Thursday, 29 May 2014

साक्षीगण की परीक्षा के प्रावधान

                 साक्षीगण की परीक्षा के संबंध में आवश्यक प्रावधान




किसी भी न्यायालय का कार्य उसके समक्ष उपस्थित पक्षकारों में उत्पन्न विवादों का न्याय पूर्ण निराकरण करना होता हैं निर्णय न्यायालय का अंतिम उत्पाद होता है जो साक्ष्य पर आधारित होता है अतः किसी भी मामले में साक्ष्य लेखबद्ध करने का कार्य जितनी कुशलता से किया जायेगा उतना ही निर्णय अच्छे होने की संभावना रहेगी अतः साक्ष्य लेखबद्ध करना विचारण न्यायालय का सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है जो उसे अत्यंत सावधानी से करना चाहिये।
न्याय दृष्टांत हिमांशु सिंह सबरवाल विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., .आई.आर. 2008 एस.सी. 1943 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि पीठासीन न्यायाधीश को केवल एक दर्शक नहीं होना चाहिए और केवल साक्ष्य अभिलिखित करने वाली मशीन नहीं होना चाहिए किन्तु उसे साक्ष्य एकत्रित करने की प्रक्रिया के दौरान सक्रिय भूमिका निभाना चाहिए और निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सभी आवश्यक सुसंगत सामग्री देखना चाहिए ताकि सत्य की खोज हो सके। इस संबंध में न्याय दृष्टांत जाहीरा हबीबुल्ला शेख विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, .आई.आर. 2004 एस.सी. 3144 भी अवलोकनीय हैं जिसमें भी उक्त विधि प्रतिपादित की गई हैं।
न्याय दृष्टांत रामचंद्र विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा, .आई.आर. 1981 एस.सी. 1036 में यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायाधीश को तो दर्शक बने रहना चाहिए और ही साक्ष्य अभिलिखित करने की मशीन बल्कि बुद्धिमानी पूर्वक विचारण में सक्रिय भाग लेना चाहिए लेकिन उसे अभियोजक की या प्रतिरक्षा की भूमिका में पहुंचने तक नहीं जाना चाहिए केवल सत्य को प्रकाश में लाने का कार्य सावधानी पूर्वक करना चाहिए।
यहां हम साक्षीगण की साक्ष्य लेखबद्ध करने के बारे में आवश्यक प्रावधान और वैधानिक स्थिति के बारे में चर्चा करंगे ताकि किसी भी विचारण न्यायालय को साक्ष्य लेखबद्ध करते समय दिन-प्रतिदिन के कार्य में जो कठिनाई आती है उसमें कमी हो सके।
साक्षीगण के पेशकरण और उनकी परीक्षा का क्रम
धारा 135 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार साक्षीगण के पेशकरण और उनकी परीक्षा का क्रम सिविल और दण्ड प्रक्रिया से संबंधित विधि और पद्धति द्वारा, तथा ऐसी किसी विधि के अभाव में न्यायालय के विवेक से विनियमित होगा।
सामान्यतः सभी दाण्डिक मामलों में अभियोजन अपना प्रमाण प्रारंभ करता है और अभियोजन का प्रमाण पूर्ण हो जाने के बाद आवश्यक होने पर अभियुक्त परीक्षण किया जाता है और अभियुक्त यदि प्रतिरक्षा प्रमाण देना प्रकट करता है तब प्रतिरक्षा प्रमाण लिया जाता हैं यह प्रक्रिया सभी प्रकार के दाण्डिक मामले चाहे वे सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय हो या मजिस्टे के न्यायालय द्वारा वारंट मामलों के रूप में, संमन मामलों के रूप में या संक्षिप्त विचारण प्रक्रिया द्वारा विचारणीय हो में समान रूप से लागू होते हैं।
सिविल मामलों में आदेश 18 नियम 1 सी.पी.सी. के तहत सामान्यतः वादी अपना प्रमाण प्रारंभ करता है उसके बाद प्रतिवादी का प्रमाण लिया जाता है और वादी ने यदि कुछ वाद प्रश्नों पर अपना खण्डन का अधिकार सुरक्षित रखा है तब वादी का उन वाद प्रश्नों पर खण्डन प्रमाण लिया जाता है। आदेश 18 नियम 3 सी.पी.सी. के तहत यदि पक्षकार स्वयं साक्षी है तब पहले उसका साक्ष्य लिया जाता है उसके बाद उसके अन्य साक्षीगण का साक्ष्य लिया जाता हैं।
मुख्य परीक्षा, प्रतिपरीक्षा, तथा पुनःपरीक्षा और उनका क्रम
धारा 137 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार किसी साक्षी की उस पक्षकार द्वारा परीक्षा, जो उसे साक्ष्य में बुलाता है, मुख्य परीक्षा कहलाती है।
किसी साक्षी की विपक्षी द्वारा की गई परीक्षा उसकी प्रतिपरीक्षा कहलाती हैं।
किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा के पश्चात उस पक्षकार द्वारा जिसने उसे बुलवाया है, परीक्षा उसकी पुनःपरीक्षा कहलाती हैं।
धारा 138 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार किसी भी साक्षी की सबसे पहले मुख्य परीक्षा होती है उसके पश्चात यदि विपक्षी चाहे तो उसकी प्रतिपरीक्षा होती है और उसके पश्चात यदि उसे बुलाने वाला पक्षकार चाहे तो उसकी पुनःपरीक्षा होती हैं।
परीक्षा और प्रतिपरीक्षा का सुसंगत तथ्यों से संबंधित होना आवश्यक होता है लेकिन प्रतिपरीक्षा का उन तथ्यों तक सीमित रहना आवश्यक नहीं है जिनकी साक्षी ने अपनी मुख्य परीक्षा में साक्ष्य दी है।
पुनः परीक्षा उन बातों के स्पष्टीकरण के लिए होती है जो प्रतिपरीक्षण में उत्पन्न हुई और यदि न्यायालय के अनुमति से पुनः परीक्षण में कोई नई बात आती है तो विपक्षी को अतिरिक्त प्रतिपरीक्षण का अधिकार रहता हैं।
कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि प्रतिपरीक्षण के दौरान साक्षी भंरम में पड़ जाता है तब न्यायालय का यह कर्तव्य है सत्य को सामने लाने के लिए उससे प्रश्न करके स्थिति को स्पष्ट करना चाहिए। इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेट आफ राजस्थान विरूद्ध अनिल, .आई.आर. 1997 एस.सी. 1023 अवलोकनीय हैं जिसमें निर्णय के चरण 12 में न्यायालय की प्रश्न पूछने की शक्ति के बारे में प्रकाश डाला गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि गवाह यदि प्रतिपरीक्षण के दौरान थोड़ा भ्रंम में पड़ जाये तब विचारण न्यायालय सत्य को निकालने या प्रकाश में लाने के लिए प्रश्न करती है तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता।
न्याय दृष्टांत राधेश्याम विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2006 (2) एम.पी.एच.टी. 84 में माननीय 0प्र0 उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि संदिग्धता को स्पष्ट करने के लिए प्रश्न पूछने का न्यायाधीश का कर्तव्य एक पवित्र कर्तव्य है और इसका सावधानीपूर्वक पालन करना चाहिए इस मामले में न्याय दृष्टांत रामचरण विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा, .आई.आर. 1981 एस.सी. 1036 का उल्लेख किया गया है जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहां है पीठासीन न्यायाधीश जो विचारण में बैठते है दुर्भाग्य से उनकी मानसिकता ऐसी रहती है की वे स्वयं को रेफरी या एम्पायर समझते है और विचारण अभियोजन और बचाव के बीच का एक कंटेस्ट बन कर रह जाता है न्यायाधीश को केवल एक दर्शक या बयान लिखने की मशीन की तरह नहीं होना चाहिए बल्कि विचारण में रूची लेकर गवाह से सत्य अभिलेख पर लाने के लिए आवश्यक प्रश्न करना चाहिए और ऐसा करने में तो अभियोजन ही बचाव पक्ष की भूमिका में आना चाहिए।
पुनःपरीक्षण का क्षेत्र
न्याय दृष्टांत रामी विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., .आई.आर. 1999 एस.सी. 3544 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रतिपरीक्षण में आयी संदिग्धता को दूर करने तक ही पुनःपरीक्षण का क्षेत्र सीमित नहीं होता है प्रतिपरीक्षण के दौरान साक्षी द्वारा किसी बिन्दु पर कही गई बात के बारे में स्पष्टीकरण लेने के लिए भी पुनःपरीक्षण किया जा सकता है यदि अभियोजक सर्तक है और प्रतिपरीक्षण पर ध्यान देता है और प्रतिपरीक्षण में आये तथ्यों पर गवाह से स्पष्टीकरण चाहता है तो ऐसे प्रश्न पूछ सकता है।
न्याय दृष्टांत पन्नायर विरूद्ध स्टेट आफ तमिलनाडू, .आई.आर. 2010 एस.सी. 85 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पुनःपरीक्षण का उद्देश्य प्रतिपरीक्षण में कुछ संदेह उत्पन्न हुआ हो तो उसे दूर करना होता है पुनःपरीक्षण के माध्यम से बिलकुल नये तथ्य अभिलेख पर नहीं लाये जा सकते जिनका प्रतिपरीक्षण से कोई संबंध नहीं है इस मामले में गवाह से उसके मुख्य परीक्षण में जेवर की पहचान परेड के बारे में कुछ नहीं पूछा गया था और पुनःपरीक्षण के माध्यम से इस संबंध में परीक्षण किया गया था।
इस तरह उक्त वैधानिक स्थिति के प्रकाश में विचार करे तो पुनःपरीक्षण का उद्देश्य प्रतिपरीक्षण के दौरान यदि कोई संदेह उत्पन्न हुआ हो तो उसे दूर करना होता है और साक्षी ने प्रतिपरीक्षण के दौरान जो तथ्य बतलाये है उनके बारे में उसका स्पष्टीकरण लेना होता है ताकि भरम की स्थिति रहे।
लेकिन न्यायालय को धारा 311 दं.प्र.सं. के अपनी शक्तियों को भी ध्यान में रखना चाहिए और ऐसा सभी साक्ष्य अलिखित करना चाहिए जो मामले के न्याय पूर्ण निराकरण के लिए आवश्यक हो। लेकिन जिस साक्षी को न्यायालय 311 दं.प्र.सं. के तहत न्यायालय साक्षी के रूप में बुलाती है उससे दोनों ही पक्षों को प्रतिपरीक्षण करने का अधिकार होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत जमतराज केवल जी गोवानी विरूद्ध स्टेट आफ महाराष्ट्र, .आई.आर. 1968 एस.सी. 178 अवलोकनीय हैं।
यहां न्यायालय को भी सर्तक रहना चाहिए और यदि किसी साक्षी ने मुख्य परीक्षण के दौरान कोई तथ्य बतलाया और प्रतिपरीक्षण के दौरान उसके विपरीत कोई तथ्य बतलाया हो और दोनों तथ्य ऐसे है जिनका एक साथ अस्तित्व में रहना संभव नहीं है तब साक्षी से पुनःपरीक्षण में यह स्पष्टीकरण लेना चाहिए की दोनों बातों में से कौन सी बात उसके हिसाब से सही है ताकि भरम की स्थिति रहे ऐसे मामलों में, निर्णय के समय, यदि भरम दूर नहीं किया गया हो तो अत्यंत कठिनाई होती है और किस तथ्य को माना जावे और किसे माना जावे यह संकट उत्पन्न होता है जिससे बचने के लिए उसी समय अर्थात साक्षी का प्रतिपरीक्षण पूर्ण होते ही पुनःपरीक्षण कर लेना उचित होता हैं।
प्रतिपरीक्षण के बाद फिर प्रतिपरीक्षण
कुछ मामलों में एक से अधिक अभियुक्त होते है एक अभियुक्त का प्रतिपरीक्षण संबंधित गवाह से पूर्ण हो जाता है उसके बाद दूसरा अभियुक्त का प्रतिपरीक्षण होता है और यदि उस प्रतिपरीक्षण में प्रथम अभियुक्त के विरूद्ध कोई तथ्य आते है तब प्रथम अभियुक्त की ओर से पुनः प्रतिपरीक्षण की मांग की जाती है ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत सी.टी. मूनीयप्पन विरूद्ध स्टेट आफ मद्रास, .आई.आर. 1961 एस.सी. 175 से मार्गदर्शन लेना चाहिए जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि साक्ष्य अधिनियम में प्रतिपरीक्षण के दूसरे दौर के बारे में कोई प्रावधान नहीं है लेकिन यदि किसी अभियुक्त के विरूद्ध किसी साक्षी ने अन्य अभियुक्त द्वारा किये गये प्रतिपरीक्षण के दौरान कुछ कहां है तब उस अभियुक्त को अतिरिक्त प्रतिपरीक्षण का अधिकार बनेगा अतः ऐसे मामले में अतिरिक्त प्रतिपरीक्षण का अवसर देना चाहिए।
प्रतिपरीक्षण करने पर उत्पन्न स्थिति
कभी-कभी किसी गवाह से कोई पक्ष प्रतिपरीक्षण नहीं करता है और बाद में इस संबंध में आपत्ति लेता है कि उसे प्रतिपरीक्षण का अवसर हीं नहीं दिया गया ऐसी स्थिति से बचने के लिए साक्षी के डिपोजिशन सीट में निम्न प्रकार से नोट लगा सकते है:-
प्रतिपरीक्षण द्वारा श्री एक्स अभिभाषक द्वारा अभियुक्त /वादी/प्रार्थी
कुछ नहीं (अवसर दिया गया था)
न्याय दृष्टांत यूनियन आफ इंडिया विरूद्ध टी.आर. वर्मा, .आई.आर. 1957 एस.सी. 882 में पाच न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि साक्षी के कथन में ऐसा लेख नहीं है की कोई प्रतिपरीक्षण नहीं किया गया लेकिन यह कहां जा सकता है की कोई प्रतिपरीक्षण नहीं किया गया क्योंकि ऐसा अभिलेख भी नहीं है कि पक्षकार ने प्रतिपरीक्षण करना चाहा और उसे अस्वीकार कर दिया अतः यही माना जायेगा की साक्षी से कोई प्रतिपरीक्षण नहीं किया गया।
सामान्यतः उपर जो नोट बतलाया गया है यदि वैसा लिख दिया जाता है तो अभिलेख से ही स्पष्ट हो जायेगा की साक्षी से प्रतिपरीक्षण नहीं किया गया है यद्यपि अवसर दिया गया था।
बिना मुख्य परीक्षण के प्रतिपरीक्षण
न्याय दृष्टांत सुखवंत सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब, .आई.आर. 1995 एस.सी. 1601 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गवाह का मुख्य परीक्षण करवाये बिना उसे प्रतिपरीक्षण के लिए टेण्डर करना यह दर्शाता है कि अभियोजन ने गवाह का मुख्य परीक्षण नहीं करवाना चाहा और यह तथ्य अभियोजन के मामले को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता हैं।
दस्तावेज पेश करने वाला व्यक्ति
धारा 139 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार किसी दस्तावेज को पेश करने के लिए संमन किया गया व्यक्ति इस तथ्य के कारण की वह दस्तावेज पेश करता है साक्षी नहीं हो जाता है और उसे जब तब साक्षी के तौर पर नहीं बुलाया जाता उसकी प्रतिपरीक्षा नहीं की जा सकती हैं।
न्याय दृष्टांत श्रीमती परमेश्वरी देवी विरूद्ध स्टेट, .आई.आर. 1977 एस.सी. 403 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि धारा 94 (1) दं.प्र.सं. 1898 की पालना में उपस्थित व्यक्ति गवाह नहीं हो जाता है और उसकी परीक्षा और प्रतिपरीक्षा नहीं की जा सकती हैं।
इस तरह कभी-कभी कोई पक्षकार किसी व्यक्ति को केवल दस्तावेज पेश करने के लिए संमन करते है तब इस तथ्य को ध्यान रखना चाहिए की आदेश पत्र में उस व्यक्ति द्वारा पेश किये गये दस्तावेजों का उल्लेख कर लेना चाहिए दस्तावेज मूल है या फोटोप्रद यह भी लेख कर लेना चाहिए और उसे व्यक्ति को दस्तावेज पेश करने के बाद उन्मोचित कर देना चाहिए या जाने देना चाहिए।
सूचक प्रश्न
धारा 141 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत कोई प्रश्न जो उस उत्तर को सुझाता है जिसे पूछने वाला व्यक्ति पाना चाहता है या पाने की आशा करता है उसे सूचक प्रश्न कहां जाता हैं।
सामान्यतः सूचक प्रश्न की पहचान यह होती है कि उस प्रश्न में ही उत्तर निहित होता हैं अतः सावधानीपूर्वक यह निर्धारण करना चाहिए की कोई प्रश्न सूचक प्रश्न है या नहीं।
धारा 142 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत सूचक प्रश्न मुख्य परीक्षा में या पुनः परीक्षा में यदि विपक्षी आपत्ति करता है तब न्यायालय की अनुमति के बिना नहीं पूछे जाना चाहिए।
न्यायालय उन बातों के बारे में जो परिचायात्मक या र्निविवाद या पहले से पर्याप्त रूप से साबित हो चुके है उनके बारे में सूचक प्रश्न पूछने की अनुमति दे सकता हैं।
धारा 143 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत सूचक प्रश्न प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते हैं।
न्याय दृष्टांत वर्की जोसफ विरूद्ध स्टेट आफ केरल, .आई.आर. 1993 एस.सी. 1892 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजक साक्ष्य के तात्विक भागों के बारे में गवाह से सूचक प्रश्न नहीं पूछ सकते है यह आरोपी के निष्पक्ष विचारण के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है यह सुधारने योग्य अनियमिता नहीं हैं।
न्याय दृष्टांत सिद्धार्थ विरूद्ध एन.सी.टी. देल्ही, .आई.आर. 2010 एस.सी. 2352 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्येक सूचक प्रश्न विचारण को अवैध नहीं कर देता है सूचक प्रश्न के प्रभाव का निर्धारण प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर करना होता है इस मामले में उक्त वर्की जोसफ विरूद्ध स्टेट आॅफ केरला वाले मामले पर भी विचार किया गया और यह प्रतिपादित किया गया कि दोनों मामले के तथ्य भिन्न हैं।
उक्त वैधानिक स्थिति से यह स्पष्ट है कि साक्ष्य लेखबद्ध करते समय न्यायाधीश को अत्यंत सर्तक रहना चाहिए और निष्पक्ष विचारण के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हो इस बारे में सर्तक रहना चाहिए साथ ही सूचक प्रश्न किस प्रकृति का है उसके आधार पर विचारण पर प्रभाव का निर्धारण होता हैं और यदि किसी प्रश्न के बारे में संदेह हो की वह सूचक प्रश्न है नहीं तो उसे प्रश्न और उत्तर के रूप में लिख लेना चाहिए।
लेखबद्ध विषयों पर साक्ष्य
धारा 144 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत यदि कोई साक्षी किसी संविदा, अनुदान या संपत्ति के अन्य व्ययन के बारे में साक्ष्य दे रहा है जो किसी दस्तावेज में अंतरविष्ट है तब न्यायालय की राय में उसे पेश किया जाना चाहिए था तब दस्तावेज के अभाव में उस दस्तावेज के बारे में साक्ष्य नहीं लिया जायेगा जब तक की दस्तावेज पेश नहीं किया जाता या द्वितीयक साक्ष्य देने की स्थिति साबित नहीं हो जाती लेकिन साक्षी अन्य व्यक्तियों द्वारा दस्तावेज के अंतर वस्तु के बारे में किये गए कथन के बारे में साक्ष्य दे सकेगा यदि वे कथन सुसंगत तथ्य हो।
उक्त प्रावधान इस सिद्धांत पर आधारित है कि दस्तावेजी साक्ष्य को सदैव मौखिक साक्ष्य से प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि व्यक्ति की स्मृति उसे धोखा दे सकती है लेकिन एक बार लेखबद्ध किया दस्तावेज सामान्यतः उन तथ्यों के बारे में वैसा ही रहता हैं।
पूर्व लेखबद्ध कथनों के बारे में प्रतिपरीक्षा
धारा 145 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत किसी साक्षी की उन पूर्वतन कथनों के बारे में, जो उसने लिखित रूप में किये है या जो लेखबद्ध किये है और जो प्रश्नगत बातों से सुसंगत है, ऐसा लेख उसे दिखाये बिना या लेख साबित हुये बिना, प्रतिपरीक्षा की जा सकेगी, किन्तु यदि उस लेख द्वारा उसका खण्डन करने का आशय है तो उस लेख को साबित किये जा सकने के पूर्व उसका ध्यान उस लेख के उन भागों की ओर आकर्षित कराना होगा जिनका उपयोग उसका खण्डन करने के प्रयोजन से किया जाना हैं।
उक्त प्रावधान अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह किसी भी साक्षी के पूर्व कथनों से उसका खण्डन करने के लिए प्रायः उपयोग में आता है अतः इस प्रावधान को ध्यान पूर्वक समझ लेना अत्यंत आवश्यक है।
सामान्यतः दाण्डिक मामलों में किसी व्यक्ति का धारा 161 दं.प्र.सं. 1973 के तहत लेखबद्ध पुलिस कथन अभिलेख पर होता है और उसके आधार पर उसके न्यायालय में दिये कथनों से खण्डन कराया जाता है तब यह ध्यान रखना चाहिए की धारा 145 की शर्ते पूरी होना चाहिए इस संबंध में महत्वपूर्ण वैधानिक स्थितिया निम्न प्रकार हैं:-
न्याय दृष्टांत चैधरी रामजी भाई एन. भाई विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, .आई.आर. 2004 एस.सी. 313 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी गवाह को उसी के पूर्वतन कथनों से धारा 145 साक्ष्य अधिनियम में वर्णित शर्तो पर विरोधित कर सकते है किसी अन्य गवाहों के कथनों से नहीं।
इस तरह यदि गवाह को किसी अन्य गवाह के कथनों से विरोधित कराया जा रहा हो तब तत्काल रोकना चाहिए।
न्याय दृष्टांत मोहन लाल गंगाराम घासी विरूद्ध स्टेट आफ महाराष्ट्र .आई.आर. 1982 एस.सी. 839 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि एक ही व्यक्ति द्वारा दो परस्पर विरोधी बयान दिये जाना चाहिए तभी धारा 145 आकर्षित होती है एक द्वारा दिया गया कथन दूसरे व्यक्ति के कथनों का खण्डन करता है तब धारा 145 आकर्षित नहीं होती।
न्याय दृष्टांत गोपाल विरूद्ध सुभाष, .आई.आर. 2004 एस.सी. 4900 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी तथ्य के बारे में लोप (क्या विरोधाभाष कहां जा सकता हैं) कुछ गवाहों ने पुलिस कथन में अवैध सभा के गठन के बारे में बतलाया कुछ ने नहीं बतलाया यह लोप विरोधाभाष की परिधि में आता है।
न्याय दृष्टांत माजिद विरूद्ध स्टेट आफ हरियाण, .आई.आर. 2002 एस.सी. 382 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गवाह का पूर्व कथन लिखित में नहीं था गवाह से उसके प्रतिपरीक्षण में ऐसे मौखिक पूर्व कथन के बारे में नहीं पूछा गया ऐसे में बचाव साक्षी ने गवाह के पूर्व कथन के बारे में जो बयान दिये उन्हें विश्वास योग्य नहीं माना गया।
न्याय दृष्टांत राजेन्द्र सिंह विरूद्ध स्टेट आफ बिहार, .आई.आर. 2000 एस.सी. 1779 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि गवाह को उसके पूर्व लिखित कथन से विरोधित नहीं करवाया गया मजिस्टे प्रतिरक्षा साक्षी ने स्वीकार किया कि कथनों पर उसके कार्यालय की सील या हस्ताक्षर नहीं है ऐसे कथन को पूर्व कथन नहीं माना गया साथ ही धारा 145 के अनुसार गवाह का ध्यान भी पूर्व कथनों पर नहीं दिलाया गया।
न्याय दृष्टांत भगवान सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब, .आई.आर. 1952 एस.सी. 214  धारा 145 की तात्विक पालना क्या है इस बारे में प्रतिपादित किया गया है कि धारा 145 की पालना कोई हार्ड एण्ड फास्ट नियम नहीं है केवल गवाह को निष्पक्ष युक्तियुक्त अवसर विरोधाभाष के स्पष्टीकरण के लिए मिल जाना चाहिए धारा 145 की सार रूप में पालना हो जाना चाहिए पालना का प्रारूप निर्धारित नहीं हैं।
न्याय दृष्टांत निशार अली विरूद्ध स्टेट आफ यू.पी., .आई.आर. 1957 एस.सी. 366 में यह प्रतिपादित किया है कि जहां आरोपी द्वारा लिखाई गई प्रथम सूचना प्रतिवेदन हो तब एफ.आई.आर. तात्विक साक्ष्य नहीं होने के कारण इसे लिखवाने वाले कथनों के खण्डन या पुष्टि में प्रयोग कर सकते हैं यह लिखवाने वाले के विरूद्ध उपयोग में हीं ली जा सकती।
न्याय दृष्टांत तहसीलदार सिंह विरूद्ध स्टेट आफ यू.पी., .आई.आर. 1959 एस.सी. 1012 में 6 न्याय मूर्तिगण की पीठ ने धारा 145 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के उपयोग की विधि पर प्रकाश डाला है और प्रक्रिया बतलाई है जिसके अनुसार साक्षी का ध्यान उसके पूर्व कथन के उस भाग की ओर दिलवाना चाहिए जिससे उसके वर्तमान कथनों का खण्डन करवाया जा रहा हैं यह न्याय दृष्टांत धारा 162 दं.प्र.सं. के बारे में भी मार्गदर्शक हैं।
जहां तक परिवाद पत्र का प्रश्न है परिवाद पत्र को तात्विक साक्ष्य नहीं माना जाता है और उसे परिवादी के कथनों की पुष्टि या उसके खण्डन के लिए धारा 145 एवं धारा 157 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत उपयोग में लिया जा सकता हैं जैसा की न्याय दृष्टांत किशन लाल विरूद्ध मुरलीधर, आई.एल.आर. (2008) एम.पी. 1237 में प्रतिपादित किया गया है।
न्याय दृष्टांत दिलीप विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., आई.एल.आर. (2011) एम.पी. 1082 में माननीय 0प्र0 उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि यदि पूर्वतन कथन डिस्क या टेप में एक साक्षात्कार के दौरान रिकोर्ड किये गये हो तब भी उन्हें धारा 145 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत उसमें दिए गए उद्देश्यों के लिए उपयोग में लिया जा सकता है यदि वे अन्य सभी अर्हताए पूरी करते हो इस तरह डिस्क टेप के कथन भी पूर्वतन कथन माने जाते हैं।
न्याय दृष्टांत उतपल दास विरूद्ध स्टेट आफ वेस्ट बंगाल, (2010) 6 एस.सी.सी. 493 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रथम सूचना प्रतिवेदन और धारा 164 दं.प्र.सं. के तहत लिखे गये कथन तात्विक साक्ष्य नहीं होते है ये केवल पूर्वतन कथन की तरह उसे करने वाले व्यक्ति के कथनों की पुष्टि या खण्डन के लिए या उसके सत्यवादीता को परखने के लिए उपयोगी होते है लेकिन खण्डन के लिए उनका उपयोग तभी कर सकते है जब साक्षी का ध्यान कथन की उस भाग की ओर आकर्षित किया जाये।
न्याय दृष्टांत रघुनंदन विरूद्ध स्टेट आफ यू.पी., .आई.आर. 1974 एस.सी. 463 में यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायाधीश धारा 165 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत दी शक्तियों का प्रयोग करते समय धारा 161 दं.प्र.सं. 1973 के तहत लेखबद्ध किसी साक्षी के कथनों को तब भी उपयोग में ले सकती है जब वह साक्षी प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में परिक्षित करवाया जा रहा हो धारा 162 दं.प्र.सं. के निषेध के बावजूद यह शक्ति न्यायाधीश को इसी लिए दी गई हैं ताकि न्यायदान में सहायता हो सके।
न्याय दृष्टांत केशर सिंह विरूद्ध स्टेट, .आई.आर. 1988 एस.सी. 1883 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि गवाह द्वारा कमीशन के समक्ष किये गये कथनों का उपयोग उसके विरोधाभाष या उसकी साख को धक्का लगाने के लिए उपयोग में नहीं लिए जा सकते हैं क्योंकि धारा 6 कमीशन आफ इंक्वारी एक्त, 1952 की बाधा आती है।
इस तरह धारा 145 एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो किसी भी गवाह के पूर्वतन कथनों से जो लिखित है या लेखबद्ध किये गये है उनसे खण्डन करने के लिए उपयोगी प्रावधान हैं।
साक्षीगण का संरक्षण
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में गवाह के संरक्षण के बारे में भी प्रावधान किये गये है सामान्यतः कोई भी व्यक्ति किसी मामले में गवाह देने से बचना चाहता है इस कई कारण है जिनमें एक कारण विपक्षी द्वारा साक्षी से किये जाने वाला प्रतिपरीक्षण भी हैं यदि न्यायालय गवाह के संरक्षण के बारे में आवश्यक वैधानिक प्रावधानों का उपयोग करे तो केवल प्रतिपरीक्षण नियंत्रित रहता है बल्कि गवाह को भी संरक्षण मिलता है और केवल मामले के लिए उपयोगी तथ्य ही अभिलेख पर आते है अतः साक्ष्य लेखबद्ध करते समय इन महत्वपूर्ण प्रावधानों को ध्यान में रखना चाहिए।
प्रतिपरीक्षण में विधि पूर्ण प्रश्न
धारा 146 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत जब किसी साक्षी से प्रतिपरीक्षण की जाती है तब उससे निम्न प्रकार के प्रश्न पूछे जा सकते है:-
1. ऐसे प्रश्न जिनकी प्रवृत्ति उसकी सत्यवादीता परखने की है।
2. यह पता चलाने की है कि वह कौन है और जीवन में उसकी स्थिति क्या हैं।
3. उसके सील को दोष लगाकर उसकी विश्वसनीयता को धक्का पहुचाने की हैं, चाहे ऐसे प्रश्नों का उत्तर उसे प्रत्यक्षतः या परोक्षतः अपराध में फसाने की प्रवृत्ति रखता है या उसे किसी शास्ति या संपहरण के लिए जोखिम में डालता है।
परंतु बलात्संग या बलात्संग करने के प्रयत्न के किसी अभियोजन में यह अनुमति नहीं होगी कि अभियोक्त्री की प्रतिपरीक्षा में उसके साधारण अनैतिक चरित्र के बारे में प्रश्न पूछे जाये।
धारा 146 में प्रश्नों की प्रकृति पर प्रकाश डाला गया है जो किसी साक्षी से प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते हैं लेकिन धार 147 भारतीय साक्ष्य अधिनियम में यह प्रावधान भी किया गया है कि यदि ऐसा कोई प्रश्न उस वाद या कार्यवाही से सुसंगत किसी बात से संबंधित है तब धारा 132 लागू होगी।
धारा 132 में यह प्रावधान है कोई साक्षी किसी वादी या किसी सिविल या दाण्डिक कार्यवाही में विवाध्यक विषय से सुसंगत किसी विषय के बारे में किये गये किसी प्रश्न का उत्तर देने से इस आधार पर क्षम्य नहीं होगा की ऐसे प्रश्न का उत्तर उस साक्षी को अपराध में फसायेगा या फसा सकता है या किसी किस्म की शास्ति या संपहरण के जोखिम डालेगा परंतु वह उत्तर जिसे देने के लिए साक्षी को विवश किया जायेगा उसकी गिरफ्तारी या अभियोजन के अधीन नहीं करेगा और मिथ्या साक्ष्य देने के अलावा किसी अन्य कार्यवाही में साबित नहीं किया जा सकेगा।
न्याय दृष्टांत देव नारायण हलधर विरूद्ध अनुश्री हलधर, .आई.आर. 2003 एस.सी. 3174 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पत्नी द्वारा भरण पोषण के मामले में पत्नी का तो ऐसा अभिवचन था और प्रमाण था की पति का अन्य महिला से प्रेम संबंध हैं पति द्वारा पेश गवाह से इस बारे में प्रश्न करना यह अनुमत नहीं है ऐसे प्रश्नों की अनुमति नहीं दी जाना चाहिए जो कि एक महिला जो मामले की पक्षकार नहीं है उसके चरित्र पर आक्षेप करते है जबकि तो इस बारे में महिला पत्नी का अभिवचन था और कोई प्रमाण दिया था अतः ऐसे प्रश्नों को अस्वीकार करना चाहिये।
न्याय दृष्टांत स्टेट आफ पंजाब विरूद्ध हाकम सिंह, .आई.आर. 2005 एस.सी. 3759 में यह प्रतिपादित किया है कि ग्रामीण क्षेत्र की महिला से अपराध में प्रयुक्त आयुध के बारे में ऐसे प्रश्न की वह गन थी या रायफल थी यह अत्यंत अवास्तविक एप्रोच है क्योंकि एक ग्रामीण महिला से गन, रायफल, बोर में अंतर बताने की अपेक्षा करना उचित नहीं हैं।
उक्त न्याय दृष्टांतों से यह समझा जा सकता है कि धारा 146 के अंतर्गत यदि कोई प्रश्न प्रतिपरीक्षण में पूछे जाते है तो उन प्रश्नों को किस प्रकार विचार करके पूछने की अनुमति लेना चाहिए या प्रश्नों को अस्वीकृत करना चाहिए।
धारा 148 भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी न्यायालय को उक्त प्रश्नों को स्वीकार या अस्वीकार करने के बारे में पर्याप्त शक्तिया दी गई हैं और यह उपबंध किया गया है कि केवल किसी साक्षी शील को दोष लगाकर उसकी विश्वसनीयता को प्रभावित करना है तब न्यायालय मामले की प्रकृति को देखते हुये प्रश्नों की प्रकृति और लान्छन की मात्रा और मामले की प्रकृति पर पड़ने वाली प्रभाव के प्रकाश में प्रश्नों को स्वीकृत या अस्वीकृत कर सकते हैं और इसके लिए धारा 148 में कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत भी दिये गये हैं।
धारा 149 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत यदि प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति के पास लान्छन के सुआधारित होने के युक्तियुक्त आधार हो तो प्रश्न नहीं पूछा जा सकता।
धारा 149 में कुछ उदाहरण देकर प्रश्नों के सुआधारित होने की स्थिति को स्पष्ट किया है।
धारा 150 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत यदि न्यायालय की यह राय है कि कोई प्रश्न युक्तियुक्त आधार के बिना पूछा गया था तो वह संबंधित प्लीडर या वकील के बारे में उच्च न्यायालय को या संबंधित प्राधिकारी जिसके अधीन वह प्लीडर या वकील अपना कारोबार करता है उसको रिपोर्ट कर सकेगा।
धारा 150 में न्यायालय को संबंधित वकील के विरूद्ध युक्तियुक्त आधार के बिना प्रश्न पूछने पर कार्यवाहिया करने की शक्तिया दी गई हैं।
धारा 151 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत न्यायालय अशिष्ट और कलंकात्मक प्रश्न को भी निषेधित कर सकता हैं साथ ही धारा 152 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत न्यायालय अपमानित या क्षुब्ध करने के आशय से पूछे गये प्रश्नों को भी निषेधित कर सकता हैं।
धारा 153 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत सत्यवादीता परखने के लिए पूछे गये प्रश्नों के उत्तर के खण्डन साक्ष्य देने पर रोक लगायी गई हैं।
न्याय दृष्टांत गोविन्द विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2005 सी.आर.एल.जे. 144 (एम.पी.) में माननीय .प्र. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि न्यायालय को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए की प्रतिपरीक्षण एक परेशान करने का साधन या अपराध के पीडित को अवमानित करने या नीचा दिखाने के लिए नहीं होना चाहिए इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेट आफ पंजाब विरूद्ध गुरमीत सिंह, 1966 एस.सी.सी. (क्रिमिनल) 316 भी अवलोकनीय हैं।
पक्षकार द्वारा अपने ही साक्षी से प्रश्न
धारा 154 (1) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत न्यायालय उस व्यक्ति को जो किसी साक्षी को बुलाता है उस साक्षी से ऐसे प्रश्न करने की अनुमति दे सकते है जो विपक्षी द्वारा प्रतिपरीक्षण में किये जा सकते है।
धारा 154 (2) के तहत इस धारा की कोई बात साक्षी के साक्ष्य के किसी भाग का अवलंबन लेने के हक से वंचित नहीं करेंगे।
यह एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जिसे समझ लेना आवश्यक है कभी-कभी कोई पक्ष किसी साक्षी को साक्ष्य देने के लिए बुलाता है और वह साक्षी उस पक्ष का समर्थन नहीं करता है तब ऐसी स्थिति उत्पन्न होती हैं।
ऐसे समय संबंधित पक्ष यह प्रार्थना करता है कि साक्षी पक्ष विरोधी घोषित किया जाये लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में पक्ष विरोधी जैसा कोई शब्द नहीं है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी न्याय दृष्टांत सतपाल विरूद्ध देल्ही एडमिनिशटेशन, .आई.आर. एस.सी. 294 में यह प्रतिपादित किया है कि पक्ष विरोधी घोषित या प्रतिकूल घोषित जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए धारा 154 भारतीय साक्ष्य अधिनियम की शक्तिया असीमित है परंतु इनका उपयोग नर्मरूख रख कर करना चाहिए और प्रश्न पूछने की अनुमति देना चाहिए।
जब कोई पक्ष अपने ही साक्षी से प्रश्न करना चाहे तब साक्षी के डिपोजिशन सीट में निम्न प्रकार का नोट लगा देना चाहिए:-
नोट - अभियोजन/वादी /प्रार्थी ने साक्षी से सूचक प्रश्न और ऐसे सभी प्रश्न पूछने की अनुमति चाही जो प्रतिपरीक्षण में प्रतिरक्षा पक्ष द्वारा पूछे जा सकते है अभिलेख का अवलोकन किया उभय पक्ष को सुना बाद विचार अनुमति दी गई।
सूचक प्रश्न द्वारा श्री एक्स अभिभाषक
कभी-कभी साक्षी का प्रतिपरीक्षण पूर्ण हो जाने के बाद ऐसी अनुमति चाही जाती है तब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि साक्षी का मुख्य परीक्षण और प्रतिपरीक्षण पूर्ण हो जाने के बाद क्या ऐसी अनुमति दी जा सकती है ? इस संबंध में न्याय दृष्टांत डाया भाई छगन भाई ठक्कर विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, .आई.आर. 1964 एस.सी. 1563 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो पक्ष किसी साक्षी को बुलाता है न्यायालय उसे पुनः परीक्षण में भी उसे ऐसे प्रश्न पूछने की अनुमति दे सकते है जो प्रतिपरीक्षण में प्रतिरक्षा पक्ष द्वारा पूछे जाते हैं क्योंकि चतुर गवाह मुख्य परीक्षण में संबंधित पक्ष का समर्थन कर देते है और प्रतिपरीक्षण में पलट जाते हैं ऐसे में पुनःपरीक्षण में उस पक्ष को अनुमति मिलना जरूरी है और ऐसे पुनः परीक्षण में विपक्षी को प्रतिपरीक्षण का अवसर नहीं होगा।
कभी-कभी यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या कमीश्नर साक्षी को पक्ष विरोधी घोषित कर सकते है इस संबंध में न्याय दृष्टांत सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन तमिलनाडू विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया, (2005) 6 एस.सी. 344 में यह प्रतिपादित किया गया है कि कमीश्नर किसी साक्षी को पक्ष विरोधी घोषित नहीं कर सकते है यह न्यायालय का विवेकाधिकार है और न्यायालय से ही इस संबंध में अनुमति लेनी होती है अर्थात सूचक प्रश्न और ऐसे सभी प्रश्न जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते है उनके लिए न्यायालय से अनुमति आवश्यक है कमीश्नर को ऐसी शक्तिया नहीं है की वे ऐसी अनुमति दे सके।
साक्षी की विश्वसनीयता पर अधिक्षेप
धारा 155 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत किसी साक्षी की विश्वसनीयता पर विपक्षी द्वारा या न्यायालय की अनुमति से उस पक्षकार द्वारा जिसने उसे बुलाया है निम्न प्रकार से अधिक्षेप किया जा सकता है:-
1. उन व्यक्तियों की साक्ष्य के द्वारा, जो यह परिसाक्ष्य देते है कि वे उनके ज्ञान के आधार पर उस साक्षी को विश्वसनीयता का अपात्र समझते है।
2. यह साबित किये जाने के द्वारा कि साक्षी को रिश्वत दी गई है या उसने रिश्वत लेने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है या उसे साक्ष्य देने के लिए कोई अन्य भ्रष्ट प्रेरणा मिली है।
3. उसकी साक्ष्य के किसी ऐसे भाग से, जिसका खण्डन किया जा सकता है, असंगत पिछले कथनों को साबित करने के द्वारा।
इस तरह धारा 155 साक्षी की विश्वसनीयता परखने का एक तरीका बतलाती है।
सुसंगत तथ्य के साक्ष्य की पुष्टि में साक्ष्य
धारा 156 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत जबकि कोई साक्षी, जिसकी पुष्टि करना आशयित हो, किसी सुसंगत तथ्य का साक्ष्य देता है तब उससे ऐसी अन्य किन्ही भी परिस्थितियों के बारे में प्रश्न किया जा सकेगा जिन्हें उसमें उस समय या स्थान पर या के निकट आब्जर्व किया था, जिस पर ऐसा सुसंगत तथ्य घटित हुआ था, यदि न्यायालय की राय हो की ऐसी परिस्थिति में यदि वे साबित हो जाये तो साक्षी के उस सुसंगत तथ्य के बारे में जिसका वह साक्ष्य देता है पुष्टि करेगी।
एक सह-अपराधी जिसने किसी लूट में भाग लिया था उसका विवरण देता है वह लूट से असंबंधित विभिन्न घटनाओं का वर्णन करता है जो घटना स्थल की ओर जाते हुए और वहां से आते हुए मार्ग में घटित हुई थी इन तथ्यों का साक्ष्य उस लूट के बारे में सह-अपराधी भी साक्ष्य की पुष्टि के लिए दिया जा सके।
साक्षी की साक्ष्य की पुष्टि के लिए पूर्वतन कथन की साक्ष्य
धारा 157 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत किसी साक्षी के साक्ष्य की पुष्टि के लिए उस साक्षी द्वारा उसी तथ्य से संबंधित उस समय पर या उसके लगभग जब वह तथ्य घटित हुआ था किया हुआ या उस तथ्य के बारे में अन्वेषण अधिकारी या किसी अन्य प्राधिकारी के समक्ष दिया हुआ पूर्वकथन साबित किया जा सकेगा।
परिवादी घटना के ठीक पश्चात जो प्रथम सूचना प्रतिवेदन लेखबद्ध करवाता है वह इसी श्रेणी का साक्ष्य हैं।
धारा 164 दं.प्र.सं., 1973 के तहत मृत्यु की प्रत्यासा में दिया गया कथन यदि व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती है तो वह धारा 32 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत ग्राह्य नहीं होता है लेकिन उसी व्यक्ति के न्यायालय कथन की पुष्टि के लिए धारा 157 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत ग्राह्य होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत गजूला सूर्या प्रकाश राव विरूद्ध स्टेट आफ आंध्रप्रदेश (2010) 1 एस.सी.सी. 81 अवलोकनीय हैं।
घटना के ठीक पश्चात जिस व्यक्ति को घटना का वृतांत बताया गया हो उसकी साक्ष्य ग्राह्य होती है और धारा 157 भारतीय साक्ष्य अधिनियम पुष्टि कारक भी होती हैं।
क्लेक केस में प्रार्थी द्वारा प्रस्तुत प्रथम सूचना प्रतिवेदन को उसे लेखबद्ध करवाने वाले के कथन करवाये बिना भी विचार में लिया जा सकता हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अरूण कुमार विरूद्ध श्रीमती तेरासी, 2008 (1) एम.पी.एच.टी. 457 अवलोकनीय हैं।
धारा 32 एवं 33 के तहत सुसंगत और साबित कथनों के बारे में साक्ष्य
धारा 158 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत यदि कोई कथन जो धारा 32 या 33 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत सुसंगत है और साबित कर दिये जाते है तब उसके खण्डन के लिए या पुष्टि के लिये या जिस व्यक्ति द्वारा वे किये गये थे उसके विश्वसनीयता को चुनौती देने या पुष्ट करने के लिए सभी बाते साबित की जा सकेगी यदि वह व्यक्ति साक्षी के रूप में बुलाया होता तो उसके प्रतिपरीक्षण में उसकी सत्यता के इंकार के लिए साबित की जा सकती।
साक्षी की स्मृति ताजा करना
धारा 159 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत कोई साक्षी उस लेख द्वारा उसकी स्मृति ताजा कर सकता हैं जो उसने उस संव्यवहार के समय जिसके संबंध में उससे प्रश्न किया जा रहा है या उसके ठीक पश्चात बनाया हो जो न्यायालय के राय में उस समय उसकी स्मृति में ताजा था उससे स्मृति ताजा कर सकेगा।
यदि ऐसा लेख किसी अन्य व्यक्ति द्वारा तैयार किया गया हो और साक्षी ने उस समय उसको पढ़कर सही होना माना था उससे भी स्मृति ताजा कर सकता है।
कभी-कभी ऐसी स्थिति बनती है कि किसी गवाह का कथन बहुत समय बाद होता है मानव स्वभाव में तथ्यों को भूलने की एक प्रवृत्ति होती है उसी को ध्यान में रखते हुये यह प्रावधान किया गया है जिसके अनुसार कोई व्यक्ति स्वयं द्वारा तैयार किया गया या किसी अन्य द्वारा तैयार किया गया और उसके द्वारा पढ़कर सही होना माना गया कोई दस्तावेज देखकर अपनी स्मृति ताजा कर सकता हैं यह आवश्यकता का भी नियम है कई बार कुछ अनुसंधान अधिकारी कई कार्यवाहियों में भाग लेते है और उनके द्वारा प्रत्येक कार्यवाही का विवरण याद रखना संभव नहीं होता है उस समय वे उनके द्वारा तैयार किये गये पंचनामों से न्यायालय की अनुमति से अपनी स्मृति ताजा कर सकते हैं।
धारा 159 के द्वितीय भाग के अनुसार कोई साक्षी दस्तावेज के प्रतिलिपि को भी देख सकता है और अपनी स्मृति ताजा कर सकता है परंतु ऐसे मामलों में मूल दस्तावेज प्रस्तुत करने के पर्याप्त कारण होना चाहिए।
विशेषज्ञ उनके विषय की पुस्तको को देखकर स्मृति ताजा कर सकते हैं।
धारा 161 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार यदि द्विपक्षी अपेक्षा करे तब उसे उन दस्तावेजों को दिखाना होगा जिसके आधार पर साक्षी ने अपनी स्मृति ताजा की है।
दस्तावेज का पेश किया जाना
धारा 162 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत यदि किसी व्यक्ति को किसी दस्तावेज पेश करने का संमन मिलता है और दस्तावेज उस व्यक्ति के कब्जे या शक्ति में हो तो वह उसे न्यायालय में लायेगा चाहे उसे पेश करने या उसकी ग्राह्यता के बारे में कोई आपत्ति है तो उसका निराकरण न्यायालय द्वारा किया जायेगा।
न्यायालय यदि ठीक समझे तो उस दस्तावेज का यदि वह राज्य की बातों के बारे में नहीं है निरीक्षण कर सकेगा या ग्राह्यता के बारे में अन्य साक्ष्य ले सकेगा।
न्यायालय ऐसे किसी दस्तावेज का अनुवाद करवाना उचित माने तो वह अनुवाद भी करवा सकेगा और अनुवादक उसकी अंतर वस्तु को गुप्त रखेगा।
धारा 163 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत यदि एक पक्ष का किसी दस्तावेज को पेश करने के लिए दूसरे पक्षकार को सूचना देता है और उसे मगाता है और ऐसे दस्तावेज पेश कर दिये जाते है और उसका निरीक्षण भी कर लिया जाता है तब उसे मगाने वाला पक्षकार विपक्षी के अपेक्षा करने पर उसे साक्ष्य के रूप में देने के लिए बाध्य होता हैं।
धारा 164 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत कोई पक्षकार किसी दस्तावेज को सूचना मिलने के बाद भी पेश करने से इंकार कर देता है तब वह न्यायालय के अनुमति के बिना या दूसरे पक्षकार की सहमति के बिना पेश नहीं कर सकता।
न्याय दृष्टांत पिपुल्स यूनियन फार सिविल लिबरर्टीस विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया, .आई.आर. 2004 एस.सी. 1442 में यह प्रतिपादित किया गया है कि दस्तावेज राज्य के मामले के बारे में होना चाहिए और उसका सामने आना राज्य के हित के विरूद्ध होना चाहिए तभी उसे पेश नहीं किया जा सकेगा।
प्रश्न पूछने की या पेश करने का आदेश देने की न्यायाधीश की शक्ति
धारा 165 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत कोई न्यायाधीश सुसंगत तथ्यों का पता लगाने के लिए या उनका उचित प्रमाण प्राप्त करने के लिए किसी भी रूप में किसी भी समय किसी भी साक्षी या पक्षकार से किसी भी सुसंगत या विसंगत तथ्य के बारे में कोई भी प्रश्न जो वह चाहे पूछ सकेगा तथा किसी भी दस्तावेज या वस्तु को पेश करने का आदेश दे सकेगा और कोई पक्षकार या उसका अभिकर्ता ऐसे प्रश्न या आदेश पर आपत्ति नहीं कर सकेंगे और ही न्यायालय की अनुमति के बिना उन्हें प्रतिपरीक्षण का अधिकार होगा।
परंतु निर्णय उन तथ्यों पर जो इस अधिनियम के तहत सुसंगत हो और सम्यक रूप से साबित किये गये हो उन्हीं पर आधारित होगा।
लेकिन न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं होगा कि वह धारा 121 से धारा 131 के तहत विशेषाधिकार वाले प्रश्नों का उत्तर देने के लिए किसी व्यक्ति को विवश करे या धारा 148 या धारा 149 में अनुचित बतलाये गये प्रश्नों पर पूछ-ताछ करें।
धारा 165 भारतीय साक्ष्य अधिनियम में न्यायाधीश को प्रश्न करने की असीमित शक्ति दी गई है जिसका अत्यंत सावधानी से प्रयोग करना चाहिए।
न्यायालय किसी भी पक्ष को किसी साक्षी विशेष का परीक्षण करवाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत मुंशीपाल कार्पोरेशन ग्रेटर मुंबई विरूद्ध लाल पंचाम, .आई.आर. 1965 एस.सी. 1008 पांच न्याय मूर्तिगण की पीठ का न्याय दृष्टंात अवलोकनीय हैं।
ऐसे समय में न्यायाधीश को धारा 311 दं.प्र.सं. 1973 या आदेश 18 नियम 17 सी.पी.सी. सह पठित धारा 151 सी.पी.सी. शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए यदि साक्षी का परीक्षण मामले के निराकरण के लिए आवश्यक हैं।
आरोप संशोधित होने पर साक्ष्य
कभी-कभी ऐसी स्थिति भी बनती है कि कुछ मामलों में आरोप पत्र या संशोधित किये जाते है या अतिरिक्त आरोप विरचित किये जाते है तब दोनों पक्षों को यह अधिकार होता है कि वे पूर्व में परीक्षित कराये गये साक्षीगण से अतिरिक्त परीक्षा या प्रतिपरीक्षा कर सके।
न्याय दृष्टांत स्टेट आफ एम.पी. विरूद्ध पप्पू उर्फ सलीम, आई.एल.आर. (2010) एम.पी. 2383 में अभियुक्तगण पर धारा 452, 327 और 506 बी भा.दं.सं. के आरोप विरचित किये गये प्रमाण लिया जा कर प्रकरण निर्णय के लिए नियत किया गया उसके बाद धारा 325/34 और 323/34 भा.दं.सं. के अतिरिक्त आरोप विरचित किये गये गवाहों को अतिरिक्त प्रतिपरीक्षण के लिए बुलाया गया दो गवाह पेश नहीं किये जा सके अभियोजन का पक्ष यह था की इन दो गवाहों के कथनों पर पूर्व से विरचित आरोप धारा 452, 327 एवं 506 बी भा.दं.सं. पर विचार कर लिया जाये क्योंकि इन आरोपों के बारे में प्रतिपरीक्षण हो चुका हैं यह प्रतिपादित किया गया कि गवाहों के कथनों को जब तब की धारा 137 एवं 138 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत पूर्ण हो उपयोग में नहीं लिये जा सकते दोष मुक्ति के विरोध अपील निरस्त की गई।
इस तरह जब कभी आरोप में कोई परिवर्तन, परिवर्धन किया जाता है तब गवाहों को यदि पक्षकार ऐसा चाहे तो परीक्षण और प्रतिपरीक्षण के लिए बुलाना होगा और जब तक यह प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो जाती उनके कथन विचार में नहीं लिये जा सकेंगे।
शपथ पत्र पर कथन
धारा 145 (2) एन.आई. एक्ट के तहत शपथ पत्र के रूप में प्रस्तुत साक्ष्य पर अभियुक्त को केवल प्रतिपरीक्षण का अधिकार रहता है गवाह के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह प्रतिपरीक्षण पूर्ण होने से पहले मुख्य परीक्षण में क्या कहां गया वह पुनः बतलाये साथ धारा 145 (1) एन.आई. एक्ट के तहत शपथ पत्र के रूप में साक्ष्य देने का अधिकार केवल परिवादी को है अभियुक्त को नहीं इस संबंध में न्याय दृष्टांत माधवी कापरेटिव बैंक लिमिटेड विरूद्ध निमेश बी. ठाकोर (2010) 3 एस.सी.सी. 83 अवलोकनीय हैं।
साक्ष्य के समय अभियुक्त की उपस्थिति
धारा 273 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत विचारण या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में लिया गया सब साक्ष्य अभियुक्त की उपस्थिति में या जब उसे व्यक्तिगत हाजरी से मुक्त कर दिया गया है तब उसके प्लीडर की उपस्थिति में लिया जायेगा।
अभियुक्तगण में वह व्यक्ति भी शामिल है जिसके विरूद्ध अध्याय 8 (परिशांति कायम रखने के लिए और सदाचार के लिए प्रतिभूति) के तहत कार्यवाही प्रारंभ की जा चुकी हैं।
इस तरह दाण्डिक मामलों में सभी साक्ष्य अभियुक्त की उपस्थिति में या उसकी उपस्थिति से मुक्ति दे दी जाने पर उसके प्लीडर की उपस्थिति में लेखबद्ध किया जाना चाहिए।
धारा 274 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत संमन मामले में साक्षी के साक्ष्य के सारंश का ज्ञापन या मेमोरेंडम आफ सब्सटेन्स तैयार करने के प्रावधान है जबकि धारा 275 दं.प्र.सं. के वारंट मामले में साक्षी का साक्ष्य जैसे-जैसे परीक्षा होती जाती है वैसे-वैसे पूरा लिखाया जाता है और यही प्रक्रिया धारा 276 दं.प्र.सं. 1973 में सेशन ट्रायल मामलों में भी हैं।
सामान्यतः साक्षी का साक्ष्य शब्द सह शब्द या वरबेटम लिखाने की प्रक्रिया है और संमन मामले में भी साक्ष्य के सारंश का ज्ञापन तैयार करवाने के बजाय पूरा साक्ष्य ही लिखाया जाता हैं।
धारा 278 दं.प्र.सं. के तहत साक्ष्य साक्षी का पढ़कर सुनाया और समझाया जाता है और फिर यदि वह उसमें कुछ सुधार चाहता है वैसा किया जाता है।
साक्षी की भाव भंगी या डिमेनोर के बारे में
धारा 280 दं.प्र.सं. 1973 के तहत परीक्षण के समय साक्षी भाव भंगी के बारे में यदि कोई टिप्पणी तात्विक हो तो उसे न्यायाधीश या मजिस्ट को अभिलिखित करना होता है यह साक्ष्य के मूल्यांकन में अत्यंत सहायक होता है इसी प्रकार के प्रावधान आदेश 18 नियम 12 सी.पी.सी. में भी है।
कभी-कभी साक्षी प्रश्नों के उत्तर काफी सोचकर देता है या बार-बार अपना उत्तर बदलता हैं ऐसे समय में आवश्यक टिप्पणी कथनों में लगाई जा सकती है।
साक्ष्य के दौरान की गई आपत्तिया
कभी-कभी कोई पक्ष किसी साक्षी के कथनों के दौरान कुछ आपत्तिया करता है ऐसे में कई बार साक्ष्य रोक देने जैसी स्थिति बनती है ऐसे समय में न्याय दृष्टांत बिपिन शांति लाल पानचाल विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, .आई.आर. 2001 एस.सी. 1158 से मार्गदर्शन लेना चाहिए जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है की ऐसे समय पर विचारण न्यायालय को आपत्ति अभिलेख पर ले लेना चाहिए और संबंधित साक्ष्य या दस्तावेज को टेन्टेटिवली प्रदर्श कर लेना चाहिए और अंतिम निराकरण के समय आपत्ति निराकृत की जायेगी यह निर्देश देना चाहिए अंतिम निराकरण के समय यदि आपत्ति उभय पक्ष को सुनने के बाद स्वीकार योग्य पाई जाती है तब उस दस्तावेज के बारे में या उस साक्ष्य के बारे में जो भी तथ्य आये है वे विचार में नहीं लिये जाते है इससे न्यायालय का समय बचता है साथ ही यदि अपील न्यायालय उसी साक्ष्य को ग्राह्य पाती है तब साक्ष्य अभिलेख पर होने से उस पर विचार भी किया जा सकता है लेकिन यदि स्टाम्प शुल्क संबंधी आपत्ति है तब उसका तत्काल निराकरण करना चाहिए और ऐसी आपत्ति के अधीन दस्तावेज ग्रहण नहीं करना चाहिए।
किसी पक्ष की कमी को पूर्ण करना
कभी-कभी न्यायाधीश या मजिस्टे के मन में यह आशंका रहती है कि यदि वे किसी साक्षी को न्यायालय साक्षी के रूप में बुलाते है तो यह किसी अन्य पक्ष की कमी को पूरा करने वाला हो जाये और इस बारे में उन पर आक्षेप लग जाये लेकिन न्यायाधीश /मजिस्टे का कार्य न्यायदान करना होता है और उसके लिए यदि कोई तात्विक साक्ष्य है तो उसे बुलाना न्यायालय का कत्र्तव्य है क्यांेकि न्यायालय का कार्य केवल पक्षकारों की त्रुटिया गिनना नहीं है और केवल यह घोषित करना नहीं की कौन पक्षकार बेहतर है बल्कि न्यायालय का वास्तविक कार्य न्यायदान करना है और ऐसे समय में न्याय दृष्टांत राजेन्द्र प्रसाद विरूद्ध नारकोटिक सेल (1999) 6 एस.सी.सी. 110 से मार्गदर्शन लिया जा सकता हैं।
एक साक्षी के कथन के दौरान अन्य साक्षी की उपस्थिति
कभी-कभी ऐसी स्थिति बनती है कि एक ही मामले में एक ही दिन कई साक्षी उपस्थित होते है तब यह सावधानी रखना चाहिए की जब एक साक्षी का कथन लिया जा रहा हो तब अन्य साक्षी जिनका अभी परीक्षण होना है उन्हें न्यायालय कक्ष से बाहर जाने के निर्देश दे देना चाहिए अन्यथा उस साक्षी के परीक्षण और प्रतिपरीक्षण के दौरान दूसरे साक्षी को काफी तथ्यों के बारे में जानकारी लग जाती है और इससे विपक्षी के हितों पर भी प्रतिकूल असर होता है यह निष्पक्ष विचारण की दृष्टि से भी उचित होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेट विरूद्ध सोहन सिंह, .आई.आर. 1955 एम.बी. 78 से मार्गदर्शन लिया जा सकता है जिसमें यह प्रतिपादित किया है एक साक्षी के कथन के दौरान दूसरे साक्षी न्यायालय कक्ष से बाहर जाने का कह देना चाहिए।
यदि ऐसा नहीं भी किया गया है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो साक्ष्य लेखबद्ध की गई है उसे विचार में नहीं लिया जायेगा इस तथ्य को साक्ष्य के मूल्यांकन के समय विचार में लिया जा सकता हैं।
उपसंहार
न्यायाधीश/ मजिस्टे को उक्त प्रावधानों को ध्यान में रखते हुये स्वयं बोल कर साक्ष्य टंकित या लिखित करवाना चाहिए यह कार्य कभी भी साक्ष्य लेखक पर नहीं छोड़ना चाहिए न्यायाधीश /मजिस्टे को आरोप की प्रकृति और मामलों के तथ्यों और परिस्थितियों में उचित रीति से साक्ष्य लेखबद्ध करवाना चाहिए और साक्षियों के संरक्षण के बारे में आवश्यक प्रावधानों को ध्यान में रखना चाहिए प्रतिपरीक्षण को उचित रीति से और वैधानिक तरीके से नियंत्रित करना चाहिए और धारा 136 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में तथ्यों की सुसंगतता निर्धारित करने के बारे में जो शक्ति दी गई है उसका प्रयोग भी करना चाहिए किसी भी पक्ष को साक्षी पर या साक्षी को किसी भी पक्ष पर हावी नहीं होने देना चाहिए और ही न्यायालय को ऐसा करना चाहिए सत्य की खोज के लिए साक्षी का कथन लिया जा रहा है यह आभास साक्षी को और दोनो पक्ष को होना चाहिए साथ ही न्यायाधीश केवल एक दर्शक या साक्ष्य लेखबद्ध करने की मशीन नहीं है बल्कि वह असंदिग्ध रूप से सभी सुसंगत साक्ष्य जो मामले के न्याय पूर्ण निराकरण के लिए आवश्यक है उसे लेखबद्ध कर रहे हैं ऐसा लगना चाहिए और यही लक्ष्य होना चाहिए।

(पी.के. व्यास)
विशेष कत्र्तव्यस्थ अधिकारी
न्यायिक अधि0 प्रशिक्षण एवं अनु0 संस्थान
उच्च न्यायालय जबलपुर .प्र.

4 comments:

  1. Dear sir
    In evidence prosecution police produced only one page of circular out of its 98 pages. Whether this one page may be accepted as evidence. How defence can object.

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  2. Kya wadi dwara Court me 161ke bayan ko sapath patra dwara diya ja sakta hai

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  3. In addition to the legal information in your article, there is a very good compilation of jurisprudence above.

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