दाण्डिक
मामलो में सुपुर्दनामा 451
457 आवकारी
वन्यजीव गौवंश आवश्यकवस्तु
वन एनडीपीएस
प्रश्नः
दाण्डिक
मामलों में
अभिगृहित
एवं प्रस्तुत
अथवा अभिरक्षा
में ली
गई सम्पत्ति
के सम्बन्ध
में विचारण
न्यायालय
की शक्तियों
एवं कर्तव्यों
की विवेचना
कीजिये ।
दाण्डिक
मामलों में
अभिगृहित व
प्रस्तुत
अथवा अभिरक्षा
में ली
गई संपत्ति
के संबंध
में विचारण
लंबित रहने
के दौरान
धारा 451
व
457 दण्ड
प्रक्रिया
संहिता में
प्रावधान
है जबकि
विचारण समाप्ति
पर धारा
452, 453, 455, 456 दण्ड
प्रक्रिया
संहिता में
प्रावधान
है ।
इस संबंध
में नियम
एवं आदेश
आपराधिक के
नियम 124,
125, 422 से
433 एवं
680 में
भी प्रावधान
है ।
धारा
451 द.प्र.सं.
के
अनुसार जब
कोई संपत्ति,
किसी
दण्ड न्यायालय
के समक्ष
किसी जांच
या विचारण
के दौरान
पेश की
जाती है
तब वह
न्यायालय
उस जांच
या विचारण
के समाप्त
होने तक
ऐसी संपत्ति
की उचित
अभिरक्षा
के लिये
ऐसा आदेश,
जैसा
वह ठीक
समझे, कर
सकता है
और यदि
वह संपत्ति
शीघ्र या
प्राकृतिक
रूप से
क्षयशील है
या यदि
ऐसा करना
अन्यथा उचित
है तो
वह न्यायालय
ऐसा साक्ष्य
अभिलिखित
करने के
पश्चात जैसा
वह आवश्यक
समझे उसके
विक्रय या
उसके अन्यथा
व्ययन किये
जाने के
लिये आदेश
कर सकता
है ।
स्पष्टीकरण-
इस
धारा के
प्रयोजन के
लिये ‘‘संपत्ति’’
के अंतर्गत
निम्नलिखित
हैः-
ए. किसी
भी किस्म
की संपत्ति
या दस्तावेज
जो न्यायालय
के समक्ष
पेश की
जाती है
या जो
उसकी अभिरक्षा
में हो,
बी. कोई
भी संपत्ति
जिसके बारे
में कोई
अपराध किया
गया प्रतीत
होता है
या जो
किसी अपराध
के करने
में प्रयुक्त
की गई
प्रतीत होती
हो ।
संपत्ति
के बारे
में
माननीय
राजस्थान
उच्च न्यायालय
ने न्याय
दृष्टांत
श्रीमती
नर्मदा वि.
मोहम्मद
हनीफ 1982
सी.आर.एल.जे.
2330 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि धारा
451 द.प्र.सं.
में
संपत्ति शब्द
में चल
एवं अचल
दोनों संपत्ति
शामिल है
।
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
महाराष्ट्र
वि. तपश
डी नोगी
1999 सी.आर.एल.जे.
4305 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि संपत्ति
शब्द में
बैंक खाते
भी शामिल
हैं।
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने न्याय
दृष्टांत
सुरेश नंदा
वि. सी.बी.आई.
ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
1414 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि पासपोर्ट
संपत्ति नहीं
है और
उसे धारा
104 द.प्र.सं.
1973 के
तहत परिबद्ध
नहीं किया
जा सकता
।
सपंत्ति
के व्ययन
या अंतरिम
अभिरक्षा
के बारे
में
विचारण
लंबित रहने
के दौरान
संपत्ति के
व्ययन के
संबंध में
न्याय दृष्टांत
सुंदर भाई
अंबालाल
देसाई वि.
स्टेट
आफ गुजरात
ए.आई.आर.
2003 एस.सी.
638 में
महत्वपूर्ण
व्यवस्था
दी गई
है और
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 451
द.प्र.स.
की
शक्तियों
का प्रयोग
शीघ्रता से
और न्यायिक
रीति से
करना चाहिये
जिससे कई
उद्देश्य
प्राप्त हो
सकते हैं
जैसे -
1. संपत्ति
के बिना
उपयोग के
पड़ी रहने
से या
उसके दुव्र्ययन
की संभावना
के कारण
संपत्ति के
मालिक को
हानि नहीं
उठाना पड़ती
है ।
2. न्यायालय
या पुलिस
को वस्तुओं
को सुरक्षित
अभिरक्षा
में नहीं
रखना पड़ता
है ।
इस
मामले में
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने विचारण
के दौरान
संपत्ति के
व्ययन के
बारे में
कई
दिशानिर्देश
दिये हैं
कुछ महत्वपूर्ण
दिशा-निर्देश
निम्नानुसार
हैंः-
1. यदि
अभिलेख पर
उपलब्ध सामग्री
से वस्तुएं
परिवादी की
होना प्रतीत
होती हो
जिसके घर
से चोरी
या लूट
हुई है
तब परिवादी
को वस्तुएं
विस्तृत उचित
पंचनामा
वस्तुओं के
बारे में
बनाकर, वस्तुओं
के फोटोग्राफ
लेकर और
परिवादी से
विचारण के
समय आवश्यक
होने पर
वस्तुएं
प्रस्तुत
करने का
बंधपत्र लेकर
या जमानत
लेकर उसे
संपत्ति
सौंपी जा
सकती है
।
2. यदि
जप्त सामग्री
मादक द्रव्य
है तब
आवश्यक पंचनामा
बनाया जा
सकता है
और नमूना
लिया
जा सकता
है उसके
बाद निराकरण
किया जा
सकता है
लेकिन बड़ी
मात्रा में
मादक द्रव्य
पुलिस थाने
पर नहीं
रखना चाहिये
क्योकि इससे
कोई लाभ
नहीं होता
हैं।
3 यदि
जप्त सामग्री
वाहन हो
तब भी
उन्हें लंबे
समय तक
पुलिस थाने
पर रखना
उपयोगी नहीं
हैं संबंधित
मजिस्टेट
ऐसे वाहन
के मामले
में जमानत
और बंधपत्र
लेकर उन्हें
लौटाने के
बारे में
उचित आदेश
कर सकते
हैं वाहनों
के नीलाम
करने के
बारे में
भी कार्यवाही
की जा
सकती
है यदि
उन्हें कोई
क्लेम नहीं
करता हो
।
4. यदि
मूल्यवान
संपत्ति
सुपुर्दगी
पर नहीं
दी जा
रही है
तब वह
बैंक लाकर
में भी
रखने के
भी निर्देश
दिये जा
सकते हैं
।
न्याय
दृष्टांत
जनरल इंश्योरेंस
काउन्सिल
वि. स्टेट
आफ आंध्रप्रदेश
(2010) 6 एस.सी.सी.
768 में
दुघर्टना
मे जप्त
वाहनों की
अभिरक्षा
और उनके
व्ययन के
बारे में
आवश्यक
प्रावधान
किये गये
है और
उक्त न्याय
दृष्टांत
सुंदर भाई
में दिये
निर्देशों
की पालना
के बारे
में भी
कहा गया
है ।
न्याय
दृष्टांत
दशरथ वि.
स्टेट
आफ एम.पी.
2007 (1) एम.पी.एच.टी.
520 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
वाहन उसके
स्वामी को
विचारण के
दौरान अभिरक्षा
में दिया
जा सकता
है वाहन
का रजिस्टेशन
अभी स्वामी
के नाम
नहीं हुआ
है, इस
आधार पर
आवेदन निरस्त
करना उचित
नहीं है।
सामान्यतः
पंजीकृत
स्वामी को
वाहन सुपुर्दगी
पर दिया
जाना चाहिये
। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
प्रवीण कुमार
वि. स्टेट
आफ हिमाचल
प्रदेश 1989
सी.आर.एल.जे.
2537 अवलोकनीय
है ।
जहां
वाहन हायर
परचेस अनुबंध
के तहत
खरीदा गया
हो, वहां
फायनंेसर
को अंतरिम
अभिरक्षा
दी जा
सकती है
। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
चरणजीत सिंह
वि. सुधीर
मेहरा (2001)
7 एस.सी.सी.
417 अवलोकनीय
है साथ
ही न्याय
दृष्टांत
मेसर्स
के.एल.जोहर
एंड कंपनी
वि. द
डिप्टी
कमर्शियल
टेक्स आफिसर
ए.आई.आर.
1965 एस.सी.
1082 की
चार न्यायमूर्तिगण
की पीठ
भी अवलोकनीय
है ।
कभी-कभी
पंजीकृत स्वामी वाहन
सुपुर्दगी
पर लेने
के लिये
किसी अन्य
व्यक्ति को
मुख्तारनामा
या या
पावर आफ
अर्टनी दे
देता है
न्यायालय
को यह
विवेकाधिकार
होता है
कि वह
ऐसे व्यक्ति
को भी
संपत्ति की
अंतरिम
अभिरक्षा
दे सकते
हैं इन
शक्तियों
का प्रयोग
वाहन मालिक
की कठिनाइयों
को ध्यान
में रखते
हुए करना
चाहिये।
लेकिन
यदि वाहन
मध्यप्रदेश
मोटरयान
कराधान
अधिनियम, 1991 के
अंतर्गत जप्त
किया जाता
है तो
उक्त वाहन
को छोड़ने
का न्यायालय
को क्षेत्राधिकार
नहीं है
। इस
संबध् में
न्याय दृष्टांत
स्टेट आफ
एम.पी
वि. राकेश
कुमार गुप्ता,
1998 सी.आर.एल.जे.
4264 की
पूर्णपीठ
एवं न्याय
दृष्टांत
हरदेव मोटर
टांसपोर्ट
कंपनी वि.
स्टेट
आफ एम.पी.
आई.एल.आर.
2010 एम
पी. 852 डीबी
अवलोकनीय
है ।
न्याय
दृष्टांत
ओमप्रकाश
वि. स्टेट
आफ एम.र्पी.
आइ.एल.आर.
2010 एम.पी.
1998 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
चुराई हुई
या लूटी
हुइ संपत्ति
जो पुलिस
ने जप्त
की है
उसे प्रथम
दृष्टया
आधिपत्य रखने
के अधिकारी
व्यक्ति को
सुपुर्दगी
पर देना
चाहिये ।
मामले में
परिवादी का
आवेदन यह
कहकर निरस्त
किया गया
था कि
विचारण के
दौरान साक्ष्य
में बरामद
गन की
आवश्यकता
होगी ।
माननीय उच्च
न्यायालय
ने उक्त
आदेश अपास्त
किया ।
न्याय
दृष्टांत
पंचमलाल
गुप्ता वि.
स्टेट
आफ एम.पी.
2003 (1) एम.पी.एल.जे.
92 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि विचारण
पर यदि
प्रतिकूल
प्रभाव पड़ता
हो तब
संपत्ति
अंतरिम
अभिरक्षा
में सौंपने
से इंकार
किया जा
सकता है
। न्याय
दृष्टांत
रामप्रकाश
शर्मा वि.
स्टेट
आफ हरियाणा
1978 सी.आर.एल.जे.
1120 के
निर्णय चरण
4 पर
भरोसा करते
हुए उक्त
विधि प्रतिपादित
की गई
है ।
विभिन्न
अधिनियम में
इस संबंध
में आवश्यक
प्रावधान
हैं उनके
बारे में
वैधानिक
स्थिति निम्न
प्रकार से
हैः-
म.प्र.
आबकारी
अधिनियम, 1915 के
बारे में
इस
संबंध में
धारा 46,
47, 47ए,
47डी,
मध्यप्रदेश
आबकारी
अधिनियम, 1915 के
प्रावधान
ध्यान में
रखना होते
है।
यदि
पचास बल्क
लीटर से
कम शराब
का मामला
हो तो
सामान्यतः
वाहन अधिहरण
नहीं करना
चाहिये क्योंकि
यह वाहन
स्वामी के
लिये अनुपातहीन
शास्ति होगी
। यह
विधि 48
बोतल
शराब के
मामले में
जीप को
अधिहरण करने
संबंधी आदेश
में प्रतिपादित
की गई
है ।
इस संबधं
में न्याय
दृष्टांत
हरेन्द्र
सिहं ठाकुर
वि. स्टेट
आफ एम.पी
2008 (3) एम.पी.एच.टी
126 अवलोकनीय
है ।
न्याय
दृष्टांत
सुरेश दवे
वि. स्टेट
आफ एम.पी.
2003 (1) एम.पी.एच.टी.
439 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
जहां धारा
47ए
(3) (ए)
के
तहत अधिहरण
कार्यवाही
प्रारम्भ
करने की
कोई सूचना
न्यायालय
को न
दी गई
हो न
संबंधित पक्ष
को सूचना
पत्र जारी
किये गये
हों तब
दाण्डिक
न्यायालय
वाहन को
उसके पंजीकृत
स्वामी को
अंतरिम
सुपुर्दगी
पर दे
सकते हैं।
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
शिरीष अग्रवाल
वि. स्टेट
आफ एम.पी
2003 (2) एम.पी.एच.टी.
97 पूर्णपीठ
भी अवलोकनीय
है ।
इस
प्रकार जहां
अधिहरण
कार्यवाही
की कोई
सूचना संबंधित
मजिस्ट्रेट
को प्राप्त
नहीं हुई
हो और
संबंधित पक्ष
को सूचना
पत्र भी
अधिहरण
कार्यवाही
का न
मिला हो
वहां न्यायालय
को जप्तशुदा
सामग्री को
अंतरिम
सुपुर्दगी
पर देने
की शक्तियां
होती हैं
लेकिन अधिहरण
की सूचना
प्राप्त हो
जाने के
बाद धारा
47 डी
मध्यप्रदेश
आबकारी अधिनियम
के प्रावधान
आकर्षित हो
जाते हैं
और तब
न्यायालय
को सामग्री
के व्ययन
या उसकी
अभिरक्षा
के बारे
में आदेश
करने की
शक्तियां
नहीं होती
हैं ।
वन्य
जीव -
संरक्षण
अधिनियम 1972
के
बारे में
इस
संबंध
अधिनियम की
धारा 39
एवं
50 ध्यान
रखे जाने
योग्य है
। न्याय
दृष्टांत
मधुकर राव
वि. स्टेट
आफ एम.पी.
2000 (1) एम.पी.एल.जे.
289 पूर्णपीठ
अवलोकनीय
है जिसमें
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
जप्त संपत्ति
तब तक
राज्य की
संपत्ति नहीं
बनती जबतक
सक्षम न्यायालय
द्वारा विचारण
न हो
जाये और
वह इस
निष्कर्ष
पर न
पहंुच जावे
कि अपराध
करने के
लिये अभिगृहित
संपत्ति का
उपयोग किया
गया था
। विचारण
लंबित रहने
के दौरान
अभियोग पर
अथवा अपराध
किये जाने
के संदेह
पर जप्त
संपत्ति
जिसमें वाहन
भी शामिल
है धारा
451 दं.प्र.सं.
एवं
अधिनियम की
धारा 50
(4) के
तहत निर्मुक्त
किया जा
सकता है
। न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
एम.पी
वि. मधुकर
राव, 2008 ए.आई.आर.
एस.सी.डब्ल्यू.
787 में
इस निर्णय
की माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने पुष्टि
की है
न्याय
दृष्टांत
अतिबाई वि.
स्टेट
आफ एम.
पी.
2008 (2) एम.पी.एल.जे.
83 में
वन्य जीव
संरक्षण
अधिनियम, 1972 के
तहत जप्त
वाहन सुपुर्दगी
पर देने
का आदेश
दिया गया
। इसी
तरह न्याय
दृष्टांत
ओंकार प्रसाद
लोनी वि.
स्टेट
आफ एम.पी.
2010 (3) एम.पी.एच.टी.
170 में
भी यह
प्रतिपादित
किया है
कि मजिस्टेªट
वाहन को
विचारण के
लंबित रहने
के दौरना
अंतरिम
सुपुर्दगी
पर दे
सकते हैं
केवल अपराध
किये जाने
के अभियोग
में वाहन
जप्त हुआ,
इस
आधार पर
वह राज्य
की संपत्ति
धारा 39
(1) (डी)
वन्य
प्राणी संरक्षण
अधिनियम, 1972 के
तहत नहीं
हो जाता
।
न्याय
दृष्टांत
दीवान अर्जुन
सिंह वि.
स्टेट
आफ एम.पी.
2003 (1) एम.पी.जे.आर.
377 में
भी विचारण
न्यायालय
को वाहन
अंतरिम
सुपुर्दगी
पर देने
की शक्तियां
होने के
बारे में
विधि प्रतिपादित
की गई
है ।
गोवंश
या पशु
जप्ती के
मामले
इस
संबंध में
पशओं पर
क्रूरता
निवारण
अधिनियम, 1960 की
धारा 35
एवं
मध्यप्रदेश
गोवंश अधिनियम
के प्रावधान
ध्यान में
रखना होते
हैं ।
न्याय
दृष्टांत
मैनेजर
पिंजरापोल
देवदार वि.
चक्रम
मोराजीनट
ए.आई.आर.
1998 एस.सी.
2769 अवलोकनीय
है जिसमे
जप्त पशुओं
को उनके
स्वामी को
अंतरिम
अभिरक्षा
में दिये
जाने संबंधी
विधि प्रतिपादित
की गई
है और
निर्णय के
चरण 10
में
सुसंगत बातें
जो ध्यान
में रखना
होती हैं
वे बतलायी
गई हैं
जैसे- कथित
स्वामी के
विरूद्ध
अभिकथित
अपराध की
प्रकृति और
गंभीरता, स्वामी
प्रथम अपराधी
है या
पूर्वतन
दोष्सिद्ध
है, निरीक्षण
और जप्ती
के समय
पशु किस
दशा में
पाये गये,
पशुओं
के साथ
पुनः क्रूरता
की संभावना
आदि ।
न्याय
दृष्टांत
भरत अमृतलाल
कोटारी वि.
दोशूखान
समदखान सिंधी
(2010) 1 एस.सी.सी.
134 में
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
जहां पशुओं
पर क्रूरता
के कोई
चिन्ह न
पाये जायें
प्रत्यर्थीगण
बकरी और
भेड़ों के
व्यापारी
हों, उनके
स्वामी भी
हों, वहां
उन्हें कुछ
शर्तो पर
अंतरिम
सुपुर्दगी
पर मवेशी
दिये जा
सकते हैं
।
न्याय
दृष्टांत
सोनाराम वि.
स्टेट
आफ एम.पी.
2006 (3) एम.पी.एच.टी.
490 में
पशु स्वामी
पर प्रथम
अभियोजन था
अतः उन्हें
पशुओं की
अभिरक्षा
दी गई
क्यांेकि
प्रथम अभियोजन
में पशु
जप्ती के
दायी नहीं
होते हैं
।
न्याय
दृष्टांत
मोहम्मद अजीम
खान वि.
स्टेट
आफ एम.पी
आइ.एल.आर.
2010 एम.पी
1187 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
पुलिस ने
27 पशु
जो काटने
के उदद्ेश्य
से परिवहित
किये जा
रहे थे
वे गोवंश
वध प्रतिषेध
अधिनियम, 2004 की
धारा 4,6
एवं
9 के
तहत और
धारा 4
एवं
6 कृषि
पशु निवारण
अधिनियम, 1959 के
तहत जप्त
किये मामला
धारा 3/7
आवश्यक
वस्तु अधिनियम
में भी
पंजीबद्ध
हुआ था
और सक्षम
प्राधिकारी
ने वाहन
के अधिहरण
की कार्यवाही
प्रारम्भ
कर दी
थी। पशु
बहुत बुरी
तरीके से
ले जाये
जा रहे
थे ।
चार पशु
मर भी
चुके थे
। पशुओं
को खरीदने
का कोई
दस्तावेज
पेश नहीं
किया गया
था ऐसे
में पशुओं
को सुपुर्दगी
पर देने
का आवेदन
निरस्त किया
गया ।
न्याय
दृष्टांत
सेक्रेटरी
गोपाल गोशाला
झोकर वि.
रमेश
2009 (4) एम.पी.एच.टी.
182 भी
इस संबंध
में अवलोकनीय
है जिसमें
संविधान के
अनुच्छेद
48 के
प्रकाश मे पशुओ को
गोशाला में
रखने और
उनके खर्चे
के बारे
में न्यायालय
में हिसाब
प्रस्तुत
करने के
बारे में
निर्देश दिये
गये हैं
और इस
मामले में
विभिन्न
न्याय दृष्टांतों
पर भी
विचार किया
गया है
।
न्याय
दृष्टांत
मुशी वि.
स्टेट
आफ एमपी
आइ.एल.आर.
2008 एम.पी.
187 में
मवेशियों
की अंतरिम
सुपुर्दगी
के समय
प्रति मवेशी
3000 रूपये
जमा करवाने
की शर्त
प्रार्थी
पर डाली
गई थी
जिसे माननीय
उच्च न्यायालय
ने उचित
नहीं माना
और शर्त
को अपास्त
किया ।
आवश्यक
वस्तु अधिनियम,
1955
इस
संबंध में
अधिनियम की
धारा 6ए
एवं 7
ध्यान
में रखना
होती है
। न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
एम.पी.
वि.
रामेश्वर
राठौर ए.आई.आर
1999 एस.सी.
1849 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
अधिनियम के
संशोधित
प्रावधानों
से यह
निष्कर्ष
नहीं निकाला
जा सकता
कि दण्ड
न्यायालय
को अंतरिम
सुपुर्दगी
के प्रार्थना
पत्र लेने
की अधिकारिता
नहीं है
अर्थात संशोधित
प्रावधानों
से भी
दण्ड न्यायालय
के क्षेत्राधिकार
को वर्जित
नहीं किया
है ।
इस
संबंध में
उक्त न्याय
दृष्टांत
मोहम्मद अजीम
वि. स्टेट
आफ एम.पी
में यह
भी प्रतिपादित
किया गया
है कि
जहां धारा
3/7 आवश्यक
वस्तु अधिनियम
की तहत
अपराध पंजीबद्ध
हो और
टक के
अधिहरण की
कार्यवाही
सक्षम प्राधिकारी
के यहां
प्रारम्भ
हो चुकी
हो वहां
टक को
सुपुर्दगी
पर देने
का प्रश्न
उत्पन्न नहीं
होता है
।
भारतीय
वन अधिनियम,
1927
इस
संबंध में
अधिनियम की
धारा 52
एवं
54 ध्यान
में रखना
होती है
। यदि
जप्त वस्तु
के अधिहरण
की कार्यवाही
प्रारम्भ
होने की
सूचना मजिस्टेट
को प्राप्त
नहीं होती
तब तक
वह संपत्ति
को अंतरिम
अभिरक्षा
में दे
सकता है
एक बार
ऐसी सूचना
प्राप्त हो
जाने के
बाद धारा
52 सी
वन अधिनियम
का वर्जन
लागू हो
जाता है
। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
अहमद जी
वि. स्टेट,
ए.आई.आर.
1986 एम.
पी. 1
एवं
असरार खान
वि. स्टेट
आफ एमपी
200 (2) विधि
भास्वर 85
अवलोकनीय है।
न्याय
दृष्टांत
स्टेट आफ
कर्नाटका
वि. के.
कृष्णन
(2000) 7 एस.सी.सी.
80 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि वन
उपज वाले
मामलों में
सामान्यतः
वाहन और
अन्य सामग्री
सुपुर्दगी
पर नहीं
देना चाहिये
और यदि
ऐसा करना
न्यायालय
उचित मानती
है तब
बैंक गारंटी
लेना चाहिये
।
एन.डी.पी.एस.
एक्ट
अधिनियम
की धारा
52, 52ए,
60,61 एवं
62 इस
बारे में
ध्यान रखना
होती हैं
। न्याय
दृष्टांत
पांडुरंग
कदम वि.
स्टेट
आफ एम.पी.
2005 (2) ए.एन.जे.
(एम.पी.)
351 मंे
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
एन.डी.पी.एस.
एक्ट
1985 के
उचित मामलों
में भी
वाहन अंतरिम
सुपुर्दगी
पर दिया
जा सकता
है इस
तथ्य के
होते हुए
भी कि
ऐसा वाहन
धारा 60
के
तहत संपहरण
किया जा
सकता है
। मामले
में प्रार्थी
वाहन का
पंजीकृत
स्वामी था
इस मामले
में न्याय
दृष्टांत
खलील अहमद
वि. स्टेट
आफ एमपी
1999 एमपी
डबल्यू एन
वाल्यूम 2
नोट
217 को
विचार में
लिया गया
विचारण
की समाप्ति
पर सपंत्ति
का व्ययन
धारा
452 (1) द.प्र.सं.
1973 के
अनुसार जब
किसी दण्ड
न्यायालय
में जांच
या विचारण
समाप्त हो
जाता है
तब न्यायालय
उस संपत्ति
या दस्तावेज
को जो
उसके समक्ष
पेश की
गई हैं,
या
उसकी अभिरक्षा
में है
अथवा जिसके
बारे में
कोई अपराध
किया गया
प्रतीत होता
है या
जो किसी
अपराध के
करने में
प्रयुक्त
की गई
है, नष्ट
करने, अधिहरण
करने या
किसी ऐसे
व्यक्ति को
देने जो
उसपर कब्जा
रखने का
हकदार होने
का दावा
करता है
या किसी
अन्य प्रकार
से उसका
व्ययन करने
के लिये
आदेश दे
सकेगा जैसा
वह ठीक
समझे ।
धारा
452 (2) के
अनुसार किसी
संपत्ति के
कब्जे का
हकदार होने
का दावा
करने वाले
किसी व्यक्ति
को उस
संपत्ति के
परिदान के
लिये या
देने के
लिये उपधारा
1 के
अधीन आदेश
किसी शर्त
के बिना
या इस
शर्त पर
दिया जा
सकता है
कि वह
न्यायालय
को समाधानप्रद
रूप से
यह वचनबद्ध
करते हुए
प्रतिभुओं
सहित या
रहित बंधपत्र
निष्पादित
करे कि
यदि उपधारा
1 के
अधीन किया
गया आदेश
अपील या
पुनरीक्षण
में उपांतरित
या अपास्त
कर दिया
गया तो
वह संपत्ति
न्यायालय
को वापस
कर देगा।
धारा
452 (3) के
अनुसार सेशन
न्यायालय
उपधारा 1
के
अधीन स्वयं
आदेश देने
के बदले
संपत्ति को
मुख्य न्यायिक
मजिस्टेªट
को परिदत्त
किये जाने
का आदेश
दे सकता
है जो
उस संपत्ति
के विशय
में धारा
457-459 में
वर्णित रीति
से कार्यवाही
करेगा ।
धारा
452 (4) के
अनुसार उस
दशा के
अलावा जब
संपत्ति
पशुधन है
या शीघ्र
और प्राकृतिक
रूप से
क्षयशील है
या जब
उपधारा 2
के
अनुसरण में
बंधपत्र
निष्पादित
किया गया
है, उपधारा
1 के
अधीन दिया
गया आदेश
2 मास
तक अथवा
जहां अपील
उपस्थित की
गई है
वहां जब
तक उस
अपील का
निराकरण न
हो जाये,
कार्यान्वित
नहीं किया
जायेगा ।
धारा
452 (5) के
अनुसार संपत्ति
पद में
न केवल
ऐसी संपत्ति
है जो
मूलतः किसी
पक्षकार के
कब्जे अथवा
नियंत्रण
में रह
चुकी है
वरन ऐसी
संपत्ति
जिसमें या
जिसके लिये
उस संपत्ति
का संपरिवर्तन
या विनमय
किया गया
है और
ऐसे परिवर्तन
या विनिमय
से चाहे
तत्काल या
अन्यथा अर्जित
कोई चीज
भी है
। इस
तरह प्रकरण
के निराकरण
पर धारा
452 द.प्र.सं.
के
प्रावधान
लागू होते
हैं साथ
ही धारा
453 द.प्र.सं.
में
अभियुक्त
के पास
मिले धन
का निर्दाेष
के्रता को
संदाय करने
धारा 455
द.प्र.स्र.
में
अपमानलेख
या अन्य
सामग्री को
नष्ट करने,
धारा
456 द.प्र.
सं. में
स्थावर संपत्ति
का कब्जा
लौटाने के
बारे में
भी प्रावधान
है धारा
459 द.प्र.सं.
में
नष्ट होने
योग्य संपत्ति
के विक्रय
करने के
बारे में
प्रावधान
है ।
प्रकरण
के निराकरण
के समय
संपत्ति के
व्ययन के
बारे में
आदेश देते
समय निम्नलिखित
वैधानिक
स्थितियां
ध्यान मंे
रखना चाहियेः-
जब
अभियुक्त
दोषमुक्त
किया गया
हो या
उसे संदेह
का लाभ
दिया गया
हो तब
संपत्ति के
निराकरण के
लिये उसके
द्वारा धारा
27 भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत दिया
गया कथन
उपयोग में
लिया जा
सकता है
चाहे वह
संस्वीकृति
की कोटि
में आता
हो ।
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
महेश कुमार
वि. स्टेट
आफ राजस्थान,
1990 (सप्लीमेंट)
एस.सी.सी.
541 (2) अवलोकनीय
है जिसमें
उक्त विधि
प्रतिपादित
की गई
है ।
न्याय
दृष्टांत
उमाशंकर वि.
स्टेट
आफ एम.पी.
2005 (4) एम.पी.एल.जे.
585 में
भी यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 452
द.प्र.स.
के
तहत संपत्ति
के व्ययन
के समय
अभियुक्त
की
स्वीकारोक्ति/संस्वीकृति
को उपयोग
में लिया
जा सकता
हैं।
न्याय
दृष्टांत
गोविंदराम
वि. स्टेट
आफ एम.पी.
2006 (2) एम.पी.जे.आर.
408 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
अभियुक्त
ने संपत्ति
को क्लेम
नहीं किया
परिवादी ने
संपत्ति को
क्लेम किया
विभिन्न
न्याय दृष्टांतों
पर विचार
करके यह
प्रतिपादित
किया गया
कि ऐसे
मामलों में
परिवादी को
संपत्ति
लौटाना चाहिये
।
न्याय
दृष्टांत
मुन्नीलाल
यादव वि.
स्टेट
आफ एम.पी,
आई
एल आर
2010 एम.पी.
150 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 452
द.प्र.सं.
में
बतलायी गई
विधि के
अनुसार कोई
भी न्यायालय
प्रकरण के
निराकरण पर
संपत्ति के
निराकरण का
आदेश देने
का विवेकाधिकार
रखते हैं
इस विवेकाधिकार
का प्रयोग
मनमाने तरीके
से न
करके न्यायिक
तरीके से
करना चाहिये
जहां अभियुक्त
दोषमुक्त
किया गया
हो न्यायालय
सामान्यतः
उस व्यक्ति
को संपत्ति
लौटा देती
है जिसके
कब्जे से
वह ली
गई थी
चाहे फरार
अभियुक्त
का विचारण
होना शेष
हो फिर
भी बरामद
गन को
अनिश्चित
समय तक
रोके रखने
से कोई
उपयोगी उददेश्य
प्राप्त नहीं
होना है
ऐसे में
संपत्ति कुछ
शर्ताे के
साथ अभियुक्त
को लौटाई
गई ।
न्याय
दृष्टांत
विष्णुराम
वि. साउथ
ईस्टर्न कोल
फील्ड लि.
2000 (2) एम.पी.एल.जे.
265 में
यह प्रतिपादित
किया है
कि विचारण
समाप्ति पर
संपत्ति के
व्ययन का
आदेश करते
समय न्यायालय
को प्रथम
दृष्ट्या
साक्ष्य पर
अग्रसर होना
चाहिये व्यवहार
न्यायालय
की तरह
कार्य नहीं
करना चाहिये
क्योंकि
स्वत्व के
प्रश्न का
निराकरण
आवश्यक नहीं
होता है
व्यथित पक्षकार
सिविल न्यायालय
में जाकर
अपना स्वत्व
स्थापित करने
के लिये
स्वतंत्र
होता है
न्याय
दृष्टांत
इंटर कांटिनेंटल
एजेंसी प्रा.
लि.
विरूद्ध
अमीन चंद
खन्ना ए.आई.आर.
1980 एस.सी.
951 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
जहां मजिस्टेªट
ने जप्त
संपत्ति
रिसीवर को
न्यस्त की
थी और
किसी व्यक्ति
को व्यवहार
न्यायालय
उस संपत्ति
का स्वामी
घोषित किया
और वह
संपत्ति का
आधिपत्य लेने
आया तब
मजिस्टेट
का यह
कतव्य
है कि
वह संपत्ति
का पता
लगावें और
उसे उसके
स्वमी को
सौंपे और
यदि ऐसा
संभव न
हो और
संपत्ति गुम
जाती है
तो स्वामी
को उसका
मूल्य दोषी
व्यक्तियों
से दिलावे
।
न्याय
दृष्टांत
रामचंद्र
केशरवानी
वि. स्टेट
आफ एम.पी.
1995 सी.आर.एल.जे.
3296 एम.पी.
में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
परिवादी की
मृत्यु हो
जाने पर
उसके पुत्र
ने संपत्ति
उसे देने
का आवेदन
लगाया न्यायालय
ने आवेदन
निरस्त करके
उत्तराधिकार
प्रमाण पत्र
लाने के
निर्देश दिये
जो उचित
नहीं माने
गये विशेषकर
जब अन्य
उत्तराधिकारियों
को संपत्ति
प्रार्थी
को सौंपने
में आपत्ति
नहीं थी
। उत्तराधिकारी
प्रमाण पत्र
किसी ऋण
आदि के
लिये जरूरी
होता है
आपराधिक
प्रकरण में
जप्त संपत्ति
ऋण आदि
की श्रेणी
में नहीं
आती अतः
उत्तराधिकारी
प्रमाण पत्र
आवश्यक नहीं
माना गया
।
धारा
452 एवं
धारा 453
द.प्र.सं.
के
तहत संपत्ति
के व्ययन
के आदेश
से व्यथित
व्यक्ति धारा
454 द.प्र.सं.
के
तहत ऐसे
आदेश के
विरूद्ध अपील
प्रस्तुत
कर सकता
है ।
नियम
एवं आदेश
आपराधिक
नियम
124 के
अनुसार
मूल्यवान
संपत्ति जैसे
जेवर आदि
को पीठासीन
अधिकारी को
अपनी उपस्थिति
में सीलबंद
पैकेट में
रखवाकर कोषालय
में नाजिर
के माध्यम
से जमा
करवाना चाहिये
।
ब्राससिल
अपने आधिपत्य
में रखना
चाहिये ।
इस संबंध
में नियम
680 की
भी कठोरता
से पालना
की जाना
चाहिये ।
प्रकरण
के निराकरण
के साथ
ही मालखाना
पर्चे पर
स्पष्ट माल
निस्तारण
आदेश निष्पादन
लिपिक से
लिखवाकर, प्रत्येक
माह के
अंत में,
निराकृत
प्रकरणों
का अभिलेख
जमा होते
समय, उक्त
पर्चे मालखाना
नाजिर को
भेजे जाने
चाहिये ताकि
निराकृत
प्रकरणों
की मालखाना
वस्तुओं का
भी समय
पर निराकरण
हो सके
यदि मूल
मालखाना
पर्चा नहीं
मिल रहा
है तब
डुप्लीकेट
पर्चा भी
बनाया जा
सकता है
।
इस
तरह किसी
भी दाण्डिक
न्यायालय
को प्रकरण
के लंबित
रहने के
दौरान प्रकरण
में जप्त
वसतुओं की
अंतरिम
अभिरक्षा
के लिये
आदेश करने
की शक्तियां
होती हैं
कुछ अधिनियमों
में इस
बारे में
प्रतिबंध
है जिनको
ध्यान में
रखना चाहिये
साथ ही
प्रकरण के
निराकरण पर
भी संपत्ति
के व्ययन
के बारे
में स्पष्ट
आदेश करना
चाहिये ।
प्रकरण के
लंबित रहने
के दौरान
या निराकरण
के समय
संपत्ति के
व्ययन का
आदेश करते
समय उक्त
वैधानिक
स्थितियों
को ध्यान
मंे रखना
चाहिये
(पी.के.
व्यास)
विशेष
कर्तव्यस्थ
अधिकारी
न्यायिक
अधि. प्रशिक्षण
एवं अनुसंधान
संस्थान
उच्च
न्यायालय
जबलपुर म.प्र.
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