म0प्र0
स्थान
नियंत्रण
अधिनियम, 1961
प्रायः
विचारण
न्यायालय
में निष्कासन
और अवशेष
किराया वसूली
संबंधी वाद
प्रस्तुत
होते है
यहां हम
म0प्र0
स्थान
नियंत्रण
अधिनियम, 1961 के
इसी संबंध
में कुछ
महत्वपूर्ण
प्रावधानों
और उन
पर नवीनतम
वैधानिक
स्थिति के
बारे में
विचार करेंगे।
इस अधिनियम
में मुख्य
रूप से
धारा 12,
13, 17, 18 के
प्रावधान
समझ लेना
अत्यंत आवश्यक
है क्योंकि
दिन-प्रतिदिन
के न्यायिक
कार्य में
इन प्रावधानों
और इनसे
संबंधित
स्थापित
वैधानिक
स्थिति के
बारे में
जानकारी
आवश्यक होती
है।
धारा
12 अभिधारियों
या किरायेदारों
के निष्कासन
पर प्रतिबंध
(1) किसी
अन्य विधि
या संविदा
में अंतर्विष्ट
किसी प्रतिकूल
बात के
होते हुये
भी, किसी
किरायेदार
के विरूद्ध,
किसी
स्थान से
उसकी बेदखली
या निष्कासन
के लिये
सिविल न्यायालय
में कोई
वाद निम्नलिखित
आधारों में
से किसी
एक या
एक से
अधिक आधारों
पर ही
फाईल किया
जायेगा अन्यथा
नहीं अर्थात:-
(ए)
किरायेदार
ने उससे
वेध रूप
से वसूली
योग्य किराये
के सम्पूर्ण
बकाया का
उस तारीख
के, जिसको
की किराये
के बकाया
के लिये
मांग की
सूचना भू-स्वामी
द्वारा उस
पर विहित
रीति से
तामील की
गई हो,
दो
माह के
भीतर न
तो संदाय
किया है
न ही
निविदा ही
किया है।
अर्थात
मांग सूचना
पत्र कि
तामील के
दो माह
के भीतर
वेध वसूली
योग्य अवशेष
किराया यदि
किरायेदार
न तो
अदा करता
है और
न ही
निविदा करता
है तब
अवशेष किराये
के आधार
पर भू-स्वामी
निष्कासन
का वाद
प्रस्तुत
कर सकता
है।
इस
आधार के
साथ हमें
निम्न प्रावधानों
को भी
ध्यान में
रखना होगा:-
धारा
12 (3) यदि
किरायेदार
धारा 13
द्वारा
अपेक्षित
किये गये
अनुसार अवशेष
किराया संदाय
कर देता
है या
जमा करा
देता है
तब इस
आधार पर
अर्थात अवशेष
किराये के
आधार पर
निष्कासन
का आदेश
नहीं दिया
जायेगा।
परंतु
कोई भी
किरायेदार
इस उप
धारा के
अधीन लाभ
पाने का
अधिकारी नहीं
होगा यदि
वह किसी
परिसर के
संबंध में
ऐसा लाभ
एक बार
प्राप्त कर
लेने के
बाद उस
परिसर के
किराये का
संदाय करने
में क्रमवर्ती
3 माह
तक पुनः
व्यतिक्रम
या चूक
करता है।
धारा
13 किरायेदार
को निष्कासन
के विरूद्ध
कब लाभ
मिल सकता
है
धारा
13 (1) के
अनुसार
भू-स्वामी
द्वारा धारा
12 में
निर्दिष्ट
आधारों में
से किसी
आधार पर
कोई वाद
या कोई
अन्य कार्यवाही
संस्थित की
जाने पर
या किरायेदार
द्वारा उसके
निष्कासन
के लिये
किसी डिक्री
या आदेश
के विरूद्ध
किसी अपील
या किसी
अन्य कार्यवाही
में किरायेदार
संमन या
अपील या
अन्य कार्यवाही
की सूचना
के तामील
के एक
माह के
भीतर या
किरायेदार
द्वारा अपील
या अन्य
कार्यवाही
संस्थित की
जाने के
एक माह
के भीतर
या ऐसे
अतिरिक्त
समय के
भीतर जो
न्यायालय
द्वारा उसके
आवेदन किये
जाने पर
दिया जावे
किराये का
उस दर
से, जिस
दर से
कि उसका
संदाय किया
जाता था
संगणित रकम
का न्यायालय
में जमा
या भू-स्वामी
को उसका
संदाय उस
कालावधि के
लिये करेगा
जिसके लिये
कि किरायेदार
ने व्यतीक्रम
किया हो
और आगे
भी प्रत्येक
माह की
15 तारीख
तक किराया
जमा करता
रहेगा।
धारा
12 (2) के
अनुसार यदि
अवशेष किराये
के बारे
में कोई
विवाद हो
जो किरायेदार
द्वारा देय
है तो
न्यायालय
भू-स्वामी
या किरायेदार
द्वारा उस
संबंध में
अभिवाक किये
जाने पर
युक्तियुक्त
अंतरिम
(प्रोविजनल)
किराया
नियत करेगा
जो उप
धारा 1
के
अनुसार
किरायेदार
द्वारा जमा
या अदा
किया जायेगा
लेकिन ऐसा
अभिवाक वाद
या अन्य
कार्यवाही
में सर्वप्रथम
अवसर पर
किया जायेगा
और बाद
में किये
गये अभिवाक
को न्यायालय
सकारण आदेश
देकर ही
ग्रहण करेंगे।
धारा
13 (3) के
अनुसार यदि
इस संबंध
में कोई
विवाद हो
कि किराया
किस व्यक्ति
को या
किन व्यक्तियों
को दिया
जाना है
तब न्यायालय
किरायेदार
को यह
निर्देश दे
सकते है
की बकाया
किराया
न्यायालय
में जमा
कर दे
और न्यायालय
के आदेश
के बिना
या विवाद
के निराकरण
के पूर्व
ऐसा किराया
निकालने का
अधिकार नहीं
होगा।
धारा
13 (4) के
अनुसार यदि
किरायेदार
द्वारा उठाया
गया विवाद
न्यायालय
के राय
में असत्य
या तुच्छ
प्रकृति का
पाया जाता
है तो
न्यायालय
किरायेदार
की प्रतिरक्षा
समाप्त कर
सकते है
और वाद
में आगे
सुनवाई कर
सकते है।
धारा
13 (5) के
अनुसार यदि
किरायेदार
किराया उप
धारा 1
या
उप धारा
2 के
अनुसार जमा
या अदा
कर देता
है तो
उसके विरूद्ध
अवशेष किराये
के आधार
पर निष्कासन
नहीं किया
जायेगा।
धारा
13 (6) के
अनुसार यदि
किरायेदार
किराया उक्त
अनुसार अदा
या जमा
नहीं करता
है तो
उसकी प्रतिरक्षा
न्यायालय
काट सकेगा
और वाद
या अपील
में आगे
कार्यवाही
की जायेगी।
इस
तरह धारा
13 में
बतलाई गई
प्रक्रिया
के अनुसार
अवशेष किराया
अदा या
जमा कर
देता है
तो धारा
12 (1) (ए)
के
आधार पर
उसके विरूद्ध
निष्कासन
नहीं किया
जाता है।
धारा
12 (1) (ए)
अधिनियम
के बावत्
वैधानिक
स्थिति
1. न्याय
दृष्टांत
चिमन लाल
विरूद्ध
मिश्री लाल,
ए.आई.आर.
1985 एस.सी.
136 तीन
न्यायमूर्तिगण
की पीठ
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
बकाया किराये
की वसूली
के आधार
पर निष्कासन
का वाद,
वाद
ग्रस्त पूरे
परिसर के
बारे में
मांग सूचना
पत्र न
देकर कुछ
भाग के
बारे में
मांग सूचना
पत्र दिया
गया ऐसा
वाद चलने
योग्य नहीं
है। इस
आधार पर
निष्कासन
के वाद
में वाद
ग्रस्त परिसर
के बारे
में, अवशेष
किराये के
बारे में
मांग सूचना
पत्र दिया
जाना एक
अनिवार्य
तत्व है
तभी वाद
चलने योग्य
होता है।
न्याय
दृष्टांत
जमुना देवी
विरूद्ध
सुशीला बाई,
2011 (2) एम.पी.एल.जे.
70 में
माननीय म.प्र.
उच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि जहां
किरायेदार
को बकाया
किराया के
संबंध में
कोई सूचना
पत्र नहीं
दिया गया
वहां न्यायालय
धारा 12
(1) (ए)
के
तहत् कोई
अज्ञाप्ति
नहीं दे
सकती है
यहां तक
की धारा
13 (1) की
पालना न
की गई
हो और
अन्य आधारों
पर भी
निष्कासन
चाहा गया
हो व
बचाव समाप्त
किया गया
हो तब
किरायेदार
को निष्कासन
के आधार
पर अपनी
ओर से
कोई साक्ष्य
प्रस्तुत
करने अवसर
नहीं दिया
जायेगा।
2. न्याय
दृष्टांत
बी.सी.
कामे
विरूद्ध नेमी
चंद, ए.आई.आर.
1970 एस.सी.
981 तीन
न्यायमूर्तिगण
की पीठ
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
किरायेदार
ने वाद
का सूचना
पत्र मिलने
के एक
माह के
भीतर अवशेष
किराया जमा
नहीं किया
बाद का
जमा न्यायालय
में आवेदन
देकर व
न्यायालय
समय बढ़ा
दे तभी
अवाइड किया
जा सकता
है अर्थात
यदि किरायेदार
वाद का
सूचना पत्र
मिलने के
एक माह
के भीतर
किराये जमा
नहीं करता
है तो
उसे न्यायालय
में आवेदन
देकर समय
मांगना चाहिये
यदि न्यायालय
समय दे
देता और
विलंब को
क्षमा कर
दे तभी
बाद में
किराये जमा
करने का
लाभ किरायेदार
को मिलता
है अन्यथा
नहीं।
3. न्याय
दृष्टांत
सैयद अख्तर
विरूद्ध
अब्दुल अहद,
ए.आई.आर.
2003 एस.सी.
2985 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
किरायेदार
ने किराये
जमा करने
में नवम्बर
1985 में
किराया न
देकर चूक
या व्यतिक्रम
किया फिर
मई व
जून 1988
में
पुनः व्यतिक्रम
किया और
वर्ष 1990
में
विलंब क्षमा
का आवेदन
दिया ऐसा
आवेदन स्वीकार
योग्य नहीं
पाया गया
इस न्याय
दृष्टांत
में एक
अन्य न्याय
दृष्टांत
नसरूद्दीन
विरूद्ध
सीताराम
(2003) 2 एस.सी.
577 का
उल्लेख किया
गया है
और उक्त
विधि प्रतिपादित
की गई
है।
4. न्याय
दृष्टांत
शोभागमल
विरूद्ध
गोपाल दास,
ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
1519 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
किरायेदार
ने किराये
जमा करने
में व्यतिक्रम
किया किरायेदार
को धारा
12 (3) का
लाभ दिया
गया। किरायेदार
अपील लंबित
रहने के
दौरान फिर
व्यतिक्रम
किया और
किराया जमा
नहीं करवाया
किराया जमा
करवाने में
व्यतिक्रम
के आधार
पर दूसरा
वाद यदि
लाया जाता
है तो
प्रचलन योग्य
है और
और अब
धारा 12
(3) और
धारा 13
(5) लागू
नहीं होगी
और इनका
किरायेदार
को लाभ
नहीं मिलेगा।
5. न्याय
दृष्टांत
आर.सी.
ताम्रकार
विरूद्ध
निधिलेखा, ए.आई.आर.
2001 एस.सी.
3806 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
किरायेदार
ने वाद
के पूर्व,
वाद
लंबित रहने
के दौरान
किराया जमा
नहीं करवाया
निष्कासन
की डिक्री
पारित की
गई न्यायालय
में किराया
जमा करवा
दिया गया
लेकिन विलंब
क्षमा करने
या समय
बढ़ाने का
आवेदन नहीं
दिया ऐसा
किराया जमा
करवाने का
कोई महत्व
नहीं है
इस आधार
पर निष्कासन
उचित माना
गया।
6. न्याय
दृष्टांत
जमना लाल
विरूद्ध
राधेश्याम, (2000) 4 एस.सी.सी.
380 में
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि जहां
किराये की
दर का
विवाद न
हो और
केवल देय
किराये के
संबंध में
सहमति न
हो वहां
न्यायालय
के लिये
यह आवश्यक
नहीं है
कि वह
संक्षिप्त
जांच करके
धारा 13
(2) के
तहत अनन्तिम
किराया या
प्रोविजनल
रेन्ट तय
करे किरायेदार
धारा 13
(1) के
तहत् किराया
जमा करने
के लिये
दायी है
और यदि
न्यायालय
यह पाती
है कि
किसी कालावधि
का किराया
शेष है
और जमा
नहीं करवाया
गया है
तब न्यायालय
निष्कासन
की डिक्री
देने के
लिये बाध्य
है लेकिन
जहां किराये
की दर
और उसकी
मात्रा दोनों
का विवाद
हो वहां
धारा 13
(1) लागू
नहीं होगी
जब तक
की न्यायालय
प्रोविजनल
रेन्ट तय
न करे।
किरायेदार
पर दो
दायित्व होते
है प्रथम
वह संमन
की तामील
के एक
माह के
भीतर बकाया
किराया जमा
करे दूसरा
आगे भी
प्रत्येक
माह की
किराया जमा
करवाता रहे
दोनों दायित्व
अलग-अलग
है दूसरे
दायित्व का
पालन कर
देने से
प्रथम दायित्व
से मुक्ति
नहीं हो
जाती दोनों
ही दायित्व
पूर्ण करने
होते है।
इस संबंध
मंे न्याय
दृष्टांत
प्रकाश गुप्ता
विरूद्ध
श्रीमती
रामरति देवी,
2003 (1) एम.पी.जे.आर.,
एसएन
12 अवलोकनीय
है।
यदि
मामला बकाया
किराया के
अलावा अन्य
आधारों पर
भी है
तब किरायेदार
के लिये
आवश्यक है
कि भविष्य
का किराया
जमा करवाता
रहे।
7. न्याय
दृष्टांत
श्याम चरण
शर्मा विरूद्ध
धर्मदास, ए.आई.आर.
1980 एस.सी.
587 तीन
न्यायमूर्तिगण
की पीठ
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
किरायेदार
का निष्कासन
किराया अदा
न करने
पर बचाव
का समाप्त
किया जाना
न्यायालय
के विवेकाधिकार
पर है
मकान किराया
न्यायालय
में जमा
किया गया,
न्यायालय
ने समय
बढ़ाया
किरायेदार
निष्काशित
नहीं होगा
यदि विलंब
से किराये
जमा करवाने
का कारण
ऐसा है
जो किरायेदार
के नियंत्रण
से बाहर
हो तब
न्यायालय
अपने विवेकाधिकार
से विलंब
को क्षमा
कर सकती
है।
8. न्याय
दृष्टांत
सुषमा विरूद्ध
गुलाचंद, 2011, (2) एम.पी.एल.जे.
39 में
विलंब से
किराये जमा
करवाने के
कारण किरायेदार
को सुगर
की बीमारी
होना बतलाया
गया इसे
विलंब क्षमा
का कारण
नहीं माना
गया इसी
न्याय दृष्टांत
में यह
भी प्रतिपादित
किया गया
है कि
मकान मालिक
मकान के
प्रथम मंजिल
पर रेडीमेट
का व्यवसाय
करती थी
उसने इस
व्यवसाय के
लिये तल
मंजिल या
ग्राउण्ड
मंजिल पर
रहने वाले
किरायेदार
का निष्कासन
मांगा जो
उचित माना
गया। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
सुनील कुलकर्णी
विरूद्ध
जगदीश सिंह,
आई.एल.आर.
2010 एम.पी.
939 भी
अवलोकनीय
है जिसमें
यह प्रतिपादित
किया है
कि प्रथम
तल पर
स्थित दुकान
उतनी संख्या
में ग्राहकों
को आकर्षित
नहीं करती
जितनी तल
मंजिल पर
स्थित दुकान
करती है
अतः प्रथम
तल की
दुकान को
वैकल्पिक
परिसर नहीं
माना जा
सकता।
9. न्याय
दृष्टांत
शबीर मोहम्मद
विरूद्ध मगन
लाल, आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
1243 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
किराये की
दर व
मकान मालिक
किरायेदार
के संबंध
ज्ञात होने
के बावजूद
किराया जमा
नहीं किया
गया ऐसे
में निष्कासन
उचित माना
गया।
10. विचारण
न्यायालय
ने विलंब
को माफ
किया और
किरायेदार
को एक
माह में
किराया जमा
करने का
निर्देश दिया
किरायेदार
ने किराया
भी जमा
करवाया लेकिन
नियत समय
में न्यायालय
ने रसीदें
प्रस्तुत
करने में
वह असफल
रहा उसका
बचाव समाप्त
किया गया
किरायेदार
ने एक
पुनरावलोकन
आवेदन मय
रसीदों के
प्रस्तुत
किया विचारण
न्यायालय
ने आवेदन
निरस्त कर
दिया माननीय
उच्च न्यायालय
ने प्रतिपादित
किया पुनरावलोकन
आवेदन निरस्त
करने अनुचित
था इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
गणेश प्रसाद
विरूद्ध
असदुल्ला
उसमानी, आई.एल.आर.
2010 एम.पी.
2528 डी
बी. अवलोकनीय
है।
11. न्याय
दृष्टांत
सुनील कुलकर्णी
विरूद्ध
जगदीश सिंह,
आई.एल.आर.
2010 एम.पी.
939 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
यदि किरायेदार
मांग सूचना
पत्र देने
और न्यायालय
का सूचना
पत्र मिलने
के बाद
भी किराया
जमा न
करवाने का
चुनाव करता
है तो
यह उसका
रिश्क है
और ऐसे
में बकाया
किराये के
आधार पर
निष्कासन
का आधार
बन जाता
है ऐसा
किरायेदार
धारा 12
(3) और
13 (5) का
संरक्षण पाने
का अधिकारी
नहीं होता
है।
12. न्याय
दृष्टांत
किरण विरूद्ध
रमेश गुजनानी
2010 (2) एम.पी.जे.आर.
177 डीबी
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
यदि किरायेदार
ने बकाया
किराया जमा
नहीं किया
है इस
आधार पर
उसका बचाव
समाप्त कर
दिया गया
है तब
भी उसे
सामान्य विधि
के तहत
जो बचाव
उपलब्ध होते
है उन
पर वादी
के गवाहों
से प्रतिपरीक्षण
का अधिकार
रहता है
इस मामले
में न्याय
दृष्टांत
मोडूला इंडिया
विरूद्ध के.
सिंह
देव, ए.आई.आर.
1989 एस.सी.
162 का
उल्लेख किया
गया है
जिसमंे यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
यदि स्थान
नियंत्रण
अधिनियम के
तहत बचाव
समाप्त कर
दिया गया
हो तब
भी किरायेदार
को सामान्य
विधि के
अंतर्गत जो
प्रतिरक्षा
उपलब्ध होती
है उनके
आधार पर
वादी के
गवाहों को
किरायेदार
प्रतिपरीक्षण
कर सकता
है और
वादी की
कमजोरी सामने
ला सकता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
केवल कुमार
शर्मा विरूद्ध
सतीश चंद,
1991 जे.एल.जे.
86 डी.बी.
भी
अवलोकनीय
है।
13. किरायेदार
ने किराया
समय पर
जमा करने
में कई
व्यतिक्रम
किये। अपील
न्यायालय
में भी
व्यतिक्रम
किये उच्च
न्यायालय
में द्वितीय
अपील में
विलंब क्षमा
करने का
आवेदन दिया
इतने लंबे
समय बाद
दिये गये
आवेदन को
स्वीकार
योग्य नहीं
पाया गया
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
राजेन्द्र
कुमार विरूद्ध
कसतुरी बाई,
2009 (1) एम.पी.एल.जे.
413 अवलोकनीय
है।
14. किरायेदार
ने मांग
सूचना पत्र
तामील होने
के दो
माह के
भीतर वाद
के सूचना
पत्र तामील
होने के
एक माह
के भीतर
और यहां
तक की
न्यायालय
द्वारा दिये
गये समय
में भी
जानबूझ कर
किराया जमा
नहीं करवाया
इसे विल
फूल डिफाल्ट
माना गया
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
हरिशंकर
शर्मा विरूद्ध
श्री किशन
दुबे, 2008 (1) एम.पीएचटी
223 अवलोकनीय
है।
15. अंनन्तिम
किराया या
प्रोविजन
रेन्ट संक्षिप्त
जांच करके
निर्धारित
करना चाहिये
जिसमें किराये
की रसीदे,
संपत्ति
कर रजिस्टर
में दर्शाया
किराया और
अन्य दस्तावेज
देखे जा
सकते है
दस्तावेजों
के अभाव
में शपथ
पत्रों के
आधार पर
किराया
निर्धारित
किया जा
सकता है
संक्षिप्त
जांच के
बिना किराया
निर्धारित
करना उचित
नहीं है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
श्रीमती मीरा
विरूद्ध
मोहम्मद
फहीम, 2008 (3) एम.पी.जे.आर.
12 अवलोकनीय
है।
16. वेध
रूप से
वसूली योग्य
किराये में
समय बाधित
किराया शामिल
नहीं होता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
दिनेश कुमार
शर्मा विरूद्ध
भगवत प्रसाद
तिवारी, 2006 (3) एम.पी.जे.आर.,
एस.एन.
23 अवलोकनीय
है जिसमंे
न्याय दृष्टांत
मानकुंवर
बाई विरूद्ध
सुन्दर लाल,
1978 एम.पी.एल.जे.
405 पूर्ण
पीठ और
अन्य न्याय
दृष्टांत
पर विचार
किया गया
है। किरायेदार
समय बाधित
किराया जमा
करवाने के
लिये बाध्य
नहीं होता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
राम गोपाल
विरूद्ध फर्म
मेसर्स
दीनानाथ, 2006 (1) एम.पी.एल.जे.
455 अवलोकनीय
है। साथ
ही न्याय
दृष्टांत
अरूण कुमार
विरूद्ध
कृष्ण गोपाल,
2005 (4) एम.पी.एल.जे.
24 भी
अवलोकनीय
है।
17. यदि
किरायेदार
पिता ने
धारा 12
(3) का
लाभ ले
लिया है
तब उसके
उत्तराधिकारी
पुनः इन
प्रावधानों
का लाभ
नहीं ले
सकते इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
इमदाद अली
विरूद्ध केशव
चंद (2003)
4 एस.सी.सी.
635 अवलोकनीय
है।
18. विलंब
को क्षमा
करने के
लिये किरायेदार
द्वारा आवेदन
दिया जाना
आवश्यक है
इस संबंध
मे न्याय
दृष्टांत
सैयद अख्तर
विरूद्ध
अब्दुल अहद,
(2003) 7 एस.सी.सी.
52 अवलोकनीय
है।
धारा
12 (1) (बी)
अधिनियम
के बारे
में
(बी)
किरायेदार
ने इस
अधिनियम के
प्रारंभ होने
के पूर्व
या पश्चात्
संपूर्ण
स्थान या
उसके किसी
भाग को
प्रतिफल लेकर
या अन्यथा
विधि विरूद्ध
रूप से
उप किराये
पर दे
दिया है,
समनुदेशित
कर दिया
है या
उसका कब्जा
छोड़ दिया
है।
इस
आधार पर
सामान्यतः
उप किरायेदारी
का आधार
या सबलेटिंग
भी कहते
है जिसके
तहत मूल
किरायेदार
किसी अन्य
व्यक्ति को
वाद ग्रस्त
परिसर या
उसका कोई
भाग उप
किराये पर
दे देता
है और
ऐसा भाग
मकान मालिक
के लिखित
अनुमति के
बिना करता
है तब
किरायेदार
के विरूद्ध
यह निष्कासन
का आधार
बनता है
यदि मकान
मालिक के
लिखित अनुमति
ली गई
है तब
धारा 15
आकर्षित
होती है।
न्याय
दृष्टांत
हरवीर सिंह
विरूद्ध
श्रीकिशन
सिंह, आई.एल.आर.
2010 एम.पी.
654 में
माननीय म.प्र.
उच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि उप
किरायेदार
सद्भाविक
आवश्यकता
के आधार
पर वाद
ग्रस्त परिसर
की आवश्यकता
को चुनौती
नहीं दे
सकता वह
केवल उप
किरायेदारी
के आधार
को ही
चुनौती दे
सकता है
इस मामले
में वादी
ने उसके
पुत्र की
आवश्यकता
के आधार
पर दुकान
खाली कराने
का वाद
पेश किया
था वाद
दायर करने
के पूर्व
ही दुकान
उसके पुत्र
को विभाजन
में मिल
चुकी थी
वादी के
मृत्यु के
बाद उसके
पुत्र को
वेध प्रतिनिधि
के रूप
में अभिलेख
पर लिया
गया उप
किरायेदार
ने इस
आधार पर
आपत्ति की
कि मूल
वादी को
वाद प्रस्तुत
करते समय
वाद ग्रस्त
परिसर का
प्रतिनिधित्व
करने का
अधिकार नहीं
था उप
किरायेदार
को ऐसी
आपत्ति लेने
का अधिकार
न होना
प्रतिपादित
किया गया।
यदि
किरायेदार
किरायेदारी
वाले परिसर
को मकान
मालिक के
सहमति के
बिना उप
किराये पर
देता है
तो यह
धारा 14
का
उल्लघंन है
और धारा
43 (3) के
तहत किरायेदार
पर पैनाल्टी
लगाई जा
सकती है
और न्यायिक
मजिस्टेªट
के समक्ष
किरायेदार
के विरूद्ध
परिवाद लाया
जा सकता
है लेकिन
उप किरायेदार
के विरूद्ध
नहीं लाया
जा सकता
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
मनीषा ललवानी
विरूद्ध
डाॅं. डी.बी.
पाॅल,
2009 (2) एम.पी.जे.आर.
196 अवलोकनीय
है।
दानपति
अदाहत भण्डार
विरूद्ध
घनश्याम दास,
2009 (2) एम.पी.जे.आर.
333 भी
उप किरायेदारी
के में
अवलोकनीय
है इस
न्याय दृष्टांत
यह भी
प्रतिपादित
किया गया
है कि
यदि मकान
मालिक व्यापार
बदलने के
बारे में
अभिवचन करता
है तो
यह नहीं
कहां जा
सकता की
उसकी आवश्यकता
समाप्त हो
गई है।
न्याय
दृष्टांत
मुकेश कुमार
गर्ग विरूद्ध
रामचन्द्र
मोटवानी, आई.एल.आर.
2008 एम.पी.
551 भी
उप किरायेदारी
के बारे
में अवलोकनीय
है साथ
ही न्याय
दृष्टांत
शिवजी भाई
विरूद्ध
जगदीश चन्द्र,
2008 (3) एम.पी.एल.जे.
87 भी
अवलोकनीय
है
न्याय
दृष्टांत
श्रीमती
निर्मलकांता
विरूद्ध अशोक
कुमार, ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
1768 में
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि किरायेदार
ने एक
व्यक्ति को
एक बैठक
उपलब्ध कराये
ताकि वह
किरायेदार
को कपड़े
के व्यापार
में सिलाई
करके उसकी
मदद कर
सके किरायेदार
ने परिसर
का आधिपत्य
नहीं छोड़
था उसे
उप किरायेदारी
नहीं माना
गया।
न्याय
दृष्टांत
आशिन अली
विरूद्ध
गफूर, 2007 (1) एम.पी.एल.जे.
266 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
किरायेदार
ने वाद
ग्रस्त परिसर
में अपना
विधिक आधिपत्य
रखते हुये
एक भागीदारी
फर्म प्रारंभ
की इसे
उप किरायेदारी
नहीं माना
गया।
उप
किरायेदारी
के लिये
किसी प्रत्यक्ष
साक्ष्य की
आवश्यकता
नहीं होती
है इसे
परिस्थितियों
के माध्यम
से इनफर
किया जाता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
श्यामकांत
निगम विरूद्ध
नवाब अहमद,
2007 (1) एम.पी.एल.जे.
279 अवलोकनीय
है।
न्याय
दृष्टांत
शांति देवी
विरूद्ध
द्वारका दास,
2005 (3) जे.एल.जे.
368 इस
संबंध में
अवलोकनीय
है।
धारा
12 (1) (सी)
अधिनियम
के बारे
में
(सी)
किरायेदार
ने या
उसके साथ
निवास करने
वाले किसी
व्यक्ति ने
यदि कोई
न्यूसेन्स
पैदा कर
दी है
या कोई
ऐसा कार्य
किया है
जो उस
प्रयोजन से
असंगत है
जिसके लिये
उसे वह
स्थान किराये
पर दिया
गया था
या कोई
ऐसा कार्य
किया गया
है जिससे
भू-स्वामी
के हित
पर प्रतिकूल
रूप से
तथा सारवान
रूप से
प्रभाव पड़ना
संभाव्य है।
लेकिन
किसी किरायेदार
द्वारा उस
स्थान के
एक भाग
को अपने
कार्यालय
के रूप
में उपयोग
में लाया
जाना उस
प्रयोजन से
असंगत कार्य
नहीं समझा
जायेगा जिसके
लिये वह
स्थान उसे
किराये पर
दिया गया
है।
धारा
12 (1) (सी)
अधिनियम
के बारे
में वैधानिक
स्थिति
1. न्याय
दृष्टांत
शीला विरूद्ध
फर्म प्रहलाद
राय, ए.आई.आर.
2002 एस.सी.
1264 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
यदि किरायेदार
सद्भावना
पूर्वक यह
अभिवचन करता
है कि
भू-स्वामी
अपना स्वत्व
प्रमाणित
करे व
किरायेदार
उसके आधिपत्य
की प्रकृति
व स्थिति
से इंकार
नहीं करता
है तो
यह नहीं
कहां जा
सकता की
किरायेदार
ने भू-स्वामी
के स्वामित्व
से इंकार
किया है
या किरायेदारी
से इंकार
किया है
धारा 116
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम एवं
धारा 111
जी
संपत्ति
अंतरण अधिनियम
के प्रावधानों
को ध्यान
में रखना
होगा।
2. न्याय
दृष्टांत
सैयद अख्तर
विरूद्ध
अब्दुल अहद
ए.आई.आर.
2003 एस.सी.
2985 में
किराया अदा
करने में
व्यतिक्रम
व किरायेदार
द्वारा
न्यूसेन्स
के आधार
पर वाद
पेश किया
गया। मामले
में न्यूसेन्स
पर विशेषतः
वाद प्रश्न
नहीं बनाया
गया दोनों
पक्षों के
अभिवचन भी
थे प्रमाण
भी थे
जिन्हें
कोर्ट ने
देखा और
विचार में
लेकर निष्कर्ष
दिया दोनों
पक्ष वाद
प्रश्न को
जानते थे
और उन्होंने
उस पर
प्रमाण भी
दिया ऐसे
में न्यूसेन्स
के बारे
में पृथक
से वाद
प्रश्न न
बनाने का
कोई प्रभाव
नहीं माना
गया।
{ वाद
प्रश्न
सामान्यतः
किसी भी
मामले में
अत्यंत गंभीरता
से बनाना
चाहिये और
कोई भी
तात्विक वाद
प्रश्न बनना
रह न
जाये इसका
ध्यान रखना
चाहिये उक्त
न्याय दृष्टांत
के प्रकाश
में यह
मार्गदर्शन
भी लिया
जा सकता
है।}
3. न्याय
दृष्टांत
शबीर मोहम्मबद
विरूद्ध मगन
लाल, आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
1243 में
माननीय
मध्यप्रदेश
उच्च न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि किरायेदार
के रूप
में संबंध
स्वीकार करने
के बाद
भूमि स्वामी
के हक
को चुनौती
देने से
किरायेदार
धारा 116
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम के
तहत विबंधित
है यह
न्यूसेन्स
है।
4. न्याय
दृष्टांत
चुन्नू लाल
विरूद्ध केशर
बाई, 2011 (2) एम.पी.एल.जे.
180 में
माननीय म.प्र.
उच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि यदि
किरायेदार
को क्रेता
वादी द्वारा
वाद ग्रस्त
परिसर का
क्रय करने
का ज्ञान
न हो
और उसने
नये स्वामी
को स्वामी
के रूप
में न
माना हो
किरायेदार
ने अपने
किरायेदार
की स्थिति
को इंकार
न किया
हो पर
वादी से
अपना स्वामित्व
सिद्ध करने
को कहां
हो ऐसे
मामले में
इस आधार
पर अर्थात
स्वामित्व
से इंकार
के आधार
पर अज्ञाप्ति
नहीं दी
जा सकती
है। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
कांधी लाल
विरूद्ध
अभिलाष कुमार
अवलोकनीय
है।
5. न्याय
दृष्टांत
राम किशन
सोनी विरूद्ध
डाॅं. सुरेन्द्र
बाहरे, 2010 (1) एम.पी.एच.टी.
252 में
माननीय म.प्र.
उच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया है
कि निष्कासन
के मामले
में स्वत्व
की जांच
स्वत्व संबंधि
वादों की
तरह नहीं
की जाना
होती है
वादी एक
विल के
आधार पर
भू-स्वामी
होने का
दावा लेकर
आया था
प्रतिवादी
ने स्वीकारोक्ती
की थी
विल का
निष्पादन
प्रमाणित
नहीं हुआ
था लेकिन
प्रतिवादी
के स्वीकारोक्ती
के आधार
पर वाद
अज्ञाप्त
किया गया
था जिसे
उचित माना
गया इस
मामले में
यह भी
प्रतिपादित
किया गया
कि लिखित
कथन में
भी यदि
भू-स्वामी
के स्वत्व
से इंकार
किया गया
हो तब
धारा 12
(1) (सी)
का
निष्कासन
का आधार
बनेगा।
6. यदि
किरायेदार
नया विद्युत
कनेक्शन ले
लेता है
जबकि मकान
मालिक उसे
ऐसी सुविधा
उपलब्ध नहीं
कराता है
किरायेदार
के इस
कार्य को
न्यूसेन्स
नहीं माना
जा सकता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
गुलखान विरूद्ध
ओम प्रकाश,
आई.एल.आर.
2008 एम.पी.
98 अवलोकनीय
है।
7. किरायेदार
ने वादी
के डेरीवेटीव
टायटल को
स्वीकार करने
के बाद
फिर उसके
स्वत्व से
इंकार किया
वादी ने
इस संबंध
में संशोधन
किया इस
आधार पर
आज्ञाप्ति
दी गई
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
देवराज विरूद्ध
नैना देवनानी,
2008 (3) एम.पी.सएल.जे.
239 अवलोकनीय
है।
8. किरायेदार
ने लिखित
कथन में
स्वत्व से
इंकार किया
बाद में
संशोधन करके
वह अभिवचन
वापस
ले लिया
प्रारंभिक
अभिवचनों
के आधार
पर भी
धारा (1)
(सी) का
आधार निर्मित
होता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
राम गोपाल
विरूद्ध फर्म
मेसर्स
दीनानाथ, 2006 (1) एम.पी.एलजे.
455 अवलोकनीय
है।
9. सूचना
पत्र के
जवाब में
स्वत्व से
इंकार किया
या लिखित
कथन में
स्वत्व से
इंकार किया
इसे धारा
12 (1) (सी)
का
आधार निर्मित
होता है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
रंजीत नारायण
विरूद्ध
लक्ष्मी बाई,
2005 (1) एम.पी.एल.जे.
297 अवलोकनीय
है।
10. जब
तक अंतरण
की सूचना
न दी
गई हो
या किरायेदारी
बाद के
क्रेता के
स्वीकार न
कर ली
गई हो
तब तक
धारा 12
(1) (सी)
का
आधार नहीं
बनेगा इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
बजरंग लाल
विरूद्ध
ग्यासी बाई,
2004 (4) एम.पी.एल.जे.
192 अवलोकनीय
है।
धारा
12 (1) (डी)
अधिनियम
के बारे
में
(डी)
किरायेदार
ने यदि
युक्तियुक्त
हेतुक के
बिना वह
स्थान वाद
प्रस्तुती
दिनांक के
पूर्व लगातार
6 माह
तक उस
प्रयोजन से
उपयोग में
नहीं लिया
है जिसके
लिये वह
किराये पर
दिया गया
था।
इस
तरह किरायेदार
यदि वाद
ग्रस्त परिसर
का लगातार
6 माह
तक बिना
किसी उचित
कारण के
दिये गये
प्रयोजन से
उपयोग नहीं
करता है
तो यह
निष्कासन
का आधार
बनता है।
न्याय
दृष्टांत
मजहर खान
विरूद्ध
श्याम किशोर,
2010 (3) एम.पी.एच.टी.
16 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
मकान मालिक
को यह
प्रमाणित
करना होता
है कि
किरायेदार
ने बिना
युक्तियुक्त
हेतुक के
परिसर का
उपयोग नहीं
किया है
यदि मकान
मालिक इतना
स्थापित कर
देता है
तब युक्तियुक्त
हेतुक को
स्थापित करने
का भार
प्रतिवादी
पर सिफ्ट
हो जाता
है।
धारा
12 (1) (ई)
अधिनियम
के बारे
में
(ई)
निवास
के प्रयोजनों
के लिये,
किराये
पर दिये
स्थान की,
भू-स्वामी
को अपने
स्वयं के
लिये या
अपने कुटुब
के किसी
सदस्य के
लिये, यदि
वह उसका
स्वामी है
या किसी
ऐसे व्यक्ति
के लिये
जिसके फायदे
के लिये
वह स्थान
धारित है
निवास स्थान
के रूप
में अधिभोग
के लिये
सद्भाविक
आवश्यकता
है और
संबंधित
कस्बे या
शहर में
भू-स्वामी
या ऐसे
व्यक्ति के
अधिभोग के
लिये अपना
स्वयं का
युक्तियुक्त
रूप से
उपयुक्त अन्य
निवास स्थान
नहीं है।
धारा
12 (1) (ई)
के
उक्त आधार
को सामान्यतः
निवास हेतु
सद्भाविक
आवश्यकता
का आधार
भी कहते
है और
इस आधार
पर विचार
करते समय
धारा 12
(4) (5) एवं
धारा 17
के
प्रावधान
भी ध्यान
में रखना
होते है।
धारा
12 (4) के
अनुसार भूमि
स्वामी ने
परिसर अंतरण
द्वारा अर्जित
किया हो
तो वह
धारा 12
(1) (ई)
या
(एफ)
में
उल्लेखित
आधार पर
किरायेदार
के निष्कासन
के लिये
कोई वाद
तब तक
चलने योग्य
नहीं होगा
जब तक
की अंतरण
से अर्जन
की तारीख
से 1
वर्ष
की अवधि
व्यतीत न
हो गई
हो। इस
प्रकार जहां
कोई भूमि
स्वामी किसी
परिसर को
किसी भी
प्रकार के
अंतरण से
प्राप्त करता
है तो
वह 1
वर्ष
तक निष्कासन
का वाद
प्रस्तुत
नहीं कर
सकता है
और ऐसा
प्रस्तुत
वाद धारा
12 (1) (ई)
या
(एफ)
के
आधारो ंपर
हो तो
उसे अपरिपक्व
वाद माना
जाता है
और ऐसा
वाद 1
वर्ष
के बाद
ही प्रचलन
योग्य होता
है।
धारा
12 (5) के
अनुसार जहां
किसी किरायेदार
के निष्कासन
के लिये
कोई आदेश
उप धारा
1 के
खण्ड ई
के आधार
किया गया
है वहां
भू स्वामी
परिसर का
कब्जा आदेश
की तारीख
से 2
माह
की अवधि
व्यतीत होने
के पूर्व
पाने का
अधिकारी नहीं
होता है।
धारा
17 अधिनिमय
के अनुसार
यदि भूमि
स्वामी ने
धारा 12
(1) (ई)
या
(एफ)
के
अधीन किसी
आदेश के
अनुसरण में
किरायेदार
से किसी
स्थान का
कब्जा प्राप्त
किया है
वहां भू-स्वामी
विहित रीति
में प्राप्त
की गई
भाड़ा नियंत्रण
प्राधिकारी
के अनुमति
के बिना,
उस
संपूर्ण
स्थान को
या उसके
किसी भाग
को ऐसा
कब्जा प्राप्त
करने की
तारीख से
2 वर्ष
के भीतर,
पुनः
किराये पर
नहीं देगा
और ऐसी
अनुमति देते
समय भाड़ा
नियंत्रण
प्राधिकारी
भू-स्वामी
को यह
निर्देश दे
सकेंगे की
निष्काशित
किये गये
किरायेदार
को उस
स्थान का
कब्जा दिया
जाये।
धारा
17 (2) के
अनुसार जहां
कोई भू-स्वामी
किसी स्थान
का कब्जा
पुनः प्राप्त
कर लेता
और कब्जा
प्राप्त करने
के 2
माह
के भीतर
भू स्वामी
द्वारा या
उस व्यक्ति
द्वारा जिसके
फायदे के
लिये स्थान
निर्धारित
है अधिभोग
में नहीं
लिया जाता
है या
अधिभोग में
लिये जाने
के बाद
कब्जा प्राप्ति
के 2
वर्ष
के भीतर
भाड़ा नियंत्रण
प्राधिकारी
की अनुमति
के बिना
उक्त किरायेदार
के अलावा
किसी अन्य
को किराये
पर दे
दिया जाता
है या
किसी अन्य
व्यक्ति को
अंतरित कर
दिया जाता
है जो
अंतरण भाड़ा
नियंत्रण
प्राधिकारी
को सद्भावना
पूर्ण प्रतीत
न होता
हो तब
किरायेदार
द्वारा आवेदन
देने पर
भाड़ा नियंत्रण
प्राधिकारी
भूमि स्वामी
को यह
निर्देश दे
सकते है
कि किरायेदार
उस स्थान
का कब्जा
दिया जावे
या उचित
प्रतिकर दिया
जावे।
धारा
17 (3) के
अनुसार यदि
किरायेदार
ने धारा
12 (6) के
अनुसार यदि
किरायेदार
प्रतिकर
प्राप्त कर
लेता है
तो वह
दोबारा प्रतिकर
प्राप्त करने
का अधिकारी
नहीं होता
है।
धारा
12 (1) (ई)
के
बारे में
वैधानिक
स्थिति
1. न्याय
दृष्टांत
फर्म पंजूमल
दौलतराम
विरूद्ध सखी
गोपाल, ए.आई.आर.
1977 एस.सी.
2077 तीन
न्यायमूर्तिगण
की पीठ
के न्याय
दृष्टांत
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
परिसर निवासी
और गैर
निवासी
उद्देश्य
से किराये
पर दिया
गया। भू-स्वामी
ने सद्भावी
आवश्यकता
प्रमाणित
की निष्कासन
उचित माना
गया।
2. न्याय
दृष्टांत
गोविंद विरूद्ध
डाॅं. जीतसिंह,
ए.आई.आर.
1988 एस.सी.
365 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
भू-स्वामी
की आवश्यकता
सद्भाविक
होना चाहिये
आवश्यकता
को वस्तुनिष्ठ
या ओब्जेक्टिव
रूप से
देखना चाहिये
पक्षकारों
की स्वीकृति
/अस्वीकृति
के आधार
पर नहीं
देखना चाहिये।
3. न्याय
दृष्टांत
अशोक कुमार
विरूद्ध विजय
कुमार, ए.आई.आर.
2002 एस.सी.
1310 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
किरायेदार
ने स्थायी
निषेधाज्ञा
का वाद
पेश किया।
मकान मालिक
ने उसमें
निवास की
आवश्यकता
के आधार
पर प्रतिदावा
पेश किया
मकान मालिक
धारा 23
जे
में उल्लेखित
किसी भी
श्रेणी में
नहीं आता
है वाद
व्यवहार
न्यायालय
के क्षेत्राधिकार
का है।
4. जहां
संयुक्त
किरायेदारी
हो वहां
किरायेदार
पूरे परिसर
की मांग
आवासीय या
गैर आवासीय
किसी भी
आवश्यकता
के आधार
पर कर
सकता है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
मछला बाई
विरूद्ध ननक
राम, 2006 (2) एम.पी.एल.जे.
484 अवलोकनीय
है।
5. पति
ने निष्कासन
का वाद
लगाया पत्नी
के पास
या संयुक्त
परिवार के
पास वैकल्पिक
आवास का
उपलब्ध होना
पति के
पास वैकल्पिक
आवास का
उपलब्ध होना
नहीं माना
जायेगा इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
अजय कुमार
विरूद्ध अशोक
कुमार, 2006 (3) एम.पी.एच.टी.
292 अवलोकनीय
है।
धारा
12 (1) (एफ)
अधिनियम
के बारे
में
(एफ)
के
अनुसार
अनिवासिक
प्रयोजनों
के लिये
किराये पर
दिये स्थान
की भू-स्वामी
को अपने
स्वयं के
लिये या
अपने वयस्क
पुत्रों में
से किसी
वयस्क पुत्र
के लिये
या अपनी
अविवाहित
पुत्रियों
में से
किसी अविवाहित
पुत्री के
लिये, यदि
वह उसका
स्वामी हो,
या
किसी ऐसे
व्यक्ति के
लिये जिसके
लाभ के
लिये वह
स्थान धारित
है कोई
कारोबार चालू
रखने या
प्रारंभ करने
के प्रयोजनो
ंसे सद्भाविक
आवश्यकता
है और
संबंधित
कस्बे या
शहर में
भू-स्वामी
या उपरोक्त
व्यक्ति के
अधिभोग में
स्वयं का
युक्तियुक्त
रूप से
उपयुक्त अन्य
कोई अनिवासिक
स्थान नहीं
है।
इस
आधार पर
सामान्यतः
गैर निवासी
या व्यवसायिक
आवश्यकता
भी कहते
है और
भूमि स्वामी
स्वयं के
या वयस्क
पुत्र या
अविवाहित
पुत्री या
जिस व्यक्ति
के लाभ
के लिये
स्थान धारित
है उसके
लिये, किसी
कारोबार को
प्रारंभ करने
या चालू
रखने के
आधार पर
निष्कासन
का वाद
ला सकता
है।
धारा
12 (4) के
प्रावधान
जिनका की
उपर उल्लेख
किया है
यहां भी
आकृषित करते
है और
अंतरण से
अर्जित स्थान
के संबंध
में अर्जन
तारीख से
1 वर्ष
के बाद
ही इस
आधार पर
निष्कासन
का वाद
लाया जा
सकता है।
धारा
12 (6) के
अनुसार धारा
12 (1) (एफ)
के
आधार पर
यदि निष्कासन
दिया है
तोः-
ए
आदेश
की तारीख
से 2
माह
की कालावधि
व्यतीत होने
के पूर्व
भू-स्वामी
आधिपत्य पाने
का अधिकारी
नहीं होता
हैं।
यदि
स्थान ग्वालियर,
इंदौर,
उज्जैन,
रतलाम,
भोपाल,
जबलपुर
नगरों में
या राज्य
सरकार द्वारा
घोषित किसी
अन्य शहर
में स्थित
हो तब
मकान मालिक
निम्नानुसार
प्रतिकर अदा
करे तभी
आधिपत्य पाने
का अधिकारी
होता है:-
बी
यदि
वह स्थान
जो किरायेदार
द्वारा खाली
किया जा
रहा हो
वाद प्रस्तुती
दिनांक के
ठीक पूर्व
के 10
वर्षो
की अवधि
तक किरायेदार
व्यापार के
प्रयोजन के
लिये या
व्यापार के
प्रयोजन के
साथ अन्य
प्रयोजन से
उपयोग कर
रहा हो
वहां वार्षिक
मानक किराये
रकम से
दुगुणा प्रतिकर
भूमि स्वामी
को देना
होगा।
सी
जहां
10 वर्ष
की उक्त
कालावधि के
दौरान उस
स्थान पर
व्यापार करने
वाले किरायेदार
ने छोड़
दिया हो
और बाद
के किरायेदार
ने अपने
पूर्ववर्ति
का व्यवसाय
या तो
अंतरण द्वारा
या विरासत
द्वारा अर्जित
किया हो
तब भी
किरायेदार
वार्षिक मानक
किराया से
दोगुना प्रतिकर
पाने का
अधिकारी होता
है।
डी
अन्य
दशा में
वार्षिक मानक
किराये के
रकम के
बराबर का
प्रतिकर मकान
मालिक द्वारा
किरायेदार
को देय
होता है।
धारा
17 के
प्रावधान
यहां भी
आकृर्षित
होते है
जिनका की
उपर उल्लेखित
किया जा
चुका है।
धारा
12 (1) (एफ)
अधिनियम
के बारे
में वैधानिक
स्थिति
1. न्याय
दृष्टांत
प्रताप राई
विरूद्ध
उत्तम चंद,
ए.आई.आर.
2005 एस.सी.
1274 में
वाद ग्रस्त
परिसर अपने
पुत्र के
व्यवसाय शुरू
करवाने की
सद्भाविक
आवश्यकता
के आधार
पर वाद
प्रस्तुत
किया गया
कार्यवाही
लंबित रहने
के दौरान
पुत्र अस्थायी
नियोजन में
विदेश चला
गया यह
पश्चात्वर्ती
धटनाक्रम
था किन्तु
पुत्र के
वापस लौटने
का आशय
था ऐसे
में यह
नहीं कहा
जा सकता
की मकान
मालिक की
सद्भाविक
आवश्यकता
पूरी तरह
समाप्त हो
गई हो
सद्भाविक
आवश्यकता
के समवर्ती
निष्कर्ष
जारी रहेंगे
किरायेदार
का निष्कासन
उचित है।
2. न्याय
दृष्टांत
रमेश कुमार
विरूद्ध
किशोर, ए.आई.आर.
1992 एस.सी.
700 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
सामान्य नियम
यह है
कि किसी
भी वाद
में पक्षकारों
के अधिकारों
व दायित्वों
का विनिश्चय
वाद शुरू
होने की
तारीख पर
किया जाता
है लेकिन
इसका एक
अपवाद यह
है कि
पश्चातवर्ती
धटना तथ्य
या विधि
की ऐसी
हो जो
पक्षकारों
के अनुतोष
को प्रभावित
करती हो
तब न्यायालय
ऐसी घटना
का सावधानी
से संज्ञान
लेने से
बाधित नहीं
होते है।
3. न्याय
दृष्टांत
हसमत राई
विरूद्ध
राघुनाथ
प्रसाद, ए.आई.आर.
1981 एस.सी.
1711 तीन
न्यायूर्तिगण
की पीठ
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
वादी की
आवश्यकता
वाद प्रस्तुती
दिनांक पर
व डिक्री
दिनांक पर
भी अस्तित्व
में होना
चाहिये वाद
दिनांक के
बाद कोई
ऐसी पश्चात्वर्ती
घटना होती
है जो
भूमि स्वामी
की आवश्यकता
तुष्ट कर
देती है
तब वाद
विफल हो
जायेगा
पश्चातवर्ती
घटना देखना
होगी इस
मामले में
वादी ने
व्यक्तिगत
व्यापार शुरू
करने के
आधार पर
निष्कासन
चाहा कार्यवाही
लंबित रहने
के दौरान
उसी भवन
का एक
भाग का
रिक्त आधिपत्य
वादी को
मिल गया
जो उसकी
आवश्यकता
के लिये
पर्याप्त
था उसकी
आवश्यकता
समाप्त होना
माना गया
निष्कासन
उचित नहीं
माना गया।
वादी
ने अवासीय
प्रयोजन का
अभिवचन नहीं
किया था
अतः इस
आधार पर
निष्कासन
नहीं दिया
जा सकता।
4. न्याय
दृष्टांत
डी.एन.
संघवी
एण्ड संस
विरूद्ध
अम्बा लाल
त्रिभुवन
दास, ए.आई.आर.
1974 एस.सी.
1026 में
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने धारा
12 (1) (एफ)
में
उल्लेखित
’’हिज बिजनेस’’
शब्द को
स्पष्ट किया
और यह
प्रतिपादित
किया है
कि इस
शब्द का
प्रयोग इस
सीमा तक
नहीं है
कि भागीदारी
फर्म जिसका
वादी भी
एक भागीदारी
भी है
उसकी आवश्यकता
को इसमें
शामिल माना
जाये।
5. न्याय
दृष्टांत
बद्री लाल
विरूद्ध
श्रीमती
सीमा, आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
586 डीबी
में भी
’’हिज बिजनेस’’
शब्द की
विवेचना की
गई है
और यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
इस शब्द
का नर्म
अर्थ नहीं
लगाया जा
सकता और
इस शब्द
में स्पाउस
शामिल नहीं
हैं लेकिन
बद्री लाल
विरूद्ध
श्रीमती
सीमा, ए.आई.आर.
2011 एम.पी.
181, फुल
बेंच में
इस स्थिति
को बदल
दिया है
व अब
हिज बिजनेस
में परिवार
के सदस्य
जिन पर
मकान मालिक
निर्भर हो
उन्हें भी
शामिल किया
है।
6. न्याय
दृष्टांत
श्रीमती
चन्द्रकली
बाई विरूद्ध
जगदीश सिंह,
ए.आई.आर.
1977 एस.सी.
2262 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
भू-स्वामी
के पास
किराये की
दुकान है
यह निष्कासन
से इंकार
का आधार
नहीं हो
सकता।
7. न्याय
दृष्टांत
दिलबाग राय
पंजाबी विरूद्ध
शरद चंद,
ए.आई.आर.
1988 एस.सी.
1858 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 12
(1) (एफ)
के
अनुसार गैर
अवासीय परिसर
के निष्कासन
के मामले
में भूमि
स्वामी को
वाद ग्रस्त
परिसर का
स्वामी होना
स्थापित करना
होगा।
8. न्याय
दृष्टांत
सूरजमल विरूद्ध
राघेश्याम, ए.आई.आर.
1988 एस.सी.
1345 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
गैर आवासीय
प्रयोजन के
लिये आवश्यकता
के आधार
पर एक
वाद खारिज
हो जाने
के बाद
दूसरा वाद
चलने योग्य
होता है
क्योंकि वाद
तारीख की
आवश्यकता
देखना होती
है एक
बार वाद
खारिज हो
गया मात्र
इस आधार
पर यह
नहीं कहां
जा सकता
की वादी
को कभी
आवश्यकता
नहीं हो
सकती।
सभी
दस्तावेजों
को विचार
में लिये
बिना दिया
गया निष्कर्ष
अपास्त किये
जाने योग्य
पाया गया।
9. न्याय
दृष्टांत
प्रेम नारायण
विरूद्ध हकीम
उद्दीन, ए.आई.आर.
1999 एस.सी.
2450 में
यह प्रतिपादित
किया गया
वादी ने
गैर आवासीय
उद्देश्य
के लिये
परिसर किराये
पर दिया
उसके लिये
यह आवश्यक
नहीं है
कि वह
यह अभिवचन
करे की
उसके पास
आवासीय परिसर
है जो
गैर आवासीय
उद्देश्य
के लिये
उपयुक्त नहीं
है।
10. न्याय
दृष्टांत
राघवेन्द्र
कुमार विरूद्ध
फर्म प्रेम
मशीनरी, ए.आई.आर.
2000 एस.सी.
534 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
वाद ग्रस्त
परिसर की
सद्भावी
आवश्यकता
के मामले
में परिसर
वादी के
लिये उपयुक्त
है या
नहीं भूमि
स्वामी इसका
सर्वोत्तम
निर्णायक
होता है
उसे पूर्ण
स्वतंत्रता
होती है।
11. न्याय
दृष्टांत
दीना नाथ
विरूद्ध
पूरनमल, ए.आई.आर.
2001 एस.सी.
2655 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
वाद प्रस्तुत
करते समय
भूमि स्वामी
के पास
एक खाली
दुकान थी
कार्यवाही
लंबित रहने
के दौरान
एक अन्य
दुकान भू
स्वामी को
प्राप्त हुई
उक्त तथ्यों
को ध्यान
मंे रखे
बिना निष्कर्ष
दिया गया
जो अपास्त
किया गया।
12. न्याय
दृष्टांत
शकुंतला
विरूद्ध
नारायण दास,
ए.आई.आर.
2004 एस.सी.
3484 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
गैर आवासीय
परिसर की
आवश्यकता
के आधार
पर वाद
में भूमि
स्वामी की
कार्यवाही
के दौरान
मृत्यु हो
गई उसके
वेध प्रतिनिधि
कार्यवाही
जारी रख
सकते हंै
वाद दिनांक
की आवश्यकता
देखना होती
है मृत्यु
का तथ्य
तात्विक नहीं
है।
13. वादी
ने उसके
पुत्र के
लिये जूतों
के व्यापार
के लिये
वाद ग्रस्त
परिसर की
सद्भाविक
आवश्यकता
के आधार
पर वाद
पेश किया
वाद इस
आधार पर
निरस्त किया
गया कि
वादी के
पुत्र को
इस व्यापार
का अनुभव
नहीं है
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने यह
प्रतिपादित
किया कि
यदि किसी
व्यक्ति को
किसी व्यापार
का अनुभव
न हो
तब भी
वह उस
व्यापार को
शुरू कर
सकता है
अनुभव न
होने के
आधार पर
वादी का
दावा निरस्त
करना उचित
नहीं है।
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
राम बाबू
अग्रवाल
विरूद्ध
जयकिशन दास
(2010) 1 एस.सी.सी.
164 अवलोकनीय
है।
14. वाद
प्रस्तुती
दिनांक को
जिस परिसर
का वादी
स्वामी नहीं
था उस
वैकल्पिक
आवास के
बारे में
अभिवचन करना
वादी के
लिये जरूरी
नहीं था
वादी ने
उसके दो
पुत्रों की
सद्भाविक
आवश्यकता
के आधार
पर वाद
पेश किया
एक पुत्र
का कथन
करवाया दूसरा
का कथन
नहीं करवाया
यह आवश्यक
नहीं है
प्रत्येक
व्यक्ति का
कथन करवाया
जाये जिसकी
आवश्यकता
के आधार
पर निष्कासन
चाहा है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
हरविलास
विरूद्ध
मेसर्स शर्मा
मोटर, आई.एल.आर.
2008 एम.पी.
3189 अवलोकनीय
है।
15. वादी
के पास
केवल अन्य
परिसर उपलब्ध
होना उसे
गैर आवासीय
परिसर के
निष्कासन
की मांग
करने से
अयोग्य नहीं
बना देता
है अन्य
परिसर यदि
वादी के
व्यवसाय के
लिये उपयुक्त
नहीं है
तो उस
परिसर का
कोई प्रभाव
नहीं है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
नामामल विरूद्ध
प्रकाश चंद,
2009 (1) एम.पी.एल.जे.
313 अवलोकनीय
है साथ
ही न्याय
दृष्टांत
राज कुमार
विरूद्ध
श्रीमती ऊषा,
2009 (1) एम.पी.एल.जे.
343 भी
अवलोकनीय
है जिसके
अनुसार वादी
यह अभिवचन
और प्रमाण
देना चाहिये
कि उसे
वाद ग्रस्त
परिसर की
सद्भावित
आवश्यकता
है और
उसके पास
वैकल्पिक
परिसर उपयुक्त
उपलब्ध नहीं
है।
यदि
वादी के
पुत्र ने
वाद लंबित
रहने के
दौरान कोई
नौकरी ज्वाइन
कर ली
है तो
मात्र इस
आधार पर
उसकी आवश्यकता
समाप्त नहीं
होती है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
हिन्दुस्तान
पेट्रोलियम
विरूद्ध कमल
व्ही. अग्रवाल,
2005 (3) एम.पी.एल.जे.
404 अवलोकनीय
है। साथ
ही न्याय
दृष्टांत
प्रताप राई
विरूद्ध
उत्तम चंद,
2003 (1) एम.पी.जे.आर.
एस.एन.
22 भी
इसी बारे
में है।
न्याय
दृष्टांत
पवन कुमार
विरूद्ध
हजारी लाल,
2003 (2) एम.पी.एच.टी.
118 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
वादी ने
उसके कथनों
में सद्भाविक
शब्दों का
प्रयोग नहीं
किया यह
उसके आवश्यकता
को खारिज
करने आधार
नहीं हो
सकता है।
वादी
ने गैर
आवासीय प्रयोजन
हेतु परिसर
किराये पर
दिया और
निष्कासन
चाहा यह
विचार नहीं
किया जा
सकता की
वादी के
पास एक
आवासीय परिसर
है जिसे
गैर आवासीय
परिसर में
बदला जा
सकता है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
सीताराम
विरूद्ध
विपिन चंद,
2003(2) एम.पी.एच.टी.
4़99
अवलोकनीय
है।
स्वत्व
का प्रश्न
13. निष्कासन
के मामले
में भूमि
स्वामी और
किरायेदार
के संबंध
देखने के
उद्देश्य
से स्वत्व
का प्रश्न
देखा जाता
है इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
रमेश चन्द्र
विरूद्ध कमल
किशोर, 2011 (3) एम.पी.एच.टी.
124, बाबू
लाल विरूद्ध
देवी जानकी,
1985 एम.पी.डब्ल्यू.एन.
एस.एन.
46 एवं
श्रीमती
सुशीला देवी
विरूद्ध खलिल
अहमद, 2011 (3) एम.पी.एच.टी.
387 अवलोकनीय
है।
14. न्याय
दृष्टांत
सबीर मोहम्मद
विरूद्ध मगन
लाल, आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
1243 में
यह प्रतिपदित
किया गया
है कि
भूस्वामी व
किरायेदार
के संबंध
में साबित
होने के
अभाव में
हक के
आधार पर
बेदखली की
डिक्री दी
जा सकती
है यह
न्याय दृष्टांत
भगवती प्रसाद
विरूद्ध
चन्द्रामूल, ए.आई.आर.
1966 एस.सी.
735 चार
न्यायमूर्तिगण
की पीठ
पर आधारित
है।
15. न्याय
दृष्टांत
श्रीमती
सुलोचना
विरूद्ध
राजेन्द्र
सिंह, ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
2611 में
भू-स्वामी
विधवा ने
कई आधारों
पर निष्कासन
का वाद
पेश किया
उसके ऐसे
अभिवचन नहीं
है कि
वह किसी
विशिष्ठ
भू-स्वामी
की हैसियत
से वाद
ला रही
है जैसा
की धारा
23 जे
में उल्लेखित
है ऐसे
में वाद
सिविल न्यायालय
प्रचलन योग्य
है विशेषतः
जब वादी
का स्वत्व
भी विवादित
हो।
16. किरायेदारी
के परिसर
का एक
भाग किरायेदार
के एक
वेध प्रतिनिधि
ने खरीद
लिया ऐसे
में धारा
111 डी
संपत्ति
अंतरण अधिनियम
के तहत
किरायेदारी
समाप्त नहीं
होगी क्योंकि
सभी किरायेदारों
ने संपत्ति
नहीं खरीदी
है और
एक वेध
प्रतिनिधि
के संपत्ति
का एक
भाग खरीदा
है ऐसे
में किरायेदारी
जारी रहेगी
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
हमिदा बेगम
विरूद्ध
श्रीमती चंपा
बाई, आई.एल.आर.
2009 एम.पी.
2378 डीबी
अवलोकनीय
है।
16. न्याय
दृष्टांत
राम पुकार
सिंह विरूद्ध
भीमसेन, 2006 (1) एम.पी.एल.जे.
381 में
प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 12
(1) (ई)
एवं
(एफ)
के
मामलों में
स्वामित्व
का प्रमाण
किस स्तर
का होना
चाहिये
धारा
12 (1) (जी)
अधिनियम
के बारे
में
(जी)
वह
स्थान मानव
निवास के
लिये असुरक्षित
या अनुपयुक्त
अर्थात अनसेफ
या अनफिट
हो गया
है और
मरम्मत करवाने
के लिये
सद्भावना
पूर्वक
आवश्यकता
है मरम्मत
उस स्थान
को खाली
कराये बिना
नहीं करवाई
जा सकती
है।
इस
आधार पर
विचार करते
समय धारा
18 के
प्रावधान
भी ध्यान
में रखना
होते है।
धारा 18
मरम्मत
तथा पुनिर्माण
के लिये
कब्जे के
पुनः प्राप्ति
एवं उसमें
पुनः प्रवेश
(1) धारा
12 की
उपधारा (1)
(जी) या
(एच)
में
उल्लेखित
आधारों पर
कोई आदेश
करते समय
न्यायालय
किरायेदार
से यह
निश्चित
करेगा की
वह उस
स्थान या
उसके भाग
का जिससे
की उसे
निष्काषित
किया जाना
है उसके
अधिभोग में
रखे जाने
का निर्वाचन
करता है
और यदि
किरायेदार
ऐसा निर्वाचन
करता है
तो न्यायालय
निर्वाचन
संबंधी तथ्य
को आदेश
में अभिलिखित
करेगा और
वह तारीख
विनिर्दिष्ट
करेगा जिस
तारीख को
या उसके
पूर्व किरायेदार
कब्जा परिदत्त
कर देगा
ताकि भूमि
स्वामी मरम्मत
या निर्माण
या पुनिर्माण
का कार्य
प्रारंभ कर
सके।
(2) यदि
किरायेदार
आदेश में
विनिर्दिष्ट
तारीख को
या उसके
पूर्व कब्जा
दे देता
है तब
भू-स्वामी
मरम्मत या
निर्माण या
पुननिर्माण
का कार्य
पूरा हो
जाने पर
किरायेदार
को उस
स्थान का
या उसके
किसी भाग
का अभिभोग
कार्य के
पूरा हो
जाने के
1 माह
के भीतर
दे देगा।
(3) यदि
आदेश में
विनिर्दिष्ट
की गई
तारीख को
या उसके
पूर्व किरायेदार
द्वारा कब्जा
दे देने
के बाद
भू-स्वामी
मरम्मत या
निर्माण या
पुनिर्माण
का कार्य
विनिर्दिष्ट
की गई
तारीख के
1 माह
के भीतर
प्रारंभ नहीं
करता है
या युक्तियुक्त
समय के
भीतर कार्य
पूरा नहीं
करता है
या कार्य
पूरा कर
लेने पर
किरायेदार
को उक्त
अनुसार अभिभोग
नहीं देता
है तो
न्यायालय
किरायेदार
द्वारा विहित
समय के
भीतर आवेदन
करने पर
भू-स्वामी
को यह
आदेश दे
सकेंगे की
किरायेदार
को उस
स्थान या
उस भाग
का अधिभोग
दे या
ऐसा प्रतिकर
दे जो
न्यायालय
नियत करे।
धारा
12 (1) (एच)
अधिनियम
के बारे
में
(एच)
उस
स्थान की
भूमि स्वामी
को सद्भावना
आवश्यकता
स्थान के
निर्माण या
पुनः निर्माण
या उसमें
कोई सारवान
वृद्धि या
परिवर्तन
के प्रयोजन
के लिये
है जो
कि उस
स्थान को
खाली करवाये
बिना नहीं
हो सकता
है।
धारा
12 (7) के
अनुसार इस
आधार पर
निष्कासन
नहीं किया
जायेगा जब
तक कि
न्यायालय
को यह
समाधान न
हो जाये
कि प्रस्तावित
पुर्ननिर्माण
से उस
प्रयोजन में
जिसके लिये
वह स्थान
किराये पर
दिया गया
था आमूल
परिवर्तन
नहीं होगा
या उक्त
आमूल परिवर्तन
लोक हित
में है
और ऐसे
पुर्ननिर्माण
के प्लान
व स्टीमेट
उचित रूप
से तैयार
है और
भूमि स्वामी
के पास
उस प्रयोजन
के लिये
आवश्यक फण्ड
भी उपलब्ध
है।
धारा
18 जिसका
की उपर
उल्लेख किया
गया है
उसके प्रावधान
भी इस
आधार के
निष्कासन
के समय
ध्यान में
रखने होते
है।
वादी
के लिये
यह आवश्यक
नहीं है
कि वह
इस बारे
मंे अभिवचन
करे की
उसके पास
प्लान स्टीमेट
और फण्ड
उपलब्ध है
वादी साक्ष्य
की स्टेज
पर भी
न्यायालय
को इस
बारे में
संतुष्ट कर
सकता है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
श्रीनाथ सेठ
विरूद्ध
श्रीमती
उमादेवी, 2004 (4) एम.पी.एच.टी.
412 अवलोकनीय
है।
धारा
12 (1) (एच)
अधिनियम
के बारे
में वैधानिक
स्थिति
1. न्याय
दृष्टांत
सैयद जमील
अब्बाश विरूद्ध
मोहम्मद
यमीन, ए.आई.आर.
2004 एस.सी.
3683 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
वाद ग्रस्त
परिसर के
पुनःनिर्माण
के आधार
पर निष्कासन
के मामले
में न्यायालय
ने वादी
को परिसर
के पुर्ननिर्माण
व किरायेदार
के पुनः
प्रवेश का
प्रस्ताव
पेश करने
के लिये
1 वर्ष
का समय
दिया भू-स्वामी
ने उक्त
दायित्व में
व्यतिक्रम
किया। किरायेदार
जिस दर
से किराये
देता था
उस दर
से प्रतिकर
पाने का
पात्र है
3000 रूपये
प्रतिमाह
की दर
से प्रतिकर
बिना किसी
समर्थन कारी
प्रमाण के
उचित नहीं
माना गया।
यह
भी प्रतिपादित
किया गया
कि प्रतिकर
1 वर्ष
की अवधि
समाप्त होने
से मकान
मालिक द्वारा
पुनः र्निमित
मकान में
किरायेदार
को पुनः
प्रवेश का
प्रस्ताव
करने तक
दिलवाया जा
सकता है।
2. न्याय
दृष्टांत
श्याम लाल
विरूद्ध रतन
लाल, ए.आई.आर.
1991 एस.सी.
353 तीन
न्यायमूर्तिगण
की पीठ
में यह
प्रतिपादित
किया है
कि धारा
12 (1) (एच)
के
आधार पर
निष्कासन
के वाद
में ऐसा
निष्कर्ष
जरूरी नहीं
है कि
परिसर जीर्णसीर्ण
अवस्था में
है इस
न्याय दृष्टांत
में यह
भी बतलाया
गया है
कि इस
आधार के
निष्कासन
में कौन
से तथ्य
देखना चाहिये।
3. न्याय
दृष्टांत
राघेश्याम
विरूद्ध
कल्याणमल, ए.आई.आर.
1985 एस.सी.
139 में
वाद मुख्य
रूप से
वादी की
वाद ग्रस्त
परिसर की
गैर अवासीय
प्रयोजन के
लिये आवश्यकता
पर आधारित
था जिसमें
पुर्ननिर्माण
का आधार
भी था
ऐसे में
धारा 18
आकर्षित
न होना
माना गया।
4. न्याय
दृष्टांत
श्री प्रताप
राघवजी भगवान
विराजमान
मंदिर विरूद्ध
श्रीमती
कृष्णा, आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
1063 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
धारा 12
(1) (एच)
के
तहत डिक्री
में किरायेदार
ने परिसर
खाली कर
दिया डिक्री
धारी ने
मकान निर्माण
किया किरायेदार
ने धारा
18 (3) का
आवेदन पुनः
प्रवेश के
लिये दिया
जो स्वीकार
किया गया
निष्पादन
न्यायालय
डिक्री के
शर्तो के
बाहर नहीं
जा सकते
लेकिन ऐसा
पुनः प्रवेश
डिक्री के
शर्तो के
अधीन माना
गया।
5. जहां
मकान मालिक
ने धारा
12 (1) (ई)
तथा
धारा 12
(1) (एच)
दोनों
आधारों पर
निष्कासन
चाहा है
और उसने
सद्भाविक
आवश्यकता
निवास बावत्
प्रमाणित
कर दी
हो तब
धारा 12
(7) एवं
धारा 18
के
लागू होने
का प्रश्न
नहीं रहेगा
लेकिन जहां
आवासीय
आवश्यकता
प्रमाणित
नहीं हुई
हो तब
न्यायालय
धारा 12
(1) (एच)
के
आधार के
साथ-साथ
धारा 12
(7) एवं
धारा 18
पर
विचार करते
है। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
तारा देवी
गुप्ता विरूद्ध
डाॅ. दीपक
जैन, 2009 (1) एम.पी.जे.आर.
209 अवलोकनीय
है।
धारा
12 (1) (आई)
अधिनियम
के बारे
में
(आई)
किरायेदार
ने इस
अधिनियम के
प्रारंभ होने
के पूर्व
या पश्चात्
कोई ऐसा
स्थान बना
लिया है
व उसका
रिक्त आधिपत्य
प्राप्त कर
लिया है
या स्थान
उसे आबंटित
कर दिया
गया है
जो उसके
निवास के
लिये उपयुक्त
है।
वादी
के लिये
यह आवश्यक
नहीं है
कि वह
इस बारे
में अभिवचन
करें कि
प्रतिवादी
ने जो
स्थान बना
लिया है
या प्राप्त
कर लिया
है वह
उसके लिये
उपयुक्त है
लेकिन इस
बारे में
प्रमाण देना
आवश्यक है
की उक्त
स्थान प्रतिवादी
के लिये
उपयुक्त है
इस संबंध
में उक्त
न्याय दृष्टांत
जमुना देवी
विरूद्ध
सुशीला बाई,
2011 (2) एम.पी.एल.जे.
70 अवलोकनीय
है।
प्रतिवादी
का उपयुक्त
आवास प्राप्त
कर लेना
पर्याप्त
है यह
विधि में
आवश्यक नहीं
है कि
प्रतिवादी
उसका स्वामी
भी हो।
देखे जगदीश
विरूद्ध
सावलदास 2011
(3) एम.पी.एच.टी.
294।
12 (1) (जे)
अधिनियम
के बारे
में
(जे)
स्थान
किरायेदार
को निवास
स्थान के
रूप में
उपयोग के
लिये किराये
पर इस
कारण दिया
गया था
कि वह
उस भूमि
स्वामी की
सेवा या
नियोजन में
था और
वह किरायेदार
इस अधिनियम
के प्रारंभ
होने के
पूर्व या
पश्चात् ऐसी
सेवा या
नियोजन में
नहीं रह
गया है।
धारा
12 (8) के
अनुसार यदि
किसी सक्षम
प्राधिकारी
के समक्ष
यह विवाद
लंबित हो
कि क्या
किरायेदार
भू-स्वामी
की सेवा
या नियोजन
में नहीं
रह गया
है तब
इस आधार
पर निष्कासन
नहीं किया
जायेगा।
धारा
12 (1) (के)
अधिनियम
के बारे
में
(के)
किरायेदार
ने इस
अधिनियम के
प्रारंभ होने
के पूर्व
या पश्चात
उस स्थान
को सारवान
नुकसान
पहुंचाया
है या
पहुंचाने
दिया है।
धारा
12 (9) के
अनुसार यदि
किरायेदार
न्यायालय
द्वारा
विनिर्दिष्ट
समय के
भीतर नुकसान
की मरम्मत
न्यायालय
के समाधान
योग्य करा
देता है
या न्यायालय
द्वारा
निर्देशित
रकम भू-स्वामी
को प्रतिकर
के रूप
में दे
देता है
तब इस
आधार पर
निष्कासन
नहीं किया
जायेगा।
धारा
12 (1) (एल)
अधिनियम
के बारे
में
(एल)
किरायेदार
ने उस
स्थान को
छोड़ने की
लिखित सूचना
दे दी
है, उस
सूचना के
फलस्वरूप
भूमि स्वामी
को उस
स्थान को
बेचने की
ऐसी संविदा
कर ली
है या
ऐसी अन्य
कार्यवाही
कर ली
है कि
यदि भू-स्वामी
को उस
स्थान का
कब्जा नहीं
दिया जाता
है तो
उसके हितों
को गंभीर
हानि पहंुचेगी।
धारा
12 (1) (एम)
अधिनियम
के बारे
में
(एम)
किरायेदार
ने भू-स्वामी
की लिखित
अनुमति के
बिना ऐसा
निर्माण किया
है या
किया जाने
दिया है
जिसके कारण
उस स्थान
में ऐसा
तात्विक
परिवर्तन
हो गया
है जो
भूमि स्वामी
के हितों
के लिये
अपाय कर
या डेटरमेन्ट
है या
जिसके कारण
उस स्थान
के मूल्य
में सारभूत
कमी होना
संभाव्य है।
धारा
12 (10) के
अनुसार यदि
किरायेदार
न्यायालय
द्वारा बतलाये
समय में
स्थान को
मूलदशा में
प्रत्यावर्तित
कर देता
है या
न्यायालय
द्वारा
निर्धारित
प्रतिकर
भू-स्वामी
को अदा
कर देता
है तब
इस आधार
पर निष्कासन
नहीं किया
जायेगा।
न्याय
दृष्टांत
मनीषा ललवानी
विरूद्ध डाॅ.
डी.बी.
पाॅल,
2007 (2) एम.पी.एल.जे.
52 इस
संबंध में
अवलोकनीय
है जिसमें
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
अस्थायी
प्रकार का
निर्माण यह
नहीं माना
जायेगा की
परिसर में
तात्विक
परिवर्तन
किया गया
है।
न्याय
दृष्टांत
भवरी बाई
विरूद्ध केशर
बाई, 2005 (1) एम.पी.डब्ल्यू.एन.
96 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
इस आधार
पर अज्ञाप्ति
देते समय
धारा 12
(10) के
प्रावधानों
को ध्यान
में रखना
चाहिये और
किरायेदार
को समय
दिया जाना
चाहिये।
धारा
12 (1) (एन)
अधिनियम
के बारे
में
(एन)
यदि
स्थान खुली
भूमि है
वहां भूमि
स्वामी को
मकान बनाने
के लिये
उसकी आवश्यकता
है।
धारा
12 (1) (ओ)
अधिनियम
के बारे
में
(ओ)
किरायेदार
ने भू-स्वामी
के लिखित
अनुमति के
बिना उस
स्थान के
ऐसे भाग
या भागों
पर भी
कब्जा कर
लिया है
जो कि
उसके किराये
पर दिये
गये स्थान
में शामिल
नहीं है
और भू-स्वामी
द्वारा लिखित
सूचना देने
पर भी
खाली नहीं
किया है।
धारा
12 (11) के
अनुसार यदि
किरायेदार
न्यायालय
द्वारा नियत
समय में
उस स्थान
या स्थानों
को खाली
कर देता
है जो
उसे किराये
पर नहीं
दिये गये
थे और
न्यायालय
द्वारा
निर्धारित
प्रतिकर की
राशि भू-स्वामी
को दे
देता है
तो इस
आधार पर
निष्कासन
नहीं होगा।
धारा
12 (1) (पी)
अधिनियम
के बारे
में
(पी)
किरायेदार,
तत्समय
प्रवृत्त
किसी विधि
के अधीन
उस भवन
का अनैतिक
या अवैध
प्रयोजनों
के लिये
उपयोग करने
या उपयोग
किये जाने
की अनुज्ञा
देने के
अपराध का
सिद्धदोष
ठहराया जा
चुका है।
समझौते
के बारे
में
न्याय
दृष्टांत
रोशन लाल
विरूद्ध मदन
लाल ए.आई.आर.
1975 एस.सी.
2130 तीन
न्यायमूर्तिगण
की पीठ
के न्याय
दृष्टांत
में यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
म0प्र0
स्थान
नियंत्रण
के मामले
में समझौता
पेश होने
पर न्यायालय
का यह
कत्र्तव्य
है कि
वह यह
देखे की
धारा 12
(1) का
कोई आधार
बतलाया है
या नहीं
किरायेदार
को अधिनियम
में जो
संरक्षण दिया
है समझौते
में उसका
उल्लघंन तो
नहीं हो
रहा है
यदि वैधानिक
अनुबंध हो
तभी समझौता
अभिलिखित
करना चाहिये।
न्याय
दृष्टांत
कमल कुमार
जैन विरूद्ध
बाबीलता जैन,
2007 (1) एम.पी.एल.जे.
532 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
लोक अदालत
में निष्कासन
के मामले
में समझौता
हो वाद
इस शर्त
पर डिक्री
किया गया
कि मकान
मालिक किरायेदार
को 188000
रूपये
देगा ऐसा
समझौता धारा
6 के
विरूद्ध और
लोक निति
के विरूद्ध
माना गया
और पक्षकारों
पर ऐसा
समझौता
बंधनकारी न
होना प्रतिपादित
किया गया।
उप
किरायेदार
के बारे
में
धारा
12 (2) के
तहत धारा
12 (1) के
अधीन किसी
कार्यवाही
में किरायेदार
के निष्कासन
के लिये
कोई आदेश
धारा 15
में
निर्दिष्ट
किये गये
किसी उप
किरायेदार
पर, जिसने
की अपनी
उप किरायेदारी
की सचूना
भू-स्वामी
को उस
धारा के
उपबंधों के
अधीन दे
दी हो,
तब
तक आबद्व
कर नहीं
होगा जब
तक की
उस उप
किरायेदार
को उस
कार्यवाही
का पक्षकार
न बनाया
जाये और
बेदखली का
आदेश उस
पर आबद्व
कर न
बनाया जाये।
इस
तरह धारा
15 में
उल्लेखित
प्रकार से
यदि उप
किरायेदारी
गठित है
तब ऐसे
उप किरायेदार
को पक्षकार
बनाना आवश्यक
है और
उस पर
निष्कासन
का आदेश
आबद्व कर
बनाना भी
आवश्यक है।
विविध
तथ्य
1. यदि
मकान मालिक
ने उसके
सूचना पत्र
में निष्कासन
के एक
आधार को
न लिखा
हो तो
मात्र इस
आधार पर
उसका वाद
खारिज नहीं
किया जा
सकता। वादी
और उसके
पुत्र ने
यह कथन
किये की
उसके पास
कोई वैकल्पिक
आवास नहीं
है प्रतिवादी
यह प्रमाणित
करने में
असफल रहा
कि वादी
के पास
वैकल्पिक
आवास है
जो कोई
किसी तथ्य
को सकारात्मक
रूप से
बताता है
उस पर
उस तथ्य
का प्रमाण
भार होता
है विचारण
न्यायालय
ने वादी
पर प्रमाण
भार डाल
कर त्रुटि
की है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
मोहम्मद
स्माईल विरूद्ध
सिकंदर आजाद,
आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
992 अवलोकनीय
है।
2. किरायेदार
को वाद
ग्रस्त परिसर
क्रय करने
का अग्र-क्रयाधिकार
नहीं होता
है यदि
कोई व्यक्ति
किसी परिसर
में किरायेदार
की हैसियत
से प्रवेश
करता है
तो वह
हमेशा किरायेदार
रहता है
जब तक
की पक्षकारों
के मध्य
कोई अभिव्यक्त
संविदा उनके
आचरण के
आधार पर
न हो
गई हो।
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
मूलचंद रजक
विरूद्ध
एस.पी.
कपूर,
आई.एल.आर.
2010 एम.पी.
2582 अवलोकनीय
है।
3. गैर
आवासीय परिसर
के निष्कासन
के मामले
में वादी
का पक्ष
यह था
कि वाद
ग्रस्त दुकान
प्रतिवादी
ने उसके
पिता से
किराये पर
ली है
और दुकान
बाद में
हुये विभाजन
में उसे
मिली है
इसलिये वह
दुकान का
स्वामी और
भू-स्वामी
हो गया
है साक्ष्य
के दौरान
वादी ने
विभाजन की
अज्ञाप्ति
की प्रमाणित
प्रतिलिपि
प्रस्तुत
की प्रतिवादी
ने उसकी
ग्राहयता
पर आपत्ति
की कि
मुद्रांक
और पंजीकरण
का अभाव
में दसतावेज
ग्राह्यय
नहीं है
विचारण
न्यायालय
ने आपत्ति
का निराकरण
नहीं किया
और वाद
आज्ञाप्त
कर दिया
इसे उचित
नहीं माना
गया। इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
महेश कुमार
गोयल विरूद्ध
विरेन्द्र
कुमार दोषी,
2010 (1) एम.पी.एल.जे.
135 अवलोकनीय
है।
इस
न्याय दृष्टांत
में माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
के न्याय
दृष्टांत
जवेर चंद
विरूद्ध
पुखराज सुराना,
ए.आई.आर.
1961 एस.सी.
1655 का
उल्लेख किया
गया है
जिसमें यह
प्रतिपादित
किया गया
है कि
यदि किसी
दस्तावेज
की ग्राह्यता
के बारे
में इस
आधार पर
आपत्ति ली
जाये की
वह स्टाॅम्प
पर नहीं
है या
पर्याप्त
स्टाम्प पर
नहीं है
तब जैसे
ही दस्तावेज
साक्ष्य में
टेण्डर किया
जाता है
उसी समय
उस आपत्ति
का निराकरण
किया जाना
चाहिये।
इसी
न्याय दृष्टांत
में एक
अन्य न्याय
दृष्टांत
शेख सत्तार
विरूद्ध
गण्डाप्पा
अम्बा दास,
बुखते
(1996) 6 एस.सी.सी.
1973 का
भी उल्लेख
आया है
जिसमें यह
कहां गया
है कि
किरायेदार
को यह
अधिकार है
कि वह
यह अभिवाक
ले सके
की विभाजन
जो वादी
मकान मालिक
द्वारा बतलाया
गया है
वह एक
सेम ट्रांजेक्शन
है और
केवल निष्कासन
पाने के
लिये किया
गया है
ऐसे में
वादी के
लिये यह
आवश्यक होगा
की वह
विभाजन विधिवत
प्रमाणित
करे।
4. वादी
ने निष्कासन
के दो
नये आधार
जोड़ने का
संशोधन आवेदन
दिया प्रतिवादी
ने आपत्ति
ली की
वाद दिनांक
को ये
आधार उपलब्ध
नहीं थे
विचारण
न्यायालय
को ऐसा
संशोधन स्वीकार
करने का
अधिकार है
प्रतिवादी
के आपत्ति
का परीक्षण
और निराकरण
करना भी
विचारण
न्यायालय
का कत्र्तव्य
है संशोधन
स्वीकार किया
गया इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
जोगेन्द्र
सिंह विरूद्ध
विरेन्द्र, 2008 (1)
एम.पी.एल.जे.
584 अवलोकनीय
है। संशोधन
के संबंध
में न्याय
दृष्टांत
सुधीर झा
विरूद्ध
श्रीमती
कृष्णा, 2008 (1) एम.पी.एल.जे.
396 भी
अवलोकनीय
है।
5. किरायेदार
ने वाद
ग्रस्त मकान
11 माह
के लिये
किराये पर
लिया किराया
चिट्टी
निष्पादित
की गई
समय बीत
जाने के
बाद में
किरायेदार
उसी परिसर
में उन्हीं
शर्तो पर
किराये से
रहा नई
किराये चिट्टी
निष्पादित
नहीं की
गई यह
प्रतिपादित
किया गया
कि संविदात्मक
किरायेदारी
के समाप्त
हो जाने
के बाद
भी किरायेदार
वैधानिक
किरायेदार
रहेगा इस
न्याय दृष्टांत
मंे यह
भी प्रतिपादित
किया गया
की किरायेदार
वाद अपील
या अन्य
कार्यवाही
में धारा
12 के
अनुसार
निष्कासन
के मामले
में अवशेष
किराया जमा
करवाने के
लिये और
आगे का
किराया जमा
करवाने के
लिये बाध्य
है अन्यथा
उसका बचाव
समाप्त किया
जा सकता
है। रूकमणी
बाई विरूद्ध
रामदयाल, 2008 (2) एम.पी.एल.जे.
457 अवलोकनीय
है।
6. न्याय
दृष्टांत
करण लाल
विरूद्ध
सरदार हाउस
जबलपुर, 2008 (2) एम.पी.एच.टी.
168 में
यह प्रतिपादित
किया गया
है कि
निष्कासन
के मामले
में स्वामित्व
को स्वत्व
के मामलों
की तरह
प्रमाणित
करने की
आवश्यकता
नहीं होती
है।
7. निष्कासन
की अज्ञाप्ति
मकान मालिक
के पक्ष
में दी
गई मकान
मालिक की
मृत्यु हो
जाने के
बाद विल
के अधीन
संपत्ति
प्राप्त करने
वाले उस
डिक्री का
निष्पादन
करवा सकते
है यदि
संपत्ति
म.प्र.
में
स्थित है
तब प्रोबेट
लेने की
आवश्यकता
नहीं है
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
गोरी भाउ
विरूद्ध
गोपाल दास,
2008 (2) एम.पी.एल.जे.
333 अवलोकनीय
है।
8. वादी
ने फर्म
को परिसर
किराये पर
दिया था
फर्म या
उसके भागीदारों
को पक्षकार
नहीं बनाया
ऐसे में
वादी के
पक्ष में
डिक्री नहीं
दी जा
सकती क्योंकि
किरायेदारी
भागीदारी
फर्म के
पक्ष में
थी और
उसके सभी
भागीदारों
को पक्षकार
नहीं बनाया
था वाद
चलने योग्य
नहीं पाया
गया इस
संबंध में
न्याय दृष्टांत
बाबूलाल
विरूद्ध राम
प्रकाश, आई.एल.आर.
2008 एम.पी.
2646 अवलोकनीय
है।
9. वादी
ने विभिन्न
आधारों पर
निष्कासन
का वाद
पेश किया
जिसमें धारा
12 (1) (ओ)
का
भी आधार
था जिसके
लिये अतिरिक्त
न्याय शुल्क
नहीं दिया
गया था
और अतिरिक्त
न्याय शुल्क
देना धारा
7 (11) न्याय
शुल्क अधिनियम
के तहत
आवश्यक नहीं
माना गया
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
पंडरी नाथ
विरूद्ध
रूकमणी बाई,
2006 (1) एमपीएलजे.
338 अवलोकनीय
है।
9ए.
किराया
रसीद, विक्रय
पत्र व
विक्रय करार
तीन दस्तावेज
अभिलेख पर
थे अपील
न्यायालय
ने उनका
मूल्यांकन
कर निष्कर्ष
दिया की
मकान मालिक
किरायेदार
से संबंध
स्थापित नहीं
होता यह
लोन या
ऋण का
व्यवहार है।
इस संबंध
में न्याय
दृष्टांत
गुलाब चंद
विरूद्ध
बाबूलाल, 1998 (1) जे.एल.जे.
1 (एस.सी.)
एवं
मिश्रिलाल
विरूद्ध
सुखराम, ए.आई.आर.
2011 एम.पी.
143 अवलोकनीय
हैं।
10. परिसीमा
अधिनियम, 1963 अनुच्छेद
52 के
तहत बकाया
किराया वसूली
का वाद
जब बकाया
देय या
कनम होता
हैं तब
से तीन
वर्ष के
भीतर पेश
किया जा
सकता हैं।
11. परिसीमा
अधिनियम, 1963 अनुच्छेद
67 के
अनुसार
किरायेदारी
समाप्त होने
से 12
वर्ष
के भीतर
निष्कासन
का वाद
पेश किया
जा सकता
हैं।
12. 7 ;गपद्ध
न्यायालय
फीस अधिनियम,
1870 के
तहत इन
वादों में
वाद प्रस्तुती
के ठीक
पूर्व के
वर्ष के
वार्षिक
किराये के
आधार पर
वाद का
मूल्यांकन
कर न्याय
शुल्क दी
जाती हैं।
म0प्र0
स्थान
नियंत्रण
अधिनियम, 1961 के
वाद प्रश्न
इन
मामलों में
मुख्य रूप
से वाद
की प्रकृति
को देखते
हुये निम्न
लिखित वाद
प्रश्न विरचित
किये जाते
है जो
एक आदर्श
वाद प्रश्न
के रूप
में प्रत्येक
मामले में
बनाये जा
सकते है
संबंधित
निष्कासन
के आधारों
को ध्यान
में रखते
हुये वाद
प्रश्न बनाना
चाहिये कुछ
आदर्श वाद
प्रश्न निम्न
प्रकार से
हैः-
धारा
12 (1) (ए)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
1. क्या
प्रतिवादी
वादी का
वाद ग्रस्त
परिसर में
................ रूपये
प्रतिमाह
की दर
से मासिक
किरायेदार
है ?
2. क्या
प्रतिवादी
ने मांग
सूचना पत्र
की तामील
के दो
माह के
भीतर वैध
रूप से
वसूली योग्य
अवशेष किराया
वादी को
अदा या
निविदा नहीं
किया है
?
3. क्या
प्रतिवादी
ने वाद
पत्र के
सूचना पत्र
की तामील
के एक
माह के
भीतर वैध
रूप से
वसूली योग्य
अवशेष किराया
वादी को
अदा या
न्यायालय
में जमा
नहीं किया
है ?
या
क्या
प्रतिवादी
ने धारा
13 (1) म.प्र.
स्थान
नियंत्रण
अधिनियम, 1961 के
प्रावधानों
का पालन
नहीं किया
हैं ?
धारा
12 (1) (बी)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
4. क्या
प्रतिवादी
ने वाद
ग्रस्त परिसर
या उसके
एक भाग
को उप
किराये पर
दे दिया
है या
अन्यथा उसका
आधिपत्य छोड़
दिया है
?
धारा
12 (1) (सी)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
5. क्या
प्रतिवादी
ने या
उसके साथ
निवास करने
वाले किसी
व्यक्ति ने
न्यूसेन्स
पैदा की
है ?
6. क्या
प्रतिवादी
ने वादी
के वाद
ग्रस्त परिसर
के स्वत्वों
से इंकार
किया है
?
धारा
12 (1) (डी)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
7. क्या
प्रतिवादी
ने युक्तियुक्त
कारण के
बिना वाद
ग्रस्त परिसर
का लगातार
6 माह
से किरायेदारी
के प्रयोजन
से उपयोग
नहीं किया
है ?
धारा
12 (1) (इ)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
8. क्या
वादी को
वाद ग्रस्त
परिसर की
अपने स्वयं
के या
अपने कुटुम्ब
के सदस्य
एक्स के
निवास के
लिए सद्भावना
पूर्वक
आवश्यकता
है ?
9. क्या
कथित शहर
या कस्बे
में वादी
के पास
उक्त प्रयोजन
के लिए
युक्तियुक्त
रूप से
उपयुक्त अन्य
रिक्त स्थल
नहीं है
?
धारा
12 (1) (एफ)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
10. क्या
वादी को
वाद ग्रस्त
परिसर की
अपने स्वयं
के या
अपने वयस्क
पुत्र एक्स
के या
अविवाहित
पुत्री वाय
के कारोबार
को चालू
रखने या
प्रारंभ करने
के लिए
सद्भावना
पूर्वक
आवश्यकता
है ?
11. क्या
कथित शहर
या कस्बे
में वादी
के पास
उक्त प्रयोजन
के लिए
युक्तियुक्त
रूप से
उपयुक्त अन्य
रिक्त स्थल
नहीं है
?
धारा
12 (1) (जी)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
12. क्या
वाद ग्रस्त
परिसर मानव
निवास के
लिए असुरक्षित
या अनुपयुक्त
हो गया
है और
उसे रिक्त
कराये बिना
उसकी मरम्मत
नहीं हो
सकती है
?
13. क्या
वादी को
वाद ग्रस्त
परिसर की
उक्त मरम्मत
के लिए
सद्भावना
पूर्वक
आवश्यकता
है ?
धारा
12 (1) (एच)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
14. क्या
वादी को
वाद ग्रस्त
परिसर की
उसके निर्माण
या पुर्ननिर्माण
के लिए
सद्भावना
पूर्वक
आवश्यकता
है ?
15. क्या
उक्त निर्माण
या पुर्ननिर्माण
वाद ग्रस्त
परिसर के
रिक्त करवाये
बिना नहीं
हो सकता
है ?
16. क्या
वादी के
पास ऐसी
मरम्मत और
पुर्ननिर्माण
के प्लान
और स्टीमेट
तैयार है
और उसके
पास मरम्मत
या निर्माण
के लिए
निधि भी
है ?
17. क्या
उक्त मरम्मत
या निर्माण
से वाद
ग्रस्त परिसर
में आमूल
परिवर्तन
नहीं होगा
या आमून
परिवर्तन
लोक हित
में है
?
धारा
12 (1) (आई)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
18. क्या
प्रतिवादी
ने उसके
निवास के
लिए उपयुक्त
आवास बना
लिया है
और उसका
कब्जा प्राप्त
कर लिया
है ?
19. क्या
प्रतिवादी
को उसके
निवास के
लिए उपयुक्त
आवास आबंटित
कर दिया
गया है?
धारा
12 (1) (जे)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
20. क्या
प्रतिवादी
को वाद
ग्रस्त परिसर
वादी के
सेवा या
नियोजन में
रहने के
कारण निवास
स्थान के
रूप में
उपयोग के
लिए किराये
पर दिया
था ?
21. क्या
प्रतिवादी
वादी के
सेवा या
नियोजन में
अब नहीं
रहा है
?
धारा
12 (1) (के)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
22. क्या
प्रतिवादी
ने वाद
ग्रस्त परिसर
में सारवान
नुकसान किया
है या
सारवान नुकसान
होने दिया
है ?
धारा
12 (1) (एल)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
23. क्या
प्रतिवादी
ने वादी
को वाद
ग्रस्त परिसर
छोड़ने की
लिखित सूचना
दी थी
?
24. क्या
वादी ने
उक्त सूचना
प्राप्त होने
के बाद
वाद ग्रस्त
परिसर को
विक्रय करने
की संविदा
या वाद
ग्रस्त संविदा
कर ली
है ?
25. क्या
वादी को
वाद ग्रस्त
परिसर का
आधिपत्य नहीं
दिया गया
तो उसके
हितों को
गंभीर हानि
पहुंचेगी ?
धारा
12 (1) (एम)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
26. क्या
प्रतिवादी
ने वादी
की लिखित
अनुमति के
बिना वाद
ग्रस्त परिसर
में निर्माण
किया है
या किया
जाने दिया
है जिसके
कारण वाद
ग्रस्त परिसर
में तात्विक
परिवर्तन
हो गया
है जो
वादी के
हितों के
प्रतिकूल
है या
जिसके कारण
वाद ग्रस्त
परिसर के
मूल्य में
तात्विक कमी
होना संभव
है ?
धारा
12 (1) (एन)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
27. क्या
वाद ग्रस्त
खुली भूमि
की वादी
को मकान
बनाने के
लिए आवश्यकता
है ?
धारा
12 (1) (ओ)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
28. क्या
वादी की
लिखित अनुमति
के बिना
प्रतिवादी
ने किराये
पर दिये
गये वाद
ग्रस्त परिसर
के अतिरिक्त
अन्य भागों
पर आधिपत्य
कर लिया
है ?
29. क्या
प्रतिवादी
ने वादी
के लिखित
सूचना के
बाद भी
उक्त अन्य
भागों को
रिक्त नहीं
किया है
?
धारा
12 (1) (पी)
अधिनियम
के वाद
प्रश्न
30. क्या
प्रतिवादी
ने वाद
ग्रस्त परिसर
का अनैतिक
या अवैध
उद्देश्य
के लिए
उपयोग किया
है या
उपयोग करने
की अनुमति
दी है
और इसके
लिए उसे
दोषसिद्ध
ठहराया जा
चुका है
?
(पी.के.
व्यास)
विशेष
कत्र्तव्यस्थ
अधिकारी
न्यायिक
अधि. प्रशिक्षण
एवं अनुसंधान
संस्थान
उच्च
न्यायालय
जबलपुर म.प्र.
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