Thursday, 29 May 2014

म0प्र0 स्थान नियंत्रण अधिनियम, 1961

0प्र0 स्थान नियंत्रण अधिनियम, 1961

प्रायः विचारण न्यायालय में निष्कासन और अवशेष किराया वसूली संबंधी वाद प्रस्तुत होते है यहां हम 0प्र0 स्थान नियंत्रण अधिनियम, 1961 के इसी संबंध में कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों और उन पर नवीनतम वैधानिक स्थिति के बारे में विचार करेंगे। इस अधिनियम में मुख्य रूप से धारा 12, 13, 17, 18 के प्रावधान समझ लेना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि दिन-प्रतिदिन के न्यायिक कार्य में इन प्रावधानों और इनसे संबंधित स्थापित वैधानिक स्थिति के बारे में जानकारी आवश्यक होती है।
धारा 12 अभिधारियों या किरायेदारों के निष्कासन पर प्रतिबंध
(1) किसी अन्य विधि या संविदा में अंतर्विष्ट किसी प्रतिकूल बात के होते हुये भी, किसी किरायेदार के विरूद्ध, किसी स्थान से उसकी बेदखली या निष्कासन के लिये सिविल न्यायालय में कोई वाद निम्नलिखित आधारों में से किसी एक या एक से अधिक आधारों पर ही फाईल किया जायेगा अन्यथा नहीं अर्थात:-
() किरायेदार ने उससे वेध रूप से वसूली योग्य किराये के सम्पूर्ण बकाया का उस तारीख के, जिसको की किराये के बकाया के लिये मांग की सूचना भू-स्वामी द्वारा उस पर विहित रीति से तामील की गई हो, दो माह के भीतर तो संदाय किया है ही निविदा ही किया है।
अर्थात मांग सूचना पत्र कि तामील के दो माह के भीतर वेध वसूली योग्य अवशेष किराया यदि किरायेदार तो अदा करता है और ही निविदा करता है तब अवशेष किराये के आधार पर भू-स्वामी निष्कासन का वाद प्रस्तुत कर सकता है।
इस आधार के साथ हमें निम्न प्रावधानों को भी ध्यान में रखना होगा:-
धारा 12 (3) यदि किरायेदार धारा 13 द्वारा अपेक्षित किये गये अनुसार अवशेष किराया संदाय कर देता है या जमा करा देता है तब इस आधार पर अर्थात अवशेष किराये के आधार पर निष्कासन का आदेश नहीं दिया जायेगा।
परंतु कोई भी किरायेदार इस उप धारा के अधीन लाभ पाने का अधिकारी नहीं होगा यदि वह किसी परिसर के संबंध में ऐसा लाभ एक बार प्राप्त कर लेने के बाद उस परिसर के किराये का संदाय करने में क्रमवर्ती 3 माह तक पुनः व्यतिक्रम या चूक करता है।
धारा 13 किरायेदार को निष्कासन के विरूद्ध कब लाभ मिल सकता है
धारा 13 (1) के अनुसार भू-स्वामी द्वारा धारा 12 में निर्दिष्ट आधारों में से किसी आधार पर कोई वाद या कोई अन्य कार्यवाही संस्थित की जाने पर या किरायेदार द्वारा उसके निष्कासन के लिये किसी डिक्री या आदेश के विरूद्ध किसी अपील या किसी अन्य कार्यवाही में किरायेदार संमन या अपील या अन्य कार्यवाही की सूचना के तामील के एक माह के भीतर या किरायेदार द्वारा अपील या अन्य कार्यवाही संस्थित की जाने के एक माह के भीतर या ऐसे अतिरिक्त समय के भीतर जो न्यायालय द्वारा उसके आवेदन किये जाने पर दिया जावे किराये का उस दर से, जिस दर से कि उसका संदाय किया जाता था संगणित रकम का न्यायालय में जमा या भू-स्वामी को उसका संदाय उस कालावधि के लिये करेगा जिसके लिये कि किरायेदार ने व्यतीक्रम किया हो और आगे भी प्रत्येक माह की 15 तारीख तक किराया जमा करता रहेगा।
धारा 12 (2) के अनुसार यदि अवशेष किराये के बारे में कोई विवाद हो जो किरायेदार द्वारा देय है तो न्यायालय भू-स्वामी या किरायेदार द्वारा उस संबंध में अभिवाक किये जाने पर युक्तियुक्त अंतरिम (प्रोविजनल) किराया नियत करेगा जो उप धारा 1 के अनुसार किरायेदार द्वारा जमा या अदा किया जायेगा लेकिन ऐसा अभिवाक वाद या अन्य कार्यवाही में सर्वप्रथम अवसर पर किया जायेगा और बाद में किये गये अभिवाक को न्यायालय सकारण आदेश देकर ही ग्रहण करेंगे।
धारा 13 (3) के अनुसार यदि इस संबंध में कोई विवाद हो कि किराया किस व्यक्ति को या किन व्यक्तियों को दिया जाना है तब न्यायालय किरायेदार को यह निर्देश दे सकते है की बकाया किराया न्यायालय में जमा कर दे और न्यायालय के आदेश के बिना या विवाद के निराकरण के पूर्व ऐसा किराया निकालने का अधिकार नहीं होगा।
धारा 13 (4) के अनुसार यदि किरायेदार द्वारा उठाया गया विवाद न्यायालय के राय में असत्य या तुच्छ प्रकृति का पाया जाता है तो न्यायालय किरायेदार की प्रतिरक्षा समाप्त कर सकते है और वाद में आगे सुनवाई कर सकते है।
धारा 13 (5) के अनुसार यदि किरायेदार किराया उप धारा 1 या उप धारा 2 के अनुसार जमा या अदा कर देता है तो उसके विरूद्ध अवशेष किराये के आधार पर निष्कासन नहीं किया जायेगा।
धारा 13 (6) के अनुसार यदि किरायेदार किराया उक्त अनुसार अदा या जमा नहीं करता है तो उसकी प्रतिरक्षा न्यायालय काट सकेगा और वाद या अपील में आगे कार्यवाही की जायेगी।
इस तरह धारा 13 में बतलाई गई प्रक्रिया के अनुसार अवशेष किराया अदा या जमा कर देता है तो धारा 12 (1) () के आधार पर उसके विरूद्ध निष्कासन नहीं किया जाता है।
धारा 12 (1) () अधिनियम के बावत् वैधानिक स्थिति
1. न्याय दृष्टांत चिमन लाल विरूद्ध मिश्री लाल, .आई.आर. 1985 एस.सी. 136 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है कि बकाया किराये की वसूली के आधार पर निष्कासन का वाद, वाद ग्रस्त पूरे परिसर के बारे में मांग सूचना पत्र देकर कुछ भाग के बारे में मांग सूचना पत्र दिया गया ऐसा वाद चलने योग्य नहीं है। इस आधार पर निष्कासन के वाद में वाद ग्रस्त परिसर के बारे में, अवशेष किराये के बारे में मांग सूचना पत्र दिया जाना एक अनिवार्य तत्व है तभी वाद चलने योग्य होता है।
न्याय दृष्टांत जमुना देवी विरूद्ध सुशीला बाई, 2011 (2) एम.पी.एल.जे. 70 में माननीय .प्र. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि जहां किरायेदार को बकाया किराया के संबंध में कोई सूचना पत्र नहीं दिया गया वहां न्यायालय धारा 12 (1) () के तहत् कोई अज्ञाप्ति नहीं दे सकती है यहां तक की धारा 13 (1) की पालना की गई हो और अन्य आधारों पर भी निष्कासन चाहा गया हो बचाव समाप्त किया गया हो तब किरायेदार को निष्कासन के आधार पर अपनी ओर से कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने अवसर नहीं दिया जायेगा।
2. न्याय दृष्टांत बी.सी. कामे विरूद्ध नेमी चंद, .आई.आर. 1970 एस.सी. 981 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है कि किरायेदार ने वाद का सूचना पत्र मिलने के एक माह के भीतर अवशेष किराया जमा नहीं किया बाद का जमा न्यायालय में आवेदन देकर न्यायालय समय बढ़ा दे तभी अवाइड किया जा सकता है अर्थात यदि किरायेदार वाद का सूचना पत्र मिलने के एक माह के भीतर किराये जमा नहीं करता है तो उसे न्यायालय में आवेदन देकर समय मांगना चाहिये यदि न्यायालय समय दे देता और विलंब को क्षमा कर दे तभी बाद में किराये जमा करने का लाभ किरायेदार को मिलता है अन्यथा नहीं।
3. न्याय दृष्टांत सैयद अख्तर विरूद्ध अब्दुल अहद, .आई.आर. 2003 एस.सी. 2985 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किरायेदार ने किराये जमा करने में नवम्बर 1985 में किराया देकर चूक या व्यतिक्रम किया फिर मई जून 1988 में पुनः व्यतिक्रम किया और वर्ष 1990 में विलंब क्षमा का आवेदन दिया ऐसा आवेदन स्वीकार योग्य नहीं पाया गया इस न्याय दृष्टांत में एक अन्य न्याय दृष्टांत नसरूद्दीन विरूद्ध सीताराम (2003) 2 एस.सी. 577 का उल्लेख किया गया है और उक्त विधि प्रतिपादित की गई है।
4. न्याय दृष्टांत शोभागमल विरूद्ध गोपाल दास, .आई.आर. 2008 एस.सी. 1519 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किरायेदार ने किराये जमा करने में व्यतिक्रम किया किरायेदार को धारा 12 (3) का लाभ दिया गया। किरायेदार अपील लंबित रहने के दौरान फिर व्यतिक्रम किया और किराया जमा नहीं करवाया किराया जमा करवाने में व्यतिक्रम के आधार पर दूसरा वाद यदि लाया जाता है तो प्रचलन योग्य है और और अब धारा 12 (3) और धारा 13 (5) लागू नहीं होगी और इनका किरायेदार को लाभ नहीं मिलेगा।
5. न्याय दृष्टांत आर.सी. ताम्रकार विरूद्ध निधिलेखा, .आई.आर. 2001 एस.सी. 3806 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किरायेदार ने वाद के पूर्व, वाद लंबित रहने के दौरान किराया जमा नहीं करवाया निष्कासन की डिक्री पारित की गई न्यायालय में किराया जमा करवा दिया गया लेकिन विलंब क्षमा करने या समय बढ़ाने का आवेदन नहीं दिया ऐसा किराया जमा करवाने का कोई महत्व नहीं है इस आधार पर निष्कासन उचित माना गया।
6. न्याय दृष्टांत जमना लाल विरूद्ध राधेश्याम, (2000) 4 एस.सी.सी. 380 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि जहां किराये की दर का विवाद हो और केवल देय किराये के संबंध में सहमति हो वहां न्यायालय के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह संक्षिप्त जांच करके धारा 13 (2) के तहत अनन्तिम किराया या प्रोविजनल रेन्ट तय करे किरायेदार धारा 13 (1) के तहत् किराया जमा करने के लिये दायी है और यदि न्यायालय यह पाती है कि किसी कालावधि का किराया शेष है और जमा नहीं करवाया गया है तब न्यायालय निष्कासन की डिक्री देने के लिये बाध्य है लेकिन जहां किराये की दर और उसकी मात्रा दोनों का विवाद हो वहां धारा 13 (1) लागू नहीं होगी जब तक की न्यायालय प्रोविजनल रेन्ट तय करे।
किरायेदार पर दो दायित्व होते है प्रथम वह संमन की तामील के एक माह के भीतर बकाया किराया जमा करे दूसरा आगे भी प्रत्येक माह की किराया जमा करवाता रहे दोनों दायित्व अलग-अलग है दूसरे दायित्व का पालन कर देने से प्रथम दायित्व से मुक्ति नहीं हो जाती दोनों ही दायित्व पूर्ण करने होते है। इस संबंध मंे न्याय दृष्टांत प्रकाश गुप्ता विरूद्ध श्रीमती रामरति देवी, 2003 (1) एम.पी.जे.आर., एसएन 12 अवलोकनीय है।
यदि मामला बकाया किराया के अलावा अन्य आधारों पर भी है तब किरायेदार के लिये आवश्यक है कि भविष्य का किराया जमा करवाता रहे।
7. न्याय दृष्टांत श्याम चरण शर्मा विरूद्ध धर्मदास, .आई.आर. 1980 एस.सी. 587 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है कि किरायेदार का निष्कासन किराया अदा करने पर बचाव का समाप्त किया जाना न्यायालय के विवेकाधिकार पर है मकान किराया न्यायालय में जमा किया गया, न्यायालय ने समय बढ़ाया किरायेदार निष्काशित नहीं होगा यदि विलंब से किराये जमा करवाने का कारण ऐसा है जो किरायेदार के नियंत्रण से बाहर हो तब न्यायालय अपने विवेकाधिकार से विलंब को क्षमा कर सकती है।
8. न्याय दृष्टांत सुषमा विरूद्ध गुलाचंद, 2011, (2) एम.पी.एल.जे. 39 में विलंब से किराये जमा करवाने के कारण किरायेदार को सुगर की बीमारी होना बतलाया गया इसे विलंब क्षमा का कारण नहीं माना गया इसी न्याय दृष्टांत में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि मकान मालिक मकान के प्रथम मंजिल पर रेडीमेट का व्यवसाय करती थी उसने इस व्यवसाय के लिये तल मंजिल या ग्राउण्ड मंजिल पर रहने वाले किरायेदार का निष्कासन मांगा जो उचित माना गया। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुनील कुलकर्णी विरूद्ध जगदीश सिंह, आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 939 भी अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया है कि प्रथम तल पर स्थित दुकान उतनी संख्या में ग्राहकों को आकर्षित नहीं करती जितनी तल मंजिल पर स्थित दुकान करती है अतः प्रथम तल की दुकान को वैकल्पिक परिसर नहीं माना जा सकता।
9. न्याय दृष्टांत शबीर मोहम्मद विरूद्ध मगन लाल, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 1243 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किराये की दर मकान मालिक किरायेदार के संबंध ज्ञात होने के बावजूद किराया जमा नहीं किया गया ऐसे में निष्कासन उचित माना गया।
10. विचारण न्यायालय ने विलंब को माफ किया और किरायेदार को एक माह में किराया जमा करने का निर्देश दिया किरायेदार ने किराया भी जमा करवाया लेकिन नियत समय में न्यायालय ने रसीदें प्रस्तुत करने में वह असफल रहा उसका बचाव समाप्त किया गया किरायेदार ने एक पुनरावलोकन आवेदन मय रसीदों के प्रस्तुत किया विचारण न्यायालय ने आवेदन निरस्त कर दिया माननीय उच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया पुनरावलोकन आवेदन निरस्त करने अनुचित था इस संबंध में न्याय दृष्टांत गणेश प्रसाद विरूद्ध असदुल्ला उसमानी, आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 2528 डी बी. अवलोकनीय है।
11. न्याय दृष्टांत सुनील कुलकर्णी विरूद्ध जगदीश सिंह, आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 939 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि किरायेदार मांग सूचना पत्र देने और न्यायालय का सूचना पत्र मिलने के बाद भी किराया जमा करवाने का चुनाव करता है तो यह उसका रिश्क है और ऐसे में बकाया किराये के आधार पर निष्कासन का आधार बन जाता है ऐसा किरायेदार धारा 12 (3) और 13 (5) का संरक्षण पाने का अधिकारी नहीं होता है।
12. न्याय दृष्टांत किरण विरूद्ध रमेश गुजनानी 2010 (2) एम.पी.जे.आर. 177 डीबी में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि किरायेदार ने बकाया किराया जमा नहीं किया है इस आधार पर उसका बचाव समाप्त कर दिया गया है तब भी उसे सामान्य विधि के तहत जो बचाव उपलब्ध होते है उन पर वादी के गवाहों से प्रतिपरीक्षण का अधिकार रहता है इस मामले में न्याय दृष्टांत मोडूला इंडिया विरूद्ध के. सिंह देव, .आई.आर. 1989 एस.सी. 162 का उल्लेख किया गया है जिसमंे यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि स्थान नियंत्रण अधिनियम के तहत बचाव समाप्त कर दिया गया हो तब भी किरायेदार को सामान्य विधि के अंतर्गत जो प्रतिरक्षा उपलब्ध होती है उनके आधार पर वादी के गवाहों को किरायेदार प्रतिपरीक्षण कर सकता है और वादी की कमजोरी सामने ला सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत केवल कुमार शर्मा विरूद्ध सतीश चंद, 1991 जे.एल.जे. 86 डी.बी. भी अवलोकनीय है।
13. किरायेदार ने किराया समय पर जमा करने में कई व्यतिक्रम किये। अपील न्यायालय में भी व्यतिक्रम किये उच्च न्यायालय में द्वितीय अपील में विलंब क्षमा करने का आवेदन दिया इतने लंबे समय बाद दिये गये आवेदन को स्वीकार योग्य नहीं पाया गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजेन्द्र कुमार विरूद्ध कसतुरी बाई, 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 413 अवलोकनीय है।
14. किरायेदार ने मांग सूचना पत्र तामील होने के दो माह के भीतर वाद के सूचना पत्र तामील होने के एक माह के भीतर और यहां तक की न्यायालय द्वारा दिये गये समय में भी जानबूझ कर किराया जमा नहीं करवाया इसे विल फूल डिफाल्ट माना गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत हरिशंकर शर्मा विरूद्ध श्री किशन दुबे, 2008 (1) एम.पीएचटी 223 अवलोकनीय है।
15. अंनन्तिम किराया या प्रोविजन रेन्ट संक्षिप्त जांच करके निर्धारित करना चाहिये जिसमें किराये की रसीदे, संपत्ति कर रजिस्टर में दर्शाया किराया और अन्य दस्तावेज देखे जा सकते है दस्तावेजों के अभाव में शपथ पत्रों के आधार पर किराया निर्धारित किया जा सकता है संक्षिप्त जांच के बिना किराया निर्धारित करना उचित नहीं है इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती मीरा विरूद्ध मोहम्मद फहीम, 2008 (3) एम.पी.जे.आर. 12 अवलोकनीय है।
16. वेध रूप से वसूली योग्य किराये में समय बाधित किराया शामिल नहीं होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत दिनेश कुमार शर्मा विरूद्ध भगवत प्रसाद तिवारी, 2006 (3) एम.पी.जे.आर., एस.एन. 23 अवलोकनीय है जिसमंे न्याय दृष्टांत मानकुंवर बाई विरूद्ध सुन्दर लाल, 1978 एम.पी.एल.जे. 405 पूर्ण पीठ और अन्य न्याय दृष्टांत पर विचार किया गया है। किरायेदार समय बाधित किराया जमा करवाने के लिये बाध्य नहीं होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत राम गोपाल विरूद्ध फर्म मेसर्स दीनानाथ, 2006 (1) एम.पी.एल.जे. 455 अवलोकनीय है। साथ ही न्याय दृष्टांत अरूण कुमार विरूद्ध कृष्ण गोपाल, 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 24 भी अवलोकनीय है।
17. यदि किरायेदार पिता ने धारा 12 (3) का लाभ ले लिया है तब उसके उत्तराधिकारी पुनः इन प्रावधानों का लाभ नहीं ले सकते इस संबंध में न्याय दृष्टांत इमदाद अली विरूद्ध केशव चंद (2003) 4 एस.सी.सी. 635 अवलोकनीय है।
18. विलंब को क्षमा करने के लिये किरायेदार द्वारा आवेदन दिया जाना आवश्यक है इस संबंध मे न्याय दृष्टांत सैयद अख्तर विरूद्ध अब्दुल अहद, (2003) 7 एस.सी.सी. 52 अवलोकनीय है।
धारा 12 (1) (बी) अधिनियम के बारे में
(बी) किरायेदार ने इस अधिनियम के प्रारंभ होने के पूर्व या पश्चात् संपूर्ण स्थान या उसके किसी भाग को प्रतिफल लेकर या अन्यथा विधि विरूद्ध रूप से उप किराये पर दे दिया है, समनुदेशित कर दिया है या उसका कब्जा छोड़ दिया है।
इस आधार पर सामान्यतः उप किरायेदारी का आधार या सबलेटिंग भी कहते है जिसके तहत मूल किरायेदार किसी अन्य व्यक्ति को वाद ग्रस्त परिसर या उसका कोई भाग उप किराये पर दे देता है और ऐसा भाग मकान मालिक के लिखित अनुमति के बिना करता है तब किरायेदार के विरूद्ध यह निष्कासन का आधार बनता है यदि मकान मालिक के लिखित अनुमति ली गई है तब धारा 15 आकर्षित होती है।
न्याय दृष्टांत हरवीर सिंह विरूद्ध श्रीकिशन सिंह, आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 654 में माननीय .प्र. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि उप किरायेदार सद्भाविक आवश्यकता के आधार पर वाद ग्रस्त परिसर की आवश्यकता को चुनौती नहीं दे सकता वह केवल उप किरायेदारी के आधार को ही चुनौती दे सकता है इस मामले में वादी ने उसके पुत्र की आवश्यकता के आधार पर दुकान खाली कराने का वाद पेश किया था वाद दायर करने के पूर्व ही दुकान उसके पुत्र को विभाजन में मिल चुकी थी वादी के मृत्यु के बाद उसके पुत्र को वेध प्रतिनिधि के रूप में अभिलेख पर लिया गया उप किरायेदार ने इस आधार पर आपत्ति की कि मूल वादी को वाद प्रस्तुत करते समय वाद ग्रस्त परिसर का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार नहीं था उप किरायेदार को ऐसी आपत्ति लेने का अधिकार होना प्रतिपादित किया गया।
यदि किरायेदार किरायेदारी वाले परिसर को मकान मालिक के सहमति के बिना उप किराये पर देता है तो यह धारा 14 का उल्लघंन है और धारा 43 (3) के तहत किरायेदार पर पैनाल्टी लगाई जा सकती है और न्यायिक मजिस्टेª के समक्ष किरायेदार के विरूद्ध परिवाद लाया जा सकता है लेकिन उप किरायेदार के विरूद्ध नहीं लाया जा सकता इस संबंध में न्याय दृष्टांत मनीषा ललवानी विरूद्ध डाॅं. डी.बी. पाॅल, 2009 (2) एम.पी.जे.आर. 196 अवलोकनीय है।
दानपति अदाहत भण्डार विरूद्ध घनश्याम दास, 2009 (2) एम.पी.जे.आर. 333 भी उप किरायेदारी के में अवलोकनीय है इस न्याय दृष्टांत यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि मकान मालिक व्यापार बदलने के बारे में अभिवचन करता है तो यह नहीं कहां जा सकता की उसकी आवश्यकता समाप्त हो गई है।
न्याय दृष्टांत मुकेश कुमार गर्ग विरूद्ध रामचन्द्र मोटवानी, आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 551 भी उप किरायेदारी के बारे में अवलोकनीय है साथ ही न्याय दृष्टांत शिवजी भाई विरूद्ध जगदीश चन्द्र, 2008 (3) एम.पी.एल.जे. 87 भी अवलोकनीय है
न्याय दृष्टांत श्रीमती निर्मलकांता विरूद्ध अशोक कुमार, .आई.आर. 2008 एस.सी. 1768 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि किरायेदार ने एक व्यक्ति को एक बैठक उपलब्ध कराये ताकि वह किरायेदार को कपड़े के व्यापार में सिलाई करके उसकी मदद कर सके किरायेदार ने परिसर का आधिपत्य नहीं छोड़ था उसे उप किरायेदारी नहीं माना गया।
न्याय दृष्टांत आशिन अली विरूद्ध गफूर, 2007 (1) एम.पी.एल.जे. 266 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किरायेदार ने वाद ग्रस्त परिसर में अपना विधिक आधिपत्य रखते हुये एक भागीदारी फर्म प्रारंभ की इसे उप किरायेदारी नहीं माना गया।
उप किरायेदारी के लिये किसी प्रत्यक्ष साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होती है इसे परिस्थितियों के माध्यम से इनफर किया जाता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्यामकांत निगम विरूद्ध नवाब अहमद, 2007 (1) एम.पी.एल.जे. 279 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत शांति देवी विरूद्ध द्वारका दास, 2005 (3) जे.एल.जे. 368 इस संबंध में अवलोकनीय है।
धारा 12 (1) (सी) अधिनियम के बारे में
(सी) किरायेदार ने या उसके साथ निवास करने वाले किसी व्यक्ति ने यदि कोई न्यूसेन्स पैदा कर दी है या कोई ऐसा कार्य किया है जो उस प्रयोजन से असंगत है जिसके लिये उसे वह स्थान किराये पर दिया गया था या कोई ऐसा कार्य किया गया है जिससे भू-स्वामी के हित पर प्रतिकूल रूप से तथा सारवान रूप से प्रभाव पड़ना संभाव्य है।
लेकिन किसी किरायेदार द्वारा उस स्थान के एक भाग को अपने कार्यालय के रूप में उपयोग में लाया जाना उस प्रयोजन से असंगत कार्य नहीं समझा जायेगा जिसके लिये वह स्थान उसे किराये पर दिया गया है।
धारा 12 (1) (सी) अधिनियम के बारे में वैधानिक स्थिति
1. न्याय दृष्टांत शीला विरूद्ध फर्म प्रहलाद राय, .आई.आर. 2002 एस.सी. 1264 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि किरायेदार सद्भावना पूर्वक यह अभिवचन करता है कि भू-स्वामी अपना स्वत्व प्रमाणित करे किरायेदार उसके आधिपत्य की प्रकृति स्थिति से इंकार नहीं करता है तो यह नहीं कहां जा सकता की किरायेदार ने भू-स्वामी के स्वामित्व से इंकार किया है या किरायेदारी से इंकार किया है धारा 116 भारतीय साक्ष्य अधिनियम एवं धारा 111 जी संपत्ति अंतरण अधिनियम के प्रावधानों को ध्यान में रखना होगा।
2. न्याय दृष्टांत सैयद अख्तर विरूद्ध अब्दुल अहद .आई.आर. 2003 एस.सी. 2985 में किराया अदा करने में व्यतिक्रम किरायेदार द्वारा न्यूसेन्स के आधार पर वाद पेश किया गया। मामले में न्यूसेन्स पर विशेषतः वाद प्रश्न नहीं बनाया गया दोनों पक्षों के अभिवचन भी थे प्रमाण भी थे जिन्हें कोर्ट ने देखा और विचार में लेकर निष्कर्ष दिया दोनों पक्ष वाद प्रश्न को जानते थे और उन्होंने उस पर प्रमाण भी दिया ऐसे में न्यूसेन्स के बारे में पृथक से वाद प्रश्न बनाने का कोई प्रभाव नहीं माना गया।
{ वाद प्रश्न सामान्यतः किसी भी मामले में अत्यंत गंभीरता से बनाना चाहिये और कोई भी तात्विक वाद प्रश्न बनना रह जाये इसका ध्यान रखना चाहिये उक्त न्याय दृष्टांत के प्रकाश में यह मार्गदर्शन भी लिया जा सकता है।}
3. न्याय दृष्टांत शबीर मोहम्मबद विरूद्ध मगन लाल, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 1243 में माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि किरायेदार के रूप में संबंध स्वीकार करने के बाद भूमि स्वामी के हक को चुनौती देने से किरायेदार धारा 116 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत विबंधित है यह न्यूसेन्स है।
4. न्याय दृष्टांत चुन्नू लाल विरूद्ध केशर बाई, 2011 (2) एम.पी.एल.जे. 180 में माननीय .प्र. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि यदि किरायेदार को क्रेता वादी द्वारा वाद ग्रस्त परिसर का क्रय करने का ज्ञान हो और उसने नये स्वामी को स्वामी के रूप में माना हो किरायेदार ने अपने किरायेदार की स्थिति को इंकार किया हो पर वादी से अपना स्वामित्व सिद्ध करने को कहां हो ऐसे मामले में इस आधार पर अर्थात स्वामित्व से इंकार के आधार पर अज्ञाप्ति नहीं दी जा सकती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत कांधी लाल विरूद्ध अभिलाष कुमार अवलोकनीय है।
5. न्याय दृष्टांत राम किशन सोनी विरूद्ध डाॅं. सुरेन्द्र बाहरे, 2010 (1) एम.पी.एच.टी. 252 में माननीय .प्र. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि निष्कासन के मामले में स्वत्व की जांच स्वत्व संबंधि वादों की तरह नहीं की जाना होती है वादी एक विल के आधार पर भू-स्वामी होने का दावा लेकर आया था प्रतिवादी ने स्वीकारोक्ती की थी विल का निष्पादन प्रमाणित नहीं हुआ था लेकिन प्रतिवादी के स्वीकारोक्ती के आधार पर वाद अज्ञाप्त किया गया था जिसे उचित माना गया इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि लिखित कथन में भी यदि भू-स्वामी के स्वत्व से इंकार किया गया हो तब धारा 12 (1) (सी) का निष्कासन का आधार बनेगा।
6. यदि किरायेदार नया विद्युत कनेक्शन ले लेता है जबकि मकान मालिक उसे ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं कराता है किरायेदार के इस कार्य को न्यूसेन्स नहीं माना जा सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत गुलखान विरूद्ध ओम प्रकाश, आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 98 अवलोकनीय है।
7. किरायेदार ने वादी के डेरीवेटीव टायटल को स्वीकार करने के बाद फिर उसके स्वत्व से इंकार किया वादी ने इस संबंध में संशोधन किया इस आधार पर आज्ञाप्ति दी गई इस संबंध में न्याय दृष्टांत देवराज विरूद्ध नैना देवनानी, 2008 (3) एम.पी.सएल.जे. 239 अवलोकनीय है।
8. किरायेदार ने लिखित कथन में स्वत्व से इंकार किया बाद में संशोधन करके वह अभिवचन वापस ले लिया प्रारंभिक अभिवचनों के आधार पर भी धारा (1) (सी) का आधार निर्मित होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत राम गोपाल विरूद्ध फर्म मेसर्स दीनानाथ, 2006 (1) एम.पी.एलजे. 455 अवलोकनीय है।
9. सूचना पत्र के जवाब में स्वत्व से इंकार किया या लिखित कथन में स्वत्व से इंकार किया इसे धारा 12 (1) (सी) का आधार निर्मित होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत रंजीत नारायण विरूद्ध लक्ष्मी बाई, 2005 (1) एम.पी.एल.जे. 297 अवलोकनीय है।
10. जब तक अंतरण की सूचना दी गई हो या किरायेदारी बाद के क्रेता के स्वीकार कर ली गई हो तब तक धारा 12 (1) (सी) का आधार नहीं बनेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत बजरंग लाल विरूद्ध ग्यासी बाई, 2004 (4) एम.पी.एल.जे. 192 अवलोकनीय है।

धारा 12 (1) (डी) अधिनियम के बारे में
(डी) किरायेदार ने यदि युक्तियुक्त हेतुक के बिना वह स्थान वाद प्रस्तुती दिनांक के पूर्व लगातार 6 माह तक उस प्रयोजन से उपयोग में नहीं लिया है जिसके लिये वह किराये पर दिया गया था।
इस तरह किरायेदार यदि वाद ग्रस्त परिसर का लगातार 6 माह तक बिना किसी उचित कारण के दिये गये प्रयोजन से उपयोग नहीं करता है तो यह निष्कासन का आधार बनता है।
न्याय दृष्टांत मजहर खान विरूद्ध श्याम किशोर, 2010 (3) एम.पी.एच.टी. 16 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मकान मालिक को यह प्रमाणित करना होता है कि किरायेदार ने बिना युक्तियुक्त हेतुक के परिसर का उपयोग नहीं किया है यदि मकान मालिक इतना स्थापित कर देता है तब युक्तियुक्त हेतुक को स्थापित करने का भार प्रतिवादी पर सिफ्ट हो जाता है।
धारा 12 (1) () अधिनियम के बारे में
() निवास के प्रयोजनों के लिये, किराये पर दिये स्थान की, भू-स्वामी को अपने स्वयं के लिये या अपने कुटुब के किसी सदस्य के लिये, यदि वह उसका स्वामी है या किसी ऐसे व्यक्ति के लिये जिसके फायदे के लिये वह स्थान धारित है निवास स्थान के रूप में अधिभोग के लिये सद्भाविक आवश्यकता है और संबंधित कस्बे या शहर में भू-स्वामी या ऐसे व्यक्ति के अधिभोग के लिये अपना स्वयं का युक्तियुक्त रूप से उपयुक्त अन्य निवास स्थान नहीं है।
धारा 12 (1) () के उक्त आधार को सामान्यतः निवास हेतु सद्भाविक आवश्यकता का आधार भी कहते है और इस आधार पर विचार करते समय धारा 12 (4) (5) एवं धारा 17 के प्रावधान भी ध्यान में रखना होते है।
धारा 12 (4) के अनुसार भूमि स्वामी ने परिसर अंतरण द्वारा अर्जित किया हो तो वह धारा 12 (1) () या (एफ) में उल्लेखित आधार पर किरायेदार के निष्कासन के लिये कोई वाद तब तक चलने योग्य नहीं होगा जब तक की अंतरण से अर्जन की तारीख से 1 वर्ष की अवधि व्यतीत हो गई हो। इस प्रकार जहां कोई भूमि स्वामी किसी परिसर को किसी भी प्रकार के अंतरण से प्राप्त करता है तो वह 1 वर्ष तक निष्कासन का वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता है और ऐसा प्रस्तुत वाद धारा 12 (1) () या (एफ) के आधारो ंपर हो तो उसे अपरिपक्व वाद माना जाता है और ऐसा वाद 1 वर्ष के बाद ही प्रचलन योग्य होता है।
धारा 12 (5) के अनुसार जहां किसी किरायेदार के निष्कासन के लिये कोई आदेश उप धारा 1 के खण्ड के आधार किया गया है वहां भू स्वामी परिसर का कब्जा आदेश की तारीख से 2 माह की अवधि व्यतीत होने के पूर्व पाने का अधिकारी नहीं होता है।
धारा 17 अधिनिमय के अनुसार यदि भूमि स्वामी ने धारा 12 (1) () या (एफ) के अधीन किसी आदेश के अनुसरण में किरायेदार से किसी स्थान का कब्जा प्राप्त किया है वहां भू-स्वामी विहित रीति में प्राप्त की गई भाड़ा नियंत्रण प्राधिकारी के अनुमति के बिना, उस संपूर्ण स्थान को या उसके किसी भाग को ऐसा कब्जा प्राप्त करने की तारीख से 2 वर्ष के भीतर, पुनः किराये पर नहीं देगा और ऐसी अनुमति देते समय भाड़ा नियंत्रण प्राधिकारी भू-स्वामी को यह निर्देश दे सकेंगे की निष्काशित किये गये किरायेदार को उस स्थान का कब्जा दिया जाये।
धारा 17 (2) के अनुसार जहां कोई भू-स्वामी किसी स्थान का कब्जा पुनः प्राप्त कर लेता और कब्जा प्राप्त करने के 2 माह के भीतर भू स्वामी द्वारा या उस व्यक्ति द्वारा जिसके फायदे के लिये स्थान निर्धारित है अधिभोग में नहीं लिया जाता है या अधिभोग में लिये जाने के बाद कब्जा प्राप्ति के 2 वर्ष के भीतर भाड़ा नियंत्रण प्राधिकारी की अनुमति के बिना उक्त किरायेदार के अलावा किसी अन्य को किराये पर दे दिया जाता है या किसी अन्य व्यक्ति को अंतरित कर दिया जाता है जो अंतरण भाड़ा नियंत्रण प्राधिकारी को सद्भावना पूर्ण प्रतीत होता हो तब किरायेदार द्वारा आवेदन देने पर भाड़ा नियंत्रण प्राधिकारी भूमि स्वामी को यह निर्देश दे सकते है कि किरायेदार उस स्थान का कब्जा दिया जावे या उचित प्रतिकर दिया जावे।
धारा 17 (3) के अनुसार यदि किरायेदार ने धारा 12 (6) के अनुसार यदि किरायेदार प्रतिकर प्राप्त कर लेता है तो वह दोबारा प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होता है।
धारा 12 (1) () के बारे में वैधानिक स्थिति
1. न्याय दृष्टांत फर्म पंजूमल दौलतराम विरूद्ध सखी गोपाल, .आई.आर. 1977 एस.सी. 2077 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ के न्याय दृष्टांत में यह प्रतिपादित किया गया है कि परिसर निवासी और गैर निवासी उद्देश्य से किराये पर दिया गया। भू-स्वामी ने सद्भावी आवश्यकता प्रमाणित की निष्कासन उचित माना गया।
2. न्याय दृष्टांत गोविंद विरूद्ध डाॅं. जीतसिंह, .आई.आर. 1988 एस.सी. 365 में यह प्रतिपादित किया गया है कि भू-स्वामी की आवश्यकता सद्भाविक होना चाहिये आवश्यकता को वस्तुनिष्ठ या ओब्जेक्टिव रूप से देखना चाहिये पक्षकारों की स्वीकृति /अस्वीकृति के आधार पर नहीं देखना चाहिये।
3. न्याय दृष्टांत अशोक कुमार विरूद्ध विजय कुमार, .आई.आर. 2002 एस.सी. 1310 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किरायेदार ने स्थायी निषेधाज्ञा का वाद पेश किया। मकान मालिक ने उसमें निवास की आवश्यकता के आधार पर प्रतिदावा पेश किया मकान मालिक धारा 23 जे में उल्लेखित किसी भी श्रेणी में नहीं आता है वाद व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार का है।
4. जहां संयुक्त किरायेदारी हो वहां किरायेदार पूरे परिसर की मांग आवासीय या गैर आवासीय किसी भी आवश्यकता के आधार पर कर सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत मछला बाई विरूद्ध ननक राम, 2006 (2) एम.पी.एल.जे. 484 अवलोकनीय है।
5. पति ने निष्कासन का वाद लगाया पत्नी के पास या संयुक्त परिवार के पास वैकल्पिक आवास का उपलब्ध होना पति के पास वैकल्पिक आवास का उपलब्ध होना नहीं माना जायेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत अजय कुमार विरूद्ध अशोक कुमार, 2006 (3) एम.पी.एच.टी. 292 अवलोकनीय है।
धारा 12 (1) (एफ) अधिनियम के बारे में
(एफ) के अनुसार अनिवासिक प्रयोजनों के लिये किराये पर दिये स्थान की भू-स्वामी को अपने स्वयं के लिये या अपने वयस्क पुत्रों में से किसी वयस्क पुत्र के लिये या अपनी अविवाहित पुत्रियों में से किसी अविवाहित पुत्री के लिये, यदि वह उसका स्वामी हो, या किसी ऐसे व्यक्ति के लिये जिसके लाभ के लिये वह स्थान धारित है कोई कारोबार चालू रखने या प्रारंभ करने के प्रयोजनो ंसे सद्भाविक आवश्यकता है और संबंधित कस्बे या शहर में भू-स्वामी या उपरोक्त व्यक्ति के अधिभोग में स्वयं का युक्तियुक्त रूप से उपयुक्त अन्य कोई अनिवासिक स्थान नहीं है।
इस आधार पर सामान्यतः गैर निवासी या व्यवसायिक आवश्यकता भी कहते है और भूमि स्वामी स्वयं के या वयस्क पुत्र या अविवाहित पुत्री या जिस व्यक्ति के लाभ के लिये स्थान धारित है उसके लिये, किसी कारोबार को प्रारंभ करने या चालू रखने के आधार पर निष्कासन का वाद ला सकता है।
धारा 12 (4) के प्रावधान जिनका की उपर उल्लेख किया है यहां भी आकृषित करते है और अंतरण से अर्जित स्थान के संबंध में अर्जन तारीख से 1 वर्ष के बाद ही इस आधार पर निष्कासन का वाद लाया जा सकता है।
धारा 12 (6) के अनुसार धारा 12 (1) (एफ) के आधार पर यदि निष्कासन दिया है तोः-
आदेश की तारीख से 2 माह की कालावधि व्यतीत होने के पूर्व भू-स्वामी आधिपत्य पाने का अधिकारी नहीं होता हैं।
यदि स्थान ग्वालियर, इंदौर, उज्जैन, रतलाम, भोपाल, जबलपुर नगरों में या राज्य सरकार द्वारा घोषित किसी अन्य शहर में स्थित हो तब मकान मालिक निम्नानुसार प्रतिकर अदा करे तभी आधिपत्य पाने का अधिकारी होता है:-
बी यदि वह स्थान जो किरायेदार द्वारा खाली किया जा रहा हो वाद प्रस्तुती दिनांक के ठीक पूर्व के 10 वर्षो की अवधि तक किरायेदार व्यापार के प्रयोजन के लिये या व्यापार के प्रयोजन के साथ अन्य प्रयोजन से उपयोग कर रहा हो वहां वार्षिक मानक किराये रकम से दुगुणा प्रतिकर भूमि स्वामी को देना होगा।
सी जहां 10 वर्ष की उक्त कालावधि के दौरान उस स्थान पर व्यापार करने वाले किरायेदार ने छोड़ दिया हो और बाद के किरायेदार ने अपने पूर्ववर्ति का व्यवसाय या तो अंतरण द्वारा या विरासत द्वारा अर्जित किया हो तब भी किरायेदार वार्षिक मानक किराया से दोगुना प्रतिकर पाने का अधिकारी होता है।
डी अन्य दशा में वार्षिक मानक किराये के रकम के बराबर का प्रतिकर मकान मालिक द्वारा किरायेदार को देय होता है।
धारा 17 के प्रावधान यहां भी आकृर्षित होते है जिनका की उपर उल्लेखित किया जा चुका है।
धारा 12 (1) (एफ) अधिनियम के बारे में वैधानिक स्थिति
1. न्याय दृष्टांत प्रताप राई विरूद्ध उत्तम चंद, .आई.आर. 2005 एस.सी. 1274 में वाद ग्रस्त परिसर अपने पुत्र के व्यवसाय शुरू करवाने की सद्भाविक आवश्यकता के आधार पर वाद प्रस्तुत किया गया कार्यवाही लंबित रहने के दौरान पुत्र अस्थायी नियोजन में विदेश चला गया यह पश्चात्वर्ती धटनाक्रम था किन्तु पुत्र के वापस लौटने का आशय था ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता की मकान मालिक की सद्भाविक आवश्यकता पूरी तरह समाप्त हो गई हो सद्भाविक आवश्यकता के समवर्ती निष्कर्ष जारी रहेंगे किरायेदार का निष्कासन उचित है।
2. न्याय दृष्टांत रमेश कुमार विरूद्ध किशोर, .आई.आर. 1992 एस.सी. 700 में यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्य नियम यह है कि किसी भी वाद में पक्षकारों के अधिकारों दायित्वों का विनिश्चय वाद शुरू होने की तारीख पर किया जाता है लेकिन इसका एक अपवाद यह है कि पश्चातवर्ती धटना तथ्य या विधि की ऐसी हो जो पक्षकारों के अनुतोष को प्रभावित करती हो तब न्यायालय ऐसी घटना का सावधानी से संज्ञान लेने से बाधित नहीं होते है।
3. न्याय दृष्टांत हसमत राई विरूद्ध राघुनाथ प्रसाद, .आई.आर. 1981 एस.सी. 1711 तीन न्यायूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी की आवश्यकता वाद प्रस्तुती दिनांक पर डिक्री दिनांक पर भी अस्तित्व में होना चाहिये वाद दिनांक के बाद कोई ऐसी पश्चात्वर्ती घटना होती है जो भूमि स्वामी की आवश्यकता तुष्ट कर देती है तब वाद विफल हो जायेगा पश्चातवर्ती घटना देखना होगी इस मामले में वादी ने व्यक्तिगत व्यापार शुरू करने के आधार पर निष्कासन चाहा कार्यवाही लंबित रहने के दौरान उसी भवन का एक भाग का रिक्त आधिपत्य वादी को मिल गया जो उसकी आवश्यकता के लिये पर्याप्त था उसकी आवश्यकता समाप्त होना माना गया निष्कासन उचित नहीं माना गया।
वादी ने अवासीय प्रयोजन का अभिवचन नहीं किया था अतः इस आधार पर निष्कासन नहीं दिया जा सकता।
4. न्याय दृष्टांत डी.एन. संघवी एण्ड संस विरूद्ध अम्बा लाल त्रिभुवन दास, .आई.आर. 1974 एस.सी. 1026 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 12 (1) (एफ) में उल्लेखित ’’हिज बिजनेस’’ शब्द को स्पष्ट किया और यह प्रतिपादित किया है कि इस शब्द का प्रयोग इस सीमा तक नहीं है कि भागीदारी फर्म जिसका वादी भी एक भागीदारी भी है उसकी आवश्यकता को इसमें शामिल माना जाये।
5. न्याय दृष्टांत बद्री लाल विरूद्ध श्रीमती सीमा, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 586 डीबी में भी ’’हिज बिजनेस’’ शब्द की विवेचना की गई है और यह प्रतिपादित किया गया है कि इस शब्द का नर्म अर्थ नहीं लगाया जा सकता और इस शब्द में स्पाउस शामिल नहीं हैं लेकिन बद्री लाल विरूद्ध श्रीमती सीमा, .आई.आर. 2011 एम.पी. 181, फुल बेंच में इस स्थिति को बदल दिया है अब हिज बिजनेस में परिवार के सदस्य जिन पर मकान मालिक निर्भर हो उन्हें भी शामिल किया है।
6. न्याय दृष्टांत श्रीमती चन्द्रकली बाई विरूद्ध जगदीश सिंह, .आई.आर. 1977 एस.सी. 2262 में यह प्रतिपादित किया गया है कि भू-स्वामी के पास किराये की दुकान है यह निष्कासन से इंकार का आधार नहीं हो सकता।
7. न्याय दृष्टांत दिलबाग राय पंजाबी विरूद्ध शरद चंद, .आई.आर. 1988 एस.सी. 1858 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 12 (1) (एफ) के अनुसार गैर अवासीय परिसर के निष्कासन के मामले में भूमि स्वामी को वाद ग्रस्त परिसर का स्वामी होना स्थापित करना होगा।
8. न्याय दृष्टांत सूरजमल विरूद्ध राघेश्याम, .आई.आर. 1988 एस.सी. 1345 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गैर आवासीय प्रयोजन के लिये आवश्यकता के आधार पर एक वाद खारिज हो जाने के बाद दूसरा वाद चलने योग्य होता है क्योंकि वाद तारीख की आवश्यकता देखना होती है एक बार वाद खारिज हो गया मात्र इस आधार पर यह नहीं कहां जा सकता की वादी को कभी आवश्यकता नहीं हो सकती।
सभी दस्तावेजों को विचार में लिये बिना दिया गया निष्कर्ष अपास्त किये जाने योग्य पाया गया।
9. न्याय दृष्टांत प्रेम नारायण विरूद्ध हकीम उद्दीन, .आई.आर. 1999 एस.सी. 2450 में यह प्रतिपादित किया गया वादी ने गैर आवासीय उद्देश्य के लिये परिसर किराये पर दिया उसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह यह अभिवचन करे की उसके पास आवासीय परिसर है जो गैर आवासीय उद्देश्य के लिये उपयुक्त नहीं है।
10. न्याय दृष्टांत राघवेन्द्र कुमार विरूद्ध फर्म प्रेम मशीनरी, .आई.आर. 2000 एस.सी. 534 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद ग्रस्त परिसर की सद्भावी आवश्यकता के मामले में परिसर वादी के लिये उपयुक्त है या नहीं भूमि स्वामी इसका सर्वोत्तम निर्णायक होता है उसे पूर्ण स्वतंत्रता होती है।
11. न्याय दृष्टांत दीना नाथ विरूद्ध पूरनमल, .आई.आर. 2001 एस.सी. 2655 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद प्रस्तुत करते समय भूमि स्वामी के पास एक खाली दुकान थी कार्यवाही लंबित रहने के दौरान एक अन्य दुकान भू स्वामी को प्राप्त हुई उक्त तथ्यों को ध्यान मंे रखे बिना निष्कर्ष दिया गया जो अपास्त किया गया।
12. न्याय दृष्टांत शकुंतला विरूद्ध नारायण दास, .आई.आर. 2004 एस.सी. 3484 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गैर आवासीय परिसर की आवश्यकता के आधार पर वाद में भूमि स्वामी की कार्यवाही के दौरान मृत्यु हो गई उसके वेध प्रतिनिधि कार्यवाही जारी रख सकते हंै वाद दिनांक की आवश्यकता देखना होती है मृत्यु का तथ्य तात्विक नहीं है।
13. वादी ने उसके पुत्र के लिये जूतों के व्यापार के लिये वाद ग्रस्त परिसर की सद्भाविक आवश्यकता के आधार पर वाद पेश किया वाद इस आधार पर निरस्त किया गया कि वादी के पुत्र को इस व्यापार का अनुभव नहीं है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि यदि किसी व्यक्ति को किसी व्यापार का अनुभव हो तब भी वह उस व्यापार को शुरू कर सकता है अनुभव होने के आधार पर वादी का दावा निरस्त करना उचित नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत राम बाबू अग्रवाल विरूद्ध जयकिशन दास (2010) 1 एस.सी.सी. 164 अवलोकनीय है।
14. वाद प्रस्तुती दिनांक को जिस परिसर का वादी स्वामी नहीं था उस वैकल्पिक आवास के बारे में अभिवचन करना वादी के लिये जरूरी नहीं था वादी ने उसके दो पुत्रों की सद्भाविक आवश्यकता के आधार पर वाद पेश किया एक पुत्र का कथन करवाया दूसरा का कथन नहीं करवाया यह आवश्यक नहीं है प्रत्येक व्यक्ति का कथन करवाया जाये जिसकी आवश्यकता के आधार पर निष्कासन चाहा है इस संबंध में न्याय दृष्टांत हरविलास विरूद्ध मेसर्स शर्मा मोटर, आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 3189 अवलोकनीय है।
15. वादी के पास केवल अन्य परिसर उपलब्ध होना उसे गैर आवासीय परिसर के निष्कासन की मांग करने से अयोग्य नहीं बना देता है अन्य परिसर यदि वादी के व्यवसाय के लिये उपयुक्त नहीं है तो उस परिसर का कोई प्रभाव नहीं है इस संबंध में न्याय दृष्टांत नामामल विरूद्ध प्रकाश चंद, 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 313 अवलोकनीय है साथ ही न्याय दृष्टांत राज कुमार विरूद्ध श्रीमती ऊषा, 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 343 भी अवलोकनीय है जिसके अनुसार वादी यह अभिवचन और प्रमाण देना चाहिये कि उसे वाद ग्रस्त परिसर की सद्भावित आवश्यकता है और उसके पास वैकल्पिक परिसर उपयुक्त उपलब्ध नहीं है।
यदि वादी के पुत्र ने वाद लंबित रहने के दौरान कोई नौकरी ज्वाइन कर ली है तो मात्र इस आधार पर उसकी आवश्यकता समाप्त नहीं होती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत हिन्दुस्तान पेट्रोलियम विरूद्ध कमल व्ही. अग्रवाल, 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 404 अवलोकनीय है। साथ ही न्याय दृष्टांत प्रताप राई विरूद्ध उत्तम चंद, 2003 (1) एम.पी.जे.आर. एस.एन. 22 भी इसी बारे में है।
न्याय दृष्टांत पवन कुमार विरूद्ध हजारी लाल, 2003 (2) एम.पी.एच.टी. 118 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी ने उसके कथनों में सद्भाविक शब्दों का प्रयोग नहीं किया यह उसके आवश्यकता को खारिज करने आधार नहीं हो सकता है।
वादी ने गैर आवासीय प्रयोजन हेतु परिसर किराये पर दिया और निष्कासन चाहा यह विचार नहीं किया जा सकता की वादी के पास एक आवासीय परिसर है जिसे गैर आवासीय परिसर में बदला जा सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत सीताराम विरूद्ध विपिन चंद, 2003(2) एम.पी.एच.टी. 499 अवलोकनीय है।
स्वत्व का प्रश्न
13. निष्कासन के मामले में भूमि स्वामी और किरायेदार के संबंध देखने के उद्देश्य से स्वत्व का प्रश्न देखा जाता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत रमेश चन्द्र विरूद्ध कमल किशोर, 2011 (3) एम.पी.एच.टी. 124, बाबू लाल विरूद्ध देवी जानकी, 1985 एम.पी.डब्ल्यू.एन. एस.एन. 46 एवं श्रीमती सुशीला देवी विरूद्ध खलिल अहमद, 2011 (3) एम.पी.एच.टी. 387 अवलोकनीय है।
14. न्याय दृष्टांत सबीर मोहम्मद विरूद्ध मगन लाल, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 1243 में यह प्रतिपदित किया गया है कि भूस्वामी किरायेदार के संबंध में साबित होने के अभाव में हक के आधार पर बेदखली की डिक्री दी जा सकती है यह न्याय दृष्टांत भगवती प्रसाद विरूद्ध चन्द्रामूल, .आई.आर. 1966 एस.सी. 735 चार न्यायमूर्तिगण की पीठ पर आधारित है।
15. न्याय दृष्टांत श्रीमती सुलोचना विरूद्ध राजेन्द्र सिंह, .आई.आर. 2008 एस.सी. 2611 में भू-स्वामी विधवा ने कई आधारों पर निष्कासन का वाद पेश किया उसके ऐसे अभिवचन नहीं है कि वह किसी विशिष्ठ भू-स्वामी की हैसियत से वाद ला रही है जैसा की धारा 23 जे में उल्लेखित है ऐसे में वाद सिविल न्यायालय प्रचलन योग्य है विशेषतः जब वादी का स्वत्व भी विवादित हो।
16. किरायेदारी के परिसर का एक भाग किरायेदार के एक वेध प्रतिनिधि ने खरीद लिया ऐसे में धारा 111 डी संपत्ति अंतरण अधिनियम के तहत किरायेदारी समाप्त नहीं होगी क्योंकि सभी किरायेदारों ने संपत्ति नहीं खरीदी है और एक वेध प्रतिनिधि के संपत्ति का एक भाग खरीदा है ऐसे में किरायेदारी जारी रहेगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत हमिदा बेगम विरूद्ध श्रीमती चंपा बाई, आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 2378 डीबी अवलोकनीय है।
16. न्याय दृष्टांत राम पुकार सिंह विरूद्ध भीमसेन, 2006 (1) एम.पी.एल.जे. 381 में प्रतिपादित किया गया है कि धारा 12 (1) () एवं (एफ) के मामलों में स्वामित्व का प्रमाण किस स्तर का होना चाहिये
धारा 12 (1) (जी) अधिनियम के बारे में
(जी) वह स्थान मानव निवास के लिये असुरक्षित या अनुपयुक्त अर्थात अनसेफ या अनफिट हो गया है और मरम्मत करवाने के लिये सद्भावना पूर्वक आवश्यकता है मरम्मत उस स्थान को खाली कराये बिना नहीं करवाई जा सकती है।
इस आधार पर विचार करते समय धारा 18 के प्रावधान भी ध्यान में रखना होते है। धारा 18 मरम्मत तथा पुनिर्माण के लिये कब्जे के पुनः प्राप्ति एवं उसमें पुनः प्रवेश (1) धारा 12 की उपधारा (1) (जी) या (एच) में उल्लेखित आधारों पर कोई आदेश करते समय न्यायालय किरायेदार से यह निश्चित करेगा की वह उस स्थान या उसके भाग का जिससे की उसे निष्काषित किया जाना है उसके अधिभोग में रखे जाने का निर्वाचन करता है और यदि किरायेदार ऐसा निर्वाचन करता है तो न्यायालय निर्वाचन संबंधी तथ्य को आदेश में अभिलिखित करेगा और वह तारीख विनिर्दिष्ट करेगा जिस तारीख को या उसके पूर्व किरायेदार कब्जा परिदत्त कर देगा ताकि भूमि स्वामी मरम्मत या निर्माण या पुनिर्माण का कार्य प्रारंभ कर सके।
(2) यदि किरायेदार आदेश में विनिर्दिष्ट तारीख को या उसके पूर्व कब्जा दे देता है तब भू-स्वामी मरम्मत या निर्माण या पुननिर्माण का कार्य पूरा हो जाने पर किरायेदार को उस स्थान का या उसके किसी भाग का अभिभोग कार्य के पूरा हो जाने के 1 माह के भीतर दे देगा।
(3) यदि आदेश में विनिर्दिष्ट की गई तारीख को या उसके पूर्व किरायेदार द्वारा कब्जा दे देने के बाद भू-स्वामी मरम्मत या निर्माण या पुनिर्माण का कार्य विनिर्दिष्ट की गई तारीख के 1 माह के भीतर प्रारंभ नहीं करता है या युक्तियुक्त समय के भीतर कार्य पूरा नहीं करता है या कार्य पूरा कर लेने पर किरायेदार को उक्त अनुसार अभिभोग नहीं देता है तो न्यायालय किरायेदार द्वारा विहित समय के भीतर आवेदन करने पर भू-स्वामी को यह आदेश दे सकेंगे की किरायेदार को उस स्थान या उस भाग का अधिभोग दे या ऐसा प्रतिकर दे जो न्यायालय नियत करे।
धारा 12 (1) (एच) अधिनियम के बारे में
(एच) उस स्थान की भूमि स्वामी को सद्भावना आवश्यकता स्थान के निर्माण या पुनः निर्माण या उसमें कोई सारवान वृद्धि या परिवर्तन के प्रयोजन के लिये है जो कि उस स्थान को खाली करवाये बिना नहीं हो सकता है।
धारा 12 (7) के अनुसार इस आधार पर निष्कासन नहीं किया जायेगा जब तक कि न्यायालय को यह समाधान हो जाये कि प्रस्तावित पुर्ननिर्माण से उस प्रयोजन में जिसके लिये वह स्थान किराये पर दिया गया था आमूल परिवर्तन नहीं होगा या उक्त आमूल परिवर्तन लोक हित में है और ऐसे पुर्ननिर्माण के प्लान स्टीमेट उचित रूप से तैयार है और भूमि स्वामी के पास उस प्रयोजन के लिये आवश्यक फण्ड भी उपलब्ध है।
धारा 18 जिसका की उपर उल्लेख किया गया है उसके प्रावधान भी इस आधार के निष्कासन के समय ध्यान में रखने होते है।
वादी के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह इस बारे मंे अभिवचन करे की उसके पास प्लान स्टीमेट और फण्ड उपलब्ध है वादी साक्ष्य की स्टेज पर भी न्यायालय को इस बारे में संतुष्ट कर सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीनाथ सेठ विरूद्ध श्रीमती उमादेवी, 2004 (4) एम.पी.एच.टी. 412 अवलोकनीय है।
धारा 12 (1) (एच) अधिनियम के बारे में वैधानिक स्थिति
1. न्याय दृष्टांत सैयद जमील अब्बाश विरूद्ध मोहम्मद यमीन, .आई.आर. 2004 एस.सी. 3683 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद ग्रस्त परिसर के पुनःनिर्माण के आधार पर निष्कासन के मामले में न्यायालय ने वादी को परिसर के पुर्ननिर्माण किरायेदार के पुनः प्रवेश का प्रस्ताव पेश करने के लिये 1 वर्ष का समय दिया भू-स्वामी ने उक्त दायित्व में व्यतिक्रम किया। किरायेदार जिस दर से किराये देता था उस दर से प्रतिकर पाने का पात्र है 3000 रूपये प्रतिमाह की दर से प्रतिकर बिना किसी समर्थन कारी प्रमाण के उचित नहीं माना गया।
यह भी प्रतिपादित किया गया कि प्रतिकर 1 वर्ष की अवधि समाप्त होने से मकान मालिक द्वारा पुनः र्निमित मकान में किरायेदार को पुनः प्रवेश का प्रस्ताव करने तक दिलवाया जा सकता है।
2. न्याय दृष्टांत श्याम लाल विरूद्ध रतन लाल, .आई.आर. 1991 एस.सी. 353 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया है कि धारा 12 (1) (एच) के आधार पर निष्कासन के वाद में ऐसा निष्कर्ष जरूरी नहीं है कि परिसर जीर्णसीर्ण अवस्था में है इस न्याय दृष्टांत में यह भी बतलाया गया है कि इस आधार के निष्कासन में कौन से तथ्य देखना चाहिये।
3. न्याय दृष्टांत राघेश्याम विरूद्ध कल्याणमल, .आई.आर. 1985 एस.सी. 139 में वाद मुख्य रूप से वादी की वाद ग्रस्त परिसर की गैर अवासीय प्रयोजन के लिये आवश्यकता पर आधारित था जिसमें पुर्ननिर्माण का आधार भी था ऐसे में धारा 18 आकर्षित होना माना गया।
4. न्याय दृष्टांत श्री प्रताप राघवजी भगवान विराजमान मंदिर विरूद्ध श्रीमती कृष्णा, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 1063 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 12 (1) (एच) के तहत डिक्री में किरायेदार ने परिसर खाली कर दिया डिक्री धारी ने मकान निर्माण किया किरायेदार ने धारा 18 (3) का आवेदन पुनः प्रवेश के लिये दिया जो स्वीकार किया गया निष्पादन न्यायालय डिक्री के शर्तो के बाहर नहीं जा सकते लेकिन ऐसा पुनः प्रवेश डिक्री के शर्तो के अधीन माना गया।
5. जहां मकान मालिक ने धारा 12 (1) () तथा धारा 12 (1) (एच) दोनों आधारों पर निष्कासन चाहा है और उसने सद्भाविक आवश्यकता निवास बावत् प्रमाणित कर दी हो तब धारा 12 (7) एवं धारा 18 के लागू होने का प्रश्न नहीं रहेगा लेकिन जहां आवासीय आवश्यकता प्रमाणित नहीं हुई हो तब न्यायालय धारा 12 (1) (एच) के आधार के साथ-साथ धारा 12 (7) एवं धारा 18 पर विचार करते है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत तारा देवी गुप्ता विरूद्ध डाॅ. दीपक जैन, 2009 (1) एम.पी.जे.आर. 209 अवलोकनीय है।
धारा 12 (1) (आई) अधिनियम के बारे में
(आई) किरायेदार ने इस अधिनियम के प्रारंभ होने के पूर्व या पश्चात् कोई ऐसा स्थान बना लिया है उसका रिक्त आधिपत्य प्राप्त कर लिया है या स्थान उसे आबंटित कर दिया गया है जो उसके निवास के लिये उपयुक्त है।
वादी के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह इस बारे में अभिवचन करें कि प्रतिवादी ने जो स्थान बना लिया है या प्राप्त कर लिया है वह उसके लिये उपयुक्त है लेकिन इस बारे में प्रमाण देना आवश्यक है की उक्त स्थान प्रतिवादी के लिये उपयुक्त है इस संबंध में उक्त न्याय दृष्टांत जमुना देवी विरूद्ध सुशीला बाई, 2011 (2) एम.पी.एल.जे. 70 अवलोकनीय है।
प्रतिवादी का उपयुक्त आवास प्राप्त कर लेना पर्याप्त है यह विधि में आवश्यक नहीं है कि प्रतिवादी उसका स्वामी भी हो। देखे जगदीश विरूद्ध सावलदास 2011 (3) एम.पी.एच.टी. 294
12 (1) (जे) अधिनियम के बारे में
(जे) स्थान किरायेदार को निवास स्थान के रूप में उपयोग के लिये किराये पर इस कारण दिया गया था कि वह उस भूमि स्वामी की सेवा या नियोजन में था और वह किरायेदार इस अधिनियम के प्रारंभ होने के पूर्व या पश्चात् ऐसी सेवा या नियोजन में नहीं रह गया है।
धारा 12 (8) के अनुसार यदि किसी सक्षम प्राधिकारी के समक्ष यह विवाद लंबित हो कि क्या किरायेदार भू-स्वामी की सेवा या नियोजन में नहीं रह गया है तब इस आधार पर निष्कासन नहीं किया जायेगा।
धारा 12 (1) (के) अधिनियम के बारे में
(के) किरायेदार ने इस अधिनियम के प्रारंभ होने के पूर्व या पश्चात उस स्थान को सारवान नुकसान पहुंचाया है या पहुंचाने दिया है।
धारा 12 (9) के अनुसार यदि किरायेदार न्यायालय द्वारा विनिर्दिष्ट समय के भीतर नुकसान की मरम्मत न्यायालय के समाधान योग्य करा देता है या न्यायालय द्वारा निर्देशित रकम भू-स्वामी को प्रतिकर के रूप में दे देता है तब इस आधार पर निष्कासन नहीं किया जायेगा।
धारा 12 (1) (एल) अधिनियम के बारे में
(एल) किरायेदार ने उस स्थान को छोड़ने की लिखित सूचना दे दी है, उस सूचना के फलस्वरूप भूमि स्वामी को उस स्थान को बेचने की ऐसी संविदा कर ली है या ऐसी अन्य कार्यवाही कर ली है कि यदि भू-स्वामी को उस स्थान का कब्जा नहीं दिया जाता है तो उसके हितों को गंभीर हानि पहंुचेगी।
धारा 12 (1) (एम) अधिनियम के बारे में
(एम) किरायेदार ने भू-स्वामी की लिखित अनुमति के बिना ऐसा निर्माण किया है या किया जाने दिया है जिसके कारण उस स्थान में ऐसा तात्विक परिवर्तन हो गया है जो भूमि स्वामी के हितों के लिये अपाय कर या डेटरमेन्ट है या जिसके कारण उस स्थान के मूल्य में सारभूत कमी होना संभाव्य है।
धारा 12 (10) के अनुसार यदि किरायेदार न्यायालय द्वारा बतलाये समय में स्थान को मूलदशा में प्रत्यावर्तित कर देता है या न्यायालय द्वारा निर्धारित प्रतिकर भू-स्वामी को अदा कर देता है तब इस आधार पर निष्कासन नहीं किया जायेगा।
न्याय दृष्टांत मनीषा ललवानी विरूद्ध डाॅ. डी.बी. पाॅल, 2007 (2) एम.पी.एल.जे. 52 इस संबंध में अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि अस्थायी प्रकार का निर्माण यह नहीं माना जायेगा की परिसर में तात्विक परिवर्तन किया गया है।
न्याय दृष्टांत भवरी बाई विरूद्ध केशर बाई, 2005 (1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 96 में यह प्रतिपादित किया गया है कि इस आधार पर अज्ञाप्ति देते समय धारा 12 (10) के प्रावधानों को ध्यान में रखना चाहिये और किरायेदार को समय दिया जाना चाहिये।
धारा 12 (1) (एन) अधिनियम के बारे में
(एन) यदि स्थान खुली भूमि है वहां भूमि स्वामी को मकान बनाने के लिये उसकी आवश्यकता है।
धारा 12 (1) () अधिनियम के बारे में
() किरायेदार ने भू-स्वामी के लिखित अनुमति के बिना उस स्थान के ऐसे भाग या भागों पर भी कब्जा कर लिया है जो कि उसके किराये पर दिये गये स्थान में शामिल नहीं है और भू-स्वामी द्वारा लिखित सूचना देने पर भी खाली नहीं किया है।
धारा 12 (11) के अनुसार यदि किरायेदार न्यायालय द्वारा नियत समय में उस स्थान या स्थानों को खाली कर देता है जो उसे किराये पर नहीं दिये गये थे और न्यायालय द्वारा निर्धारित प्रतिकर की राशि भू-स्वामी को दे देता है तो इस आधार पर निष्कासन नहीं होगा।
धारा 12 (1) (पी) अधिनियम के बारे में
(पी) किरायेदार, तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन उस भवन का अनैतिक या अवैध प्रयोजनों के लिये उपयोग करने या उपयोग किये जाने की अनुज्ञा देने के अपराध का सिद्धदोष ठहराया जा चुका है।
समझौते के बारे में
न्याय दृष्टांत रोशन लाल विरूद्ध मदन लाल .आई.आर. 1975 एस.सी. 2130 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ के न्याय दृष्टांत में यह प्रतिपादित किया गया है कि 0प्र0 स्थान नियंत्रण के मामले में समझौता पेश होने पर न्यायालय का यह कत्र्तव्य है कि वह यह देखे की धारा 12 (1) का कोई आधार बतलाया है या नहीं किरायेदार को अधिनियम में जो संरक्षण दिया है समझौते में उसका उल्लघंन तो नहीं हो रहा है यदि वैधानिक अनुबंध हो तभी समझौता अभिलिखित करना चाहिये।
न्याय दृष्टांत कमल कुमार जैन विरूद्ध बाबीलता जैन, 2007 (1) एम.पी.एल.जे. 532 में यह प्रतिपादित किया गया है कि लोक अदालत में निष्कासन के मामले में समझौता हो वाद इस शर्त पर डिक्री किया गया कि मकान मालिक किरायेदार को 188000 रूपये देगा ऐसा समझौता धारा 6 के विरूद्ध और लोक निति के विरूद्ध माना गया और पक्षकारों पर ऐसा समझौता बंधनकारी होना प्रतिपादित किया गया।
उप किरायेदार के बारे में
धारा 12 (2) के तहत धारा 12 (1) के अधीन किसी कार्यवाही में किरायेदार के निष्कासन के लिये कोई आदेश धारा 15 में निर्दिष्ट किये गये किसी उप किरायेदार पर, जिसने की अपनी उप किरायेदारी की सचूना भू-स्वामी को उस धारा के उपबंधों के अधीन दे दी हो, तब तक आबद्व कर नहीं होगा जब तक की उस उप किरायेदार को उस कार्यवाही का पक्षकार बनाया जाये और बेदखली का आदेश उस पर आबद्व कर बनाया जाये।
इस तरह धारा 15 में उल्लेखित प्रकार से यदि उप किरायेदारी गठित है तब ऐसे उप किरायेदार को पक्षकार बनाना आवश्यक है और उस पर निष्कासन का आदेश आबद्व कर बनाना भी आवश्यक है।
विविध तथ्य
1. यदि मकान मालिक ने उसके सूचना पत्र में निष्कासन के एक आधार को लिखा हो तो मात्र इस आधार पर उसका वाद खारिज नहीं किया जा सकता। वादी और उसके पुत्र ने यह कथन किये की उसके पास कोई वैकल्पिक आवास नहीं है प्रतिवादी यह प्रमाणित करने में असफल रहा कि वादी के पास वैकल्पिक आवास है जो कोई किसी तथ्य को सकारात्मक रूप से बताता है उस पर उस तथ्य का प्रमाण भार होता है विचारण न्यायालय ने वादी पर प्रमाण भार डाल कर त्रुटि की है इस संबंध में न्याय दृष्टांत मोहम्मद स्माईल विरूद्ध सिकंदर आजाद, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 992 अवलोकनीय है।
2. किरायेदार को वाद ग्रस्त परिसर क्रय करने का अग्र-क्रयाधिकार नहीं होता है यदि कोई व्यक्ति किसी परिसर में किरायेदार की हैसियत से प्रवेश करता है तो वह हमेशा किरायेदार रहता है जब तक की पक्षकारों के मध्य कोई अभिव्यक्त संविदा उनके आचरण के आधार पर हो गई हो। इस संबंध में न्याय दृष्टांत मूलचंद रजक विरूद्ध एस.पी. कपूर, आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 2582 अवलोकनीय है।
3. गैर आवासीय परिसर के निष्कासन के मामले में वादी का पक्ष यह था कि वाद ग्रस्त दुकान प्रतिवादी ने उसके पिता से किराये पर ली है और दुकान बाद में हुये विभाजन में उसे मिली है इसलिये वह दुकान का स्वामी और भू-स्वामी हो गया है साक्ष्य के दौरान वादी ने विभाजन की अज्ञाप्ति की प्रमाणित प्रतिलिपि प्रस्तुत की प्रतिवादी ने उसकी ग्राहयता पर आपत्ति की कि मुद्रांक और पंजीकरण का अभाव में दसतावेज ग्राह्यय नहीं है विचारण न्यायालय ने आपत्ति का निराकरण नहीं किया और वाद आज्ञाप्त कर दिया इसे उचित नहीं माना गया। इस संबंध में न्याय दृष्टांत महेश कुमार गोयल विरूद्ध विरेन्द्र कुमार दोषी, 2010 (1) एम.पी.एल.जे. 135 अवलोकनीय है।
इस न्याय दृष्टांत में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्याय दृष्टांत जवेर चंद विरूद्ध पुखराज सुराना, .आई.आर. 1961 एस.सी. 1655 का उल्लेख किया गया है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि किसी दस्तावेज की ग्राह्यता के बारे में इस आधार पर आपत्ति ली जाये की वह स्टाॅम्प पर नहीं है या पर्याप्त स्टाम्प पर नहीं है तब जैसे ही दस्तावेज साक्ष्य में टेण्डर किया जाता है उसी समय उस आपत्ति का निराकरण किया जाना चाहिये।
इसी न्याय दृष्टांत में एक अन्य न्याय दृष्टांत शेख सत्तार विरूद्ध गण्डाप्पा अम्बा दास, बुखते (1996) 6 एस.सी.सी. 1973 का भी उल्लेख आया है जिसमें यह कहां गया है कि किरायेदार को यह अधिकार है कि वह यह अभिवाक ले सके की विभाजन जो वादी मकान मालिक द्वारा बतलाया गया है वह एक सेम ट्रांजेक्शन है और केवल निष्कासन पाने के लिये किया गया है ऐसे में वादी के लिये यह आवश्यक होगा की वह विभाजन विधिवत प्रमाणित करे।
4. वादी ने निष्कासन के दो नये आधार जोड़ने का संशोधन आवेदन दिया प्रतिवादी ने आपत्ति ली की वाद दिनांक को ये आधार उपलब्ध नहीं थे विचारण न्यायालय को ऐसा संशोधन स्वीकार करने का अधिकार है प्रतिवादी के आपत्ति का परीक्षण और निराकरण करना भी विचारण न्यायालय का कत्र्तव्य है संशोधन स्वीकार किया गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत जोगेन्द्र सिंह विरूद्ध विरेन्द्र, 2008 (1) एम.पी.एल.जे. 584 अवलोकनीय है। संशोधन के संबंध में न्याय दृष्टांत सुधीर झा विरूद्ध श्रीमती कृष्णा, 2008 (1) एम.पी.एल.जे. 396 भी अवलोकनीय है।
5. किरायेदार ने वाद ग्रस्त मकान 11 माह के लिये किराये पर लिया किराया चिट्टी निष्पादित की गई समय बीत जाने के बाद में किरायेदार उसी परिसर में उन्हीं शर्तो पर किराये से रहा नई किराये चिट्टी निष्पादित नहीं की गई यह प्रतिपादित किया गया कि संविदात्मक किरायेदारी के समाप्त हो जाने के बाद भी किरायेदार वैधानिक किरायेदार रहेगा इस न्याय दृष्टांत मंे यह भी प्रतिपादित किया गया की किरायेदार वाद अपील या अन्य कार्यवाही में धारा 12 के अनुसार निष्कासन के मामले में अवशेष किराया जमा करवाने के लिये और आगे का किराया जमा करवाने के लिये बाध्य है अन्यथा उसका बचाव समाप्त किया जा सकता है। रूकमणी बाई विरूद्ध रामदयाल, 2008 (2) एम.पी.एल.जे. 457 अवलोकनीय है।
6. न्याय दृष्टांत करण लाल विरूद्ध सरदार हाउस जबलपुर, 2008 (2) एम.पी.एच.टी. 168 में यह प्रतिपादित किया गया है कि निष्कासन के मामले में स्वामित्व को स्वत्व के मामलों की तरह प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती है।
7. निष्कासन की अज्ञाप्ति मकान मालिक के पक्ष में दी गई मकान मालिक की मृत्यु हो जाने के बाद विल के अधीन संपत्ति प्राप्त करने वाले उस डिक्री का निष्पादन करवा सकते है यदि संपत्ति .प्र. में स्थित है तब प्रोबेट लेने की आवश्यकता नहीं है इस संबंध में न्याय दृष्टांत गोरी भाउ विरूद्ध गोपाल दास, 2008 (2) एम.पी.एल.जे. 333 अवलोकनीय है।
8. वादी ने फर्म को परिसर किराये पर दिया था फर्म या उसके भागीदारों को पक्षकार नहीं बनाया ऐसे में वादी के पक्ष में डिक्री नहीं दी जा सकती क्योंकि किरायेदारी भागीदारी फर्म के पक्ष में थी और उसके सभी भागीदारों को पक्षकार नहीं बनाया था वाद चलने योग्य नहीं पाया गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत बाबूलाल विरूद्ध राम प्रकाश, आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2646 अवलोकनीय है।
9. वादी ने विभिन्न आधारों पर निष्कासन का वाद पेश किया जिसमें धारा 12 (1) () का भी आधार था जिसके लिये अतिरिक्त न्याय शुल्क नहीं दिया गया था और अतिरिक्त न्याय शुल्क देना धारा 7 (11) न्याय शुल्क अधिनियम के तहत आवश्यक नहीं माना गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत पंडरी नाथ विरूद्ध रूकमणी बाई, 2006 (1) एमपीएलजे. 338 अवलोकनीय है।
9. किराया रसीद, विक्रय पत्र विक्रय करार तीन दस्तावेज अभिलेख पर थे अपील न्यायालय ने उनका मूल्यांकन कर निष्कर्ष दिया की मकान मालिक किरायेदार से संबंध स्थापित नहीं होता यह लोन या ऋण का व्यवहार है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत गुलाब चंद विरूद्ध बाबूलाल, 1998 (1) जे.एल.जे. 1 (एस.सी.) एवं मिश्रिलाल विरूद्ध सुखराम, .आई.आर. 2011 एम.पी. 143 अवलोकनीय हैं।
10. परिसीमा अधिनियम, 1963 अनुच्छेद 52 के तहत बकाया किराया वसूली का वाद जब बकाया देय या कनम होता हैं तब से तीन वर्ष के भीतर पेश किया जा सकता हैं।
11. परिसीमा अधिनियम, 1963 अनुच्छेद 67 के अनुसार किरायेदारी समाप्त होने से 12 वर्ष के भीतर निष्कासन का वाद पेश किया जा सकता हैं।
12. 7 ;गपद्ध न्यायालय फीस अधिनियम, 1870 के तहत इन वादों में वाद प्रस्तुती के ठीक पूर्व के वर्ष के वार्षिक किराये के आधार पर वाद का मूल्यांकन कर न्याय शुल्क दी जाती हैं।




0प्र0 स्थान नियंत्रण अधिनियम, 1961 के वाद प्रश्न

इन मामलों में मुख्य रूप से वाद की प्रकृति को देखते हुये निम्न लिखित वाद प्रश्न विरचित किये जाते है जो एक आदर्श वाद प्रश्न के रूप में प्रत्येक मामले में बनाये जा सकते है संबंधित निष्कासन के आधारों को ध्यान में रखते हुये वाद प्रश्न बनाना चाहिये कुछ आदर्श वाद प्रश्न निम्न प्रकार से हैः-
धारा 12 (1) () अधिनियम के वाद प्रश्न

1. क्या प्रतिवादी वादी का वाद ग्रस्त परिसर में ................ रूपये प्रतिमाह की दर से मासिक किरायेदार है ?
2. क्या प्रतिवादी ने मांग सूचना पत्र की तामील के दो माह के भीतर वैध रूप से वसूली योग्य अवशेष किराया वादी को अदा या निविदा नहीं किया है ?
3. क्या प्रतिवादी ने वाद पत्र के सूचना पत्र की तामील के एक माह के भीतर वैध रूप से वसूली योग्य अवशेष किराया वादी को अदा या न्यायालय में जमा नहीं किया है ?
या
क्या प्रतिवादी ने धारा 13 (1) .प्र. स्थान नियंत्रण अधिनियम, 1961 के प्रावधानों का पालन नहीं किया हैं ?
धारा 12 (1) (बी) अधिनियम के वाद प्रश्न
4. क्या प्रतिवादी ने वाद ग्रस्त परिसर या उसके एक भाग को उप किराये पर दे दिया है या अन्यथा उसका आधिपत्य छोड़ दिया है ?
धारा 12 (1) (सी) अधिनियम के वाद प्रश्न
5. क्या प्रतिवादी ने या उसके साथ निवास करने वाले किसी व्यक्ति ने न्यूसेन्स पैदा की है ?
6. क्या प्रतिवादी ने वादी के वाद ग्रस्त परिसर के स्वत्वों से इंकार किया है ?
धारा 12 (1) (डी) अधिनियम के वाद प्रश्न
7. क्या प्रतिवादी ने युक्तियुक्त कारण के बिना वाद ग्रस्त परिसर का लगातार 6 माह से किरायेदारी के प्रयोजन से उपयोग नहीं किया है ?
धारा 12 (1) () अधिनियम के वाद प्रश्न
8. क्या वादी को वाद ग्रस्त परिसर की अपने स्वयं के या अपने कुटुम्ब के सदस्य एक्स के निवास के लिए सद्भावना पूर्वक आवश्यकता है ?
9. क्या कथित शहर या कस्बे में वादी के पास उक्त प्रयोजन के लिए युक्तियुक्त रूप से उपयुक्त अन्य रिक्त स्थल नहीं है ?
धारा 12 (1) (एफ) अधिनियम के वाद प्रश्न
10. क्या वादी को वाद ग्रस्त परिसर की अपने स्वयं के या अपने वयस्क पुत्र एक्स के या अविवाहित पुत्री वाय के कारोबार को चालू रखने या प्रारंभ करने के लिए सद्भावना पूर्वक आवश्यकता है ?
11. क्या कथित शहर या कस्बे में वादी के पास उक्त प्रयोजन के लिए युक्तियुक्त रूप से उपयुक्त अन्य रिक्त स्थल नहीं है ?
धारा 12 (1) (जी) अधिनियम के वाद प्रश्न
12. क्या वाद ग्रस्त परिसर मानव निवास के लिए असुरक्षित या अनुपयुक्त हो गया है और उसे रिक्त कराये बिना उसकी मरम्मत नहीं हो सकती है ?
13. क्या वादी को वाद ग्रस्त परिसर की उक्त मरम्मत के लिए सद्भावना पूर्वक आवश्यकता है ?
धारा 12 (1) (एच) अधिनियम के वाद प्रश्न
14. क्या वादी को वाद ग्रस्त परिसर की उसके निर्माण या पुर्ननिर्माण के लिए सद्भावना पूर्वक आवश्यकता है ?
15. क्या उक्त निर्माण या पुर्ननिर्माण वाद ग्रस्त परिसर के रिक्त करवाये बिना नहीं हो सकता है ?
16. क्या वादी के पास ऐसी मरम्मत और पुर्ननिर्माण के प्लान और स्टीमेट तैयार है और उसके पास मरम्मत या निर्माण के लिए निधि भी है ?
17. क्या उक्त मरम्मत या निर्माण से वाद ग्रस्त परिसर में आमूल परिवर्तन नहीं होगा या आमून परिवर्तन लोक हित में है ?
धारा 12 (1) (आई) अधिनियम के वाद प्रश्न
18. क्या प्रतिवादी ने उसके निवास के लिए उपयुक्त आवास बना लिया है और उसका कब्जा प्राप्त कर लिया है ?
19. क्या प्रतिवादी को उसके निवास के लिए उपयुक्त आवास आबंटित कर दिया गया है?
धारा 12 (1) (जे) अधिनियम के वाद प्रश्न
20. क्या प्रतिवादी को वाद ग्रस्त परिसर वादी के सेवा या नियोजन में रहने के कारण निवास स्थान के रूप में उपयोग के लिए किराये पर दिया था ?
21. क्या प्रतिवादी वादी के सेवा या नियोजन में अब नहीं रहा है ?
धारा 12 (1) (के) अधिनियम के वाद प्रश्न
22. क्या प्रतिवादी ने वाद ग्रस्त परिसर में सारवान नुकसान किया है या सारवान नुकसान होने दिया है ?
धारा 12 (1) (एल) अधिनियम के वाद प्रश्न
23. क्या प्रतिवादी ने वादी को वाद ग्रस्त परिसर छोड़ने की लिखित सूचना दी थी ?
24. क्या वादी ने उक्त सूचना प्राप्त होने के बाद वाद ग्रस्त परिसर को विक्रय करने की संविदा या वाद ग्रस्त संविदा कर ली है ?
25. क्या वादी को वाद ग्रस्त परिसर का आधिपत्य नहीं दिया गया तो उसके हितों को गंभीर हानि पहुंचेगी ?

धारा 12 (1) (एम) अधिनियम के वाद प्रश्न
26. क्या प्रतिवादी ने वादी की लिखित अनुमति के बिना वाद ग्रस्त परिसर में निर्माण किया है या किया जाने दिया है जिसके कारण वाद ग्रस्त परिसर में तात्विक परिवर्तन हो गया है जो वादी के हितों के प्रतिकूल है या जिसके कारण वाद ग्रस्त परिसर के मूल्य में तात्विक कमी होना संभव है ?
धारा 12 (1) (एन) अधिनियम के वाद प्रश्न
27. क्या वाद ग्रस्त खुली भूमि की वादी को मकान बनाने के लिए आवश्यकता है ?
धारा 12 (1) () अधिनियम के वाद प्रश्न
28. क्या वादी की लिखित अनुमति के बिना प्रतिवादी ने किराये पर दिये गये वाद ग्रस्त परिसर के अतिरिक्त अन्य भागों पर आधिपत्य कर लिया है ?
29. क्या प्रतिवादी ने वादी के लिखित सूचना के बाद भी उक्त अन्य भागों को रिक्त नहीं किया है ?
धारा 12 (1) (पी) अधिनियम के वाद प्रश्न
30. क्या प्रतिवादी ने वाद ग्रस्त परिसर का अनैतिक या अवैध उद्देश्य के लिए उपयोग किया है या उपयोग करने की अनुमति दी है और इसके लिए उसे दोषसिद्ध ठहराया जा चुका है ?

(पी.के. व्यास)
विशेष कत्र्तव्यस्थ अधिकारी
न्यायिक अधि. प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान
उच्च न्यायालय जबलपुर .प्र.





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