व्यवहार
मामलों में
निर्णय एवं
आज्ञप्ति
के बारे
में
निर्णय
किसी भी
मामले का
अंतिम उत्पाद
या फाईनल
आउट पुट
होता हैं
निर्णय पारित
करना किसी
भी न्यायाधीश
के लिए
अति महत्वपूर्ण
कार्य होता
है और
उस न्यायाधीश
की पहचान
उसके निर्णय
से होती
हैं अतः
ऐसे प्रयास
किये जाना
चाहिए की
कोई भी
निर्णय बहुत
सावधानी
पूर्वक और
बहुत अच्छे
तरिके से
लिखा जावे
यहां हम
व्यवहार
मामलों में
निर्णय और
आज्ञप्ति
के बारे
में कुछ
महत्वपूर्ण
बिन्दुओं
के बारे
में चर्चा
करेंगे।
1. नियम
152 म0प्र0
सिविल
न्यायालय
नियम 1961,
जिसे
आगे केवल
नियम कहां
जायेगा, के
अनुसार निर्णय
फुल स्केप
कागज के
आधे पत्र
पर सुवाच्य
रूप से
लिखित या
टाईप किया
जाना चाहिए
और प्रत्येक
पन्ने के
सामने बाई
ओर और
पीछे दाहनी
ओर पन्ने
के तिहाई
भाग का
हाशिया या
मारजिंन
छोड़ना चाहिए।
प्रत्येक
निर्णय क्रमशः
पदों में
विभाजित किया
जाना चाहिए।
पदों या
पैराग्राफ
का उप
पदों या
सब पैरेग्राफ
में विभाजन
या अनावश्यक
रूप से
लंबे पैराग्राफ
नहीं होना
चाहिए टंकित
निर्णय की
स्थिति में
निर्णय के
प्रत्येक
पृष्ठ पर
न्यायाधीश
द्वारा
हस्ताक्षर
किये जायेंगे।
निर्णय
या उसका
कोई भी
भाग किसी
भी कागज
पर लिखे
जाने को
उच्च न्यायालय
द्वारा कड़ाई
से निरूत्साहित
किया गया
हैं।
इस
तरह नियम
152 के
अनुसार
प्रत्येक
निर्णय निर्णय
के कागज
या जजमेंट
पेपर पर
ही लिखा
या टंकित
किया जाना
चाहिए और
उसमें उक्त
अनुसार हाशिया
या मारजिंन
छोड़ा जाना
चाहिए।
निर्णय
के शीर्षक
के बारे
में
2. व्यवहार
मामले में
न्यायालय
के नाम
से शीर्षक
बनाया जाता
है पीठासीन
अधिकारी के
नाम से
नहीं बनाया
जाता है
जैसे:-
न्यायालय:-
प्रथम
व्यवहार
न्यायाधीश, वर्ग
- 2 जबलपुर।
न्यायालय:-
द्वितीय
व्यवहार
न्यायाधीश, वर्ग
- 1 इंदौर।
न्यायालय:-
तृतीय
अपर जिला
न्यायाधीश, भोपाल।
3. न्यायालय
के नाम
के नीचे
पीठासीन
अधिकारी का
नाम या
समक्ष लिखते
हुये पीठासीन
अधिकारी का
नाम लिखा
जाता है
जैसें:-
पीठासीन
अधिकारी:- एक्स.,
वाय.,
जेड
समक्ष:-
एक्स.,
वाय.,
जेड
4. इसके
बाद दाहनी
ओर प्रकरण
क्रमांक एवं
उसके नीचे
संस्थित
दिनांक का
उल्लेख किया
जाता हैं
जैसे:-
प्रकरण
क्रमांक 1ए
/2011
संस्थित
दिनांक
02.02.2011
5. इसके
बाद वादी
/वादीगण
के नाम,
पिता
का नाम,
उम्र,
व्यवसाय
व पूर्ण
पता लिखा
जाता हैं।
6. इसके
बाद प्रतिवादी
/प्रतिवादीगण
के नाम,
पिता
का नाम,
उम्र,
व्यवसाय
व पूर्ण
पता लिखा
जाता हैं।
7. पक्षकारों
के पूरे
नाम उनके
पिता के
नाम, उम्र,
व्यवसाय
और पूरा
पता शीर्षक
में अवश्य
आना चाहिए
ताकि निर्णय
से अपील
होने पर
उन पक्षकारों
का सूचना
पत्र तामील
में अनावश्यक
विलंब न
हो और
प्रत्येक
न्यायाधीश
को इन
विवरणों की
जांच कर
लेना चाहिए
की ये
सही रूप
से उल्लेखित
किये गये
हैं।
यदि
मामले में
राज्य भी
पक्षकार हो
तो शीर्षक
में म0प्र0
राज्य
शब्द लिखना
चाहिए म0प्र0
शासन
शब्द नहीं
लिखना चाहिए
इस संबंध
में संविधान
का अनुच्छेद
300 ध्यान
में रखना
चाहिए जिसके
तहत वाद
या अन्य
कार्यवाहिया
राज्य या
केन्द्र की
दशा में
भारत संद्य
के नाम
से होती
हैं
8. यदि
कोई पक्षकार
कार्यवाही
के दौरान
मृत हो
जाता है
और उसके
वेध प्रतिनिधि
अभिलेख पर
लिये जाते
है तब
मूल पक्षकार
का नाम
और विवरण
तथा उसके
सामने मृतक
द्वारा वेध
प्रतिनिधि
लिखते हुये
वेध प्रतिनिधियों
का पूर्ण
उल्लेख निर्णय
के शीर्षक
में करवाना
चाहिए ताकि
निर्णय का
शीर्षक देखते
ही यह
पता लग
सके की
मूल पक्षकार
कौन था
और उसके
वेध प्रतिनिधि
कौन हैं।
9. निर्णय
के प्रत्येक
पृष्ठ पर
पृष्ठ क्रमांक
व प्रकरण
क्रमांक का
उल्लेख अवश्य
करवाना चाहिए।
10. निर्णय
में उसे
घोषित करने
की तारीख,
माह
और वर्ष
अंकित करना
चाहिए जैसे:-
आज
दिनांक
02.02.2012 को
घोषित किया
गया।
निर्णय
के प्रथम
पैराग्राफ
के बारे
में
11. नियम
154 (3) के
अनुसार निर्णय
के प्रारंभिक
पदों में
संक्षिप्त
रूप से
वाद का
प्रकार बतलाया
जाना चाहिए
ताकि प्रारंभ
से ही
यह अनुमान
हो जाये
की किस
संबंध में
निर्णय है
और उसमें
क्या विषय
देखे जाने
हैं।
इस
पैराग्राफ
में वाद
का संक्षिप्त
प्रकार बतलाया
जाना चाहिए
जैसे:-
यह
वाद वादग्रस्त
परिसर से
प्रतिवादी
के निष्कासन
के लिए
धारा 12
(1) (ए)
(ई)
म0प्र0
स्थान
नियंत्रण
अधिनियम के
आधारों पर
तथा अवशेष
किराये की
वसूली के
लिए प्रस्तुत
किया गया
हैं।
यह
वाद अनुबंध
के विनिर्दिष्ट
पालन में
एवं स्थायी
निषेधाज्ञा
के लिए
पेश किया
गया हैं।
यह
वाद वचन
पत्र के
आधार पर
उधार दी
गई राशि
रूपये 1
लाख
और उस
पर ब्याज
की वसूली
के लिए
पेश किया
गया हैं।
यह
वाद वादग्रस्त
संपत्ति के
विभाजन, पृथक
आधिपत्य और
अंतरवर्ति
लाभ के
लिए पेश
किया गया
हैं।
यदि
किसी प्रतिवादी
ने प्रतिदावा
प्रस्तुत
किया हो
तो उसका
उल्लेख भी
और वह
प्रतिदावा
किस अनुतोष
के बारे
में है
उसका उल्लेख
भी इसी
पैराग्राफ
में करना
चाहिए।
निर्णय
के द्वितीय
पैराग्राफ
के बारे
में
12. नियम
154 (3) के
अनुसार एक
या दो
पदों में
स्वीकृत
तथ्यों का
उल्लेख किया
जाना चाहिए
जिन पर
की पक्षकारों
का विवाद
नहीं है
और जो
प्रकरण को
समझने के
लिए आवश्यक
हैं।
द्वितीय
पैराग्राफ
में ऐसे
स्वीकृत तथ्य
जो मामले
को समझने
के लिए
आवश्यक हो
और जिनसे
आगे की
विवेचना में
समय और
श्रम की
बचत हो
उनका उल्लेख
किया जाता
है प्रत्येक
स्वीकृत तथ्य
का उल्लेख
आवश्यक नहीं
है।
यदि
मामले में
कोई स्वीकृत
तथ्य न
हो तो
ऐसा लिखा
जाना भी
है आवश्यक
नहीं है
कि प्रकरण
में कोई
स्वीकृत तथ्य
नहीं हैं।
निर्णय
के तृतीय
पैराग्राफ
के बारे
में
13. नियम
154 (4) के
अनुसार इस
पद में
वाद पत्र
के तथ्यों
का उल्लेख
संक्षिप्त
रूप से
किया जाना
चाहिए ताकि
यह पता
लग सके
की वादी
का क्या
मामला है
लेकिन वाद
पत्र की
पूरी प्रतिलिपि
कर देना
उचित नहीं
हैं।
निर्णय
के पैराग्राफ
3 में
वाद पत्र
के संक्षिप्त
तथ्य लिखना
चाहिए उक्त
नियम के
अनुसार वाद
पत्र की
पूरी प्रतिलिपि
कर देना
उचित नहीं
है लेकिन
संक्षितप्ता
के साथ
यह भी
ध्यान रखना
चाहिए की
वादी का
मामला इस
पैराग्राफ
से स्पष्ट
रूप से
समझ में
आ जाना
जाना चाहिए
और कोई
तात्विक तथ्य
छूटना भी
नहीं चाहिए।
निर्णय
के चतुर्थ
पैराग्राफ
के बारे
में
14. नियम
154 (4) के
अनुसार इस
पद में
प्रतिवादी
के लिखत
कथन के
संक्षिप्त
तथ्य आते
है और
जहां एक
से अधिक
प्रतिवादी
हो और
उन्होंने
पृथक-पृथक
लिखित कथन
दिया हो
और उनके
बचाव भी
अलग-अलग
हो तब
प्रत्येक
प्रतिवादी
के लिखित
कथन का
अलग-अलग
उल्लेख कर
सकते हैं।
निर्णय
के पैराग्राफ
4 में
लिखित कथन
के संक्षिप्त
तथ्य का
उल्लेख किया
जाता हैं
यहां भी
यह ध्यान
रखना है
कि पूरे
लिखित कथन
को उतारना
नहीं है
और कोई
महत्वपूर्ण
प्रतिरक्षा
का उल्लेख
करना छूट
न जाये
इसका भी
ध्यान रखना
हैं।
यदि
किसी प्रतिवादी
ने प्रतिदावा
प्रस्तुत
किया हो
तो उसके
तथ्य अलग
पैराग्राफ
बनाकर लिखना
चाहिए साथ
ही प्रतिदावे
के उत्तर
के तथ्यों
को पुनः
अलग पैराग्राफ
बनाकर लिखना
चाहिए ताकि
यह पता
लग सके
की मामले
में प्रतिवादा
भी प्रस्तुत
हैं।
पैराग्राफ
के आकार
के बारे
में
15. नियम
154 (3) के
अनुसार एक
पन्ने के
तीन चैथाई
भाग से
अधिक का
एक पैरा
नहीं होना
चाहिए ताकि
वरिष्ठ
न्यायालयों
में तर्को
के दौरान
दिए गये
संदर्भ से
असानी से
देख सके।
इस
तरह यदि
विषय परिवर्तित
नहीं हो
रहा हो
तो एक
पैराग्राफ
एक पेज
का तीन
चैथाई भाग
तक हो
सकता है
लेकिन विषय
बदल रहा
हो तब
पैराग्राफ
इससे कम
आकार का
भी हो
सकता हैं
लेकिन प्रयास
यह करना
चाहिए की
एक ही
विषय हो
तब भी
पैराग्राफ
तीन चैथाई
भाग से
अधिक आकार
का हो
रहा हो
तो पैराग्राफ
बदल लेना
चाहिए।
निर्णय
के पांचवे
पैराग्राफ
के बारे
में
16. इस
पैराग्राफ
में सामान्यतः
वाद विषय
आते है
जैसा कि
नियम 154
(5) से
स्पष्ट है।
सामान्यतः
इस पैराग्राफ
में यह
लिखा जाता
है कि
उभय पक्ष
के अभिवचनों
और उनके
द्वारा
प्रस्तुत
दस्तावेजों
के आधार
पर मामले
में निम्नलिखित
वाद प्रश्न
विरचित किये
गये जिन
पर मेरे
कारण सहित
निष्कर्ष
निम्नानुसार
है:-
वाद
प्रश्न
निष्कर्ष
मामले
में पूर्व
से विरचित
वाद प्रश्नों
को यहां
उतार लेते
है।
17. इस
प्रकार निर्णय
के पद
क्रमांक 1
से
5 निर्णय
के प्रारूप
के संदर्भ
में है
जो अधिकतर
मामलों में
इसी प्रकार
रहते है
अतः इस
प्रारूप को
ध्यान में
रखना चाहिए।
पैराग्राफ
क्रमांक 6,
निष्कर्ष
के आधार
18. पैराग्राफ
क्रमांक 6
से
वाद प्रश्नों
की विवेचना
प्रारंभ होती
है सामान्यतः
प्रत्येक
वाद प्रश्न
पर पृथक-पृथक
विवेचना करके
निष्कर्ष
देना चाहिए
और यदि
दो वाद
प्रश्न एक
दूसरे से
संबंधित हो
तो उनकी
विवेचना एक
साथ की
जानी चाहिए
और जिस
वाद प्रश्न
पर विवेचना
कर रहे
है उसका
उल्लेख करके
विवेचना
प्रारंभ करना
चाहिए जैसे:-
वाद
प्रश्न क्रमांक
1 पर
19. वाद
प्रश्न पर
विवेचना के
समय पहले
उस वाद
प्रश्न के
संबंध में
जो भी
साक्ष्य आई
है उसका
क्रमबंधन
कर लेना
चाहिए और
उसके बाद
मूल्यांकन
चालू करना
चाहिए।
20. नियम
154 (11) के
अनुसार साक्ष्य
का क्रमबंधन
साक्षी के
कथनों की
पुनरावृत्ति
नहीं है
बल्कि किसी
तथ्य विशेष
के पक्ष
एवं विपक्ष
में दिये
गये साक्षियों
के कथनों
का तर्कपूर्ण
एक साथ
वर्गीकरण
हैं।
इस
नियम में
साक्ष्य के
क्रमबंधन
की विधि
स्पष्ट की
गई हैं।
इस
तरह किसी
वाद प्रश्न
पर विवेचना
के समय
साक्षियों
के कथनों
को हूबहू
उतार देना
पर्याप्त
नहीं होता
है बल्कि
उस वाद
प्रश्न के
संबंध में
साक्षियों
द्वारा कहीं
गई बात
को क्रमबंधित
कर एक
साथ व्यवस्थित
रूप से
लिखना चाहिए
और फिर
उनका मूल्यांकन
करना चाहिए
और वे
कारण देना
चाहिए जिनके
आधार पर
साक्ष्य को
न्यायाधीश
विश्वसनीय
या अविश्वसनीय
पाते हैं।
21. नियम
154 (7) के
अनुसार यह
आवश्यक है
कि प्रत्येक
वाद बिन्दु
पर निश्चित
निष्कर्ष
दिया जाये
ताकि वरिष्ठ
न्यायालय
यह जान
सके की
क्या निराकरण
किया गया
था और
उसे संदिग्धता
का सामना
न करना
पड़े।
इस
तरह प्रत्येक
वाद प्रश्न
पर न्यायाधीश
को साक्ष्य
का क्रमबंधन
करके और
उसका मूल्यांकन
करके एक
निश्चित
निष्कर्ष
देना चाहिए
की वे
उस वाद
प्रश्न पर
क्या निष्कर्ष
दे रहे
है यह
अंकित करना
चाहिए।
22. नियम
154 (13) के
अनुसार निर्णय
पर हस्ताक्षर
करने के
पूर्व और
उसे लिखे
जाने के
पश्चात यदि
न्यायाधीश
उसे न
पढ़े और
जहां आवश्यक
हो वहां
सुधार न
करे तब
तक निर्णय
के पूर्ण
रूप से
स्पष्ट न
होने की
संभावना रहती
हैं।
इस
नियम का
तात्पर्य
यह है
कि निर्णय
तैयार हो
जाने के
पश्चात
न्यायाधीश
को उस
निर्णय को
पढ़ना चाहिए
और जहां
आवश्यक हो
वहां सुधार
करना चाहिए।
23. नियम
154 (12) के
अनुसार जब
तक न्यायाधीश
को यह
स्पष्ट न
हो जाये
की मामले
में क्या
और किन
विषयों का
निराकरण कैसे
और क्यों
करना है
तब तक
निर्णय लेखन
प्रारंभ नहीं
करना चाहिए
और विवेचना
संक्षिप्त
में करने
का प्रयत्न
करना चाहिए।
बहुत बड़ा
निर्णय सावधानी
का सूचक
न होकर
विषय को
समझने में
असमर्थता
का सूचक
है।
उक्त
नियम से
यह स्पष्ट
है कि
जब तक
पत्रावली
का पूर्ण
अध्ययन करके
और उसके
बिन्दुओं
को स्पष्ट
रूप से
समझ न
लिया जाये
और किसी
बिन्दु को
किस तरह
निराकृत करना
है यह
तय न
कर लिया
जाए तब
तक निर्णय
लेखन प्रारंभ
नहीं करना
चाहिए।
24. दस्तावेजी
साक्ष्य का
महत्व मौखिक
साक्ष्य की
तुलना में
अधिक होता
हैं अतः
दस्तावेजी
साक्ष्य पर
भी स्पष्ट
विवेचना और
अभिमत देना
चाहिए।
25. जहां
आवश्यक हो
वैधानिक
स्थिति या
न्याय दृष्टांतों
का उल्लेख
करना चाहिए
न्याय दृष्टांतों
में पक्षकारों
के नाम
पहले दिया
जाना चाहिए
जैसे:-
राम
लाल विरूद्ध
म0प्र0
राज्य,
ए.आई.आर.
2001 एस.सी.
1
26. नियम
155 (2) के
तहत निर्णय
में गैर
तकनीकी शब्दों
अथवा वाक्यों
के प्रयोग
से बचना
चाहिए और
यदि उनका
उल्लेख आवश्यक
हो तब
कोष्टक में
निकटतम समझे
जाने वाला
पर्यायवाची
शब्द हिन्दी
या अंग्रेजी
में अवश्य
लिखना चाहिए।
27. नियम
155 (1) के
अनुसार
प्रत्येक
वाद बिन्दु
पर कारणों
सहित निर्णय
दिया जाना
चाहिए केवल
यह लिखना
पर्याप्त
नहीं है
कि मैं
यह वाद
बिन्दु सिद्ध
मानता हॅ
ऐसा निष्कर्ष
संदिग्ध या
भ्रामक होता
है जब
नकारात्मक
वाद बिन्दु
बनाये हो
तब भी
स्पष्ट
निष्कर्ष
देना चाहिए।
निर्णय
में निष्कर्ष
संबंधित वाद
बिन्दु के
ठीक सामने
लिखा जाना
चाहिए।
इस
प्रकार
प्रत्येक
वाद प्रश्न
का स्पष्ट
निष्कर्ष
देना चाहिए
और निर्णय
के पद
क्रमांक 5
में
जो वाद
प्रश्न लिखे
गये है
उनके सामने
उस निष्कर्ष
को अंकित
करना चाहिए।
28. नियम
155 (3) के
अनुसार निर्णय
में साक्षियों
का उल्लेख
केवल उनके
क्रमसंख्या
में न
किया जाकर
नाम से
किया जाना
चाहिए यह
आवश्यक नहीं
है कि
प्रत्येक
अवसर पर
उनका नाम
विस्तार से
लिखे लेकिन
यह संकेत
मिल जाना
चाहिए की
किस गवाह
के बारे
में कहां
जा रहा
हैं।
29. नियम
156 के
अनुसार निर्णय
के आदेशात्मक
भाग में
स्वीकृत
सहायताओं
का उल्लेख
किया जाना
चाहिए और
अपील में
मूल डिक्री
में किये
गये परिवर्तनों
का स्पष्ट
रूप से
उल्लेख करना
चाहिए।
इस
तरह निर्णय
के क्रियाशील
भाग में
जो भी
सहायताए
दिलवाई जा
रही है
उनका ऐसा
स्पष्ट उल्लेख
आना चाहिए
कि उनको
पढ़ते ही
यह पता
लग जाए
की कौन-कौन
से अनुतोष
दिलवाये गये
है और
किस प्रकार
दिलवाये गये
है इस
पैराग्राफ
में कोई
अस्पष्टता
नहीं होना
चाहिए साथ
ही वादग्रस्त
संपत्ति का
ऐसा पूर्ण
विवरण इस
पैराग्राफ
में देना
चाहिए जिसे
पढ़कर अन्य
किसी पैराग्राफ
को पढ़े
बिना यह
पता लग
जाना चाहिए
की मामले
में वादग्रस्त
संपत्ति कौन
सी है
और उसके
बारे में
क्या सहायता
दिलवाई गई
हैं।
30. नियम
157 के
अनुसार यदि
कोई ब्याज
स्वीकृत किया
गया है
तब उसकी
दर और
उसकी दर
कब से
दिलवाया गया
है इसका
स्पष्ट उल्लेख
किया जाना
चाहिए।
31. नियम
158 के
अनुसार निर्णय
तुरंत ही
लिखा एवं
सुनाया जाना
चाहिए निर्णय
सुनाये जाने
में जितना
विलंब किया
जायेगा उसके
उतने ही
कम महत्वपूर्ण
होने की
संभावना होगी
क्योंकि
निर्णय करने
में विलंब
करने से
प्रकरण के
तथ्यों का
अभिग्रहण
या ग्रेस्प
आफ द
फेक्टस कमजोर
हो जाता
है और
पुनः स्मृति
हेतु अभिलेख
का अध्ययन
करने में
समय नष्ट
होता है
दुविधा बढ़ती
है और
पक्षकारों
की उत्सुकता
भी बढ़
जाती हैं।
अंतिम
तर्क सुनने
के ठीक
पश्चात मामले
की प्रकृति
उसमें उठने
वाले वैधानिक
बिन्दुओं
के अध्ययन
और निर्णय
तैयार करने
में लगने
वाले समय
और पूर्व
से निर्धारित
कार्य पर
विचार करते
हुये एक
ऐसी नजदीक
की युक्तियुक्त
तिथि लगाना
चाहिए जिस
पर प्रत्येक
दशा में
निर्णय घोषित
हो जावे।
आदेश
20 नियम
1 सी.पी.सी.
के
अनुसार भी
न्यायालय
मामले के
सुनवाई कर
लेने के
पश्चात खुले
न्यायालय
में या
तो तुरंत
या इसके
पश्चात
यथासाध्य
शीध्र सुनायेगा
और जब
निर्णय के
लिए कोई
आगे का
दिन नियत
किया जाता
है तो
उसकी सूचना
पक्षकारों
या उनके
प्लीडरों
को देगा।
परंतु
जहां निर्णय
तुरंत नहीं
सुनाया जाता
वहां न्यायालय
सुनवाई समाप्ति
के 30
दिन
के भीतर
निर्णय सुनाने
का पूरा
प्रयास करेंगे
और आपवादिक
और असाधारण
प्रस्थितियों
में 60
दिन
के भीतर
निर्णय सुनाया
जा सकेगा।
इस
तरह आदेश
20 नियम
1 सी.पी.सी.
के
प्रकाश में
भी देखे
तब निर्णय
सुनवाई समाप्ति
के ठीक
पश्चात या
यथासाध्य
शीध्र सुनाने
की व्यवस्था
है जिसे
ध्यान में
रखना चाहिए।
32. नियम
160 में
न्यायालय
में दिन
के पूर्व
भाग में
निर्णय लिखाये
जाने की
प्रथा को
निरूत्साहित
करने पर
बल दिया
गया हैं।
इस
तरह न्यायालय
में दिन
के प्रथम
भाग में
निर्णय लिखाया
जाना उचित
नहीं है
बल्कि यह
समय साक्ष्य
लेखबद्ध
करने, तर्क
सुनने आदि
महत्वपूर्ण
कार्य में
लगाना चाहिए
और दिन
का कार्य
निपट जाने
के बाद
यदि समय
बचता है
तब निर्णय
लिखाना चाहिए।
सामान्यतः
निर्णय घर
में तैयार
करवाने की
प्रथा होती
है जिसका
पालन करना
चाहिए।
33. नियम
164 के
तहत यदि
सुनवाई की
समाप्ति और
निर्णय सुनाने
के मध्य
किसी पक्षकार
की मृत्यु
हो जाती
है तब
भी निर्णय
सुनाया जा
सकेगा और
ऐसे निर्णय
वहीं प्रभाव
होगा जैसा
उस पक्षकार
के मृत्यु
के पूर्व
सुनाया गया
हो इस
संबंध में
आदेश 22
नियम
6 सी.पी.सी.
में
भी प्रावधान
हैं।
34. निर्णय
में यथासंभव
काटपीट नहीं
होना चाहिए
और यदि
ऐसा हुआ
है तो
उस पर
न्यायाधीश
को अपने
लघु हस्ताक्षर
अवश्य करना
चाहिए।
35. यदि
कुछ वाद
प्रश्नों
का निराकरण
पहले हो
चुका हो
या प्रारंभिक
रूप से
हो चुका
हो तो
उनका उल्लेख
भी निर्णय
में करना
चाहिए।
35ए.
व्यवहार
मामलों में
अधिसंभावनाओं
की प्रबलता
के स्तर
का प्रमाण
भार लागू
होता है
इस तथ्य
को ध्यान
रखना चाहिए
और मौखिक
और दस्तावेजी
साक्ष्य पर
विचार करते
समय इस
मूलभूत
सिद्धांत
को ध्यान
में रखना
चाहिए।
35बी.
निर्णय
में निष्कर्ष
पर पहुंचने
के कारण
अवश्य देना
चाहिए क्योंकि
कारण या
रीजन, निर्णय
या आदेश
की आत्मा
होते है
इसे ध्यान
रखना चाहिए।
35सी.
किसी
भी पक्ष
द्वारा
प्रस्तुत
न्याय दृष्टांतों
का उल्लेख
उचित स्थान
पर अवश्य
करना चाहिए
और वे
न्याय दृष्टांत
मामले में
क्यों लागू
होते है
और क्यों
लागू नहीं
होते है
इस पर
अवश्य विवेचना
करना चाहिए
केवल यह
लिख देना
की मामलों
के तथ्यों
पर न्याय
दृष्टांत
लागू नहीं
होते है
पर्याप्त
नहीं माना
जाता है
साथ ही
किसी भी
पक्ष द्वारा
उठाये गये
तर्को का
उल्लेख भी
उचित स्थान
पर अवश्य
करना चाहिए।
35डी.
निर्णय
में सहायता
एवं खर्च
वाले वाद
प्रश्न में
संक्षिप्त
रूप से
प्रत्येक
वाद प्रश्नों
के बारे
में क्या
प्रमाणित
पाया गया
और क्या
प्रमाणित
नहीं पाया
गया इसके
बारे में
उल्लेख करना
चाहिए।
35ई.
एक
पक्षीय मामले
में न्यायालय
को अधिक
सतर्क रहना
चाहिए और
कही दुरभी
संद्यि या
कोलूजन तो
नहीं है
इस पर
विचार कर
लेना चाहिए
एक पक्षीय
मामले में
भी न्यायालय
अवधार्य
प्रश्न बना
सकते है
जैसा की
न्याय दृष्टांत
रमेश चंद
विरूद्ध अनिल
पंजवानी, (2003) 7 एस.सी.सी.
350 में
प्रतिपादित
किया गया
हैं।
35एफ.
निर्णय
की भाषा
जटिल नहीं
होना चाहिए
और आसानी
से समझ
में आना
चाहिए।
डिक्री
के बारे में
36. सामान्यतः
डिक्री निर्णय
के क्रियाशील
भाग से
बनाई जाती
है फिर
भी डिक्री
के बनाने
में सतर्क
रहना चाहिए
और डिक्री
इस प्रकार
बनना चाहिए
की वह
अपने आप
में पूर्ण
हो और
किसी अन्य
प्रपत्र या
निर्णय की
सहायता लिये
बिना समझ
में आ
सके। डिक्री
के मामले
में लिपिक
वर्गीय
कर्मचारियों
पर निर्भर
नहीं रहना
चाहिए बल्कि
स्वयं समाधान
कर लेना
चाहिए की
निर्णय के
अनुरूप डिक्री
सही रूप
से बनाई
गई हैं
इस संबंध
में नियम
165, 166 को
ध्यान में
रखना चाहिए।
37. समझौते
के आदेश
में समझौते
की सारी
शर्ते लिखना
चाहिए ताकि
वे डिक्री
में भी
आ सके
इस संबंध
में नियम
167 ध्यान
रखना चाहिए।
38. नियम
168 के
तहत अचल
संपत्ति का
पूर्ण उल्लेख
डिक्री में
आना चाहिए।
39. नियम
172 के
तहत जहां
डिक्री पति
या पत्नी
के विरूद्ध
दांपत्य
अधिकारों
के पुनः
स्थापना के
लिए हो
तब उसमें
यह भी
आदेशित होना
चाहिए की
पति या
पत्नी वापस
लौटे।
40. नियम
173 के
अनुसार डिक्री
सामान्यतः
निर्णय या
आदेश के
तीन दिन
के भीतर
तैयार की
जाना चाहिए।
41. डिक्री
में न्यायाधीश
की पदीय
शक्तिया
और निर्णय
या आदेश
घोषित करने
के दिनांक
का उल्लेख
अवश्य होना
चाहिए।
42. नियम
175 के
अनुसार डिक्री
में पक्षकारों
के पूरे
नाम और
पते का
उल्लेख होना
चाहिए और
इस संबंध
में आदेश
20 नियम
6 सी.पी.सी.
का
पालन किया
जाना चाहिए।
43. नियम
176 (1) के
अनुसार डिक्री
तैयार होने
के पश्चात
न्यायालय
पक्षकारों
या उनके
अभिभाषकों
को डिक्री
की तैयारी
की सूचना
देने के
उद्देश्य
से डिक्री
की एक
प्रति न्यायालय
की नोटिस
बोर्ड पर
चिपकवायेंगे
ताकि पक्षकार
देख सके।
नियम
176 (3) के
अनुसार यदि
कोई आपत्ति
नियत दिनांक
या उसके
पूर्व नहीं
आती है
तब न्यायाधीश
उस पर
हस्ताक्षर
करेंगे।
नियम
176 (4) के
अनुसार यदि
कोई आपत्ति
आती है
तो उसे
सुनी और
निराकृत की
जायेगी और
उस अनुसार
डिक्री में
आवश्यक संशोधन
किये जायेंगे।
44. नियम
179 के
अनुसार सफल
पक्षकार को
वाद खर्च
दिलाया जाता
है अतः
इस नियम
को ध्यान
रखना चाहिए
अभिभाषक
शुल्क के
समय नियम
179 (2) के
निर्देश
ध्यान रखना
चाहिए।
45. डिक्री
में व्यययों
को जोड़ते
समय नियम
180, 181 और
182 को
ध्यान में
रखना चाहिए।
46. डिक्री
बनाते समय
आदेश 20
नियम
9 से
19 सी.पी.सी.
को
भी ध्यान
में रखना
चाहिए जिसमें
विभिन्न
प्रकार के
मामलों में
अज्ञाप्ति
बनाने के
निर्देश दिये
हैं।
47. जहां
निर्णय पारित
किया गया
है वहां
डिक्री बनती
है और
जहां आदेश
पारित किया
जाता है
वहां खर्च
पत्रक या
मेमो आफ
कास्ट बनता
है यह
ध्यान रखना
चाहिए।
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