दहेज
प्रतिषेध
अधिनियम, 1961
इस
अधिनियम में
मुख्य रूप
से धारा
2, 3, 4, 4ए,
5, 6, 7, 8, 8ए
महत्वपूर्ण
है साथ
ही म0प्र0
दहेज
प्रतिषेध
नियम, 2004 एवं
दहेज प्रतिषेध
(वर-वधु
भेंट सूची)
नियम
1985 भी
ध्यान देने
योग्य है
इन्हीं
प्रावधानों
और इन
पर नवीनतम
वैधानिक
स्थिति के
बारे में
हम चर्चा
करेंगे।
1. धारा
2 में
दहेज शब्द
की परिभाषा
दी गई
है जिसके
अनुसारः-
इस
अधिनियम में
’’दहेज’’
से कोई
ऐसी संपत्ति
या मूल्यवान
प्रतिभूति
अभिप्रेत
है जो
विवाह
के समय
या उसके
पूर्व या
पश्चात किसी
समय
ए.
विवाह
के एक
पक्षकार
द्वारा विवाह
के दूसरे
पक्षकार को
या
बी.
विवाह
के किसी
भी पक्षकार
के माता-पिता
द्वारा या
किसी अन्य
व्यक्ति
द्वारा विवाह
के किसी
भी पक्षकार
को या
किसी अन्य
व्यक्ति को,
उक्त
पक्षकारों
के विवाह
के संबंध
में या
तो प्रत्यक्षतः
या अप्रत्यक्षतः
दी गई
है या
दी जाने
के लिए
करार की
गई है,
किन्तु
उन व्यक्तियों
के संबंध
में जिन्हें
मुस्लिम
स्वीय विधि
(शरीयत)
लागू
होती है,
मेहर
इसके अंतर्गत
नहीं हैं।
स्पष्टीकरण
2 - मूल्यवान
प्रतिभूति
पद का
वही अर्थ
है जो
भारतीय दण्ड
संहिता 1860
की
धारा 30
में
है।
धारा
30 भारतीय
दण्ड संहिता
के अनुसार
मूल्यवान
प्रतिभूति
शब्द उस
दस्तावेज
के द्योतक
है जो
ऐसा दस्तावेज
है या
होना तात्पर्यित
है जिसके
द्वारा कोई
विधिक अधिकार
सृर्जित, विस्तृत,
अंतरित,
र्निबंधित,
निर्वापित
किया जाये,
छोड़ा
जाये या
जिसके द्वारा
कोई व्यक्ति
यह अभिस्वीकार
करता है
कि वह
विधिक दायित्व
के अधीन
है या
अमुक विधिक
अधिकार नहीं
रखता हैं।
अधिनियम
के प्रावधानों
को समझने
के लिए
दहेज की
परिभाषा समझ
लेना अत्यंत
आवश्यक है
उक्त परिभाषा
से यह
स्पष्ट होता
है कि
कोई संपत्ति
या मूल्यवान
प्रतिभूति
जो विवाह
के समय
या उसके
पूर्व या
उसके पश्चात,
पक्षकारों
के विवाह
के संबंध
में विवाह
के एक
पक्षकार या
उसके माता-पिता
या किसी
अन्य व्यक्ति
द्वारा विवाह
के दूसरे
पक्षकार या
उसके माता-पिता
या किसी
अन्य व्यक्ति
को या
तो दी
गई है
या दी
जाने का
करार किया
गया है
उसे दहेज
कहते हैं
लेकिन इसमें
मेहर शामिल
नहीं हैं।
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने और
माननीय म0प्र0
उच्च
न्यायालय
ने समय-समय
पर दहेज
की उक्त
परिभाषा को
विभिन्न
न्याय दृष्टांतों
में स्पष्ट
किया है
जिन पर
हम चर्चा
करेंगे।
दहेज
के लिए
अनुबंध की
आवश्यकता
2. न्याय
दृष्टांत
बलदेव सिंह
विरूद्ध
स्टेट आफ
पंजाब, ए.आई.आर.
2009 एस.सी.
913 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
यह सदैव
आवश्यक नहीं
है कि
दहेज के
लिए कोई
अनुबंध हो
शब्द अनुबंध
को प्रत्येक
मामले के
तथ्यों और
परिस्थितियों
में इनफर
किया जाता
है यह
अर्थ नहीं
लगाया जा
सकता की
दहेज के
लिए कोई
अनुबंध हो
तभी दोषसिद्धि
की जा
सकती है,
यदि
दहेज की
मांग व
अन्य घटक
प्रमाणित
होते है
तो दोषसिद्धि
की जा
सकती हैं।
न्याय
दृष्टांत
पवन कुमार
विरूद्ध
स्टेट आफ
हरियाण, ए.आई.आर.
1998 एस.सी.
958 में
भी यही
प्रतिपादित
किया गया
है कि
दहेज के
लिए अनुबंध
का होना
सदैव आवश्यक
नहीं है
टी.वी.
या
स्कूटर की
लगातार मांग
विवाह के
बाद पत्नी
व उसके
माता-पिता
से की
गई इस
मांग को
विवाह के
क्रम में
की गई
मांग कहां
जा सकता
है।
न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
आंध्रप्रदेश
विरूद्ध
राजगोपाल, ए.आई.आर.
2004 एस.सी.
1933 में
भी यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
दहेज की
मांग अपने
आप में
दण्डनीय है
दहेज के
लिए अनुबंध
का होना
दोषसिद्धि
के लिए
आवश्यक नहीं
है परिस्थितियों
के आधार
पर अनुमान
लगाया जा
सकता हैं।
न्याय
दृष्टांत
पाब्लिक
प्रोसेक्यूटर
विरूद्ध
मीथेस्वर
गंगाधर, (2009) 16 एस.सी.सी.
255 में
भी यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
संपत्ति या
मूल्यवान
प्रतिभूति
की मांग
दहेज की
मांग कहलाती
है इसके
लिए किसी
अनुबंध की
आवश्यकता
नहीं हैं।
दहेज
की मांग
कब
3. दहेज
की मांग
केवल विवाह
के पूर्व
या विवाह
के समय
तक सिमित
नहीं है
विवाह के
बाद की
मांग भी
इसमें शामिल
है इस
संबंध में
उक्त न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
आंध्रप्रदेश
विरूद्ध
राजगोपाल, ए.आई.आर.
2004 एस.सी.
1933 अवलोकनीय
हैं।
विवाह
संपन्न होने
के बाद
की मांग
दहेज मानी
जावेगी इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
स्टेट आफ
हिमाचल प्रदेश
विरूद्ध
निक्कूराम, ए.आई.आर.
1996 एस.सी.
67 अवलोकनीय
हैं।
विवाह
के पूर्व
या पश्चात
दोनों की
दहेज की
मांग दहेज
शब्द मं
शामिल है
उसे विवाह
के क्रम
में की
गई मांग
माना जायेगा
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
अशोक विरूद्ध
स्टेट आफ
हरियाणा, ए.आई.आर.
2010 एस.सी.
2839 अवलोकनीय
हैं।
आवश्यक
घरेलू खर्च
की मांग
4.
आर्थिक
कठिनाईयों
के कारण
या आवश्यक
घरेलू खर्च
के लिए
पैसे मांगना
दहेज की
मांग नहीं
है आरोपी
ने घरेलू
खर्च व
खरीददारी
हेतु पैसे
मांगे इसे
दहेज की
मांग नहीं
माना गया
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
अप्पा साहेब
विरूद्ध
स्टेट आफ
महाराष्ट्र, ए.आई.आर.
2007 एस.सी.
763 अवलोकनीय
हैं।
4ए.
न्याय
दृष्टांत
बचनी देवी
विरूद्ध
स्टेट आफ
हरियाण, ए.आई.आर.
2011 एस.सी.
1098 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
दूध का
व्यवसाय
प्रारंभ करने
के उद्देश्य
से मोटर
साईकिल की
मांग करना
दहेज की
मांग माना
गया यह
प्रतिपादित
किया गया
कि संपत्ति
या मूल्यवान
प्रतिभूति
प्रत्यक्ष
रूप से
अप्रत्यक्ष
रूप से
विवाह के
क्रम में
मांगी जाती
है तो
यह दहेज
की मांग
गठित करता
है इस
न्याय दृष्टांत
में उक्त
अप्पा साहेब
विरूद्ध
स्टेट आफ
महाराष्ट्र
के न्याय
दृष्टांत
को भी
विचार में
लिया गया
हैं और
कहां गया
है की
अप्पा साहेब
वाले मामले
में अभियोजन
दहेज के
मांग के
संबंध में
कोई साक्ष्य
नहीं दे
पाया था
उस क्रम
में वह
विधि प्रतिपादित
की गई
।
दहेज
के अतिरिक्त
मांग
5. दहेज
की अतिरिक्त
मांग भी
दहेज की
परिभाषा में
आयेगी इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
प्रेमसिंह
विरूद्ध
स्टेट आफ
हरियाण, ए.आई.आर.
1998 एस.सी.
2628 अवलोकनीय
हैं।
प्रस्तावित
विवाह व
पति के
बारे में
6. शब्द
विवाह में
प्रस्तावित
विवाह भी
शामिल है
विशेष रूप
से जब
दहेज की
मांग पूरी
न करने
पर बुरे
परिणाम होते
है विवाह
संपन्न ही
नहीं हो
पाता है।
शब्द
पति में
केवल वेध
विवाहित
व्यक्ति ही
होना जरूरी
नहीं है
बल्कि वैवाहिक
संबंधों में
शामिल होने
वाला व्यक्ति
भी इसमें
आता है।
उक्त
दोनों तथ्यों
के बारे
में न्याय
दृष्टांत
एकाप्पी
शेट्टी
सुब्बाराव
विरूद्ध
स्टेट आफ
आंध्रप्रदेश, ए.आई.आर.
2009 एस.सी.
2684 अवलोकनीय
हैं।
6ए.
न्याय
दृष्टांत
रीमा अग्रवाल
विरूद्ध
अनुपम, (2004) 3 एस.सी.सी.
199 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
शब्द दहेज
में प्रस्तावित
विवाह के
लिए पैसे
की मांग
भी शामिल
हैं साथ
ही शब्द
पति में
वह व्यक्ति
भी शामिल
है जो
विवाह की
संविदा करता
है और
महिला के
साथ रहता
है इस
मामले में
न्याय दृष्टांत
रामनारायण
विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
(1998) 3 क्राइम्स
147 को
ओवर रूल्ड
कर दिया
गया हैं।
7. दहेज
देने या
दहेज लेने
के लिए
दण्ड:- धारा
3 (1) यदि
कोई व्यक्ति
इस अधिनियम
के प्रारंभ
होने के
पश्चात दहेज
देगा या
लेगा अथवा
दहेज देना
या लेना
दुष्प्रेरित
करेगा तो
वह कारावास
से जिसकी
अवधि 5
वर्ष
के कम
की नहीं
होगी और
जुर्माने
से जो
15 हजार
रूपये से
या ऐसे
दहेज के
मूल्य की
रकम तक
के, इनमें
से जो
भी अधिक
हो, कम
नहीं होगा
दण्डनीय
होगा,
परंतु
न्यायालय
ऐसे पर्याप्त
और विशेष
कारणों से
जो निर्णय
में लेखबद्ध
किये जायेंगे
5 वर्ष
से कम
की किसी
अवधि के
कारावास का
दण्डादेश
अधिरोपित
कर सकेगा।
(2) उप
धारा 1
की
कोई बात:-
ए.
ऐसी
भेटों को,
जो
वधु को
विवाह के
समय उस
निमित कोई
मांग किये
बिना दी
जाती है
उन संबंध
में लागू
नहीं होगी,
परंतु
यह तब
जब की
ऐसी भेंटे
इस अधिनियम
के अधीन
बनाये गये
नियमों के
अनुसार रखी
गई सूची
में दर्ज
की जाती
है,
बी.
ऐसी
भेटों को
जो वर
को विवाह
के समय
उस निमित
कोई मांग
किये बिना
दी जाती
है उनके
संबंध में
लागू नहीं
होगी,
परंतु
यह तब
जब की
ऐसी भेटे
इस अधिनियम
के अधीन
बनाये गये
नियमों के
अनुसार रखी
गई सूची
में दर्ज
की जाती
है,
परंतु
यह और
कि जहां
ऐसी भेटे
जो वधू
द्वारा या
उसकी ओर
से किसी
व्यक्ति
द्वारा जो
वधू का
नातेदार है
दी जाती
है वहां
ऐसी भेटे
रूढ़ीगत
प्रकृति की
है और
उनका मूल्य
ऐसे व्यक्ति
की वित्तीय
स्थिति को
ध्यान में
रखते हुये,
जिसके
द्वारा या
जिसकी ओर
से ऐसी
भेटे दी
गई है
अधिक नहीं
हैं।
8. दहेज
मांगने के
लिए दण्ड:-
धारा
4 के
अनुसार यदि
कोई व्यक्ति
वधु या
वर के
माता-पिता
या अन्य
नातेदार या
संरक्षक से
किसी दहेज
की प्रत्यक्ष
रूप से
या अप्रत्यक्ष
रूप से
मांग करेगा
तो वह
कारावास से
जिसकी अवधि
6 माह
से कम
की नहीं
होगी किन्तु
दो वर्ष
तक की
हो सकेगी
और जुर्माने
से जो
10 हजार
रूपये तक
का हो
सकेगा दण्डनीय
होगा।
परंतु
न्यायालय
ऐसे पर्याप्त
विशेष कारणों
से जो
निर्णय में
उल्लेखित
किये जायेंगे
6 माह
से कम
की किसी
अवधि के
कारावास का
दण्डादेश
अधिरोपित
कर सकेगा।
धारा
3 और
4 का
मुख्य अंतर
यह है
कि जहां
धारा 4
में
दहेज की
मांग करते
ही अपराध
पूर्ण हो
जाता है
वहीं धारा
3 के
लिए मांग
पूर्ण कर
दी जाती
है या
सहमति दे
दी जाती
है तब
अपराध पूर्ण
होता है।
वैधानिक
स्थिति
9.
न्याय
दृष्टांत
एल.वी.
जाधव
विरूद्ध शंकर
राव अब्बा
साहेब पवार,
ए.आई.आर.
1983 एस.सी.
1219 में
तीन न्याय
मूर्तिगण
की पीठ
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि दहेज
की मांग
करते ही
धारा 4
का
अपराध पूर्ण
हो जाता
है मांग
पूर्ण करने
की सहमति
दी जाना
धारा 4
के
लिए जरूरी
नहीं है।
यदि सहमति
दे दी
जाती है
या मांग
पूर्ण कर
दी जाती
है तब
धारा 3
सहपठित
धारा 2
का
अपराध पूर्ण
हो जाता
हैं।
न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
यू.पी.
विरूद्ध
संतोष, (2009) 9 एस.सी.सी.
626 में
भी यही
प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 4
दहेज
की मांग
को प्रतिषेधित
करती है
वही यदि
मांग पूरी
कर दी
जाती है
तो धारा
3 सहपठित
धारा 2
का
पूर्ण हो
जाता है।
धारा 304
बी
भा.दं.सं.
व
धारा 3
एवं
4 दहेज
प्रतिषेध
अधिनियम के
स्कोप अलग-अलग
हैं।
10. दहेज
की मांग
अधिनियम में
प्रतिषेधित
है यह
अपने आप
में पर्याप्त
रूप से
खराब है
व क्रूरता
है तथा
तलाक का
आधार भी
निर्मित करता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
शोभा रानी
विरूद्ध
मधुकर रेड्डी,
ए.आई.आर.
1988 एस.सी.
121 अवलोकनीय
हैं।
कथनों
में लोप
व विरोधाभास
का प्रभाव
11. गवाह
ग्रामीण, अशिक्षित
थे मृतक
के पिता
और भाई
थे उनके
कथन विवाह
के दो
वर्ष बाद
हुए ऐसे
में उनके
कथनों में
कुछ विरोधाभास
लोप के
रूप में
आना संभव
है यदि
कथन अन्यथा
विश्वास
योग्य हो
तो उक्त
विरोधाभास
व लोप
तात्विक नहीं
है। भाई
द्वारा बतलाया
दहेज का
समान पिता
ने नहीं
बतलाया यह
समय के
अंतर के
साथ आया
लोप माना
जा सकता
हैं ऐसा
भारी विरोधाभास
नहीं है
जो गवहों
के कथनों
को अविश्वसनीय
बना दे।
मृतक
का विवाह
इस कारण
नहीं हो
पाया था
कि दुल्हा
विवाह के
समय नहीं
आया। आरोपी
विवाह हेतु
सामने आया
उसने शर्ते
के रूप
में दहेज
में 10
हजार
रूपये और
तीन सोने
के आभूषण
की मांग
की कुछ
दहेज का
भाग आरोपी
को दिया
गया दहेज
का अनुबंध
प्रमाणित न
होने के
आधार पर
मृतक के
पिता व
भाई के
कथनों पर
अविश्वास
उचित नहीं
हैं।
उक्त
तथ्यों के
संबंध में
न्याय दृष्टांत
स्टेट आफ
कर्नाटक
विरूद्ध
एम.वी.
मंजूना
भगोड़ा, ए.आई.आर.
2003 एस.सी.
809 अवलोकनीय
हैं।
12.
न्याय
दृष्टांत
के.आर.
सूराचारी
विरूद्ध
स्टेट आफ
कर्नाटक, ए.आई.आर.
2005 एस.सी.
2674 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
मृतक के
माता-पिता
के कथन
दहेज की
मांग के
बारे में
स्थिर रहे।
यह मामला
था की
दहेज विवाह
के पूर्व
आरोपी को
मृतक की
मा व
बहिन द्वारा
जाकर दिया
गया, बहिन
के कथनों
का यह
लोप कि
उसने माता
के साथ
जाकर आरोपी
को दहेज
की रकम
चुकाई अभियोजन
कहानी पर
संदेह करने
का आधार
नहीं हो
सकता। बहिन
ने विशेष
रूप से
यह इंकार
नहीं किया
की उसने
आरोपी को
जाकर दहेज
की रकम
नहीं चुकाई।
विविध
तथ्य
13.
न्याय
दृष्टांत
किशनगिरी
मंगलगिरी
गोस्वामी
विरूद्ध
स्टेट आफ
गुजरात, ए.आई.आर.
2009 एस.सी.
1808 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
1989 में
विवाह हुआ।
17.05.1999 को
पत्नी की
आत्म हत्या
के कारण
मृत्यु हुई।
आरोपी पति
द्वारा 40
हजार
रूपये मकान
खरीदने के
लिए मांग
करते हुये
सास-ससुर
को पत्र
लिखे गये
पत्नी को
शारीरिक और
मानसिक रूप
से प्रताडि़त
किया गया
उक्त तथ्यों
और परिस्थितियों
में आत्म
हत्या के
दुष्प्रेरण
का धारा
306 भा.दं.सं.
का
अपराध प्रमाणित
नहीं पाया
गया लेकिन
धारा 498ए
भा.दं.सं.
एवं
धारा 3
दहेज
प्रतिषेध
अधिनियम का
अपराध प्रमाणित
पाया गया।
14.
न्याय
दृष्टांत
भैरो सिंह
विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
आई.एल.आर.
(2008) एम.पी.
893 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
संपत्ति या
मूल्यवान
प्रतिभूति
का विवाह
के संबंध
में मांग
की जाना
चाहिये विवाह
के समय
दहेज तय
नहीं हुआ
था दहेज
के लिए
दुष्प्रेरण
का प्रश्न
नहीं उठता
है।
15. न
केवल दहेज
लेने को
दहेज प्रतिषेध
अधिनियम, 1961 प्रतिषेध
करता है
बल्कि विवाह
के पूर्व
विवाह के
समय या
विवाह के
पश्चात दहेज
की मांग
करना भी
प्रतिषेध
करता हैं
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
एस. गोपाल
रेड्डी विरूद्ध
स्टेट आफ
आंध्रप्रदेश, ए.आई.आर.
1996 एस.सी.
2284 अवलोकनीय
हैं।
15ए.
न्याय
दृष्टांत
गोपाल गर्ग
विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
2004 (3) एम.पी.एल.जे.
70 में
मृतक ने
विवाह के
5 माह
के भीतर
आत्म हत्या
की विवाह
के 18
से
20 दिन
के भीतर
ही अपर्याप्त
दहेज के
लिए उसे
प्रताडित
किया जाना
शुरू कर
दिया इसे
विवाह के
क्रम में
दहेज की
मांग माना
गया।
कार्यवाही
के स्थान
के बारे
में
16.
न्याय
दृष्टांत
किर्ति प्रसाद
सक्सेना
विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
2010 (2) एम.पी.एच.टी.
361 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
परिवादी का
विवाह हुआ
वह विवाह
के पश्चात
भोपाल में
ही भोपाल
में उसके
साथ क्रूरता
हुई वह
भोपाल छोड़कर
उसके माता-पिता
के पास
गुना चली
गई सारा
अपराध भोपाल
में घटित
हुआ केवल
भोपाल न्यायालय
को क्षेत्राधिकार
हैं।
17.
न्याय
दृष्टांत
नीरज राठौर
विरूद्ध
श्रीमति
प्रमोदीन
राठौर, आई.एल.आर.
(2008) एम.पी.
2734 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
अपराध उज्जैन
में किया
जाना अभिकथित
किया गया
परिवाद विदिशा
में प्रस्तुत
की गई
जहां प्रतिप्रार्थी
उसके माता-पिता
के साथ
रहती है
जाच और
विचारण का
स्थान परिवाद
में किये
गये अभिकथनों
के आधार
पर तय
होता है
क्षेत्राधिकार
का प्रश्न
विधि और
तथ्य का
प्रश्न है
जिसमें जाच
जरूरी हैं
ऐसे में
उच्च न्यायालय
ने इंटर
फेयर से
इंकार कर
दिया।
17ए.
न्याय
दृष्टांत
पवन विश्वकर्मा
विरूद्ध
स्टेट आफ
एम.पी.,
2010 (4) एम.पी.एल.जे.
371 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 458
ए, 34
भा.दं.सं.
एवं
दहेज प्रतिषेध
अधिनियम की
धारा 3
और
4 के
अपराध सर्वप्रथम
एक न्यायालय
की अधिकारिता
के स्थान
पर किये
गये उसके
बाद दूसरे
न्यायालय
के अधिकारिता
वाले स्थान
पर किये
जाते रहे
धारा 178
(बी)
(सी)
(डी)
दण्ड
प्रक्रिया
संहिता के
अनुसार आरोपीगण
पर ऐसे
अन्य न्यायालय
में भी
प्रकरण चलाया
जा सकता
है जिसके
अधिकार क्षेत्र
में कुछ
अभियुक्तों
ने उसी
अनुक्रम में
कथित अपराध
किया।
संतान
के जन्म
पर दिया
गया उपहार
18.
लड़की
जन्म होने
पर प्रथा
के अनुसार
होने वाले
कार्यक्रम
में दी
गई भेंट
को दहेज
नहीं माना
गया इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
नारायण मूर्ति
विरूद्ध
स्टेट आफ
कर्नाटक, ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
2377 अवलोकनीय
हैं।
19. धारा
4ए
विज्ञापन
पर पाबंदी:-
यदि
कोई व्यक्ति:-
ए.
अपने
पुत्र या
पुत्री या
किसी अन्य
नातेदार के
विवाह के
प्रतिफल
स्वरूप किसी
समाचार पत्र,
नियत
कालिक पत्रिका,
जनरल
या किसी
अन्य माध्यम
से, अपनी
संपत्ति या
किसी धन
के अंश
या दोनों
के किसी
कारोबार या
अन्य हित
में किसी
अंश की
प्रस्थापना
करेंगा,
बी.
खण्ड
ए में
निर्दिष्ट
कोई विज्ञापन
मुद्रित या
प्रकाशित
करेगा या
परिचालित
करेगा,
तो
वह कारावास
से जिसकी
अवधि 6
माह
से कम
की नहीं
होगी किन्तु
जो 5
वर्ष
तक की
हो सकेगी
या जुर्माने
से जो
15 हजार
रूपये तक
का हो
सकेगा दण्डनीय
होगा,
परंतु
न्यायालय
ऐसे पर्याप्त
और विशेष
कारण से
जो निर्णय
में लेखबद्ध
किये जायेंगे
6 माह
से कम
की किसी
अवधि के
कारावास का
दण्डादेश
अधिरोपित
कर सकेगा।
इस
तरह विवाह
के क्रम
में उक्त
प्रकार के
प्रकाशन करना
या करवाना
दोनों ही
दण्डनीय
बनाये गये
हैं।
20. दहेज
देने व
लेने के
लिए किया
गया कोई
भी करार
धारा 5
के
तहत शून्य
होता है।
21. दहेज
का पत्नी
व उसके
वारिसों के
लाभ के
लिए होना
धारा 6
(1) के
अनुसार जहां
कोई दहेज
ऐसी स्त्री
से भिन्न,
जिसके
विवाह के
संबंध में
वह दिया
गया है
किसी व्यक्ति
द्वारा प्राप्त
किया जाता
है, वहां
वह व्यक्ति
उस दहेज
को:-
ए.
यदि
वह दहेज
विवाह से
पूर्व प्राप्त
किया गया
था तो
विवाह की
तारीख के
पश्चात 3
माह
के भीतर
या,
बी.
यदि
वह दहेज
विवाह के
समय या
उसके पश्चात
प्राप्त किया
गया था
तो उसके
प्राप्ति
के तारीख
के पश्चात
3 माह
के भीतर
या,
सी.
यदि
वह उस
समय जब
स्त्री अवयस्क
थी तब
प्राप्त किया
गया था
तो उसके
18 वर्ष
की आयु
प्राप्त करने
के पश्चात
3 माह
के भीतर,
स्त्री
को अंतरित
कर देगा
और ऐसे
अंतरण तक
उसे न्यास
के रूप
में उस
स्त्री के
फायदे के
लिए धारण
करेंगा।
धारा
6 (2) के
अनुसार यदि
कोई व्यक्ति
उप धारा
1 द्वारा
अपेक्षित
किसी संपत्ति
का, उसके
लिए दिये
गये परिसीमा
काल के
लिए या
उप धारा
(3) द्वारा
अपेक्षित
अंतरण करने
में असमर्थ
रहेगा तो
वह कारावास
से जिसकी
अवधि 6
माह
से कम
की नहीं
होगी किन्तु
2 वर्ष
तक की
हो सकेगी
या जुर्माने
से जो
5 हजार
रूपये से
कम का
नहीं होगा
किन्तु 10
हजार
रूपये तक
का हो
सकेगा या
दोनों से
दण्डनीय
होगा।
धारा
6 (3) के
अनुसार जहां
उप धारा
1 के
अधीन किसी
संपत्ति के
लिए हकदार
स्त्री की
उसे प्राप्त
करने के
पूर्व मृत्यु
हो जाती
है, वह
स्त्री के
वारिस उसे
तत्समय धारण
करने वाले
व्यक्ति से
दावा करने
के हकदार
होंगे,
परंतु
जहां ऐसी
स्त्री की
मृत्यु उसके
विवाह के
7 वर्ष
के भीतर
प्राकृतिक
कारणों से
अन्यथा हो
जाती है
वहां ऐसी
संपत्ति:-
ए.
यदि
उसकी कोई
संतान नहीं
है तो
उसके माता-पिता
को अंतरित
की जायेगी
या
बी.
यदि
उसकी संतान
है तो
उसकी ऐसी
संतान को
अंतरित की
जायेगी और
ऐसे अंतरण
तक ऐसी
संतान के
लिए न्यास
के रूप
में धारण
की जायेगी।
धारा
3 ए
के अनुसार
जहां उप
धारा 1
या
उप धारा
3 द्वारा
अपेक्षित
संपत्ति का
अंतरण करने
में असफल
रहने के
लिए उप
धारा 2
के
अधीन दोषी
ठहराये गये
किसी व्यक्ति
ने उस
उप धारा
के अधीन
उसके दोषी
ठहराये जाने
के पूर्व
ऐसी संपत्ति
का उसके
लिए हकदार
स्त्री को
या उसके
वारिसों को
अंतरण नहीं
किया है
वहां न्यायालय
उस उप
धारा के
अधीन दण्ड
निर्णीत करने
के अतिरिक्त
लिखित आदेश
द्वारा यह
निर्देश
देंगे की
ऐसा व्यक्ति
ऐसी संपत्ति
का ऐसी
स्त्री या
उसके वारिसों
को विनिर्दिष्ट
अवधि के
भीतर अंतरण
करे और
यदि ऐसा
व्यक्ति ऐसे
निर्देश का
उक्त अवधि
में अनुपालन
करने में
असफल रहेगा
तो संपत्ति
के मूल्य
के बराबर
रकम उस
व्यक्ति से
ऐसे वसूल
की जा
सकेगी जैसे
न्यायालय
द्वारा लगाया
गया जुर्माना
वसूला जाता
है और
उस रकम
को उस
स्त्री या
उसके वारिसों
को अदा
किया जा
सकेगा।
धारा
6 (4) के
अनुसार इस
धारा की
किसी बात
का धारा
3 या
4 का
कोई प्रभाव
नहीं होगा।
22. धारा
7 के
अनुसार दण्ड
प्रक्रिया
संहिता में
किसी बात
के होते
हुये भी,
ए.
महानगर
मजिस्टेट
या प्रथम
वर्ग न्यायिक
मजिस्टेट
के न्यायालय
से नीचे
का कोई
न्यायालय
इस अधिनियम
के अधीन
किसी अपराध
का विचारण
नहीं करेगा,
बी.
कोई
न्यायालय
इस अधिनियम
के अधीन
किसी अपराध
का संज्ञान,
1. अपनी
जानकारी पर
या ऐसे
अपराध को
गठित करने
वाले तथ्यों
की पुलिस
रिपोर्ट पर
या
2. अपराध
से व्यथित
व्यक्ति या
ऐसे व्यक्ति
के माता-पिता
या अन्य
नातेदार
द्वारा अथवा
किसी मान्यता
प्राप्त
कल्याण संस्था
या संगठन
द्वारा किये
गये परिवाद
पर, ही
करेगा अन्यथा
नहीं।
सी.
महानगर
मजिस्टेट
या प्रथम
वर्ग न्यायिक
मजिस्टेट
के लिये
यह विधि
पूर्ण होगा
की वह
इस अधिनियम
के अधीन
किसी अपराध
के लिये
दोषी ठहराये
गये किसी
व्यक्ति के
विरूद्ध इस
अधिनियम
द्वारा
प्राधिकृत
कोई दण्डादेश
पारित करे।
स्पष्टीकरण:-
इस
धारा के
प्रयोजनों
के लिए
’’मान्यता
प्राप्त
कल्याण संस्था
या संगठन’’
से कोई
ऐसी समाज
कल्याण संस्था
या संगठन
अभिप्रेत
है जिसे
केन्द्रीय
या राज्य
सरकार द्वारा
मान्यता दी
गई है।
धारा
7 (2) के
अनुसार दण्ड
प्रक्रिया
संहिता, 1973 के
अध्याय 36
की
कोई बात
इस अधिनियम
के अधीन
दण्डनीय किसी
अपराध को
लागू नहीं
होगी। धारा
36 अपराधों
के संज्ञान
करने के
लिए परिसीमा
के बारे
में हैं।
धारा
7 (3) के
अनुसार तत्समय
प्रर्वत किसी
विधि की
किसी बात
के होते
हुये भी
अपराध से
व्यथित व्यक्ति
द्वारा किया
गया कोई
कथन ऐसे
व्यक्ति को
इस अधिनिमय
के अधीन
अभियोजन का
भागी नहीं
बनायेगा।
23. धारा
8 अपराधों
के संज्ञेय
और अजमानतीय
तथा अशमनीय
होने के
बारे में:-
(1) दण्ड
प्रक्रिया
संहिता, 1973 इस
अधिनियम के
अधीन अपराधों
को वैसे
ही लागू
होगी मानो
वेः-
ए.
ऐसे
अपराधों के
अन्वेषण के
प्रयोजन के
लिए संज्ञेय
हो और,
बी.
निम्नलिखित
से भिन्न
विषयों के
प्रयोजन के
लिए:-
1. उस
संहिता की
धारा 42
में
विनिर्दिष्ट
विषय और
2. किसी
व्यक्ति के
वारंट के
बिना या
मजिस्टेट
के किसी
आदेश के
बिना गिरफ्तारी,
संज्ञेय
अपराध हो
धारा
8 (2) के
अनुसार इस
अधिनियम के
अधीन प्रत्येक
अपराध अजमानतीय
और अशमनीय
होंगे।
24. धारा
8 ए
कुछ मामलों
में सबूत
का भार:-
जहां
कोई व्यक्ति
धारा 3
के
अधीन कोई
दहेज लेने
या दहेज
का लेना
दुष्प्रेरित
करने के
लिए या
धारा 4
के
अधीन दहेज
मांगने के
लिए अभियोजित
किया जाता
है वहां
यह साबित
करने का
भार उसी
पर होगा
की उसने
उन धाराओं
के अधीन
कोई अपराध
नहीं किया
है।
25. दहेज
प्रतिषेध
(वर-वधु
भेंट सूची)
नियम
1985 का
नियम 2:-
नियम
2 (1) के
अनुसार विवाह
के समय
जो भेंटे
वधु को
दी जाती
है उसकी
एक सूची
वधु रखेगी।
नियम
2 (2) के
अनुसार विवाह
के समय
जो भेंटे
वर को
दी जाती
है उसकी
एक सूची
वर रखेगा।
नियम
2 (3) के
अनुसार उप
नियम 1
या
उप नियम
2 में
उल्लेखित
भेटों की
प्रत्येक
सूची:-
ए.
विवाह
के समय
या विवाह
के पश्चात
यथासंभव
शीध्र तैयार
की जावेगी,
बी.
लिखित
में होगी,
सी.
उनमें
निम्न विवरण
होंगे:-
1.
प्रत्येक
भेट का
संक्षिप्त
विवरण
2.
भेंट
का अनुमानित
मूल्य
3.
उस
व्यक्ति का
नाम जिसने
भेंट दी
है
4. यदि
वह व्यक्ति
जिसने दी
है वधु
व वर
का नातेदार
है तो
ऐसे नातेदारी
का विवरण
डी.
वर
और वधु
दोनों द्वारा
उक्त सूची
हस्ताक्षरित
होगी।
स्पष्टीकरण
1:- जहां
वधु हस्ताक्षर
करने में
असमर्थ है
वहां वह
सूची उसे
पढ़कर सुनाई
जाने के
पश्चात पढ़कर
सुनाने वाले
व्यक्ति के
सूची पर
हस्ताक्षर
करवाने के
पश्चात वधु
का अंगूठा
निशानी वधु
लगा सकेगी।
स्पष्टीकरण
2:- जहां
वर हस्ताक्षर
करने में
असमर्थ है
वहां वह
सूची उसे
पढ़कर सुनाई
जाने के
पश्चात पढ़कर
सुनाने वाले
व्यक्ति के
सूची पर
हस्ताक्षर
करवाने के
पश्चात वर
का अंगूठा
निशानी वर
लगा सकेगा।
नियम
2 (4) के
अनुसार वर
या वधु
यदि ऐसा
चाहे तो
उप नियम
1 व
उप नियम
2 में
उल्लेखित
सूचियों में
से किसी
एक पर
या दोनो
पर अपने
किसी नातेदार
या नातेदारों
या विवाह
के समय
उपस्थित किसी
अन्य व्यक्ति
या व्यक्तियों
के हस्ताक्षर
करवा सकेंगे।
इस
प्रकार दहेज
प्रतिषेध
अधिनियम, 1961 की
धारा 2
में
दहेज की
परिभाषा धारा
3 में
दहेज देने
व लेने
के लिए
दण्ड धारा
4 में
दहेज मांगने
के लिए
दण्ड धारा
4ए
में विज्ञापन
पर पाबंदी
और उसके
उल्लंघन के
लिये दण्ड
के बारे
में प्रावधान
हैं।
इस
अधिनियम के
अपराध अजमानतीय
और अशमनीय
है साथ
ही संज्ञेय
भी है
और प्रथम
वर्ग न्यायिक
मजिस्टेªट
द्वारा
विचारणीय
होते हैं
अधिनियम में
धारा 7
(1) (सी)
के
तहत संबंधित
प्रथम वर्ग
न्यायिक
मजिस्टेªट
को संबंधित
अधिनियम
द्वारा
प्राधिकृत
दण्डादेश
देने के
भी प्रावधान
किये गये
है जो
विशेष विधि
है इसी
तरह अधिनियम
में धारा
8ए
में प्रमाण
भार अभियुक्तगण
पर डाला
गया है
जो एक
विशेष प्रावधान
है मुख्य
रूप से
धारा 2
में
दहेज की
परिभाषा
महत्वपूर्ण
है और
उसी के
क्रम में
धारा 3
और
4 के
अपराध महत्वपूर्ण
हैं। वर्तमान
में दहेज
प्रताड़ना
के बढ़ते
मामलों को
देखते हुये
उस अनुरूप
कार्यवाही
की जाना
चाहिये वहीं
ऐसे मामलो
में परिवाद
के अधिकतम
सदस्यों को
लिप्त करने
की परिवादी
पक्ष की
प्रवृत्ति
को भी
ध्यान में
रखना चाहिये
और एक
न्यायिक
संतुलन
प्रत्येक
मामले तथ्यों
और परिस्थितियों
में बनाना
चाहिये।
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