Thursday, 29 May 2014

Artical घरेलू हिसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005

       घरेलू हिसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005

The Protection of Women From Domestic Violence Act, 2005


अधिनियम का उद्देश्य
इस अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा को रोकना है क्योकि यह एक मानवाधिकार का भी विषय है विकास की राह में बाधक भी है किसी भी देश में महिलाओं की जनसंख्या सामान्यतः लगभग पुरूषों के समान होती है और उस देश का विकास तभी संभव हो सकता है जब महिलाएं एवं पुरूष दोनों की विकास में समान भागीदारी हो
1994 का वियना समझौता, 1995 की बीजिंग घोषणा कार्यवाही के लिए प्लेटफार्म, 1989 की सामान्य सिफारिशे जो संयुक्त राष्ट्र की समीति द्वारा की गई इन सब में घरेलू हिंसा रोकने पर बल दिया गया है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 एवं 21 तथा अनुच्छेद 39 , सी, डी, 42, 51 () में भी इस बारे में प्रवधान है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (1) के अनुसार राज्य, किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी भी आधार पर विभेद नहीं करेगा।
अनुच्छेद 15 (2) के अनुसार कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी भी आधार पर किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बंधन या शर्त के अधीन नहीं होगाः-
. दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयो, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थान में प्रवेश या
बी. पूर्णतः या भागतः राज्य निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग
यद्यपि राज्य स्त्रीयों बालकों सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पीछडे आदि के लिए विशेष उपबंध कर सकती है
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 (1) के अनुसार राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी
अनुच्छेद 16 (2) के अनुसार राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग उदभोग जन्म स्थान निवास या इनमें से किसी भी आधार पर तो कोई नागरिक अपात्र होगा उससे विभेद किया जायेगा।
यद्यपि राज्य पिछडे नागरिकों अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आदि के बारे में विशेष उपबंध कर सकती है
भारतीयय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकेगा अन्यथा नहीं
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 के अनुसार राज्य अपनी नीति का विशिष्टतया इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से:-
. पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो
सी. पुरूष और स्त्रीयों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो
डी. पुरूष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दूरूपयोग हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकार नागरिकों को ऐसे रोजगारों में जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकुल हो।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य काम की न्यायसंगत और मानवीय दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए और प्रसूति सहायता के लिए उपबंध करेगा।
प्रसूति सहायता अधिनियम 1961 The Maternity Benefit Act, 1961 के तहत महिलाओं को प्रसूति अवकाश की पात्रता होती है चाहे महिलाएं आकस्मिक रूप से या मास्टर रोल या दैनिक मजदूरी किसी भी रूप में कार्य करती हो उन्हें प्रसूति अवकाश की पात्रता होती है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह:-
. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभावों से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रीयों के सम्मान के विरूद्ध हो।।
इस प्रकार भारतीय संविधान के उक्त प्रावधानों को भी देखें तो उसमें भी लिंग के आधार पर भेदभाव किये जाने के प्रावधान है और स्त्रीयों के सम्मान के विरूद्ध जो प्रथाएं है उन्हें त्यागना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बतलाया गया है।
इस अधिनियम के पूर्व तक दण्ड विधि में भरण पोषण संबंधी प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 से 128 में थे और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 में धारा 498 में प्रावधान थे जिनका एक सीमित क्षेत्र है वहीं दिवानी विधि में भी कोई प्रभावकारी अधिनियम नहीं था जो घरेलू हिंसा को रोक सके ऐसे में महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसाको रोकने और भारतीय संविधान के उक्त प्रावधानों को प्रभावी ढंग से लागू करने विकास की राह की बाधाओं को हटानें के लिए एक प्रभावकारी अधिनियम की आवश्यकता थी अतः 26.10. 2006 से उक्त अधिनियम लागू किया गया और अधिनियम के तहत बनाये गये नियम भी इसी दिनांक से लागू किये गये।
सामान्यतः कोई अधिनियम बन जाता है लेकिन उसके नियम बहुत समय बाद बनते है लेकिन यह अधिनियम और इसके तहत बने नियम एक साथ लागू किये गये जो अधिनियम के प्रति विधायिका की गंभीरता दर्शाता है।
किसी भी अधिनियम का उद्देश्य समझना इसलिए आवश्यक है ताकि अधिनियम के तहत कार्यवाही इस विधि से की जावे कि अधिनियम बनाने के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके और अधिनियम के प्रावधानां का अर्थान्वयन इस प्रकार किया जावे जो अधिनियम के उद्देश्यों के अनुरूप हो
परिभाषाए
इस अधिनियम की धारा 2 में कुल 20 परिभाषाएं दी गई है जिनमें मुख्य रूप से 5 परिभाषाएं सावधानी से समझ लेना आवश्यक है शेष परिभाषाएं भी महत्वपूर्ण है। मुख्य रूप से हम 5 परिभाषाओं व्यथित व्यक्ति, घरेलू घटना की सूचना, घरेलू संबंध, प्रत्यर्थी एवं साझेदारी की गृहस्थी पर धारा 2 के प्रकाश में विचार करेंगें
अधिनियम की धारा 3 में घरेलू हिंसा की पृथक से परिभाषा दी गई है सामान्यतः धारा 2 में ही प्रत्येक अधिनियम की सभी परिभाषाएं होती है लेकिन इस अधिनियम में घरेलू हिंसा की परिभाषा के लिए पृथक से प्रावधान किया गया है यह इस अधिनियम की एक अलग विशेषता है
धारा 2 () के अनुसार व्यथित व्यक्ति Aggrieved person से तात्पर्य कोई महिला जिसके प्रत्यर्थी के साथ घरेलू संबंध है या घरेलू संबंध रह चुके है या जो प्रत्यर्थी द्वारा की गई घरेलू हिंसा के किसी भी प्रकार के कृत्य के अधीन रहने का अभिकथन करती है उसे व्यथित व्यक्ति कहा जाता है
व्यथित व्यक्ति में घर की कोई भी महिला जैसे पत्नी विधवा माता, भाभी आदि हो सकती है।
धारा 2 () के अनुसार घरेलू घटना की सूचना या  व्यथित व्यक्ति से घरेलू हिंसा का परिवाद प्राप्त होने पर विहित प्रारूप में बनाई गई सूचना घरेलू घटना की सूचना कहलाती है
नियम 5 घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण नियम 2006 के अनुसार घरेलू हिंसा का परिवाद प्राप्त होने पर संरक्षण अधिकारी घरेलू घटना की रिपोर्ट प्रारूप एक में तैयार करता है और उसे मजिस्टे के समक्ष प्रस्तुत करता है और उसकी प्रतिया संबंधित क्षेत्र के पुलिस अधिकारी सेवा प्रदाता को भी भेजता है
नियम 5(2) के अनुसार व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर सेवा प्रदाता प्रारूप एक में घरेलू घटना की रिपोर्ट दर्ज करता है और संबंधित क्षेत्र के मजिस्टे और संरक्षण अधिकारी को उसकी प्रतिलिपि भेजता है।
अधिनियम में पीछे प्रारूप एक या फार्म एक दिया गया है जिसमें कुल सात कालम दिये गये है जिनकी विभिन्न जानकारीया संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता को दर्ज करना होती है।
घरेलू घटना की सूचना को सामान्यत िडआईआर कहते है
धारा 2 (एफ) में घरेलू संबंध या Domestic Relationship को स्पष्ट किया गया है जिसके अनुसार दो व्यक्ति जो किसी समय समरक्तता, विवाह के द्वारा अथवा विवाह के प्रकृति के संबंध से या दत्तक या संयुक्त परिवार के रूप में एक साथ रहने वाले परिवार के सदस्य हो, साझेदारी की गृहस्थी में एक साथ रहते हो अथवा रह चुके है उनके मध्य घरेलू संबंध होना कहा जाता है।
न्यायदृष्टांत डी. वेलू स्वामी विरूद्ध डी. पाथ छियाम्मल (2010) 10 एस.सी.सी. 49 में विवाह की प्रकृति के संबंध शब्द स्पष्ट किया गया है और लाईव इन रिलेशनशिप और रिलेशन शिप इन नेचर आफ मेरिज में अंतर बतलाया गया है यह प्रतिपादित किया गया है कि अधिनियम विवाह की प्रकृति के संबध् या रिलेशन शिप इन नेचर आफ मेरिज को मान्यता देता है लाइव इन रिलेशनशिप को मान्यता नहीं देता है साथ ही वे टेस्ट भी बतलाये गये है जिनमें एक स्त्री और पुरूष का स्थान रहना विवाह की प्रकृति के संबंध में आता है जो निम्न प्रकार से हैः-

a. The Couple Must hold them selves out to society as being akin to spouses
b. They must be of legal age to marry.
c. They must be otherwise qualified to enter into a legal marriage, including being unmarried
d. They must have voluntarily cohabit and held them selves out to the world as being akin to spouses for a significant period of time.

      धारा 2(क्यू) के अनुसार प्रत्यर्थी या रेस्पोंडेन्स से तात्पर्य कोई व्यस्क पुरूष व्यक्ति जिसके व्यथित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध है या घरेलू संबंध रह चुके है या जिसके विरूद्ध व्यथित व्यक्ति इस अधिनियम के तहत किसी अनुतोष की मा कर चुका है,
परन्तु कोई व्यथित पत्नी या विवाह की प्रकृति के संबंध में रह रही कोई महिला पति या पुरूष साथी के किसी भी संबंधी के विरूद्ध परिवाद ला सकती है।
न्यायदृष्टांत संध्या मनोज वानखेड़े विरूद्ध मनोज वामनराव वानखेडे, 2011 .आईआर एस.सी.डब्यू 1327 में उक्त परन्तुक को स्पष्ट किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि व्यथित पत्नी या विवाह के प्रकृति के संबंध में रहने वाली महिला पति या पुरूष साथी के किसी भी रिश्तेदार के विरूद्ध परिवाद ला सकती है। चाहे वह रिश्तेदार महिला हो या पुरूष हों।
पूर्व में इस संबंध में मतभेद था कि क्या पति या पुरूष साथी के महिला रिश्तेदार को प्रत्यर्थी बनाया जा सकता है या नहीं और इस संबंध मे विभिन्न न्यायदृष्टांत थें लेकिन माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उक्त व्यवस्था के बाद स्थिति एकदम स्पष्ट है।
धारा 2 (एस) में साझेदारी की गृहस्थी या Shared household को स्पष्ट किया गया है जिसके अनुसार साझेदारी की गृहस्थी से तात्पर्य कोई गृहस्थी जहां वह व्यक्ति जो व्यथित है रहता है या घरेलू संबंध में या तो अकेले या प्रत्यर्थी के साथ रह चुका है, व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी ने स्वामी के रूप में या किराये पर कोई स्थान लिया हो या दोनों में से किसी ने स्वामी मे रूप में या किराये पर लिया हो जिसके बारे में या व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले कोई अधिकार स्वत्व हित या साम्या रखते है और इसमें ऐसी गृहस्थी शामिल है जो संयुक्त परिवार का अंग हो जिसका प्रत्यर्थी एक सदस्य हो इस बात का विचार किये बिना कि उसमें प्रत्यर्थी या व्यथित व्यक्ति का अधिकारी स्वत्व या हित है
इस तरह अधिनियम में साझेदारी की गृहस्थी की विस्तृत परिभाषा दी है जिसे मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ न्यायदृष्टांतो में स्पष्ट भी किया है जो इस प्रकार हैः-
न्यायदृष्टांत एस.आर. बत्रा वि0 तरूणा बत्रा (2007) 3एस.सी.सी. 169 में ये प्रतिपादित किया गया है कि ऐसा मकान जो पति से संबंधित हो या पति ने किराये से लिया हो या हिन्दू अविभक्त परिवार का मकान हो जिसमें पति भी एक सदस्य हो उसे साझेदारी की गृहस्थी माना जाता है साथ ही यह भी प्रतिपादित किया गया है वैकल्पिक आवास की मांग कोई पत्नी अपनी पति से कर सकती है अन्य रिश्तेदारों से नहीं
पति पत्नी वैवाहिक जीवन के दौरान कई स्थानो पर साथ रहेते है कई रिश्तेदारों के साथ रहते है ऐसे में उन सब पर पत्नी को रहने का अधिकार नहीं मिल जाता है बल्कि ऐसी गृहस्थी जो संयुक्त परिवार की हो और जिसका प्रत्यर्थी पति भी एक सदस्य हो वही साझेदारी की गृहस्थी में कवर होती है।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत रजाक खान विरूद्ध शहनाज खान, आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 963 भी अवलोकनीय है जिसमें भी उक्त विधि थी प्रतिपादित की गई हैं।
न्याय दृष्टांत श्रीमती ज्योति परिहार विरूद्ध मुनीन्द्र सिंह परिहार, 2011(3) एम.पी.एच.टी. 531 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पति द्वारा किराये पर लिया गया या संयुक्त परिवार का ऐसा मकान जिस परिवार का पति भी एक सदस्य है साझा गृहस्थी में आता है। आवेदक की सास की स्व-स्वामित्व की संपत्ति इसमें नहीं आती हैं।
न्यायदृष्टांत विमला बैन अजीत भाई पटैल वि0 वसन्ता बैन अशोक भाई पटैल, (2008) 4 एस.सी.सी. 649 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि सास पर बहू का दायित्व ऐसी संपत्ति को लेकर नहीं डाला जा सकता जो सास की स्वयं की कमाई की हो संयुक्त परिवार की ऐसी सम्पत्ति जिसमें पति का भी हक हो उसी में पत्नि को रहने का अधिकार होता है
इसी न्याय दृष्टांत में यह भी स्पष्ट किया है कि धारा 82 दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत की गई कुर्की से किरायेदार के अधिकार प्रभावित नहीं होते है किरायेदार को वैधानिक प्रक्रिया से ही हटाया जा सकता है।
न्यायदृष्टांत नीतू विरूद्ध कांता, .आई.आर. 2009 दिल्ली 72 में माता पिता के घर में बहू को रहने के अधिकार के बारे में अच्छी विवेचना की गई है।
धारा 3 घरेलू हिंसा की परिभाषा
इस अधिनियम के प्रयोजन हेतु प्रत्यर्थी का कोई कृत्य लोप, आचरण या कार्य का करना घरेलू हिंसा गठित करेगा यदि वह:-
. व्यथित व्यक्ति के मानसिक अथवा शारीरिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग अथवा भलाई की अपहानि करता है या क्षति पहुंचाता है या संकटापन्न करता है या करने का प्रयास करता हैं और इसमें शारीरिक दुरूपयोग लैंगिक दुरूपयोग मौखिक अथवा भावनात्मक दुरूपयोग और आर्थिक दुरूपयोग शामिल है या
बी. व्यथित व्यक्ति को इस दृष्टी से सताता है, अपहानि करता है , क्षति पहुचाता है अथवा संकटापन्न करता है कि उसको अथवा उससे संबंधित किसी अन्य व्यक्ति को किसी दहेज अथवा अन्य संपत्ति अथवा मूल्यवान प्रतिभूति की किसी अवैध मांग को पूरा करने के लिए मजबूर करे अथवा
सी. व्यथित व्यक्ति उससे संबंधित किसी व्यक्ति पर उक्त खण्ड अथवा खण्ड बी में वर्णित किसी आचरण के द्वारा धमकी देने का प्रभाव रखता है अथवा
डी. व्यथित व्यक्ति को चाहे शारीरिक अथवा मानसिक अन्यथा क्षति पहुचाता है अपहानि कारित करता है
स्पष्टीकरण 1 - इस धारा के प्रयोजन हेतु -
1. शरीरिक दुरूपयोग से कोई कृत्य अथवा आचरण अभिप्रेत है जो ऐसी प्रकृत्ति का है जो व्यथित व्यक्ति के शारीरिक दर्द अपहानि अथवा जीवन के खतरे अंग अथवा स्वास्थ अथवा स्वास्थ्य या विकास के कम होने का कारण है और इसमें हमला, आपराधिक अभित्रास और आपराधिक बल शामिल है,
2. लैगिंग दुरूपयोग में लैगिग प्रकरण का कोई आचरण शामिल है जो महिला की गरिमा का दुरूपयोग अथवा अपमान, तिरस्कार अथवा अन्यथा अतिक्रमण करता है,
3. मौखिक और भावनात्मक दुरूपयोग में शामिल है -
. अपमान करना, उपहास करना, तिरस्कार करना, नाम पुकारना और मजाक उडाना इसे लेकर के उस महिला को बच्चे या पुरूष बच्चा नहीं, है।
बी. ऐसे व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा देने की धमकी देना जिससे व्यथित व्यक्ति हितबद्ध है।
4. आर्थिक दुरूपयोग में शामिल है:-
. सभी अथवा किसी आर्थिक अथवा वित्तीय स्त्रोंतों से वंचित करना जिसके लिए व्यथित व्यक्ति किसी विधि अथवा प्रथा के अधिन हकदार है चाहे किसी न्यायालय के आदेश के अधीन देय हो अन्यथा या जिसकी व्यथित व्यकित आवश्यकता के कारण व्यथित व्यक्ति और उसके बच्चे की घरेलू आवश्यकताओं, स्त्रीधन, संपत्ति, व्यथित व्यक्ति के स्वामित्व में संयुक्त रूप से या अलग से साझेदारी की गृहस्थी एवं भत्तों से संबंधित किराये के भुगतान को शामिल करते हुए अपेक्षा रखता है
बी. गृहस्थी का निपटारा आस्तियों के किसी संक्रमण को प्रभावित करता है चाहे चल अथवा अचल मूल्यवान, अंश प्रतिभूति बंधपत्र और ऐसी अन्य संपत्ति जिसमें व्यथित व्यक्ति का कोई हित हो या वह घरेलू संबंध के आधार पर हकदार हो या व्यथित व्यक्ति या उसके बच्चे युक्तियुक्त अपेक्षित हो या व्यथित व्यक्ति द्वारा संयुक्त रूप से धारित उसका स्त्रीधन या कोई अन्य संपत्ति
सी. स्त्रोतो अथवा सुविधाओं तक लगातार पहंच अथवा प्रतिबंध जिसका व्यथित व्यक्ति घरेलू संबंध के आधार पर प्रयोग करके या उपभोग करने के लिए हकदार है जिसमें साझेदारी की गृहस्थी तक पहुंच भी शामिल है।
स्पष्टीकरण 2 - प्रत्यर्थी का लोप आचरण या कार्य को करना इस धारा के अधीन घरेलू हिंसा गठित करता है यह निश्चित करने के लिए प्रकरण मे सभी तथ्यों परिस्थितियों पर विचार किया जायेगा।
इस तरह धारा 3 में घरेलू हिंसा की एक विस्तृत परिभाषा दी गई है जिसमें प्रत्यर्थी के व्यथित व्यक्ति के विरूद्ध किये गये हर संभव अवैध कृत्य को शामिल करने का प्रयास किया गया है।
धारा 351 भा... में दी गई हमले की परिभाषा धारा 350 भा... आपराधिक बल की परिभाषा और धारा 503 भा.. में दी गई आपराधिक अभित्रास की परिभाषा को हमे ध्यान रखना होगा उन परिभाषाओं के साथ दिये गये दृष्टांतों को ध्यान में रखना होगा इस तरह इन मामलों में प्रत्यर्थी के कृत्य पर विचार करते समय कि वह घरेलू हिंसा में आता है या नहीं आता है उक्त समस्त तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए।
धारा 4 के तहत सूचना
धारा 4 (1) के तहत कोई व्यक्ति जिसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि घरेलू हिंसा का कोई कृत्य कारित हो चुका है अथवा हो रहा है अथवा होने वाला है इस के बारे में सूचना संबंधित संरक्षण अधिकारी को दे सकेगा
धारा 4 (2) के तहत किसी व्यक्ति द्वारा उपधारा 1 के प्रयोजन हेतु सद्भावना में दी गई सूचना के लिए कोई दीवानी अथवा आपराधिक दायित्व उत्पन्न नही होगा।
नियम 4 के तहत वह व्यक्ति मौखिक या लिखित सूचना संरक्षण अधिकारी को दे सकता है नियम 4 (2) के तहत यदि सूचना मौखिक रूप से दी गई है तब संरक्षण प्राधिकारी उसे लिखेगा और उस पर सूचना देने वाले के हस्ताक्षर करवायेगा यदि सूचनाकर्ता लिखित सूचना देने की स्थिति में नहीं तब संरक्षण अधिकारी उसकी पहचान से संतुष्टी करेगा और पहचान का अभिलेख रखेगा।
नियम 4 (3) के अनुसार सूचना की निःशुल्क प्रति सूचनाकर्ता को तत्काल संरक्षण प्राधिकारी द्वारा दी जायेगी
इस तरह धारा 4 और नियम 4 के अनुसार यदि किसी भी व्यक्ति के पास यह विश्वास करने का कारण है कि घरेलू हिंसा का कृत्य कारित हो चुका है हो रहा है या होने वाला है तो वह इसकी लिखित या मौखिक सूचना संबंधित क्षेत्र के संरक्षण प्राधिकारी को दे सकता है नियम 4 में सूचना को लेखबद्ध करने की प्रक्रिया को भी प्रावधान है
धारा 5 के तहत पुलिस अधिकारियों सेवाप्रदाताओं और मजिस्टे तथा संरक्षण अधिकारी के कर्तव्य
यह प्रावधान इस अधिनियम की विशेषता है जिसके तहत सभी पुलिस अधिकारी संरक्षण अधिकारी सेवा प्रदाताओं और मजिस्टे पर कुछ कत्र्तव्य अधिरोपित किये गये है जिनका उन्हें पालन करना होता है
घरेलू हिंसा का परिवाद प्राप्त होने पर अथवा घरेलू हिंसा के घटना स्थल पर उपस्थित होने पर या घरेलू हिंसा की सूचना प्राप्त होने पर संबंधित पुलिस अधिकरी, संरक्षण अधिकारी, सेवा प्रदाता अथवा मजिस्टे का यह कर्तव्य होगा की वह व्यथित व्यक्ति को:-
. इस अधिनियम के अधीन अनुतोष प्राप्त करने हेतु संरक्षण आदेश, आर्थिक अनुतोष ओदश, अभिरक्षा आदेश, निवास का आदेश, प्रतिकर का आदेश अथवा एक से अधिक ऐसे आदेश के लिए आवेदन तैयार करने के उसके अधिकार के जानकारी देगें।
बी. सेवा प्रदाताओं की सेवा उपलब्ध होने की जानकारी देगें।
सी. संरक्षण अधिकारी की सेवाओं की जानकारी उपलब्घ होने की जानकारी देगें।
डी. विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत निःशुल्क विधिक सेवा के अधिकार के बारे में जानकारी देगें
. जहां कहीं सुसंगत हो, धारा 498 भा. दं. सं. के अधीन परिवाद दाखिल करने के अधिकार की जानकारी देगें
लेकिन किसी पुलिस अधिकारी को किसी संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होने पर विधि अनुसार कार्यवाहीं करने के कर्तव्य से उक्त तथ्य मुक्त नहीं करेगें।
यदि हम अन्य वैधानिक प्रावधानों पर विचार करे तो भरण पोषण का आवेदन पेश होने पर मजिस्टे का यह कर्तव्य नहीं होता की वह आवेदक को यह जानकारी दे कि वह अंतरिम भरण पोषण आवेदन भी लगा सकती है या आवेदन में यदि क्रूरता के तथ्य लिखे हो तब धारा 498 भा... का परिवाद लगाने की जानकारी दे।
इसी तरह किसी पुलिस अधिकारी पर भी किसी अन्य विधान में यह कर्तव्य अधिरोपित नहीं किया गया है कि परिवादी को कोई अन्य आवश्यक जानकारी दे जबकि इस अधिनियम में धारा 5 विशेष प्रावधान करती है उक्त समस्त अधिकारियों पर कुछ कर्तव्य अधिरोपित करती है।
धारा 6 आश्रय गृहों या शैलटर होम के कर्तव्य
यदि व्यथित व्यक्ति अथवा उसकी ओर से कोई संरक्षण अधिकारी अथवा सेवा प्रदाता आश्रय गृह के प्रभारी व्यक्ति से व्यथित व्यक्ति को आश्रय प्रदान करने के लिए निवेदन करते है तो ऐसे आश्रय गृह का प्रभारी व्यक्ति व्यथित व्यक्ति को उस आश्रय गृह में आश्रय प्रदान करेगा।
इस संबंध में नियम 16 में भी प्रावधान है जिसके तहत संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता आश्रय गृह के भारसाधक व्यक्ति को धारा 6 के तहत लिखित अनुरोध कर सकेगा।
नियम 16 (2) के तहत जब संरक्षण प्राधिकारी आश्रय गृह के लिए अनुरोध करेंगे तो उसके साथ धारा 9 या धारा 10 के अधीन पंजीकृत की गई घरेलू हिंसा की रिपोर्ट की एक प्रति भी संलग्न करेंगे लेकिन ऐसी रिपोर्ट दर्ज होने पर आश्रय के लिए मना नहीं किया जायेगा।
नियम 16 (3) के तहत यदि व्यथित व्यक्ति ऐसा चाहता हे तो आश्रय गृह का प्रभारी व्यथित व्यक्ति की पहचान प्रकट नहीं करेगा या प्रत्यर्थी को इस बारे में सूचना नहीं देगा।
धारा 6 और नियम 16 अधिनियम की एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है जिसके तहत व्यथित व्यक्ति को आश्रय गृह में आश्रय देने के प्रावधान है ताकि व्यथित व्यक्ति को अनावश्यक भटकना पड़े और व्यथित व्यक्ति के शोषण की संभावना रहे इन्ही तथ्यों को ध्यान में रखते हुए अधिनियम में ये प्रावधान किये गये है।
धारा 7 चिकित्सा सुविधा के कर्तव्य

यदि व्यथित व्यक्ति अथवा उसकी ओर से संरक्षण अधिकारी अथवा सेवा प्रदाता चिकित्सा सुविधा के प्रभारी व्यक्ति से उसको किसी चिकित्सीय सहायता प्रदान करने का निवेदन करता है तो ऐसी चिकित्सा सुविधा का प्रभारी व्यक्ति व्यथित व्यक्ति को चिकित्सा सहायता प्रदान करेगा।
इस संबंध में नियम 17 (1) के तहत संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता या व्यथित व्यक्ति चिकित्सा सुविधा के भारसाधक व्यक्ति को लिखित अनुरोध कर सकेगें
नियम 17(2) के तहत संरक्षण प्राधिकारी जब ऐसा लिखित अनुरोध करता है तो उसे घरेलू हिंसा की रिपोर्ट की एक प्रति भी संलग्न करनी होती है परन्तु ऐसी रिपोर्ट दर्ज नहीं है इस आधार पर चिकित्सा सहायता या परीक्षण के लिए मना नहीं किया जायेगा।
नियम 17 (3) के तहत यदि घरेलू हिंसा की रिपोर्ट नहीं की गई है तो चिकित्सा सुविधा का भारसाधक व्यक्ति इसे प्रारूप एक में भरेगा और उसे स्थानीय संरक्षण अधिकारी को भेजेगा।
नियम 17(4) के तहत व्यथित व्यक्ति को चिकित्सा रिपोर्ट की एक प्रति निःशुल्क चिकित्सा सुविधा प्रदाता उपलब्ध करायेगा।
अधिनियम की यह एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है जिसके तहत व्यथित व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा और चिकित्सा परीक्षण की सुविधा उपलब्ध होती है ताकि व्यथित व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा हो सके यदि उसे कोई चोटे हो तो उनका उपचार हो सके।
धारा 8 संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति
धारा 8 (1) के तहत राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, इतनी संख्या में संरक्षण अधिकारियों को प्रत्येक जिले में नियुक्त करेगी जितनी वह आवश्यक समझे और उन क्षेत्र अथवा क्षेत्रों को भी अधिसूचित करेगी जिसके अंदर संरक्षण अधिकारी इस अधिनियम द्वारा अथवा इस अधिनियम के अधीन उसको प्रदत्त शक्तियों के प्रयोग और कत्र्तव्यों का निर्वाहन करेगा।
धारा 8 (2) के तहत संरक्षण अधिकारी जहां तक संभव हो महिलाए होंगी और उतनी योग्यता और अनुभव रखेगी जितनी विहित की जाये।
धारा 8 (3) के तहत संरक्षण अधिकारी और उसके अधीनस्थ अन्य अधिकारियों की सेवा के र्निबंधन और शर्ते ऐसी होगी जैसे विहित की जाये।
नियम 3 में संरक्षण अधिकारियों की योग्यता और अनुभव के बारे में व्यवस्था है जिसके तहत (1) राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये गये संरक्षण अधिकारी सरकारी या गैर सरकारी संगठनों के सदस्य हो सकेंगे परंतु महिलाओं को प्राथमिकता देनी होगी।
नियम 3 (2) के तहत सामाजिक क्षेत्र में कम से कम 3 वर्ष का अनुभव उस व्यक्ति को रखना होगा।
नियम 3 (3) के तहत संरक्षण अधिकारी की सेवा अवधि न्यूनतम 3 वर्ष होगी।
नियम 3 (4) के तहत राज्य सरकार संरक्षण अधिकारी को आवश्यक कार्यालय सहयोग उनके कत्र्तव्यों के उचित निर्वाहन के लिए प्रदान करेंगे।
इस तरह नियम 3 में संरक्षण अधिकारी की योग्यता और अनुभव के प्रावधान किये गये है जिनको ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार धारा 8 के तहत प्रत्येक जिले में आवश्यक संख्या में संरक्षण प्राधिकारी नियुक्त करती है।
धारा 9 संरक्षण अधिकारियों के कार्य और कर्तव्य
संरक्षण अधिकारी के निम्नलिखित कर्तव्य होते हैं:-
. इस अधिनियम के अधीन मजिस्टे को उनके कार्यो के निर्वाहन में सहायता करना।
बी. घरेलू हिंसा का परिवाद प्राप्त होने पर मजिस्टे को घरेलू धटना की रिपोर्ट ऐसे प्रारूप में और ऐसे रीति से करना जैसा विहित किया जाये और उस रिपोर्ट की प्रतिया संबंधित क्षेत्र के पुलिस अधिकारी और सेवा प्रदाता को भेजना।
सी. मजिस्टे को ऐसे प्रारूप में और ऐसे रीति से आवेदन करना जैसा विहित किया जाये और व्यथित व्यक्ति ऐसा चाहता है तो संरक्षण आदेश जारी करने का अनुतोष मांगना।
डी. यह सुनिश्चित करना की व्यथित व्यक्ति को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान की जा रही है और परिवाद का प्रारूप निःशुल्क उपलब्ध करवाना।
. मजिस्टे के क्षेत्राधिकार के अंदर स्थानीय क्षेत्र में विधिक सेवा अथवा परामर्श, आश्रय गृहों और चिकित्सा सुविधाओं को प्रदान करने वाले सभी सेवा प्रदाताओं की सूची मेन्टेन करना।
एफ. यदि व्यथित व्यक्ति अपेक्षा करता है तो उसे एक सुरक्षित आश्रय गृह उपलब्ध करवाना और इसकी सूचना संबंधित क्षेत्र के पुलिस अधिकारी और मजिस्टेª को प्रेषित करना।
जी. व्यथित व्यक्ति की चिकित्सा जांच यदि उसे शारीरिक क्षति हुई है तो जांच करनावा और जांच रिपोर्ट संबंधित क्षेत्र के मजिस्टे को प्रेषित करना।
एच. यह सुनिश्चित करना की धारा 20 के अधीन आर्थिक अनुतोष के आदेश का पालन और निष्पादन दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अधीन विहित प्रक्रिया के अनुसार किया जाता है।
धारा 9 (2) के तहत संरक्षण अधिकारी मजिस्टे के नियंत्रण और पर्यवेक्षण के अधीन होगा और मजिस्टे तथा सरकार द्वारा इस अधिनियम के द्वारा अधिरोपित कत्र्तव्यों को निर्वाह करेगा।
धारा 9 में संरक्षण प्राधिकारी को कुछ कर्तव्य बतलाये गये है उन्हें नियम 8 एवं नियम 10 में और स्पष्ट किया गया है और नियम 8 में संरक्षण अधिकारी के ऐसे 14 अन्य कर्तव्य बतलाये गये है जिसका उनको पालन करना होता है साथ ही नियम 10 में संरक्षण अधिकारियों के 8 अन्य कर्तव्य बतलाए गये है जिनका उन्हें पालन करना होता है।
इस तरह अधिनियम में संरक्षण अधिकारी का पद अत्यंत महत्व का होता है और उस पर अधिनियम के तहत कई महत्वपूर्ण कर्तव्य अधिरोपित किये गये है जिनका उसे पालन करना होता है और अधिनियम में तथा उसके तहत बनाये गये नियमों में संरक्षण अधिकारी के कर्तव्यों की विस्तृत सूची दी गई हैं।
सेवा प्रदाता या सर्विस प्रोवाइडर के बारे में
धारा 10 (1) के तहत सोसायटी रजिस्टेªशन एक्ट, 1860 के तहत पंजीकृत कोई स्वेच्छिक संस्था या कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत पंजीकृत कोई कंपनी या महिलाओं के अधिकारों और हितों की किसी विधि पूर्ण साधनों द्वारा संरक्षण के उद्देश्य से कार्यरत कोई अन्य संस्था, विधिक सहायता, चिकित्सा, वित्तीय या अन्य सहायता प्रदान करने के लिए, अपने आपको राज्य सरकार से इस अधिनियम के प्रयोजन हेतु एक सेवा प्रदाता के रूप में पंजीकृत करवायेगी।
धारा 10 (2) के तहत ऐसे पंजीकृत सेवा प्रदाता को निम्न शक्तिया होती हैः-
. घरेलू धटना की सूचना को यदि व्यथित व्यक्ति अपेक्षा करे तो अभिलिखित करना और उसकी एक प्रति संबंधित क्षेत्र के मजिस्टे और संरक्षण अधिकारी को अग्रेषित करना।
बी. व्यथित व्यक्ति की चिकित्सा जांच कराना और उसकी रिपोर्ट की एक प्रति संबंधित क्षेत्र के संरक्षण अधिकारी और थाना प्रभारी को प्रेषित करना।
सी. यदि व्यथित व्यक्ति अपेक्षा करे तो उसे आश्रय गृह का प्रदान किया जाना सुनिश्चित करना और व्यथित व्यक्ति के आश्रय गृह में ठहरने की सूचना संबंधित क्षेत्र के पुलिस थाना प्रभारी को देना।
धारा 10 (3) के तहत सेवा प्रदाता को या उसके किसी सदस्य को जो इस अधिनियम के अधीन कार्य कर रहा हो उसके द्वारा सद्भावना पूर्वक की गई किसी कार्यवाही जो घरेलू हिंसा रोकने के लिए हो तब उनके विरूद्ध कोई वाद अभियोजन या अन्य कार्यवाही संस्थित नहीं की जायेगी।
नियम 11 में सेवा प्रदाताओं के रजिस्ट्रीकरण की प्रक्रिया और उनकी योग्यता बतलाई गई है जिनको ध्यान में रखते हुये राज्य सरकार किसी भी रजिस्टर्ड कंपनी या रजिस्टर्ड सोसायटी को सेवा प्रदाता के रूप में पंजीकृत करती है साथ ही सेवा प्रदाताओं की सूची राज्य सरकार संबंधित क्षेत्र के संरक्षण अधिकारी को देती है और वह इस बावत् रजिस्टर मेन्टेन करता है।
धारा 10 और नियम 11 अधिनियम की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है जिसके तहत अधिनियम के प्रावधानों को प्रभावी ढ़ग से लागू करने के लिए सेवा प्रदाता या सर्विस प्रोवाइडर के बारे में प्रावधान किये गये है इनमें स्वयं सेवी संस्थाए भी आती है जो सामाजिक क्षेत्र में काम करती हैं। कभी-कभी महिलाए पुलिस सहायता लेने से भारतीय परिवेश में संकोच करती है इसी कारण सेवा प्रदाता के बारे में प्रावधान किये गये है ताकि व्यथित महिलाओं को उचित सहायता मिल सके।
सरकार के कर्तव्य
धारा 11 में केन्द्रीय सरकार और प्रत्येक राज्य सरकार पर ये कर्तव्य अधिरोपित किये गये है किः-
. ऐसे उपाय करना जिससे इस अधिनियम के उपबंधों का जन संचार के माध्यम से व्यापक प्रचार हो सके जैसे टेलीविजन, रेडियो और प्रिंट मिडिया के माध्यम से नियमित अंतराल में प्रचार करना।
बी. पुलिस अधिकारी और न्यायिक सेवा के सदस्यों को जो इस अधिनियम से संबंधित है उन्हें समय-समय पर प्रशिक्षण देना ताकि वे अधिनियम से संबंधित विषयों की जानकारी और उनके बारे में संवेदनशील हो सके।
सी. विभिन्न मंत्रालयों के बीच प्रभावी समन्वय स्थापित करना जो कि इस अधिनियम से संबंध रखते है।
डी. यह देखना की महिलाओं को इस अधिनियम के अधीन उपलब्ध सेवाए मिल सके इसके लिए विभिन्न मंत्रालयों में प्रोटोकाल की व्यवस्था और न्यायालय स्थापित करना शामिल हैं।
इस तरह अधिनियम में केवल पुलिस अधिकारी, संरक्षण अधिकारी, सेवा प्रदाता, मजिस्टेª पर कत्र्तव्य अधिरोपित किये गये है बल्कि राज्य सरकार और केन्द्र सरकार पर भी कर्तव्य अधिरोपित किये गये हैं।
मजिस्टे को आवेदन
धारा 12 (1) के तहत व्यथित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति इस अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोष प्राप्त करने के लिए मजिस्टे को आवेदन कर सकते है,
परंतु ऐसे आवेदन पर कोई आदेश पारित करने से पूर्व मजिस्टे, संरक्षण अधिकारी अथवा सेवा प्रदाता से घरेलू हिंसा की रिपोर्ट लेकर उस पर विचार करेंगे।
धारा 12 (2) के तहत व्यथित व्यक्ति के प्रतिकर या नुकसानी का वाद लाने के अधिकार पर उक्त आवेदन का कोई प्रतिकूल असर नहीं गिरेगा लेकिन इस अधिनियम के तहत कोई धन राशि दिलाई जाती है तब वाद में उक्त राशि को विचार में लेकर समायोजित किया जायेगा और शेष डिक्री निष्पादन योग्य होगी।
धारा 12 (3) के तहत आवेदन विहित प्रारूप में या उसके लगभग प्रारूप में यथा संभव होना चाहिये।
धारा 12 (4) के तहत मजिस्टे सुनवाई की प्रथम तिथि नियत करेगा जो सामान्यतः आवेदन की प्राप्ति की तिथि से तीन दिन के बाद की नहीं होगी।
धारा 12 (5) के तहत ऐसा आवेदन प्रथम सुनवाई की तिथि से 60 दिन के अवधि के अंदर निपटाने का प्रयास किया जायेगा।
यद्यपि धारा 12 (4) में प्रथम सुनवाई की तिथि आवेदन प्राप्ति के तीन दिन के भीतर नियम करने के प्रावधान हो लेकिन प्रयोगिक दृष्टिकोण रखते हुये ऐसी तिथि नियत करना चाहिए जिसमें प्रत्यर्थी पर प्रथम बार में सूचना पत्र की तामील हो जाये और निकटतम तिथि लगाने का प्रयास करना चाहिये।
नियम 6 (1) के तहत धारा 12 का आवेदन प्रारूप 2 में अथवा यथासंभव उसके निकटतम रूप में होना चाहिये।
नियम 6 (2) के तहत व्यथित व्यक्ति आवेदन तैयार करने में और संबंधित मजिस्टेª को प्रेषित करने में संरक्षण अधिकारी की सहायता ले सकता है।
नियम 6 (3) के तहत यदि व्यथित व्यक्ति निरीक्षर है तो संरक्षण अधिकारी आवेदन पढ़ कर उसे सुनायेगा और उसकी विषय वस्तु समझायेगा।
नियम 6 (4) के तहत धारा 23 की उप धारा 2 के अधीन दाखिल किये जाने वाले शपथ पत्र प्रारूप में 3 में दाखिल किये जायेंगे।
नियम 6 (5) के तहत धारा 12 के अधीन आवेदन पत्र को धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अधीन बतलाये तरीके से निपटाया जायेगा और आदेशों का पालन कराया जायेगा।
इस तरह नियम 6 में धारा 12 के तहत प्रस्तुत होने वाले आवेदन को प्रस्तुत करने की विधि और उनको निपटाने की प्रक्रिया बतलाई गई है इस संबंध में धारा 28 भी ध्यान में रखने योग्य है जिस पर यही विचार उचित होगा।
प्रक्रिया
धारा 28 (1) के तहत इस अधिनियम में अन्यथा उपबंधित के सिवाये धारा 12, 18 से 23 के अधीन सभी प्रक्रियाए और धारा 31 के अधीन अपराध दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के उपबंधों द्वारा शासित होंगे।
धारा 28 (2) के तहत उपधारा 1 की कोई बात न्यायालय को धारा 12 अथवा धारा 23 की उप धारा 2 के अधीन किसी आवेदन के निराकरण हेतु अपनी स्वयं की प्रक्रिया बनाने से नहीं रोकेगी।
इस तरह नियम 6 (5) एवं धारा 28 को एक साथ पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि धारा 12 के आवेदन और धारा 18 से 23 के अनुतोष और धारा 31 के अपराध में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधान लागू होंगे और धारा 12 का आवेदन वैसे ही निपटाया जायेगा जैसे धारा 125 दं.प्र.सं. के तहत भरण भोषण का आवेदन पत्र निपटाया जाता है और धारा 126 (2) दं.प्र.सं., 1973 के तहत ऐसी कार्यवाहियों में सब साक्ष्य संमन मामलों के तहत अभिलिखित किया जायेगा और प्रत्यर्थी या उसको उपस्थिति में छूट दे दी गई हो तो उसके अभिभाषक के उपस्थिति में लेखबद्ध किया जायेगा। जबकि धारा 23 के आवेदन के निराकरण के समय मजिस्टेª स्वयं की पक्रिया भी बना सकते हैं।
न्याय दृष्टांत आरिफ अहमद कुरेशी विरूद्ध श्रीमती साजिया, 2010 (2) एम.पी.जे.आर. 284 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मजिस्टे घरेलू धटना की सूचना बुलाने के पूर्व ही धारा 12 के आवेदन पर संज्ञान ले सकता है मामले में संरक्षण आदेश पारित नहीं किया गया था और प्रत्यर्थी की ओर से यह तर्क किया गया था कि घरेलू धटना की सूचना संरक्षण अधिकारी से बुलाने के पूर्व प्रसंज्ञान नहीं लिया जा सकता इस तर्क को अमान्य किया गया।
न्याय दृष्टांत मधु सदन विरूद्ध ममता, 2009 (3) एम.पी.जे.आर. 47 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 12 के आवेदन में मजिस्टे को पक्षकारों को सुनवाई का अवसर देना चाहिये मजिस्टे को पक्षकारों की साक्ष्य लेखबद्ध करना चाहिये और धारा 125 दं.प्रसं. में बतलाई पक्रिया के अनुसार इस आवेदन का निराकरण करना चाहिये और धारा 18 के तहत संरक्षण आदेश पारित करने से पूर्व मजिस्टे को प्रथम दृष्ट्या यह संतुष्टि करना चाहिये की घरेलू हिंसा हुई है या होने वाली हैं।
न्याय दृष्टांत राव साहब पंडरी नाथ कामले विरूद्ध शीला, 2010 सी.आर.एल.जे. 3596 बाम्बे में यह प्रतिपादित किया गया है कि ये कार्यवाहिया कोसी सिविल नेचर की होती है और इनमें संशोधन आवेदन पत्र स्वीकार कर सकते हैं।
न्याय दृष्टांत मिलन कुमार विरूद्ध स्टेट आफ यू.पी., 2007 सी.आर.एल.जे. 4742 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विहित प्ररूप में आवेदन नहीं है या आवेदन पर व्यथित व्यक्ति के हस्ताक्षर नहीं है ऐसे तकनीकी आधारों पर आवेदन खारिज नहीं करना चाहिये इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती रीना मुखर्जी विरूद्ध स्टेट आफ वेस्ट बंगाल, 2010 सी.आर.एल.जे. एन..सी. 78 कलकत्ता भी अवलोकनीय हैं।
अधिनियम में आवेदन प्राप्त होने पर प्रत्यर्थी को सूचना दी जाती है उसका जवाब दिया जाता है और उसके बाद उभय पक्ष का साक्ष्य लेकर उभय पक्ष को सुनकर उचित आदेश पारित किया जाता है धारा 12 के आवेदन में तो दाण्डिक मामलों की तरह कोई आरोप विरचित करने होते है और ही दीवानी मामलों की तरह कोई वाद प्रश्न बनते हैं।
विचारणीय प्रश्न
इन मामलों में सामान्यतः निम्न विचारणीय प्रश्न बनाये जाते हैं:-
1. क्या आवेदक के साथ घरेलू हिंसा हुई है ?
2. यदि हा तो अनुतोष ?
सूचना की तामील
धारा 13 (1) के तहत धारा 12 के अधीन नियत की गई सुनवाई की तिथि की सूचना मजिस्टे द्वारा संरक्षण अधिकारी को दी जायेगी जो इसे प्रत्यर्थी पर या किसी अन्य व्यक्ति पर जैसा मजिस्टे द्वारा निर्देशित किया जाये ऐसे साधनों द्वारा जैसा विहित किया जाये, दो दिन की अधिकतम अवधि के अंदर या ऐसे अतिरिक्त युक्तियुक्त समय में जैसा मजिस्टे द्वारा अनुज्ञात किया जाये, तामील करवायेगा।
धारा 13 (2) के तहत संरक्षण अधिकारी द्वारा सूचना की तामील की घोषणा ऐसे प्रारूप में जैसा विहित किया जाये इस बात का सबूत होगी की ऐसी सूचना की तामीली प्रत्यर्थी पर या अन्य व्यक्ति पर हुई थी जब तक की प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया जाता।
नियम 12 (1) के तहत सूचना में घरेलू हिंसा करने वाले अभिकथित व्यक्ति का नाम घरेलू हिंसा की प्रकृति और ऐसे अन्य विवरण होंगे जो संबंधित व्यक्ति की पहचान को आसान बना सके।
नियम 12 (2) के तहत सूचनाओं की तामील निम्न प्रकार से की जायेगी:-
. इस अधिनियम के अधीन कार्यवाहियों के बारे में सूचनाओं की तामील संरक्षण अधिकारी द्वारा या उसकी ओर से निर्देशित किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा परिवादी अथवा व्यथित व्यक्ति द्वारा उस पते पर जहां प्रत्यर्थी भारत में आम तौर से निवास कर रहा अभिकथित है या जहां प्रत्यर्थी लाभ के लिए नियोजित है वहां कराई जायेगी।
इस तरह जहां प्रत्यर्थी निवास करता है या लाभ के लिए नियोजित है उस स्थान का जैसा अभिकथन व्यथित व्यक्ति ने किया है वहां सूचना की तामील करवाई जायेगी।
बी. सूचना उस स्थान के भार साधक व्यक्ति को दे दी जायेगी और ऐसा देना संभव हो तो उस स्थान को आसानी से देखे जा सकने वाले भाग पर चस्पा कर दी जायेगी।
सी. आदेश 5 सी.पी.सी. तथा अध्याय 6 दं.प्र.सं. 1973 के प्रावधान सूचना की तामील पर यथा साध्य अपनाई जा सकेंगे।
डी. मजिस्टेª अधिनियम में उपबंधित समय सीमा में कार्यवाही शीध्र करने के लिए अन्य आवश्यक उपायों के निर्देश भी दे सकेंगे साथ ही आदेश 5 सी.पी.सी. एवं अध्याय 6 दं.प्र.सं. 1973 के तहत सूचनाओं की तामील पर पारित आदेशों के जो परिणाम होते है वहीं परिणाम धारा 13 के तहत जारी सूचना पत्र की तामील के होंगे।
नियम 12 (3) के तहत न्यायालय प्रत्यर्थी के नियम तिथि पर हाजिर होने के प्रत्यर्थी के उपस्थित होने पर या उस तामील हो जाने पर परिवादी या प्रत्यर्थी या दोनो पक्ष को सुनकर उचित आदेश करेगा।
इस तरह धारा 13 के तहत जारी सूचना पत्र की तामील नियम 12 में बतलाई विधि से कराई जाती है और उसमें मजिस्टे को सभी आवश्यक उपाय करने की शक्तिया भी दी गई हैं।
परामर्श या काउंसलिंग
धारा 14 (1) के तहत मजिस्टे इस अधिनियम के अधीन कार्यवाही के किसी भी स्टेज पर, प्रत्यर्थी या व्यथित व्यक्ति को या तो अकेले या संयुक्त रूप से सेवा प्रदाता के किसी सदस्य से जो परामर्श या काउंलिंग की योग्यता और अनुभव रखता हो उससे परामर्श लेने के लिए निर्देश कर सकता है।
धारा 14 (2) के तहत जहां परामर्श या काउंसलिंग का निर्देश दिया गया है वहां सुनवाई की अगली तिथि 2 माह की नियत की जायेगी।
नियम 13 में परामर्श दाता की नियुक्ति और योग्यता बतलाई गई है जिसके तहत कोई व्यक्ति जो विवाद की विषय वस्तु से हितबद्ध हो या पक्षकारों में से किसी एक से संबंधित हो या जो प्रत्यर्थी के लिए किसी अन्य मामले में विधि व्यवसाय के रूप में उपस्थित हुआ हो उसे परामर्श दाता नहीं बनाया जाता है।
नियम 13 (3) के तहत परामर्श दाता यथासंभव महिला होना चाहिये।
इस तरह इस अधिनियम में परामर्श या काउंसलिंग के लिए विशेष प्रावधान किये गये है ताकि उभय पक्षों के मध्य सौहार्द पूर्ण तरीके से समाधान हो सके क्योंकि सामान्यतः ये विवाद घरेलू प्रकृति के होते है कभी-कभी पक्षकारों को अहम भी टकराता है ऐसे में यदि अनुभवी परामर्श दाता उभय पक्ष के मध्य परामर्श का प्रयास करते है तो इसके अच्छे परिणाम सामने आते हैं।
नियम 14 में परामर्श दाता द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया बतलाई गई है न्यायालय को ऐसी कार्यवाही सुपरविजन करना चाहिये।
कल्याण विशेषज्ञ की सहायता
धारा 15 के तहत न्यायालय इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में परिवार कल्याण की उन्नति में लगे व्यक्ति की सहायता ले सकते है चाहे वे व्यथित व्यक्ति से संबंधित हो या हो ऐसे मामलों में महिला को वरियता देना होती हैं।
अधिनियम की यह एक अन्य विशेषता है जिसमें कार्यवाही के दौरान मजिस्टेª वेल फेयर एक्सपर्ट या कल्याण विशेषज्ञ की सहायता ले सकते हैं ऐसे विशेषज्ञ पक्षकारों के मध्य की समस्या को समझने में और उसके समाधान में सहायक होते है अतः अधिनियम में इनके बारे में प्रावधान किया गया हैं।
कार्यवाही बंद कमरे में होना
धारा 16 में यह प्रावधान है कि मामले के परिस्थितियों में यदि मजिस्टेª उचित समझते है या कार्यवाही का कोई पक्षकार ऐसा चाहता है तब इस अधिनियम के तहत कार्यवाही बंद कमरे में संचालित करने के प्रावधान हैं।
धारा 327 दं.प्र.सं. 1973 में भी इस संबंध में आवश्यक प्रावधान है और धारा 376 एवं धारा 376 से धारा 376 डी तक के मामलों में कार्यवाही बंद कमरे में कार्यवाही करने के प्रावधान किये गये है और यथासंभव महिला न्यायाधीश द्वारा कार्यवाही संचालित किये जाने के प्रावधान भी किये गये है।
कभी-कभी ऐसी समस्या सकती है की मजिस्टे के पास चेम्बर उपलब्ध हो तब न्याय दृष्टांत वरदू राजू विरूद्ध स्टेट आफ कर्नाटक, 2005 सी.आर.एल.जे. 4180 में प्रतिपादित विधि से मार्गदर्शन लेना चाहिये और मुख्य न्यायालय के होल से संबंधित मामले के पक्षकारों के अलावा सभी अन्य व्यक्तियों को बाहर कर देना चाहिए और आदेश पत्र में इस बारे में उल्लेख कर लेना चाहिए की कार्यवाही बंद कमरे में की जा रही है।
जहां चेम्बर उपलब्ध हो वहां कार्यवाही चेम्बर में की जाना चाहिये लेकिन आदेश पत्र में इस बारे में उल्लेख अवश्य आना चाहिये।
इस अधिनियम के तहत पारित होने वाले आदेश
इस अधिनियम के तहत मुख्य रूप से निम्न लिखित आदेश पारित होते है:-
. संरक्षण आदेश धारा 18 के तहत
बी. निवास आदेश, धारा 19 के तहत
सी. आर्थिक अनुतोष आदेश, धारा 20 के तहत
डी. अभिरक्षा आदेश, धारा 21 के तहत
. प्रतिकर आदेश, धारा 22 के तहत
एफ. अंतरिम और एकपक्षीय आदेश, धारा 23 के तहत
संरक्षण आदेश या प्रोटक्शन आर्डर
धारा 18 के तहत मजिस्टे व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी को सुनवाई का एक अवसर देने के पश्चात और प्रथम दृष्टया संतुष्ट होने पर की घरेलू हिंसा हुई है अथवा घरेलू हिंसा होने वाली है व्यथित व्यक्ति के पक्ष में संरक्षण आदेश पारित कर सकता है और प्रत्यर्थी को निम्न कृत्य करने से निषेधित कर सकता है:-
. घरेलू हिंसा के किसी कृत्य को करने से
बी. घरेलू हिंसा के कृत्यों को किये जाने में सहायता या दुष्प्रेरण करने से
सी. व्यथित व्यक्ति के नियोजन के स्थान में अथवा यदि व्यथित व्यक्ति बच्चा है तो उसके विद्यालय या किसी ऐसे अन्य स्थान में जहां व्यथित व्यक्ति बार-बार आता जाता है प्रवेश से
डी. व्यथित व्यक्ति से किसी भी रूप में संपर्क करने के प्रयास से जैसे व्यक्तिगत, मौखिक या लिखित या इलेक्ट्रोनिक या टेलीफोनिक संपर्क
. किन्हीं आस्तियों या असेट के अन्य संक्रामण करने से, बैंक लाकर या बैंक खातों के संचालन से जिसका प्रयोग दोनों पक्ष द्वारा या व्यथित व्यक्ति एवं प्रत्यर्थी द्वारा संयुक्त रूप से अथवा प्रत्यर्थी द्वारा अकेले किया जाता है इसके अलावा स्त्री धन या कोई अन्य संपत्ति जो मजिस्टे के आज्ञा के बिना पक्षकारों द्वारा संयुक्त रूप से या पृथक रूप से धारण की गई हो।
एफ. आश्रितों, अन्य संबंधियों या व्यथित व्यक्ति को घरेलू हिंसा के विरूद्ध सहायता देने वाले किसी व्यक्ति, पर हिंसा कारित करने से
जी. कोई अन्य कृत्य करने से जो संरक्षण आदेश में उल्लेखित हो
इस तरह धारा 18 में मजिस्टे को ये शक्तिया है कि वह प्रत्यर्थी को घरेलू हिंसा और उससे संबंधित उक्त कृत्य करने से निषेधित कर सके यह अधिनियम का विशेष प्रावधान है जो व्यथित व्यक्ति के सुरक्षा के लिए बनाया गया है साथ ही नियम 15 में संरक्षण आदेश के भंग होने पर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया भी बतलाई गई है जिस पर आगे चर्चा की जायेगी।
निवास आदेश या रेसीडेंस आर्डर
धारा 19 के तहत धारा 12 (1) के तहत किसी आवेदन के निराकरण के समय मजिस्टेª इस बारे में संतुष्ट होने पर की घरेलू हिंसा हुई है निवास आदेश पारित कर सकेगा कि:-
. व्यथित व्यक्ति के कब्जे को साझेदारी की गृहस्थी से बेदखल अथवा किसी अन्य रीति से उस कब्जे में दखल देने से प्रत्यर्थी को अवरूद्ध करना चाहे प्रत्यर्थी का उस साझेदारी की गृहस्थी में विधिक या साम्यिक हित हो अथवा हो
बी. प्रत्यर्थी को निर्देशित करना कि साझेदारी की गृहस्थी से स्वयं को हटाये
सी. प्रत्यर्थी अथवा उसके किसी संबंधी को साझेदारी के गृहस्थी के किसी भाग में प्रवेश करने से अवरूद्ध करना जिसमें व्यथित व्यक्ति रहता है
डी. प्रत्यर्थी को साझेदारी की गृहस्थी के अन्य संक्रामण करने या व्ययन करने या उस पर भार डालने से रोकना
. मजिस्टे के अनुमति के अलावा प्रत्यर्थी को साझेदारी की गृहस्थी में अपने अधिकारों को त्यागने से रोकना
एफ. प्रत्यर्थी को निर्देशित करना की व्यथित व्यक्ति को उसी स्तर की वैकल्पिक आवास सुविधा उपलब्ध कराये जैसी उसके द्वारा साझेदारी की गृहस्थी में उपभोग की गई थी या उसे हेतु किराया संदाय करे।
परंतु खण्ड बी के अधीन कोई आदेश किसी ऐसे व्यक्ति के विरूद्ध पारित नहीं किया जायेगा जो महिला हो।
धारा 19 (2) के तहत मजिस्टे कोई अतिरिक्त शर्ते लगा सकता है या कोई अन्य निर्देश दे सकता है जो वह व्यथित व्यक्ति या उसके किसी बच्चे की सुरक्षा हेतु आवश्यक समझे।
धारा 19 (3) के तहत मजिस्टे प्रत्यर्थी से घरेलू हिंसा के निवारण हेतु बंध पत्र जमानत सहित या रहित निष्पादित करने की अपेक्षा कर सकेगा।
धारा 19 (4) के तहत अध्याय 8 दं.प्र.सं. के तहत कार्यवाही उप धारा 3 के आदेश के लिये की जा सकती है और ऐसे बंध पत्र देने का आदेश अध्याय 8 के तहत जारी आदेश समझा जायेगा।
धारा 19 (5) के तहत उप धारा 1 एवं उप धारा 3 के तहत आदेश पारित करते समय न्यायालय निकटतम थाने के थाना प्रभारी को निर्देश दे सकता है की वह व्यथित व्यक्ति को संरक्षण प्रदान करे और आदेश के लागू करने में सहायता प्रदान करे।
धारा 19 (6) के तहत मजिस्टे प्रत्यर्थी पर किराया अदा करने का आदेश देते समय पक्षकारों की वित्तीय आवश्यकताओं और श्रोतों को ध्यान में रखेगा।
धारा 19 (7) के तहत जिस मजिस्टे के पास संरक्षण आदेश लागू करने के लिए भेजा गया है वह उस क्षेत्र के थाना प्रभारी को आवश्यक निर्देश देगा।
धारा 19 (8) के तहत मजिस्टे प्रत्यर्थी को निर्देश दे सकेगा कि वह व्यथित व्यक्ति को उसका स्त्री धन या अन्य संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति जिसका वह अधिकारी है उसको लौटावे।
धारा 19 मुख्य रूप से व्यथित व्यक्ति का निवास स्थान सुनिश्चित करने के आवश्यक प्रावधान करती है और इस हेतु प्रत्यर्थी को कैसे बाध्य किया जाये इसके बारे में प्रावधान करती है इस तरह जहां धारा 18 के तहत घरेलू हिंसा से व्यथित व्यक्ति को संरक्षित किया जाता है वहीं धारा 19 से उसे उचित निवास स्थान दिलवाये जाने के प्रावधान हैं।
आर्थिक अनुतोष या मोनिटरी रिलीफ
धारा 20 (1) के तहत धारा 12 (1) के आवेदन के निराकरण के समय मजिस्टेª व्यथित व्यक्ति और उसके किसी बालक को घरेलू हिंसा के परिणाम स्वरूप हुये खर्चो और हानि की पूर्ति करने हेतु आर्थिक अनुतोष प्रत्यर्थी से दिलवाने का प्रावधान करती है ऐसे अनुतोष में निम्न लिखित अनुतोष भी शामिल है:-
. उर्पाजन की हानि या लास आफ अरनिंग
बी. चिकित्सा खर्च
सी. व्यथित व्यक्ति के नियंत्रण से किसी संपत्ति के विनास, क्षति अथवा उसके हटाने से हुई हानि
डी. व्यथित व्यक्ति और उसके साथ यदि कोई बच्चे हो तो भी उन्हें भरण पोषण यह धारा 125 दं.प्र.सं. या अन्य विधि के अधीन पारित आदेश के अतिरिक्त आदेश होगा।
धारा 20 (2) के तहत इस धारा के अधीन दिलवाया आर्थिक अनुतोष पर्याप्त उचित और युक्तियुक्त होगा और व्यथित व्यक्ति जिस जीवन स्तर के मानक की अभ्यत है उसके अनुरूप होगा।
धारा 20 (3) के तहत मजिस्टे को मामले की प्रकृति एवं परिस्थितियों के अनुसार भरण पोषण के एक मुस्त या मासिक संदाय का आदेश देने की शक्ति होगी।
धारा 20 (4) के तहत मजिस्टे उप धारा 1 के अधीन दिये आदेश की प्रति आवेदन के पक्षकारों और संबंधित क्षेत्र के पुलिस अधिकारी जहां प्रत्यर्थी निवास करता है वहां भेजेगा।
धारा 20 (5) के तहत प्रत्यर्थी व्यथित व्यक्ति को आदेश में उल्लेखित अवधि के अंदर संदाय करेगा।
धारा 20 (6) के तहत उप धारा 1 के अधीन दिये गये आदेश के तहत संदाय करने में यदि प्रत्यर्थी असफल रहता है तो न्यायालय प्रत्यर्थी के नियोजक को अथवा उसके ऋणी को यह निर्देश दे सकता है की ऋण या वेतन का एक भाग न्यायालय में जमा करवाया जावे।
इस तरह धारा 20 व्यथित व्यक्ति को और उसके बच्चों को भरण पोषण मेडिकल खर्च और नुकसानी के बारे में प्रावधान करती है यह अधिनियम की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है इस तरह व्यथित व्यक्ति को केवल संरक्षण बल्कि निवास और आर्थिक अनुतोष भी दिलवाया जाता है ताकि वह सम्मान पूर्वक जीवन यापन कर सके।
अभिरक्षा आदेश
धारा 21 के तहत तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में अंतरविष्ट किसी बात के होते हुये भी मजिस्टे आवेदन सुनवाई के किसी भी स्टेज में इस अधिनियम के अधीन संरक्षण आदेश हेतु अथवा किसी अन्य अनुतोष हेतु व्यथित व्यक्ति को किसी बालक अथवा बालकों की अथवा उसकी ओर से आवेदन करने वाले व्यक्ति को अस्थायी अभिरक्षा प्रदान कर सकता है और यदि आवश्यक हो तो प्रत्यर्थी को ऐसे बालक या बालकों से मिलने हेतु व्यवस्था भी विनिर्दिष्ट कर सकता हैं।
परंतु यदि मजिस्टे की यह राय है कि प्रत्यर्थी से मिलना बालक या बालकों के लिए हानिप्रद हो सकता है तो वह ऐसे अनुमति से इंकार भी कर सकता हैं।
इस तरह अधिनियम में ही व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी की संतानों की अस्थायी अभिरक्षा के संबंध में प्रावधान किये गये है ताकि बालकों की समूचित देखरेख हो सके।
प्रतिकर आदेश
धारा 22 में अन्य अनुतोषों के अतिरिक्त मजिस्टे को व्यथित व्यक्ति को प्रतिकर और नुकसानी प्रत्यर्थी से दिलवाने की शक्तिया है जो नुकसानी घरेलू हिंसा के कारण हुई हो इसमें मानसिक त्रास और भावनात्मक संकट या मेन्टल टोरचर और इम्मोशनल डिसटे शामिल हैं।
इस तरह जहां धारा 20 आर्थिक अनुतोष का प्रावधान करती है वहीं धारा 22 अन्य प्रतिकर के बारे में प्रावधान करती है जैसे मानसिक त्रास, भावनात्मक संकट आदि यह अधिनियम की एक अन्य विशेषता हैं।
अंतरिम और एकपक्षीय आदेश देने की शक्ति
धारा 23 (1) के तहत इस अधिनियम के अधीन मजिस्टे उसके समक्ष की किसी कार्यवाही में ऐसे अंतरिम आदेश पारित कर सकता है जैसा वह न्याय संगत उचित समझता है।
धारा 23 (2) के तहत यदि मजिस्टेª संतुष्ट है कि प्रत्यर्थी ने प्रथम दृष्ट्या घरेलू हिंसा का कोई कृत्य किया है या कर रहा है या कर सकता है तो वह व्यथित व्यक्ति के शपथ पत्र के आधार पर धारा 18 से 22 के अधीन प्रत्यर्थी के विरूद्ध एकपक्षीय आदेश भी दे सकता हैं।
शपथ पत्र का प्रारूप 3 इसमें लागू होता है।
न्याय दृष्टांत सुलोचना विरूद्ध कुटप्पन, 2007 सी.आर.एल.जे. 2057 (केरल) में यह प्रतिपादित किया गया है कि एकपक्षीय अंतरित आदेश अत्यंत सावधानी रखकर करना चाहिये।
न्याय दृष्टांत नंदकिशोर दमोदर विरूद्ध कविता, 2010 सी.आर.एल.जे. ..सी. 298 बाम्बे में यह प्रतिपादित किया है कि अंतरिम आदेश के लिए पृथक आवेदन जरूरी नहीं हैं एवं अंतरिम आदेश के समय संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता की रिपोर्ट बुलवाना आवश्यक नहीं है।
इस तरह अधिनियम में मजिस्टे को अंतरिम और एकपक्षीय आदेश करने की विशेष शक्तिया भी दी गई है और धारा 28 के तहत धारा 23 की उप धारा 2 के आवेदन के निराकरण के समय मजिस्टे अपनी प्रक्रिया निर्धारित कर सकता है।
निःशुल्क प्रतिया देना
धारा 24 के तहत मजिस्टे सभी मामलों में जहां उसने इस अधिनियम के अधीन कोई आदेश पारित किया है ऐसे आदेश की एक प्रति आवेदन के पक्षकारों को संबंधित क्षेत्र के थाना प्रभारी को उस क्षेत्र के सेवा प्रदाता को और जिस सेवा प्रदाता ने घरेलू धटना की रिपोर्ट पंजीकृत की है उसे भी निःशुल्क देगा।
न्याय दृष्टांत के.. जोसफ विरूद्ध स्टेट आफ केरल, 2007 सी.आर.एल.जे. एन..सी. 476 इस संबंध में अवलोकनीय है जिसमें निःशुल्क प्रतिया देने के बारे में निर्देश दिये गये हैं।
आदेश की अवधि और उसमें परिवर्तन
धारा 25 (1) के तहत धारा 18 के अधीन दिया गया संरक्षण आदेश तब तक प्रवृत्त रहेगा जब तक की व्यथित व्यक्ति उसे समाप्त करने हेतु आवेदन कर दे।
धारा 25 (2) के तहत मजिस्टे व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी के आवेदन की प्राप्ति पर इस बावत संतुष्ट हो जाता है कि परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ है तो वह आदेश में परिवर्तन, परिवर्धन या अभिखण्डन कारण लेखबद्ध करते हुये कर सकेगा।
यह प्रावधान धारा 127 दं.प्र.सं. 1973 के समान है जिसमें मजिस्टे द्वारा पारित आदेश में परिवर्तन के बारे में आवश्यक प्रावधान हैं।
क्षेत्राधिकार
धारा 27 (1) के तहत न्यायिक मजिस्टे प्रथम श्रेणी अथवा महानगर मजिस्टे को इस अधिनियम के तहत कार्यवाही करने का क्षेत्राधिकार होता है जिसके की स्थानीय सीमाओं के अंदरः-
. व्यथित व्यक्ति स्थायी अथवा अस्थायी रूप से रहता है या कारोबार करता है या नौकरी करता है अथवा
बी. प्रत्यर्थी निवास करता है अथवा कारोबार करता है अथवा नौकरी करता है अथवा
सी. वाद कारण उत्पन्न हुआ हो
उसे इस अधिनियम के अधीन सभी आदेश करने की शक्तिया होती है और इस अधिनियम के अधीन अपराध का विचारण करने के लिए भी वह सक्षम होता है।
धारा 27 (2) के तहत इस अधिनियम के तहत पारित आदेश का प्रर्वतन पूरे भारत वर्ष में कराया जा सकता है।
अपील
धारा 29 के तहत जिस तिथि पर मजिस्टेª द्वारा पारित आदेश व्यथित व्यक्ति अथवा प्रत्यर्थी पर, जैसी भी स्थिति हो उनमें से जो बाद का हो तामील हुआ हो से 30 दिन के भीतर संबंधित सत्र न्यायालय में अपील की जा सकती हैं।
इस तरह अधिनियम में अपील के लिए 30 दिन की परिसीमा नियत है और इस परिसीमा की गणना आदेश व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी पर तामील से शुरू होती है अपील संबंधित सत्र न्यायालय में होती हैं।
दूसरे वादों और न्यायिक कार्यवाही में अनुतोष
धारा 28 (1) के तहत धारा 18 से 22 के अनुतोष किसी भी न्यायिक कार्यवाही में भी उपलब्ध होते है चाहे वे दिवानी न्यायालय, परिवार न्यायालय अथवा दाण्डिक न्यायालय हो उनके समक्ष व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी को प्रभावित करने वाली कोई कार्यवाही यदि चल रही हो तो उसमें भी उक्त अनुतोष मांगे जा सकते हैं।
धारा 28 (2) के तहत उप धारा 1 के अनुतोष संबंधित दिवानी अथवा दाण्डिक न्यायालय में उस कार्यवाही में चाहे गये अनुतोष सहित या उसके अतिरिक्त उपलब्ध होते हैं।
धारा 28 (3) के तहत यदि व्यथित व्यक्ति ने किसी अन्य कार्यवाही में धारा 18 से 22 के अनुतोष प्राप्त कर लिये हो तो यह उसका कर्तव्य होता है कि वह संबंधित मजिस्टे को इस बारे में सूचना देवे।
ज्योति जनरल दिसम्बर 2010 में इस संबंध में धारा 26 के विस्तार को लेकर एक लेख प्रकाशित हुआ है जिससे स्थिति और स्पष्ट हो सकती है यह लेख पठन समाग्री के पृष्ठ 38 पर देखा जा सकता है।
संरक्षण अधिकारी और सेवा प्रदाताओं के सदस्यों का लोक सेवक होना
धारा 30 के तहत संरक्षण अधिकारी और सेवा प्रदाताओं के सदस्य जब वे इस अधिनियम अथवा इसके तहत बनाये नियमों के तहत कोई कार्य कर रहे हो तब उन्हें धारा 21 भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के प्रकाश में लोक सेवक माना जाता है और लोक सेवक को जो संरक्षण प्राप्त होते है वे सब इन्हें भी प्राप्त होते हैं।
यह प्रावधान इसलिए किया गया है कि संरक्षण अधिकारी और सेवा प्रदाता के सदस्य अधिनियम के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निर्भय होकर कार्य कर सके यह अधिनियम की एक और विशेषता हैं।
प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश के भंग करने पर शास्ति या दण्ड
धारा 31 (1) के तहत प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश या किसी अंतरिम संरक्षण आदेश का भंग इस अधिनियम के तहत अपराध होगा और दोनों में से किसी भी भांति के कारावास से जो एक वर्ष तक का हो सकेगा अथवा अर्थदण्ड से जो 20 हजार रूपये तक का हो सकेगा अथवा दानों से दण्डनीय होगा।
धारा 31 (2) के तहत उप धारा 1 के अधीन अपराध जहां तक प्रयोगिक रूप से संभव हो उसी मजिस्टे द्वारा विचारण किया जायेगा जिसमें आदेश पारित किया था जिसका भंग अभियुक्त द्वारा किया जाना अभिकथित है।
धारा 31 (3) के तहत यदि उप धारा 1 के आरोप रचना के समय धारा 498 भा.दं.सं. या इसी संहिता के तहत कोई अन्य आरोप अथवा दहेज प्रतिषेध अधिनियम के तहत आरोपों की रचना भी कर सकता है यदि ऐसे अपराध तथ्यों से प्रगट होते हो।
धारा 31 अधिनियम की एक महत्वपूर्ण विशेषता है जिसके तहत संरक्षण आदेश या अंतरिम आदेश के भंग को दण्डनीय अपराध बनाया गया है और इसके साथ ही अन्य आरापों की विचारण भी किया जा सकता हैं ये प्रावधान इसलिए किये गए है कि अधिनियम के तहत पारित संरक्षण आदेश या अंतरिम आदेश को प्रभावी बनाया जा सके।
न्याय दृष्टांत सुनील उर्फ सोनू विरूद्ध सरिता, 2009 (5) एम.पी.एच.टी. 319 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 23 के तहत जारी अंतरिम आदेश का भंग भी धारा 31 के तहत दण्डनीय अपराध होता हैं।
संज्ञान और सबूत
धारा 32 (1) के तहत धारा 31 की उप धारा 1 के अधीन अपराध संज्ञेय और अजमानतीय होंगे।
धारा 32 (2) के तहत व्यथित व्यक्ति की एक मात्र साक्ष्य पर न्यायालय यह निष्कर्ष निकाल सकेगा की धारा 31 की उप धारा 1 के अधीन अपराध अभियुक्त द्वारा किया गया है।
अपराध को संज्ञेय बनाने का उद्देश्य त्वरित कार्यवाही हो सके और अजमानतीय बनाने का उद्देश्य प्रत्यर्थी को आदेश के पालना के प्रति सतर्क करना हैं।
नियम 15 में संरक्षण आदेश के भंग होने पर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। नियम 15 (9) में जमानत के समय लगाई जाने वाली शर्तो पर प्रकाश डाला गया है ये शर्ते धारा 31 के अपराध में जमानत देते समय लगाई जा सकती है इन शर्तो को यदि जमानत दे रहे है तब प्रयोग में लाना चाहिये।
नियम 15 (6) के तहत धारा 31 के अपराध को संक्षिप्त विचारण योग्य भी बनाया गया हैं अतः इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिये।
संरक्षण अधिकारी पर शास्ति या दण्ड
धारा 33 के तहत यदि कोई संरक्षण अधिकारी बिना किसी पर्याप्त कारण के संरक्षण आदेश में मजिस्टे द्वारा निर्देशित उसके कर्तव्यों का निर्वहन करने में असफल रहता है या इंकार करता है तो वह एक वर्ष तक के कारावास या 20 हजार रूपये तक के अर्थदण्ड या दोनों से दाण्डित किया जायेगा।
इस तरह धारा 33 संरक्षण अधिकारी को कर्तव्य पालन के लिए सचेत करती है और ऐसा करने पर होने वाले परिणाम का भी प्रावधान करती है साथ ही धारा 34 के तहत संरक्षण अधिकारी को भी एक संरक्षण यह रहता है कि उसके विरूद्ध कोई अभियोजन या अन्य कार्यवाही राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के बिना नहीं हो सकती है और राज्य सरकार द्वारा अधिकृत अधिकारी के परिवाद पर ही कार्यवाही हो सकती हैं।
धारा 35 में संरक्षण अधिकारी के द्वारा सद्भावना पूर्वक की गई किसी कार्यवाही से उसके विरूद्ध वाद अभियोजन या अन्य न्यायिक कार्यवाही किये जाने के प्रावधान है ताकि संरक्षण प्राधिकारी अधिनियम के तहत र्निभिक होकर अपने कत्र्तव्यों का पालन कर सके।
विविध तथ्य
प्रत्येक न्यायिक मजिस्टेª को अपने क्षेत्र में कौन संरक्षण प्राधिकारी नियुक्त है उसका नाम टेलीफोन नंबर, मोबाइल नंबर रखना चाहिये साथ ही कौन-कौन सेवा प्रदाता उनके क्षेत्राधिकार में कार्य करते है कितने आश्रय गृह या सेल्टर हाम्स है उनकी भी सूची रखना चाहिए ताकि पहले से इस संबंध में पर्याप्त जानकारी रहे।
0प्र0 शासन के महिला एवं बाल विकास विभाग मंत्रालय, भोपाल ने दिनांक 9 जनवरी 2007 के आदेश द्वारा विकास खण्ड/ परियोजन स्तर पर शहरी और ग्रामीण आदिवासी परियोजनाओं के ’’बाल विकास परियोजना अधिकारियों’’ को संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया है जहां बाल विकास परियोजना स्वीकृत नहीं है उन क्षेत्रों में ’’जिला कार्यक्रम अधिकारी/ जिला महिला एवं बाल विकास अधिकारी’’ को संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया है इस संबंध में पठन समाग्री के पेज नंबर 50 पर लगा आदेश अवलोकनीय है।
नियम 9 में संरक्षण अधिकारी अथवा सेवा प्रदाता को व्यथित व्यक्ति से या किसी अन्य व्यक्ति से घरेलू हिंसा का कृत्य होने की या होने वाला है इसकी सूचना मिलती है चाहे वह -मेल या टेलीफोन से मिले तब अपात स्थिति में संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता पुलिस का तत्काल सहयोग मांगेंगे और धटना स्थल पर जायेंगे और घरेलू धटना की रिपोर्ट दर्ज करंगे और बिना विलंब के मजिस्टे के समक्ष आवश्यक अनुतोषों के लिए आवेदन करेंगे यह प्रावधान अपात स्थिति के लिए किया गया हैं।
न्याय दृष्टांत लाल किशोर झा विरूद्ध स्टेट आफ झारखण्ड (2011) 6 एस.सी.सी. 453 का न्याय दृष्टांत काफी महत्वपूर्ण है इस मामले में परिवादी पत्नी और अभियुक्त पति के मध्य समझौता हुआ समझौते के प्रकाश में पत्नी आरोपी पति के साथ रहने लगी हलाकि पति ने दूसरा विवाह कर लिया था पत्नी परिवादी ने उसके बयानों में चार्ज पर बल नहीं दिया पति अभियुक्त के साथ रहने की इच्छा व्यक्त की। विचारण समाप्ति के पूर्व पत्नी ने आवेदन लगाया की अभियुक्त पति ने उसे घर से निकाल दिया है और समझौते का भंग किया है। न्यायालय ने पत्नी का धारा 311 दं.प्र.सं. 1973 के तहत न्यायालय साक्षी के रूप में परिक्षण किया उसने अभियोजन का पूर्ण समर्थन किया मामले में दोषसिद्धि की गई जिसे उचित माना गया।
चूंकि ये पति पत्नी के विवाद होते है जिसमें परामर्श से समझौता भी हो जाता है और अभियुक्त समझौते का भंग कर देता है तब धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग कैसे किया जाना है इसे इस न्याय दृष्टांत से समझा जा सकता हैं।
इस तरह यह अधिनियम और इसके तहत बनाये गये नियम अपने आप में पूर्ण है और घरेलू हिंसा को रोकने के लिए मजिस्टे को पर्याप्त शक्तिया देते है जिनका उचित रीति से प्रयोग करके आवेदन का निराकरण करना चाहिये ताकि व्यथित व्यक्ति को न्याय मिल सके।





1 comment:

  1. सर आपसे फ़ोन, मेल ,व्हाट्सएप, से बात कर सकते है

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