Saturday, 10 May 2014

आरोप विरचित करते समय किन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए

आरोप विरचित करते समय किन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए


5.08.2013  मध्य प्रदेश राज्य की ओर से श्री राजपूत अति.लो.अभि. उप.।
आरोपी राजकुमार, संतोष, दिनेश न्यायिक अभिरक्षा से पेश, उनकी ओर से तथा शेष आरोपीगण सहित श्री महेश बुधौलिया अधिवक्ता उप.।
        प्रकरण आरोप पर आदेश हेतु नियत है । उभय पक्ष के तर्क सुने जाने एवं प्रकरण के अवलोकन से स्पष्ट है कि आरोपी दिनेश साहू, राजू उर्फ राजकुमार साहू, संतोष साहू, सुनील साहू, बद्री प्रसाद साहू, रामनाथ साहू, विजय साहू के विरूद्ध थाना तेन्दूखेड़ा जिला नरसिंहपुर द्वारा अभियेाग पत्र क्रमांक 134/12 दिनांक 27.12.2012 को भा.द.सं. की धारा 307, 294, 341, 342, 147, 325, 149, 364 के अंतर्गत पेश किया है । 
        आरोपी अधिवक्ता श्री बुधौलिया द्वारा आहत को वायटल पार्ट पर कोई गंभीर उपहतियां नहीं आना बताते हुए अपने पक्ष में न्याय दृष्टांत 2013 (1) एम.पी.डब्लू.एन. 98, 1986 (2) एम.पी.डब्लू.एन. 238, 2000 (2) एम.पी.डब्लू.एन. 164, 2003 सीआर.एल.आर. (एम.पी.) 418, 1987 सीआर.एल.आर. (एम.पी.) 120, 1982 सीआर.एल.आर. (सु.को.) 557, 1985 डबलू.एन. 347 व 1998 सीआर.एल.आर. (एम.पी.) 141 पेश किए हैं, जिनमें अंतिम न्याय दृष्टांत के अलावा सभी न्याय दृष्टांत दण्डादेश निर्धारित करने के संबंध में है, जिनमें बताया गया है कि कब प्रकरण को प्राणघातक नहंी मानना चाहिए और अंतिम न्याय दृष्टांत 1998 सीआर.एल.आर. (एम.पी.) 141 में लाठी से हाथ में अस्थि भंग की चोटों पर धारा 325 भा.द.सं. का आरोप विरचित करने के संबध् में पेश किया गया है ।
        आरोप विरचित करते समय किन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए, इस संबंध में न्याय दृष्टांत हेमराज बनाम मध्य प्रदेश राज्य 2004 (2) विधि भास्वर 167 में बताया है कि ‘‘  अपराध किए जाने की उपधारणा के लिए आधार हैं और यहां पर परीक्षण का मानक अंत में लागू किया जाता है, आरोप लगाने अथवा उन्मोचित करने पर विचार किए जाने के प्रक्रम पर परीक्षण का मानक लागू नहीं किया जाता है  एवं न्याय दृष्टांत आई.एल.आर. (2011) एम.पी. 2629 में  बताया गया है कि ‘‘ आरोप मुक्त करने पर ही कारण लिखना है, अपराध की निश्चितता के विरूद्ध संभावनाओं की अवधारणा की ओर ले जाने वाले प्रबल संदेह मात्र आरोप के लिए पर्याप्त है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत (2001) 4 एस.सी.सी. 333 भी अवलोकनीय है । न्याय दृष्टांत 2002 सीआर.एल.जे. 3104 (एम.पी.) में बताया है कि ‘‘ आरोप तैयार करते समय केस डायरी की सामग्री पर ध्यान नहीं देना चाहिए, केवल पुलिस द्वारा दायर की गई चार्जशीट को ध्यान में रखना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत 1998 (1) विधि भास्वर 12, 2005 (1) एम.पी.एच.टी. 89, 2000 (3) एम.पी.एच.टी. 164 (सु.को.), आई.एल.आर. (2009) एम.पी. नोट- 10 व आई.एल.आर. (2010)एम.पी. 1834 भी अवलोकनीय हैं ।
        प्रकरण में उपलब्ध अभिलेख एवं उक्त न्याय दृष्टांतों के संदर्भ में आरोपीगण द्वारा घातक आयुध राड व लाठियों से सज्जित होकर विधि विरूद्ध जमाव का सदस्य रहकर बलवा कर आहत राजकुमार उर्फ मुन्ना को जान से मारने के लिए सामान्य उददेश्य बनाकर प्राणघातक चोटें पहंुचाई गई तथा उसको सार्वजनिक स्थान पर अश्लील गालियां देकर क्षोभ कारित किया है एवं बंाधकर सदोष परिरोध कर हत्या करने के लिए अपहरण किए जाने के संबंध में भा.द.सं. की धारा 148, 307, 307/149, 342, 342/149, 364, 364/149, 294 के अंतर्गत आरोप पत्र विरचित किए जाने के लिए प्रथम दृष्टया पर्याप्त आधार उपलब्ध होने से पृथक से आरोप पत्र तैयार कर आरोपीगण को सुनाए व समझाए जाने पर आरोपीगण द्वारा अपराध करना अस्वीकार कर विचारण का दावा किया, उनका अभिवाक अंकित किया गया ।
        दौराने तर्क अति.लो.अभि. श्री राजपूत द्वारा मामले का कथन करते हुए आरोपीगण के विरूद्ध लगाए गए आरोपेां का वर्णन करते हुए यह स्पष्ट किया कि वह आरोपीगण के विरूद्ध दोष को किस साक्ष्य से सिद्ध करने की प्रस्थापना करते हैं ।
        आरोपीगण का ध्यान द.प्र.सं. की धारा 294 के प्रावधानों की ओर दिलाया गया तो आरोपीगण ने अभियोजन दस्तावेजों की सत्यता से इंकार किया ।
        प्रकरण साक्ष्य कार्यक्रम प्रस्तुति हेतु नियत किया जाता है ।    
        साक्ष्य कार्यक्रम प्रस्तुति हेतु दिनांक .........................
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                                                                                                                     (लालाराम मीणा)
                                                                                                              प्रथम अपर सत्र न्यायाधीश
                                                                                                                         गाडरवारा

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