साक्षीगण
की परीक्षा
के संबंध
में आवश्यक
प्रावधान
किसी
भी न्यायालय
का कार्य
उसके समक्ष
उपस्थित
पक्षकारों
में उत्पन्न
विवादों का
न्याय पूर्ण
निराकरण करना
होता हैं
निर्णय
न्यायालय
का अंतिम
उत्पाद होता
है जो
साक्ष्य पर
आधारित होता
है अतः
किसी भी
मामले में
साक्ष्य
लेखबद्ध करने
का कार्य
जितनी कुशलता
से किया
जायेगा उतना
ही निर्णय
अच्छे होने
की संभावना
रहेगी अतः
साक्ष्य
लेखबद्ध करना
विचारण
न्यायालय
का सबसे
महत्वपूर्ण
कार्य होता
है जो
उसे अत्यंत
सावधानी से
करना चाहिये।
न्याय
दृष्टांत
हिमांशु सिंह
सबरवाल विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
1943 में
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि पीठासीन
न्यायाधीश
को केवल
एक दर्शक
नहीं होना
चाहिए और
केवल साक्ष्य
अभिलिखित
करने वाली
मशीन नहीं
होना चाहिए
किन्तु उसे
साक्ष्य
एकत्रित करने
की प्रक्रिया
के दौरान
सक्रिय भूमिका
निभाना चाहिए
और निष्कर्ष
पर पहुंचने
के लिए
सभी आवश्यक
सुसंगत सामग्री
देखना चाहिए
ताकि सत्य
की खोज
हो सके।
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
जाहीरा
हबीबुल्ला
शेख विरूद्ध
स्टेट आफ
गुजरात, ए.आई.आर.
2004 एस.सी.
3144 भी
अवलोकनीय
हैं जिसमें
भी उक्त
विधि प्रतिपादित
की गई
हैं।
न्याय
दृष्टांत
रामचंद्र
विरूद्ध
स्टेट आफ
हरियाणा, ए.आई.आर.
1981 एस.सी.
1036 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
न्यायाधीश
को न
तो दर्शक
बने रहना
चाहिए और
न ही
साक्ष्य
अभिलिखित
करने की
मशीन बल्कि
बुद्धिमानी
पूर्वक विचारण
में सक्रिय
भाग लेना
चाहिए लेकिन
उसे अभियोजक
की या
प्रतिरक्षा
की भूमिका में पहुंचने
तक नहीं
जाना चाहिए
केवल सत्य
को प्रकाश
में लाने
का कार्य
सावधानी
पूर्वक करना
चाहिए।
यहां
हम साक्षीगण
की साक्ष्य
लेखबद्ध करने
के बारे
में आवश्यक
प्रावधान
और वैधानिक
स्थिति के
बारे में
चर्चा करंगे
ताकि किसी
भी विचारण
न्यायालय
को साक्ष्य
लेखबद्ध करते
समय दिन-प्रतिदिन
के कार्य
में जो
कठिनाई आती
है उसमें
कमी हो
सके।
साक्षीगण
के पेशकरण
और उनकी
परीक्षा का
क्रम
धारा
135 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
अनुसार
साक्षीगण
के पेशकरण
और उनकी
परीक्षा का
क्रम सिविल
और दण्ड
प्रक्रिया
से संबंधित
विधि और
पद्धति द्वारा,
तथा
ऐसी किसी
विधि के
अभाव में
न्यायालय
के विवेक
से विनियमित
होगा।
सामान्यतः
सभी दाण्डिक
मामलों में
अभियोजन अपना
प्रमाण प्रारंभ
करता है
और अभियोजन
का प्रमाण
पूर्ण हो
जाने के
बाद आवश्यक
होने पर
अभियुक्त
परीक्षण किया
जाता है
और अभियुक्त
यदि प्रतिरक्षा
प्रमाण देना
प्रकट करता
है तब
प्रतिरक्षा
प्रमाण लिया
जाता हैं
यह प्रक्रिया
सभी प्रकार
के दाण्डिक
मामले चाहे
वे सेशन
न्यायालय
द्वारा
विचारणीय
हो या
मजिस्टेट
के न्यायालय
द्वारा वारंट
मामलों के
रूप में,
संमन
मामलों के
रूप में
या संक्षिप्त
विचारण
प्रक्रिया
द्वारा
विचारणीय
हो में
समान रूप
से लागू
होते हैं।
सिविल
मामलों में
आदेश 18
नियम
1 सी.पी.सी.
के
तहत सामान्यतः
वादी अपना
प्रमाण प्रारंभ
करता है
उसके बाद
प्रतिवादी
का प्रमाण
लिया जाता
है और
वादी ने
यदि कुछ
वाद प्रश्नों
पर अपना
खण्डन का
अधिकार
सुरक्षित
रखा है
तब वादी
का उन
वाद प्रश्नों
पर खण्डन
प्रमाण लिया
जाता है।
आदेश 18
नियम
3 ए
सी.पी.सी.
के
तहत यदि
पक्षकार
स्वयं साक्षी
है तब
पहले उसका
साक्ष्य लिया
जाता है
उसके बाद
उसके अन्य
साक्षीगण
का साक्ष्य
लिया जाता
हैं।
मुख्य
परीक्षा, प्रतिपरीक्षा,
तथा
पुनःपरीक्षा
और उनका
क्रम
धारा
137 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
अनुसार किसी
साक्षी की
उस पक्षकार
द्वारा
परीक्षा, जो
उसे साक्ष्य
में बुलाता
है, मुख्य
परीक्षा
कहलाती है।
किसी
साक्षी की
विपक्षी
द्वारा की
गई परीक्षा
उसकी प्रतिपरीक्षा
कहलाती हैं।
किसी
साक्षी की
प्रतिपरीक्षा
के पश्चात
उस पक्षकार
द्वारा जिसने
उसे बुलवाया
है, परीक्षा
उसकी पुनःपरीक्षा
कहलाती हैं।
धारा
138 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
अनुसार किसी
भी साक्षी
की सबसे
पहले मुख्य
परीक्षा होती
है उसके
पश्चात यदि
विपक्षी चाहे
तो उसकी
प्रतिपरीक्षा
होती है
और उसके
पश्चात यदि
उसे बुलाने
वाला पक्षकार
चाहे तो
उसकी पुनःपरीक्षा
होती हैं।
परीक्षा
और प्रतिपरीक्षा
का सुसंगत
तथ्यों से
संबंधित होना
आवश्यक होता
है लेकिन
प्रतिपरीक्षा
का उन
तथ्यों तक
सीमित रहना
आवश्यक नहीं
है जिनकी
साक्षी ने
अपनी मुख्य
परीक्षा में
साक्ष्य दी
है।
पुनः
परीक्षा उन
बातों के
स्पष्टीकरण
के लिए
होती है
जो प्रतिपरीक्षण
में उत्पन्न
हुई और
यदि न्यायालय
के अनुमति
से पुनः
परीक्षण में
कोई नई
बात आती
है तो
विपक्षी को
अतिरिक्त
प्रतिपरीक्षण
का अधिकार
रहता हैं।
कभी-कभी
ऐसी स्थिति
उत्पन्न होती
है कि
प्रतिपरीक्षण
के दौरान
साक्षी भंरम
में पड़
जाता है
तब न्यायालय
का यह
कर्तव्य
है सत्य
को सामने
लाने के
लिए उससे
प्रश्न करके
स्थिति को
स्पष्ट करना
चाहिए। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
स्टेट आफ
राजस्थान
विरूद्ध
अनिल, ए.आई.आर.
1997 एस.सी.
1023 अवलोकनीय
हैं जिसमें
निर्णय के
चरण 12
में
न्यायालय
की प्रश्न
पूछने की
शक्ति के
बारे में
प्रकाश डाला
गया है
और यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
गवाह यदि
प्रतिपरीक्षण
के दौरान
थोड़ा भ्रंम
में पड़
जाये तब
विचारण
न्यायालय
सत्य को
निकालने या
प्रकाश में
लाने के
लिए प्रश्न
करती है
तो इसे
अनुचित नहीं
कहा जा
सकता।
न्याय
दृष्टांत
राधेश्याम
विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
2006 (2) एम.पी.एच.टी.
84 में
माननीय म0प्र0
उच्च
न्यायालय
की खण्ड
पीठ ने
यह प्रतिपादित
किया है
कि संदिग्धता
को स्पष्ट
करने के
लिए प्रश्न
पूछने का
न्यायाधीश
का कर्तव्य
एक पवित्र
कर्तव्य
है और
इसका सावधानीपूर्वक
पालन करना
चाहिए इस
मामले में
न्याय दृष्टांत
रामचरण विरूद्ध
स्टेट आफ
हरियाणा, ए.आई.आर.
1981 एस.सी.
1036 का
उल्लेख किया
गया है
जिसमें माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने यह
कहां है
पीठासीन
न्यायाधीश
जो विचारण
में बैठते
है दुर्भाग्य
से उनकी
मानसिकता
ऐसी रहती
है की
वे स्वयं
को रेफरी
या एम्पायर
समझते है
और विचारण
अभियोजन और
बचाव के
बीच का
एक कंटेस्ट
बन कर
रह जाता
है न्यायाधीश
को केवल
एक दर्शक
या बयान
लिखने की
मशीन की
तरह नहीं
होना चाहिए
बल्कि विचारण
में रूची
लेकर गवाह
से सत्य
अभिलेख पर
लाने के
लिए आवश्यक
प्रश्न करना
चाहिए और
ऐसा करने
में न
तो अभियोजन
न ही
बचाव पक्ष
की भूमिका
में आना
चाहिए।
पुनःपरीक्षण
का क्षेत्र
न्याय
दृष्टांत
रामी विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
ए.आई.आर.
1999 एस.सी.
3544 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
प्रतिपरीक्षण
में आयी
संदिग्धता
को दूर
करने तक
ही पुनःपरीक्षण
का क्षेत्र
सीमित नहीं
होता है
प्रतिपरीक्षण
के दौरान
साक्षी द्वारा
किसी बिन्दु
पर कही
गई बात
के बारे
में स्पष्टीकरण
लेने के
लिए भी
पुनःपरीक्षण
किया जा
सकता है
यदि अभियोजक
सर्तक है
और प्रतिपरीक्षण
पर ध्यान
देता है
और प्रतिपरीक्षण
में आये
तथ्यों पर
गवाह से
स्पष्टीकरण
चाहता है
तो ऐसे
प्रश्न पूछ
सकता है।
न्याय
दृष्टांत
पन्नायर
विरूद्ध
स्टेट आफ
तमिलनाडू, ए.आई.आर.
2010 एस.सी.
85 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
पुनःपरीक्षण
का उद्देश्य
प्रतिपरीक्षण
में कुछ
संदेह उत्पन्न
हुआ हो
तो उसे
दूर करना
होता है
पुनःपरीक्षण
के माध्यम
से बिलकुल
नये तथ्य
अभिलेख पर
नहीं लाये
जा सकते
जिनका
प्रतिपरीक्षण
से कोई
संबंध नहीं
है इस
मामले में
गवाह से
उसके मुख्य
परीक्षण में
जेवर की
पहचान परेड
के बारे
में कुछ
नहीं पूछा
गया था
और पुनःपरीक्षण
के माध्यम
से इस
संबंध में
परीक्षण किया
गया था।
इस
तरह उक्त
वैधानिक
स्थिति के
प्रकाश में
विचार करे
तो पुनःपरीक्षण
का उद्देश्य
प्रतिपरीक्षण
के दौरान
यदि कोई
संदेह उत्पन्न
हुआ हो
तो उसे
दूर करना
होता है
और साक्षी
ने प्रतिपरीक्षण
के दौरान
जो तथ्य
बतलाये है
उनके बारे
में उसका
स्पष्टीकरण
लेना होता
है ताकि
भरम की
स्थिति न
रहे।
लेकिन
न्यायालय
को धारा
311 दं.प्र.सं.
के
अपनी शक्तियों
को भी
ध्यान में
रखना चाहिए
और ऐसा
सभी साक्ष्य
अलिखित करना
चाहिए जो
मामले के
न्याय पूर्ण
निराकरण के
लिए आवश्यक
हो। लेकिन
जिस साक्षी
को न्यायालय
311 दं.प्र.सं.
के
तहत न्यायालय
साक्षी के
रूप में
बुलाती है
उससे दोनों
ही पक्षों
को प्रतिपरीक्षण
करने का
अधिकार होता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
जमतराज केवल
जी गोवानी
विरूद्ध
स्टेट आफ
महाराष्ट्र, ए.आई.आर.
1968 एस.सी.
178 अवलोकनीय
हैं।
यहां
न्यायालय
को भी
सर्तक रहना
चाहिए और
यदि किसी
साक्षी ने
मुख्य परीक्षण
के दौरान
कोई तथ्य
बतलाया और
प्रतिपरीक्षण
के दौरान
उसके विपरीत
कोई तथ्य
बतलाया हो
और दोनों
तथ्य ऐसे
है जिनका
एक साथ
अस्तित्व
में रहना
संभव नहीं
है तब
साक्षी से
पुनःपरीक्षण
में यह
स्पष्टीकरण
लेना चाहिए
की दोनों
बातों में
से कौन
सी बात
उसके हिसाब
से सही
है ताकि
भरम की
स्थिति न
रहे ऐसे
मामलों में,
निर्णय
के समय,
यदि
भरम दूर
नहीं किया
गया हो
तो अत्यंत
कठिनाई होती
है और
किस तथ्य
को माना
जावे और
किसे न
माना जावे
यह संकट
उत्पन्न होता
है जिससे
बचने के
लिए उसी
समय अर्थात
साक्षी का
प्रतिपरीक्षण
पूर्ण होते
ही पुनःपरीक्षण
कर लेना
उचित होता
हैं।
प्रतिपरीक्षण
के बाद
फिर प्रतिपरीक्षण
कुछ
मामलों में
एक से
अधिक अभियुक्त
होते है
एक अभियुक्त
का प्रतिपरीक्षण
संबंधित गवाह
से पूर्ण
हो जाता
है उसके
बाद दूसरा
अभियुक्त
का प्रतिपरीक्षण
होता है
और यदि
उस प्रतिपरीक्षण
में प्रथम
अभियुक्त
के विरूद्ध
कोई तथ्य
आते है
तब प्रथम
अभियुक्त
की ओर
से पुनः
प्रतिपरीक्षण
की मांग
की जाती
है ऐसी
स्थिति में
न्याय दृष्टांत
सी.टी.
मूनीयप्पन
विरूद्ध
स्टेट आफ
मद्रास, ए.आई.आर.
1961 एस.सी.
175 से
मार्गदर्शन
लेना चाहिए
जिसमें यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
साक्ष्य
अधिनियम में
प्रतिपरीक्षण
के दूसरे
दौर के
बारे में
कोई प्रावधान
नहीं है
लेकिन यदि
किसी अभियुक्त
के विरूद्ध
किसी साक्षी
ने अन्य
अभियुक्त
द्वारा किये
गये प्रतिपरीक्षण
के दौरान
कुछ कहां
है तब
उस अभियुक्त
को अतिरिक्त
प्रतिपरीक्षण
का अधिकार
बनेगा अतः
ऐसे मामले
में अतिरिक्त
प्रतिपरीक्षण
का अवसर
देना चाहिए।
प्रतिपरीक्षण
न करने
पर उत्पन्न
स्थिति
कभी-कभी
किसी गवाह
से कोई
पक्ष प्रतिपरीक्षण
नहीं करता
है और
बाद में
इस संबंध
में आपत्ति
लेता है
कि उसे
प्रतिपरीक्षण
का अवसर
हीं नहीं
दिया गया
ऐसी स्थिति
से बचने
के लिए
साक्षी के
डिपोजिशन
सीट में
निम्न प्रकार
से नोट
लगा सकते
है:-
प्रतिपरीक्षण
द्वारा श्री
एक्स अभिभाषक
द्वारा
अभियुक्त
/वादी/प्रार्थी
कुछ
नहीं (अवसर
दिया गया
था)
न्याय
दृष्टांत
यूनियन आफ
इंडिया विरूद्ध
टी.आर.
वर्मा,
ए.आई.आर.
1957 एस.सी.
882 में
पाच न्याय
मूर्तिगण
की पीठ
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि साक्षी
के कथन
में ऐसा
लेख नहीं
है की
कोई प्रतिपरीक्षण
नहीं किया
गया लेकिन
यह कहां
जा सकता
है की
कोई प्रतिपरीक्षण
नहीं किया
गया क्योंकि
ऐसा अभिलेख
भी नहीं
है कि
पक्षकार ने
प्रतिपरीक्षण
करना चाहा
और उसे
अस्वीकार
कर दिया
अतः यही
माना जायेगा
की साक्षी
से कोई
प्रतिपरीक्षण
नहीं किया
गया।
सामान्यतः
उपर जो
नोट बतलाया
गया है
यदि वैसा
लिख दिया
जाता है
तो अभिलेख
से ही
स्पष्ट हो
जायेगा की
साक्षी से
प्रतिपरीक्षण
नहीं किया
गया है
यद्यपि अवसर
दिया गया
था।
बिना
मुख्य परीक्षण
के प्रतिपरीक्षण
न्याय
दृष्टांत
सुखवंत सिंह
विरूद्ध
स्टेट आफ
पंजाब, ए.आई.आर.
1995 एस.सी.
1601 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
गवाह का
मुख्य परीक्षण
करवाये बिना
उसे प्रतिपरीक्षण
के लिए
टेण्डर करना
यह दर्शाता
है कि
अभियोजन ने
गवाह का
मुख्य परीक्षण
नहीं करवाना
चाहा और
यह तथ्य
अभियोजन के
मामले को
प्रतिकूल
रूप से
प्रभावित
करता हैं।
दस्तावेज
पेश करने
वाला व्यक्ति
धारा
139 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
अनुसार किसी
दस्तावेज
को पेश
करने के
लिए संमन
किया गया
व्यक्ति इस
तथ्य के
कारण की
वह दस्तावेज
पेश करता
है साक्षी
नहीं हो
जाता है
और उसे
जब तब
साक्षी के
तौर पर
नहीं बुलाया
जाता उसकी
प्रतिपरीक्षा
नहीं की
जा सकती
हैं।
न्याय
दृष्टांत
श्रीमती
परमेश्वरी
देवी विरूद्ध
स्टेट, ए.आई.आर.
1977 एस.सी.
403 में
तीन न्याय
मूर्तिगण
की पीठ
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि धारा
94 (1) दं.प्र.सं.
1898 की
पालना में
उपस्थित
व्यक्ति गवाह
नहीं हो
जाता है
और उसकी
परीक्षा और
प्रतिपरीक्षा
नहीं की
जा सकती
हैं।
इस
तरह कभी-कभी
कोई पक्षकार
किसी व्यक्ति
को केवल
दस्तावेज
पेश करने
के लिए
संमन करते
है तब
इस तथ्य
को ध्यान
रखना चाहिए
की आदेश
पत्र में
उस व्यक्ति
द्वारा पेश
किये गये
दस्तावेजों
का उल्लेख
कर लेना
चाहिए दस्तावेज
मूल है
या फोटोप्रद
यह भी
लेख कर
लेना चाहिए
और उसे
व्यक्ति को
दस्तावेज
पेश करने
के बाद
उन्मोचित
कर देना
चाहिए या
जाने देना
चाहिए।
सूचक
प्रश्न
धारा
141 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत कोई
प्रश्न जो
उस उत्तर
को सुझाता
है जिसे
पूछने वाला
व्यक्ति पाना
चाहता है
या पाने
की आशा
करता है
उसे सूचक
प्रश्न कहां
जाता हैं।
सामान्यतः
सूचक प्रश्न
की पहचान
यह होती
है कि
उस प्रश्न
में ही
उत्तर निहित
होता हैं
अतः सावधानीपूर्वक
यह निर्धारण
करना चाहिए
की कोई
प्रश्न सूचक
प्रश्न है
या नहीं।
धारा
142 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत सूचक
प्रश्न मुख्य
परीक्षा में
या पुनः
परीक्षा में
यदि विपक्षी
आपत्ति करता
है तब
न्यायालय
की अनुमति
के बिना
नहीं पूछे
जाना चाहिए।
न्यायालय
उन बातों
के बारे
में जो
परिचायात्मक
या र्निविवाद
या पहले
से पर्याप्त
रूप से
साबित हो
चुके है
उनके बारे
में सूचक
प्रश्न पूछने
की अनुमति
दे सकता
हैं।
धारा
143 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत सूचक
प्रश्न
प्रतिपरीक्षण
में पूछे
जा सकते
हैं।
न्याय
दृष्टांत
वर्की जोसफ
विरूद्ध
स्टेट आफ
केरल, ए.आई.आर.
1993 एस.सी.
1892 में यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
अभियोजक
साक्ष्य के
तात्विक
भागों के
बारे में
गवाह से
सूचक प्रश्न
नहीं पूछ
सकते है
यह आरोपी
के निष्पक्ष
विचारण के
संवैधानिक
अधिकारों
का उल्लंघन
है यह
सुधारने
योग्य अनियमिता
नहीं हैं।
न्याय
दृष्टांत
सिद्धार्थ
विरूद्ध
एन.सी.टी.
देल्ही,
ए.आई.आर.
2010 एस.सी.
2352 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
प्रत्येक
सूचक प्रश्न
विचारण को
अवैध नहीं
कर देता
है सूचक
प्रश्न के
प्रभाव का
निर्धारण
प्रत्येक
मामले के
तथ्यों के
आधार पर
करना होता
है इस
मामले में
उक्त वर्की
जोसफ विरूद्ध
स्टेट आॅफ
केरला वाले
मामले पर
भी विचार
किया गया
और यह
प्रतिपादित
किया गया
कि दोनों
मामले के
तथ्य भिन्न
हैं।
उक्त
वैधानिक
स्थिति से
यह स्पष्ट
है कि
साक्ष्य
लेखबद्ध करते
समय न्यायाधीश
को अत्यंत
सर्तक रहना
चाहिए और
निष्पक्ष
विचारण के
संवैधानिक
अधिकारों
का उल्लंघन
न हो
इस बारे
में सर्तक
रहना चाहिए
साथ ही
सूचक प्रश्न
किस प्रकृति
का है
उसके आधार
पर विचारण
पर प्रभाव
का निर्धारण
होता हैं
और यदि
किसी प्रश्न
के बारे
में संदेह
हो की
वह सूचक
प्रश्न है
व नहीं
तो उसे
प्रश्न और
उत्तर के
रूप में
लिख लेना
चाहिए।
लेखबद्ध
विषयों पर
साक्ष्य
धारा
144 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत यदि
कोई साक्षी
किसी संविदा,
अनुदान
या संपत्ति
के अन्य
व्ययन के
बारे में
साक्ष्य दे
रहा है
जो किसी
दस्तावेज
में अंतरविष्ट
है तब
न्यायालय
की राय
में उसे
पेश किया
जाना चाहिए
था तब
दस्तावेज
के अभाव
में उस
दस्तावेज
के बारे
में साक्ष्य
नहीं लिया
जायेगा जब
तक की
दस्तावेज
पेश नहीं
किया जाता
या द्वितीयक
साक्ष्य देने
की स्थिति
साबित नहीं
हो जाती
लेकिन साक्षी
अन्य व्यक्तियों
द्वारा
दस्तावेज
के अंतर
वस्तु के
बारे में
किये गए
कथन के
बारे में
साक्ष्य दे
सकेगा यदि
वे कथन
सुसंगत तथ्य
हो।
उक्त
प्रावधान
इस सिद्धांत
पर आधारित
है कि
दस्तावेजी
साक्ष्य को
सदैव मौखिक
साक्ष्य से
प्राथमिकता
दी जाती
है क्योंकि
व्यक्ति की
स्मृति उसे
धोखा दे
सकती है
लेकिन एक
बार लेखबद्ध
किया दस्तावेज
सामान्यतः
उन तथ्यों
के बारे
में वैसा
ही रहता
हैं।
पूर्व
लेखबद्ध
कथनों के
बारे में
प्रतिपरीक्षा
धारा
145 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत किसी
साक्षी की
उन पूर्वतन
कथनों के
बारे में,
जो
उसने लिखित
रूप में
किये है
या जो
लेखबद्ध किये
है और
जो प्रश्नगत
बातों से
सुसंगत है,
ऐसा
लेख उसे
दिखाये बिना
या लेख
साबित हुये
बिना, प्रतिपरीक्षा
की जा
सकेगी, किन्तु
यदि उस
लेख द्वारा
उसका खण्डन
करने का
आशय है
तो उस
लेख को
साबित किये
जा सकने
के पूर्व
उसका ध्यान
उस लेख
के उन
भागों की
ओर आकर्षित
कराना होगा
जिनका उपयोग
उसका खण्डन
करने के
प्रयोजन से
किया जाना
हैं।
उक्त
प्रावधान
अत्यंत
महत्वपूर्ण
है और
यह किसी
भी साक्षी
के पूर्व
कथनों से
उसका खण्डन
करने के
लिए प्रायः
उपयोग में
आता है
अतः इस
प्रावधान
को ध्यान
पूर्वक समझ
लेना अत्यंत
आवश्यक है।
सामान्यतः
दाण्डिक
मामलों में
किसी व्यक्ति
का धारा
161 दं.प्र.सं.
1973 के
तहत लेखबद्ध
पुलिस कथन
अभिलेख पर
होता है
और उसके
आधार पर
उसके न्यायालय
में दिये
कथनों से
खण्डन कराया
जाता है
तब यह
ध्यान रखना
चाहिए की
धारा 145
की
शर्ते पूरी
होना चाहिए
इस संबंध
में महत्वपूर्ण
वैधानिक
स्थितिया
निम्न प्रकार
हैं:-
न्याय
दृष्टांत
चैधरी रामजी
भाई एन.
भाई
विरूद्ध
स्टेट आफ
गुजरात, ए.आई.आर.
2004 एस.सी.
313 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
किसी गवाह
को उसी
के पूर्वतन
कथनों से
धारा 145
साक्ष्य
अधिनियम में
वर्णित शर्तो
पर विरोधित
कर सकते
है किसी
अन्य गवाहों
के कथनों
से नहीं।
इस
तरह यदि
गवाह को
किसी अन्य
गवाह के
कथनों से
विरोधित
कराया जा
रहा हो
तब तत्काल
रोकना चाहिए।
न्याय
दृष्टांत
मोहन लाल
गंगाराम घासी
विरूद्ध
स्टेट आफ
महाराष्ट्र
ए.आई.आर.
1982 एस.सी.
839 में
तीन न्याय
मूर्तिगण
की पीठ
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि एक
ही व्यक्ति
द्वारा दो
परस्पर विरोधी
बयान दिये
जाना चाहिए
तभी धारा
145 आकर्षित
होती है
एक द्वारा
दिया गया
कथन दूसरे
व्यक्ति के
कथनों का
खण्डन करता
है तब
धारा 145
आकर्षित
नहीं होती।
न्याय
दृष्टांत
गोपाल विरूद्ध
सुभाष, ए.आई.आर.
2004 एस.सी.
4900 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
किसी तथ्य
के बारे
में लोप
(क्या
विरोधाभाष
कहां जा
सकता हैं)
कुछ
गवाहों ने
पुलिस कथन
में अवैध
सभा के
गठन के
बारे में
बतलाया कुछ
ने नहीं
बतलाया यह
लोप विरोधाभाष
की परिधि
में आता
है।
न्याय
दृष्टांत
माजिद विरूद्ध
स्टेट आफ
हरियाण, ए.आई.आर.
2002 एस.सी.
382 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
गवाह का
पूर्व कथन
लिखित में
नहीं था
गवाह से
उसके प्रतिपरीक्षण
में ऐसे
मौखिक पूर्व
कथन के
बारे में
नहीं पूछा
गया ऐसे
में बचाव
साक्षी ने
गवाह के
पूर्व कथन
के बारे
में जो
बयान दिये
उन्हें विश्वास
योग्य नहीं
माना गया।
न्याय
दृष्टांत
राजेन्द्र
सिंह विरूद्ध
स्टेट आफ
बिहार, ए.आई.आर.
2000 एस.सी.
1779 तीन
न्याय मूर्तिगण
की पीठ
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि गवाह
को उसके
पूर्व लिखित
कथन से
विरोधित नहीं
करवाया गया
मजिस्टेट
प्रतिरक्षा
साक्षी ने
स्वीकार किया
कि कथनों
पर उसके
कार्यालय
की सील
या हस्ताक्षर
नहीं है
ऐसे कथन
को पूर्व
कथन नहीं
माना गया
साथ ही
धारा 145
के
अनुसार गवाह
का ध्यान
भी पूर्व
कथनों पर
नहीं दिलाया
गया।
न्याय
दृष्टांत
भगवान सिंह
विरूद्ध
स्टेट आफ
पंजाब, ए.आई.आर.
1952 एस.सी.
214
धारा 145
की
तात्विक
पालना क्या
है इस
बारे में
प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 145
की
पालना कोई
हार्ड एण्ड
फास्ट नियम
नहीं है
केवल गवाह
को निष्पक्ष
व युक्तियुक्त
अवसर विरोधाभाष
के स्पष्टीकरण
के लिए
मिल जाना
चाहिए धारा
145 की
सार रूप
में पालना
हो जाना
चाहिए पालना
का प्रारूप
निर्धारित
नहीं हैं।
न्याय
दृष्टांत
निशार अली
विरूद्ध
स्टेट आफ
यू.पी.,
ए.आई.आर.
1957 एस.सी.
366 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि जहां
आरोपी द्वारा
लिखाई गई
प्रथम सूचना
प्रतिवेदन
हो तब
एफ.आई.आर.
तात्विक
साक्ष्य नहीं
होने के
कारण इसे
लिखवाने वाले
कथनों के
खण्डन या
पुष्टि में
प्रयोग कर
सकते हैं
यह लिखवाने
वाले के
विरूद्ध
उपयोग में
नहीं ली
जा सकती।
न्याय
दृष्टांत
तहसीलदार
सिंह विरूद्ध
स्टेट आफ
यू.पी.,
ए.आई.आर.
1959 एस.सी.
1012 में
6 न्याय
मूर्तिगण
की पीठ
ने धारा
145 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
उपयोग की
विधि पर
प्रकाश डाला
है और
प्रक्रिया
बतलाई है
जिसके अनुसार
साक्षी का
ध्यान उसके
पूर्व कथन
के उस
भाग की
ओर दिलवाना
चाहिए जिससे
उसके वर्तमान
कथनों का
खण्डन करवाया
जा रहा
हैं यह
न्याय दृष्टांत
धारा 162
दं.प्र.सं.
के
बारे में
भी मार्गदर्शक
हैं।
जहां
तक परिवाद
पत्र का
प्रश्न है
परिवाद पत्र
को तात्विक
साक्ष्य नहीं
माना जाता
है और
उसे परिवादी
के कथनों
की पुष्टि
या उसके
खण्डन के
लिए धारा
145 एवं
धारा 157
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत उपयोग
में लिया
जा सकता
हैं जैसा
की न्याय
दृष्टांत
किशन लाल
विरूद्ध
मुरलीधर, आई.एल.आर.
(2008) एम.पी.
1237 में
प्रतिपादित
किया गया
है।
न्याय
दृष्टांत
दिलीप विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
आई.एल.आर.
(2011) एम.पी.
1082 में
माननीय म0प्र0
उच्च
न्यायालय
की खण्ड
पीठ ने
यह प्रतिपादित
किया है
कि यदि
पूर्वतन कथन
डिस्क या
टेप में
एक साक्षात्कार
के दौरान
रिकोर्ड किये
गये हो
तब भी
उन्हें धारा
145 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत उसमें
दिए गए
उद्देश्यों
के लिए
उपयोग में
लिया जा
सकता है
यदि वे
अन्य सभी
अर्हताए
पूरी करते
हो इस
तरह डिस्क
व टेप
के कथन
भी पूर्वतन
कथन माने
जाते हैं।
न्याय
दृष्टांत
उतपल दास
विरूद्ध
स्टेट आफ
वेस्ट बंगाल,
(2010) 6 एस.सी.सी.
493 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
प्रथम सूचना
प्रतिवेदन
और धारा
164 दं.प्र.सं.
के
तहत लिखे
गये कथन
तात्विक
साक्ष्य नहीं
होते है
ये केवल
पूर्वतन कथन
की तरह
उसे करने
वाले व्यक्ति
के कथनों
की पुष्टि
या खण्डन
के लिए
या उसके
सत्यवादीता
को परखने
के लिए
उपयोगी होते
है लेकिन
खण्डन के
लिए उनका
उपयोग तभी
कर सकते
है जब
साक्षी का
ध्यान कथन
की उस
भाग की
ओर आकर्षित
किया जाये।
न्याय
दृष्टांत
रघुनंदन
विरूद्ध
स्टेट आफ
यू.पी.,
ए.आई.आर.
1974 एस.सी.
463 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
न्यायाधीश
धारा 165
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत दी
शक्तियों
का प्रयोग
करते समय
धारा 161
दं.प्र.सं.
1973 के
तहत लेखबद्ध
किसी साक्षी
के कथनों
को तब
भी उपयोग
में ले
सकती है
जब वह
साक्षी
प्रतिरक्षा
साक्षी के
रूप में
परिक्षित
करवाया जा
रहा हो
धारा 162
दं.प्र.सं.
के
निषेध के
बावजूद यह
शक्ति न्यायाधीश
को इसी
लिए दी
गई हैं
ताकि न्यायदान
में सहायता
हो सके।
न्याय
दृष्टांत
केशर सिंह
विरूद्ध
स्टेट, ए.आई.आर.
1988 एस.सी.
1883 में
तीन न्याय
मूर्तिगण
की पीठ
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि गवाह
द्वारा कमीशन
के समक्ष
किये गये
कथनों का
उपयोग उसके
विरोधाभाष
या उसकी
साख को
धक्का लगाने
के लिए
उपयोग में
नहीं लिए
जा सकते
हैं क्योंकि
धारा 6
कमीशन
आफ इंक्वारी
एक्त, 1952 की
बाधा आती
है।
इस
तरह धारा
145 एक
महत्वपूर्ण
प्रावधान
है जो
किसी भी
गवाह के
पूर्वतन
कथनों से
जो लिखित
है या
लेखबद्ध किये
गये है
उनसे खण्डन
करने के
लिए उपयोगी
प्रावधान
हैं।
साक्षीगण
का संरक्षण
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम में
गवाह के
संरक्षण के
बारे में
भी प्रावधान
किये गये
है सामान्यतः
कोई भी
व्यक्ति किसी
मामले में
गवाह देने
से बचना
चाहता है
इस कई
कारण है
जिनमें एक
कारण विपक्षी
द्वारा साक्षी
से किये
जाने वाला
प्रतिपरीक्षण
भी हैं
यदि न्यायालय
गवाह के
संरक्षण के
बारे में
आवश्यक वैधानिक
प्रावधानों
का उपयोग
करे तो
न केवल
प्रतिपरीक्षण
नियंत्रित
रहता है
बल्कि गवाह
को भी
संरक्षण
मिलता है
और केवल
मामले के
लिए उपयोगी
तथ्य ही
अभिलेख पर
आते है
अतः साक्ष्य
लेखबद्ध करते
समय इन
महत्वपूर्ण
प्रावधानों
को ध्यान
में रखना
चाहिए।
प्रतिपरीक्षण
में विधि
पूर्ण प्रश्न
धारा
146 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत जब
किसी साक्षी
से प्रतिपरीक्षण
की जाती
है तब
उससे निम्न
प्रकार के
प्रश्न पूछे
जा सकते
है:-
1. ऐसे
प्रश्न जिनकी
प्रवृत्ति
उसकी सत्यवादीता
परखने की
है।
2. यह
पता चलाने
की है
कि वह
कौन है
और जीवन
में उसकी
स्थिति क्या
हैं।
3. उसके
सील को
दोष लगाकर
उसकी विश्वसनीयता
को धक्का
पहुचाने की
हैं, चाहे
ऐसे
प्रश्नों
का उत्तर
उसे प्रत्यक्षतः
या परोक्षतः
अपराध में
फसाने की
प्रवृत्ति
रखता है
या
उसे किसी
शास्ति या
संपहरण के
लिए जोखिम
में डालता
है।
परंतु
बलात्संग
या बलात्संग
करने के
प्रयत्न के
किसी अभियोजन
में यह
अनुमति नहीं
होगी कि
अभियोक्त्री
की प्रतिपरीक्षा
में उसके
साधारण अनैतिक
चरित्र के
बारे में
प्रश्न पूछे
जाये।
धारा
146 में
प्रश्नों
की प्रकृति
पर प्रकाश
डाला गया
है जो
किसी साक्षी
से प्रतिपरीक्षण
में पूछे
जा सकते
हैं लेकिन
धार 147
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम में
यह प्रावधान
भी किया
गया है
कि यदि
ऐसा कोई
प्रश्न उस
वाद या
कार्यवाही
से सुसंगत
किसी बात
से संबंधित
है तब
धारा 132
लागू
होगी।
धारा
132 में
यह प्रावधान
है कोई
साक्षी किसी
वादी या
किसी सिविल
या दाण्डिक
कार्यवाही
में विवाध्यक
विषय से
सुसंगत किसी
विषय के
बारे में
किये गये
किसी प्रश्न
का उत्तर
देने से
इस आधार
पर क्षम्य
नहीं होगा
की ऐसे
प्रश्न का
उत्तर उस
साक्षी को
अपराध में
फसायेगा या
फसा सकता
है या
किसी किस्म
की शास्ति
या संपहरण
के जोखिम
डालेगा परंतु
वह उत्तर
जिसे देने
के लिए
साक्षी को
विवश किया
जायेगा उसकी
गिरफ्तारी
या अभियोजन
के अधीन
नहीं करेगा
और मिथ्या
साक्ष्य देने
के अलावा
किसी अन्य
कार्यवाही
में साबित
नहीं किया
जा सकेगा।
न्याय
दृष्टांत
देव नारायण
हलधर विरूद्ध
अनुश्री
हलधर, ए.आई.आर.
2003 एस.सी.
3174 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
पत्नी द्वारा
भरण पोषण
के मामले
में पत्नी
का न
तो ऐसा
अभिवचन था
और न
प्रमाण था
की पति
का अन्य
महिला से
प्रेम संबंध
हैं पति
द्वारा पेश
गवाह से
इस बारे में प्रश्न
करना यह
अनुमत नहीं
है ऐसे
प्रश्नों
की अनुमति
नहीं दी
जाना चाहिए
जो कि
एक महिला
जो मामले
की पक्षकार
नहीं है
उसके चरित्र
पर आक्षेप
करते है
जबकि न
तो इस
बारे में
महिला पत्नी
का अभिवचन
था और
न कोई
प्रमाण दिया
था अतः
ऐसे प्रश्नों
को अस्वीकार
करना चाहिये।
न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
पंजाब विरूद्ध
हाकम सिंह,
ए.आई.आर.
2005 एस.सी.
3759 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि ग्रामीण
क्षेत्र की
महिला से
अपराध में
प्रयुक्त
आयुध के
बारे में
ऐसे प्रश्न
की वह
गन थी
या रायफल
थी यह
अत्यंत
अवास्तविक
एप्रोच है
क्योंकि एक
ग्रामीण
महिला से
गन, रायफल,
बोर
में अंतर
बताने की
अपेक्षा करना
उचित नहीं
हैं।
उक्त
न्याय दृष्टांतों
से यह
समझा जा
सकता है
कि धारा
146 के
अंतर्गत यदि
कोई प्रश्न
प्रतिपरीक्षण
में पूछे
जाते है
तो उन
प्रश्नों
को किस
प्रकार विचार
करके पूछने
की अनुमति
लेना चाहिए
या प्रश्नों
को अस्वीकृत
करना चाहिए।
धारा
148 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम में
भी न्यायालय
को उक्त
प्रश्नों
को स्वीकार
या अस्वीकार
करने के
बारे में
पर्याप्त
शक्तिया
दी गई
हैं और
यह उपबंध
किया गया
है कि
केवल किसी
साक्षी शील
को दोष
लगाकर उसकी
विश्वसनीयता
को प्रभावित
करना है
तब न्यायालय
मामले की
प्रकृति को
देखते हुये
प्रश्नों
की प्रकृति
और लान्छन
की मात्रा
और मामले
की प्रकृति
पर पड़ने
वाली प्रभाव
के प्रकाश
में प्रश्नों
को स्वीकृत
या अस्वीकृत
कर सकते
हैं और
इसके लिए
धारा 148
में
कुछ मार्गदर्शक
सिद्धांत
भी दिये
गये हैं।
धारा
149 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत यदि
प्रश्न पूछने
वाले व्यक्ति
के पास
लान्छन के
सुआधारित
होने के
युक्तियुक्त
आधार न
हो तो
प्रश्न नहीं
पूछा जा
सकता।
धारा
149 में
कुछ उदाहरण
देकर प्रश्नों
के सुआधारित
होने की
स्थिति को
स्पष्ट किया
है।
धारा
150 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत यदि
न्यायालय
की यह
राय है
कि कोई
प्रश्न
युक्तियुक्त
आधार के
बिना पूछा
गया था
तो वह
संबंधित
प्लीडर या
वकील के
बारे में
उच्च न्यायालय
को या
संबंधित
प्राधिकारी
जिसके अधीन
वह प्लीडर
या वकील
अपना कारोबार
करता है
उसको रिपोर्ट
कर सकेगा।
धारा
150 में
न्यायालय
को संबंधित
वकील के
विरूद्ध
युक्तियुक्त
आधार के
बिना प्रश्न
पूछने पर
कार्यवाहिया
करने की
शक्तिया
दी गई
हैं।
धारा
151 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत न्यायालय
अशिष्ट और
कलंकात्मक
प्रश्न को
भी निषेधित
कर सकता
हैं साथ
ही धारा
152 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत न्यायालय
अपमानित या
क्षुब्ध करने
के आशय
से पूछे
गये प्रश्नों
को भी
निषेधित कर
सकता हैं।
धारा
153 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत सत्यवादीता
परखने के
लिए पूछे
गये प्रश्नों
के उत्तर
के खण्डन
साक्ष्य देने
पर रोक
लगायी गई
हैं।
न्याय
दृष्टांत
गोविन्द
विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
2005 सी.आर.एल.जे.
144 (एम.पी.)
में
माननीय म.प्र.
उच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि न्यायालय
को यह
सुनिश्चित
कर लेना
चाहिए की
प्रतिपरीक्षण
एक परेशान
करने का
साधन या
अपराध के
पीडित को
अवमानित करने
या नीचा
दिखाने के
लिए नहीं
होना चाहिए
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
पंजाब विरूद्ध
गुरमीत सिंह,
1966 एस.सी.सी.
(क्रिमिनल)
316 भी
अवलोकनीय
हैं।
पक्षकार
द्वारा अपने
ही साक्षी
से प्रश्न
धारा
154 (1) भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत न्यायालय
उस व्यक्ति
को जो
किसी साक्षी
को बुलाता
है उस
साक्षी से
ऐसे प्रश्न
करने की
अनुमति दे
सकते है
जो विपक्षी
द्वारा
प्रतिपरीक्षण
में किये
जा सकते
है।
धारा
154 (2) के
तहत इस
धारा की
कोई बात
साक्षी के
साक्ष्य के
किसी भाग
का अवलंबन
लेने के
हक से
वंचित नहीं
करेंगे।
यह
एक महत्वपूर्ण
प्रावधान
है जिसे
समझ लेना
आवश्यक है
कभी-कभी
कोई पक्ष
किसी साक्षी
को साक्ष्य
देने के
लिए बुलाता
है और
वह साक्षी
उस पक्ष
का समर्थन
नहीं करता
है तब
ऐसी स्थिति
उत्पन्न होती
हैं।
ऐसे
समय संबंधित
पक्ष यह
प्रार्थना
करता है
कि साक्षी
पक्ष विरोधी
घोषित किया
जाये लेकिन
यह ध्यान
रखना चाहिए
भारतीय साक्ष्य
अधिनियम में
पक्ष विरोधी
जैसा कोई
शब्द नहीं
है माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने भी
न्याय दृष्टांत
सतपाल विरूद्ध
देल्ही
एडमिनिशटेशन,
ए.आई.आर.
एस.सी.
294 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि पक्ष
विरोधी घोषित
या प्रतिकूल
घोषित जैसे
शब्दों का
प्रयोग नहीं
करना चाहिए
धारा 154
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम की
शक्तिया
असीमित है
परंतु इनका
उपयोग नर्मरूख
रख कर
करना चाहिए
और प्रश्न
पूछने की
अनुमति देना
चाहिए।
जब
कोई पक्ष
अपने ही
साक्षी से
प्रश्न करना
चाहे तब
साक्षी के
डिपोजिशन
सीट में
निम्न प्रकार
का नोट
लगा देना
चाहिए:-
नोट
- अभियोजन/वादी
/प्रार्थी
ने साक्षी
से सूचक
प्रश्न और
ऐसे सभी
प्रश्न पूछने
की अनुमति
चाही जो
प्रतिपरीक्षण
में प्रतिरक्षा
पक्ष द्वारा
पूछे जा
सकते है
अभिलेख का
अवलोकन किया
उभय पक्ष
को सुना
बाद विचार
अनुमति दी
गई।
सूचक
प्रश्न द्वारा
श्री एक्स
अभिभाषक
कभी-कभी
साक्षी का
प्रतिपरीक्षण
पूर्ण हो
जाने के
बाद ऐसी
अनुमति चाही
जाती है
तब यह
प्रश्न उत्पन्न
होता है
कि साक्षी
का मुख्य
परीक्षण और
प्रतिपरीक्षण
पूर्ण हो
जाने के
बाद क्या
ऐसी अनुमति
दी जा
सकती है
? इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
डाया भाई
छगन भाई
ठक्कर विरूद्ध
स्टेट आफ
गुजरात, ए.आई.आर.
1964 एस.सी.
1563 तीन
न्याय मूर्तिगण
की पीठ
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
जो पक्ष
किसी साक्षी
को बुलाता
है न्यायालय
उसे पुनः
परीक्षण में
भी उसे
ऐसे प्रश्न
पूछने की
अनुमति दे
सकते है
जो प्रतिपरीक्षण
में प्रतिरक्षा
पक्ष द्वारा
पूछे जाते
हैं क्योंकि
चतुर गवाह
मुख्य परीक्षण
में संबंधित
पक्ष का
समर्थन कर
देते है
और प्रतिपरीक्षण
में पलट
जाते हैं
ऐसे में
पुनःपरीक्षण
में उस
पक्ष को
अनुमति मिलना
जरूरी है
और ऐसे
पुनः परीक्षण
में विपक्षी
को प्रतिपरीक्षण
का अवसर
नहीं होगा।
कभी-कभी
यह प्रश्न
उत्पन्न होता
है कि
क्या कमीश्नर
साक्षी को
पक्ष विरोधी
घोषित कर
सकते है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
सलेम एडवोकेट
बार एसोसिएशन
तमिलनाडू
विरूद्ध
यूनियन आफ
इंडिया, (2005) 6 एस.सी.
344 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
कमीश्नर किसी
साक्षी को
पक्ष विरोधी
घोषित नहीं
कर सकते
है यह
न्यायालय
का विवेकाधिकार
है और
न्यायालय
से ही
इस संबंध
में अनुमति
लेनी होती
है अर्थात
सूचक प्रश्न
और ऐसे
सभी प्रश्न
जो प्रतिपरीक्षण
में पूछे
जा सकते
है उनके
लिए न्यायालय
से अनुमति
आवश्यक है
कमीश्नर को
ऐसी शक्तिया
नहीं है
की वे
ऐसी अनुमति
दे सके।
साक्षी
की विश्वसनीयता
पर अधिक्षेप
धारा
155 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत किसी
साक्षी की
विश्वसनीयता
पर विपक्षी
द्वारा या
न्यायालय
की अनुमति
से उस
पक्षकार
द्वारा जिसने
उसे बुलाया
है निम्न
प्रकार से
अधिक्षेप
किया जा
सकता है:-
1. उन
व्यक्तियों
की साक्ष्य
के द्वारा,
जो
यह परिसाक्ष्य
देते है
कि वे
उनके ज्ञान
के आधार
पर उस
साक्षी को
विश्वसनीयता
का अपात्र
समझते है।
2. यह
साबित किये
जाने के
द्वारा कि
साक्षी को
रिश्वत दी
गई है
या उसने
रिश्वत लेने
का प्रस्ताव
स्वीकार कर
लिया है
या उसे
साक्ष्य देने
के लिए
कोई अन्य
भ्रष्ट प्रेरणा
मिली है।
3. उसकी
साक्ष्य के
किसी ऐसे
भाग से,
जिसका
खण्डन किया
जा सकता
है, असंगत
पिछले कथनों
को साबित
करने के
द्वारा।
इस
तरह धारा
155 साक्षी
की विश्वसनीयता
परखने का
एक तरीका
बतलाती है।
सुसंगत
तथ्य के
साक्ष्य की
पुष्टि में
साक्ष्य
धारा
156 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत जबकि
कोई साक्षी,
जिसकी
पुष्टि करना
आशयित हो,
किसी
सुसंगत तथ्य
का साक्ष्य
देता है
तब उससे
ऐसी अन्य
किन्ही भी
परिस्थितियों
के बारे
में प्रश्न
किया जा
सकेगा जिन्हें
उसमें उस
समय या
स्थान पर
या के
निकट आब्जर्व
किया था,
जिस
पर ऐसा
सुसंगत तथ्य
घटित हुआ
था, यदि
न्यायालय
की राय
हो की
ऐसी परिस्थिति
में यदि
वे साबित
हो जाये
तो साक्षी
के उस
सुसंगत तथ्य
के बारे
में जिसका
वह साक्ष्य
देता है
पुष्टि करेगी।
ए
एक सह-अपराधी
जिसने किसी
लूट में
भाग लिया
था उसका
विवरण देता
है वह
लूट से
असंबंधित
विभिन्न
घटनाओं का
वर्णन करता
है जो
घटना स्थल
की ओर
जाते हुए
और वहां
से आते
हुए मार्ग
में घटित
हुई थी
इन तथ्यों
का साक्ष्य
उस लूट
के बारे
में सह-अपराधी
भी साक्ष्य
की पुष्टि
के लिए
दिया जा
सके।
साक्षी
की साक्ष्य
की पुष्टि
के लिए
पूर्वतन कथन
की साक्ष्य
धारा
157 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत किसी
साक्षी के
साक्ष्य की
पुष्टि के
लिए उस
साक्षी द्वारा
उसी तथ्य
से संबंधित
उस समय
पर या
उसके लगभग
जब वह
तथ्य घटित
हुआ था
किया हुआ
या उस
तथ्य के
बारे में
अन्वेषण
अधिकारी या
किसी अन्य
प्राधिकारी
के समक्ष
दिया हुआ
पूर्वकथन
साबित किया
जा सकेगा।
परिवादी
घटना के
ठीक पश्चात
जो प्रथम
सूचना प्रतिवेदन
लेखबद्ध
करवाता है
वह इसी
श्रेणी का
साक्ष्य हैं।
धारा
164 दं.प्र.सं.,
1973 के
तहत मृत्यु
की प्रत्यासा
में दिया
गया कथन
यदि व्यक्ति
की मृत्यु
नहीं होती
है तो
वह धारा
32 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत ग्राह्य
नहीं होता
है लेकिन
उसी व्यक्ति
के न्यायालय
कथन की
पुष्टि के
लिए धारा
157 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत ग्राह्य
होता है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
गजूला सूर्या
प्रकाश राव
विरूद्ध
स्टेट आफ
आंध्रप्रदेश
(2010) 1 एस.सी.सी.
81 अवलोकनीय
हैं।
घटना
के ठीक
पश्चात जिस
व्यक्ति को
घटना का
वृतांत बताया
गया हो
उसकी साक्ष्य
ग्राह्य होती
है और
धारा 157
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम
पुष्टि कारक
भी होती
हैं।
क्लेक
केस में
प्रार्थी
द्वारा
प्रस्तुत
प्रथम सूचना
प्रतिवेदन
को उसे
लेखबद्ध
करवाने वाले
के कथन
करवाये बिना
भी विचार
में लिया
जा सकता
हैं। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
अरूण कुमार
विरूद्ध
श्रीमती
तेरासी, 2008 (1) एम.पी.एच.टी.
457 अवलोकनीय
हैं।
धारा
32 एवं
33 के
तहत सुसंगत
और साबित
कथनों के
बारे में
साक्ष्य
धारा
158 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत यदि
कोई कथन
जो धारा
32 या
33 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत सुसंगत
है और
साबित कर
दिये जाते
है तब
उसके खण्डन
के लिए
या पुष्टि
के लिये
या जिस
व्यक्ति
द्वारा वे
किये गये
थे उसके
विश्वसनीयता
को चुनौती
देने या
पुष्ट करने
के लिए
सभी बाते
साबित की
जा सकेगी
यदि वह
व्यक्ति
साक्षी के
रूप में
बुलाया होता
तो उसके
प्रतिपरीक्षण
में उसकी
सत्यता के
इंकार के
लिए साबित
की जा
सकती।
साक्षी
की स्मृति
ताजा करना
धारा
159 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत कोई
साक्षी उस
लेख द्वारा
उसकी स्मृति
ताजा कर
सकता हैं
जो उसने
उस संव्यवहार
के समय
जिसके संबंध
में उससे
प्रश्न किया
जा रहा
है या
उसके ठीक
पश्चात बनाया
हो जो
न्यायालय
के राय
में उस
समय उसकी
स्मृति में
ताजा था
उससे स्मृति
ताजा कर
सकेगा।
यदि
ऐसा लेख
किसी अन्य
व्यक्ति
द्वारा तैयार
किया गया
हो और
साक्षी ने
उस समय
उसको पढ़कर
सही होना
माना था
उससे भी
स्मृति ताजा
कर सकता
है।
कभी-कभी
ऐसी स्थिति
बनती है
कि किसी
गवाह का
कथन बहुत
समय बाद
होता है
मानव स्वभाव
में तथ्यों
को भूलने
की एक
प्रवृत्ति
होती है
उसी को
ध्यान में
रखते हुये
यह प्रावधान
किया गया
है जिसके
अनुसार कोई
व्यक्ति
स्वयं द्वारा
तैयार किया
गया या
किसी अन्य
द्वारा तैयार
किया गया
और उसके
द्वारा पढ़कर
सही होना
माना गया
कोई दस्तावेज
देखकर अपनी
स्मृति ताजा
कर सकता
हैं यह
आवश्यकता
का भी
नियम है
कई बार
कुछ अनुसंधान
अधिकारी कई
कार्यवाहियों
में भाग
लेते है
और उनके
द्वारा
प्रत्येक
कार्यवाही
का विवरण
याद रखना
संभव नहीं
होता है
उस समय
वे उनके
द्वारा तैयार
किये गये
पंचनामों
से न्यायालय
की अनुमति
से अपनी
स्मृति ताजा
कर सकते
हैं।
धारा
159 के
द्वितीय भाग
के अनुसार
कोई साक्षी
दस्तावेज
के प्रतिलिपि
को भी
देख सकता
है और
अपनी स्मृति
ताजा कर
सकता है
परंतु ऐसे
मामलों में
मूल दस्तावेज
प्रस्तुत न
करने के
पर्याप्त
कारण होना
चाहिए।
विशेषज्ञ
उनके विषय
की पुस्तको
को देखकर
स्मृति ताजा
कर सकते
हैं।
धारा
161
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
अनुसार यदि
द्विपक्षी
अपेक्षा करे
तब उसे
उन दस्तावेजों
को दिखाना
होगा जिसके
आधार पर
साक्षी ने
अपनी स्मृति
ताजा की
है।
दस्तावेज
का पेश
किया जाना
धारा
162 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत यदि
किसी व्यक्ति
को किसी
दस्तावेज
पेश करने
का संमन
मिलता है
और दस्तावेज
उस व्यक्ति
के कब्जे
या शक्ति
में हो
तो वह
उसे न्यायालय
में लायेगा
चाहे उसे
पेश करने
या उसकी
ग्राह्यता
के बारे
में कोई
आपत्ति है
तो उसका
निराकरण
न्यायालय
द्वारा किया
जायेगा।
न्यायालय
यदि ठीक
समझे तो
उस दस्तावेज
का यदि
वह राज्य
की बातों
के बारे
में नहीं
है निरीक्षण
कर सकेगा
या ग्राह्यता
के बारे
में अन्य
साक्ष्य ले
सकेगा।
न्यायालय
ऐसे किसी
दस्तावेज
का अनुवाद
करवाना उचित
माने तो
वह अनुवाद
भी करवा
सकेगा और
अनुवादक उसकी
अंतर वस्तु
को गुप्त
रखेगा।
धारा
163 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत यदि
एक पक्ष
का किसी
दस्तावेज
को पेश
करने के
लिए दूसरे
पक्षकार को
सूचना देता
है और
उसे मगाता
है और
ऐसे दस्तावेज
पेश कर
दिये जाते
है और
उसका निरीक्षण
भी कर
लिया जाता
है तब
उसे मगाने
वाला पक्षकार
विपक्षी के
अपेक्षा करने
पर उसे
साक्ष्य के
रूप में
देने के
लिए बाध्य
होता हैं।
धारा
164 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 के
तहत कोई
पक्षकार किसी
दस्तावेज
को सूचना
मिलने के
बाद भी
पेश करने
से इंकार
कर देता
है तब
वह न्यायालय
के अनुमति
के बिना
या दूसरे
पक्षकार की
सहमति के
बिना पेश
नहीं कर
सकता।
न्याय
दृष्टांत
पिपुल्स
यूनियन फार
सिविल लिबरर्टीस
विरूद्ध
यूनियन आफ
इंडिया, ए.आई.आर.
2004 एस.सी.
1442 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
दस्तावेज
राज्य के
मामले के
बारे में
होना चाहिए
और उसका
सामने आना
राज्य के
हित के
विरूद्ध होना
चाहिए तभी
उसे पेश
नहीं किया
जा सकेगा।
प्रश्न
पूछने की
या पेश
करने का
आदेश देने
की न्यायाधीश
की शक्ति
धारा
165 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत कोई
न्यायाधीश
सुसंगत तथ्यों
का पता
लगाने के
लिए या
उनका उचित
प्रमाण प्राप्त
करने के
लिए किसी
भी रूप
में किसी
भी समय
किसी भी
साक्षी या
पक्षकार से
किसी भी
सुसंगत या
विसंगत तथ्य
के बारे
में कोई
भी प्रश्न
जो वह
चाहे पूछ
सकेगा तथा
किसी भी
दस्तावेज
या वस्तु
को पेश
करने का
आदेश दे
सकेगा और
कोई पक्षकार
या उसका
अभिकर्ता
ऐसे प्रश्न
या आदेश
पर आपत्ति
नहीं कर
सकेंगे और
न ही
न्यायालय
की अनुमति
के बिना
उन्हें
प्रतिपरीक्षण
का अधिकार
होगा।
परंतु
निर्णय उन
तथ्यों पर
जो इस
अधिनियम के
तहत सुसंगत
हो और
सम्यक रूप
से साबित
किये गये
हो उन्हीं
पर आधारित
होगा।
लेकिन
न्यायाधीश
को यह
अधिकार नहीं
होगा कि
वह धारा
121 से
धारा 131
के
तहत विशेषाधिकार
वाले प्रश्नों
का उत्तर
देने के
लिए किसी
व्यक्ति को
विवश करे
या धारा
148 या
धारा 149
में
अनुचित बतलाये
गये प्रश्नों
पर पूछ-ताछ
करें।
धारा
165 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम में
न्यायाधीश
को प्रश्न
करने की
असीमित शक्ति
दी गई
है जिसका
अत्यंत सावधानी
से प्रयोग
करना चाहिए।
न्यायालय
किसी भी
पक्ष को
किसी साक्षी
विशेष का
परीक्षण
करवाने के
लिए बाध्य
नहीं कर
सकता है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
मुंशीपाल
कार्पोरेशन
ग्रेटर मुंबई
विरूद्ध लाल
पंचाम, ए.आई.आर.
1965 एस.सी.
1008 पांच
न्याय मूर्तिगण
की पीठ
का न्याय
दृष्टंात
अवलोकनीय
हैं।
ऐसे
समय में
न्यायाधीश
को धारा
311 दं.प्र.सं.
1973 या
आदेश 18
नियम
17 सी.पी.सी.
सह
पठित धारा
151 सी.पी.सी.
शक्तियों
का प्रयोग
करना चाहिए
यदि साक्षी
का परीक्षण
मामले के
निराकरण के
लिए आवश्यक
हैं।
आरोप
संशोधित होने
पर साक्ष्य
कभी-कभी
ऐसी स्थिति
भी बनती
है कि
कुछ मामलों
में आरोप
पत्र या
संशोधित किये
जाते है
या अतिरिक्त
आरोप विरचित
किये जाते
है तब
दोनों पक्षों
को यह
अधिकार होता
है कि
वे पूर्व
में परीक्षित
कराये गये
साक्षीगण
से अतिरिक्त
परीक्षा या
प्रतिपरीक्षा
कर सके।
न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
एम.पी.
विरूद्ध
पप्पू उर्फ
सलीम, आई.एल.आर.
(2010) एम.पी.
2383 में
अभियुक्तगण
पर धारा
452, 327 और
506 बी
भा.दं.सं.
के
आरोप विरचित
किये गये
प्रमाण लिया
जा कर
प्रकरण निर्णय
के लिए
नियत किया
गया उसके
बाद धारा
325/34 और
323/34 भा.दं.सं.
के
अतिरिक्त
आरोप विरचित
किये गये
गवाहों को
अतिरिक्त
प्रतिपरीक्षण
के लिए
बुलाया गया
दो गवाह
पेश नहीं
किये जा
सके अभियोजन
का पक्ष
यह था
की इन
दो गवाहों
के कथनों
पर पूर्व
से विरचित
आरोप धारा
452, 327 एवं
506 बी
भा.दं.सं.
पर
विचार कर
लिया जाये
क्योंकि इन
आरोपों के
बारे में
प्रतिपरीक्षण
हो चुका
हैं यह
प्रतिपादित
किया गया
कि गवाहों
के कथनों
को जब
तब की
धारा 137
एवं
138 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत पूर्ण
न हो
उपयोग में
नहीं लिये
जा सकते
दोष मुक्ति
के विरोध
अपील निरस्त
की गई।
इस
तरह जब
कभी आरोप
में कोई
परिवर्तन, परिवर्धन
किया जाता
है तब
गवाहों को
यदि पक्षकार
ऐसा चाहे
तो परीक्षण
और प्रतिपरीक्षण
के लिए
बुलाना होगा
और जब
तक यह
प्रक्रिया
पूर्ण नहीं
हो जाती
उनके कथन
विचार में
नहीं लिये
जा सकेंगे।
शपथ
पत्र पर
कथन
धारा
145 (2) एन.आई.
एक्ट
के तहत
शपथ पत्र
के रूप
में प्रस्तुत
साक्ष्य पर
अभियुक्त
को केवल
प्रतिपरीक्षण
का अधिकार
रहता है
गवाह के
लिए यह
आवश्यक नहीं
है कि
वह प्रतिपरीक्षण
पूर्ण होने
से पहले
मुख्य परीक्षण
में क्या
कहां गया
वह पुनः
बतलाये साथ
धारा 145
(1) एन.आई.
एक्ट
के तहत
शपथ पत्र
के रूप
में साक्ष्य
देने का
अधिकार केवल
परिवादी को
है अभियुक्त
को नहीं
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
माधवी कापरेटिव
बैंक लिमिटेड
विरूद्ध
निमेश बी.
ठाकोर
(2010) 3 एस.सी.सी.
83 अवलोकनीय
हैं।
साक्ष्य
के समय
अभियुक्त
की उपस्थिति
धारा
273 दण्ड
प्रक्रिया
संहिता, 1973 के
तहत विचारण
या अन्य
कार्यवाही
के अनुक्रम
में लिया
गया सब
साक्ष्य
अभियुक्त
की उपस्थिति
में या
जब उसे
व्यक्तिगत
हाजरी से
मुक्त कर
दिया गया
है तब
उसके प्लीडर
की उपस्थिति
में लिया
जायेगा।
अभियुक्तगण
में वह
व्यक्ति भी
शामिल है
जिसके विरूद्ध
अध्याय 8
(परिशांति
कायम रखने
के लिए
और सदाचार
के लिए
प्रतिभूति) के
तहत कार्यवाही
प्रारंभ की
जा चुकी
हैं।
इस
तरह दाण्डिक
मामलों में
सभी साक्ष्य
अभियुक्त
की उपस्थिति
में या
उसकी उपस्थिति
से मुक्ति
दे दी
जाने पर
उसके प्लीडर
की उपस्थिति
में लेखबद्ध
किया जाना
चाहिए।
धारा
274 दण्ड
प्रक्रिया
संहिता, 1973 के
तहत संमन
मामले में
साक्षी के
साक्ष्य के
सारंश का
ज्ञापन या
मेमोरेंडम
आफ सब्सटेन्स
तैयार करने
के प्रावधान
है जबकि
धारा 275
दं.प्र.सं.
के
वारंट मामले
में साक्षी
का साक्ष्य
जैसे-जैसे
परीक्षा होती
जाती है
वैसे-वैसे
पूरा लिखाया
जाता है
और यही
प्रक्रिया
धारा 276
दं.प्र.सं.
1973 में
सेशन ट्रायल
मामलों में
भी हैं।
सामान्यतः
साक्षी का
साक्ष्य शब्द
सह शब्द
या वरबेटम
लिखाने की
प्रक्रिया
है और
संमन मामले
में भी
साक्ष्य के
सारंश का
ज्ञापन तैयार
करवाने के
बजाय पूरा
साक्ष्य ही
लिखाया जाता
हैं।
धारा
278 दं.प्र.सं.
के
तहत साक्ष्य
साक्षी का
पढ़कर सुनाया
और समझाया
जाता है
और फिर
यदि वह
उसमें कुछ
सुधार चाहता
है वैसा
किया जाता
है।
साक्षी
की भाव
भंगी या
डिमेनोर के
बारे में
धारा
280 दं.प्र.सं.
1973 के
तहत परीक्षण
के समय
साक्षी भाव
भंगी के
बारे में
यदि कोई
टिप्पणी
तात्विक हो
तो उसे
न्यायाधीश
या मजिस्टट
को अभिलिखित
करना होता
है यह
साक्ष्य के
मूल्यांकन
में अत्यंत
सहायक होता
है इसी
प्रकार के
प्रावधान
आदेश 18
नियम
12 सी.पी.सी.
में
भी है।
कभी-कभी
साक्षी
प्रश्नों
के उत्तर
काफी सोचकर
देता है
या बार-बार
अपना उत्तर
बदलता हैं
ऐसे समय
में आवश्यक
टिप्पणी
कथनों में
लगाई जा
सकती है।
साक्ष्य
के दौरान
की गई
आपत्तिया
कभी-कभी
कोई पक्ष
किसी साक्षी
के कथनों
के दौरान
कुछ आपत्तिया
करता है
ऐसे में
कई बार
साक्ष्य रोक
देने जैसी
स्थिति बनती
है ऐसे
समय में
न्याय दृष्टांत
बिपिन शांति
लाल पानचाल
विरूद्ध
स्टेट आफ
गुजरात, ए.आई.आर.
2001 एस.सी.
1158 से
मार्गदर्शन
लेना चाहिए
जिसमें यह
प्रतिपादित
किया गया
है की
ऐसे समय
पर विचारण
न्यायालय
को आपत्ति
अभिलेख पर
ले लेना
चाहिए और
संबंधित
साक्ष्य या
दस्तावेज
को टेन्टेटिवली
प्रदर्श कर
लेना चाहिए
और अंतिम
निराकरण के
समय आपत्ति
निराकृत की
जायेगी यह
निर्देश देना
चाहिए अंतिम
निराकरण के
समय यदि
आपत्ति उभय
पक्ष को
सुनने के
बाद स्वीकार
योग्य पाई
जाती है
तब उस
दस्तावेज
के बारे
में या
उस साक्ष्य
के बारे
में जो
भी तथ्य
आये है
वे विचार
में नहीं
लिये जाते
है इससे
न्यायालय
का समय
बचता है
साथ ही
यदि अपील
न्यायालय
उसी साक्ष्य
को ग्राह्य
पाती है
तब साक्ष्य
अभिलेख पर
होने से
उस पर
विचार भी
किया जा
सकता है
लेकिन यदि
स्टाम्प
शुल्क संबंधी
आपत्ति है
तब उसका
तत्काल निराकरण
करना चाहिए
और ऐसी
आपत्ति के
अधीन दस्तावेज
ग्रहण नहीं
करना चाहिए।
किसी
पक्ष की
कमी को
पूर्ण करना
कभी-कभी
न्यायाधीश
या मजिस्टेट
के मन
में यह
आशंका रहती
है कि
यदि वे
किसी साक्षी
को न्यायालय
साक्षी के
रूप में
बुलाते है
तो यह
किसी अन्य
पक्ष की
कमी को
पूरा करने
वाला न
हो जाये
और इस
बारे में
उन पर
आक्षेप न
लग जाये
लेकिन न्यायाधीश
/मजिस्टेट
का कार्य
न्यायदान
करना होता
है और
उसके लिए
यदि कोई
तात्विक
साक्ष्य है
तो उसे
बुलाना
न्यायालय
का कत्र्तव्य
है क्यांेकि
न्यायालय
का कार्य
केवल पक्षकारों
की त्रुटिया
गिनना नहीं
है और
केवल यह
घोषित करना
नहीं की
कौन पक्षकार
बेहतर है
बल्कि न्यायालय
का वास्तविक
कार्य न्यायदान
करना है
और ऐसे
समय में
न्याय दृष्टांत
राजेन्द्र
प्रसाद विरूद्ध
नारकोटिक
सेल (1999)
6 एस.सी.सी.
110 से
मार्गदर्शन
लिया जा
सकता हैं।
एक
साक्षी के
कथन के
दौरान अन्य
साक्षी की
उपस्थिति
कभी-कभी
ऐसी स्थिति
बनती है
कि एक
ही मामले
में एक
ही दिन
कई साक्षी
उपस्थित होते
है तब
यह सावधानी
रखना चाहिए
की जब
एक साक्षी
का कथन
लिया जा
रहा हो
तब अन्य
साक्षी जिनका
अभी परीक्षण
होना है
उन्हें
न्यायालय
कक्ष से
बाहर जाने
के निर्देश
दे देना
चाहिए अन्यथा
उस साक्षी
के परीक्षण
और प्रतिपरीक्षण
के दौरान
दूसरे साक्षी
को काफी
तथ्यों के
बारे में
जानकारी लग
जाती है
और इससे
विपक्षी के
हितों पर
भी प्रतिकूल
असर होता
है यह
निष्पक्ष
विचारण की
दृष्टि से
भी उचित
होता है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
स्टेट विरूद्ध
सोहन सिंह,
ए.आई.आर.
1955 एम.बी.
78 से
मार्गदर्शन
लिया जा
सकता है
जिसमें यह
प्रतिपादित
किया है
एक साक्षी
के कथन
के दौरान
दूसरे साक्षी
न्यायालय
कक्ष से
बाहर जाने
का कह
देना चाहिए।
यदि
ऐसा नहीं
भी किया
गया है
तो इसका
तात्पर्य
यह नहीं
है कि
जो साक्ष्य
लेखबद्ध की
गई है
उसे विचार
में नहीं
लिया जायेगा
इस तथ्य
को साक्ष्य
के मूल्यांकन
के समय
विचार में
लिया जा
सकता हैं।
उपसंहार
न्यायाधीश/
मजिस्टेट
को उक्त
प्रावधानों
को ध्यान
में रखते
हुये स्वयं
बोल कर
साक्ष्य
टंकित या
लिखित करवाना
चाहिए यह
कार्य कभी
भी साक्ष्य
लेखक पर
नहीं छोड़ना
चाहिए न्यायाधीश
/मजिस्टेट
को आरोप
की प्रकृति
और मामलों
के तथ्यों
और परिस्थितियों
में उचित
रीति से
साक्ष्य
लेखबद्ध
करवाना चाहिए
और साक्षियों
के संरक्षण
के बारे
में आवश्यक
प्रावधानों
को ध्यान
में रखना
चाहिए
प्रतिपरीक्षण
को उचित
रीति से
और वैधानिक
तरीके से
नियंत्रित
करना चाहिए
और धारा
136 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 में
तथ्यों की
सुसंगतता
निर्धारित
करने के
बारे में
जो शक्ति
दी गई
है उसका
प्रयोग भी
करना चाहिए
किसी भी
पक्ष को
साक्षी पर
या साक्षी
को किसी
भी पक्ष
पर हावी
नहीं होने
देना चाहिए
और न
ही न्यायालय
को ऐसा
करना चाहिए
सत्य की
खोज के
लिए साक्षी
का कथन
लिया जा
रहा है
यह आभास
साक्षी को
और दोनो
पक्ष को
होना चाहिए
साथ ही
न्यायाधीश
केवल एक
दर्शक या
साक्ष्य
लेखबद्ध करने
की मशीन
नहीं है
बल्कि वह
असंदिग्ध
रूप से
सभी सुसंगत
साक्ष्य जो
मामले के
न्याय पूर्ण
निराकरण के
लिए आवश्यक
है उसे
लेखबद्ध कर
रहे हैं
ऐसा लगना
चाहिए और
यही लक्ष्य
होना चाहिए।
(पी.के.
व्यास)
विशेष
कत्र्तव्यस्थ
अधिकारी
न्यायिक
अधि0 प्रशिक्षण
एवं अनु0
संस्थान
उच्च
न्यायालय
जबलपुर म.प्र.
Dear sir
ReplyDeleteIn evidence prosecution police produced only one page of circular out of its 98 pages. Whether this one page may be accepted as evidence. How defence can object.
Kya wadi dwara Court me 161ke bayan ko sapath patra dwara diya ja sakta hai
ReplyDeleteGood information
ReplyDeleteIn addition to the legal information in your article, there is a very good compilation of jurisprudence above.
ReplyDelete