सहदायिकी, सहदायिकी सम्पत्ति, सहदायिक के बारे में
धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में वर्ष 2005 में हुये संशोधन के बाद सहदायिक सम्पत्ति व सहदायिक के सम्पत्ति में हिस्से के बारे में एक बड़ा परिवर्तन आया है व कई प्रश्न नवनियुक्त न्यायाधीशगण के मन में उत्पन्न होते है साथ ही सम्पत्ति में जन्म सिद्ध अधिकार के सिद्धांत के बारे में सही विधिक स्थिति क्या है स्वअर्जित सम्पत्ति, संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति को लेकर भी कई प्रश्न है।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अस्तित्व में आने के बाद की स्थिति के बारे में भी कई प्रश्न हैं यहां हम ऐसे ही कुछ प्रश्नों के बारे में चर्चा करेंगे और नवीनतम वैधानिक स्थिति क्या है यह देखेंगे।
1. धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 संशोधन के पूर्व
धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में वर्ष 2005 में हुये संशोधन के बाद सहदायिक सम्पत्ति व सहदायिक के सम्पत्ति में हिस्से के बारे में एक बड़ा परिवर्तन आया है व कई प्रश्न नवनियुक्त न्यायाधीशगण के मन में उत्पन्न होते है साथ ही सम्पत्ति में जन्म सिद्ध अधिकार के सिद्धांत के बारे में सही विधिक स्थिति क्या है स्वअर्जित सम्पत्ति, संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति को लेकर भी कई प्रश्न है।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अस्तित्व में आने के बाद की स्थिति के बारे में भी कई प्रश्न हैं यहां हम ऐसे ही कुछ प्रश्नों के बारे में चर्चा करेंगे और नवीनतम वैधानिक स्थिति क्या है यह देखेंगे।
1. धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 संशोधन के पूर्व
सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन - जब कि कोई हिन्दू पुरूष अपनी मृत्यु के समय मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में हित रखते हुए इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् मरे जब उस सम्पत्ति में उसका हित सहदायिकी के उत्तरजीवी सदस्यों पर उत्तरजीविता के आधार पर न्यागत होगा, इस अधिनियम के अनुसार नहींः
परन्तु यदि मृतक अनुसूची (1) में विनिर्दिष्ट किसी नारी सम्बधिनी को या उस वर्ग में विनिर्दिष्ट ऐसे किसी पुरूष सम्बन्धी को जो ऐसी सम्बन्धिनी के माध्यम से दावा करता हो, अपना उत्तरजीवी छोड़े तो मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में मृतक का हित इस अधिनियम के अधीन, यथास्थिति, वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा, उत्तरजीविता द्वारा नहीं।
स्पष्टीकरण 1 - इस धारा के प्रयोजनों के लिए हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का हित सम्पत्ति में का वह अंश समझा जाएगा जो उसे बांट में मिलता यदि उसकी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किए बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।
स्पष्टीकरण 2 - इस धारा के परन्तुक में अन्तर्विष्ट किसी बात का यह अर्थ न लगाया जाएगा कि वह उस व्यक्ति को जिसने मृतक को मृत्यु से पूर्व सहदायिकी से अपने को पृथक कर लिया हो, उसे या उसे किन्हीं वारिसों को निर्वसीयती की दशा में उस हित में अंश पाने का दावा करने के लिए योग्य बनाती है जिसके प्रति उस परन्तुक में निर्देश किया गया है।
2. धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 वर्ष 2005 के संशोधन के बाद
परन्तु यदि मृतक अनुसूची (1) में विनिर्दिष्ट किसी नारी सम्बधिनी को या उस वर्ग में विनिर्दिष्ट ऐसे किसी पुरूष सम्बन्धी को जो ऐसी सम्बन्धिनी के माध्यम से दावा करता हो, अपना उत्तरजीवी छोड़े तो मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में मृतक का हित इस अधिनियम के अधीन, यथास्थिति, वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा, उत्तरजीविता द्वारा नहीं।
स्पष्टीकरण 1 - इस धारा के प्रयोजनों के लिए हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का हित सम्पत्ति में का वह अंश समझा जाएगा जो उसे बांट में मिलता यदि उसकी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किए बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।
स्पष्टीकरण 2 - इस धारा के परन्तुक में अन्तर्विष्ट किसी बात का यह अर्थ न लगाया जाएगा कि वह उस व्यक्ति को जिसने मृतक को मृत्यु से पूर्व सहदायिकी से अपने को पृथक कर लिया हो, उसे या उसे किन्हीं वारिसों को निर्वसीयती की दशा में उस हित में अंश पाने का दावा करने के लिए योग्य बनाती है जिसके प्रति उस परन्तुक में निर्देश किया गया है।
2. धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 वर्ष 2005 के संशोधन के बाद
सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन -
(1) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के प्रवृत्त होने पर और से हिन्दू मिताक्षरा विधि से अधिशासित संयुक्त हिन्दू परिवार में सहदायिकी पुत्री -
(क) जन्म से पुत्र की तरह ही अपने अधिकारों से सहदायी हो जाएगी।
(ख) सहदायिकी सम्पत्ति में वहीं अधिकार रखेगी, जो वह पुत्र होती तो रखती।
(ग) उक्त सहदायिकी सम्पत्ति के संबंध में उन्हीं दायित्वों के अध्यधीन होगी जिनके अध्यधीन पुत्र होता है, और मिताक्षरा सहदायी के प्रति कोई निर्देश सहदायी की पुत्री के प्रति निर्देश को समाहित करने वाला माना जावेगाः
परन्तु उपधारा में अंतर्विष्ट कोई बात 20 दिसम्बर 2004 से पूर्व हो चुके सम्पत्ति के किसी विभाजन या वसीयती व्ययन को समाहित करते हुए किसी व्ययन के अन्तरण को प्रभावित या अविधिपूर्ण नहीं करेगी।
(2) कोई भी सम्पत्ति जिसके लिए उपधारा (1) के प्रभाव से एक हिन्दू महिला पात्र है, उसके द्वारा सहदायिकी स्वामित्व के अनुषंगों के साथ धारित की जाएगी और इस अधिनियम या किसी तत्समय प्रवृत्त अन्य विधि में अंतर्विष्ट किसी भी बात के होने के बावजूद भी उसके द्वारा वसीयती व्ययन द्वारा धारित करने योग्य समझी जावेगी।
(3) जहां कोई हिन्दू, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के प्रवृत्त होने के बाद मरता है, उसका मिताक्षरा हिन्दू विधि से अधिशासित संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में हित वसीयत द्वारा या अवसीयती उत्तराधिकार द्वारा, जैसा भी मामला हो, इस अधिनियम के अधीन न्यायगमित होगी और सहदायिकी सम्पत्ति ऐसी विभाजित मानी जावेगी जैसे उसका विभाजन हो चुका हो और -
(क) पुत्री को उतना ही भाग आवंटित होगा, जितना पुत्र को आबंटित होता है;
(ख) पूर्व मृतक पुत्र या पूर्वमृत पुत्री का वह हिस्सा जो वह विभाजन के समय जीवित होते तो प्राप्त करते पूर्व मृत पुत्र या पूर्वमृत पुत्री की जीवित संतानों को आबंटित किया जायेगा; और
(ग) पूर्व मृतक पुत्र या पूर्वमृत पुत्री की पूर्वमृत संतानों का वहीं हिस्सा, जो विभाजन के समय जीवित होने पर प्राप्त करती पूर्वमृत पुत्र या पुत्री जैसा भी मामला हो, की पूर्व मृत संतानों की संतानों को आबंटित किया जावेगा ।
स्पष्टीकरण - इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का हित सम्पत्ति में का वह अंश समझा जाएगा जो उसे बांट में मिलता यदि उसकी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किए बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।
(4) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रवृत्त होने के बाद कोई भी न्यायालय एक पुत्र या पौत्र या प्रपौत्र के विरूद्ध उसके पिता, पितामह, प्रपितामह पर देय ऋण की वसूली के लिए केवल इस आधार पर कि हिन्दू विधि के अधीन ऐसा पुत्र, या प्रपौत्र ऐसे किसी ऋण को चुकाने के पावन दायित्व के अधीन है, कार्यवाही करने के अधिकार को मान्य नहीं करेगा;
परन्तु यह कि हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रवृत्त होने के पूर्व संव्यवहृत ऋण के मामले में इस उपधारा में अंतर्विष्ट कोई बात -
(क) किसी ऋणदाता के पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र जैसा भी मामला हो के विरूद्ध कार्यवाही करने के अधिकार को, प्रभावित नहीं करेगी।
(ख) ऐसे किसी ऋण के संबंध में या ऐसे किसी ऋणी की संतुष्टि में किए गए किसी अंतरण को प्रभावित नहीं करेगी या अंतरण पावन दायित्व के नियम के अधीन उसी प्रकार से उसी सीमा तक प्रर्वतनीय होगा जैसे वह प्रर्वतनीय होता यदि हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 अधिनियमित नहीं किया गया होता।
स्पष्टीकरण - खण्ड (क) के प्रयोजनार्थ अभिव्यक्ति ‘‘पुत्र’’, ‘‘पौत्र’’ या ‘‘प्रपौत्र’’ उस पुत्र पौत्र या प्रपौत्र जैसा भी मामला हो, जो हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) प्रवर्तित होने से पूर्व पैदा हुआ या दत्तक लिया गया हो, को निर्देशित करता है।
(5) इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात उस विभाजन को जो 20 दिसम्बर 2004 के पूर्व प्रभाव में लाया गया हो, को लागू नहीं होगी।
स्पष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनार्थ विभाजन का अर्थ है कोई पंजीकरण अधिनियम 1908 (1908 का क्र. 16) के अधीन पंजीकृत विभाजन विलेख या न्यायालय की आज्ञाप्ति द्वारा प्रभाव में लाया गया विभाजन।
3. सहदायिकी क्या है
(क) जन्म से पुत्र की तरह ही अपने अधिकारों से सहदायी हो जाएगी।
(ख) सहदायिकी सम्पत्ति में वहीं अधिकार रखेगी, जो वह पुत्र होती तो रखती।
(ग) उक्त सहदायिकी सम्पत्ति के संबंध में उन्हीं दायित्वों के अध्यधीन होगी जिनके अध्यधीन पुत्र होता है, और मिताक्षरा सहदायी के प्रति कोई निर्देश सहदायी की पुत्री के प्रति निर्देश को समाहित करने वाला माना जावेगाः
परन्तु उपधारा में अंतर्विष्ट कोई बात 20 दिसम्बर 2004 से पूर्व हो चुके सम्पत्ति के किसी विभाजन या वसीयती व्ययन को समाहित करते हुए किसी व्ययन के अन्तरण को प्रभावित या अविधिपूर्ण नहीं करेगी।
(2) कोई भी सम्पत्ति जिसके लिए उपधारा (1) के प्रभाव से एक हिन्दू महिला पात्र है, उसके द्वारा सहदायिकी स्वामित्व के अनुषंगों के साथ धारित की जाएगी और इस अधिनियम या किसी तत्समय प्रवृत्त अन्य विधि में अंतर्विष्ट किसी भी बात के होने के बावजूद भी उसके द्वारा वसीयती व्ययन द्वारा धारित करने योग्य समझी जावेगी।
(3) जहां कोई हिन्दू, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के प्रवृत्त होने के बाद मरता है, उसका मिताक्षरा हिन्दू विधि से अधिशासित संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में हित वसीयत द्वारा या अवसीयती उत्तराधिकार द्वारा, जैसा भी मामला हो, इस अधिनियम के अधीन न्यायगमित होगी और सहदायिकी सम्पत्ति ऐसी विभाजित मानी जावेगी जैसे उसका विभाजन हो चुका हो और -
(क) पुत्री को उतना ही भाग आवंटित होगा, जितना पुत्र को आबंटित होता है;
(ख) पूर्व मृतक पुत्र या पूर्वमृत पुत्री का वह हिस्सा जो वह विभाजन के समय जीवित होते तो प्राप्त करते पूर्व मृत पुत्र या पूर्वमृत पुत्री की जीवित संतानों को आबंटित किया जायेगा; और
(ग) पूर्व मृतक पुत्र या पूर्वमृत पुत्री की पूर्वमृत संतानों का वहीं हिस्सा, जो विभाजन के समय जीवित होने पर प्राप्त करती पूर्वमृत पुत्र या पुत्री जैसा भी मामला हो, की पूर्व मृत संतानों की संतानों को आबंटित किया जावेगा ।
स्पष्टीकरण - इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का हित सम्पत्ति में का वह अंश समझा जाएगा जो उसे बांट में मिलता यदि उसकी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किए बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।
(4) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रवृत्त होने के बाद कोई भी न्यायालय एक पुत्र या पौत्र या प्रपौत्र के विरूद्ध उसके पिता, पितामह, प्रपितामह पर देय ऋण की वसूली के लिए केवल इस आधार पर कि हिन्दू विधि के अधीन ऐसा पुत्र, या प्रपौत्र ऐसे किसी ऋण को चुकाने के पावन दायित्व के अधीन है, कार्यवाही करने के अधिकार को मान्य नहीं करेगा;
परन्तु यह कि हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रवृत्त होने के पूर्व संव्यवहृत ऋण के मामले में इस उपधारा में अंतर्विष्ट कोई बात -
(क) किसी ऋणदाता के पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र जैसा भी मामला हो के विरूद्ध कार्यवाही करने के अधिकार को, प्रभावित नहीं करेगी।
(ख) ऐसे किसी ऋण के संबंध में या ऐसे किसी ऋणी की संतुष्टि में किए गए किसी अंतरण को प्रभावित नहीं करेगी या अंतरण पावन दायित्व के नियम के अधीन उसी प्रकार से उसी सीमा तक प्रर्वतनीय होगा जैसे वह प्रर्वतनीय होता यदि हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 अधिनियमित नहीं किया गया होता।
स्पष्टीकरण - खण्ड (क) के प्रयोजनार्थ अभिव्यक्ति ‘‘पुत्र’’, ‘‘पौत्र’’ या ‘‘प्रपौत्र’’ उस पुत्र पौत्र या प्रपौत्र जैसा भी मामला हो, जो हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) प्रवर्तित होने से पूर्व पैदा हुआ या दत्तक लिया गया हो, को निर्देशित करता है।
(5) इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात उस विभाजन को जो 20 दिसम्बर 2004 के पूर्व प्रभाव में लाया गया हो, को लागू नहीं होगी।
स्पष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनार्थ विभाजन का अर्थ है कोई पंजीकरण अधिनियम 1908 (1908 का क्र. 16) के अधीन पंजीकृत विभाजन विलेख या न्यायालय की आज्ञाप्ति द्वारा प्रभाव में लाया गया विभाजन।
3. सहदायिकी क्या है
सर्वप्रथम हम यह देखते हैं कोपार्सनरी या सहदायिकी क्या है ?
एक पिता, पुत्र व पौत्र या पोता मिलकर किसी संयुक्त हिन्दू परिवार में एक सहदायिकी या कोपार्सनरी बनाते हैं। सहदायिकी किसी संयुक्त हिन्दू परिवार की एक छोटी इकाई कही जा सकती है जो उक्त तीन पीढि़यों से मिलकर बनती है।
धारा 6 में हुए उक्त संशोधन के पूर्व यह स्थिति थी लेकिन धारा 6 में हुए संशोधन के बाद सहदायिकी में पुत्री को भी शामिल किया गया है अतः वर्ष 2005 के संशोधन के बाद पिता, पुत्र, पुत्री व पौत्र या पोता मिलकर सहदायिकी बनाते है लेकिन पुत्री का पुत्र या नाती सहदायिक नहीं होता है।
वर्ष 2005 के बाद पुत्रियों को भी सहदायिक सम्पत्ति में पुत्र के समान हक होता है संशोधन के पूर्व पुत्रियां स्वतंत्र रूप से विभाजन की मांग नहीं कर सकती थी केवल पिता और भाइयों के बीच बंटवारा होने पर उन्हें एक हिस्सा मिलता था और वह भी बहुत थोड़ा सा होता था वर्ष 2005 के संशोधन के बाद पुत्रियां न केवल स्वतंत्र रूप से विभाजन की मांग कर सकती है बल्कि उन्हें पुत्र के समान बराबर हिस्सा सम्पत्ति में मिलता है।
सहदायिकी या कोपार्सनरी की संशोधन के पूर्व और संशोधन के पश्चात् की स्थिति इस प्रकार है
2005 के संशोधन के 2005 के संशोधन के
पूर्व की स्थिति पश्चात् की स्थिति
4. सहदायिकी के मुख्य लक्षण
एक पिता, पुत्र व पौत्र या पोता मिलकर किसी संयुक्त हिन्दू परिवार में एक सहदायिकी या कोपार्सनरी बनाते हैं। सहदायिकी किसी संयुक्त हिन्दू परिवार की एक छोटी इकाई कही जा सकती है जो उक्त तीन पीढि़यों से मिलकर बनती है।
धारा 6 में हुए उक्त संशोधन के पूर्व यह स्थिति थी लेकिन धारा 6 में हुए संशोधन के बाद सहदायिकी में पुत्री को भी शामिल किया गया है अतः वर्ष 2005 के संशोधन के बाद पिता, पुत्र, पुत्री व पौत्र या पोता मिलकर सहदायिकी बनाते है लेकिन पुत्री का पुत्र या नाती सहदायिक नहीं होता है।
वर्ष 2005 के बाद पुत्रियों को भी सहदायिक सम्पत्ति में पुत्र के समान हक होता है संशोधन के पूर्व पुत्रियां स्वतंत्र रूप से विभाजन की मांग नहीं कर सकती थी केवल पिता और भाइयों के बीच बंटवारा होने पर उन्हें एक हिस्सा मिलता था और वह भी बहुत थोड़ा सा होता था वर्ष 2005 के संशोधन के बाद पुत्रियां न केवल स्वतंत्र रूप से विभाजन की मांग कर सकती है बल्कि उन्हें पुत्र के समान बराबर हिस्सा सम्पत्ति में मिलता है।
सहदायिकी या कोपार्सनरी की संशोधन के पूर्व और संशोधन के पश्चात् की स्थिति इस प्रकार है
2005 के संशोधन के 2005 के संशोधन के
पूर्व की स्थिति पश्चात् की स्थिति
4. सहदायिकी के मुख्य लक्षण
(1) सहदायिकी सम्पत्ति में प्रत्येक सहदायिक का सम्पत्ति में जन्म से अधिकार होता है।
(2) सभी सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में सहस्वामित्व होता है और सभी सहदायिक का सम्पत्ति पर समान रूप से कब्जा माना जाता है।
(3) जब तक सहदायिकी सम्पत्ति का बंटवारा नहीं हो जाता है तब तक प्रत्येक सहदायिक का सम्पत्ति में संयुक्त हक रहता है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि किस सहदायिक का सम्पत्ति में कितना हिस्सा है क्योंकि किसी सहदायिक की मृत्यु होने पर या किसी नए सहदायिक के जन्म ले लेने पर हिस्सा घटता-बढ़ता रहता है।
(4) सहदायिक की मृत्यु होने पर यदि उसकी कोई वैध प्रतिनिधि न हो तो सहदायिक सम्पत्ति में उसका हित समाप्त हो जाता है और सहदायिकी सम्पत्ति में विलीन हो जाता है।
(5) सहदायिकी के सदस्य बंटवारे की मांग करके सहदायिकी सम्पत्ति में से अपना हक अलग करा सकते हैं।
(6) वैधानिक आवश्यकता होने पर सभी सहदायिकी की सहमति से सम्पत्ति बेची जा सकती है।
(7) उत्तरजीविता का सिद्धांत ऐसी सम्पत्ति के संबंध में लागू होता है।
5. सहदायिक सम्पत्ति में विभाजन
(वर्ष 2005 के पूर्व की स्थिति)
(2) सभी सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में सहस्वामित्व होता है और सभी सहदायिक का सम्पत्ति पर समान रूप से कब्जा माना जाता है।
(3) जब तक सहदायिकी सम्पत्ति का बंटवारा नहीं हो जाता है तब तक प्रत्येक सहदायिक का सम्पत्ति में संयुक्त हक रहता है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि किस सहदायिक का सम्पत्ति में कितना हिस्सा है क्योंकि किसी सहदायिक की मृत्यु होने पर या किसी नए सहदायिक के जन्म ले लेने पर हिस्सा घटता-बढ़ता रहता है।
(4) सहदायिक की मृत्यु होने पर यदि उसकी कोई वैध प्रतिनिधि न हो तो सहदायिक सम्पत्ति में उसका हित समाप्त हो जाता है और सहदायिकी सम्पत्ति में विलीन हो जाता है।
(5) सहदायिकी के सदस्य बंटवारे की मांग करके सहदायिकी सम्पत्ति में से अपना हक अलग करा सकते हैं।
(6) वैधानिक आवश्यकता होने पर सभी सहदायिकी की सहमति से सम्पत्ति बेची जा सकती है।
(7) उत्तरजीविता का सिद्धांत ऐसी सम्पत्ति के संबंध में लागू होता है।
5. सहदायिक सम्पत्ति में विभाजन
(वर्ष 2005 के पूर्व की स्थिति)
यदि किसी व्यक्ति के तीन पुत्र, तीन पुत्रियां हों और वह तथा उसकी पत्नी भी हो तब उसकी मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति में 3 पुत्रों, एक विधवा और एक उसका स्वयं का इस तरह 5 हिस्से होगें और प्रत्येक को 1/5 हिस्सा मिलेगा।
उस व्यक्ति का 1/5 हिस्सा उसके 3 पुत्रों, एक विधवा और तीन पुत्रियों में समान रूप से बंटेगा ऐसी में पत्नी का 1/5 $ 1/35 = 8/35 अंश मिलेगा और इसी प्रकार प्रत्येक पुत्रों को भी 1/5 $ 1/35 = 8/35 अंश मिलेगा। प्रत्येक पुत्री को 1/35 अंश मिलेगा।
s1 s2 s3 D1 D2 D3 Wife
पुत्र पुत्र पुत्र पुत्री पुत्री पुत्री पत्नी
8/35 8/35 8/35 1/35 1/35 1/35 8/35
उस व्यक्ति की मृत्यु दिनांक के ठीक पूर्व काल्पनिक बंटवारा करते हैं। और उक्त अनुसार प्रत्येक सदस्य का हिस्सा निकालते हैं।
इस संबंध न्यायदृष्टांत श्रीमति राजरानी विरूद्ध द चीफ सेटलमेंट कमिश्नर देहली ए.आई.आर. 1984 एस.सी. 1234 तीन न्यायमूर्ति गण की पीठ निर्णय चरण 17 और 18, गुरूपद खंडप्पा विरूद्ध हीराबाई खंडप्पा ए.आई.आर. 1978 एस.सी. 1239 तीन न्यायमूर्ति गण की पीठ निर्णय चरण 13 से मार्गदर्शन लिया जा सकता है।
6. वर्ष 2005 के संशोधन के पश्चात् विभाजन होने पर
उस व्यक्ति का 1/5 हिस्सा उसके 3 पुत्रों, एक विधवा और तीन पुत्रियों में समान रूप से बंटेगा ऐसी में पत्नी का 1/5 $ 1/35 = 8/35 अंश मिलेगा और इसी प्रकार प्रत्येक पुत्रों को भी 1/5 $ 1/35 = 8/35 अंश मिलेगा। प्रत्येक पुत्री को 1/35 अंश मिलेगा।
s1 s2 s3 D1 D2 D3 Wife
पुत्र पुत्र पुत्र पुत्री पुत्री पुत्री पत्नी
8/35 8/35 8/35 1/35 1/35 1/35 8/35
उस व्यक्ति की मृत्यु दिनांक के ठीक पूर्व काल्पनिक बंटवारा करते हैं। और उक्त अनुसार प्रत्येक सदस्य का हिस्सा निकालते हैं।
इस संबंध न्यायदृष्टांत श्रीमति राजरानी विरूद्ध द चीफ सेटलमेंट कमिश्नर देहली ए.आई.आर. 1984 एस.सी. 1234 तीन न्यायमूर्ति गण की पीठ निर्णय चरण 17 और 18, गुरूपद खंडप्पा विरूद्ध हीराबाई खंडप्पा ए.आई.आर. 1978 एस.सी. 1239 तीन न्यायमूर्ति गण की पीठ निर्णय चरण 13 से मार्गदर्शन लिया जा सकता है।
6. वर्ष 2005 के संशोधन के पश्चात् विभाजन होने पर
यदि किसी व्यक्ति के दो पुत्र, दो पुत्रियां और पत्नी हैं और वह वर्ष 2005 के संशोधन के अस्तित्व में आने के पश्चात् मरता है तो उसकी सहदायिक सम्पत्ति उसके दो पुत्र, दो पुत्रियों और एक पत्नी मे समान रूप से बंटेगी। उस व्यक्ति की मृत्यु के ठीक पूर्व काल्पनिक बंटवारा करने पर एक अंश उस व्यक्ति का भी रखेंगे और इस तरह सम्पत्ति के 6 हिस्से होंगे और प्रत्येक को 1/6 अंश मिलेगा।
उस व्यक्ति का 1/6 अंश फिर उसके दो पुत्र, दो पुत्रियों और एक विधवा में अर्थात् 5 सदस्यों में समान रूप से बंटेगा और प्रत्येक सदस्यों को इस 1/6 गुणित 1/5 = 1/30 अंश प्राप्त होगा।
और इस तरह प्रत्येक सदस्य को 1/6 धन 1/30 =6230 या 1/5 अंश मिलेगा।
इस तरह जहा वर्ष 2005 के संशोधन के पूर्व पुत्री को मात्र 1/35 अंश सम्पत्ति में मिलता था वहा संशोधन के बाद उसे बराबरी का हक पुत्रों के समान 1/5 अंश मिला।
इस तरह वर्ष 2005 के संशोधन के पूर्व पुत्री को पिता के एक हिस्से का भी बहुत थोड़ा अंश मिला था वहीं संशोधन के बाद उसे पुत्रों के समान बराबर अंश मिलने लगा है।
7. 20/12/2004 के पूर्व के विभाजन के बारे में
उस व्यक्ति का 1/6 अंश फिर उसके दो पुत्र, दो पुत्रियों और एक विधवा में अर्थात् 5 सदस्यों में समान रूप से बंटेगा और प्रत्येक सदस्यों को इस 1/6 गुणित 1/5 = 1/30 अंश प्राप्त होगा।
और इस तरह प्रत्येक सदस्य को 1/6 धन 1/30 =6230 या 1/5 अंश मिलेगा।
इस तरह जहा वर्ष 2005 के संशोधन के पूर्व पुत्री को मात्र 1/35 अंश सम्पत्ति में मिलता था वहा संशोधन के बाद उसे बराबरी का हक पुत्रों के समान 1/5 अंश मिला।
इस तरह वर्ष 2005 के संशोधन के पूर्व पुत्री को पिता के एक हिस्से का भी बहुत थोड़ा अंश मिला था वहीं संशोधन के बाद उसे पुत्रों के समान बराबर अंश मिलने लगा है।
7. 20/12/2004 के पूर्व के विभाजन के बारे में
धारा 6(5) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि 20/12/2004 के पूर्व हुए बंटवारे पर संशोधित प्रावधान लागू नहीं होंगे लेकिन स्पष्टीकरण जोड़कर बंटवारे का अर्थ भी स्पष्ट किया गया है जिसके अनुसार पंजीकृत बंटवारा विलेख या न्यायालय की डिक्री से हुए बंटवारे को ही मान्यता दी जायेगी किसी भी प्रकार के मौखिक बंटवारे को मान्यता नहीं मिल सकती है अतः जब कभी मामलों में प्रतिवादी बंटवारा हो जाने का अभिवाक् लेता है तो उसे धारा 6(5) एवं स्पष्टीकरण के प्रकाश में देखना चाहिए।
8. प्रावधान की प्रकृति
8. प्रावधान की प्रकृति
धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 भूतलक्षी नहीं है जैसा की न्यायदृष्टांत जी. शेखर विरूद्ध गीथा (2009) 6 एस.सी.सी. 99 निर्णय चरण 30 और 31 से स्पष्ट है।
अतः प्रावधान की प्रकृति को समझते समय यह तथ्य ध्यान रखना चाहिए कि यह प्रावधान भूतलक्षी नहीं है।
9. ऋण अदायगी के पवित्र कत्र्तव्य के बारे में
अतः प्रावधान की प्रकृति को समझते समय यह तथ्य ध्यान रखना चाहिए कि यह प्रावधान भूतलक्षी नहीं है।
9. ऋण अदायगी के पवित्र कत्र्तव्य के बारे में
धारा 6(4) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के प्रकाश में इस संशोधन के बाद किसी पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरूद्ध उसके पिता, पितामह, प्रपितामह पर बकाया किसी ऋण की वसूली के लिए परम कत्र्तव्य या पायस ओबलीगेशन के सिद्धांत के आधार पर अब कोई कार्यवाही नहीं की जा सकेगी यह भी एक परिवर्तन संशोधन के बाद आया है।
10. कृषि भूमि के बारे में
10. कृषि भूमि के बारे में
कृषि भूमि के बारे में भी हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के प्रावधान ही हिन्दू पर लागू होते हैं क्योंकी कृषि भूमि व्यक्तिगत कानून के अनुसार विभाजित होती है।
11. जन्म सिद्ध अधिकार का सिद्धांत
11. जन्म सिद्ध अधिकार का सिद्धांत
किसी भी व्यक्ति का सहदायिक सम्पत्ति में जन्म से अधिकार होता है जैसा की न्याय दृष्टांत विजय गोयल विरूद्ध मदन गोयल 2007 (2) एम.पी.जे.आर. 303 डी.बी. गुलाब राव विरूद्ध छब्बू बाई (2003) 1 एस.सी.सी. 212 से स्पष्ट है।
लेकिन यदि सम्पत्ति सहदायिक सम्पत्ति नहीं है तब या पिता ने संयुक्त हिन्दू परिवार से या सहदायिक सम्पत्ति से अपना विभाजन ले लिया है ऐसी स्थिति हो तब पुत्र को पिता के जीवनकाल में ऐसी सम्पत्ति का विभाजन मांगने का अधिकार उत्पन्न नहीं होता है जैसा की न्याय दृष्टांत कमिश्नर आफ वेल्थ टैक्स कानपुर विरूद्ध चंद्रसेन ए.आई.आर. 1986 एस.सी. 1753 युधिष्ठिर विरूद्ध अशोक ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 558, चंद्रकांता विरूद्ध अशोक 2002 (3) एम.पी.एल.जे. 576 से स्पष्ट होता है।
लेकिन यदि सम्पत्ति सहदायिक सम्पत्ति नहीं है तब या पिता ने संयुक्त हिन्दू परिवार से या सहदायिक सम्पत्ति से अपना विभाजन ले लिया है ऐसी स्थिति हो तब पुत्र को पिता के जीवनकाल में ऐसी सम्पत्ति का विभाजन मांगने का अधिकार उत्पन्न नहीं होता है जैसा की न्याय दृष्टांत कमिश्नर आफ वेल्थ टैक्स कानपुर विरूद्ध चंद्रसेन ए.आई.आर. 1986 एस.सी. 1753 युधिष्ठिर विरूद्ध अशोक ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 558, चंद्रकांता विरूद्ध अशोक 2002 (3) एम.पी.एल.जे. 576 से स्पष्ट होता है।
12. स्वअर्जित सम्पत्ति
स्वअर्जित सम्पत्ति उस सम्पत्ति को कहा जाता है जो कोई व्यक्ति किसी सेवा, व्यापार आदि से स्वयं कमाता है और उस सेवा या व्यापार में संयुक्त हिन्दू परिवार या सहदायिक सम्पत्ति का कोई योगदान नहीं होता है और ऐसी स्वअर्जित सम्पत्ति का कोई व्यक्ति अपने जीवनकाल में अपनी इच्छानुसार व्ययन कर सकता है।
13. संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति
13. संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति
ऐसी सम्पत्ति जो एक पूरे संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति होती है और जो पूर्वजों के समय से चली आती है उसे संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति कहते हैं कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत आय को भी संयुक्त परिवार की आय में मिला सकता है और तब वह सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति हो जाती है साथ ही संयुक्त हिन्दू परिवार का सदस्य रहते हुए भी कोई व्यक्ति अपनी पृथक सम्पत्ति धारण कर सकता है। इसी संयुक्त हिन्दू परिवार में पिता, पुत्र और पौत्र मिलकर सहदायिकी बनाते हैं जो एक छोटी इकाई होती है।
14. धारा 23 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के बारे में
वर्ष 2005 के संशोधन के बाद धारा 23 को विलोपित कर दिया गया है जो पहले इस प्रकार थी:-
निवास-गृह के बारे में विशेष उपबन्ध - जहां कि निर्वसीयत हिन्दू ने अनुसूची में वर्ग 1 में विनिर्दिष्ट पुरूष और नारी दोनों वारिस अपने पीछे उत्तरजीवी छोड़े हो और उनकी सम्पत्ति के अन्तर्गत उसके अपने कुटुम्ब के सदस्यों के पूर्णतः अधिभोग में कोई निवास न हो, वहा इस अधिनियम में किसी बात के अन्तर्विष्ट होते हुए भी, किसी ऐसी नारी वारिस का निवास गृह के विभाजन कराने के दावे का अधिकार तब तक उद्भूत न होता जब तक कि पुरूष वारिस उसमें अपने-अपने अंशो का विभाजन करना पसन्द न करें, किन्तु नारी वारिस उसमें निवास करने के अधिकार की हकदार होगी।
परन्तु जहां कि ऐसी नारी वारिस पुत्री हो वहां वह निवास गृह में निवास करने के अधिकार की हकदार तभी होगी जबकि वह अविवाहित हो या अपने पति द्वारा अभित्यक्ता हो या उसमें पृथक हो गई या विधवा हो।
अब धारा 23 विलोपित कर दी गयी है इसलिए अब निवास गृह विभाजन के बारे में भी महिला सदस्य वाद ला सकती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत प्रभुदयाल विरूद्ध रामसिया 2009 (2) एम.पी.एल.जे. 247 अवलोकनीय है।
15. उपसंहार
इस प्रकार 2005 में धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में हुए संशोधन के बाद पुत्रियों को पुत्र के समान सहदायिक सम्पत्ति में समान हक दिया गया है और वे सहदायिक सम्पत्ति में स्वतंत्र रूप से विभाजन की मांग भी कर सकती है लेकिन 20/12/2004 के पूर्व पंजीकृत विलेख से या न्यायालय के माध्यम से हो चुके विभाजन पर यह प्रावधान लागू नहीं होता है।
अब महिलायें धारा 23 के विलुप्त हो जाने के बाद निवास गृह में भी विभाजन मांग सकती है, ऋण अदा करने का पवित्र कत्र्तव्य की स्थिति विलुप्त हो चुकी है। धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम भूतलक्षी नहीं है सहदायिक सम्पत्ति के बारे में जन्म से अधिकार का सिद्धांत लागू होता है लेकिन पिता यदि विभाजन करवाकर पृथक अंश ले चुका होता है तब पिता के जीवनकाल में पुत्र को विभाजन मांगने का अधिकार नहीं होता है उक्त वैधानिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रकरण का निराकरण करना चाहिए।
क्या विवाहित पुत्री की मृत्यु के बाद उसकी संतानो का सम्पत्ति मे कोई हक़ रहता है??
ReplyDeleteहा है
Deleteनहीं कोई हक नहीं रहता है धारा 6 मैं बताया गया है कि पुत्री के संतानों का सम्पति मैं कोई हक नहीं होता है।
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