व्यादेश
की अवज्ञा
या भंग
के परिणाम
कभी-कभी
व्यवहार
न्यायालय
के समक्ष
ऐसी स्थिति
उत्पन्न होती
है जिसमें
उसके द्वारा
जारी अस्थायी
व्यादेश का
विपक्षी पालन
नहीं करता
है यहां
हम उसी
स्थिति के
बारे में
वैधानिक
प्रावधानों, प्रक्रिया
और इन
कार्यवाहियों
में उठने
वाले विभिन्न
बिन्दुओं
पर चर्चा
करेंगे।
1. आदेश
39 नियम
2 ए
(1) सी.पी.सी.:-
के
अनुसार आदेश
39 नियम
1 या
नियम 2
के
अधीन दिये
गये किसी
व्यादेश या
किये गये
अन्य आदेश
की अवज्ञा
की दशा
में या
जिन शर्तो
पर व्यादेश
किया गया
था या
आदेश किया
गया था
उनमें से
किसी शर्त
के भंग
होने की
दशा में
व्यादेश या
आदेश देने
वाला न्यायालय
या ऐसा
कोई अन्य
न्यायालय
जिसे वाद
या कार्यवाही
अंतरित की
गई है,
यह
आदेश दे
सकेगा की
ऐसी अवज्ञा
या भंग
करने के
दोषी व्यक्ति
की संपत्ति
कुर्क की
जाये और
यह भी
आदेश दे
सकेगा की
वह व्यक्ति
3 माह
से अनाधिक
अवधि के
लिये सिविल
कारागृह में
तब तक
निरूद्ध किया
जाये जब
तक की
इस बीच
न्यायालय
उसकी मुक्ति
के लिये
निर्देश न
दे दे।
आदेश
39 नियम
2 ए
(2) के
अनुसार इस
नियम के
अधीन की
गई कोई
कुर्की 1
वर्ष
से अधिक
समय के
लिये प्रवृत्त
नहीं रहेगी,
1 वर्ष
की अवधि
खत्म होने
पर यदि
अवज्ञा या
भंग जारी
रहता है
तो कुर्क
की गई
संपत्ति का
विक्रय किया
जा सकेगा
और न्यायालय
विक्रय से
प्राप्त रकम
में से
ऐसा प्रतिकर
जो वह
ठीक समझे
उस पक्षकार
को दिलवा
जा सकेगा
जिसकी क्षती
हुई है
और कुछ
राशि बाकी
रहे तो
उसे अधिकृत
पक्षकार को
देगा।
2. प्रक्रिया:-
आदेश
39 नियम
2 ए
सी.पी.सी.
का
आवेदन प्राप्त
होने पर
संबंधित
न्यायालय
उसे विविध
दिवानी पंजी
में पंजीबद्ध
करने का
आदेश करेंगे
इस संबंध
में म0प्र0
सिविल
न्यायालय
नियम 1961
के
नियम 372
के
सरल क्रमांक
14 से
मार्गदर्शन
लिया जा
सकता है
यद्यपि इस
सरल क्रमांक
पर आदेश
39 नियम
2 उप
नियम 3
के
अधीन प्रार्थना
पत्र का
उल्लेख हैं
लेकिन आदेश
39 नियम
2 ए
1976 के
संशोधन द्वारा
जोड़ा गया
है और
आदेश 39
नियम
2 का
उप नियम
3 इसी
संशोधन द्वारा
विलोपित कर
दिया गया
है अतः
किसी तरह
का भ्रम
नहीं होना
चाहिये।
विपक्षी
को कारण
बताओ सूचना
पत्र जारी
करना चाहिये
उसक जवाब
लेकर या
उसे जवाब
पेश करने
का अवसर
देकर मामले
की प्रकृति
के अनुसार
उभय पक्ष
का साक्ष्य
लेकर उनके
अंतिम तर्क
सुनकर आदेश
पारित करना
चाहिये।
3. प्रमाणभार
का स्तर:-
ये
कार्यवाही
कासी क्रिमिनल
नेचर की
होती है
अतः आदेश
या व्यादेश
का भंग
सभी युक्तियुक्त
संदेह से
परे प्रमाणित
होना चाहिये
इन मामलों
में प्रमाणभार
का स्तर
दांडिक
प्रकरणों
के समान
होता है।
प्रमाणभार
के स्तर
के बारे
में न्याय
दृष्टांत
सीमा दुबे
विरूद्ध
प्रकाश
धीरावानी, 2009 (4) एम.पी.एल.जे.
518 अवलोकनीय
हैं। साथ
ही न्याय
दृष्टांत
लखबीर सिंह
विरूद्ध
हरपिन्दर
सिंह, ए,.आइ्र्र.आर.
2004 पी.
एण्ड
एच. 12 निर्णय
चरण 15
अवलोकनीय
है।
4. व्यादेश
का आदेश
अपास्त होने
का प्रभाव:-
व्यादेश
का आदेश
पश्चातवर्ती
प्रक्रम पर
अपास्त होने
का कोई
प्रभाव नहीं
है और
इससे अवमानना
का कृत्य
समाप्त नहीं
हो जाता
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
विंग कमांडर
गोपाल सिंह
यादव विरूद्ध
कालीदीन, 2000 (1) डब्ल्यू.एन.
84 अवलोकनीय
हैं।
5. वाद
निरस्त होने
का प्रभाव:-
इन
कार्यवाहियों
पर मूल
वाद निरस्त
होने का
या वाद
के गुण
दोष पर
हुये निर्णय
का सामान्यतः
कोई प्रभाव
नहीं होता
है।
न्याय
दृष्टांत
तैयब भाई
एम. बगसारवाला
विरूद्ध
हिन्द रबर
इंडस्ट्री, ए.आई.आर.
1997 एस.सी.
1240 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
जहां व्यवहार
वाद में
निषेधाज्ञा
का अंतरित
आदेश पारित
किया गया
था प्रतिवादीगण
ने आदेश
की अवज्ञा
या निरादर
किया अंततः
यह पाया
गया की
व्यवहार
न्यायालय
को वाद
को ग्रहण
करने का
क्षेत्राधिकार
नहीं था
इसके बावजूद
प्रतिवादीगण
को अंतरिम
आदेश की
भंग के
लिये दंडित
किया जा
सकता हैं।
ऐसे
तथ्य नहीं
थे कि
वाद जानबूझ
कर गलत
न्यायालय
में लगाया
गया ताकि
अंतरिम
निषेधाज्ञा
प्राप्त कर
सके बल्कि
वाद सद्भावना
पूर्वक पेश
किया गया
था।
न्याय
दृष्टांत
के. शेसप्पा
विरूद्ध
सेन्ट फ्रांसिस
जेवियर चर्च,
1995 (5) केरल
लाॅ जनरल
379 भी
इस संबंध
में अवलोकनीय
है जिसमें
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
इन कार्यवाहियों
का वाद
के गुण
दोष के
निराकरण से
कोई संबंध
नहीं है
वाद की
कार्यवाही
और ये
कार्यवाहियाॅं
अलग-अलग
विषय वस्तु
हैं।
6. वाद
लौटाने के
बाद अवज्ञा:-
यदि
विचारण
न्यायालय
ने सक्षम
क्षेत्राधिकार
के न्यायालय
में वाद
प्रस्तुत
करने के
लिये लौटा
दिया हो
तब उसके
द्वारा पूर्व
में पारित
संपत्ति का
अंतरण रोकने
का या
अन्य व्यादेश
समाप्त हो
जाता है
उसके बाद
विक्रय पत्र
किये गये
यद्यपि वाद
लौटाने का
आदेश अपील
न्यायालय
द्वारा अपास्त
कर दिया
गया लेकिन
इस बीच
हुये अंतरण
को आदेश
की अवज्ञा
में नहीं
माना जायेगा
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
सुरेश चंद
विरूद्ध
कैलाश चंद,
2006 (1) एम.पी.एल.जे.
314 अवलोकनीय
हैं।
7. विधिक
प्रतिनिधियों
की स्थिति:-
न्याय
दृष्टांत
छगन लाल
जयसवाल विरूद्ध
कमल चंद
जैन, 2006 (4) एम.पी.एल.जे.
595 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
विधिक प्रतिनिधि
वाद ग्रस्त
संपत्ति के
आधिपत्य में
है जो
संपत्ति उनके
पूर्वज ने
अस्थायी
व्यादेश के
आदेश के
उल्लंघन में
बल पूर्वक
अधिभोग में
ली थी
आदेश 39
नियम
2 ए
सी.पी.सी.
के
प्रावधान
उन विधिक
प्रतिनिधियों
के विरूद्ध
भी लागू
किये जा
सकते हैं।
8. धारा
151 सी.पी.सी.
में
दिया व्यादेश:-
यदि
न्यायालय
ने धारा
151 सी.पी.सी.
में
व्यादेश जारी
किया हो
तब भी
न्यायालय
उसकी अवमानना
का संज्ञान
ले सकता
है अतः
धारा 151
सी.पी.सी.
में
जारी व्यादेश
का भंग
भी आदेश
39 नियम
2 ए
सी.पी.सी.
की
परिधि में
आयेगा।
न्याय
दृष्टांत
छगन लाल
जयसवाल विरूद्ध
कमल चंद,
2006 (4) एम.पी.एल.जे.
595 का
उक्त न्याय
दृष्टांत
अवलोकनीय
हैं।
9. एक
पक्षीय व्यादेश
का प्रभाव:-
यदि
व्यादेश एक
पक्षीय दिया
गया हो
तब भी
उसका भंग
आदेश 39
नियम
2 ए
सी.पी.सी.
में
कवर होगा
लेकिन यह
ध्यान रखना
होगा कि
ऐसे एक
पक्षीय व्यादेश
की प्रतिवादी
को सूचना
हो गई
थी इसका
कठोर प्रमाण
अभिलेख पर
होना चाहिये
अन्य दशा
में प्रतिवादी
को भंग
का दोषी
नहीं माना
जा सकता।
इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
मिश्री लाल
दिवान विरूद्ध
इंदू बाई,
2004 (3) एम.पी.एल.जे.
258 अवलोकनीय
हैं।
10. परिवचन
या अंडर
टेकिंग का
भंग:- व्यादेश
के आवेदन
के जवाब
में दिये
गये परिवचन
या अंडर
टेकिंग का
भंग होने
पर दूसरा
पक्ष व्यादेश
के भंग
के लिये
आवेदन कर
सकता है।
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
एम.पी.
वक्फ
बोर्ड विरूद्ध
स्टेट आॅफ
एम.पी.
1997 (2) डब्ल्यू.एन.
200 अवलोकनीय
हैं।
11. यथास्थिति
का भंग:-
यदि
यथास्थिति
का भंग
किया गया
हो लेकिन
आधिपत्य
दस्तावेजी
या अन्य
साक्ष्य से
स्थापित नहीं
होता है
ऐसे मामलों
में आदेश
39 नियम
2 ए
सी.पी.सी.
के
अंतर्गत
एक्शन या
कार्यवाही
नहीं की
जा सकती
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
ओमकार लाल
विरूद्ध
एस.पी.
गुप्ता,
1994 (1) डब्ल्यू.एन.
88 अवलोकनीय
हैं इसी
न्याय दष्टांत
में यह
भी कहां
गया है
कि यह
कार्यवाही
व्यक्ति के
विरूद्ध होती
है पद
या प्राधिकारी
के विरूद्ध
नहीं होती
है।
वादी
के पक्ष
में व्यादेश
जारी किया
गया प्रतिवादी
ने अपील
की उसमें
यथास्थिति
का आदेश
पारित किया
गया वादी
ने फसल
को काटने
के लिये
पुलिस की
सहायता चाही
इसे भंग
नहीं माना
गया इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
सोवरण सिंह
विरूद्ध
रविदत्त, 1995 (1) डब्ल्यू.एन.
193 अवलोकनीय
हैं।
12. विवादित
निर्माण हटा
लेने का
प्रभाव:- जहां
विपक्षी ने
विवादित
निर्माण हटा
लिया हो
वहां व्यवहार
कारागृह के
आदेश की
बजाय संपत्ति
कुर्की का
आदेश पर्याप्त
माना गया
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
चेतन लाल
विरूद्ध
गुलाब चंद,
1985 एम.पी.डब्ल्यू.एन.
214 अवलोकनीय
हैं।
13. भूल
का प्रभाव:-
जहां
निषेधाज्ञा
के अवमानना
के मामले
में विपक्षी
की दुर्भावना
न होकर
भूल स्पष्ट
होती हो
और वह
क्षमा याचना
भी कर
रहा हो
वहां कार्यवाही
का समाप्त
किया जाना
उचित माना
गया न्याय
दृष्टांत
राजेन्द्र
प्रताप विरूद्ध
मानसिंह, 1995 एम.पी.डब्ल्यू.एन.
232 अवलोकनीय
हैं।
छोटे
मामलों में
जहां प्रार्थी
के हितों
पर गंभीर
प्रभाव न
पड़ा हो
और भूलवश
अवज्ञा हुई
हो वहां
इस न्याय
दृष्टांत
से मार्गदर्शन
लिया जा
सकता हैं।
14. व्यवहार
कारागृह या
संपत्ति
कुर्की या
दोनों आदेश:-
न्यायालय
अवज्ञा
प्रमाणित
होने पर
विपक्षी की
संपत्ति
कुर्क कर
सकती है
या उसे
व्यवहार
कारागृह मंे
निरूद्ध कर
सकती हैं
या दोनों
कदम उठा
सकती है
यह प्रत्येक
मामले के
तथ्यों पर
न्यायालय
को चुनाव
करना होता
है।
अतः
अवज्ञा
प्रमाणित
होने पर
मामले के
तथ्यों
परिस्थितियों, अवज्ञा
की पकृ्रति
आदि को
देखते हुये
न्यायालय
को उक्त
कदम या
दोनों कदमों
का चुनाव
करना होता
हैं।
इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
सामी खान
विरूद्ध
बिन्दु खान,
ए.आई.आर.
1998 एस.सी.
2765 अवलोकनीय
हैं।
न्यायालय
के लिये
यह अज्ञापक
नहीं है
की वह
दोषी व्यक्ति
को व्यवहार
निरोध में
ही भेजे।
इस संबंध
में अवलोकनीय
न्याय दृष्टांत
ए.आई.आर.
1976 पटना
56 अवलोकनीय
हैं।
जहां
सतत अवमान
जारी रहता
है वहां
संपत्ति
कुर्क करना
चाहिये और
जहां एक
ही बार
का अवमान
हुआ हो
वहां व्यवहार
कारागृह का
आदेश उचित
नहीं माना
गया इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
नीरंजन शुक्ला
विरूद्ध शंकर
शुक्ला, ए.आई.आर.
1972 इलाहाबाद
556 अवलोकनीय
हैं।
धोषणा,
बटवार
के वाद
में अंतरण
रोकने और
तृतीय पक्ष
के हित
संपत्ति में
अंतरित न
करने का
आदेश दिया
गया था
जिसका भंग
किया गया
न्यायालय
ने 14
दिन
का कारावास
उचित माना
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
पटेल रजनीकांत
विरूद्ध पटेल
चन्द्रकांत, ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
3016 अवलोकनीय
हैं।
15. किस
न्यायालय
में कार्यवाही:-
वह
न्यायालय
जिसने व्यादेश
या आदेश
जारी किया
या जिसे
मामला अंतरित
किया गया
वह आदेश
39 नियम
2 सी.पी.सी.
की
कार्यवाही
कर सकते
हैं।
न्याय
दृष्टांत
शाशंक मुखर्जी
विरूद्ध
नारायण दास,
ए.आई.आर.
1973 एम.पी.
303 अवलोकनीय
हैं।
16. न्यायालय
कक्ष में
विपक्षी को
रखना:- यदि
न्यायालय
अवमानकर्ता
को केवल
एक दिन
निरूद्ध करना
चाहता है
तब भी
उसे व्यवहार
कारागृह में
भेजना होगा
उसे न्यायालय
कक्ष में
न्यायालय
उठने तक
निरूद्ध नहीं
किया जा
सकता क्योंकि
आदेश 39
नियम
2 ए
सी.पी.सी.
जो
निर्धारित
दण्ड है
वहीं दिया
जा सकता
है इस
संबंध मंे
न्याय दृष्टांत
(1998) 1 राजस्थान
लाॅ वीकली
549 अवलोकनीय
हैं।
17. आदेश
स्पष्ट हो:-
न्यायालय
को अपने
आदेश में
यह स्पष्ट
करना चाहिये
की विपक्षी
की कौन
सी संपत्ति
कुर्क करना
है। संपत्ति
का विस्तार,
कुर्की
जारी रहने
की अवधि,
विपक्षी
किस सीमा
तक संपत्ति
के उपयोग
से वंचित
रहेगा आदि
स्पष्ट करते
हुये कुर्की
का आदेश
करना चाहिए
संदिग्धता
नहीं रहना
चाहिये। साथ
ही जिस
व्यक्ति को
व्यवहार
निरोध में
रखना है
उसका भी
स्पष्ट विवरण
देना चाहिए।
न्याय
दृष्टांत
यूनियन आॅफ
इंडिया विरूद्ध
सतीश चन्द्र
शर्मा, ए.आई.आर.
1980 एस.सी.
600 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
न्यायालय
के आदेश
की शासन
द्वारा अवज्ञा
के मामले
में व्यक्ति
जिसे गिरफ्तार
करना है
विनिर्दिष्ट
नहीं किया
गया। संपत्ति
जो कुर्क
करना है
उसकी विशिष्टियाॅं
नहीं बतलाई
गई ऐसा
आदेश अवैध
है।
न्याय
दृष्टांत
(2003) 1 सिविल
एल.जे.
248 भी
संपत्ति के
स्पष्ट विवरण
के बारे
में अवलोकनीय
हैं।
संपत्ति
कुर्की का
शशर्त आदेश
नहीं करना
चाहिये साथ
ही आदेश
में प्रार्थी
को राशि
अदा करने
या प्रतिकर
अदा करने
के आदेश
भी नहीं
देना चाहिये
क्योंकि आदेश
39 नियम
2 ए
सी.पी.सी.
शशर्त
आदेश के
संबंध में
प्रारंभ में
कोई प्रावधान
नहीं है
कुर्क संपत्ति
विक्रय करके
ही एक
वर्ष बाद
प्रतिकर
दिलवा सकते
हैं।
18. कुर्क
संपत्ति का
विक्रय:- कुर्क
संपत्ति के
विक्रय की
अवस्था एक
वर्ष बाद
आती है
यदि विपक्षी
व्यादेश की
अवज्ञा जारी
रखता है।
विक्रय के
पूर्व विपक्षी
को कारण
बताओ सूचना
पत्र देना
चाहिये।
अवलोकनीय
न्याय दृष्टांत
महादेव डी.
बुधे
विरूद्ध सैयद
मोहम्मद
एस.एम.
नाजिर,
ए.आई.आर.
1992 बाॅम्बे
51।
20. राशि
जमा न
करवाने का
प्रभाव:- यदि
प्रतिवादी
/किरायेदार
को ऐसे
निर्देश दिये
गये की
वह किराया
जमा करवाता
रहे यह
आदेश व्यादेश
नहीं है
इसका भंग
आदेश 39
नियम
2 ए
सी.पी.सी.
में
नहीं आयेगा
इसी तरह
यदि गारनिसी
राशि जमा
नहीं करवाता
है तब
भी यह
भंग की
कोटि में
नहीं आता
बल्कि निष्पादन
लगाकर राशि
वसूल करना
चाहिये।
आदेश
39 निमय
2 ए
सी.पी.सी.
की
शक्तियाॅं
दण्डात्मक
शक्तियाॅं
है इनका
उपयोग अत्यंत
सावधानी से
करना चाहिये।
उक्त
तथ्यों के
बारे में
न्याय दृष्टांत
फूड काॅर्पोरेशन
आॅफ इंडिया
विरूद्ध
सुखदेव प्रसाद,
ए.आई.आर.
2009 एस.सी.
2330 अवलोकनीय
हैं।
21. सीमित
निषेधाज्ञा
के बारे
में:- सीमित
समय हेतु
वादी के
पक्ष में
निषेधाज्ञा
जारी की
गई वादी
ने उसे
आगे बढ़ाने
का आवेदन
भी दिया
उस पर
न्यायालय
का कोई
आदेश नहीं
हुआ वाद
संविदा के
पालन का
था। अन्य
वाद में
उसी प्रतिवादी
ने उसी
संपत्ति के
बारे में
राजीनामे
के आधार
पर पारित
अज्ञाप्ति
के प्रकाश
में विक्रय
पत्र निष्पादित
करवा दिया।
यह व्यादेश
की अवमानना
में नहीं
आयेगा क्योंकि
अनुपूरक
कार्यवाही
में सीमित
समय के
लिए जारी
निषेधाज्ञा
को आगे
नहीं बढ़ाया
था इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
अर्जन सिंह
विरूद्ध
पुनीत
अहलूवालिया, ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
2718 अवलोकनीय
हैं।
22. अभिकर्ता,
सेवक
और मजदूर
के बारे
में:- मूल
आदेश की
भाषा को
देखते हुये
प्रतिवादी
में उसके
अभिकर्ता, सेवक,
मजदूर
, प्रतिनिधि
जो प्रतिवादी
की ओर
से कार्य
कर रहे
है वे
शामिल होते
है। ये
व्यक्ति
प्रतिवादी
की ओर
से कार्य
कर रहे
है या
नहीं निषेधाज्ञा
के आदेश
को जानते
हुये कार्य
कर रहे
है या
नहीं यह
साक्ष्य का
विषय है।
न्याय
दृष्टांत द
स्टेट आॅफ
बिहार विरूद्ध
रानी सोनाबती
कुमारी, ए.आई.आर.
1961 एस.सी.
221 निर्णय
चरण 35
और
36 इस
संबंध में
अवलोकनीय
हैं।
23. क्या
कारावास का
आदेश रिकाॅल
हो सकता
है:- न्याय
दृष्टांत
सैयद अब्दुल
रज्जाक विरूद्ध
मातादीन
अग्रवाल, 1994 (2) डब्ल्यू.एन.
127 में
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि व्यादेश
के आदेश
का भंग
करने पर
कारावास का
आदेश किया
इसे रिकाॅल
किया जा
सकता है।
न्याय
दृष्टांत
शांता बाई
विरूद्ध
गणेश, 1995 (1) डब्ल्यू.एन.
17 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
जहां वाद
अंतिम रूप
से निराकृत
हो चुका
हो दोषी
60 वर्ष
की वृद्ध
महिला हो
वहां व्यवहार
कारागृह में
रखने के
आदेश को
पीडि़त पक्ष
को प्रतिकर
दिलवाने में
परिवर्तित
किया गया।
24. संपत्ति
का विवरण:-
प्रार्थी
के यह
आवश्यक नहीं
है की
वह आवेदन
पत्र के
साथ ही
कुर्क की
जाने वाली
संपत्ति का
विवरण या
व्यवहार
कारागार में
रखने का
खर्च जमा
करे क्योंकि
आवेदन प्रस्तुत
करते समय
प्रार्थी
को यह
ज्ञात नहीं
होता की
न्यायालय
कौन सी
कार्यवाही
करेगा इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
गिरधारी धीर
विरूद्ध
गोलाकाचंद
नायक, ए.आई.आर.
1987 उड़ीसा
172 अवलोकनीय
हैं।
इस
तरह आदेश
39 नियम
2 ए
सी.पी.सी.
का
आवेदन प्राप्त
होने पर
उसे विविध
दिवानी पंजी
मंें पंजीबद्ध
कर, विपक्षी
को सूचना
पत्र देकर
,सुनवायी
का अवसर
देकर, उभय
पक्ष को
साक्ष्य का
अवसर देकर,
उनकी
साक्ष्य
लेकर, उभय
पक्ष का
सुनकर उक्त
वैधानिक
स्थितियों
को ध्यान
में रखते
हुये कार्यवाही
करना चाहिए।
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