मोटर
दुर्घटना
के
संबंध
में
महत्वपूर्ण
न्यायदृष्टांत
(1) मृत्यु के संबंध में - व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती, गुणांक एवं आयु व संपदा क्षति एवं वेतनवृद्धि की भावी प्रत्याशा के संबंध में:-
श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य, 2009 (2) दुर्घटना और मुआवजा प्रकाशिका 161 (सु.को.) में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत
(1) मृत्यु के संबंध में - व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती, गुणांक एवं आयु व संपदा क्षति एवं वेतनवृद्धि की भावी प्रत्याशा के संबंध में:-
श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य, 2009 (2) दुर्घटना और मुआवजा प्रकाशिका 161 (सु.को.) में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत
1. तीन मूल तथ्य स्थापित किए हैं:-
1. मृतक की आयु,
2. मृतक की आय,
3. आश्रितों की संख्या
2. जहां मृतक विवाहित है व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का निम्न सिद्धांत परिवार में आश्रितों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है:-
1. मृतक की आयु,
2. मृतक की आय,
3. आश्रितों की संख्या
2. जहां मृतक विवाहित है व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का निम्न सिद्धांत परिवार में आश्रितों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है:-
क्रमांक परिवार में आश्रितों की संख्या व्यक्तिगत एवं जीवन
यापन व्ययों के प्रति कटौती
1 2 से 3 1/3 (एक तिहाई)
2. 4 से 6 1/4 (एक चैथाई)
3. 6 से अधिक 1/5 (एक पांचवा)
3. यदि मृतक अविवाहित है तो व्यक्तिगत एवं जीवन यापन की कटौती 50 प्रतिशत (1/2 अर्थात् आधी) की जाएगी, अविवाहित मृतक की केवल माता ही आश्रित मानी जाएगी, पिता-भाई‘-बहिन नहीं अपवादिक परिस्थितियों में माने जाएंगे।
4. मृत्यु के मामले में प्रयोज्य गुणांक के संबध में मृतक की आयु के आधार पर निम्नलिखित गुणांक अभिनिर्धारित किया गया है:-
क्रमांक मृतक की आयु प्रयुक्त गुणांक
1. 15 वर्ष तक - 20
2. 15 से 20 वर्ष 18
3. 21 से 25 वर्ष 18
4. 26 से 30 वर्ष 17
5. 31 से 35 वर्ष 16
6. 36 से 40 वर्ष 15
7. 41 से 45 वर्ष 14
8. 46 से 50 वर्ष 13
9. 51 से 55 वर्ष 11
10. 56 से 60 वर्ष 09
11. 61 से 65 वर्ष 07
12. 65 से अधिक 05
5. संपदा क्षति हेतु 5000/- रूपए, अंत्येष्टि व्ययों हेतु 5000/- रूपये और सहजीवन की क्षति हेतु 10000/- रूपए जोडे गए।
(सहजीवन की क्षति केवल विधवा/पति को ही दिलाई जाएगी)।
{अंत्येष्टि
व्यय
25,000
सहचार्य
व्यय
1,00,000
- न्यायदृष्टांत
राजेश
एवं
अन्य
वि.
राजवीरसिंह
एवं
अन्य
(2013)
9 एस.सी.सी.
54 (3 न्यायमूर्तिगण)
}
6. मृत शरीर के परिवहन के व्यय, मृत्यु
के पूर्व मृतक के चिकित्सीय उपचार को भी प्रदान किया जाएगा।
7 मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 163 (क) के अधीन किए गए दावों तथा धारा 166 के अधीन किए गए दावों के लिए दायित्व तथा मुआवजे की मात्रा के निर्धारण के सिद्धांत भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) हैं ।
9. वेतनवृद्धि की भावी प्रत्याशाओं जहां मृतक का कार्य स्थायी रहा हो वहां उसके वास्तविक वेतन में से कर की कटौती के उपरांत निम्नानुसार वृद्धि का सिद्धांत बताया है:-
मृतक की आयु वृद्धि प्रतिशत् में
40 वर्ष से कम 50 प्रतिशत्
40 से 50 वर्ष 30 प्रतिशत्
50 से अधिक कोई वृद्धि नहीं
10. जहा मृतक स्वनियोजित था या उसका वेतन निश्चित था (वार्षिक अभिवृद्धि इत्यादि के प्रावधान के बिना), न्यायालय सामान्य रीति से केवल मृत्यु के समय वास्तविक आय को ही स्वीकार करेगा। इस विधि से विचलन केवल आपवादिक मामलों में विशेष परिस्थितियों में किया जाना चाहिए।
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(2) चोटों के संबंध में - राजकुमार बनाम अजय कुमार
सभी
चोटें
स्थाई
अपंगता
नहीं,
चोटों
का
अर्जन
क्षमता
पर
अलग-अलग
प्रभाव,
एक
ही
चोट
से
भिन्न-भिन्न
व्यक्तियों
को
अर्जन
क्षमता
में
भिन्न-भिन्न
प्रतिशत्
की
हानि,
व्यक्तिगत
खर्चों
में
एक-तिहाई
अथवा
कोई
कटौती
नहीं,
चोटों
के
विभिन्न
मद
निर्धारित:-
राजकुमार बनाम अजय कुमार एवं एक अन्य
2011(1)दु.मु.प्र. 475 (सु.को.) दो जज
इस प्रकरण में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत:-
1. सभी चोटों (अथवा चोटों के कारण होने वाली स्थायी अपंगता) का परिणाम अर्जन क्षमता में हानि नहीं होता है।
2. किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण शरीर के सन्दर्भ में स्थायी अपंगता का प्रतिशत, अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत नहीं माना जा सकता। दूसरे शब्दों में, अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वहीं नहीं होता जो स्थायी अपंगता की प्रतिशत हो (कुछ मामलों को छोड़कर जिनमें साक्ष्य के आधार पर अधिकरण इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो कि अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वहीं है जो स्थायी अपंगता का प्रतिशत है।
3. चिकित्सक, जिसने घायल-दावेदार का उपचार किया हो जिसने बाद में उसका परीक्षण किया हो, उसकी स्थायी विकलांगता के सम्बन्ध में साक्ष्य दे सकता है। अर्जन क्षमता में हानि का आंकलन अधिकरण द्वारा समस्त साक्ष्यों के सन्दर्भ में किया जाना होगा।
4. एक ही प्रकार की स्थायी, अपंगता का परिणाम भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में, उनके व्यवसाय की प्रकृति, कार्य, आयु, शिक्षा एवं अन्य तथ्यों, के अनुसार अर्जन क्षमता में भिन्न-भिन्न प्रतिशत की हानि हो सकती है।
5. घायल दावेदार के मामले में व्यक्तिगत खर्चों के विरूद्ध एक-तिहाई अथवा कोई प्रतिशत कटौती की आवश्यकता नहीं है।
व्यक्तिगत चोट में मामलों में मद:-
आर्थिक क्षति (विशेष क्षति)
(प्रथम)- उपचार, अस्पताल में रहने, दवाओं, परिवहन, पौष्टिक भोजन एवं प्रकीर्ण व्ययों से सम्बन्धित व्यय।
(द्वितीय)- अर्जन की हानि (व अन्य लाभ) जो वह घायल न होने की स्थिति में प्राप्त करता, यथा
ए. उपचार की अवधि में अर्जन की हानि,
बी. स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि।
(तीसरा)- भविष्य में होने वाले चिकित्सीय व्यय।
गैर-आर्थिक क्षति (सामान्य क्षति)
(चैथा)- चोटों के परिणामस्वरूप होने वाली पी(ड़ा, कष्ट-भोग की क्षतिपूर्ति।
(पांचवा)- सुख-सुविधा की हानि (एवं/या विवाह की संभावनाओं की हानि)
(छटवा)- जीवन की आपेक्षाओं की हानि (सामान्य जीवन काल का कम होना)
सामान्य व्यक्तिगत चोटों के प्रकरणों में केवल मद सं. (प्रथम), (द्वितीय) (ए), एवं (चैथा) के अंतर्गत प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत की जावेगी। केवल गम्भीर चोटों के प्रकरण में जबकि इस आशय के विशिष्ट चिकित्सकीय साक्ष्य हों जो दावेदार के साक्ष्य का समर्थन करते हों, तो मद सं. (दूसरा) (बी), (तीसरा) (पांचवा) और (छटवा) में से किसी के अंतर्गत प्रतिपूर्ति प्रदान की जा सकती है, जो कि स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि, भविष्य के चिकित्सीय व्ययों, सुख-सुविधाओं की हानि (और/या विवाह की सम्भावनाओं की हानि) तथा जीवन की अपेक्षाओं की हानि के सम्बन्ध में हो। मद संख्या (प्रथम) एवं मद संख्या (द्वितीय) (बी) के अन्तर्गत आर्थिक क्षति का आकलन अधिक कठिन नहीं होता क्योंकि इनमें वास्तविक व्यय की प्रतिपूर्ति निहित होती है एवं जिसे साक्ष्य से सरलतापूर्वक जाना जा सकता है। भविष्य के चिकित्सीय व्यय मद के अन्तर्गत अधिनिर्णय-मद (तीसरा)-भविष्य में उपचार की आवश्यकता एवं उसके मूल से संबंधी विशिष्ट चिकित्सीय साक्ष्य पर निर्भर करता है। गैर-आर्थिक क्षति-मद संख्या (चैथा), (पांचवा) एवं (छटवा)- के आकलन में परिस्थितियों, यथा आयु, चोट का प्रकार/उससे दावेदार में आयी अक्षमता एवं उसका प्रभाव दावेदार के भावी जीवन पर, के परिपेक्ष्य में एक-मुश्त राशि का निर्धारण निहित होता है। इस न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के निर्णयों में इन मदों के अन्तर्गत अधिनिर्णय हेतु आवश्यक दिशा-निर्देश निहित है।
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स्वर्णसिंह
(3) पर व्यक्ति जोखिम, अनुज्ञप्ति व शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति, अन्य अदृश्य या मध्यवर्ती कारण बीमाकर्ता और बीमाकृत व्यक्ति के मध्य विवाद -
(2004) 3 उम.नि.प. 24न्यायामूर्तिगण: माननीय वी.एन. खरे, न्यायमूर्ति डी.एम. धर्माधिकारी और न्यायामूर्ति एस.बी. सिन्हा
पक्षकार: नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड बनाम स्वर्णसिंह और अन्य {निर्णय दिनांक-05 जनवरी, 2004}
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149 (2)(क)(।ं) और 3- पर व्यक्ति जोखिम-बीमा कम्पनी को उपलब्ध प्रतिरक्षाएं अर्थात् यान चालन अनुज्ञप्ति का न होना, जाली या अविधिमान्य अनुज्ञप्ति का होना या यान चालक का सुसंगत समय पर यान चलाने में योग्य न होना बीमाकर्ता द्वारा बीमाकृत व्यक्ति या पर-व्यक्ति के विरूद्ध उपलब्ध प्रतिरक्षाएं नहीं हैं अपितु बीमाकर्ता को अपने दायित्व को टालने के लिए यह साबित करना चाहिए कि बीमाकृत व्यक्ति ने यान चलाने में उपेक्षा बरती और उसने बीमा पालिसी की शर्त पूरी करने में युक्तियुक्त सावधानी नहीं बरती।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149(4)और (5)-पर-व्यक्ति जोखिम-बीमा कम्पनी के विरूद्ध पारित डिक्री-डिक्री की प्रथम बार ही तुष्टि करना बीमा कम्पनी का कानूनी दायित्व है और इस दायित्व को यह कहकर टाला नहीं जा सकता है कि सुसंगत समय पर यान ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाया जा रहा था जिसके पास अनुज्ञप्ति नहीं थी।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149(2)-पर-व्यक्ति जोखिम-यान के स्वामी द्वारा यान को ऐसे चालक को यह जानते हुए चलाने के लिए देना कि उसके पास अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) नहीं है, अतः बीमाकर्ता अपनी प्रतिरक्षा में सफल होने और अपने दायित्व को टालने का हकदार है।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149(2)-यदि दुर्घटना ऐसे किसी अन्य अदृश्य या मध्यवर्ती कारण से, जिसका अपेक्षित प्रकार का अनुज्ञप्ति (लाईसेंस) रखने से कोई संबंध नहीं होता है तो बीमाकर्ता कम्पनी लाईसेंस की शर्तोंं के तकनीकी भंगों के कारण दायित्व टाल नहीं सकती है।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149(2), 4(3), 7(2), 10(3) और धारा 14-पर-व्यक्ति जोखिम-शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति (लाईसेंस) धारण करने वाले व्यक्ति के यान से दुर्घटना-शिक्षार्थी यान चलाने का हकदार व्यक्ति सम्यक् रूप से अनुज्ञा प्राप्त व्यक्ति होता है, अतः बीमाकर्ता पर-व्यक्ति के पक्ष में पारित डिक्री की तुष्टि के लिए दायी है।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 165 और धारा 168-प्रतिकर दावे-दावा अधिकरण की अधिकारिता न केवल दावेदार और दावाकर्ताओं, बीमाकर्ता और चालक के मध्य के दावों तक ही सीमित है अपितु यह बीमाकर्ता और बीमाकृत व्यक्ति के मध्य के विवादों को भी विनिश्चत करने के लिए सशक्त है और दावा अधिकरण द्वारा अवधारित दावे प्रवर्तनीय हैं।
कानूनों का निर्वचन-अधिनियम के अधीन विरचित नियमों के किसी भी उपबंध को अनावश्यक नहीं समझा जाना चाहिए।
निर्णीतानुसरण का सिद्धांत-पर-व्यक्ति के पक्ष में प्रथम बार पारित डिक्री की तुष्टि करने का बीमाकर्ता का दायित्व दीर्घकाल से प्रवर्तन में है और इससे साधारणतः विचलन नहीं किया जा सकता है।
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(4) आश्रिता के अभाव के कारण धारा 140 के निर्बन्धनों में दायित्व समाप्त नहीं होता-
2007(।।) दु.मु.प्र. 382 (सु.को.)न्यायामूर्ति: माननीय डा. अरिजीत पसायत
पक्षकार: श्रीमति मंजुरी बेरा बनाम ओरिएण्टल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमिटेड एवं एक अन्य {सिविल अपील संख्या 1702 वर्ष 2007, निर्णीत दिनांक 30 मार्च, 2007}
मोटर यान अधिनियम, 1988 -धारा 166 (ग) और 140-मुआवजा-हकदारी- विधिक प्रतिनिधि-विवाहित पुत्री मृतक पर आश्रित नहीं-धारा 166 के निर्बन्धनों में दावा याचिका कायम रख सकती है-मुआवजे की हकदारी हेतु उल्लेखनीय तत्व-दावा याचिका दाखिल करने का अधिकार-हकदारी के अधिकार की पृष्ठभूमि में विचारित किया जाना चाहिए-आश्रितता के अभाव में कारण-धारा 140 के निर्बन्धनों में दायित्व समाप्त नहीं होता-जब मुआवजे के लिए आवेदन मृतक पर आश्रित न रहने वाले विधिक प्रतिनिधि द्वारा दाखिल किया जाए-मुआवजे की मात्रा धारा 140 में सन्दर्भित दायित्व से कम नहीं होगी-मृतक की विवाहित पुत्री-50000 रूपये के मुआवजे की हकदार।(पैरा 8, 10, 13 से 15)
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(5) यात्री वाहन में क्षमता से अधिक यात्री-बीमा कंपनी का दायित्व केवल अनुज्ञेय यात्रियों की संख्या तक सीमित-
2008(1) दु.मु.प्र. 311 (सु.को.) न्यायामूर्तिगण: माननीय ए.के. माथुर व माननीय पी.के. बालासुब्रमणयन
पक्षकार: नेशनल इन्श्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड बनाम अंजना श्याम एवं अन्य {सिविल अपील संख्या 2422-2459 वर्ष 2001 के साथ सी.ए. सं. 5992-6026 वर्ष, 2002, 4288 वर्ष 2006 और 3824 वर्ष 2007 उर्फ एस.एल.पी. (सी.) सं. 14167 वर्ष 2001, निर्णीत दिनांक 20 अगस्त, 2007}
मोटर यान अधिनियम, 1988 -धारा 147(1) (ख) (पप)-मुआवजा-बीमा कम्पनी का दायित्व-अपराधग्रस्त बस जिसे 42 यात्रियों के वहन हेतु बीमित कराया गया था दुर्घटना के समय 90 यात्रियों का वहन कर रही थी-दुर्घटना के परिणामस्वरूप चालक समेत 26 यात्रियों की मृत्यु-63 यात्रियों को उपहतिया हुयीं-बीमा कम्पनी के आक्षेपों को अधिकरण द्वारा निरस्त कर दिया गया-विभिन्न दावों पर अधिनिर्णय पारित करने के पश्चात् अधिकरण ने 42 यात्रियों से अधिक के लिये भी बीमा कम्पनी को, सभी अधिनिर्णयों के भुगतान हेतु दायी निर्णीत किया-अपील पर उच्च न्यायालय ने निष्कर्षित किया कि बस में अधिक यात्रियों का वहन रूट परमिट का उल्लंघन नहीं-यह किसी भी विधि के उल्लंघन के सदृश्य नहीं जिससे योगदायी उपेक्षा राज्य सरकार पर अधिरोपित की जा सके-बीमा आच्छादन को पंजीकरण प्रमाण-पत्र में उल्लिखित यात्रियों की संख्या से अधिक हेतु प्राप्त नहीं किया जा सकता-बीमा कम्पनी का दायित्व केवल अनुज्ञेय यात्रियों की संख्या तक ही सीमित-बीमा वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता के मध्यम संविदा होती है-बीमा कम्पनी को केवल विधिक रीति से अनुज्ञेय यात्रियों की संख्या के लिये दायी निर्णीत किया जा सकता है-अतः बीमा कम्पनी के 42 अधिनिर्णयों के लिये मुआवजे के भुगतान हेतु दायी। (पैरा 10 से 16)
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(6) माल वाहक तथा माल वाहन शब्दों में अंतर -
2008(।) दु.मु.प्र. 289 (सु.को.)न्यायामूर्तिगण: माननीय अरिजित पसायत एवं माननीय पी. सथासिवम
पक्षकार: श्रीमति थोकचम अंगबी संगीता व श्रीमति सांगी देवी एवं एक अन्य बनाम ओरिएण्टल इंश्योरेन्स कं.लि. एवं अन्य {सिविल अपील संख्या 4946-4947 वर्ष 2007 निर्णीत दिनांक 23 अक्टूबर, 2007}
(अ) मोटर यान अधिनियम, 1988-धारा 147 के प्रावधान-’’माल वाहक’’ तथा ‘‘माल वाहन’’-शब्दों में अन्तर-बीमाकर्ता का दायित्व तृतीय पक्ष के लिए-अवधारित, बीमाकर्ता पर प्रतिपूर्ति के भुगतान का दायित्व नहीं-अतः यह अपील-माल वाहक में यात्रियों की ढुलाई-अधिनियम के प्रावधानों में वाहन स्वामी पर कोई दायित्व आयत नहीं किया गया-उसके माल वाहक में यात्रा कर रहे यात्रियों के सम्बन्ध में-इस संबंध में बीमाकर्ता का कोई दायित्व नहीं होगा-अतः बीमाकर्ता पर उच्च न्यायालय द्वारा कोई दायित्व आयत न किया जाना न्यायोचित-मामला उच्च न्यायालय द्वारा कोई दायित्व आयत न किया जाना न्यायोचित-मामला उच्च न्यायालय को प्रेषित-अधिकरण द्वारा अधिरोपित दण्ड की पूर्ति हेतु उत्तरदायी के दायित्व निर्धारण हेतु-अपील निस्तारित। (पैरा 9 से 13)
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(7) ट्रैक्टर ट्राली में बैठा व्यक्ति तृतीय पक्ष नहीं -
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत-ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971 तथा यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं। इन दोनों मामलों में शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा यह सुस्पष्ट प्रतिपादिन किया गया है कि ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के उक्त विधिक प्रतिपादनों का अवलंब लेते हुए न्याय दृष्टांत नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514 तथा कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ट्रैक्टर पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है ।
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(8) अधिनियम की धारा 163 (क) में लापरवाही प्रमाणित नही करना -
आवेदकगण ने ’’अधिनियम’’ की धारा-163 (क) के अन्तर्गत प्रतिकर दिलाये जाने की प्रार्थना की है। ’अधिनियम’ की धारा-163 (क) के अंतर्गत प्रतिकर संबंधित उत्तरदायित्व निर्धारण के लिए यह स्थापित किया जाना पर्याप्त है कि संबंधित वाहन से आवेदक को शारीरिक क्षति कारित हुई अथवा किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई । ऐसे मामलों में यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक नहीं है कि दुर्घटना किसी की लापरवाही के कारण हुई। संदर्भ- राजस्थन स्टेट रोडवेज कार्पोशन वि. पीडित महिला अनीता आदि 2001 (3) एम.पी.एल.जे. 147. ऐसे मामले में प्रतिकर निर्धारण के लिए अधिनियम के अंतग्रत दी गई अनुसूची का उपयोग किया जाना चाहिए । संदर्भ- कैलाश विरूद्ध ओमप्रकाश यादव- 2003 (3) एम.पी.एच.टी.-58.
2008(2) ए सी सी डी 975 (सु.को.)
न्यायामूर्तिगण: माननीय एस.बी. सिन्हा एवं माननीय वी.एस. सिरपुरकर
पक्षकार: प्रबन्धक निदेशक, बंगलौर महानगर परिवहन निगम बनाम सरोजम्मा एवं एक अन्य {सिविल अपील संख्या 2897 वर्ष 2008 दिनांक-22 अप्रैल, 2008 को विनिश्चित}
मोटर यान अधिनियम, 1988 -धारा 163क एवं द्वितीय अनुसूची-प्रतिकर-धारा 163क के अधीन दावा के लिये चालक की ओर से हुयी उपेक्षा साबित नहीं की जायेगी-मृतक 18 वर्ष की आयु का कुंवारा-अध्यापक और सैन्य अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान में प्रवेश-क्या अध्यापक होने की अध्यपेक्षित अन्तःशक्ति थी-उसकी आयु प्रतिमास 3,000 रूपये प्राक्कलित-उसे उच्चतर पक्ष पर होना नहीं कहा जा सकता-द्वितीय अनुसूची के अधीन संरचित सन्नियम-में स्वयं उसके व्यक्तिगत व्ययों के लिये एक तिहाई तक मृतक की आय की कमी नियत-साधारणतया एक तिहाई कटौती ही मृतक की आये से की जानी चाहिये- न कि उसका आधा-किन्तु मानसिक संताप की पीड़ा-ब्याज दर अवधारित करने में सुसंगत कारक नहीं -ब्याज दर में वृद्धि का कोई न्यायोचित्य नहीं-अतः, उसे 10 प्रतिशत से 7 प्रतिशत तक कम किया गया। (पैरा 7 से 14)
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राजकुमार बनाम अजय कुमार एवं एक अन्य
2011(1)दु.मु.प्र. 475 (सु.को.) दो जज
इस प्रकरण में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत:-
1. सभी चोटों (अथवा चोटों के कारण होने वाली स्थायी अपंगता) का परिणाम अर्जन क्षमता में हानि नहीं होता है।
2. किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण शरीर के सन्दर्भ में स्थायी अपंगता का प्रतिशत, अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत नहीं माना जा सकता। दूसरे शब्दों में, अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वहीं नहीं होता जो स्थायी अपंगता की प्रतिशत हो (कुछ मामलों को छोड़कर जिनमें साक्ष्य के आधार पर अधिकरण इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो कि अर्जन क्षमता में हानि का प्रतिशत वहीं है जो स्थायी अपंगता का प्रतिशत है।
3. चिकित्सक, जिसने घायल-दावेदार का उपचार किया हो जिसने बाद में उसका परीक्षण किया हो, उसकी स्थायी विकलांगता के सम्बन्ध में साक्ष्य दे सकता है। अर्जन क्षमता में हानि का आंकलन अधिकरण द्वारा समस्त साक्ष्यों के सन्दर्भ में किया जाना होगा।
4. एक ही प्रकार की स्थायी, अपंगता का परिणाम भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में, उनके व्यवसाय की प्रकृति, कार्य, आयु, शिक्षा एवं अन्य तथ्यों, के अनुसार अर्जन क्षमता में भिन्न-भिन्न प्रतिशत की हानि हो सकती है।
5. घायल दावेदार के मामले में व्यक्तिगत खर्चों के विरूद्ध एक-तिहाई अथवा कोई प्रतिशत कटौती की आवश्यकता नहीं है।
व्यक्तिगत चोट में मामलों में मद:-
आर्थिक क्षति (विशेष क्षति)
(प्रथम)- उपचार, अस्पताल में रहने, दवाओं, परिवहन, पौष्टिक भोजन एवं प्रकीर्ण व्ययों से सम्बन्धित व्यय।
(द्वितीय)- अर्जन की हानि (व अन्य लाभ) जो वह घायल न होने की स्थिति में प्राप्त करता, यथा
ए. उपचार की अवधि में अर्जन की हानि,
बी. स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि।
(तीसरा)- भविष्य में होने वाले चिकित्सीय व्यय।
गैर-आर्थिक क्षति (सामान्य क्षति)
(चैथा)- चोटों के परिणामस्वरूप होने वाली पी(ड़ा, कष्ट-भोग की क्षतिपूर्ति।
(पांचवा)- सुख-सुविधा की हानि (एवं/या विवाह की संभावनाओं की हानि)
(छटवा)- जीवन की आपेक्षाओं की हानि (सामान्य जीवन काल का कम होना)
सामान्य व्यक्तिगत चोटों के प्रकरणों में केवल मद सं. (प्रथम), (द्वितीय) (ए), एवं (चैथा) के अंतर्गत प्रतिपूर्ति अधिनिर्णीत की जावेगी। केवल गम्भीर चोटों के प्रकरण में जबकि इस आशय के विशिष्ट चिकित्सकीय साक्ष्य हों जो दावेदार के साक्ष्य का समर्थन करते हों, तो मद सं. (दूसरा) (बी), (तीसरा) (पांचवा) और (छटवा) में से किसी के अंतर्गत प्रतिपूर्ति प्रदान की जा सकती है, जो कि स्थायी विकलांगता के कारण भविष्य के अर्जन में हानि, भविष्य के चिकित्सीय व्ययों, सुख-सुविधाओं की हानि (और/या विवाह की सम्भावनाओं की हानि) तथा जीवन की अपेक्षाओं की हानि के सम्बन्ध में हो। मद संख्या (प्रथम) एवं मद संख्या (द्वितीय) (बी) के अन्तर्गत आर्थिक क्षति का आकलन अधिक कठिन नहीं होता क्योंकि इनमें वास्तविक व्यय की प्रतिपूर्ति निहित होती है एवं जिसे साक्ष्य से सरलतापूर्वक जाना जा सकता है। भविष्य के चिकित्सीय व्यय मद के अन्तर्गत अधिनिर्णय-मद (तीसरा)-भविष्य में उपचार की आवश्यकता एवं उसके मूल से संबंधी विशिष्ट चिकित्सीय साक्ष्य पर निर्भर करता है। गैर-आर्थिक क्षति-मद संख्या (चैथा), (पांचवा) एवं (छटवा)- के आकलन में परिस्थितियों, यथा आयु, चोट का प्रकार/उससे दावेदार में आयी अक्षमता एवं उसका प्रभाव दावेदार के भावी जीवन पर, के परिपेक्ष्य में एक-मुश्त राशि का निर्धारण निहित होता है। इस न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के निर्णयों में इन मदों के अन्तर्गत अधिनिर्णय हेतु आवश्यक दिशा-निर्देश निहित है।
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स्वर्णसिंह
(3) पर व्यक्ति जोखिम, अनुज्ञप्ति व शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति, अन्य अदृश्य या मध्यवर्ती कारण बीमाकर्ता और बीमाकृत व्यक्ति के मध्य विवाद -
(2004) 3 उम.नि.प. 24न्यायामूर्तिगण: माननीय वी.एन. खरे, न्यायमूर्ति डी.एम. धर्माधिकारी और न्यायामूर्ति एस.बी. सिन्हा
पक्षकार: नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड बनाम स्वर्णसिंह और अन्य {निर्णय दिनांक-05 जनवरी, 2004}
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149 (2)(क)(।ं) और 3- पर व्यक्ति जोखिम-बीमा कम्पनी को उपलब्ध प्रतिरक्षाएं अर्थात् यान चालन अनुज्ञप्ति का न होना, जाली या अविधिमान्य अनुज्ञप्ति का होना या यान चालक का सुसंगत समय पर यान चलाने में योग्य न होना बीमाकर्ता द्वारा बीमाकृत व्यक्ति या पर-व्यक्ति के विरूद्ध उपलब्ध प्रतिरक्षाएं नहीं हैं अपितु बीमाकर्ता को अपने दायित्व को टालने के लिए यह साबित करना चाहिए कि बीमाकृत व्यक्ति ने यान चलाने में उपेक्षा बरती और उसने बीमा पालिसी की शर्त पूरी करने में युक्तियुक्त सावधानी नहीं बरती।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149(4)और (5)-पर-व्यक्ति जोखिम-बीमा कम्पनी के विरूद्ध पारित डिक्री-डिक्री की प्रथम बार ही तुष्टि करना बीमा कम्पनी का कानूनी दायित्व है और इस दायित्व को यह कहकर टाला नहीं जा सकता है कि सुसंगत समय पर यान ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाया जा रहा था जिसके पास अनुज्ञप्ति नहीं थी।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149(2)-पर-व्यक्ति जोखिम-यान के स्वामी द्वारा यान को ऐसे चालक को यह जानते हुए चलाने के लिए देना कि उसके पास अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) नहीं है, अतः बीमाकर्ता अपनी प्रतिरक्षा में सफल होने और अपने दायित्व को टालने का हकदार है।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149(2)-यदि दुर्घटना ऐसे किसी अन्य अदृश्य या मध्यवर्ती कारण से, जिसका अपेक्षित प्रकार का अनुज्ञप्ति (लाईसेंस) रखने से कोई संबंध नहीं होता है तो बीमाकर्ता कम्पनी लाईसेंस की शर्तोंं के तकनीकी भंगों के कारण दायित्व टाल नहीं सकती है।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 149(2), 4(3), 7(2), 10(3) और धारा 14-पर-व्यक्ति जोखिम-शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति (लाईसेंस) धारण करने वाले व्यक्ति के यान से दुर्घटना-शिक्षार्थी यान चलाने का हकदार व्यक्ति सम्यक् रूप से अनुज्ञा प्राप्त व्यक्ति होता है, अतः बीमाकर्ता पर-व्यक्ति के पक्ष में पारित डिक्री की तुष्टि के लिए दायी है।
मोटर यान अधिनियम, 1988 (1988 का 59)-धारा 165 और धारा 168-प्रतिकर दावे-दावा अधिकरण की अधिकारिता न केवल दावेदार और दावाकर्ताओं, बीमाकर्ता और चालक के मध्य के दावों तक ही सीमित है अपितु यह बीमाकर्ता और बीमाकृत व्यक्ति के मध्य के विवादों को भी विनिश्चत करने के लिए सशक्त है और दावा अधिकरण द्वारा अवधारित दावे प्रवर्तनीय हैं।
कानूनों का निर्वचन-अधिनियम के अधीन विरचित नियमों के किसी भी उपबंध को अनावश्यक नहीं समझा जाना चाहिए।
निर्णीतानुसरण का सिद्धांत-पर-व्यक्ति के पक्ष में प्रथम बार पारित डिक्री की तुष्टि करने का बीमाकर्ता का दायित्व दीर्घकाल से प्रवर्तन में है और इससे साधारणतः विचलन नहीं किया जा सकता है।
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(4) आश्रिता के अभाव के कारण धारा 140 के निर्बन्धनों में दायित्व समाप्त नहीं होता-
2007(।।) दु.मु.प्र. 382 (सु.को.)न्यायामूर्ति: माननीय डा. अरिजीत पसायत
पक्षकार: श्रीमति मंजुरी बेरा बनाम ओरिएण्टल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमिटेड एवं एक अन्य {सिविल अपील संख्या 1702 वर्ष 2007, निर्णीत दिनांक 30 मार्च, 2007}
मोटर यान अधिनियम, 1988 -धारा 166 (ग) और 140-मुआवजा-हकदारी- विधिक प्रतिनिधि-विवाहित पुत्री मृतक पर आश्रित नहीं-धारा 166 के निर्बन्धनों में दावा याचिका कायम रख सकती है-मुआवजे की हकदारी हेतु उल्लेखनीय तत्व-दावा याचिका दाखिल करने का अधिकार-हकदारी के अधिकार की पृष्ठभूमि में विचारित किया जाना चाहिए-आश्रितता के अभाव में कारण-धारा 140 के निर्बन्धनों में दायित्व समाप्त नहीं होता-जब मुआवजे के लिए आवेदन मृतक पर आश्रित न रहने वाले विधिक प्रतिनिधि द्वारा दाखिल किया जाए-मुआवजे की मात्रा धारा 140 में सन्दर्भित दायित्व से कम नहीं होगी-मृतक की विवाहित पुत्री-50000 रूपये के मुआवजे की हकदार।(पैरा 8, 10, 13 से 15)
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(5) यात्री वाहन में क्षमता से अधिक यात्री-बीमा कंपनी का दायित्व केवल अनुज्ञेय यात्रियों की संख्या तक सीमित-
2008(1) दु.मु.प्र. 311 (सु.को.) न्यायामूर्तिगण: माननीय ए.के. माथुर व माननीय पी.के. बालासुब्रमणयन
पक्षकार: नेशनल इन्श्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड बनाम अंजना श्याम एवं अन्य {सिविल अपील संख्या 2422-2459 वर्ष 2001 के साथ सी.ए. सं. 5992-6026 वर्ष, 2002, 4288 वर्ष 2006 और 3824 वर्ष 2007 उर्फ एस.एल.पी. (सी.) सं. 14167 वर्ष 2001, निर्णीत दिनांक 20 अगस्त, 2007}
मोटर यान अधिनियम, 1988 -धारा 147(1) (ख) (पप)-मुआवजा-बीमा कम्पनी का दायित्व-अपराधग्रस्त बस जिसे 42 यात्रियों के वहन हेतु बीमित कराया गया था दुर्घटना के समय 90 यात्रियों का वहन कर रही थी-दुर्घटना के परिणामस्वरूप चालक समेत 26 यात्रियों की मृत्यु-63 यात्रियों को उपहतिया हुयीं-बीमा कम्पनी के आक्षेपों को अधिकरण द्वारा निरस्त कर दिया गया-विभिन्न दावों पर अधिनिर्णय पारित करने के पश्चात् अधिकरण ने 42 यात्रियों से अधिक के लिये भी बीमा कम्पनी को, सभी अधिनिर्णयों के भुगतान हेतु दायी निर्णीत किया-अपील पर उच्च न्यायालय ने निष्कर्षित किया कि बस में अधिक यात्रियों का वहन रूट परमिट का उल्लंघन नहीं-यह किसी भी विधि के उल्लंघन के सदृश्य नहीं जिससे योगदायी उपेक्षा राज्य सरकार पर अधिरोपित की जा सके-बीमा आच्छादन को पंजीकरण प्रमाण-पत्र में उल्लिखित यात्रियों की संख्या से अधिक हेतु प्राप्त नहीं किया जा सकता-बीमा कम्पनी का दायित्व केवल अनुज्ञेय यात्रियों की संख्या तक ही सीमित-बीमा वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता के मध्यम संविदा होती है-बीमा कम्पनी को केवल विधिक रीति से अनुज्ञेय यात्रियों की संख्या के लिये दायी निर्णीत किया जा सकता है-अतः बीमा कम्पनी के 42 अधिनिर्णयों के लिये मुआवजे के भुगतान हेतु दायी। (पैरा 10 से 16)
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(6) माल वाहक तथा माल वाहन शब्दों में अंतर -
2008(।) दु.मु.प्र. 289 (सु.को.)न्यायामूर्तिगण: माननीय अरिजित पसायत एवं माननीय पी. सथासिवम
पक्षकार: श्रीमति थोकचम अंगबी संगीता व श्रीमति सांगी देवी एवं एक अन्य बनाम ओरिएण्टल इंश्योरेन्स कं.लि. एवं अन्य {सिविल अपील संख्या 4946-4947 वर्ष 2007 निर्णीत दिनांक 23 अक्टूबर, 2007}
(अ) मोटर यान अधिनियम, 1988-धारा 147 के प्रावधान-’’माल वाहक’’ तथा ‘‘माल वाहन’’-शब्दों में अन्तर-बीमाकर्ता का दायित्व तृतीय पक्ष के लिए-अवधारित, बीमाकर्ता पर प्रतिपूर्ति के भुगतान का दायित्व नहीं-अतः यह अपील-माल वाहक में यात्रियों की ढुलाई-अधिनियम के प्रावधानों में वाहन स्वामी पर कोई दायित्व आयत नहीं किया गया-उसके माल वाहक में यात्रा कर रहे यात्रियों के सम्बन्ध में-इस संबंध में बीमाकर्ता का कोई दायित्व नहीं होगा-अतः बीमाकर्ता पर उच्च न्यायालय द्वारा कोई दायित्व आयत न किया जाना न्यायोचित-मामला उच्च न्यायालय द्वारा कोई दायित्व आयत न किया जाना न्यायोचित-मामला उच्च न्यायालय को प्रेषित-अधिकरण द्वारा अधिरोपित दण्ड की पूर्ति हेतु उत्तरदायी के दायित्व निर्धारण हेतु-अपील निस्तारित। (पैरा 9 से 13)
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(7) ट्रैक्टर ट्राली में बैठा व्यक्ति तृतीय पक्ष नहीं -
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत-ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971 तथा यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं। इन दोनों मामलों में शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा यह सुस्पष्ट प्रतिपादिन किया गया है कि ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के उक्त विधिक प्रतिपादनों का अवलंब लेते हुए न्याय दृष्टांत नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514 तथा कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ट्रैक्टर पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है ।
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(8) अधिनियम की धारा 163 (क) में लापरवाही प्रमाणित नही करना -
आवेदकगण ने ’’अधिनियम’’ की धारा-163 (क) के अन्तर्गत प्रतिकर दिलाये जाने की प्रार्थना की है। ’अधिनियम’ की धारा-163 (क) के अंतर्गत प्रतिकर संबंधित उत्तरदायित्व निर्धारण के लिए यह स्थापित किया जाना पर्याप्त है कि संबंधित वाहन से आवेदक को शारीरिक क्षति कारित हुई अथवा किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई । ऐसे मामलों में यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक नहीं है कि दुर्घटना किसी की लापरवाही के कारण हुई। संदर्भ- राजस्थन स्टेट रोडवेज कार्पोशन वि. पीडित महिला अनीता आदि 2001 (3) एम.पी.एल.जे. 147. ऐसे मामले में प्रतिकर निर्धारण के लिए अधिनियम के अंतग्रत दी गई अनुसूची का उपयोग किया जाना चाहिए । संदर्भ- कैलाश विरूद्ध ओमप्रकाश यादव- 2003 (3) एम.पी.एच.टी.-58.
2008(2) ए सी सी डी 975 (सु.को.)
न्यायामूर्तिगण: माननीय एस.बी. सिन्हा एवं माननीय वी.एस. सिरपुरकर
पक्षकार: प्रबन्धक निदेशक, बंगलौर महानगर परिवहन निगम बनाम सरोजम्मा एवं एक अन्य {सिविल अपील संख्या 2897 वर्ष 2008 दिनांक-22 अप्रैल, 2008 को विनिश्चित}
मोटर यान अधिनियम, 1988 -धारा 163क एवं द्वितीय अनुसूची-प्रतिकर-धारा 163क के अधीन दावा के लिये चालक की ओर से हुयी उपेक्षा साबित नहीं की जायेगी-मृतक 18 वर्ष की आयु का कुंवारा-अध्यापक और सैन्य अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान में प्रवेश-क्या अध्यापक होने की अध्यपेक्षित अन्तःशक्ति थी-उसकी आयु प्रतिमास 3,000 रूपये प्राक्कलित-उसे उच्चतर पक्ष पर होना नहीं कहा जा सकता-द्वितीय अनुसूची के अधीन संरचित सन्नियम-में स्वयं उसके व्यक्तिगत व्ययों के लिये एक तिहाई तक मृतक की आय की कमी नियत-साधारणतया एक तिहाई कटौती ही मृतक की आये से की जानी चाहिये- न कि उसका आधा-किन्तु मानसिक संताप की पीड़ा-ब्याज दर अवधारित करने में सुसंगत कारक नहीं -ब्याज दर में वृद्धि का कोई न्यायोचित्य नहीं-अतः, उसे 10 प्रतिशत से 7 प्रतिशत तक कम किया गया। (पैरा 7 से 14)
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(9) साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है वह कोई महत्व नहीं रखती -
साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत- रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 ए.सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है ।
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(10) चालक अनुज्ञप्ति नहीं होना प्रमाणित करना बीमा कंपनी का दायित्व है -
इस संबंध में अनावेदक क्रमांक 2 बीमा कंपनी की ओर से अभिवचन किया गया है कि प्रश्नगत दुर्धटना के समय चालक ;अनावेदक क्रं.1 के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र नहीं था। अनावेदक क्रं.2 का दायित्व संविदा आधारित दायित्व है । अनावेदक क्रं. 2 ने वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0 आर0,1985 एस0सी0 1281 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किये गये विधिक प्रतिपादन के प्रकाश में यह प्रमाणित करने का भार अनावेदक क्रं. 3 बीमा कंपनी पर था कि बीमा संविदा की उक्त शर्तो का उल्लंघन चालक अनावेदक क्रं0 1 ने किया है । अनावेदक क्रं. 2 की और से उक्त अभिवचन के संबंध में कोई अभिसाक्ष्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं की गई है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुर्जन राम बनाम अचल सिंह 1998 (1) टी.ए.सी. 372 पंजाब-हरियाणा व बाबूराव बनाम वेंकटी जयवंता 1993 (1) टी.ए.सी. 207 एवं एच.जी. रामचन्द्र राव बनाम मास्टर श्रीकांत 1997(2) ए.जे.आर. 293 तथा शैल कुमारी बनाम दिनेश सिंह 1995(2) टी.ए.सी. 270, 1995(1) विधि भास्वर 118 मध्य प्रदेश भी अवलोकनीय हैं ।
बीमा कंपनी (अनावेदक क्र.4) की ओर से अवलंबित न्याय दृष्टांत सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है। इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 ए.सी.जे.-1 (एस.सी.) के साथ-साथ अन्य अनेक मामलों का संदर्भ भी दिया गया है। निर्णय की कंडिका 8 में न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 ए.सी.जे.-627 (एस.सी.) का संदर्भ है। इस मामले में दुर्घटना परिवहन यान से हुयी थी, जबकि चालक रामनारायण के पास हल्के मोटर यान के लिये अनुज्ञप्ति थी, जिस पर परिवहन यान चलाने की पात्रता का पृष्ठांकन नहीं था अतः बीमा कंपनी को उत्तरदायी नहीं माना गया।
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(11) पे एण्ड रि-कव्हर कब और कब नहीं - Pay and recover
यह प्रमाणित पाया गया है कि प्रष्नगत वाहन को अनावेदक क्र.1 के द्वारा तेजी और लापरवाही से चलाये जाने के कारण दुर्घटना घटित हुयी। यह वाहन अनावेदक क्र.2 के स्वामित्व का था अतः अनावेदक क्र. 1 एवं 2 प्रतिकर के लिये संयुक्ततः एवं पृथक-पृथक उत्तरदायी हंै। चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 1 व 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी। इस संबंध में न्यायदृष्टांत हक्का बनाम पप्पू एवं अन्य 2013 (1) दु.मु.प्र. 131 म.प्र. भी अवलोकनीय है।
चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन अनावेदक क्र.2 द्वारा चालक अनुज्ञापत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी।
अनावेदक क्र.4 की ओर से इस क्रम में न्याय दृष्टांत इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.) का अवलंब लेते हुये यह तर्क किया गया है कि चालक अनुज्ञप्ति के विषय में बीमा पालिसी के शर्तों के उल्लंघन के कारण अनावेदक क्र.4 का उत्तरदायित्व प्रतिकर के संबंध में स्थापित नहीं हुआ है अतः बीमा कंपनी से प्रतिकर की राषि आवेदक को दिलाये जाने तथा तत्पष्चात् उस राषि को बीमा कंपनी द्वारा वाहन स्वामी से वसूल किये जाने के बारे में कोई निर्देष नहीं दिया जा सकता है। अवलंबित मामले में मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा पे एण्ड रि-कव्हर को प्रयोज्य नहीं माना गया।
उक्त क्रम में यह बात उल्लेखनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ ने नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297 के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा। समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) में किये गये विनिष्चयों से भी प्रकट होती है। ऐसी स्थिति में अनावेदक क्र.4 की ओर से किया गया यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है कि वर्तमान मामले में पे एण्ड रि-कव्हर
का
सिद्धांत
लागू नहीं
होगा।
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(12) धारा 366 के मामले में चालक की उपेक्षा आवश्यक तत्व है-
न्याय दृष्टांत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।
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(13) टैक्सी चालक के लिए मात्र हल्का मोटरयान अनुज्ञप्ति पर्याप्त नहीं-
अनावेदक क्र.4 (बीमा कंपनी) की ओर से ए.डी.खान का परीक्षण कराया गया है, जिसने प्र.डी-3 व प्र.डी-4 के प्रलेख प्रमाणित किये हैं। प्र.डी-3 अनावेदक क्र.1 के पक्ष में जारी चालक अनुज्ञापत्र का संक्षिप्त विवरण है, जिससे विदित होता है कि यह प्रलेख दिनाक 24.1.2001 से दिनाक 04.02.2020 तक की अवधि के लिये हल्के मोटर यान को चलाने के लिये जारी किया गया है। प्र.डी-4, जो दुर्घटना में संलिप्त कार की बीमा पालिसी की फोटो प्रति है तथा प्र.डी-5 कार से संबंधित परमिट की फोटोप्रति है, के अवलोकन से यह भी प्रकट है कि उक्त कार परिवहन यान (टैक्सी) के रूप में पंजीकृत थी। ऐसी स्थिति में उक्त वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टांत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.) में स्पष्ट रूप से विधिक प्रावधानों के प्रकाष में प्रतिपादित किया गया है।
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(14 दो वाहनों में आपसी टक्कर पर दावाकर्ता किसी भी एक वाहन के चालक, स्वामी, बीमाकंपनी के विरूद्ध दावा लाने के स्वतंत्र -
अनावेदक क्र.3 की ओर से यह आपत्ति की गयी हैं कि ट्रैक्टर के स्वामी, चालक एवं बीमा कंपनी प्रकरण में आवष्यक पक्षकार थे, लेकिन पूर्वोक्त विष्लेषण के क्रम में ट्रैक्टर चालक की कोई लापरवाही प्रमाणित नहीं हुयी है। ऐसी स्थिति में उक्त तीनों को प्रकरण के लिये आवष्यक पक्षकार नहीं माना जा सकता है। यदि तर्क के लिये मामला योगदायी उपेक्षा का मान भी लिया जाये तो भी उक्त आपत्ति विधि सम्मत नहीं है, क्योंकि माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन एवं एक अन्य, 2005 ए.सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहा दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहा दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।
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(15) मालवाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति में बीमा कंपनी उत्तरदायी नहीं -
यह प्रकट है कि दुर्घटना के समय आवेदक मांगीलाल एवं मृतक नरबत माल वाहक यान में या तो किराया देकर अथवा अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहे थे। न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) तथा जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, (2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892 में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।
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(16) क्लेम प्रकरणों में विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने देना -
न्याय दृष्टांत वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहा तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुचेगा। उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके। दुर्घटना से पीडित पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो। निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।
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(17) अंत्येष्टि व्यय 25000, सहचार्य व्यय 100000 -
न्यायदृष्टांत राजेश एवं अन्य वि. राजवीरसिंह एवं अन्य (2013) 9 एस.सी.सी. 54 (3 न्यायमूर्तिगण) निर्णय दिनांक-12 अप्रैल, 2013 ।
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(18) बालकों की चोटों के बारे में प्रतिकर -
न्यायदृष्टांत मल्लिकार्जुन (मास्टर) बनाम विभागीय प्रबंधक, नेशनल इंश्योरेन्स कंपनी लिमिटेड एवं एक अन्य 2013 (3) दु.प्र. 444 (एस.सी.)।
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(19) आय प्रमाणित नहीं होने पर कलेक्टर रेट मानकर 25 दिन की मजदूरी मानी जा सकती है -
न्यायदृष्टांत - रामजीलाल और अन्य वि. ओमकारलाल और अन्य 2004 ए.सी.जे. 238।
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(20) पेट्रोल टैंकर सड़क से नीचे गिरा उसमें से रिसते पेट्रोल को एकत्रित करने में आग लगी व विस्फोट से 46 व्यक्ति मरे-इसे मोटरवाहन के प्रयोग से उद्भूत दुर्घटना माना गया-
त्रुटिहीन मुआवजे के लिए दावा-अधिकरण द्वारा मोटर वाहन के उपयोग से उद्भूत दुर्घटना नहीं माना एवं याचिकाऐं निरस्त - उच्च न्यायालय ने एक अपील में अधिकरण के आदेश को अनुज्ञात की जिसकी अपील उच्च न्यायालय की खण्डपीठ में करने पर निरस्त की गई जिसके विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने पर अपील निरस्त की गई अर्थात् इसे मोटरवाहन के प्रयोग से उद्भूत दुर्घटना माना गया। न्यायदृष्टांत - न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम यादूशंभाजी मौर्य एवं अन्य, 2011 (1) दु.मु.प्र. 1 (सु.को.) उच्चतम न्यायालय।
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(21) चालक ही मृतक होने पर उसके विधिक प्रतिनिधि को पर पक्षकार दावा प्रदान नहीं कर सकता -
न्यायदृष्टांत - न्यू इंडिया एश्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड बनाम प्रभा देवी एवं अन्य 2013 (3) दु.मु.प्र. 3 (एस.सी..) ।
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(22) आपराधिक प्रकरण के दस्तावेजों पर विश्वास किया जा सकता है -
न्यायदृष्टांत - ओरिएण्टल इन्श्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड बनाम प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य 2007 (3) दु.मु.प्र. 154 (सु.को.) ।
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(23) प्रतिकर का वितरण कैसे -
न्यायदृष्टांत - केरल स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन बनाम सुसन्या थामस 1997 (1) दु.मु.प्र. 189 (सु.को.) ।
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