दांडिक
मामलों में
निर्णय
निर्णय
किसी भी
मामले का
अंतिम उत्पाद
या फाईनल
आउट पुट
होता है
निर्णय पारित
करना किसी
भी न्यायाधीश/
मजिस्टेªट
के लिए
अतिमहत्वपूर्ण
कार्य होता
है और
उस न्यायाधीश
की पहचान
उसकी निर्णय
से होती
है अतः
ऐसे प्रयास
किये जाना
चाहिये की
कोई भी
निर्णय बहुत
सावधानी
पूर्वक और
बहुत अच्छे
तरीके से
लिखा जावे।
यह भी
ध्यान रखना
चाहिये की
निर्णय वह
विषय है
जिसे प्राप्त
करने के
लिये पक्षकार
न्यायालय
तक आते
है अतः
पक्षकारों
का मुख्य
ध्यान न्यायालय
द्वारा पारित
अंतिम निर्णय
पर होता
है इस
कारण भी
इसका महत्व
बढ़ जाता
है यहां
हम दांडिक
मामलों के
निर्णय के
बारे में
कुछ महत्वपूर्ण
बिन्दुओं
पर चर्चा
करेंगे।
दांडिक
निर्णय न
केवल प्रारूप
की दृष्टि
से बल्कि
साक्ष्य के
क्रमबंधन, मूल्यांकन
और वैधानिक
दृष्टि से
भी दोष
रहित होना
चाहिए यहां
हम दांडिक
निर्णय को
न केवल
प्रारूप की
दृष्टि से
बल्कि वैधानिक
दृष्टि से
भी कैसे
अच्छा लिखा
जावे इस
बारे में
चर्चा करेंगे।
1. नियम
235 म0प्र0
नियम
एवं आदेश
(आपराधिक)
जिन्हें
आगे नियम
कहां जायेगा
के अनुसार
निर्णय फुल
स्केप कागज
के आधे
पत्र का
सुवाच्य रूप
से लिखित
या टाईप
किया जाना
चाहिए तथा
प्रत्येक
पत्र के
बाई तरफ
एक तिहाई
भाग का
हाशिया या
मारजिन छोड़ना
चाहिए यदि
निर्णय पीठासीन
अधिकारी
द्वारा स्वयं
के हाथ
से नहीं
लिखा गया
है अथवा
टाईप किया
है तब
उसके प्रत्येक
पृष्ठ पर
उनके हस्ताक्षर
होना चाहिए।
निर्णय,
निर्णय
के कागज
या जजमेंट
पेपर जिसे
सामान्य बोल
चाल की
भाषा में
ग्रीन पेपर
पर ही
लिखा या
टंकित किया
जाना चाहिए
और उसमें
उक्त अनुसार
हाशिया या
मारजिन छोड़ना
चाहिये।
निर्णय
के शीर्षक
के बारे
में
2.
दांडिक
मामलों में
पीठासीन
अधिकारी के
नाम से
शीर्षक बनाया
जाता है
न्यायालय
के नाम
से नहीं
बनाया जाता
है इस
बात को
न्यायिक
मजिस्टेªट
और अतिरिक्त
मुख्य न्यायिक
मजिस्टेट
को विशेष
रूप से
ध्यान रखना
चाहिए उनके
न्यायालय
के शीर्षक
निम्न प्रकार
से बनते
हैं:-
न्यायालय
ए, बी,
सी
न्यायिक
मजिस्टेट,
प्रथम
श्रेणी जबलपुर।
न्यायालय
ए, बी,
सी
अतिरिक्त
मुख्य न्यायिक
मजिस्टेट,
इंदौर।
न्यायालय
एक्स, वाय,
जेड
न्यायिक
मजिस्टेट,
द्वितीय
श्रेणी भोपाल।
सत्र
न्यायाधीश, अपर
सत्र न्यायाधीश,
मुख्य
न्यायिक
मजिस्टेट
के न्यायालय
के शीर्षक
न्यायालय
के नाम
से भी
बन सकते
है क्योंकि
इनके न्यायालय
नोटीफाई होते
है जैसे:-
न्यायालय
सत्र न्यायाधीश,
ग्वालियर।
न्यायालय
मुख्य न्यायिक
मजिस्टेट,
देवास।
न्यायालय
प्रथम अपर
सत्र न्यायाधीश,
रीवा।
जब
न्यायालय
के नाम
से शीर्षक
बनाते है
तब नीचे
पीठासीन
अधिकारी या
समक्ष लिखते
है जैसे:-
पीठासीन
अधिकारी:- ए,
बी, सी
समक्षम:-
एक्स,
वाय,
जेड
3.
न्यायालय
के उक्त
अनुसार शीर्षक
के बाद
दाहनी ओर
प्रकरण क्रमांक
और उसके
नीचे उसके
संस्थित होने
के दिनांक
का उल्लेख
किया जाता
है जैसे:-
नियमित
आपराधिक
प्रकरण क्रमांक
2/2010
संस्थित
दिनांक 2
जनवरी
2010
या
सत्र प्रकरण
क्रमांक
1/2011
संस्थित
दिनांक 2
जनवरी
2011
विविध
आपराधिक
प्रकरण क्रमांक
1/2009
संस्थित
दिनांक 1
जनवरी
2009
4. इसके
बाद अभियोजन
/परिवादी
/प्रार्थी
का पूरा
नाम व
विवरण लिखा
जाता है।
5. उसके
बाद अभियुक्त
/अभियुक्तगण
/प्रतिप्रार्थी
का नाम
व पूरा
विवरण लिखा
जाता हैं।
6.
पक्षकारों
के पूरे
नाम उनके
पिता का
नाम, उम्र,
व्यवसाय
व पूरा
पता शीर्षक
में अवश्य
आना चाहिये
ताकि निर्णय
से अपील
होने पर
उन पक्षकारों
का सूचना
पत्र तामील
होने में
अनावश्यक
विलंब न
हो राज्य
के मामलों
में अभियोजन
का विवरण
कम महत्व
का होता
है और
उसे म0प्र0
राज्य
द्वारा संबंधी
आरक्षी केन्द्र
लिखते हुये
उल्लेख किया
जाता है
लेकिन परिवाद
मामलों में
परिवादी का
पूरा विवरण
और दोनों
ही मामलों
में अभियुक्त
पूर्ण विवरण
आना चाहिये।
शीर्षक
में कभी
भी म0प्र0
शासन
या शासन
द्वारा आरक्षी
केन्द्र ऐसे
शब्द का
प्रयोग नहीं
करना चाहिये
बल्कि म0प्र0
राज्य
शब्द का
प्रयोग करना
चाहिये क्योंकि
संविधान के
अनुच्छेद
300 के
तहत वाद
या अन्य
कार्यवाहियाँ
राज्य, तथा
केन्द्र की
दशा में
भारत संघ
के नाम
से होती
है अर्थात
जहां केन्द्र
की विषय
वस्तु हो
वहां भारत
संघ और
जहां राज्य
से संबंधित
मामला हो
वहां संबंधित
राज्य का
उल्लेख आता
है।
7. यदि
कोई अभियुक्त
कार्यवाही
के दौरान
मर चुका
हो या
फरार हो
गया हो
या उन्मोचित
किया जा
चुका हो
या जिसके
बारे में
बाल न्यायालय
में मामला
प्रस्तुत
किया गया
हो उनका
उल्लेख निर्णय
के शीर्षक
में नहीं
किया जाना
चाहिये।
8.
निर्णय
के प्रत्येक
पृष्ठ पर
पृष्ठ क्रमांक
व प्रकरण
क्रमांक का
उल्लेख अवश्य
करना चाहिये।
9.
निर्णय
में उसे
घोषित करने
की तारीख,
माह
व वर्ष
का इसके
बाद उल्लेख
किया जाना
चाहिये जैसे:-
आज
दिनांक
02.02.2012 को
घोषित किया
गया।
10. नियम
240 (1) के
अनुसार निर्णय
यथोचित विस्तार
की क्रमवर्ती
संख्यांकित
पदों में
या पैराग्राफ
में विभाजित
किया जाना
चाहिये। पदों
को उपपदों
में विभाजित
करने से
या सब-पैराग्राफ
बनाने से
बचना चाहिये।
एक
पैराग्राफ
के आकार
के बारे
में
11. नियम
240 (1) के
अनुसार एक
पद या
पैराग्राफ
टाईप किये
हुये पृष्ठ
के करीब
तीन चैथाई
भाग से
अधिक का
नहीं होना
चाहिये। यह
मुख्यतः अपील
अथवा पुनरीक्षण
न्यायालय
में तर्क
के दौरान
निर्णय के
किसी विशेष
भाग के
उल्लेख को
सुविधा जनक
बनाने के
लिये है।
इस
तरह निर्णय
का एक
पद या
पैराग्राफ
एक पृष्ठ
के तीन
चैथाई भाग
से अधिक
नहीं होना
चाहिये यदि
विषय नहीं
बदल रहा
हो। यदि
विषय बदल
रहा हो
तब पैराग्राफ
का आकार
तीन चैथाई
से कम
भी हो
सकता हैं
लेकिन विषय
नहीं बदल
रहा हो
और पैराग्राफ
का आकार
तीन चैथाई
भाग से
अधिक हो
रहा हो
तो पैराग्राफ
बदल लेना
चाहिये।
प्रथम
पैराग्राफ
के बारे
में
12. नियम
240 -2- के
अनुसार इस
पद में
आरोप का
विवरण देते
हुये यह
बतलाना चाहिये
की किस
व्यक्ति पर
क्या करने
के आरोप
है जिससे
की प्रारंभ
से ही
यह पता
लग जावे
की निर्णय
किस बारे
में हैं।
इस
पैराग्राफ
में आरोप
का संक्षिप्त
एवं आवश्यक
विवरण इस
प्रकार देना
चाहिये की
पाठक को
प्रारंभ से
ही निर्णय
किस बावत्
है यह
पता लग
जावे आरोप
के साथ
संबंधित
अधिनियम और
उसकी धारा
का उल्लेख
होना चाहिये
जैसे:-
अभियुक्त
पर दिनांक
02.02.2012 को
दिन में
11 बजे
गोल चैक
जबलपुर पर
परिवादी को
सदोष अवरूद्ध
करने, लोक
स्थान के
समीप अश्लील
शब्द उच्चारित
कर उसे
व सुनने
वालों को
क्षोभ कारित
करने, चाकू
से स्वेच्छया
उपहति कारत
करने, जान
से मारने
की धमकी
देकर आपराधिक
अभित्रास
कारित करने
के आरोपों
पर किया
गया जो
कृत्य धारा
341, 294, 324 एवं
506 भाग
2 भा.दं.सं.
1860 में
दण्डनीय
अपराध हैं।
अभियुक्त
पर दिनांक
03.05.2011 को
शाम 7
बजे
ग्राम सोनकच्छ
में अभियोक्त्री
का शीलभंग
करने के
आशय से
उस पर
आपराधिक बल
प्रयोग करने
के आरोप
है जो
धारा 354
भा.दं.सं.
में
दण्डनीय
अपराध हैं।
अभियुक्त
पर दिनांक
2 जनवरी
2012 को
दिन में
10 बजे
आनंद नगर
जबलपुर में
बिना वैधानिक
अनुज्ञप्ति
के एक
देशी कट्टा
रखने के
आरोप है
जो धारा
3 सहपठित
धारा 25
(1बी)
(ए) आयुघ
अधिनियम, 1959 में
दण्डनीय
अपराध है।
द्वितीय
पैराग्राफ
के बारे
में
13. नियम
240 (3) के
तहत् निर्णय
के द्वितीय
पैराग्राफ
में स्वीकृत
तथ्य दिये
जाना चाहिये
इस पैराग्राफ
में आवश्यक
होने पर
पक्षकारों
और साक्षियों
के आपसी
संबंध ग्रामों
तथा स्थानों
के मध्य
की दूरी
जो मामले
को समझने
के लिये
आवश्यक हो
देना चाहिये।
केवल
वे ही
स्वीकृत तथ्य
लिखना चाहिये
जो मामले
की प्रकृति
में आवश्यक
हो साथ
ही यदि
प्रकरण में
कोई स्वीकृत
नहीं हो
तो ऐसा
लिखना आवश्यक
नहीं है
कि मामले
में कोई
स्वीकृत तथ्य
नहीं हैं।
इस
पैराग्राफ
में वे
स्वीकृत तथ्य
लिखना चाहिये
जिनका स्वीकृत
होना किसी
भी प्रकार
से विवादित
न हो
अतः साक्षीगण
के प्रतिपरीक्षण
में आई
कुछ बाते
जो विवादित
हो सकती
हो उन्हें
इस पैराग्राफ
में नहीं
लेना चाहिये।
तृतीय
पैराग्राफ
के बारे
में
14. इस
पैराग्राफ
में अभियोजन
/परिवादी
के मामले
को संक्षिप्त
में लिखना
चाहिये।
निर्णय लेखक
को यहां
अपने शैक्षणिक
काल के
संक्षिप्तिकरण
या प्रेसी
राईटिंग वाले
विषय और
उस कला
को ध्यान
में रखते
हुये मामला
इस प्रकार
बतलाना चाहिये
कि कोई
तात्विक तथ्य
न छूटे
व अभियोजन
/परिवादी
का मामला
क्या है
यह पाठक
को समझ
में भी
आ जावे।
इस
पैराग्राफ
में अनुसंधान
में की
गई महत्वपूर्ण
कार्यवाहियों
का उल्लेख
भी करना
चाहिये केवल
बाद अनुसंधान
अभियोग पत्र
प्रस्तुत
किया गया
मात्र इतना
लिखना कई
मामलों में
पर्याप्त
नहीं होता
है और
यह पता
नहीं लगता
की अभियोजन
क्या मामला
लेकर न्यायालय
के समक्ष
आया हैं।
प्रथम
सूचना प्रतिवेदन
की पूरी
प्रतिलिपि
कर देना
भी उचित
नहीं है
बल्कि घटना
प्रेसी राईटिंग
की तरह
लिखी जाना
चाहिये लेकिन
घटना का
महत्वपूर्ण
अंश छूटना
भी नहीं
चाहिये।
परिस्थितिजन्य
साक्ष्य पर
आधारित मामलों
में अनुसंधान
की कार्यवाही
का उल्लेख
क्रमबंध
तरिके से
और उचित
रीति से
करने पर
ही मामला
समझ में
आता है
जैसे:- अज्ञात
व्यक्ति
द्वारा गृह
भेदन एवं
चोरी, अज्ञात
व्यक्ति
द्वारा हत्या
आदि मामलों
में घटनाक्रम
बहुत सावधानी
से लिखना
चाहिये।
कुल
मिलाकर इस
पैराग्राफ
से अभियोजन
/परिवादी
का मामला
समझ में
भी आ
जाना चाहिये
और यह
पैरा उस
पक्ष की
कहानी की
पूरी नकल
भी नहीं
होना चाहिये
इसी के
बीच उचित
तालमेल
संक्षिप्तिकरण
की कला
को ध्यान
में रखते
हुये करना
होगा।
अगले
पैराग्राफ
के बारे
में
15. इस
पैराग्राफ
में निर्णय
दिनांक के
पूर्व तक
मृत /फरार
/उन्मोचित
/बाल
न्यायालय
को प्रेषित
अभियुक्तों
के बारे
में उल्लेख
करना चाहिये।
16. यदि
कुछ अपराधों
में विचारण
के दौरान
समझौता हो
चुका हो
तो उनका
उल्लेख भी
यहां करना
चाहिये।
चतुर्थ
पैराग्राफ
के बारे
में
17. इस
पैराग्राफ
में अभियुक्त
की अभिरक्षा,
उसके
द्वारा
अभियुक्त
परीक्षण में
कहीं गई
कोई उल्लेखनीय
कोई बात,
प्रतिरक्षा
में कराये
गये साक्षियों
का उल्लेख
करते है।
इस
पैराग्राफ
को पढ़ने
से यह
पता लग
जाना चाहिये
कि अभियुक्त
की प्रतिरक्षा
क्या है।
यह
पैराग्राफ
इस तरह
लिखा जा
सकता है:-
अभियुक्त
ने इस
निर्णय के
चरण 1
में
वर्णित आरोपों
को अस्वीकार
करते हुये
अपने परीक्षण
में धारा
313 दं.प्र.सं.
में
यह प्रतिरक्षा
ली है
कि वह
र्निदोष है
उसे पुरानी
रंजीश के
कारण झूठा
फसाया गया
है प्रतिरक्षा
में कोई
साक्ष्य नहीं
दी है।
अभियुक्त
ने इस
निर्णय के
चरण 1
में
वर्णित आरोपों
को अस्वीकार
किया है
उसकी प्रतिरक्षा
यह है
कि वह
र्निदोष है
उसे जमीन
के विवाद
के कारण
मामले में
असत्य फसाया
गया है
प्रतिरक्षा
में कैलाश
ब, स,
1 व
मोहन ब,
स, 2 के
कथन करवाये
है।
पांचवे
पैराग्राफ
के बारे
में
18. इस
पैराग्राफ
में विचारणीय
प्रश्न का
उल्लेख किया
जाता है
यह पैराग्राफ
अत्यंत सावधानी
से बनाना
चाहिये ताकि
संबंधित
अपराध का
कोई घटक
छूट न
जावे व
विवेचना में
भी आसानी
रहे। धारा
354 (1) (बी)
दं.प्र.सं.
1973 के
तहत निर्णय
में अवधारणा
के लिये
प्रश्न उस
प्रश्न या
उन प्रश्नों
पर विनिश्चय
और विनिश्चय
के कारण
अंतरविष्ट
करेंगे। इस
तरह निर्णय
में अवधारण
के लिये
प्रश्न या
विचारणीय
प्रश्न बनाना
चाहिये और
ये प्रश्न
प्रत्येक
मामले के
तथ्यों और
परिस्थितियों
आरोप की
प्रकृति पर
निर्भर होते
है।
अज्ञात
व्यक्ति
द्वारा चोरी
के मामले
में निम्न
विचारणीय
प्रश्न बनाये
जा सकते
है:-
1. क्या
घटना दिनांक,
समय
व स्थान
से परिवादी
के आधिपत्य
से एक्स
वस्तुए
चोरी हुई?
2. क्या
अभियुक्त
के आधिपत्य
से एक्स
वस्तुए
उसकी सूचना
के आधार
पर उसकी
निशादेही
से बरामद
हुई या
अभियुक्त
के आधिपत्य
से एक्स
वस्तुए
बरामद हुई
?
3. क्या
अभियुक्त
के आधिपत्य
से बरामद
एक्स वस्तुए वहीं है
जो परिवादी
के आधिपत्य
से घटना
दिनांक, समय
व स्थान
से चोरी
हुई थी
?
4. अपराध
यदि कोई
प्रमाणित
हुआ हो
और दण्डादेश।
अवैध
शराब आधिपत्य
में रखने
के मामले
में निम्न
विचारणीय
प्रश्न बनाये
जा सकते
हैंः-
1.
क्या
बरामद द्रव
मदिरा है
?
2. यदि
हा तो
क्या उक्त
मदिरा अभियुक्त
के आधिपत्य
से घटना
दिनांक समय
और स्थान
से बरामद
हुई ?
3.
अपराध
यदि कोई
प्रमाणित
हुआ हो
और दण्डादेश।
अवैध
हथियार के
मामले में
निम्न विचारणीय
प्रश्न बनाये
जा सकते
है:-
1. क्या
अभियुक्त
ने घटना
दिनांक स्थान
और समय
पर स्वयं
के आधिपत्य
में एक
धारदार तलवार
लंबाई 6
इंच
से अधिक
और चैड़ाई
2 इंच,
धारा
4 आयुध
अधिनियम के
तहत जारी
अधिसूचना
के उल्लंघन
में आधिपत्य
में रखी
?
या
क्या
अभियुक्त
ने घटना
दिनांक, समय
और स्थान
पर स्वयं
के आधिपत्य
में एक
देशी कट्टा/
12 बोर
बंदुक बिना
वैधानिक
अनुज्ञप्ति
के रखी।
इस
तरह निर्णय
में शीर्षक
प्रथम, द्वितीय,
तृतीय,
चतुर्थ
एवं पंचम
पैराग्राफ
लगभग उक्त
अनुसार रहते
है और
उक्त प्रारूप
में निर्णय
चाहे न्यायिक
मजिस्टेट
द्वितीय
श्रेणी को
हो या
सत्र न्यायाधीश
का सामान्यतः
कोई परिवर्तन
नहीं होता
हैं अतः
उक्त प्रारूप
उक्त अनुसार
रहे इसका
ध्यान रखना
चाहिये।
छटवे
पैराग्राफ
के बारे
में
19. इस
पैराग्राफ
से विचारणीय
प्रश्नों
की विवेचना
प्रारंभ होती
है सुविधा
की दृष्टि
से और
साक्ष्य की
प्रकृति, मामले
की प्रकृति
को देखते
हुये या
तो विचारणीय
प्रश्नों
की अलग-अलग
या एक
साथ या
एक से
अधिक प्रश्नों
की एक
साथ विवेचना
की जा
सकती है
पुनरावृत्ती
से बचने
के लिये
ऐसा किया
जा सकता
हैं।
20.
विचारणीय
प्रश्नों
के संबंध
में आई
साक्ष्य का
मजिस्टेट
/न्यायाधीश
को क्रमबंधन
कर लेना
चाहिये नियम
240 (4) में
साक्ष्य के
क्रमबंधन
के बारे
में उल्लेख
किया गया
है इसी
तरह नियम
240 (7) में
भी साक्ष्य
के क्रमबंधन
का उल्लेख
किया गया
है किसी
साक्षी द्वारा
दिये गये
कथन को
हूबहू उतार
देना या
कथनों की
पुनरावृत्ती
कर देना
साक्ष्य का
क्रमबंधन
नहीं होता
है अतः
किसी बिन्दु
विशेष पर
साक्षीगण
द्वारा कही
गई बात
को क्रमबंधन
करके उल्लेख
करना चाहिये
पहले मुख्य
परीक्षण के
तथ्यों का
क्रमबंधन
कर लेना
चाहिये उसके
बाद प्रतिपरीक्षण
के तथ्यों
का क्रमबंधन
कर लेना
चाहिये एक
बार क्रमबंधन
का कार्य
पूर्ण हो
जाने के
बाद मूल्यांकन
प्रारंभ करना
चाहिये।
21. पहले
तात्विक
साक्ष्य का
क्रमबंधन
और मूल्यांकन
करना चाहिये
उसके बाद
पुष्टिकारक
साक्ष्य का
क्रमबंधन
और मूल्यांकन
करना चाहिये।
22.
साक्षी/
साक्षीगण
के कथन
क्यों विश्वसनीय
है क्यों
विश्वसनीय
नहीं है
इसके कारण
देना चाहिये
यदि साक्षीगण
के कथनों
में विरोधाभाष
या लोप
आते है
तो वे
क्यों महत्वपूर्ण
है क्यों
महत्वपूर्ण
नहीं है
इसके कारण
लिखना चाहिये।
23.
विवेचना
में अपराध
का कोई
भी घटक
छूटना नहीं
चाहिये जैसे:-
सामान्य
आशय, सामान्य
उद्देश्य, स्वेच्छया,
लोक
स्थान, मूल्यवान
प्रतिभूति
आदि।
24. नियम
237 के
अनुसार निर्णय
इस प्रकार
संक्षिप्त
होना चाहिये
जैसा की
मामले के
स्वरूप की
अपेक्षा है।
इस
तरह नियम
237 के
मूल भाव
को समझते
हुये निर्णय
संक्षिप्त
में लिखना
चाहिये लेकिन
कोई महत्वपूर्ण
विषय छूटना
भी नहीं
चाहिये।
25. नियम
237 के
तहत निर्णय
हिन्दी, मराठी
आदि के
ऐसे शब्दों
या वाक्यांशों
के प्रयोग
से यथासंभव
बचना चाहिये
जिनका कोई
तकनीकी अर्थ
न हो
और प्रयोग
किया जाना
आवश्यक हो
तब कोष्टक
में उनका
अंग्रेजी
या समझमे
आने योग्य
हिन्दी भाषा
का पर्यावाची
शब्द प्रयोग
करना चाहिये
।
26. नियम
240 (4) के
अनुसार
साक्षियों
के केवल
उनके संख्या
से ही
संदर्भित
नहीं किया
जाना चाहिये।
जहां
साक्षीगण
का उल्लेख
आवे वहां
उनका नाम
और साक्षी
क्रमांक
दोनों ही
लिखना चाहिये
जैसे:- राम
लाल अ0
सा0 1,
मोहन
ब0 स0
2 ।
इसी
तरह यदि
एक से
अधिक अभियुक्त
हो तो
उन्हें नाम
से संदर्भित
करना चाहिये
ऐसी भी
नियम 240
(4) की
अपेक्षा है।
27. नियम
240 (5) के
तहत स्पष्ट
एवं अविवादित
बिन्दु पर
श्रम नहीं
करना चाहिये
अर्थात स्पष्ट
बिन्दुओं
पर और
अविवादित बिन्दुओं
पर लंबी
विवेचना
अनावश्यक
है।
28.
साक्ष्य
क्रमबंधन
में यह
आवश्यक नहीं
है कि
साक्षीगण
ने जो
बात कहीं
है वह
वैसी की
वैसी लिखी
जावे बल्कि
क्रमबंधन
के समय
सभी साक्षीगण
किसी बिन्दु
विशेष पर
जो बात
कहते है
उसे सामान्य
भाषा में
लिखा जा
सकता है।
29.
मौखिक
और दस्तावेजी
साक्ष्य का
पृथक-पृथक
क्रमबंधन
करना चाहिये।
30.
साक्ष्य
का क्रमबंधन
और मूल्यांकन
अनुभव और
लगातार प्रयास
से परिष्कृत
करते रहना
चाहिये।
31. यदि
किसी पक्ष
ने न्याय
दृष्टांत
प्रस्तुत
किये हो
तो उसका
उल्लेख अवश्य
करना चाहिये
और वे
न्याय दृष्टांत
मामले पर
क्यों लागू
होते है
और क्यों
लागू नहीं
होते है
इसके कारण
भी देना
चाहिये।
न्याय दृष्टांतों
में पहले
पक्षकारों
के नाम
और संबंधित
जनरल का
उल्लेख करना
चाहिये जैसे:-
श्याम
लाल विरूद्ध
म0प्र0
राज्य,
ए.आई.आर.
2002 एस.सी.
1।
मोहन
विरूद्ध
म0प्र0
राज्य,
सी.आर.एल.जे.
2003 पेज
202।
32. किसी
पक्ष द्वारा
किये गये
तर्को का
उल्लेख भी
निर्णय यथा
स्थान पर
करना चाहिये
और वे
तर्क क्यों
स्वीकार किये
जाने योग्य
है और
क्यों नहीं
है इसका
भी उल्लेख
करना चाहिये
जैसेः-
अभियुक्त
के विद्वान
अभिभाषक का
तर्क है
कि प्रथम
सूचना तीन
दिन के
विलंब से
दर्ज करवायी
गई है
विलंब का
स्पष्टीकरण
संतोषजनक
नहीं है
जमीन के
विवाद के
कारण कहानी
गढ़कर असत्य
प्रथम सूचना
दर्ज करवायी
गई हैं
विद्वान
अतिरिक्त
सहायक लोक
अभियोजनक
ने उक्त
तर्को का
विरोध किया
है और
यह बतलाया
है कि
विलंब का
उचित स्पष्टीकरण
दिया गया
हैं तर्को
पर विचार
किया अभिलेख
का अवलोकन
किया।
33.
निर्णय
में जहां
आवश्यक हो
उचित वैधानिक
प्रावधानों
का उल्लेख
करना चाहिये
जैसे:- यदि
अभियुक्त
चुराई हुई
संपत्ति के
आधिपत्य में
होना प्रमाणित
हो जावे
तब धारा
114 (ए)
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम, 1872 की
उपधारणा का
उल्लेख करना
चाहिये।
किसी
शासकीय सेवक
द्वारा उसके
पदीय कत्र्तव्यों
के निर्वाहन
में किये
गये कार्यो
के बारे
में तथ्य
प्रमाणित
हो जाने
पर धारा
114 (ई)
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम की
उपधारणा, जैसे
की डाक्टर
द्वारा तैयार
की गई
मेडिकल रिपोर्ट
जो पदीय
कत्र्तव्यों
के निर्वाहन
में तैयार
की जाती
है उसके
बारे में
उपधारणा।
धारा
113 ए
एवं 113
बी
भारतीय साक्ष्य
अधिनियम की
उपधारणाए
इसी तरह
बलात्संग
के मामले
में धारा
114 ए
भारतीय साक्ष्य
अधिनियम की
उपधारणा।
34.
रिश्तेदार
साक्षी, हितबद्ध
साक्षी, आहत
साक्षी, बाल
साक्षी, पक्ष
विरोधी साक्षी,
पुलिस
साक्षी, एममात्र
साक्षी आदि
के बारे
में किये
गये तर्क
और इस
बारे में
नवीनतम वैधानिक
स्थिति का
उल्लेख भी
मामले की
आवश्यकता
के अनुसार
किया जाना
चाहिये लेकिन
निर्णय को
अनावश्यक
न्याय दृष्टांतों
से बोझिल
करने से
भी बचना
चाहिये।
35.
वर्तमान
में कापी,
पेस्ट
की सुविधा
कम्प्यूटर
व लेपटाप
के कारण
उपलब्ध है
लेकिन इसका
दुरूपयोग न
हो और
निर्णय
अनावश्यक
न्याय दृष्टांतों
के पैराग्राफ
से बोझिल
न हो
यह भी
ध्यान रखना
चाहिये।
36.
कुल
मिलाकर जहां
अत्यावश्यक
हो वही
वैधानिक
प्रावधान
और अवाश्यक
वैधानिक
स्थिति लिखते
हुये न्याय
दृष्टांत
का उल्लेख
करना चाहिये।
37.
निर्णय
लिखाने से
पूर्व मजिस्टेट
/न्यायाधीश
को मामले
की पूरी
तैयारी कर
लेना चाहिये
और किस
क्रम में
क्या विवेचना
होनी है
इसका एक
प्रारूप होना
चाहिये ताकि
क्रम न
टूटे और
अवाश्यक
चीजें ही
निर्णय में
आ सके
इस संबंध
में नियम
238 एवं
नियम 240
(7) ध्यान
में रखना
चाहिये।
नियम
240 (7) बंद
के अनुसार
न्यायाधीश
/मजिस्टेट
को निर्णय
का लेखन
तब तक
प्रारंभ नहीं
करना चाहिये
जब तक
की वह
अपने मस्तिष्क
में यह
स्पष्ट नहीं
कर लेते
की कौन-कौन
से बिन्दुओं
पर उन्हें
निर्णय देना
है और
वह किस
प्रकार उनका
निर्णय करने
जा रहे
है उनके
निष्कर्षो
के क्या
कारण है
ऐसा स्पष्ट
होने पर
ही न्यायाधीश
उन बिन्दुओं
की स्पष्ट
और संक्षिप्त
चर्चा निर्णय
में कर
सकेंगे।
38. इस
तरह निर्णय
के पद
क्रमांक पांच
या पैराग्राफ
पांच में
बनाये गये
विचारणीय
प्रश्नों
पर उक्त
तथ्यों को
ध्यान में
रखते हुये
विवेचना करना
चाहिये और
उन पर
निष्कर्ष
देना चाहिये।
39.
निर्णय
में यह
स्पष्ट लिखना
चाहिये की
अभियुक्त
को किन
आरोपों से
दोषमुक्त
किया जा
रहा है
या किन
आरोपों में
उसे दोषसिद्ध
घोषित किया
जा रहा
है।
40.
निर्णय
में अपराधी
परिविक्षा
अधिनियम, 1958 के
प्रावधानों
के बारे
में विचार
किया जाना
चाहिये की
उनका लाभ
क्यों दिया
जाना उचित
है और
क्यों उचित
नहीं है
इस संबंध
में धारा
361 दं.प्र.सं.
को
ध्यान में
रखना चाहिये।
41.
वारंट
मामले में
अभियुक्त
को दण्ड
के प्रश्न
पर सुना
गया है
इसका उल्लेख
निर्णय में
अवश्य आना
चाहिये।
42.
अभियुक्त
को दिया
गया दण्ड
और अर्थ
दण्ड स्पष्ट
शब्दों में
लिखना चाहिये
और कोई
संदिग्धता
नहीं रहना
चाहिये। दण्ड
यदि एक
से अधिक
अपराधों के
लिये पृथक-पृथक
है तो
क्या उन्हें
एक साथ
भुगताना या
अलग-अलग
भुगताना है
इसके स्पष्ट
निर्देश देना
चाहिये।
अर्थदण्ड
जमा करने
में चूक
होने पर
दिया जाने
वाला अधिकतम
दण्ड मूल
अपराध के
1/4 से
अधिक नहीं
हो सकता
है इसे
ध्यान रखना
चाहिये।
अर्थदण्ड
की चूक
होने पर
दिया जाने
वाला दण्ड
पृथक से
भुगताने का
निर्देश देना
चाहिये।
43. धारा
29 दं.प्र.सं.
1973 के
प्रावधान
ध्यान रखना
चाहिये और
उसमें दी
गई शक्तियों
से अधिक
दण्ड नहीं
देना चाहिये।
44. धारा
357 दं.प्र.सं.
के
प्रावधानों
का उचित
मामले में
उपयोग करना
चाहिये और
संबंधित
मजिस्टेट
की अर्थ
दण्ड की
शक्तियों
के प्रकाश
में यदि
प्रतिकर
पर्याप्त
रूप से
न दिलाया
जा सकता
हो तब
केवल कारावास
का दण्ड
देकर भी
धारा 357
(3) दं.प्र.सं.
के
तहत प्रतिकर
का आदेश
किया जा
सकता है
इसे ध्यान
में रखना
चाहिये।
45.
अपराध
और दण्ड
के बीच
उचित अनुपात
होना चाहिये
किये गये
अपराध की
तुलना में
दिया गया
दण्ड न
तो अत्याधिक
होना चाहिये
और न
अत्यंत अल्प
होना चाहिये
दोनों के
बीच उचित
अनुपात होना
चाहिये।
46. धारा
428 दं.प्र.सं.
1973 के
तहत अभियुक्त
द्वारा
अभिरक्षा
में गुजारी
गई अवधि
का पूर्ण
और स्पष्ट
उल्लेख स्वयं
मजिस्टेट
/न्यायाधीश
द्वारा अभिलेख
की जांच
करके करना
चाहिये यह
कार्य अधीनस्थ
कर्मचारियों
पर नहीं
छोड़ना चाहिये।
47. धारा
363 (1) दं.प्र.सं.
के
तहत दोषसिद्ध
अभियुक्त
को निर्णय
की प्रतिलिपि
निःशुल्क
देने के
प्रावधान
है जिनका
पालन करवाना
चाहिये। इसका
उल्लेख या
तो निर्णय
में या
आदेश पत्र
में अवश्य
आना चाहिये
की निर्णय
की प्रतिलिपि
अभियुक्त
को निःशुल्क
दी जावे।
48.
निर्णय
में मालखाना
वस्तुओं के
निस्तारण
के बारे
में पूर्ण
और स्पष्ट
आदेश किया
जाना चाहिये
और इस
संबंध में
नियम 258
को
ध्यान में
रखना चाहिये।
यदि कोई
अभियुक्त
फरार है
तब मालखाना
वस्तु की
प्रकृति को
देखते हुये
उसे सुरक्षित
रखने के
आदेश देना
चाहिये।
49.
अंतिम
तर्क पूर्ण
होने के
15 दिन
के भीतर
निर्णय पारित
हो जावे
इसका ध्यान
रखना चाहिये
सामान्यतः
निर्णय अंतिम
तर्क सुनने
के बाद
अनुचित विलंब
के बिना
किया जाना
चाहिये और
नियत तिथि
पर निर्णय
हर दशा
में घोषित
हो जावे
इसका पूर्ण
प्रयास करना
चाहिये और
तिथि नियत
करने से
पूर्व ही
मामले के
आकार और
बिन्दुओं
के देखते
हुये ऐसी
युक्तियुक्त
तिथि लगाना
चाहिये जिस
पर हरदशा
में निर्णय
घोषित हो
जावे।
50.
निर्णय
जितना जल्दी
हो सके
पारित कर
देना चाहिये।
51.
निर्णय
की भाषा
बहुत जटिल
न हो
और अत्यंत
निम्न स्तर
की भी
न हो
इसका भी
ध्यान रखना
चाहिए और
निर्णय पढ़कर
पाठक को
यह पता
लग जाना
चाहिये की
न्यायाधीश
/मजिस्टेट
के समक्ष
क्या मामला
था क्या
साक्ष्य थी
और उस
पर उसका
क्या निष्कर्ष
किन कारणों
से रहा।
52.
निर्णय
लिखते समय
धारा 353
से
365 दं.प्र.सं.
के
प्रावधानों
को भी
ध्यान में
रखना चाहिये।
इस
तरह यदि
कोई न्यायाधीश
/मजिस्टेट
नियम एवं
आदेश आपराधिक
एवं दण्ड
प्रक्रिया
संहिता के
प्रावधानों
और उक्त
निर्देशों
को ध्यान
में रखते
हुये सतर्कता
पूर्वक निर्णय
लेखन का
कार्य करते
है तो
निश्चित ही
वे एक
अच्छा निर्णय
पारित करने
में समर्थ
हो सकेंगे।
किसी भी
निर्णय का
कोई निर्धारित
मानक नहीं
है लेकिन
मजिस्टेट
/न्यायाधीश
के निर्णय
में उक्त
निर्देशों
को ध्यान
में रखा
जाना चाहिये।
(पी.के.
व्यास)
विशेष
कत्र्तव्यस्थ
अधिकारी
न्यायिक
अधि. प्रशिक्षण
एवं अनुसंधान
संस्थान
उच्च
न्यायालय
जबलपुर म.प्र.
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