भुगतान करें और वसूलें (
Pay and Recover) का सिद्धांत
मोटरयान अधिनियम 1988 का अध्याय 11 मोटरयानों का पर व्यक्ति जोखिम बीमा के बारे में है जो पर व्यक्ति या तृतीय पक्ष के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया है।
प्रायः सदस्य मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण के सामने यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि किन मामलों में ‘‘भुगतान करें और वसूलें’’ का सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए और किन मामलों में यह सिद्धांत लागू नहीं किया जाना चाहिए। अधिकरणों के सामने के सामने विभिन्न न्याय दृष्टांत प्रस्तुत होते हैं और सही विधिक स्थिति क्या है यह कई बार स्पष्ट नहीं हो पाता है और अधिकरणों का अमूल्य समय अनावश्यक नष्ट होता है यहा हम भुगतान करें और वसूलें के सिद्धांत के बारे में विचार करेंगे।
1. सिद्धांत की उत्पत्ति
‘‘भुगतान करें और वसूलें’’ के सिद्धांत की उत्पत्ति के बारे में न्याय दृष्टांत ब्रिटिश इंडिया जनरल इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड विरूद्ध कैप्टन एतबार सिंह ए.आई.आर. 1959 एस.सी. 1331 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ निर्णय चरण 16 में उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति का कोई नुकसान होता है उसके बारे में विधि ने इसके लिए उचित माना की बीमा कता ( Insurer) उस नुकसान को वहन करें। इस मामले में यह भी कहा गया कि बीमा करने वाले को उसके व्यापार के दौरान जो नुकसान होता है वह भी न्यायालय की दृष्टि में साम्यापूर्ण है। बीमा कर्ता जो व्यापार करता है उससे उसे लाभ होता है और वह अपने व्यापार को ऐसे प्रबंधित कर सकता है कि अंतिम परिणाम में उसे नुकसान न हो दूसरी ओर एक आहत व्यक्ति को जो नुकसान होता है उसमें उसकी त्रुटि नहीं होती है उसे जो नुकसान होता है वह एक दुर्घटना के कारण होता है जिस दुर्घटना में उसका कोई हाथ नहीं होता है।
उक्त न्याय दृष्टांत में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त मत देते हुए एक प्रकार से बीमा कंपनी को होने वाले नुकसान और तृतीय पक्ष या आहत व्यक्ति को होने वाले नुकसान की तुलना की है और तुलना करके यह पाया है एक आहत की दुर्घटना में कोई भूमिका नहीं होती है फिर भी उसे उस दुर्घटना से हानि उठानी पड़ती है दूसरी और बीमा कंपनी बीमा का व्यापार करती है वह चाहे तो अपने व्यापार का प्रबंध इस तरह कर सकती है की उसे व्यापार से हानि न हो और यही से इस सिद्धांत की उत्पत्ति हुई है।
2. सिद्धांत का उद्देश्य
न्यायदृष्टांत स्कन्दिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कोकिला बेन चंद्र बदन ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 1184 में निर्णय चरण 13 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विधायिका ने यह प्रावधान की कोई भी वाहन सार्वजनिक स्थान में तभी उपयोग किया जायेगा जबकि उस यान के उपयोग के संबंध में बीमा पालिसी ली गई हो यह प्रावधान बीमा कंपनी का व्यापार बढ़ाने के लिए नहीं किया गया है बल्कि समाज के सदस्यों जो कि वाहनों के उपयोग से दुर्घटनाग्रस्त होते हैं उनकी सुरक्षा के लिए किया गया है।
इस तरह समाज के वे सदस्य जो वाहन के उपयोग से दुर्घटना ग्रस्त होते हैं उनके हितों की रक्षा इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य है।
3. जहा बीमा करवाना अनिवार्य हो
इस सिद्धांत की विधिक स्थिति, जहा वाहन स्वामी के लिए कानून के अनुसार बीमा करवाना अनिवार्य हो, वहा अलग होती है और जहा वाहन स्वामी के लिए कानून के अनुसार बीमा करवाना अनिवार्य न हो, वहा अलग होती है।
मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा 146 (1) में वाहनों के अनिवार्य बीमा के बारे में प्रावधान किया गया है जिसके अनुसार, कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक स्थान में मोटरयान का उपयोग यात्री से भिन्न रूप में तभी करेगा या किसी अन्य व्यक्ति से तभी करायेगा या उसे करने देगा जब, उस व्यक्ति या उस अन्य व्यक्ति द्वारा, जैसी भी स्थिति हो, उस यान के उपयोग के संबंध में ऐसी बीमा पालिसी प्रवृत्त है जो इस अध्याय की अपेक्षाओं के अनुपालन में है अन्यथा नहीं।
धारा 146(2)(3) के अनुसार सरकार किसी वाहन के संबंध में बीमा करवाने से छूट भी दे सकती है और राज्य सरकार के वाहनों में छूट के प्रावधान भी इसमें किए गए हैं।
इस प्रावधान का उद्देश्य तृतीय पक्ष के अधिकारों की रक्षा करना है।
न्याय दृष्टांत न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी शिमला वि. कमला ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 1340 में निर्णय के चरण 25 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि बीमा कंपनी और बीमा करवाने वाला बीमा पालिसी की शर्तों से बंधे हुए रहते हैं। बीमा कंपनी यदि बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन होता है तो बीमा करवाने वाले को कुछ अदा करने के लिए उत्तरदायी नहीं होती है लेकिन जहा बीमा कंपनी तृतीय पक्ष को प्रतिकर अदा करने के लिए वैधानिक रूप से बीमा प्रमाण पत्र के अधीन दायी होती हैं वहा तृतीय पक्ष को जो भुगतान किया गया उस प्रतिकर वसूली बीमा करवाने वाले से कर सकती है, यदि बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन पाया जाता है तो वैध चालन अनुज्ञप्ति के बिना वाहन चलाया जाना।
इस मामले में निर्णय के चरण 17 से 21 में धारा 149 मोटरयान अधिनियम का विचार करते हुए निर्णय के चरण 22 में यह कहा गया कि जहा एक वैध बीमा पालिसी किसी वाहन के संबंध में जारी की गई हो और बीमा प्रमाण पत्र दिया गया हो वहा बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ हो या न हुआ हो बीमा कंपनी तृतीय पक्ष को प्रतिकर अदा करने के लिए उत्तरदायी होती है, लेकिन वह तृतीय पक्ष को अदा किए गए प्रतिकर को बीमा करवाने वाले से वसूल सकती है, यदि पालिसी की शर्तों के अनुसार बीमा कंपनी का दायित्व नहीं बनता है।
उक्त विवेचना से यह वैधानिक स्थिति स्पष्ट होती है कि जहा वाहन स्वामी के लिए बीमा करवाना कानून के अनुसार आवश्यक हो वहा कुसुम लता वि. सतवीर ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 1234 बीमा कंपनी तृतीय पक्ष को प्रतिकर अदा करने के लिए उत्तरदायी होता है चाहे पालिसी का शर्तों का उल्लंघन हुआ हो या नहीं क्योंकि धारा 146 मोटरयान अधिनियम 1988 में अनिवार्य बीमा का प्रावधान तृतीय पक्ष के अधिकारों की सुरक्षा के लिए किया गया है और बीमा कंपनी जो अपना व्यापार संचालित करती है उसे अपने व्यापार का प्रबंध इस प्रकार करना चाहिए कि उसे अंततः हानि न हो अनवार्य बीमा का प्रावधान तृतीय पक्ष के हितों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए किया गया है।
वैसे तो कई मामलों में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने और माननीय म.प्र. उच्च न्यायालय ने भी पहले भुगतान करें फिर वसूली के निर्देश दिए हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ मामले जिनमें पहले भुगतान करें फिर वसूलें के निर्देश दिए गए इस प्रकार हैं:-
न्यायदृष्टांत कुसुम लता वि. सतवीर ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 1234 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि जहा चालक अनुज्ञप्ति के बारे में विवाद हो तो बीमा कंपनी को पहले प्रतिकर अदा करना होगा और फिर वह उसे वाहन मालिक से वसूल सकती है।
न्यू इंडिया इंश्यारेंस कंपनी लिमिटेड वि. दर्शना देवी ए.आई.आर. 2008 एस.सी. (सप्लीमेंट) 1639 के मामले में मृतक ट्रैक्टर के मडगाड में बैठा था वह माल का स्वामी भी था, चालक के पास वैध चालन अनुज्ञप्ति नहीं थी, अधिकरण ने बीमा कंपनी को पहले भुगतान करने, फिर वसूलने के निर्देश दिए जो हस्तक्षेप योग्य नहीं पाए गए।
ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. अंगद कोल ए.आई.आर 2009 एस.सी. 2151 के मामले में चालक के पास हल्के मोटरयान चलाने की चालन अनुज्ञप्ति थी परिवहन यान चलाने की चालन अनुज्ञप्ति नहीं थी उसे बीमा पालिसी की शर्त का भंग माना गया और बीमा कंपनी को पहले तृतीय पक्ष को प्रतिकर अदा करने और फिर उसे मालिक से वसूल करने के निर्देश दिए गए।
न्यायदृष्टांत शंकर प्रसाद वि. नफीस खान 2010 (3) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 42 के अनुसार चाहे बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ हो, वाहन बीमा कंपनी के पास बीमित है तब बीमा कंपनी को दायित्व मुक्त करने के स्थान पर उसे प्रतिकर वसूलने के अधिकार (पहले भुगतान करें फिर वसूलें) का आदेश उचित माना गया और यह भी कहा गया कि वाहन स्वामी और वाहन चालक जो एक पक्षीय हैं, चालक के पास दुर्घटना के समय वैध एवं प्रभावी चालन अनुज्ञप्ति होना निष्पादन कार्यवाही में दर्शा सकते हैं, उन्हें यह स्वतंत्रता रहेगी।
4. जहा बीमा करवाना अनिवार्य न हो।
जहा कानून के अनुसार किसी वाहन का बीमा करवाना वाहन स्वामी के लिए अनिवार्य न हो वहा बीमा कंपनी जिस उद्देश्य के लिए बीमा करवाया गया है और कानून के अनुसार आवश्यक भी है उसी सीमा तक उत्तरदायी होती है।
धारा 147 (1)(बी)(1) मोटरयान अधिनियम 1988 के अनुसार माल के मालिक या यान में ले जाए जा रहे माल के मालिक के अधिकृत प्रतिनिधि सहित किसी व्यक्ति की मृत्यु या शारीरिक उपहति या यान के उपयोग से किसी तीसरे पक्ष की सम्पत्ति को कारित क्षति के संबंध में बीमा कंपनी के दायित्व को बतलाया गया है।
इस प्रकार यदि किसी मालवाहक वाहन में यदि उस माल के साथ माल का मालिक या माल के मालिक के अधिकृत प्रतिनिधि की वाहन दुर्घटना मे यदि मृत्यु होती है या उसे शारीरिक क्षति होती है तो बीमा कंपनी उस सीमा तक प्रतिकर के लिए उत्तरदायी होती है लेकिन यदि उस माल वाहक वाहन मे कोई व्यक्ति अनुग्रह यात्री के रूप में बैठा हो जो न तो माल का स्वामी है और न ही माल के स्वामी का अधिकृत प्रतिनिधि हो उसको कार्यक्षति के लिए उस वाहन की बीमा कंपनी उत्तरदायी नहीं होती है क्योंकि माल वाहक वाहन में बैठे अनुग्रह यात्री के लिए बीमा करवाने के लिए वाहन स्वामी पर कोई कानूनी दायित्व नहीं होता है।
इस प्रकार जहा वाहन स्वामी कानून के अनुसार बीमा करवाने के लिए बाध्य न हो वहा बीमा कंपनी का प्रतिकर के लिए दायित्व नहीं बनता है जैसे माल वाहक वाहन में बैठे अनुग्रह यात्री के लिए वाहन स्वामी बीमा करवाने के लिए बाध्य नहीं होता है अतः ऐसे मामलों में चाहे आहत तृतीय पक्ष हो तब भी भुगतान करें और वसूलें का सिद्धांत लागू नहीं किया जाना चाहिए।
माननीय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामलों में भी संविधान के अनुच्छेद 142 और 136 के तहत भुगतान करें और वसूलें के निर्देश देते हैं लेकिन ये शक्तिया, सदस्य, मोटर दुर्घटना दावा अधिकारण को नहीं होती हैं अतः अधिकरणों को ऐसे मामले मे भुगतान करें और वसूलें के निर्देश नहीं देना चाहिए।
5. माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बड़ी पीठ को किया गया
रेफरेंन्स
न्यायदृष्टांत नेशनल इंश्योरेंस कंपनी वि. पारवथनेनी (2009) 8 एस.सी.सी. 785 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के बड़ी पीठ के लिए दो प्रश्न रेफर किए हैं -
1. जहा बीमा कंपनी इस स्थिति में हैं कि उसने प्रमाणित किया है कि वह मोटरयान अधिनियम या अन्य विधि के तहत प्रतिकर की राशि अदा करने के लिए उत्तरदायी नहीं है। क्या वहा न्यायालय बीमा कंपनी को इसके लिए बाध्य कर सकती है कि वह पहले प्रश्नधीन राशि भुगतान करे और फिर उसे वाहन स्वामी से वसूल करने के लिए स्वतंत्र रहेगी?
2. क्या ऐसे निर्देश अनुच्छेद 142 के तहत जारी किए जा सकते हैं?अनुच्छेद 142 का क्षेत्र क्या है? क्या अनुच्छेद 142 न्यायालय को ऐसा दायित्व सृजित करने की अनुज्ञप्ति देती है जो अस्तित्व में ही नहीं है? माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त दो प्रश्न निराकरण के लिए रेफर किए हैं लेकिन जब तक इन प्रश्नों का निराकरण नहीं हो जाता तब तक भुगतान करें और वसूलें का सिद्धांत न्यायदृष्टांत नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. स्वर्णसिंह ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 1535 तीन न्यायमूर्ति गण की पीठ में निर्णय चरण 105 में दिए गए निर्देशों के अनुसार जारी रखना चाहिए।
6. बीमा कंपनी का दायित्व और पालिसी का प्रकार एक्ट पालिसी और कम्प्रेशिव/पैकेज पालिसी का अंतर
यदि बीमा पालिसी कम्प्रेशिव /पैकेट पालिसी है तब प्रश्नगत कार में बैठ यात्री के प्रतिकर के लिए बीमा कंपनी दायी होती है लेकिन यदि एक्ट पालिसी ली हो तो बीमा कंपनी दायी नहीं होती है इस प्रकार कभी-कभी बीमा कंपनी का दायित्व पालिसी के प्रकार पर भी निर्भर करता है जैसा की न्यायदृष्टांत ओरिएंटल इंश्यारेंस कंपनी लिमिटेड वि. सुरेन्द्र नाथ लुम्बा 2013 ए.सी.जे. 321 (एस.सी.) में प्रतिपादित किया है।
न्यायदृष्टांत ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. श्रीमति जमना शाहा ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 1054 में वाहन की एक्ट पालिसी थी वाहन स्वामी खुद दुर्घटना ग्रस्त हुआ था बीमा कंपनी को उत्तरदायी नहीं माना गया था।
न्यायदृष्टांत न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. सदानंद मुखी ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1788 के मामले में मोटरसाईकिल की एक्ट पालिसी थी वाहन स्वामी का पुत्र वाहन चला रहा था जो दुर्घटनाग्रस्त होकर मरा, यह प्रतिपादित किया गया कि मृतक धारा 147 में उल्लेखित शब्द व्यक्ति में कवर नहीं होता है एक्ट पालिसी में बीमा कंपनी तृतीय पक्ष की रिस्क के लिए दायी होती है।
न्यायदृष्टांत के.एन. अग्रवाल वि. एम.आर. पोर्टफोलियो सर्विसेज आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 16 के मामले में एक वेन जो भागीदारी फर्म से संबंधित थी, एक भागीदार जो कि वाहन चालक था दुर्घटनाग्रस्त हुआ, वाहन स्वामी की रिस्क के लिए कोई प्रीमियम नहीं लिया गया था, बीमा कंपनी मृतक के वैध प्रतिनिधियों को प्रतिकर देने के लिए उ त्तरदायी नहीं मानी गई।
न्यायदृष्टांत श्रीमति उषा बघेल वि. यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड 2007 (4) एम.पी. एच.टी. 180 एफ.बी. के मामले में बीमा पालिसी में एक क्लास यह भी था वाहन मालिक चालक के रूप में हो सकता है लेकिन इस क्लास का अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि बीमा पालिसी में वाहन स्वामी की रिस्क कवर है जब तक ऐसी रिस्क कवर करने के लिए अतिरिक्त प्रीमियम न दिया गया हो।
7. क्या बीमा कंपनी अतिरिक्त चालक के अतिरिक्त चालक के प्रतिकर के लिए दायी होती है?
न्यायदृष्टांत नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमटेड वि. साजू पी. पाउल 2013 ए.सी.जे. 554 (एस.सी.) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे अतिरिक्त चालक के लिए बीमा कंपनी उत्तरदायी नहीं होती है क्यों कि प्रीमियम में केवल एक ड्रायवर और एक क्लीनर की रिस्क थी अतिरिक्त चालक की रिस्क कवर नहीं थी अतः उसे अनुग्रह यात्री माना जावेगा।
8. वसूली की प्रक्रिया
बीमा कंपनी को तृतीय पक्ष को भुगतान किए गए प्रतिकर की वसूली सीधे निष्पादन कार्यवाही लगाकर वसूल करने का अधिकार होता है। बीमा कंपनी को पृथक से वाद लाने की आवश्यकता नहीं होती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत नेशनल इंश्यारेंस कंपनी लिमिटेड वि. बलजीत कौर ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 1340, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. नाजप्पन ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 1630, न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. कुसुम ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2101, नेशनल इंश्यारेंस कंपनी लिमिटेड वि. छल्ला भारतम्मा अवलोकनीय है।
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पे एण्ड रि-कव्हर कब और कब नहीं -
यह प्रमाणित पाया गया है कि प्रष्नगत वाहन को अनावेदक क्र.1 के द्वारा तेजी और लापरवाही से चलाये जाने के कारण दुर्घटना घटित हुयी। यह वाहन अनावेदक क्र.2 के स्वामित्व का था अतः अनावेदक क्र. 1 एवं 2 प्रतिकर के लिये संयुक्ततः एवं पृथक-पृथक उत्तरदायी हंै। चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 1 व 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी। इस संबंध में न्यायदृष्टांत हक्का बनाम पप्पू एवं अन्य 2013 (1) दु.मु.प्र. 131 म.प्र. भी अवलोकनीय है।
चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन अनावेदक क्र.2 द्वारा चालक अनुज्ञापत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी।
अनावेदक क्र.4 की ओर से इस क्रम में न्याय दृष्टांत इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.) का अवलंब लेते हुये यह तर्क किया गया है कि चालक अनुज्ञप्ति के विषय में बीमा पालिसी के शर्तों के उल्लंघन के कारण अनावेदक क्र.4 का उत्तरदायित्व प्रतिकर के संबंध में स्थापित नहीं हुआ है अतः बीमा कंपनी से प्रतिकर की राषि आवेदक को दिलाये जाने तथा तत्पष्चात् उस राषि को बीमा कंपनी द्वारा वाहन स्वामी से वसूल किये जाने के बारे में कोई निर्देष नहीं दिया जा सकता है। अवलंबित मामले में मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा पे एण्ड रि-कव्हर को प्रयोज्य नहीं माना गया।
उक्त क्रम में यह बात उल्लेखनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ ने नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297 के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा। समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) में किये गये विनिष्चयों से भी प्रकट होती है। ऐसी स्थिति में अनावेदक क्र.4 की ओर से किया गया यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है कि वर्तमान मामले में पे एण्ड रि-कव्हर का सिद्धांत लागू नहीं होगा।
मोटरयान अधिनियम 1988 का अध्याय 11 मोटरयानों का पर व्यक्ति जोखिम बीमा के बारे में है जो पर व्यक्ति या तृतीय पक्ष के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया है।
प्रायः सदस्य मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण के सामने यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि किन मामलों में ‘‘भुगतान करें और वसूलें’’ का सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए और किन मामलों में यह सिद्धांत लागू नहीं किया जाना चाहिए। अधिकरणों के सामने के सामने विभिन्न न्याय दृष्टांत प्रस्तुत होते हैं और सही विधिक स्थिति क्या है यह कई बार स्पष्ट नहीं हो पाता है और अधिकरणों का अमूल्य समय अनावश्यक नष्ट होता है यहा हम भुगतान करें और वसूलें के सिद्धांत के बारे में विचार करेंगे।
1. सिद्धांत की उत्पत्ति
‘‘भुगतान करें और वसूलें’’ के सिद्धांत की उत्पत्ति के बारे में न्याय दृष्टांत ब्रिटिश इंडिया जनरल इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड विरूद्ध कैप्टन एतबार सिंह ए.आई.आर. 1959 एस.सी. 1331 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ निर्णय चरण 16 में उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति का कोई नुकसान होता है उसके बारे में विधि ने इसके लिए उचित माना की बीमा कता ( Insurer) उस नुकसान को वहन करें। इस मामले में यह भी कहा गया कि बीमा करने वाले को उसके व्यापार के दौरान जो नुकसान होता है वह भी न्यायालय की दृष्टि में साम्यापूर्ण है। बीमा कर्ता जो व्यापार करता है उससे उसे लाभ होता है और वह अपने व्यापार को ऐसे प्रबंधित कर सकता है कि अंतिम परिणाम में उसे नुकसान न हो दूसरी ओर एक आहत व्यक्ति को जो नुकसान होता है उसमें उसकी त्रुटि नहीं होती है उसे जो नुकसान होता है वह एक दुर्घटना के कारण होता है जिस दुर्घटना में उसका कोई हाथ नहीं होता है।
उक्त न्याय दृष्टांत में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त मत देते हुए एक प्रकार से बीमा कंपनी को होने वाले नुकसान और तृतीय पक्ष या आहत व्यक्ति को होने वाले नुकसान की तुलना की है और तुलना करके यह पाया है एक आहत की दुर्घटना में कोई भूमिका नहीं होती है फिर भी उसे उस दुर्घटना से हानि उठानी पड़ती है दूसरी और बीमा कंपनी बीमा का व्यापार करती है वह चाहे तो अपने व्यापार का प्रबंध इस तरह कर सकती है की उसे व्यापार से हानि न हो और यही से इस सिद्धांत की उत्पत्ति हुई है।
2. सिद्धांत का उद्देश्य
न्यायदृष्टांत स्कन्दिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कोकिला बेन चंद्र बदन ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 1184 में निर्णय चरण 13 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विधायिका ने यह प्रावधान की कोई भी वाहन सार्वजनिक स्थान में तभी उपयोग किया जायेगा जबकि उस यान के उपयोग के संबंध में बीमा पालिसी ली गई हो यह प्रावधान बीमा कंपनी का व्यापार बढ़ाने के लिए नहीं किया गया है बल्कि समाज के सदस्यों जो कि वाहनों के उपयोग से दुर्घटनाग्रस्त होते हैं उनकी सुरक्षा के लिए किया गया है।
इस तरह समाज के वे सदस्य जो वाहन के उपयोग से दुर्घटना ग्रस्त होते हैं उनके हितों की रक्षा इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य है।
3. जहा बीमा करवाना अनिवार्य हो
इस सिद्धांत की विधिक स्थिति, जहा वाहन स्वामी के लिए कानून के अनुसार बीमा करवाना अनिवार्य हो, वहा अलग होती है और जहा वाहन स्वामी के लिए कानून के अनुसार बीमा करवाना अनिवार्य न हो, वहा अलग होती है।
मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा 146 (1) में वाहनों के अनिवार्य बीमा के बारे में प्रावधान किया गया है जिसके अनुसार, कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक स्थान में मोटरयान का उपयोग यात्री से भिन्न रूप में तभी करेगा या किसी अन्य व्यक्ति से तभी करायेगा या उसे करने देगा जब, उस व्यक्ति या उस अन्य व्यक्ति द्वारा, जैसी भी स्थिति हो, उस यान के उपयोग के संबंध में ऐसी बीमा पालिसी प्रवृत्त है जो इस अध्याय की अपेक्षाओं के अनुपालन में है अन्यथा नहीं।
धारा 146(2)(3) के अनुसार सरकार किसी वाहन के संबंध में बीमा करवाने से छूट भी दे सकती है और राज्य सरकार के वाहनों में छूट के प्रावधान भी इसमें किए गए हैं।
इस प्रावधान का उद्देश्य तृतीय पक्ष के अधिकारों की रक्षा करना है।
न्याय दृष्टांत न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी शिमला वि. कमला ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 1340 में निर्णय के चरण 25 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि बीमा कंपनी और बीमा करवाने वाला बीमा पालिसी की शर्तों से बंधे हुए रहते हैं। बीमा कंपनी यदि बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन होता है तो बीमा करवाने वाले को कुछ अदा करने के लिए उत्तरदायी नहीं होती है लेकिन जहा बीमा कंपनी तृतीय पक्ष को प्रतिकर अदा करने के लिए वैधानिक रूप से बीमा प्रमाण पत्र के अधीन दायी होती हैं वहा तृतीय पक्ष को जो भुगतान किया गया उस प्रतिकर वसूली बीमा करवाने वाले से कर सकती है, यदि बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन पाया जाता है तो वैध चालन अनुज्ञप्ति के बिना वाहन चलाया जाना।
इस मामले में निर्णय के चरण 17 से 21 में धारा 149 मोटरयान अधिनियम का विचार करते हुए निर्णय के चरण 22 में यह कहा गया कि जहा एक वैध बीमा पालिसी किसी वाहन के संबंध में जारी की गई हो और बीमा प्रमाण पत्र दिया गया हो वहा बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ हो या न हुआ हो बीमा कंपनी तृतीय पक्ष को प्रतिकर अदा करने के लिए उत्तरदायी होती है, लेकिन वह तृतीय पक्ष को अदा किए गए प्रतिकर को बीमा करवाने वाले से वसूल सकती है, यदि पालिसी की शर्तों के अनुसार बीमा कंपनी का दायित्व नहीं बनता है।
उक्त विवेचना से यह वैधानिक स्थिति स्पष्ट होती है कि जहा वाहन स्वामी के लिए बीमा करवाना कानून के अनुसार आवश्यक हो वहा कुसुम लता वि. सतवीर ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 1234 बीमा कंपनी तृतीय पक्ष को प्रतिकर अदा करने के लिए उत्तरदायी होता है चाहे पालिसी का शर्तों का उल्लंघन हुआ हो या नहीं क्योंकि धारा 146 मोटरयान अधिनियम 1988 में अनिवार्य बीमा का प्रावधान तृतीय पक्ष के अधिकारों की सुरक्षा के लिए किया गया है और बीमा कंपनी जो अपना व्यापार संचालित करती है उसे अपने व्यापार का प्रबंध इस प्रकार करना चाहिए कि उसे अंततः हानि न हो अनवार्य बीमा का प्रावधान तृतीय पक्ष के हितों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए किया गया है।
वैसे तो कई मामलों में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने और माननीय म.प्र. उच्च न्यायालय ने भी पहले भुगतान करें फिर वसूली के निर्देश दिए हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ मामले जिनमें पहले भुगतान करें फिर वसूलें के निर्देश दिए गए इस प्रकार हैं:-
न्यायदृष्टांत कुसुम लता वि. सतवीर ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 1234 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि जहा चालक अनुज्ञप्ति के बारे में विवाद हो तो बीमा कंपनी को पहले प्रतिकर अदा करना होगा और फिर वह उसे वाहन मालिक से वसूल सकती है।
न्यू इंडिया इंश्यारेंस कंपनी लिमिटेड वि. दर्शना देवी ए.आई.आर. 2008 एस.सी. (सप्लीमेंट) 1639 के मामले में मृतक ट्रैक्टर के मडगाड में बैठा था वह माल का स्वामी भी था, चालक के पास वैध चालन अनुज्ञप्ति नहीं थी, अधिकरण ने बीमा कंपनी को पहले भुगतान करने, फिर वसूलने के निर्देश दिए जो हस्तक्षेप योग्य नहीं पाए गए।
ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. अंगद कोल ए.आई.आर 2009 एस.सी. 2151 के मामले में चालक के पास हल्के मोटरयान चलाने की चालन अनुज्ञप्ति थी परिवहन यान चलाने की चालन अनुज्ञप्ति नहीं थी उसे बीमा पालिसी की शर्त का भंग माना गया और बीमा कंपनी को पहले तृतीय पक्ष को प्रतिकर अदा करने और फिर उसे मालिक से वसूल करने के निर्देश दिए गए।
न्यायदृष्टांत शंकर प्रसाद वि. नफीस खान 2010 (3) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 42 के अनुसार चाहे बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ हो, वाहन बीमा कंपनी के पास बीमित है तब बीमा कंपनी को दायित्व मुक्त करने के स्थान पर उसे प्रतिकर वसूलने के अधिकार (पहले भुगतान करें फिर वसूलें) का आदेश उचित माना गया और यह भी कहा गया कि वाहन स्वामी और वाहन चालक जो एक पक्षीय हैं, चालक के पास दुर्घटना के समय वैध एवं प्रभावी चालन अनुज्ञप्ति होना निष्पादन कार्यवाही में दर्शा सकते हैं, उन्हें यह स्वतंत्रता रहेगी।
4. जहा बीमा करवाना अनिवार्य न हो।
जहा कानून के अनुसार किसी वाहन का बीमा करवाना वाहन स्वामी के लिए अनिवार्य न हो वहा बीमा कंपनी जिस उद्देश्य के लिए बीमा करवाया गया है और कानून के अनुसार आवश्यक भी है उसी सीमा तक उत्तरदायी होती है।
धारा 147 (1)(बी)(1) मोटरयान अधिनियम 1988 के अनुसार माल के मालिक या यान में ले जाए जा रहे माल के मालिक के अधिकृत प्रतिनिधि सहित किसी व्यक्ति की मृत्यु या शारीरिक उपहति या यान के उपयोग से किसी तीसरे पक्ष की सम्पत्ति को कारित क्षति के संबंध में बीमा कंपनी के दायित्व को बतलाया गया है।
इस प्रकार यदि किसी मालवाहक वाहन में यदि उस माल के साथ माल का मालिक या माल के मालिक के अधिकृत प्रतिनिधि की वाहन दुर्घटना मे यदि मृत्यु होती है या उसे शारीरिक क्षति होती है तो बीमा कंपनी उस सीमा तक प्रतिकर के लिए उत्तरदायी होती है लेकिन यदि उस माल वाहक वाहन मे कोई व्यक्ति अनुग्रह यात्री के रूप में बैठा हो जो न तो माल का स्वामी है और न ही माल के स्वामी का अधिकृत प्रतिनिधि हो उसको कार्यक्षति के लिए उस वाहन की बीमा कंपनी उत्तरदायी नहीं होती है क्योंकि माल वाहक वाहन में बैठे अनुग्रह यात्री के लिए बीमा करवाने के लिए वाहन स्वामी पर कोई कानूनी दायित्व नहीं होता है।
इस प्रकार जहा वाहन स्वामी कानून के अनुसार बीमा करवाने के लिए बाध्य न हो वहा बीमा कंपनी का प्रतिकर के लिए दायित्व नहीं बनता है जैसे माल वाहक वाहन में बैठे अनुग्रह यात्री के लिए वाहन स्वामी बीमा करवाने के लिए बाध्य नहीं होता है अतः ऐसे मामलों में चाहे आहत तृतीय पक्ष हो तब भी भुगतान करें और वसूलें का सिद्धांत लागू नहीं किया जाना चाहिए।
माननीय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामलों में भी संविधान के अनुच्छेद 142 और 136 के तहत भुगतान करें और वसूलें के निर्देश देते हैं लेकिन ये शक्तिया, सदस्य, मोटर दुर्घटना दावा अधिकारण को नहीं होती हैं अतः अधिकरणों को ऐसे मामले मे भुगतान करें और वसूलें के निर्देश नहीं देना चाहिए।
5. माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बड़ी पीठ को किया गया
रेफरेंन्स
न्यायदृष्टांत नेशनल इंश्योरेंस कंपनी वि. पारवथनेनी (2009) 8 एस.सी.सी. 785 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के बड़ी पीठ के लिए दो प्रश्न रेफर किए हैं -
1. जहा बीमा कंपनी इस स्थिति में हैं कि उसने प्रमाणित किया है कि वह मोटरयान अधिनियम या अन्य विधि के तहत प्रतिकर की राशि अदा करने के लिए उत्तरदायी नहीं है। क्या वहा न्यायालय बीमा कंपनी को इसके लिए बाध्य कर सकती है कि वह पहले प्रश्नधीन राशि भुगतान करे और फिर उसे वाहन स्वामी से वसूल करने के लिए स्वतंत्र रहेगी?
2. क्या ऐसे निर्देश अनुच्छेद 142 के तहत जारी किए जा सकते हैं?अनुच्छेद 142 का क्षेत्र क्या है? क्या अनुच्छेद 142 न्यायालय को ऐसा दायित्व सृजित करने की अनुज्ञप्ति देती है जो अस्तित्व में ही नहीं है? माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त दो प्रश्न निराकरण के लिए रेफर किए हैं लेकिन जब तक इन प्रश्नों का निराकरण नहीं हो जाता तब तक भुगतान करें और वसूलें का सिद्धांत न्यायदृष्टांत नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. स्वर्णसिंह ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 1535 तीन न्यायमूर्ति गण की पीठ में निर्णय चरण 105 में दिए गए निर्देशों के अनुसार जारी रखना चाहिए।
6. बीमा कंपनी का दायित्व और पालिसी का प्रकार एक्ट पालिसी और कम्प्रेशिव/पैकेज पालिसी का अंतर
यदि बीमा पालिसी कम्प्रेशिव /पैकेट पालिसी है तब प्रश्नगत कार में बैठ यात्री के प्रतिकर के लिए बीमा कंपनी दायी होती है लेकिन यदि एक्ट पालिसी ली हो तो बीमा कंपनी दायी नहीं होती है इस प्रकार कभी-कभी बीमा कंपनी का दायित्व पालिसी के प्रकार पर भी निर्भर करता है जैसा की न्यायदृष्टांत ओरिएंटल इंश्यारेंस कंपनी लिमिटेड वि. सुरेन्द्र नाथ लुम्बा 2013 ए.सी.जे. 321 (एस.सी.) में प्रतिपादित किया है।
न्यायदृष्टांत ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. श्रीमति जमना शाहा ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 1054 में वाहन की एक्ट पालिसी थी वाहन स्वामी खुद दुर्घटना ग्रस्त हुआ था बीमा कंपनी को उत्तरदायी नहीं माना गया था।
न्यायदृष्टांत न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. सदानंद मुखी ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1788 के मामले में मोटरसाईकिल की एक्ट पालिसी थी वाहन स्वामी का पुत्र वाहन चला रहा था जो दुर्घटनाग्रस्त होकर मरा, यह प्रतिपादित किया गया कि मृतक धारा 147 में उल्लेखित शब्द व्यक्ति में कवर नहीं होता है एक्ट पालिसी में बीमा कंपनी तृतीय पक्ष की रिस्क के लिए दायी होती है।
न्यायदृष्टांत के.एन. अग्रवाल वि. एम.आर. पोर्टफोलियो सर्विसेज आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 16 के मामले में एक वेन जो भागीदारी फर्म से संबंधित थी, एक भागीदार जो कि वाहन चालक था दुर्घटनाग्रस्त हुआ, वाहन स्वामी की रिस्क के लिए कोई प्रीमियम नहीं लिया गया था, बीमा कंपनी मृतक के वैध प्रतिनिधियों को प्रतिकर देने के लिए उ त्तरदायी नहीं मानी गई।
न्यायदृष्टांत श्रीमति उषा बघेल वि. यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड 2007 (4) एम.पी. एच.टी. 180 एफ.बी. के मामले में बीमा पालिसी में एक क्लास यह भी था वाहन मालिक चालक के रूप में हो सकता है लेकिन इस क्लास का अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि बीमा पालिसी में वाहन स्वामी की रिस्क कवर है जब तक ऐसी रिस्क कवर करने के लिए अतिरिक्त प्रीमियम न दिया गया हो।
7. क्या बीमा कंपनी अतिरिक्त चालक के अतिरिक्त चालक के प्रतिकर के लिए दायी होती है?
न्यायदृष्टांत नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमटेड वि. साजू पी. पाउल 2013 ए.सी.जे. 554 (एस.सी.) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे अतिरिक्त चालक के लिए बीमा कंपनी उत्तरदायी नहीं होती है क्यों कि प्रीमियम में केवल एक ड्रायवर और एक क्लीनर की रिस्क थी अतिरिक्त चालक की रिस्क कवर नहीं थी अतः उसे अनुग्रह यात्री माना जावेगा।
8. वसूली की प्रक्रिया
बीमा कंपनी को तृतीय पक्ष को भुगतान किए गए प्रतिकर की वसूली सीधे निष्पादन कार्यवाही लगाकर वसूल करने का अधिकार होता है। बीमा कंपनी को पृथक से वाद लाने की आवश्यकता नहीं होती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत नेशनल इंश्यारेंस कंपनी लिमिटेड वि. बलजीत कौर ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 1340, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. नाजप्पन ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 1630, न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड वि. कुसुम ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2101, नेशनल इंश्यारेंस कंपनी लिमिटेड वि. छल्ला भारतम्मा अवलोकनीय है।
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पे एण्ड रि-कव्हर कब और कब नहीं -
Pay
and recover
यह प्रमाणित पाया गया है कि प्रष्नगत वाहन को अनावेदक क्र.1 के द्वारा तेजी और लापरवाही से चलाये जाने के कारण दुर्घटना घटित हुयी। यह वाहन अनावेदक क्र.2 के स्वामित्व का था अतः अनावेदक क्र. 1 एवं 2 प्रतिकर के लिये संयुक्ततः एवं पृथक-पृथक उत्तरदायी हंै। चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 1 व 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी। इस संबंध में न्यायदृष्टांत हक्का बनाम पप्पू एवं अन्य 2013 (1) दु.मु.प्र. 131 म.प्र. भी अवलोकनीय है।
चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन अनावेदक क्र.2 द्वारा चालक अनुज्ञापत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी।
अनावेदक क्र.4 की ओर से इस क्रम में न्याय दृष्टांत इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.) का अवलंब लेते हुये यह तर्क किया गया है कि चालक अनुज्ञप्ति के विषय में बीमा पालिसी के शर्तों के उल्लंघन के कारण अनावेदक क्र.4 का उत्तरदायित्व प्रतिकर के संबंध में स्थापित नहीं हुआ है अतः बीमा कंपनी से प्रतिकर की राषि आवेदक को दिलाये जाने तथा तत्पष्चात् उस राषि को बीमा कंपनी द्वारा वाहन स्वामी से वसूल किये जाने के बारे में कोई निर्देष नहीं दिया जा सकता है। अवलंबित मामले में मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा पे एण्ड रि-कव्हर को प्रयोज्य नहीं माना गया।
उक्त क्रम में यह बात उल्लेखनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ ने नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297 के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा। समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) में किये गये विनिष्चयों से भी प्रकट होती है। ऐसी स्थिति में अनावेदक क्र.4 की ओर से किया गया यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है कि वर्तमान मामले में पे एण्ड रि-कव्हर का सिद्धांत लागू नहीं होगा।
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