम, 2000(3) एम.पी.एच.टी. 11, सेवाराम विरूद्ध स्वामी अरमानंद 1959 एम.पी.एल.जे. 27 अवलोकनीय है।
14. सीमित समय के लिए दी गयी सम्पत्ति:-
जहा किसी व्यक्ति को कोई सम्पत्ति सीमित समय के लिए दी जाती है वहा वह उसका पूर्ण स्वामी नहीं बन पाता यदि राज्य द्वारा किसी व्यक्ति को 15 वर्ष की सीमित समय के लिए भूमि केवल जोतने के लिए दी गयी है और गां्रट के रूप में दी गई हो वहा विरोधी आधिपत्य के लिए अवधि 30 वर्ष मानी जायेगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत जी.कुष्णा रेडडी विरूद्ध सजाप्पा, ए.आई.आर 2011 एस.सी.2762 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत ओधर विरूद्ध चंद्रपति ए.आई.आर 20032 एस.सी.4389 टेनेम्सी लेंड के बारे में विरोधी आधिपत्य के संबंध में अवलोकनीय है।
15. राज्य के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य:-
न्याय दृष्टांत कलेक्टर आफ बाम्बे विरूद्ध म्यूसिपल कार्पोरेशन आफ द सिटी आफ बाम्बे ए.आई.आर 1951 एस.सी.469 में यह प्रतिपादित किया गया है कि राज्य के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य के तत्व के बारे में कोई अंतर नहीं है केवल आधिपत्य की अवधि अधिक होती है।
न्याय दृष्टांत काशीनाथ चंद्रबोस विरूद्ध कमीशनर आफ रांची. ए.आई.आर 1981 एस.सी.707 में यह प्रतिपादित किया गया है कि आधिपत्य खुला होना चाहिए और उसके छिपाने का कोई प्रयास नहीं होना चाहिए। टेंक के एक भाग पर विरोधी आधिपत्य का मामला था यह कहा गया कि टेंक पर विरोधी आधिपत्य प्रमाणित नहीं हो सकता ऐसा नहीं है कि विरोधी आधिपत्य प्रमाणित पाया गया।
16. अवयस्क एवं विधिक निर्योग्यता वाले व्यक्ति:-
ऐसे व्यक्तियों के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य उनकी विधिक निर्योग्यता समाप्त होने के बाद या संबंधित के वयस्क होने के बाद से ही शुरू होता है।
न्याय दृष्टांत बीरमबाई विरूद्ध भोजराम, 1986 एम.पी.एल.जे. 551 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अवयस्क के संरक्षक अवयस्क की ओर से आधिपत्य फिडूसियरी केपेसिटी में होता है। अवयस्क के विरूद्ध ऐसा आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं हो सकता है।
17. पति पत्नि के बारे में:-
जहा पति और पत्नि सम्पत्ति के संयुक्त आधिपत्य में हो वहा विरोधी आधिपत्य का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। जैसा की न्याय दृष्टांत ए.आई.आर 1928 नागपुर 275 में प्रतिपादित किया गया है।
जहा पति पत्नि के सम्पत्ति के आधिपत्य में हो वह पत्नि की ओर से आधिपत्य माना जाता है अतः इन मामलों में यदि दोने में से कोई भी पक्ष विरोधी आधिपत्य का दावा करता है तो उसे स्पष्ट अभिवचन और प्रमाण के साथ आना चाहिए।
18 विक्रय करार:-
कभी कभी कोई व्यक्ति किसी अन्य से उसके स्वामित्व की सम्पत्ति क्रय करने का करार करता है और उस करार के अधीन क्रेता को सम्पत्ति के आधिपत्य में रखा जाता है ऐसे विक्रय करार के अधीन आधिपत्य रखने वाला व्यक्ति का आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा आधिपत्य अनुमत प्रकृति का अनुबंध होता है और इन मामलों में भविष्य में विक्रय पत्र का निष्पादन किया जाना होता है।
न्याय दृष्टांत अचल रेडडी विरूद्ध रामकृष्णा ए.आई.आर 1990 एस.सी. 553 में निर्णय के चरण 8 में यह विधि प्रतिपादित की गई है कि विक्रय करार के अधीन आधिपत्य रखने वाले व्यक्ति का आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं माना जा सकता।
न्याय दृष्टांत मोहनलाल विरूद्ध मीर अब्दुल गफफूर ए.आई.आर 1996 एस.सी. 910 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो व्यक्ति विक्रय करार के अधीन सम्पत्ति के आधिपत्य में हो उसे विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व होने संबंधी अभिवाक उपलब्ध नहीं होता है।
न्याय दृष्टांत कोमलबाई विरूद्ध फर्म छाजूलाल 1998 (1) डब्ल्यू एन 163, हरिराम विरूद्ध म्यूनिसिपल काउन्सील 2001(2) डब्ल्यू एन 39 भी इसी संबंध में है।
19. दान के आधार पर:-
न्याय दृष्टांत श्रमती चंद्रकांता बेन जे मोदी विरूद्ध वाडीलाल डी मोदी ए.आई.आर. 1989 एस.सी.1269 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी संयुक्त हिन्दू परिवार क सम्पत्ति में दान के द्वारा वादग्रस्त सम्पत्ति के आधिपत्य में आई दानदाता के स्थान पर उसका नामान्तरण भी हो गया उससे संबंधी सम्पत्ति का विवरण किराया रसीद में भी पाया गया जा ेरसीद वह किरायेदार को देती थी। उसका 14 वर्ष से वादग्रस्त सम्पत्ति पर एकमेव आधिपत्य पाया गया विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व कर लेना प्रमाणित पाया गया।
इस तरह दान पत्र के आधार पर यदि कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति के आधिपत्य में आता है और उसका आधिपत्य 12 वर्ष से अधिक समय तक खुले रूप से लगातार आधिपत्य रहता है तो उसके स्वत्व विरोधी आधिपत्य के आधार पर भी परिपक्व हो जाते हैं।
20. सह विधवाओं के बारे मे -
जहा कोई विधवा किसी सम्पत्ति के आधिपत्य में हो और उस सम्पत्ति के आधार पर बीमा भी लेती हो तो उसका यह कृत्य उसके उस सम्पत्ति पर एकमात्र स्वत्व नहीं दिखाते हैं और दूसरी सह विधवा जिसके विरूद्ध आउस्टर प्रमाणित नहीं हुआ है उसके स्वत्व समाप्त नहीं होते हैं इस संबंध में न्याय दृष्टांत बाई रेवा विरूद्ध बाई जादव, ए.आई.आर 1986 एस.सी. 1921 अबलोकनीय है।
21. जागीर के बारे में:-
न्याय दृष्टांत राजा रामेश्वर विरूद्ध राजा गोविन्द राव. ए.आई.आर 1961 एस.सी.1942 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहा जागीर जीवनकाल के किलए दी गई है वहा ऐसी सीमित हित रखने वाले व्यक्ति का विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व नहीं बनता है।
22. लाईसेंसी के बारे में:-
यदि उसका कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति के लाईसेंसी के रूप में आधिपत्य में हो तो उसका आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं हो सकता केवल लाईसेंस को समाप्त कर देना विरोधी आधिपत्य गठित नहीं करता। जब तक कि लाईसेंसी मूल स्वामी के विरूद्ध अर्थात लाईसेंसर के विरूद्ध विरोधी स्वत्व स्थापित न करे।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत गयाप्रसाद दीक्षित विरूद्ध डा निर्मल चंद ए.आई.आर 1984 एस.सी.930 अवलोकनीय है।
23. मछली पकडने का अधिकार:-
न्याय दृष्टांत राजा बृजसंुदर देव विरूद्ध मोनी बेहरा ए.आई.आर. 1951 एस.सी. 245 में यह प्रतिपादित किया गया है कि कई मछुयारांें को समय समय पर मछली पकड़ने की अनुज्ञप्ति और अनुमति दी जाती है लेकिन उनका मूल स्वामी के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होता है।
24. अवैध गा्रंट के बारे में:-
यदि किसी संस्था को कोई भूमि गा्रंट पर विधि द्वारा निर्धारित तरीके के बिना दे दी जाती है और उस संस्था का उस सम्पत्ति पर खुले रूप से लगातार अबाध 60 वर्षो से आधिपत्य रहता है। सरकार और नगरनिगम संस्था को स्वामी के रूप में ट्रीट करता है यद्यपि संस्था का सम्पत्ति पर अवैध गां्रट के रूप में आधिपत्य था ऐसे आधिपत्य के आधार पर विरोधी आधिपत्य का स्वत्व प्रमाणित होना माना गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेट आफ वेस्ट बंगाल विरूद्ध द डलहौजी इंस्टीटयूट सोसाईटी, ए.आई.आर 1970 एस.सी.1778 अवलोकनीय है।
24. पक्का टेनेन्ट के बारे में:-
यदि कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति के आधिपत्य में हो और पक्का टेनेन्ट उस आधिपत्य को वापस प्राप्त करने के लिए वाद संस्थित कर देता है तब वाद संस्थित करते ही उस व्यक्ति का विरोधी आधिपत्य लगातार होना बंद हो जाता हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत बाबू खान विरूद्ध नजीम खान ए आई आर 2001 एस.सी.1740 अवलोकनीय है।
इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि पक्का टेनेन्ट को उसका आधिपत्य को वापस लेने के लिए पहले धारा 91 मध्यभारत लेण्ड रिवेन्यू एण्ड टेनेन्सी एक्ट 1950 के तहत कार्यवाही करना चाहिए उसके बाद ही वह सिविल न्यायालय में आ सकता है।
25. छावनी क्षेत्र की भूमि:-
सामान्यतः छावनी क्षेत्र की भूमि के बारे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते हैं। जैसे ही कोई छावनी क्षेत्र गठित होता है उस क्षेत्र मे निजी स्वामित्व की सम्पत्ति होती है वे शासन द्वारा अधिगृहीत कर ली गई है ऐसी उपधारणा की जाती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सोहनसिंह विरूद्ध गर्वनर जनरल ए आई आर 1947 पी.सी.178 अवलोकनीय है
26. घूरा डालना:-
यदि किसी खुले प्लाट पर कोई व्यक्ति 12 वर्ष से अधिक समय से घूरा (कचरा गोवर आदि) डालता है तो उसका विधिक आधिपत्य गठित नहीं होता और ऐसा व्यक्ति विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व अर्जित नहीं करता। इस संबंध में न्याय दृष्टांत जुगलकिशोर विरूद्ध रामनाथ 1992 जे.एल.जे. 92 अवलोकनीय है।
27. रिसीवर के बारे में:-
न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर का आधिपत्य किसी पक्षकार का आधिपत्य नहीं होता है और वह सम्पत्ति को न्यायालय के आदेश के अधीन रखता है अतः रिसीवर का विरोधी आधिपत्य नहीं बनता है। यही स्थिति कोर्ट आफ वार्ड की भी है।
28. सीमा विवाद:-
एक खुले प्लाट पर निर्माण किया गया। पक्षकार उनकी भूमि की सीमाओं या बाउन्डी के बारे में अज्ञान थे ऐसे मे विरोधी आधिपत्य नहीं बनेगा। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सत्यनारायण विरूद्ध रत्नलाल 1985 एम.पी.डब्ल्यू एन 257 अवलोकनीय है।
29. बाधा का प्रभाव:-
किसी व्यक्ति का विधि द्वारा बतलाई गई अवधि तक किसी सम्पत्ति पर विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व करने के लिए आवश्यक होता है और यदि इसमें बीच मे कोई बाधा कारित होती है तो इसे सतत आधिपत्य नहीं माना जाता है।
लेकिन एक ऐसे वाद की डिक्री जिसमें वह व्यक्ति पक्षकार नहीं है वह डिक्री उस पर बंधन कारी नहीं होती है और उसके आधार पर बाधाकारित होना नहीं माना जा सकता। इस संबंध में न्याय दृष्टांत महादेव प्रसाद विरूद्ध रूपला 1984 एम.पी.डब्ल्यू एन 97 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत बालकृष्ण विरूद्ध सत्यप्रकाश ए आई आर 2001 एस.सी. 700 में प्रतिपादित किया गया है कि वादग्रस्त सम्पत्ति तहसीलदार के आदेश से कुर्क थी और वादी ने उसे नीलाम मे खरीदा था। वादी ने धारा 250 म.प्र.भू.राजस्व संहिता में आधिपत्य लेने के लिए कार्यवाही की तहसीलदार ने निष्कासन आदेश दिया उसके बाद भी प्रतिवादी लगातार आधिपत्य में बना रहा केवल निष्कासन आदेश किया गया लेकिन प्रतिवादी से उसका आधिपत्य नहीं लिया गया और न उसे अनिरन्तर किया गया ऐसे में प्रतिवादी के विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व माना गया।
30. साक्ष्य लेखन:-
न्यायाधीश को साक्ष्य लेखन के समय भी सतर्क रह कर यह देखना चाहिए कि विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्पष्ट साक्ष्य अभिलेख पर आई है या नहीं और बिंदु क्रमांक 4 में जो तथ्य दिये हैं उन पर साक्षीगण से प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं
इस तरह विचारण न्यायालय को प्रकरण के निराकरण के साथ और अपील न्यायालय केा अपील निराकरण के समय उक्त वैधानिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए कार्यवाही करना चाहिए।
डी- उसका आधिपत्य कब से सतत् है ?
ई- उसका आधिपत्य खुले रूप से और अबाध है ?
एक व्यक्ति जो विरोधी आधिपत्य का दावा करता है उसके पक्ष में साम्या या इक्विटी नहीं होती है क्योंकि वह वास्तविक स्वामी के अधिकारों का हनन करता है इसलिये उसके लिए आवश्यक है कि वह स्पष्ट रूप से सभी तथ्यों जो विरोधी आधिपत्य के लिए आवश्यक है उनका अभिवचन करे और उन्हें स्थापित भी करें।
इस संबंध में उक्त न्याय दृष्टांत हेमा जी वाघ जी जाट एवं न्याय दृष्टांत डा महेशचंद्र शर्मा विरूद्ध श्रीमती राजकुमारी शर्मा , ए.आई.आर 1996 एस.सी.869 अवलोकनीय है जिसमें सारतः उक्त विधि प्रतिपादित की गई है।
न्याय दृष्टांत कृष्णा मूर्ति एस. सेटलूर विरूद्ध ओ.व्ही. नरसिम्हा सेट्टी, 2007 (3) एस.पी.एल.जे 15 एस.सी. में भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि विरोधी आधिपत्य का प्रश्न केवल तथ्य का साधारण प्रश्न नहीं है बल्कि विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है जिसमें वादी को भी विरोधी अभिवचन के सभी तत्वों को अभिवचन करना चाहिए और प्रमाणित भी करना चाहिए।
न्याय दृष्टांत बी.लीलावती विरूद्ध होन्नाम्मा (2005) 11 एस.सी.सी. 115 भी विरोधी आधिपत्य के स्पष्ट अभिवचन, प्रमाण व इसके तथ्य का प्रश्न होने के संबंध में अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत पार्वतीबाई विरूद्ध सोनाबाई, ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 381 में यह प्रतिपादित किया है कि वह व्यक्ति जो विरोधी आधिपत्य के आधार पर दावा करता है उसे यह निश्चित तारीख स्थापित करना चाहिए जहा से उसका विरोधी आधिपत्य प्रारंभ हुआ है।
न्याय दृष्टांत एम.मदरैई विरूद्ध मुत्थू (2007) 3 एस.सी.सी. 114 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विरोधी आधिपत्य के तथ्यों को प्रमाणित करना चाहिए विभिन्न न्याय दृष्टांतों को विचार में लिया गया है।
न्याय दृष्टांत रमेश सिंह विरूद्ध रामचंद, 2004(1) एम.पी.एल.जे. 112 में यह प्रतिपादित किया गया है कि आधिपत्य की प्रकृति और वह कब से प्रारंभ हुआ इस बारे में स्पष्ट अभिवचन और प्रमाण होना चाहिए।
न्याय दृष्टांत बाबूलाल जैन विरूद्ध अचल कुमार 2011(3) एम.पी.एच.टी. 426 में विरोधी आधिपत्य के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है और बतलाया गया है कि जहा कोई व्यक्ति अन्य की सम्पत्ति पर बिना किसी अधिकार के प्रवेश करता है और 12 वर्ष तक मूल स्वामी के विरूद्ध लगातार अपना कब्जा बनाये रखता है वहा वास्तविक स्वामी के स्वत्व 12 वर्ष की अवधि के बाद समाप्त हो जाते हैं और उस व्यक्ति के स्वत्व परिपक्व हो जाते हैं।
जहा किसी पक्ष का प्रारंभ में अनुमत आधिपत्य या परिमीसिव पजेशन रहा हो और उसके आधार पर वह बाद में विरोधी या एडवर्स हो गया हो तब उस पक्ष को यह स्पष्ट अभिवचन करना चाहिए कि उसका अनुमत आधिपत्य किस दिनांक विशेष से विरोधी हुआ।
क्या वास्तविक भौतिक आधिपत्य जरूरी है ?
न्याय दृष्टांत श्रीमती चंद्रकांता बेन जे मोदी विरूद्ध वाडीलाल डी मोदी ए.आई.आर 1989 एस.सी.1269 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वास्तविक भौतिक आधिपत्य वादी का होना आवश्यक नहीं है यह तथ्य की सम्पत्ति वादी के किरायेदार के कब्जे में थी इसका विरोधी आधिपत्य पर कोई प्रभाव नहीं होगा।
रेवेन्यू रिकार्ड के इंद्राज:-
रेवेन्यू कागजात के इंद्राज विरोधी आधिपत्य की साक्ष्य नहीं होते हैं केवल लंबा आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं होता है जब तक कि वास्तविक स्वामी के ज्ञान में और उससे विरोधी रहते हुए आधिपत्य स्थापित न किया जावे इस संबंध में न्याय दृष्टांत कल्याण सिंह विरूद्ध जीथी बाई, 1995 एम.पी.एल.जे नोट 35 अवलोकनीय है।
लेकिन न्याय दृष्टांत पूनाबाई विरूद्ध उमराव 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 261 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विरोधी आधिपत्य का दावा रेवेन्यू कागजात से पुष्टि नहीं होने से दावा उचित रीति से निरस्त किया गया।
स्वामी निश्चित होना चाहिए:-
जो व्यक्ति विरोधी आधिपत्य के आधार पर किसी सम्पत्ति पर अपना स्वत्व अर्जित होना बतलाता है उसे यह निश्चित होना चाहिए कि सम्पत्ति का असली स्वामी कौन है यदि यह निश्चित नहीं है तब विरोधी आधिपत्य का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है।
जहा स्वामित्व निश्चित न हो वहा वास्तविक स्वामी के बारे में निष्कर्ष आना चाहिए इस संबध में न्याय दृष्टांत सुमित्रा बाई विरूद्ध अब्दुल वाहिद 2009 (4) एम.पी.जे.आर 341 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत टी.अंजनप्पा विरूद्ध सोमा लिंगाप्पा (2006) 7 एस.सी.सी. 570 मे यह प्रतिपादित किया है कि वह व्यक्ति जो विरोधी आधिपत्य के आधार पर दावा कर रहा है और वह वास्तविक स्वामी कौन इस बारे में निश्चित न हो वहा विरोधी आधिपत्य का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है।
न्याय दृष्टांत पी.टी.मुनी चिकन्ना रेडडी विरूद्ध रेवाम्मा ए.आई.आर 2007 एस.सी.1753 में यह प्रतिपादित किया गया है कि आधिपत्य विरोधी होना चाहिए ताकि वास्तविक स्वामी को युक्तियुक्त सूचना और अवसर मिल सके।
न्याय दृष्टांत धर्म राजन विरूद्ध वाली म्मलन, ए.आई.आर 2008 एस.सी. 850 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसके विरूद्ध विरोधी आधिपत्य है, ऐसा अभिवचन नहीं था जो उचित नहीं माना गया।
अब हम विरोधी आधिपत्य के विभिन्न मामले जो विचारण न्यायालय के सामने प्रायः आते हैं उन पर विचार करेगें।
5. बटाईदार के बारे में
बटाईदार या अधबटाईदार सामान्यतः वे व्यक्ति होते हैं जो किसी अन्य के स्वामित्व की कृषि भूमि पर खेती करके फलल उगाते हैं और मूल स्वामी को उसमें से अंश देते हे। कुछ वर्षो बाद ये व्यक्ति अपने आप को मालिक बतलाने लगते हैं तब विवाद प्रारंभ होता है।
न्याय दृष्टांत रूप सिंह विरूद्ध राम सिंह, ए.आई.आर 2000 एस.सी.1485 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि जहा प्रतिवादी का वादग्रस्त भूमि का आधिपत्य पटटेदार के रूप में अथवा बटाई करार के अंतर्गत हो वहा उसके द्वारा विरोधी आधिपत्य वास्तविक स्वामी की जानकारी में होना तर्क पूर्ण और विश्वसनीय साक्ष्य से प्रमाणित करना आवश्यक है केवल लंबे समय का आधिपत्य से अनुमत आधिपत्य प्रतिकूल आधिपत्य में परिवर्तित नहीं हो जायेगा।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत ठाकुर किशन सिंह विरूद्ध अरविन्द कुमार ए.आई.आर. 1985 एस.सी. 73 भी अवलोकनीय है, जिसमंे यह प्रतिपादित किया गया है कि जो व्यक्ति प्रारंभ में भूमि के अनुमत आधिपत्य मे आता है उस पर यह भारी प्रमाण भार रहता है कि वह यह स्थापित करे कि उसका आधिपत्य कब विरोधी हुआ केवल लंबे समय के आधिपत्य से अनुमत आधिपत्य विरोधी आधिपत्य में परिवर्तित नहीं होता है।
न्याय दृष्टांत घनश्याम दास विरूद्ध भरोसा, 2003 (1) एम.पी.जे.आर एस.एन 5 मे माननीय म.प्र. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि बटाईदार का आधिपत्य अनुमत आधिपत्य होता है वह विरोधी आधिपत्य का आधार नहीं हो सकता। संबंधित व्यक्ति को ऐसे स्पष्ट अभिवचन करने होगे कि उसका आधिपत्य स्वामी के विरूद्ध कब से विरोधी हुआ अर्थात् शुरूवाती बिंदु कब से है तथा लगातार 12 वर्ष तक स्वामी की जानकारी में ऐसा विरोधी आधिपत्य होना चाहिए केवल लंबे समय तक आधिपत्य से मूल स्वामी के विरूद्ध कोई अधिकार उत्पन्न नहीं होते।
किसी व्यक्ति का बटाईदार के रूप में अनुमत आधिपत्य मौखिक साक्ष्य से स्थापित हो जाता है तो केवल एक या दो वर्ष के खसरा इंद्राज के आधार पर विरोधी आधिपत्य क्लेम नहीं किया जा सकता इस संबंध में न्याय दृष्टांत चूडा मणि विरूद्ध श्रीमती गंगी, 1999 (1) डब्ल्यू.एन. 154 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत कालू विरूद्ध मदन लाल, 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 385 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुमत आधिपत्य को होसटाईल पजेशन से नहीं जोड़ा जा सकता।
6. किरायेदार के बारे में -
कभी-कभी किरायेदार जब लंबे समय से किसी मकान में रहता है तब वह भी मकान उसे विक्रय नहीं किये जाने या किसी अन्य कारण से स्वयं को मालिक बताने लगता है।
इन मामलों में यह ध्यान रखना चाहिए कि किरायेदार और मकान मालिक के संबंध तब तक बने रहते है जब तक स्पष्ट रूप से किरायेदार मकान मालिक के स्वत्वों से इंकार करके स्वयं को मालिक बताना प्रारंभ न कर दे और उसी समय से परिसीमा अवधि 12 वर्ष की प्रारंभ हेाती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत अजीत चोपड़ा विरूद्ध साधूराम (2007) 1 एस.सी.सी. 114 से मार्गदर्शन लिया जा सकता है जिसमें इस संबंध में उक्त वैधानिक स्थिति को स्पष्ट किया है।
न्याय दृष्टांत सहोदरी राय विरूद्ध सूरजप्रसाद ए.आई.आर. 1954 एस.सी.758 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुमत आधिपत्य विरोधी नहीं होता जब तक कि प्रतिवादी उसके विरूद्ध विरोधी होने का अभिकथन नहीं करता है। किराये की रसीद मकान मालिक और किरायेदारों के संबंध स्थापित करे यह आवश्यक नहीं है लेकिन ऐसा भुगतान अनुमत उपभोग जो कि कोई अधिकार या स्वत्व नहीं होता यह दर्शाता है।
लेकिन न्याय दृष्टांत चंद्रभागा बाई विरूद्ध रामकृष्ण, ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 2549 में वादी ने न्यायालय के नीलाम कार्यवाही में वादग्रस्त मकान खरीदा था। उसके पास नीलाम का विक्रय प्रमाण पत्र था जिसमें वादग्रस्त रूम स्पष्ट रूप से नहीं दिखलाया था जिसमें प्रतिवादी किराये से रहता था। यह प्रमाणित हुआ था कि प्रतिवादी विगत तीस वर्षो से अधिक समय से स्वामी के रूप में सम्पत्ति के आधिपत्य में था। नगरनिगम के रिकार्ड में प्रतिवादी ने किरायेदार होने का कथन किया था। इस मामले में प्रतिवादी का वादग्रस्त सम्पत्ति पर विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व होना पाया है।
7. सह-स्वामी के बारे में:-
कभी कभी संयुक्त हिन्दू परिवार का कोई सदस्य नौकरी, व्यापार या किसी अन्य कारण से जहा परिवार की सम्पत्ति है उससे भिन्न किसी शहर में रहने लगता है लेकिन वह संयुक्त हिन्दू परिवार का सदस्य बना रहता है जो सदस्य सम्पत्ति के आधिपत्य में रहते है कभी कभी वे स्वयं को सम्पत्ति का मालिक दर्शान लगते है।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में संशोधन के बाद पुत्रियों को भी पुत्र के समान सम्पत्ति में अधिकार मिलने लगे हैं वे विवाह के बाद अपने ससुराल चली जाती है तब भाई सम्पत्ति पर अकेले मालिक होना दर्शान लगते हैं।
उक्त विवादों में यह ध्यान रखना चाहिए कि सह-स्वामीयों के मामलों में यह माना जाता है कि एक सह-स्वामी का आधिपत्य सभी सह-स्वामीयों के लिये आधिपत्य है यदि एक सह-स्वामी सम्पत्ति के आधिपत्य में पाया जाता है तो यह उपधारित किया जायेगा कि वह संयुक्त स्वत्व के आधार पर में है जब तक कि उसे ऐसे स्पष्ट अभिवचन न करे कि उसका आधिपत्य अन्य सह-स्वामी को आउसट करते हुए उनके स्वत्वों को नकारते हुऐ खुले रूप से लगातार स्वयं को अकेले स्वामी मानते हुए हैं उक्त तथ्यों के बारे में स्पष्ट अभिवचन और प्रमाण होने चाहिए।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत पी.लक्ष्मी रेडडी विरूद्ध एल.लक्ष्मी रेडडी ए.आई.आर 1957 एस.सी. 314, गोविन्दा मल विरूद्ध आर.पेरूमल चेटटीयार ए.आई.आर 2007 एस.सी.204, मोहम्मद बकार विरूद्ध नाईम उल निशा बी.बी. ए.आई.आर. 1956 एस.सी.548, मोहम्मद मोईनूउददीन अली विरूद्ध जगदीश कालीता (2004) 1 एस.सी.सी. 271 अवलोकनीय है जिनमें सारतः उक्त विधि प्रतिपादित की गयी है।
न्याय दृष्टांत नंद किशोर विरूद्ध रमेश चंद, 2003 (4) एम.पी.एच.टी. 114 में यह प्रतिपादित किया गया है कि सगे भाईयों के बीच या सह स्वामीयों के बीच विरोधी आधिपत्य नहीं होता है जब तब कि विभाजन न हुआ हो तब तक प्रत्येक सह स्वामी अन्य सह स्वामी के आधिपत्य में है ऐसा माना जाता है और ऐसे में विरोधी आधिपत्य के तत्व अनुपस्थित रहते है यह स्थापित विधि है केवल लंबा आधिपत्य विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व करने के लिए पर्याप्त नहीं होता।
न्याय दृष्टांत अकबर अली विरूद्ध अजगर अली, आई.एल.आर. 2011 एम.पी.एस.एन. 64 डी0बी0 में यह प्रतिपादित किया गया है कि स्वामी के मृत्यु के बाद उसके वैध प्रतिनिधि प्लाट के मालिक हो गये। अपीलार्थी लगातार आधिपत्य में रहा उसका आधिपत्य सभी स्वामीयों का संयुक्त आधिपत्य माना जायेगा क्योंकि अन्य स्वामीयों के आउसटर का साक्ष्य नहीं था विरोधी आधिपत्य प्रमाणित नहीं माना गया।
8. अपंजीकृत विक्रय पत्र के बारे मे:-
अपंजीकृत विक्रय पत्र के आधार पर खुले रूप से सतत शांतिपूर्ण लंबे समय से आधिपत्य होने पर एवं ऐसे विक्रय पत्र धारी का भू राजस्व अभिलेख में नामान्तरण भी हो चुका हो तब न्यायालय ऐसे आधिपत्य को डिस्टर्ब नहीं कर सकते, इस संबंध में माननीय उच्च न्यायालय का न्याय दृष्टांत देपाली विरूद्ध डाडी 1999 राजस्व निर्णय 407 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत कालीका प्रसाद विरूद्ध छत्रपाल सिंह, ए.आई.आर 1997 एस.सी. 1699 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहा पक्षकार उसका आधिपत्य किसी अवैध दस्तावेज के आधार पर होना दावा करता है ऐसा आधिपत्य भी मूल स्वामी के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य होता है। इस संबंध मे न्याय दृष्टांत होतम सिंह विरूद्ध सेवाराम, 2004(2) एम पी एच टी 379 खंडपीठ अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत बोंदर सिंह विरूद्ध निहाल सिंह ए.आई.आर 2003 एम.सी. 1905 में वादी अपंजीकृत और अमुद्राकित विक्रय पत्र जो उसके पक्ष में पूर्व स्वामी ने निष्पादित किया था उसके आधार पर सम्पत्ति के आधिपत्य में था। वादी का अतिक्रामक होना और प्रतिवादी के पिता के समय से सम्पत्ति के आधिपत्य में होना स्वीकृत था। राजस्व अधिकारी के आदेश से भी वादी का गत 26-27 वर्षो से आधिपत्य था ऐसा स्थापित हुआ था। ऐसे विक्रय पत्रों को आधिपत्य की प्रकृति देखने के लिए उपयोग में लिया जा सकता है। विरोधी आधिपत्य प्रमाणित पाया गया।
9. जहा सम्पत्ति का अंतरण प्रतिषिद्ध हो:-
कभी कभी ऐसे मामले भी आते हैं जिनमें सम्पत्ति का अंतरण विधि द्वारा निषेध होता है या अंतरण सक्षम प्राधिकारी के अनुमति से ही हो सकता है उसे धारा 165(6) म.प्र.भू राजस्व संहिता के तहत अनुसूचित जनजाति के सदस्यो की भूमि का अंतरण कलेक्टर की अनुमति से ही हो सकता है ऐसे मामलो में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते है इसे ध्यान रखना चाहिए।
न्याय दृष्टांत लीनाबाई गमांगो विरूद्ध दयानिधि, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3487, अमरेन्द्र प्रताप सिंह विरूद्ध तेज बहादुर प्रजापति, ए.आई.आर 2004 ए.सी. 3782 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत डी.एन.वेंकटारायप्पा विरूद्ध स्टेट आफ कर्नाटक, ए.आई.आर 1997 एस.सी. 2930 में भी अनुसूचित जनजाति के सदस्य की भूमि का मामला था जिसका अंतरण निषेधित था इस शर्त पर भूमि आवंटित की गयी थी ऐसी भूमि के बारे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व न होना निर्धारित किया गया।
न्याय दृष्टांत शंकरलाल विरूद्ध श्रीमती पान कुवर बाई , 2000(2) एम.पी.एच.टी. 140 में यह प्रतिपादित किया गया कि जहा भूमि कृषक से अकृषक का अंतरित होना हो और ऐसा अंतरण कलेक्टर की अनुमति से ही हो सकता है जैसा की धारा 188 भोपाल स्टेट लेण्ड रेवेन्यू एक्ट में प्रावधान है ऐसे मामलों में भी विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं हेाते हैं।
10. ईनाम भूमि, वतन भूमि, सेवा भूमि, देव स्थान भूमि मे बारे में:-
यदि वादग्रस्त भूमि किसी व्यक्ति को ईनाम के रूप में या वतन भूमि जैसे की पुराने शासकों द्वारा दी जाती थी या देव स्थान की भूमि हो या सेवा भूमि हो उनके बारे में भी विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते हैं।
न्याय दृष्टांत महादेव राव वामन सौदालगेकर विरूद्ध रघुनाथ व्ही.देश पाण्डे ए.आई.आर 1923 पी.सी.205, करीमुल्ला खान विरूद्ध भाून प्रताप सिंह ए.आई.आर. 1949 नागपुर 265 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ईनाम भूमि, वतन भूमि, देवस्थान भूमि का अंतरण राज्य के हितों के कारण निषेध होता है अतः इनके बारे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते हैं।
न्याय दृष्टांत भगवंत राव विरूद्ध विश्वास राव, ए.आई.आर 1960 एस.सी.642 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पटेल को जो ईनाम भूमि दी जाती है उसे राजस्व प्राधिकारी पुनः ले सकते है और किसी अन्य को दे सकते है यह भूमि पटेल को उसकी पटेल के कार्यालय की सेवाओं के लिए दी जाती है उसके परिवार का कोई हक नही बनता है इन भूमियों पर भी विरोधी आधिपत्य नहीं बनता है।
न्याय दृष्टांत चंद्रमोहन आर पाटिल विरूद्ध बापू.के.पाटिल . ए.आई.आर 2003 एस.सी. 1754 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वतनदार की हैसियत से दी गयी भूमि जो तत्कालीन विधि के अनुसार बंटने योग्य नही थी बाद में वतन/ईनाम कानून के एबालिश होने के बाद सम्पत्ति वतनदार के पूरे परिवार मे आ गयी। अतः अब बंटने योग्य हो गयी। ऐसी सम्पत्ति पर विरोधी आधिपत्य परिपक्व नहीं होना माना गया।
11. बंधन के बारे में:-
बंधन गृहीता का आधिपत्य अनुमत आधिपत्य होता है जब तक कि यह न दर्शाया जाये कि वह विरोधी हो चुका है इस संबंध में न्याय दृष्टांत विरेन्द्र नाथ विरूद्ध मोहम्मद जीमल, ए.आई.आर 2004 एस.सी. 3856, रामनाथ विरूद्ध बैजनाथ 2005(4) एम.पी.एल.जे. 72 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत नागूबाइर अम्माल विरूद्ध बी. शामाराव . ए.आई.आर. 1996 एस.सी.593 में तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने प्रतिपादित किया है कि यह सुस्थापित विधि है कि विरोधी आधिपत्य पूर्व माडगेजी के अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है जोकि सम्पत्ति के विक्रय के बारे में होते हे और विक्रय की तारीख के पूर्व क्रेता के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य प्रारंभ नहीं होता है।
12. केवल लंबा आधिपत्य:-
केवल लंबा आधिपत्य जब तक कि मूल स्वामी के विरूद्ध उसके विरोधी होने का तथ्य न दर्शाया हो ऐसे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते है इस संबंध में न्याय दृष्टांत देवा विरूद्ध सज्जन कुमार ए.आई.आर 2003 एस.सी. 3907 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत अन्ना किली विरूद्ध वेडा नायागम ए.आई.आर 2008 एस.सी. 346 में यह प्रतिपादित किया गया है कि केवल 12 वर्ष से अधिक समय का लंबा आधिपत्य ही पर्याप्त नहीं है बल्कि आधिपत्य प्रारंभ होने के समय से ऐनीमस पोसीडेण्डी भी दर्शाना चाहिए।
13 धारा 60-बी सुखाधिकार अधिनियम के बारे में:-
जहा प्रतिवादी ने उसके भाई से संबंधित भूमि पर उसके भाई की सहमति से या उसकी जानकारी में मकान बना लिया वहा एक भाई ने दूसरे भाई को ऐसी अनुज्ञप्ति दी जिसका प्रतिसंहरण नहीं हो सकता है ऐसे में जिस भाई ने मकान बनाया उसे यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपना मकान हटा ले क्योंकि यहा विबंध की बाधा आती हे।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत राम बिलास विरूद्ध जगत राम, 2000(3) एम.पी.एच.टी. 11, सेवाराम विरूद्ध स्वामी अरमानंद 1959 एम.पी.एल.जे. 27 अवलोकनीय है।
14. सीमित समय के लिए दी गयी सम्पत्ति:-
जहा किसी व्यक्ति को कोई सम्पत्ति सीमित समय के लिए दी जाती है वहा वह उसका पूर्ण स्वामी नहीं बन पाता यदि राज्य द्वारा किसी व्यक्ति को 15 वर्ष की सीमित समय के लिए भूमि केवल जोतने के लिए दी गयी है और गां्रट के रूप में दी गई हो वहा विरोधी आधिपत्य के लिए अवधि 30 वर्ष मानी जायेगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत जी.कुष्णा रेडडी विरूद्ध सजाप्पा, ए.आई.आर 2011 एस.सी.2762 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत ओधर विरूद्ध चंद्रपति ए.आई.आर 20032 एस.सी.4389 टेनेम्सी लेंड के बारे में विरोधी आधिपत्य के संबंध में अवलोकनीय है।
15. राज्य के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य:-
न्याय दृष्टांत कलेक्टर आफ बाम्बे विरूद्ध म्यूसिपल कार्पोरेशन आफ द सिटी आफ बाम्बे ए.आई.आर 1951 एस.सी.469 में यह प्रतिपादित किया गया है कि राज्य के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य के तत्व के बारे में कोई अंतर नहीं है केवल आधिपत्य की अवधि अधिक होती है।
न्याय दृष्टांत काशीनाथ चंद्रबोस विरूद्ध कमीशनर आफ रांची. ए.आई.आर 1981 एस.सी.707 में यह प्रतिपादित किया गया है कि आधिपत्य खुला होना चाहिए और उसके छिपाने का कोई प्रयास नहीं होना चाहिए। टेंक के एक भाग पर विरोधी आधिपत्य का मामला था यह कहा गया कि टेंक पर विरोधी आधिपत्य प्रमाणित नहीं हो सकता ऐसा नहीं है कि विरोधी आधिपत्य प्रमाणित पाया गया।
16. अवयस्क एवं विधिक निर्योग्यता वाले व्यक्ति:-
ऐसे व्यक्तियों के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य उनकी विधिक निर्योग्यता समाप्त होने के बाद या संबंधित के वयस्क होने के बाद से ही शुरू होता है।
न्याय दृष्टांत बीरमबाई विरूद्ध भोजराम, 1986 एम.पी.एल.जे. 551 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अवयस्क के संरक्षक अवयस्क की ओर से आधिपत्य फिडूसियरी केपेसिटी में होता है। अवयस्क के विरूद्ध ऐसा आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं हो सकता है।
17. पति पत्नि के बारे में:-
जहा पति और पत्नि सम्पत्ति के संयुक्त आधिपत्य में हो वहा विरोधी आधिपत्य का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। जैसा की न्याय दृष्टांत ए.आई.आर 1928 नागपुर 275 में प्रतिपादित किया गया है।
जहा पति पत्नि के सम्पत्ति के आधिपत्य में हो वह पत्नि की ओर से आधिपत्य माना जाता है अतः इन मामलों में यदि दोने में से कोई भी पक्ष विरोधी आधिपत्य का दावा करता है तो उसे स्पष्ट अभिवचन और प्रमाण के साथ आना चाहिए।
18 विक्रय करार:-
कभी कभी कोई व्यक्ति किसी अन्य से उसके स्वामित्व की सम्पत्ति क्रय करने का करार करता है और उस करार के अधीन क्रेता को सम्पत्ति के आधिपत्य में रखा जाता है ऐसे विक्रय करार के अधीन आधिपत्य रखने वाला व्यक्ति का आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा आधिपत्य अनुमत प्रकृति का अनुबंध होता है और इन मामलों में भविष्य में विक्रय पत्र का निष्पादन किया जाना होता है।
न्याय दृष्टांत अचल रेडडी विरूद्ध रामकृष्णा ए.आई.आर 1990 एस.सी. 553 में निर्णय के चरण 8 में यह विधि प्रतिपादित की गई है कि विक्रय करार के अधीन आधिपत्य रखने वाले व्यक्ति का आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं माना जा सकता।
न्याय दृष्टांत मोहनलाल विरूद्ध मीर अब्दुल गफफूर ए.आई.आर 1996 एस.सी. 910 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो व्यक्ति विक्रय करार के अधीन सम्पत्ति के आधिपत्य में हो उसे विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व होने संबंधी अभिवाक उपलब्ध नहीं होता है।
न्याय दृष्टांत कोमलबाई विरूद्ध फर्म छाजूलाल 1998 (1) डब्ल्यू एन 163, हरिराम विरूद्ध म्यूनिसिपल काउन्सील 2001(2) डब्ल्यू एन 39 भी इसी संबंध में है।
19. दान के आधार पर:-
न्याय दृष्टांत श्रमती चंद्रकांता बेन जे मोदी विरूद्ध वाडीलाल डी मोदी ए.आई.आर. 1989 एस.सी.1269 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी संयुक्त हिन्दू परिवार क सम्पत्ति में दान के द्वारा वादग्रस्त सम्पत्ति के आधिपत्य में आई दानदाता के स्थान पर उसका नामान्तरण भी हो गया उससे संबंधी सम्पत्ति का विवरण किराया रसीद में भी पाया गया जा ेरसीद वह किरायेदार को देती थी। उसका 14 वर्ष से वादग्रस्त सम्पत्ति पर एकमेव आधिपत्य पाया गया विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व कर लेना प्रमाणित पाया गया।
इस तरह दान पत्र के आधार पर यदि कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति के आधिपत्य में आता है और उसका आधिपत्य 12 वर्ष से अधिक समय तक खुले रूप से लगातार आधिपत्य रहता है तो उसके स्वत्व विरोधी आधिपत्य के आधार पर भी परिपक्व हो जाते हैं।
20. सह विधवाओं के बारे मे -
जहा कोई विधवा किसी सम्पत्ति के आधिपत्य में हो और उस सम्पत्ति के आधार पर बीमा भी लेती हो तो उसका यह कृत्य उसके उस सम्पत्ति पर एकमात्र स्वत्व नहीं दिखाते हैं और दूसरी सह विधवा जिसके विरूद्ध आउस्टर प्रमाणित नहीं हुआ है उसके स्वत्व समाप्त नहीं होते हैं इस संबंध में न्याय दृष्टांत बाई रेवा विरूद्ध बाई जादव, ए.आई.आर 1986 एस.सी. 1921 अबलोकनीय है।
21. जागीर के बारे में:-
न्याय दृष्टांत राजा रामेश्वर विरूद्ध राजा गोविन्द राव. ए.आई.आर 1961 एस.सी.1942 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहा जागीर जीवनकाल के किलए दी गई है वहा ऐसी सीमित हित रखने वाले व्यक्ति का विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व नहीं बनता है।
22. लाईसेंसी के बारे में:-
यदि उसका कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति के लाईसेंसी के रूप में आधिपत्य में हो तो उसका आधिपत्य विरोधी आधिपत्य नहीं हो सकता केवल लाईसेंस को समाप्त कर देना विरोधी आधिपत्य गठित नहीं करता। जब तक कि लाईसेंसी मूल स्वामी के विरूद्ध अर्थात लाईसेंसर के विरूद्ध विरोधी स्वत्व स्थापित न करे।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत गयाप्रसाद दीक्षित विरूद्ध डा निर्मल चंद ए.आई.आर 1984 एस.सी.930 अवलोकनीय है।
23. मछली पकडने का अधिकार:-
न्याय दृष्टांत राजा बृजसंुदर देव विरूद्ध मोनी बेहरा ए.आई.आर. 1951 एस.सी. 245 में यह प्रतिपादित किया गया है कि कई मछुयारांें को समय समय पर मछली पकड़ने की अनुज्ञप्ति और अनुमति दी जाती है लेकिन उनका मूल स्वामी के विरूद्ध विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होता है।
24. अवैध गा्रंट के बारे में:-
यदि किसी संस्था को कोई भूमि गा्रंट पर विधि द्वारा निर्धारित तरीके के बिना दे दी जाती है और उस संस्था का उस सम्पत्ति पर खुले रूप से लगातार अबाध 60 वर्षो से आधिपत्य रहता है। सरकार और नगरनिगम संस्था को स्वामी के रूप में ट्रीट करता है यद्यपि संस्था का सम्पत्ति पर अवैध गां्रट के रूप में आधिपत्य था ऐसे आधिपत्य के आधार पर विरोधी आधिपत्य का स्वत्व प्रमाणित होना माना गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेट आफ वेस्ट बंगाल विरूद्ध द डलहौजी इंस्टीटयूट सोसाईटी, ए.आई.आर 1970 एस.सी.1778 अवलोकनीय है।
24. पक्का टेनेन्ट के बारे में:-
यदि कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति के आधिपत्य में हो और पक्का टेनेन्ट उस आधिपत्य को वापस प्राप्त करने के लिए वाद संस्थित कर देता है तब वाद संस्थित करते ही उस व्यक्ति का विरोधी आधिपत्य लगातार होना बंद हो जाता हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत बाबू खान विरूद्ध नजीम खान ए आई आर 2001 एस.सी.1740 अवलोकनीय है।
इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि पक्का टेनेन्ट को उसका आधिपत्य को वापस लेने के लिए पहले धारा 91 मध्यभारत लेण्ड रिवेन्यू एण्ड टेनेन्सी एक्ट 1950 के तहत कार्यवाही करना चाहिए उसके बाद ही वह सिविल न्यायालय में आ सकता है।
25. छावनी क्षेत्र की भूमि:-
सामान्यतः छावनी क्षेत्र की भूमि के बारे में विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व नहीं होते हैं। जैसे ही कोई छावनी क्षेत्र गठित होता है उस क्षेत्र मे निजी स्वामित्व की सम्पत्ति होती है वे शासन द्वारा अधिगृहीत कर ली गई है ऐसी उपधारणा की जाती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सोहनसिंह विरूद्ध गर्वनर जनरल ए आई आर 1947 पी.सी.178 अवलोकनीय है
26. घूरा डालना:-
यदि किसी खुले प्लाट पर कोई व्यक्ति 12 वर्ष से अधिक समय से घूरा (कचरा गोवर आदि) डालता है तो उसका विधिक आधिपत्य गठित नहीं होता और ऐसा व्यक्ति विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व अर्जित नहीं करता। इस संबंध में न्याय दृष्टांत जुगलकिशोर विरूद्ध रामनाथ 1992 जे.एल.जे. 92 अवलोकनीय है।
27. रिसीवर के बारे में:-
न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर का आधिपत्य किसी पक्षकार का आधिपत्य नहीं होता है और वह सम्पत्ति को न्यायालय के आदेश के अधीन रखता है अतः रिसीवर का विरोधी आधिपत्य नहीं बनता है। यही स्थिति कोर्ट आफ वार्ड की भी है।
28. सीमा विवाद:-
एक खुले प्लाट पर निर्माण किया गया। पक्षकार उनकी भूमि की सीमाओं या बाउन्डी के बारे में अज्ञान थे ऐसे मे विरोधी आधिपत्य नहीं बनेगा। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सत्यनारायण विरूद्ध रत्नलाल 1985 एम.पी.डब्ल्यू एन 257 अवलोकनीय है।
29. बाधा का प्रभाव:-
किसी व्यक्ति का विधि द्वारा बतलाई गई अवधि तक किसी सम्पत्ति पर विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व करने के लिए आवश्यक होता है और यदि इसमें बीच मे कोई बाधा कारित होती है तो इसे सतत आधिपत्य नहीं माना जाता है।
लेकिन एक ऐसे वाद की डिक्री जिसमें वह व्यक्ति पक्षकार नहीं है वह डिक्री उस पर बंधन कारी नहीं होती है और उसके आधार पर बाधाकारित होना नहीं माना जा सकता। इस संबंध में न्याय दृष्टांत महादेव प्रसाद विरूद्ध रूपला 1984 एम.पी.डब्ल्यू एन 97 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत बालकृष्ण विरूद्ध सत्यप्रकाश ए आई आर 2001 एस.सी. 700 में प्रतिपादित किया गया है कि वादग्रस्त सम्पत्ति तहसीलदार के आदेश से कुर्क थी और वादी ने उसे नीलाम मे खरीदा था। वादी ने धारा 250 म.प्र.भू.राजस्व संहिता में आधिपत्य लेने के लिए कार्यवाही की तहसीलदार ने निष्कासन आदेश दिया उसके बाद भी प्रतिवादी लगातार आधिपत्य में बना रहा केवल निष्कासन आदेश किया गया लेकिन प्रतिवादी से उसका आधिपत्य नहीं लिया गया और न उसे अनिरन्तर किया गया ऐसे में प्रतिवादी के विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्वत्व परिपक्व माना गया।
30. साक्ष्य लेखन:-
न्यायाधीश को साक्ष्य लेखन के समय भी सतर्क रह कर यह देखना चाहिए कि विरोधी आधिपत्य के आधार पर स्पष्ट साक्ष्य अभिलेख पर आई है या नहीं और बिंदु क्रमांक 4 में जो तथ्य दिये हैं उन पर साक्षीगण से प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं
इस तरह विचारण न्यायालय को प्रकरण के निराकरण के साथ और अपील न्यायालय केा अपील निराकरण के समय उक्त वैधानिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए कार्यवाही करना चाहिए।
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ReplyDeletekya patel ka chachera bhai adverse possession(55 year) ke bad bhi patel ki bhumi ko prapt kar sakta hai
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