अच्छा न्यायाधीश - न्यायमूर्ति आर.व्ही. रवीन्द्रन, न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय।’
आप एक अच्छा न्यायाधीश कैसे बन सकते है ? क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश दीर्घ अवधि तक स्वच्छ छवि के साथ सेवारत रहकर बन सकते है ? क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश त्वरित एवं नियमित रूप से प्रत्येक माह के लिये नियत प्रकरणों के निराकरण का लक्ष्य पूरा करके बन सकते है ? क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश विद्वतापूर्ण निर्णय लिखकर बन सकते हैं?क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश अपनी पूरी सेवा अवधि में ईमानदार रहकर हो सकते है ? क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश वादकारों के प्रति सहृदय एवं विनम्र होकर बन सकते है ?
एक न्यायाधीश का कर्तव्य न्यायदान करना है। विशद अर्थो में न्यायदान करने का तात्पर्य प्रत्येक व्यक्ति को वह देना है जिसका वह हकदार है। वे सभी- जिनमें शक्तियाँ अर्थात् शासन करने की शक्ति, विधायन की शक्ति, न्यायनिर्णयन की शक्ति और दण्ड या पुरस्कार देने की शक्ति न्यस्त की गई है, एक अर्थ में न्यायदान करते हैं। न्यायाधीशों के सन्दर्भ में न्यायदान करने का तात्पर्य सम्यक् सुनवाई की जाकर, विवादों और शिकायतों का विधि के अनुसार और जहाँॅ अपेक्षित और अनुज्ञेय है वहाँ साम्य, समता और अनुकम्पा से प्रेरित होकर ऋजु और निष्पक्ष ढंग से त्वरित, प्रभावी और सक्षम न्यायनिर्णयन करना है।
एक न्यायाधीश को अपने आचरण, सुनवाई में ऋजुता, और अपने उचित एवं साम्यिक् निर्णयों के द्वारा अपने और न्यायपालिका के लिये आम जनता और अधिवक्ताओं का विश्वास एवं सम्मान अर्जित करना चाहिए।
‘‘न्यायिक जीवन में मूल्यों के पुनर्कथन (रिस्टेटमेंट आॅफ वैल्यूज आॅफ ज्यूडिशियल लाईफ)‘‘ और ‘‘बंगलौर प्रिसिंपल आॅफ ज्यूडिशियल कंडक्ट, 2002‘‘ न्यायाधीशों के नैतिक आचरण के लिए मापदण्ड स्थापित करते है और न्यायधीशों के उचित आचरण के लिये मार्गदर्शक के रूप में है।
संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा अंगीकृत और जिसका भारत भी हस्ताक्षरकर्ता है, उस ‘‘सिविल एवं राजनैतिक अधिकारों की अंर्तराष्ट्रीय प्रसंविदा‘‘ के अनुच्छेद 14 (1) के अनुसार ‘‘ न्यायालयों एवं अधिकरणों के समक्ष सभी व्यक्ति समान होगें। उसके विरूद्ध किसी आपराधिक आरोप के निर्धारण या किसी वाद में उसके अधिकारों एवं बाध्यताओं के संबंध में प्रत्येक व्यक्ति एक सक्षम एवं स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकरण के द्वारा ऋजु और खुली सुनवाई के हकदार है। यद्यपि उपरोक्त अनुच्छेद न्यायाधीश के गुणों के संबंध में नही है किंतु वह न्यायाधीश के गुणों (अ) कि उसे सक्षम, स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए, (ब) उसे ऋजु और जनसुनवाई देनी चाहिए और (स) सभी व्यक्तियों के प्रति समान व्यवहार करना चाहिए, को ठीक ढंग से निर्धारित करता है। उपरोक्त गुणों को प्राप्त करने के लिए एक न्यायाधीश को कतिपय न्यायिक, प्रशासनिक कौशल विकसित करने चाहिए और उससे भी महत्तवपूर्ण उसे कतिपय न्यायिक नैतिक मापदण्डों का पालन करना चाहिए।
न्यायिक कौशल
एक न्यायाधीश के रूप में - लोक न्यायिक मंच पर निर्णायक के रूप में आसीन होते हुये अपने कर्तव्यों का प्रभावी ढंग से निर्वहन करने के लिए पांच न्यायिक कौशल की आपसे अपेक्षा है।
प्रक्रियाओं की जानकारी के द्वारा
आपको प्रक्रियात्मक विधि अर्थात् सिविल प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य से संबंधित संविधियाँ, परिसीमा, न्यायालय शुल्क और स्टाम्प, और न्यायालयिक विज्ञान तथा पुलिस प्रक्रिया की गहन जानकारी होनी चाहिए। उससे आप विचारण पर नियंत्रण रख सकेगें और प्रक्रियात्मक अनियमितताओं से बच सकेगें। अंतरिम आदेशों के विरूद्ध अधिकांश अपीलें और पुनरीक्षण केवल प्रक्रिया की त्रुटि से संबंधित होती है। जब आपको प्रक्रिया पर अच्छी पकड़ होगी तो मामले त्वरित गति और प्रभावी ढंग से निबटेगें।
मूलभूत या मौलिक विधियों की विशद समझ
मौलिक कानूनों तथा मौलिक संवैधानिक एवं विधिक सि़द्धांतों, सामान्यतः उपयोग में आने वाले सभी मौलिक कानूनों और मौलिक संवैधानिक एवं विधिक सिद्धांतों की आपको जानकारी होनी चाहिए। यहाँ पर मोटे-मोटे तौर पर जानना शब्द का प्रयोग किया गया है न कि जानना शब्द का प्रयोग क्यांेकि किसी भी न्यायाधीश के लिए यह संभव नही है कि वह न्यायाधीश बनने के पूर्व सभी कानून का ज्ञाता हो सके। विधि के प्रत्येक प्रावधान की कुछ विशिष्टताएँ होती है जिनका मूल्यांकन करने और जब उस विधि से संबंधित प्रश्न आपके समक्ष उठाये जाते है और अधिवक्तागण किसी विशिष्ट मामले के संदर्भ में उसका निर्वचन और विश्लेषण करते है तो विशिष्ट मामले के संदर्भ में उसे समझने के आप योग्य होने चाहिए। यदि प्रक्रियात्मक विधि आपको विचारण को नियंत्रित करने मंे मदद करती है तो मौलिक विधि की जानकारी आपको उचित एवं न्यायपूर्ण निर्णयों को देने तथा अन्याय को रोकने में मदद करती है।
उचित सुनवाई का अवसर देने की कला
आपको उचित सुनवाई करने की निपुणता विकसित करनी चाहिए। यदि आप इसके बारे मंे सोचते हैं तो आप महसूस करेगें कि सम्पूर्ण सिविल एवं आपराधिक प्रक्रियाएँ सम्यक् सुनवाई दिये जाने, नैसर्गिक न्याय के प्रथम सिद्धांत - दूसरे पक्ष को भी सुनो या कोई भी व्यक्ति बिना सुने दण्डित नही होना चाहिए को प्रभाव दिये जाने से संबंधित ही है। सम्यक् सुनवाई से तात्पर्य किसी के मामले को सुनवाई का सम्यक् अवसर मिलना है। इसमेें पक्षों को सुनना, उनकी पीड़ाओं, शिकायतों, अभिवाको, बचावों, तथ्यात्मक और विधिक समावेदनों पर विचार करना और उसके पश्चात खुले मस्तिष्क से निर्णय पर पहुँचना सम्मिलित है। एक न्यायाधीश का वास्तव में यही मुख्य कार्य है। अनेकों न्यायाधीश, दुर्भाग्यवश, एक ऋजु और सम्यक् सुनवाई की कला विकसित नही कर पाते - वे मामले के अनुसार कार्य नही करते, साक्ष्य को नही समझते और खुले मस्तिष्क से तर्क नही सुनते। प्रभावी हस्तक्षेप के द्वारा साक्ष्य और तर्को को नियंत्रित करने या अपने मार्गदर्शन के द्वारा अधिवक्ताओं से उनका सहयोग लेने के स्थान पर वे या तो अधीर हो जाते है या सुसंगत निवेदनों की सुनवाई से ही इंकार करते है या कार्यवाही के प्रति अरूचि दर्शित करते है और अपने मस्तिष्क को इधर-उधर भटकने देते है। इसका परिणाम विसंगत साक्ष्य को लेखबद्ध करने और लंबे तर्को की सुनवाई तथा मामले को न्यायाधीश द्वारा समझने में असफलता के रूप में होता है। यदि आपने अभिवचनों को पढ़कर, साक्ष्य और तर्को का अनुसरण करके तथा उचित संक्षेपण तैयार करके मामले की उचित रूप से सुनवाई की है तो सही निर्णय पर पहुँचना और निर्णय लिखना आसान और सरल हो जाता है। वास्तव में यदि आप साक्ष्य का अभिलेखन करते है और दिन-प्रतिदिन आधार पर निरंतरता में तर्को को सुनते है तो आपको निर्णय तैयार करने के लिए नस्ती को पढ़ने में बहुत अधिक समय व्यय करने की आवश्यकता नहीं है।
कुछ न्यायाधीश बार-बार यह शिकायत करते है कि अधिवक्ता उन्हें उचित सहयोग प्रदान नही करते। समय के साथ ऐसे न्यायाधीश अभिभाषकों के प्रति सामान्यतः अधैर्य रखते है। वे अभिभाषकों को अपने पूर्ण तर्क नही रखने देते और उनके तर्कों को यह कहते हुए रोक देते है कि ‘‘हाँ. हाँ. यही है, है न ? मैं मामला समझ गया हूँ। सुना। निर्णय के लिये सुरक्षित।‘‘ यह गलत है। न्यायाधीश के लिये सभी तथ्यों का पूर्ण अध्ययन करना और सभी मामलों में सभी विधिक विवादों पर रिसर्च करना और फिर निर्णय लिखना संभव नही हैं। यदि कोई न्यायाधीश ऐसा करने का प्रयास करता है तो निर्णय के लिये सुरक्षित रखा गया मामला किसी भी समय तैयार नही होगा। जब न्यायाधीश अंतिम रूप से निर्णय लिखाने के लिये मामला लेता है तो उससे तथ्यों और विधि संबंधी चूक होगी और वह न्याय नही कर पाएगा। उचित तरीका यह है कि उसे अभिभाषकों को पढ़ने, विधि संबंधी खोज करने और मामले को ठीक ढंग से तैयार करने के लिए उनका हौसला बढ़ाकर और यहाँ तक कि उन्हे डाँटने और पुचकारने द्वारा प्रेरित करना चाहिए ताकि वे आपको प्रभावी रूप से सहयोग दे सकें और उसके पश्चात यह सुनिश्चित होते हुए उन्हें सुने कि वे आपको गुमराह भी नही कर पाये। इस प्रकार आप उन्हे उचित सुनवाई का अवसर देगंे और आप बदले में अच्छी मात्रा में गुणवत्तापूर्ण कार्य करेगें और साथ ही अभिभाषको के स्तर को सुधारेगें।
तथ्यों का क्रमबन्धन और अच्छे निर्णयों का लेखन
आपको तथ्यों के क्रमबन्धन और उन तथ्यात्मक निष्कर्षों पर विधि प्रयोज्य करते हुये और तथ्यों, कारणों और निष्कर्षो को अच्छे, तर्कपूर्ण, संक्षिप्त और सुसंगत ढंग से एक आदेश/ निर्णय के प्रारूप में रखते निष्कर्ष तक पंहुॅचने की दक्षता प्राप्त करनी है। पक्षकार, अधिवक्तागण और अपीली/पुनरीक्षण न्यायालय भी आदेश/निर्णय से यह जान सके कि आपने क्या निराकृत किया है। इस विषय में आप स्पष्ट होने चाहिए कि आप क्या कहने का आशय रखते थे। आपका प्रत्येक निर्णय उत्कृष्ट होने की आवश्यकता नही है। ऐसा करने पर बहुत समय व्यतीत होता है।
स्थगन के लिए अंतरिम याचनाओं और अनुरोधों को निबटाना।
आपको अंतरिम अनुरोधों, अंतर्वर्तीय आवेदनों और स्थगन के अनुरोधों को प्रभावी ढंग से एवं दृढ़तापूर्वक विचार करने और उनका निराकरण करने की दक्षता भी प्राप्त करनी है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था से जुड़ा सबसे बदनाम ‘‘विलंब‘‘ बहुत हद तक इन मामलों से अप्रभावी और अक्षम रूप से निबटने से जुड़ा है। स्थगन के अनुरोधों पर विचार करते समय आपको अवांछित सहानुभूति को नियंत्रित करना है। आपको लोकप्रिय न्यायाधीश होने के लालच पर भी रोक लगानी है। मामले की प्रगति को विलंबित करने के लिए कुछ पक्षकारों और अधिवक्ताओं के द्वारा अपनाई जाने वाली अड़चनांे, बाधाआंे, विचलनों और आक्षेपों से निबटने में भी आपको दक्ष होना चाहिए। आपको अपना ध्यान मुख्य मामले का निराकरण करने के लिए केन्द्रित करना चाहिए। मैं ऐसा नही कह रहा हूँ कि आपको अंतर्वर्तीय आवेदनो को ग्रहण नही करना चाहिए या उन्हे निराकृत नही करना चाहिए। उनमें से कुछ सुसंगत और अत्यावश्यक (अर्जेण्ट) हो सकती है। मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह यह है कि आप मुख्य मामले को लटकाना अनुज्ञात नही करेंगे। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप सभी स्थगनों और अंतरिम निवेदनों के अनुरोधों को इंकार करेंगे। मैं तो यह कह रहा हूँ कि आप उन पर सख्ती से विचार करे।
जितना ही मामले का लंबन काल कम होगा उतनी ही अंतर्वतीय आवेदनों की संख्याँ भी कम होगी। स्थगनों को अनुज्ञात करने में आप जितना कठोर होगें उतने ही स्थगनों के अनुरोध भी कम होगें। आंकड़े यह दर्शाते है कि प्रत्येक मामले में प्रारंभ से लेकर अंत तक व्यतीत हुए संपूर्ण न्यायिक समय का एक तिहाई समय केवल प्रारंभिक कार्यवाहियों, स्थगन के आवेदनों और अंतर्वर्तीय मामलों पर ही व्यतीत होता है। यदि आप उक्त समय को न्यूनतम स्तर तक सीमित कर सकते है तो आपके द्वारा निराकृत मामलों की संख्याँ में वृद्धि होगी, लंबन काल कम होगा और विलंब से प्रभावी ढंग से निबटा जा सकेगा।
यदि आप प्रक्रियात्मक विधि का विशद ज्ञान अर्जित करते है और विधिक सिद्धंातंों तथा मौलिक विधियों का व्यापक ज्ञान अर्जित करते है तथा उचित सुनवाई दिये जाने, तथ्यों का क्रमबंधन और तर्कपूर्ण निर्णय/आदेश लिखने एवं अंतर्वर्तीय आवेदनोें के निराकरण करने तथा स्थगनों को नियंत्रित करने का कौशल विकसित कर लेते है तो कहा जा सकता है कि आपने आवश्यक न्यायिक कौशल अर्जित कर लिया है।
प्रशासनिक कौशल
पांच न्यायिक कौशल के साथ ही साथ आपको पांच प्रशासनिक कौशल भी विकसित करना है। उन्हें संक्षेप में निम्नानुसार बताया जा रहा है।
समय प्रबंधन - आपके पास एक वर्ष में लगभग 250 कार्य दिवस (जो लगभग 1250 न्यायालय घण्टों के बराबर है) है। निश्चित रूप से इसमें राज्यवार भिन्नता हो सकती है। उक्त समय आपको योजनाबद्ध ढंग से प्रारंभिक कार्य, साक्ष्य लेखन, अंतर्वर्तीय आवेदनों की सुनवाई, अंतिम तर्कांे की सुनवाई के लिये बांटना चाहिए। आपको सम्पूर्ण दिन को विभिन्न ईकाईयों के रूप में देखना चाहिए और अपने समय का प्रबंधन करना चाहिए। ऐसा करने से आपको सुने जाने वाले मामलों की संख्याँ निर्धारित हो सकेगी और आप उन्हे निराकृत कर सकेगें और इस प्रकार आप अपने परिणाम में धीरे-धीरे वृद्धि कर सकेगें।
न्यायालय में प्रत्येक 5 से 6 घण्टों के कार्य के साथ ही आपको अपने विश्राम कक्ष में प्रशासनिक कार्य के लिए भी कुछ समय व्यतीत करना चाहिए और 4 से 5 घण्टे अपने घर पर नस्तियों को पढ़ने और निर्णय तथा आदेशों को लिखने, डिक्टेशन देने और शुद्ध करने मेें देना चाहिए। अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य (व्यायाम, योग, ध्यान) और अपने परिवार के लिए भी समय देना कभी नही भूले।
बोर्ड प्रबंधन -
आपमें से प्रत्येक के बोर्ड पर औसतन 1,000 से 3,000 लंबित मामले है। आपको जानना चाहिए कि आप उक्त बोर्ड का किस ढंग से प्रबंधन करेगें। यदि आप प्रतिदिन बहुत अधिक संख्याँ में मामले सुनवाई के लिए लगाएगें तो फिर न्यायिक समय का अधिकांश हिस्सा केवल अनुत्पादक प्रारंभिक सुनवाई में ही व्यतीत हो जाएगा। आपको साक्ष्य वाले मामलों की संख्याँ तथा तर्क वाले मामलों की संख्याँ उस सीमा तक निर्धारित करनी होगी जिस संख्याँ तक आप उन्हे यथार्थ रूप से हैण्डल कर सकते है (इस बात को ध्यान में रखते हुये कि कुछ मामलों मंे स्थगन हो सकता है) और बोर्ड का मानकीकरण करे। आप साक्ष्य और तर्क के बहुत अधिक मामले सूचीबद्ध नही करें। साक्ष्य के और तर्क के बहुत अधिक मामले जैसे कि साक्ष्य के 20 और तर्क के 20 मामले सूचीबद्ध करने का कोई औचित्य नही है। आपको केस मैनेजमेंट और केस फ्लो मैनेजमेंट के टूल्स को भी प्रभावी रूप से लागू करना है। आपको पक्षकारों को वैकल्पिक विवाद निबटान प्रक्रिया अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित करना है। बोर्ड प्रबंधन और समय प्रबंधन साथ-साथ अपनाकर आप मामलों की पेन्डेंसी को कम करते है और कार्यदक्षता सुधारते है।
जब भी कोई केस साक्ष्य के लिए नियत किया जाता है तो पक्षकारों से उपस्थित रहने और साक्ष्य प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जाती है। एक पक्षकार के द्वारा बारंबार साक्ष्य के लिए न्यायालय में उपस्थित होने और तैयार रहने में व्यतीत होने वाले समय और उर्जा के व्यर्थ होने की कल्पना करंे। यही स्थिति बहुत अधिक संख्याँ में मामलों के तर्क हेतु नियत करने की हैे। प्रत्येक बार जब कोई केस तर्क के लिए नियत किया जाता है तो अभिभाषक से यह अपेक्षित है कि वह नस्ती को पढ़े और तैयार रहे। यदि कोई मामला बारंबार स्थगित होता है तो पक्षकार और अधिवक्तागण इस अनुमान में तैयार होना छोड़ देते है कि मामला सुनवाई के लिये लिया ही नही जाएगा। जब अंतिम रूप से मामला लिया जाता है तो कई बार पक्षकार और अधिवक्ता तैयार नही रहते और स्थगन के लिए अनुरोध किया जाता है या मामले का अप्रभावी अथवा दोषपूर्ण प्रस्तुतीकरण होता है जिसकी बाद में साक्षियों को पुनः बुलवाकर या तर्को को पुनः सुने जाकर मरम्मत की जाती है। किसी मामलें में सुनवाई की संख्याँ जितनी कम होगी उतना ही उस मामलें के निराकरण की गति तीव्र होगी और उतने ही पक्षकार कम तंग होंगे।
रजिस्ट्री प्रबंधन -
आपको अपने न्यायालयीन अधिकारियों, स्टेनोग्राफर्स, टाईपिस्ट, लिपिकीय एवं सहायक स्टाॅफ पर नियंत्रण और पर्यवेक्षण द्वारा यह सुनिश्चित करना है कि वे अपना कार्य उचित तरीके से करते है और आपको प्रभावी ढंग से सहयोग भी करते है। बेलिफो और आदेशिकावाहकों, (सूचनापत्रों, समन की तत्काल तामीली सुनिश्चित करने, कुर्की/विक्रयों को करने के लिए), अभिलेखागार के स्टाॅफ (अभिलेख की उचित संधारण के लिए), एवं स्टोररूम स्टाॅफ (यह सुनिश्चित करने के लिए कि भौतिक वस्तुएॅ एवं साक्ष्य उचित रूप से प्रदर्शित एवं सुरक्षित रूप से जमा किये गये है) पर विशेष ध्यान आकर्षित किया जाना है। आपको यह भी सुनिश्चित करना है कि न्यायालय का स्टाॅफ आम जनता के प्रति व्यवहारकुशल और धैर्यवान है तथा अभिभाषको और पक्षकारों के प्रति विनम्र है। कृपया यह याद रखे कि यदि न्यायालय का स्टाॅफ दक्ष नही है या उनमें निष्ठा अथवा विनम्रता का अभाव है तो वे न्यायालय की कार्यप्रणाली पर भी असर डालेंगे।
बार प्रबंधन -
अभिभाषकगण न्यायालय के अधिकारी है। जब तक आप उनका सहयोग प्राप्त नही करते तब तक आप त्वरित और प्रभावी ढंग से मामलों का निराकरण नही कर सकते। आपको समान रूप से बार के सदस्यों एवं पक्षकारों के प्रति विनम्रता प्रदर्शित करनी चाहिए। आपको साथ ही साथ दृढ़ होना चाहिए और उनके प्रति व्यवहार में चतुर होना चाहिए। आपको उनका सम्मान अपनी निष्ठा, व्यवहार और आचरण के द्वारा अर्जित करना चाहिए। बार को अपने साथ लेकर चलने और अपने विपरीत धारणा उत्पन्न किये बिना उनसे कार्य कराने में आपको दक्ष होना चाहिए। आपको अनावश्यक कठोर भी नही होना चाहिए। स्थगन के उचित अनुरोधो को मंजूर भी किया जाना चाहिए। तुच्छ और सामान्य प्रकार के स्थगन के अनुरोधों और विलंबकारी युक्तियों से दृढ़तापूर्वक निबटना चाहिए। यदि आप कहने मात्र से मामला स्थगित कर सकते है तो आप अधिवक्ता एवं अभिभाषको से तैयार रहने की अपेक्षा नही कर सकते। अंतरिम अनुदेशों और जमानत के आवेदन आपको त्वरित रूप से निबटाने चाहिए। अंतरिम अनुदेशो को कहने मात्र से प्रदान करके ख्यात होने से बचने का प्रयास करना चाहिए। आपको ‘‘नो- नाॅनसेन्स जज‘‘ - ऐसा न्यायाधीश जो अनावश्यक साक्ष्य को अभिलेख पर लाया जाना, लंबे तर्कों, तुच्छ अनुरोधो, दुवर््यपदेशनों या विलंबकारी युक्तियों को अनुज्ञात नही करेगा , की ख्याति अर्जित करनी चाहिए।
स्व-प्रबंधन -
स्व-प्रबंधन से तात्पर्य आत्म अनुशासन, समय की पाबंदी, समर्पण, सकारात्मक दृष्टिकोण और कठोर परिश्रम से है। इससे तात्पर्य अच्छे स्वास्थ्य और अच्छी आदतों को बनाये रखने से है। इससे तात्पर्य उचित एवं स्वस्थ्य मनोरंजन से भी है।
आप न्यायालय में समय पर बैठे। यदि आप न्यायालय में विलंब से है तो आप अधिवक्ताओं और कर्मचारियों से समय की पाबंदी की अपेक्षा नही कर सकते। आपको पूरे न्यायालयीन समय में सीट पर होना चाहिए। यदि आप अपने विश्राम कक्ष में बार-बार पंहुॅचते है तो आप अधिवक्ताओं और पक्षकारोें से उस समय न्यायालय कक्ष में होने की अपेक्षा नही कर सकते जब उनका मामला न्यायालय में सुनवाई के लिये लिया जाता है। आपको निर्णय और आदेश भी त्वरित रूप से देने चाहिए। आपको अनावश्यक अवकाशों जैसे वर्ष के अंत में केवल इसलिए अवकाश लेना कि कुछ आकस्मिक अवकाश उपभोग करने से रह गये है, से भी बचना चाहिए।
आपको अपना स्वास्थ्य भी अच्छा रखना है यदि आपके पास अच्छा स्वास्थ्य नही होगा तो आप प्रभावी ढंग से कार्य नही कर सकते। आपके कार्य की प्रगति के संदर्भ में आपको प्रतिदिन 12 से अधिक घण्टो तक कुर्सी पर कार्य करना होता है। ऐसी कुर्सी से बंधी हुई तनावपूर्ण जीवनशैली रक्तचाप, शक्कर, पीठ के दर्द, स्पाॅण्डिलाईटिस, वेरीकोजवेन्स और अन्य व्याधियों के लिए निमंत्रण है। यह आपको न्यायालय में थका हुआ और चिड़चिड़ा बनाने वाला है। अतएव यदि आप अच्छा स्वास्थ्य बनाये रखना चाहते है तथा प्रभावी व पूर्ण सामथ्र्य से कार्य करना चाहते है तो व्यायाम, योग, उचित आहार पूर्णतया आवश्यक है।
आपको तकनीकी के प्रति भी सहज होना चाहिए। आपको कम्प्यूटर एवं सूचना प्रौद्यि-गिकी की कार्य योग्य जानकारी होनी चाहिए। यह आपको आदेश एवं निर्णय को लिखने और संशोधित करने, केस लाॅ और आर्टिकल्स को खोजने, आंकड़ों को तैयार करने तथा प्रतिवेदनों को तैयार करने में सहायक होगा। इससे आपके सामान्य ज्ञान में विस्तार होगा एवं आपको मानव अधिकार, न्यायालयिक-विज्ञान, वैकल्पिक विवाद निबटान प्रक्रिया और न्यायालय प्रबंधन तकनीकों के बारे में अद्यतन बनाये रखेगा। पेपररहित ई-कोर्ट्स और साक्ष्य तथा तर्को का वीडियों कान्फ्रेसिंग इत्यादि के माध्यम से प्रस्तुतीकरण अब दूर नही है। तकनीकी से जूझने और उसे मैनेज करने के लिए आपको तैयार रहना है।
उपरोक्त प्रशासनिक दक्षताएॅ आपको कार्यकुशल बनाएंगी। ‘‘क्षमता एवं तत्परता‘‘ शीर्षक के अंतर्गत बंगलौर प्रिंसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कण्डक्ट 2002 में दिये गये निम्नलिखित दिशानिर्देश उपरोक्त न्यायिक एवं प्रशासकीय कौशल को साथ-साथ विकसित करने की महत्ता को रेखांकित करते है।
6..1 एक न्यायाधीश के न्यायिक कर्तव्य अन्य सभी गतिविधियों पर अभिभावी है।
6.2 एक न्यायाधीश अपनी न्यायाधीशीय प्रोफेशनल गतिविधि को न्यायिक कर्तव्य के रूप में समर्पित करेगा जो न केवल न्यायालयीन कार्यो और न्यायालय में जिम्मेदारियों और निर्णय के लिखने के निष्पादन के रूप में है बल्कि न्यायिक पद या न्यायालय के संचालन से सुसंगत अन्य सभी कार्यवाहियों के निष्पादन के रूप में है।
6.3 एक न्यायाधीश अपने ज्ञान, दक्षता और न्यायिक कर्तव्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक व्यक्तिगत गुण, को बनाये रखने और बढ़ाने के लिए उचित कदम जैसे प्रशिक्षण और इस प्रयोजन के लिए अन्य उपलब्ध सुविधाओं का भी उपयोग करेगा।
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6.5 एक न्यायाधीश सभी न्यायिक कर्तव्यों जिनमें आरक्षित निर्णयों को सुनाना भी है, प्रभावी ऋजुतापूर्वक, युक्तियुक्त, शीघ्रता से निष्पादित करेगा।
6.6 एक न्यायाधीश न्यायालय में सभी कार्यवाहियों में मर्यादा बनाये रखेगा और पक्षकारों, साक्षियों, अभिभाषको तथा वह जिनसे कार्यालयीन हैसियत में व्यवहार करता है ,उनके साथ धैर्यवान, गरिमापूर्ण और विनम्र होगा। न्यायाधीश से उसी तरह का आचरण विधिक प्रतिनिधियों, न्यायालय स्टाॅफ एवं अपने असर निर्देश या नियंत्रण के अधीन के प्रति भी अपेक्षित है।
6.7 एक न्यायाधीश अपने न्यायालयीन कर्तव्यों के उद्यमपूर्ण निर्वहन से अंसगत आचरण में संलग्न नही होगा।
न्यायिक नैतिकता
चलो हम यह मान लेते है कि आप आवश्यक न्यायिक एवं प्रशासनिक दक्षता से युक्त सक्षम न्यायाधीश है। क्या यही आपको एक अच्छा न्यायाधीश बना देगा ? यह प्रश्न न्यायाधीश के रूप में आपके आचरण को विचारणीय बनाता है। एक न्यायाधीश के द्वारा अनुसरित एवं व्यवहार में लाए जाने वाले नैतिक मापदण्ड क्या है ? उसे किस तरह व्यवहार करना चाहिए ? उसका आचरण क्या होना चाहिए ? जनता उससे क्या आशा करती है ?
एक अच्छा न्यायाधीश होने के लिए आपको पांच नैतिक सिद्धांतो - ईमानदारी एवं निष्ठा, न्यायिक अलगाव एवं, न्यायिक स्वंतत्रता, न्यायिक मिजाज एवं विनम्रता, एवं निष्पक्षता। आप सभी एक न्यायाधीश के रूप में न्यायिक आचरण के उक्त मापदण्डों से अवगत है। समस्या केवल उन्हें निष्ठा से और लगातार व्यवहार में लाने की है। अब इन सिद्धांतों पर विचार करते है।
निष्ठा एवं ईमानदारी
जब कोई एक न्यायाधीश की निष्ठावान के रूप में प्रशंसा करता है तो मैं अपमानित एवं चिड़चिड़ा महसूस करता हूँ। एक न्यायाधीश में ईमानदारी और निष्ठा न तो विशेष गुण है और न ही प्रशंसा के योग्य उपलब्धियाँ। वे तो एक न्यायाधीश होने की मौलिक पूर्वापेक्षाएँ है। वे तो उसके अशिथिलनीय योग्यता मापदण्ड है। एक न्यायाधीश का निष्ठावान एवं ईमानदार होना आपेक्षित है। यदि कोई न्यायाधीश ईमानदार नहीं है या उसमें निष्ठा की कमी है तो उसे न्यायाधीश होने का हक नही है। जब तक न्यायाधीश अपनी निष्ठा के लिए नही जाने जाएगें तब तक मजबूत, तौर प्रभावी न्यायपालिका नही हो सकती। इस देश में लगभग 15,000 न्यायाधीश है। यदि उनमें केवल कुछ ही दागी है तो भी जनता और मीडिया सम्पूर्ण न्यायपालिका को भ्रष्ट की श्रेणी में रख देती है। यदि एक न्यायाधीश कुछ भी अनुचित करता है तो न केवल त्रुटिकर्ता न्यायाधीश बल्कि सम्पूर्ण न्यायपालिका एक गलत नजरिये से देखी जाएगी। एक न्यायाधीश का प्रत्येक अनुचित कृत्य और प्रत्येक दुव्र्यवहार बढ़ा-चढ़ा कर और तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है और उससे न्यायपालिका में आमलोगों के विश्वास और भरोसे में कमी आती है। न्यायाधीश के कार्यालय की प्रकृति और कार्यों को देखते हुए सरकार के अन्य अंगो के कर्मचारियों की तुलना में न्यायाधीश बहुत अधिक सम्मान पाता है। उसी अनुरूप जनता भी उससे उसी उच्च स्तर की निष्ठा और ईमानदारी की अपेक्षा रखती है। अतएव न्यायाधीश को अपने आचरण और व्यवहार में दोहरी सावधानी रखनी होती है ताकि न्यायपालिका की उच्च प्रतिष्ठा बनी रहे।
बहुत से अभियुक्त धनी और शक्तिवान एवं साधन संपन्न है। व्यवहार मामलों के बहुत से पक्षकार मामले मंे केवल अपने अहं, लालच और ईष्र्या के कारण लगे हुए हैं।
सिविल और आपराधिक मामलों के ऐसे पक्षकार सफलता के लिए कुछ भी कर सकते है जो दुर्भाग्य से न्यायाधीश को प्रभावित करने के प्रयास के रूप मंे भी हो सकता है। अन्य कोई वृत्ति या कार्य में ईमानदारी व निष्ठा के इतने उच्च मापदण्ड की अपेक्षा नही होती और न ही वे भ्रष्ट होने के इतने प्रलोभन और अवसर उपलब्ध कराते है। आपको ऐसे प्रलोभनों से अपने को हमेशा बचाकर रखना है। भ्रष्टाचार की लड़ाई में आप आखिरी आशा है और आपको ऐसी बाड़ नही बनना है जो फसल को ही खा जाए।
जाॅन मार्शल ने कहा है ‘‘न्यायपालिका की शक्ति मामलों के निराकरण में ही नही है और न ही दण्डादेश अधिरोपित करने, अवमानना के लिए दण्डित करने में है बल्कि आम जनता के विश्वास में है। यदि न्यायपालिका में आम आदमी के विश्वास मंे कमी आती है तो वह लोकतंत्र और विधि के शासन का अंत होगा।‘‘
कुछ न्यायाधीश भ्रष्टाचार को एक मामला निराकृत करने के लिए घूंस लेने या अनुचित प्रलोभन प्राप्त करने से ही जोड़ते है। वे मानते है कि किसी अधिवक्ता या राजनैतिज्ञ या व्यवसायी से ऐसा कोई अनुग्रह लेना जो उसके समक्ष लंबित किसी मामले से संबंधित नही है, किसी भी तरह आक्षेप योग्य नहीं है और उनकी निष्ठा को भी प्रभावित नही करेगा। किंतु निष्ठा और उसके एंटिथिसिस के रूप मंे भ्रष्टाचार के बहुत से चेहरे है। उदाहरण के लिए यह मानते है कि एक न्यायाधीश अवकाश दौरेे पर जाने के लिए एक अधिवक्ता की मंहगी कार उधार लेता है या किसी पारिवारिक आयोजन जैसे विवाह, जन्मदिन के उत्सव पर अधिवक्ताओं से महँगी भेटें स्वीकार करता है। न्यायाधीश द्वारा लिये गये उपरोक्त दोनों लाभों में से किसी का भी उसके द्वारा निराकृत किये जाने वाले या निर्णय लिखाये जाने वाले मामले से किसी भी तरह से संबंधित नही है। किंतुु न्यायाधीश का ऐसा कोई भी आचरण जो भविष्य में उसकी निष्ठा को प्रभावित कर सकता है या सामान्य तौर पर न्यायपालिका की या उस विशिष्ट न्यायाधीश की विश्वसनियता को प्रभावित करने की संभाव्यता रखता है आक्षेप योग्य है, भले ही न्यायाधीश के द्वारा प्राप्त किये गये किसी भी लाभ का कोई विशिष्ट तत्प्रतित ;ुनपक चतव ुनवद्धनही है। एक न्यायाधीश के द्वारा ऐसा विवेक के अधीन लाभ प्राप्त करना जोे अन्य न्यायाधीशों को नही दिया जा रहा है एक आक्षेप योग्य व्यवहार है। याद रखें अनुग्रह सदैव बुराई के साथ आता है। जब भी एक न्यायाधीश के प्रति कोई अनुग्रह किया जाता है तो उसे करने वाला भविष्य के विनियोग के रूप में लेता है और जब भी अवसर आयेगा तो वह किसी न किसी रूप में उसकी मांग करेगा या कम से कम उसकी आशा करेगा। आपको अपनी निष्ठा बनाये रखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि ऐसा केेाई भी अनुग्रह, भेंट या लाभ, जो युक्तियुक्त रूप से न्यायाधीश को उसके न्यायिक कर्तव्यों के निष्पादन को प्रभावित करने के आशय के रूप में लिया जा सकता है, स्वीकार नहीं करे।
आपको न केवल ईमानदार रहना है बल्कि आपको ईमानदार दिखना भी है। आपको इस बारे में सावधानी बरतनी है कि आप व्यक्तिगत जीवन में दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। आप यह मानने में गलती करते हंै कि ‘‘मैं ईमानदार हूँ. मेरी अन्र्तात्मा साफ है इसलिए मैं किसी भी व्यक्ति से स्वतंत्रतापूर्वक संबंध रख सकता हॅू।‘‘ आप ईमानदार हो सकते है। किंतु, दुर्भाग्य से, मुकदमें के पक्षकार और जनता यह नही मानती कि आप ईमानदार है। एक ऐसी दुनियाँ जिसने हर जगह बेईमानी और भ्रष्टाचार ही देखा है वह भ्रष्ट हेतु को मानने मंे नही हिचकती, यदि आपका आचरण किसी भी तरह इसके लिए स्थान छोड़ता है भले ही आप ईमानदार है। यदि वे आपको किसी क्लब या रेस्टारेंट में किसी अधिवक्ता या मुकदमा लड़ने वाले की संगति में देखता है तो वह मान लेगें कि कुछ ‘सौदा‘ हो रहा है। वे यह कभी नही सोचगें कि आप मित्र के साथ रात्रिभोज ले रहे हंै। यदि आप यह सुनिश्ति करना चाहते है कि अनुचित हेतु आपके साथ न जुड़े और आप चाहते है कि आपका नाम और न्यायपालिका की अच्छी छवि प्रभावित न हो तो दूरी बनाए रखंे।
‘‘बंगलौर पिं्रसिपल आॅफ ज्यूडिशियल ंकंडक्ट (2002)‘‘ के निम्नलिखित दिशानिर्देश इस विषय में सुसंगत है -
3.1 एक न्यायाधीश यह सुनिश्चित करेगा कि एक युक्तियुक्त सम्प्रेक्षक की नजर में आपका आचरण पहँुच से बाहर है।
3.2 एक न्यायाधीश का व्यवहार एवं आचरण लोगों की न्यायपालिका में निष्ठा को पुनसर््थापित करने वाला होना चाहिए। न्याय केवल किया ही नही जाना चाहिए बल्कि न्याय होता दिखना भी चाहिए।
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4.14 एक न्यायाधीश और उसके परिवार के सदस्य न्यायाधीश द्वारा अपने कर्तव्यों के निष्पादन के रूप में अपने द्वारा किए गये या किये जाने वाले या करने में लोप के लिये कोई भेंट, ऋण या अनुग्रह न तो मांगेगे और न ही स्वीकार करेगें।
4.15 एक न्यायाधीश जानते हुये अपने न्यायालय के कर्मचारियों या अन्य किसी को न्यायाधीश के प्रभाव, निर्देश या प्राधिकार के अधीन अपने द्वारा किये गये या किये जाने वाले या करने में लोप के लियेे कोई भेंट, ऋण या अनुग्रह स्वीकार करने के लिए अनुज्ञात नही करेगा।
4.16 लोक प्रकटन की कानूनी एवं अन्य विधिक अपेक्षाओं के अध्यधीन रहते हुए एक न्यायाधीश केवल प्रतीक स्वरूप भेंट, अवार्ड या लाभ, उस अवसर के अनुरूप जिस पर ये दी गई हंै, ही स्वीकार करेगा बशर्तें ऐसी भेंट, अवार्ड या लाभ को उसके द्वारा निर्वाह किये जाने वाले न्यायिक या अन्य कर्तव्यों पर असर डालने या अन्यथा न्यायाधीश द्वारा पक्षपात के लिये आशायित होने के रूप में युक्तियुक्त रूप से उन्हें न लिया जाए।
न्यायिक अलगाव ;ंसववदिमेेद्ध एवं असंबंद्धता ;कमजंजबीउमदजद्ध
न्यायिक अलगाव, विवादों से दूर रहते हुये और परिणामों की परवाह किये बिना न्याय प्रदान करने में आपके मस्तिष्क को शक्ति देता है। आपको प्रभावित हुये बिना विधि के अनुसार यह निश्चय करना है कि कौन सही है और कौन गलत है। लार्ड ब्रिकेट ने दूरी बनाये रखने को इस तरह समझाया है -
‘‘एक न्यायाधीश का अपने समक्ष कार्यवाहियों पर पूर्ण नियंत्रण रखना सभी न्यायालयों में न्याय प्रशासन का एक अभिन्न अंग है। किसी भी समय प्रश्न के माध्यम से या अन्यथा न्यायाधीश का यह कर्तव्य है कि वह आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप करे। वह साक्ष्य में अस्पष्टताओं को स्पष्ट एवं पठनीय किये जाने की इच्छा कर सकता है, वह मामले में और अधिक आवश्यक खोज की इच्छा कर सकता है, इस तरह उसका हस्तक्षेप वांछनीय और लाभदायक हो सकता है। लेकिन यह कहना भी निरापद है कि उसके सभी हस्तक्षेप इस सर्वोच्च कर्तव्य से शासित होने चाहिए कि मामले के पक्षकार एक ऋजु विचारण का आस्वाद लें। उसका हस्तक्षेप केवल हस्तक्षेप के रूप में हो न कि अभिभाषक के कृत्यों को पूरी तरह से हड़पने के रूप में। एक न्यायाधीश द्वारा न्याय प्रशासन की सबसे अच्छे ढंग से सेवा न्यायिक शांति और न्यायिक भावभंगिमा को बनाए रख कर, विवादों से अलग थलग रहकर ही की जा सकती है।‘‘
निश्चित रूप से कुछ मामलों (उदाहरण के तौर पर जनहितवाद) में न्यायिक सक्रियता दिखाते समय न्यायाधीश को अपने आदेशों और की गई कार्यवाहियों से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर भी ध्यान देना है। इस अपवाद पर मेरे आर्टिकल ‘‘निर्णय सुनाने के कुछ सिद्धांत‘‘ में विचार किया गया है।
न्यायिक अलगाव से तात्पर्य असामाजिक होना नही है। इसका तात्पर्य समाज की समझ के प्रति उदासीन होना भी नही है। और इसका तात्पर्य दिन-प्रतिदिन के जीवन के यथार्थ को नकारना भी नहीं है। न्यायाधीशों को समाज की आवश्यकताओं के समझने योग्य होना चाहिए और उन्हें समाज के कमजोर तबके की कठिनाईयों और समस्याओं से जुड़ना चाहिए और गरीब तथा निम्न वर्ग की न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करनी चाहिए। धनी, शक्तिसंपन्न और निष्ठाहीन तथा पकड़ रखने वाले अपने मौलिक अधिकारों, मानवीय अधिकारों या सांपत्तिक अधिकारों के उल्लंघन के बारे में तेज आवाज में विरोध कर सकते हैं और सक्षम अधिवक्ताओं के माध्यम से अपने अधिकारों की संरक्षा के लिए समर्थ है। लेकिन प्रत्येक समर्थ, जो अपने अधिकारों की रक्षा कर सकता है के अलावा समाज के कमजोर तबके से संबंधित ऐसे सैकड़ों सामथ्र्यहीन भी हैं जो अपने विरूद्ध होने वाले अन्याय के प्रति विरोध दर्शित नही कर सकते और न ही अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अधिवक्ता नियुक्त कर सकते है। आप उन सभी के संरक्षक है जो अपने को संरक्षित करने में असमर्थ है। आप न केवल अवयस्कों, मानसिक चुनौती वालों, धार्मिक और खैराती संस्थाओं बल्कि महिलाओं, बुजुर्गो, अशक्तों, गरीबों और फुटपाथ पर रहने वालों के संबंध में कार्यवाही करते समय विशेष जिम्मेदारियों से युक्त होते है। जब आप संरक्षक की भूमिका में होते है तो अलगाव और अनाशक्ति कुछ समय के लिये पीछे छोड़नी होती है।
न्यायिक अलगाव न केवल मानसिक अवस्था का परिचायक है बल्कि शारीरिक रूप से ‘‘दूरी‘‘ बनाये रखना भी है। ‘‘न्यायिक जीवन के मूल्यों के पुनर्कथन‘‘ में कहा गया है कि - ‘‘एक न्यायाधीश को अपने पद की गरिमा से संगत अलगाव बनाये रखना चाहिए, अधिवक्ता संघ के किसी सदस्य से अतिनिकटता, विशेष तौर से उन व्यक्तियों के द्वारा जो उसी न्यायालय में पैरवी करते हों को दूर करना होगा। ‘‘आपको अभिभाषक संघ के सदस्यों, राजनीतिज्ञों या आपके समक्ष मुकदमें के पक्षकारों से लोक आयोजनों या विवाह और मृत्यु जैसे खुली निजी घटनाओं के सिवाय घुलना मिलना दूर करना होगा। न्यायालय के भीतर किसी अधिवक्ता या पक्षकार के प्रति मुस्कुराना, न्यायालय के बाहर किसी अधिवक्ता या पक्षकार के साथ गप्पबाजी, लोक समारोह पर किसी राजनीतिज्ञ के साथ विनोद करना, जनता या अभिभाषक संघ के सदस्यों द्वारा गलत रूप से समझे और निर्वचित किये जाने योग्य है। यदि आप उनसे अपने घर पर या उनके घर पर या होटल, रेस्टाॅरेंट, क्लब जैसे स्थानों पर अकेले में मिलते है या उनके साथ घुलते मिलते है तो आप समस्याओं को आमंत्रित कर रहे है। लोगों में फुसफुसाहट होगी। दुर्भाग्य से हम संदेहों से भरे संसार में रह रहे है खासतौर से जब मामला न्यायाधीश का हो। अतएव दूरी बनाये रखने की जरूरत है। हम आशा करे कि जब न्यायाधीश और न्यायपालिका को निष्ठा और निष्पक्षता से युक्त प्रतिष्ठा प्राप्त की जायेगी तो दूरी बनाये रखने की जरूरत ही समाप्त हो जायेगी।
जब भी मैं शारीरिक रूप से दूरी बनाये रखने की राय देता हूॅ तो सदैव एक श्रोता के निमित्त उत्तर को देखता हूँ -
आप हमें दूरी बनाये रखने को कहते हैं। लेकिन राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण हमसे विधिक जागरूकता कार्यक्रमांे को आयोजित करने के लिए कहता है जहाँ हमें वकीलों एवं पक्षकारों सहित जनता से घुलना मिलना पड़ता है। हमें जिला प्रशासन, पुलिस अधिकारियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों और अभिभाषक संघ के सदस्य का सहयोग इन कार्यक्रमांें के लिए लेना होता है। आप हमसे दूरी बनाये रखने और स्वतंत्र रहने की आशा कैसे कर सकते है।
यह विषय निसंदेह पेचीदा है। आपको दो विविध भूमिका निभानी है, एक न्यायाधीश की भूमिका है जहाँ आपसे अधिवक्ताओं, पक्षकारों से नही घुलने मिलने या उनका अनुग्रह नही लेनेे की आशा की जाती है। आपकी दूसरी भूमिका एक ऐसे प्राधिकारी की है जिसे विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के प्रावधानों को क्रियान्वित करना है जहँॅ आपको अभिभाषकों, पक्षकारों, मौलिक अधिकारियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों से रूबरू होना है। यदि आप विधिक जागरूकता कार्यक्रम से संबंधित किसी लोक आयोजन पर किसी से चर्चा करते देखे जाते है तो आपकी निष्ठा या स्वतंत्रता को प्रश्नांकित करने कोई नही जा रहा है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति आपको किसी अधिवक्ता या पक्षकार से निजी तौर पर चर्चा करते देखता है तो प्रतिदिन टिप्पणियों के लिए अवसर उपलब्ध कराता है। यदि आप अपनी न्यायिक भूमिका और अपनी विधिक सेवा भूमिका के मध्य अंतर अपने दिमाग में रखते है तो आप परेशान करने वाली स्थितियौं को दूर करने में समर्थ होगें।
मैं इस बात से सहमत हूॅ कि न्यायाधीश को किसी भी स्थिति में अपने को ऐसी स्थिति में नही डालना चाहिए जहाँ वे अधिवक्ताओं, पुलिस अधिकारियों या जिला प्रशासन के अधिकारियों का अभारी होना पड़े चाहे वह विधिक सेवा कार्यक्रम के संबंध में ही हो या किसी वरिष्ठ अधिकारी के दौरे के संबंध में हो या अन्यथा। यदि न्यायाधीश को ऐसे आयोजनों के लिए अनुग्रह लेने की आवश्यकता है तो आपको उसी रूप में अनुग्रह लौटाना होगा जिसका अर्थ होगा न्यायिक अलगाव और स्वतंत्रता के प्रति समझौता करना जो कुछ मामलों में निष्ठा खोने तक जा सकता है। इसलिए मेरी राय यह है कि बड़े और विवादित कार्यक्रमों के आयोजन से बचा जाये। न्यायाधीशों से राजनीतिज्ञों के आकार की सभायंे और कार्यक्रम आयोजित करने की अपेक्षा नही होती। छोटी बैठकें, चुनिंदा लक्षित श्रोतागण, और अर्थपूर्ण संवाद ही विधिक जागरूकता के प्रसार के लिए अपेक्षित है। कृपया स्वीकृत बजट में विधिक सेवा और अन्य न्यायालय संबंधी आयोजनों को सादे ढंग में आयोजित करने का साहस करे।
मैं विधिक सेवा प्राधिकरण के अध्यक्षों को शुभ सलाह देने का अवसर चाहूँगा। कृपया न्यायाधीशों को विधिक सेवा कार्यक्रम आयोजित या संचालित करने की अपेक्षा के समय यह सुनिश्चित करे कि उनकी स्वतंत्रता से समझौता तो नही हो रहा। वास्तव में अच्छा यह होगा यदि विधिक सेवा गतिविधियाॅ (विवादों के वैकल्पिक निदान कार्यक्रमों से अन्यथा) विधिक सेवा प्राधिकरणों के कर्मचारियों, जो न्यायिक अधिकारी नही है, द्वारा ही आयोजित किये जाये और न्यायाधीश उनमें केवल अतिथि या वक्ता के रूप में ही सम्मिलित हो। व्यक्तिगत रूप से मेरी यह राय है कि विधिक जागरूकता फैलाना और न्याय तक पहँुच प्रदान करना कार्यपालिका के कृत्य है। मैने देखा है कि किसी भी अन्य देश में विधिक जागरूकता फैलाना और विधिक सहायता विस्तारित करना न्यायपालिका के कृत्य नहीं है। लेकिन यदि हमारी संसद ने इस भार के निर्वहन के लिए न्यायपालिका को ही चुना है तो न्यायाधीशों को यह कार्य लगन के साथ निभाना चाहिए।
बंगलौर प्रिंसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कण्डक्ट (2002) की औचित्य शीर्षक में दिये गये दिशानिर्देश सुसंगत है -
4.1 एक न्यायाधीश को औचित्यहीनता एवं औचित्यहीनता के आभास को न्यायाधीश की सभी कार्यवाहियों से बचाना चाहिए।
4.2 लगातार जनता की नजर के कारण एक न्यायाधीश को व्यक्तिगत निर्बन्धन स्वीकार करने चाहिए जो आम नागरिक के द्वारा भार स्वरूप महसूस किये जा सकते है और ऐसा उसे स्वेच्छया और स्वतंत्रतापूर्वक करना चाहिए। विशेषतौर पर एक न्यायाधीश को ऐसा आचरण करना चाहिए जो उसके न्यायिक कार्य की गरिमा से संगत हो।
4.3 एक न्यायाधीश को अपने न्यायालय में वकालत करने वाले विधिक वृत्ति के किसी सदस्य के साथ व्यक्तिगत संबंधों के कारण ऐसी दशाओं से बचने का प्रयास करना चाहिए जो युक्तियुक्त रूप से पक्षपात का संदेह या आभास कराये।
न्यायिक स्वतंत्रता -
न्यायिक स्वतंत्रता न्यायपालिका की एक संस्था के रूप में स्वतंत्रता के साथ ही साथ एक न्यायाधाीश की निजी हैसियत में न्यायिक कार्यो के निष्पादन में स्वतंत्रता की ओर भी संकेत करती है। यहाँ पर हम न्यायाधीश की व्यक्तिगत रूप में स्वतंत्रता के बारे में विचार कर रहे हैं जो किसी असर या दबाव से स्वतंत्र और कार्यपालिका या विधायिका के हस्तक्षेप से स्वतंत्र न्यायिक प्रक्रिया के बारे में है। आप विधि के अनुसार मामले का अपने अनुसार निराकरण करने के लिए स्वतंत्र हैं। अपने न्यायिक कार्यों और निर्णयों के संबंध में किसी कार्यवाही या बदले या व्यक्तिगत आलोचना से आप पूर्णतया उन्मुक्त है। ऐसी उन्मुक्ति आप तब भी रखते हैं जब आपका न्यायिक कार्य अधिकारिता के बिना करते है या गलत तरीके से मामले का निराकरण कर देते हैं बशर्ते आपने ऐसा सदभाव में किया है।
जब भारत का संविधान ‘‘अधीनस्थ न्यायपालिका‘‘ अभिव्यक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों से इतर न्यायाधीशों का वर्णन करता है तो उसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसका आशय न्यायिक स्वतंत्रता पर बेडि़याँ डालना है। शब्द ‘‘अधीनस्थ‘‘ का शाब्दिक अर्थ अन्य की तुलना में किसी की निचली स्थिति से है। संविधान इस अभिव्यक्ति का उपयोग केवल न्यायिक वरिष्ठताक्रम में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से नीचे की स्थिति वाले न्यायाधीशों का वर्णन करने के लिए करता है। बाद में शब्द ‘‘अधिनस्थ‘‘ दुर्भाग्य से कुछ न्यायाधीशों के द्वारा अनुसेवी के रूप में समझा जाता है। हमें यह स्पष्ट करना है उच्चतर न्यायालय आपके द्वारा निर्णय प्रदान करने के पश्चात सुधारने की शक्ति रखता है। किंतु कोई भी आपको यह निर्देश देने की शक्ति नही रखता कि आपको प्रथमदृष्टया मामला कैसे निराकृत करना है और आपको क्या निर्णय करना चाहिए। विधि के अनुसार निर्णय करने की आपकी स्वतंत्रता किसी भी नियंत्रण या निर्बन्धनों के अधीन नही है। न्यायिक कृत्यों के प्रयोग में आप स्वतंत्र है और किसी के भी अधिनस्थ नही है। अधिनस्थ न्यायपालिकाओं के सदस्यों और उच्च न्यायपालिकाओं के सदस्य के मध्य अंतर केवल अधिकारिता से संबंधित है।
न्यायिक स्वतंत्रता का यह अर्थ इस बात की स्वतंत्रता नही है कि वे जो चाहे वह करंे और आप चाहे जिसे युक्तियुक्त और साम्यपूर्ण माने न्यायिक स्वतंत्रता का यह भी तात्पर्य नही है कि आप अपने विवेक को अपनी सनक के अनुसार उपयोग करें। यहाँ तक कि जब आप विवेक का उपयोग कर रहे हंै जिसके लिये कोई संविधिक गाईडलाईन या पूर्ण निर्णय भी नही है तो आपसे अपेक्षा है कि आप उचित रूप से और निष्पक्ष ढंग से कार्य करंे न कि स्वैच्छिक रखे आपसे विधि के अनुसार न्याय प्रदान करने की अपेक्षा है। न कि अपने धारणाओं के अनुसार या जिसे आप युक्तियुक्त समझते है। न्यायमूर्ति कार्डोजों ने चेताया है कि -
न्यायाधीश वह जब खाली भी है तब भी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है वह अपनी पसंद पर कुछ करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। वह न्याय और ऋजुता के अपने आदर्श नहीं बना सकता। उसे अपनी प्रेरणा सुस्थापित सिद्धान्तों पर आधारित करनी है। उसे अनिश्चित आवेगों पर विचार नहीं करना है।
न्यायिक स्वतंत्रता न्यायधीशों के द्वारा उपभोग किये जाने वाला विशेषाधिकार नहीं है बल्कि लोकतंत्र में विधि शासन के प्रति लोगों के विशेषाधिकार का प्रतिबिंब है। यह विधायिका एवं कार्यपालिका की स्वछंदता के विरूद्ध आम जनता की सुरक्षा के लिए एक सुरक्षा चक्र है। यह अपने कर्तव्यों के निष्पादन में गंभीर और संवेदनशीलता की जिम्मेदारी के साथ आता है। यूनियन आॅफ इंडिया विरूद्ध मद्रास बार ऐसोसियेशन में उच्चतम न्यायालय का सम्प्रेक्षण है कि:-
46. स्वतंत्रता का तात्पर्य न्यायधीशोें की यह स्वतंत्रता नहीं है कि वे चाहे जो करें। यह न्यायिक विचारों की स्वतंत्रता है। इसका तात्पर्य हस्तक्षेप और दबावों से भी मुक्ति है जो न्यायधीशों को ऐसा वातावरण देती है जहां वे न्यायिक हेतु एवं संवैधानिक मूल्यों के लिये पूर्ण समर्पण के साथ काम कर सकंे। यह जीवन, आदतों और रहन सहन में अनुशासन है जो न्यायाधीश को निष्पक्ष बनाता है।
बंगलौर प्रिंसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कंडक्ट (2002) स्पष्ट करता है कि न्यायिक स्वतंत्रता विधि शासन की पूर्ववर्ती शर्त है और ऋजु विचारण की मौलिक प्रत्याभूति है और इसीलिए एक न्यायाधीश को व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों ही रूपों में न्यायिक स्वतंत्रता को बनाये रखना है और विस्तारित करना है। इस सिद्धांत के उपयोग हेतु निम्नलिखित दिशा निर्देश दिये गये है-
1.1 एक न्यायाधीश को न्यायिक कार्य तथ्यों के अपने आंकलन के आधार से स्वतंत्र रहते हुये, किसी भी कारण से किसी भी प्रकार के बाह्य प्रभावों, प्रलोभनों, दबाव, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष धमकी या हस्तक्षेप से मुक्त होकर विधि की ईमानदार समझ के आधार पर करना है।
1.2 न्यायाधीश समाज के संबंध में सान्यतया तथा किसी भी ऐसे मामले के पक्षकारों के संबंध मंे, जिसका उसे निराकरण करना है, विशिष्टतया स्वतंत्र रहेगा।
1.3 एक न्यायाधीश न केवल शासन की कार्यपालिका एवं विधायी शाखा से अनुचित संबंधों एवं प्रभावों से मुक्त हो बल्कि उनसे मुक्त एक युक्तियुक्त संप्रेक्षक दर्शित होना चाहिए।
1.4 न्यायिक कृत्यों के निष्पादन में एक न्यायाधीश निर्णय के संबंध में, जिसका वह स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय लेने के लिये दायित्वाधीन है, अपने न्यायिक सहयोगियों से स्वतंत्र होगा।
1.5 न्यायपालिका की संस्थागत और कार्यात्मक स्वतंत्रता को बनाये रखनें और उसमंे वृद्धि के लिये एक न्यायाधीश अपने न्यायिक कृत्यों के निष्पादन के लिये सुरक्षात्मक उपायों को बनाये रखेगा और उन्हे बढ़ावा देगा।
1.6 न्यायपालिका में जनता का विश्वास पुनः स्थापित करने के लिये एक न्यायाधीश न्यायिक स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिये न्यायिक आचरण के मौलिक उच्च मापदण्डों का पालन करेगा और उन्हे बढ़ावा देगा।
न्यायिक स्वभाव एवं विनम्रता
प्रतिदिन, प्रत्येक व्यक्ति न्यायालय कक्ष के अंदर और बाहर न्यायाधीशों को ‘‘माई लार्ड‘‘ या ‘‘योअर आॅनर‘‘ संबोधित करता है। प्रत्येक व्यक्ति उनके सामने झुकता है, उनका अभिवादन करता है और उन्हें नमस्कार करता है और उन्हंे सम्मान एवं आदर देता है। दिन प्रतिदिन वे उनके निवेदनों, तर्को, परिवादों, अनुरोधों और प्रार्थनाओं को स्वीकार या अस्वीकार करके पक्षकारों के भाग्य का फैसला करते है। वे लोगों को कारावास में भेज सकते है। वे लोागों को अंकिचन घोषित कर सकते है। वे यह निश्चय करते है कि कौन सही है और कौन गलत है। उनके न्यायालय में मंत्रमुग्ध श्रोता होते हैं जो प्रत्येक विनोद एवं टिप्पणी की प्रशंसा करते है और अनुमोदन करने वाली मुस्कुराहट देते है। यह स्वभाविक है कि कुछ समय पश्चात न्यायाधीश यह सोचना शुरू कर देते है कि वे बुद्धि, ज्ञान और योग्यता का पर्याय है और खासतौर से उनके शब्द ही कानून है और उनकी इच्छा ही समादेश है। शनैः शनैः उनके मस्तिष्क और आचरण से विनम्रता जाने लगती है। हैरोल्ड आर. मैडिना ने इसीलिए चेताया है:
एक न्यायाधीश अधिनस्थों, अभिभाषकों और पक्षकारों से घिरा रहता है जो उसे बताते रहते हैं कि वह कितना उत्कृष्ट, आश्चर्यजनक, बुद्धिमान और ज्ञानी व्यक्ति है। जिस क्षण वह उन पर विश्वास करना शुरू कर देता है उसी क्षण उसकी आत्मा मरने लगती है और सबसे बड़ी बात यह है कि एक न्यायाधीश क्या होना चाहिए उसके विपरीत कार्य करने लगता है।
विनम्रता ही वह गुण है जो न्यायाधीश को यह महसूस कराता है कि न तो वह त्रुटिरहित है और न ही सब कुछ कर सकता है। यह भी कि उसे उन अधिवक्ताओं को जिन्होने तथ्यों का अध्ययन किया है और विधि को खोजा है सुनना चाहिए और सभी बिन्दुओं को एक खुला दिमाग रखते हुये निराकृत करना चाहिए। विनम्रता के बिना एक न्यायाधीश बददिमाग और अपना गलत मुल्यांकन करने वाला, विकृत मानसिकता वाला हो जाता है और यह सोचना शुरू कर देता है कि अधिवक्ता ज्यादा कुछ नही जानते, वह उनसे बेहतर जानता है और उसके फैसले उचित और सही होते है। वह न्याय को पीछे छोड़कर अपने चातुर्य, ज्ञान और अपने निर्णयों और आदेशों में अपनी वि़द्वता का प्रदर्शन करने लगता है। संक्षेप में वह सही अर्थो में ‘‘न्यायाधीश‘‘ नही रह जाता।
आपको अपनी विद्वता, योग्यता या शक्ति का प्रदर्शन करने के प्रयास, जो अवश्यंभावी रूप से अन्याय की ओर ले जाता है, के बजाय न्याय प्रदान करने पर अधिक केन्द्रित होना चाहिए। न्यायमूर्ति फ्रैन्कफुर्तर ने ‘‘न्यायिक विनम्रता‘‘ का वर्णन विधि का सम्मान करने वाले, अपनी सोच को बदल सकने वाले, अन्य विचार की संभाव्यता को स्वीकार कर सकने वाले, कारण से आश्वस्त हो सकने वाले ऐसे मस्तिष्क से युक्त तटस्थ व्यक्ति के रूप में की है जो सत्य की खोज करता है और निर्णय के पीछे अपने आवेगों को रखता है न कि उसके आगे।
आपको निष्कर्षो पर कूदने या पहले एक ‘‘विचार‘‘ बना लेने और फिर उसे बदलने से इंकार करने से बचना चाहिए। यदि आप सुनवाई के बिना या पूर्ण तथा उचित रूप से सुनवाई किये बिना पहले ही यह निश्चय कर लेते है कि परिणाम क्या होगा और फिर उस पर कायम हो जाते है और उसके पश्चात तथ्यों और विधि पर अपना निर्णय आधारित करने के बजाय अपने निर्णय को समर्थन प्रदान करने के लिये विधि और तथ्यों को खोज रहे होते है। आप अपनी राय से असहज या विपरीत विधि और तथ्यों को भूलने या नजरअंदाज करने का भी प्रयास करेगें। पूर्वनिर्धारित विचार को समर्थन प्रदान करने के लिये तथ्यों और विधि का चयन और अन्य सुसंगत तथ्यों और विधि को नजरअंदाज करना विधिक विपर्यस्तता है। यह कहा जाता है कि बहुत से सफल एवं बुद्धिमान अधिवक्ता अपने को अच्छा न्यायाधीश बनाने में असफल हो जाते हैं यदि वे न्याय प्रदान करने के बजाय प्रत्येक फैसले में अपनी योग्यता और ज्ञान का प्रदर्शन करने की हठ रखते है।
आपको न्यायालय के अंदर एवं बाहर कहे जाने वाले शब्दों के संबंध में सतर्क और संतुलित होना चाहिए। ‘‘बंगलौर पिं्रसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कंडक्ट (2002) आपको यह राय देता है:
4.6 किसी अन्य नागरिक की तरह एक न्यायाधीश भी अभिव्यक्ति, मत, संघ और सभा की स्वतंत्रता का हकदार है। किंतु इन अधिकारों का उपयोग करते समय एक न्यायाधीश इस तरह से आंकलन करेगा जो उसके न्यायिक पद की गरिमा और न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता के विपरीत न हो।
आपको समझौते या व्यवस्थापन के लिये किसी को बाध्य करने का प्रयास नही करना चाहिए। व्यवस्थापन के लिये आपके ऐसे सुझाव, जिसे आप युक्तियुक्त सोचते है, किसी भी पक्षकार द्वारा अस्वीकार करने की स्थिति में परेशान या उत्तेजित नही होना चाहिए। वास्तव में संपूर्ण तथ्यों को जाने बिना आपको समझौते के लिये प्रस्ताव भी नही देना चाहिए। मैं स्पष्ट करता हूँ। आप यह सलाह सदैव दे सकते हैं कि पक्षकारों को समझौता करना चाहिए। वास्तव में व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 89 भी न्यायाधीशों को समझौते के लिये प्रोत्साहित करती है। लेकिन आपको एक अपरिपक्व प्रक्रम पर ही समझौते की शर्तांे के रूप में अपने विचार अधिरोपित करने का प्रयास नही करना चाहिए। जब आप समझौते के सुझाव के साथ ही अपनी नजरों में उचित लगने वाली शर्तें भी सुझाते है तो बहुत से मामलों में ऐसा पक्षकार जिसका मामला बहुत कमजोर है वह तो समझौते के लिये उत्सुक होगा जबकि मजबूत पक्ष वाला या उचित कारण रखने वाला समझौते के प्रति अनिच्छा दर्शायेगा। समझौते का सुझाव देकर आप उस पक्षकार से आक्रोशित हो सकते है जो आपके सुझाव के प्रति सम्मत नही है। उसके बाद जब आप मामला सुनवाई में लेते है तो आपके सुझाव पर ध्यान नहीं देने वाले पक्षकार के प्रति आपका क्षोभ आपको उसके सही मामले को विचार में नही लेने के लिये प्रेरित कर सकता है और भावुकता आपकी न्यायिक दृष्टि को धुंधली कर सकती है। वास्तव में जब आप न्यायिक परिपक्वता और अनुभव विकसित कर लेते हैं तो ऐसा नही होना चाहिए। एक न्यायाधीश जो यह वास्तविक रूप से महसूस करता है कि एक व्यवस्थापन इस मामले में उचित है और पक्षकारों को अपने सुझाव से प्रेरित करता है तो यदि व्यवस्थापन नही हो पाता है तो उसे उस मामले की सुनवाई से बचना चाहिए।
आपको अपने निर्णय के बारे में समाचार पत्रों की टिप्पणियों या विशिष्ट समुदाय की विपरीत प्रतिक्रियाओं से व्यथित या उद्विग्न नही होना चाहिए। न तो आपके निर्णय और न ही आपके कार्य लोकप्रिय होने चाहिए। आप लोक कार्यालय नही चला रहे है। आप प्रचार पाने के लिये भी नहीं है। यदि न्यायाधीश इस ढंग से फैसले करने लगे जो बहुसंख्यक को प्रसन्न करेगा तो फिर अल्पसंख्यक को न्याय प्रदान नही किया जा सकता। यदि न्यायाधीश धनी और शक्तिशाली व्यक्तियों के विचारों पर ध्यान देगा तो गरीबों और निचले तबके वालों को न्याय प्रदान नही किया जा सकता। यदि न्यायाधीश केवल बात उठाने वाले समुदायों की राय पर ध्यान देगा तो फिर वाणीरहित बहुसंख्यक को न्याय प्रदान नही किया जा सकता। फैसला केवल मामले की मैरिट पर आधारित होना चाहिए न कि आपके आवेगों और वरीयताओं पर।
न्यायाधीशों के विरूद्ध एक आम शिकायत यह है कि वह बिल्कुल अलग रहते है और उन्हे समाज की वास्तविकताओं की समझ नही है। ऐसी टिप्पणियों से व्यथित न हों। न्यायाधीश प्रतिदिन आम आदमी की समस्याओें और मुश्किलों को देखते है। वे समाचार पत्र और पत्रिकाओं को पढ़ते और दूरदर्शन देखते है। वास्तव में अनेकों बार समस्या यह होती है कि उनके निर्णय, खासतौर से सनसनीखेज आपराधिक प्रकरणों में, लोक राय के दबाव में और मीडिया की राय के असर में हो सकते है।
दूसरी प्रायः आने वाली शिकायत यह है कि कुछ न्यायालयीन आदेश अव्यवहारिक है। यह शिकायत अर्थहीन है। न्यायाधीश कानून नही बनाते हैं। वे केवल कानून के अनुसार निराकरण करते हैं। कानूनों को विधायिका निर्मित करती है। अनुतोषों को प्रदान करना कानून के प्रावधानों की परिधि में की गई प्रार्थना और साबित किये गये मामले के अनुसार होता है। केवल जहाॅ विवाद किसी विधि के प्रावधानों मंे नही आता या उच्चतर न्यायालय के पूर्व निर्णय है वहाँ न्यायाधीश अनुतोष को ढालने के लिये साम्या के सिद्धांतों का सहारा ले सकता है। यदि किसी निर्णय में कोई कठोरता या अव्यवहारिकता है तो यह विधि की अपेक्षा है।
निष्पक्षता (पूर्वाग्रह एवं पक्षपात ;इपंेद्ध से मुक्ति)
अब हम एक न्यायाधीश गुणों में से सबसे महत्तवपूर्ण और विशिष्ट गुण - निष्पक्षता पर आते हैं। वास्तव में निष्पक्षता प्राप्त करने के लिये ऊपर सन्दर्भित चारों - ईमानदारी एवं निष्ठा, न्यायिक अलगाव, स्वतंत्रता, विनम्रता - और ऐसे ही कुछ और अर्थात् पूर्वाग्रह एवं पक्षपात से मुक्ति का गुण आपमें होना चाहिए।
बाहरी पक्षपात एवं पूर्वाग्रह
जब आपकी जाति या समुदाय का अधिवक्ता आपके समक्ष आता है तो उसकी जाति मात्र के कारण मामला उसके पक्ष में नही जाना चाहिए। यदि आपकी जाति और समुदाय से संबंधित व्यक्ति और इस प्रकार संबंधित नही होने वाले व्यक्ति के बीच में कोई विवाद है तो आपका झुकाव अपनी जाति और समुदाय से संबंधित व्यक्ति की ओर नही होना चाहिए। यह पक्षपात होगा। जब कभी आपके समक्ष उपस्थित होने वाला अधिवक्ता या पक्षकार आपकी जाति/समुदाय से पारंपरिक विरोध से संबंधित है तो आपको केवल उसकी जाति/समुदाय मात्र के कारण कठोर या उसके प्रति विपरीत नही होना चाहिए। न्यायाधीश को जाति/समुदाय पर आधारित किसी भी पूर्वाग्रहों एवं पक्षपात से अपने आप को बचाना चाहिए।
कभी-कभी एक मित्र या आपका दूर का रिश्तेदार या आपका मार्गदर्शक आपके समक्ष एक अधिवक्ता या पक्षकार के रूप में उपस्थित हो सकता है। जब कभी ऐसा होता है तो आपको उसके पक्ष में निर्णय करने अथवा उसके पक्ष में न्यायिक विवेक का उपयोग करने के झुकाव या प्रवृत्ति को दबाना चाहिए। यदि आप एकतरफा अंतरिम आदेश करके इस विशिष्ट औचित्य के आधार पर उनके पक्ष में करके अपने विवेक का उपयोग करते है कि जब सामने वाला पक्ष उपस्थित होगा तो आप अपने आदेशों को उपांतरित कर देगें तो आप निश्चित रूप से भाई-भतीजावाद के दोषी है।
कुछ न्यायाधीश सोचते है कि उन्हे अभिभाषक संघ के कनिष्ठ सदस्यों को प्रोत्साहित करना चाहिए और ऐसा करने का उचित तरीका उनके द्वारा चाहे गये अंतरिम आदेशों को प्रदान करना है तो यह प्रोत्साहन की पूर्णतया गलत धारणा पर आधारित है। आपको कनिष्ठ अभिभाषकों के प्रति कठोर नही होकर उन्हे धैर्यपूर्वक सुनकर उन्हे प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि वे संकोच, झिझक से मुक्ति पा सके और अगले दिन तैयार होकर तर्क कर सके। संक्षेप मंे आप उनके साथ सहज होकर तथा उन्हे कुछ और अवसर देकर उन्हें प्रोत्साहित कर रहे है। अपात्र मामले में केवल इसलिये अंतरिम आदेश देना, क्योकि कनिष्ठ अधिवक्ता उपस्थित हुआ है और उसने अंतरिम अनुदोश चाहा है, किसी कनिष्ठ अधिवक्ता का प्रोत्साहन नही है बल्कि न्यायिक शक्ति का दुरूपयोग है जो दूसरे पक्ष के प्रति पूर्वाग्रह का कार्य करता है। यह पूर्णतया अवांछित पक्षपात है।
अब मैं पक्षपात और पूर्वाग्रह के अन्य मामलों की ओर ध्यान दिलाता हूँ। कुछ अधिवक्ता न्यायालय के प्रति बहुत ही सम्मान पूर्ण ढंग से पेश आते है। वे सदैव विनम्र है और न्यायालय कक्ष में प्रवेश करते समय और न्यायालय कक्ष छोड़ते समय सदैव न्यायाधीश का झुककर अभिवादन करते है। वे प्रथम पंक्ति में बैठतें है और न्यायाधीश के प्रत्येक विनोद और वाकचातुर्य पर प्रशंसात्मक रूप में मुस्कुराते है चाहे वे विनोद कितने ही मूर्खतापूर्ण और सड़कछाप हो। और जब कोई न्यायाधीश कितना ही गलत और मूर्खतापूर्ण विधिक सिद्धांत प्रतिपादित करता है तो उसका अनुमोदन भी करते है। जब ऐसा होता है तो न्यायाधीश यह सोचने लगता है कि यह अधिवक्ता विद्धान और अच्छा है और ऐसे अधिवक्ता के प्रति सकारात्मक रूख अपनाने लगता है। दूसरी ओर ऐसे भी कुछ अधिवक्ता है जो सदैव न्यायालय में मुर्झाये चेहरे के साथ बैठे रहते है। जब कभी न्यायाधीश कोई चातुर्यपूर्ण टिप्पणी करता है या कुछ विधिक सिद्धांत बताता है तो वे अनिच्छापूर्वक इधर उधर देखने लगते हैं। यह दर्शित करने वाला भाव चेहरे पर ले आते हैं कि न्यायाधीश उथले ज्ञान वाला या अज्ञान है। इस पर न्यायाधीश सोचता है कि ‘‘यह अधिवक्ता मेरी वाकचातुर्य, ज्ञान या बुद्धि का मूल्यांकन नही कर सकता या उसे नही समझ सकता।‘‘ और ऐसे अधिवक्ता के विरूद्ध नकारात्मक या उसके विपरीत विचार विकसित करने लगता है। कुछ समय पश्चात कठोर दिखने वाले अधिवक्ताओं की तुलना में विवेकाधीन अंतरिम आदेश प्राप्त करने की प्रत्येक संभावना खुश दिखाई देने वाले अधिवक्ताओं को दी जाती है। कार्य में इस प्रकार के पक्षपात और पूर्वाग्रह से भी बचना चाहिए।
‘‘अच्छे‘‘ और ‘‘बुरे‘‘ अधिवक्ताओं की एक और परिभाषा है। कुछ अधिवक्ता अपने निवेदनों में बहुत युक्तियुक्त होते है। वे संक्षिप्त, सम्मान देने वाले और सारवान होते है। कुछ झगड़ालु होते है जो मुंहदेखी बात पर आना ही नही चाहते ,न्यायाधीश से सहमत नही होते और न्यायाधीश के धैर्य परीक्षण के लिये बहस ही बहस करते रहते है। कुछ समय पश्चात जब युक्तियुक्त अधिवक्ता उपस्थित होता है तो न्यायाधीश मानसिक रूप से उसके प्रति झुकाव रखने लगता है और जब कभी झगडालु अधिवक्ता उपस्थित होता है तो न्यायाधीश का मानिसक रूप से उसके विपरीत झुकाव होता है। इसका परिणाम यह होता है कि जब युक्तियुक्त अधिवक्ता का बुरा मामला होता है और झगड़ालु अधिवक्ता का अच्छा मामला होता है तो अच्छे अधिवक्ता का अपने बुरे मामले में भी कुछ अनुतोष पाने और बुरे अधिवक्ता के अच्छे मामले पर पर्याप्त अनुतोष नही पाने की संभावना हो जाती है। न्यायाधीश की ओर से ऐसी भावुक प्रतिक्रयाएॅ कार्य में पक्षपात और पूर्वाग्रह के अतिरिक्त कुछ नही है ।आपको उनसे बचना चाहिए। आपका न तो उस अच्छे के पक्ष में झुकाव होना चाहिए और न ही उस बुरे के विपरीत झुकाव। आपको केवल ‘‘सही‘‘ और ‘‘निष्पक्ष‘‘ होना चाहिए।
किसी अधिवक्ता या पक्षकार के प्रति आपकी पसंद या नापसन्द या किसी विशिष्ट जाति, समुदाय, धर्म ,वंश या क्षेत्र के पक्ष या विपक्ष में आपकी भावनायें, आपकी निकट रिश्तेदारी या मित्रता. किसी या किन्ही व्यक्तियों के प्रति वफादारी का आपके निर्णय या निर्णय करने की प्रक्रिया से कोई संबंध नही होना चाहिए। इस तरह के प्रत्येक बाह्य कारक/विचार सदैव दूर रखने चाहिए। एक मामला केवल उसकी मेरिट पर ही निराकृत होना चाहिए न कि अधिवक्ता या पक्षकार की मेरिट या ख्याति या स्तर या दृष्टिकोण पर।
आंतरिक पक्षपात एवं पूर्वाग्रह
अब ‘‘आंतरिक पक्षपात और पूर्वाग्रह‘‘ पर मुझे कहना है। क्या सही है और क्या गलत है, क्या न्यायपूर्ण है और क्या अन्यायपूर्ण है, क्या उचित है और क्या अनुचित है, के बारे में प्रत्येक न्यायाधीश की अपनी अवधारणांए होती हंै जो उसके निर्णयों से सीधा संबंध रखती हंै। यह कहा जाता है कि न्यायधीश कि ऐसी अवधारणायें उसके द्वारा महसूस किये गये और अनुभव किये गये, पढ़े गये और सुने गये (बचपन में अनुभव की गई और दिमाग पर बैठी चोटों को सम्मिलित करते हुए) से ढले उसके मन पर गहरे तक बैठी परंपरागत रूढि़यो और विश्वासांे, अर्जित किये गये दृढ़ विश्वासों और पूर्वाग्रहों से विकसित उसके व्यक्तिगत दर्शन पर आधारित हो सकती हैं। समय के अंतराल पर ऐसी अवधारणायें उसकी निर्णय प्रक्रिया को एक विशिष्ट शैली का बना देते है।
उदाहरण के तौर पर किसी न्यायाधीश के अनुभव उसकी यह सोच बना सकते है कि पुलिस की सभी कार्यवाहियाॅ संदेहास्पद होती है और इसका परिणाम उसे यह विश्वास करा सकता है कि अधिकांश अभियुक्तों को मिथ्या तौर पर आलिप्त किया गया है या उन्हें फंँसाया गया है और यह कि मिथ्या संस्वीकृतियाँ प्राप्त करने के लिये उनके प्रति बल प्रयोग किया गया है और यह कि किसी भी अभियुक्तों को अधिकांश मामलांे में संदेह का लाभ देने की आवश्यकता है। इसीलिये वह अधिकांश मामलों में दोषमुक्त करने के लिए उद्धृत होता है और ‘‘छोड़ने वाले जज‘‘ के नाम से जाना जाता है। दूसरा न्यायाधीश यह सोच सकता है कि पुलिस अनुसंधान करती है और अभियोग पत्र पेश करती है तथा आरोपोें के समर्थन में साक्ष्य लाती है तो उस पर अविश्वास नही किया जाना चाहिए और साक्षियों की साक्ष्य में आयी विसंगतियों को नजरअंदाज करना चाहिए क्योकि वे केवल मानवीय त्रुटि और दोषपूर्ण याददाश्त के कारण आयी हंै। वह इसीलिए दोषसिद्ध करने के लिए उद्धत होता है और ‘‘सजा देने वाले न्यायाधीश‘‘ के रूप में पहचाना जाता है। प्रत्येक बचाव अधिवक्ता अपने मामले की सुनवाई ‘‘सजा देने वाले न्यायाधीश‘‘ से कराने से बचेगा वही बचाव अधिवक्ता हमेशा अपना मामला ‘‘छोड़ने वाले न्यायाधीश‘‘ से कराने के लिये तैयार रहेगा। आपको ‘‘छोड़ने वाले न्यायधीश‘‘ या ‘‘सजा देने वाले न्यायधीश‘‘ की छाप से अलग विशुद्ध रूप से मेरिट पर मामला निराकृत करने वाला तटस्थ न्यायाधीश बनने के लिये सचेत होना होगा।
एक और दूसरा उदाहरण लेते है। प्रतिकर हेतु दो विभिन्न दावा अधिकरणों के समक्ष लंबित समान प्रकृति के दावों को लेते है जहाँ आयु, आय और मृतक पर आश्रितों की संख्याँ भी समान है। एक अधिकरण प्रतिकर के रूप में 04 लाख रूपये का प्रतिकर अवार्ड करता है जबकि दूसरा अधिकरण 06 लाख रूपये का प्रतिकर अवार्ड करता है। दोनो ही अधिकरणों के पीठासीन अधिकारी ईमानदार और बहुत ही निष्ठावान है फिर भी उनके व्यक्तिगत दर्शन उनके निर्णयों में प्रवेश कर जाते है जिसके कारण समरूप या समान तथ्यों पर भिन्न राशि के अवार्ड पारित होते हंै। इसका परिणाम यह होता है कि पहला वाला न्यायाधीश ‘‘बंद मुट्ठी‘‘ वाले न्यायाधीश के रूप में जाना जाता है और बाद वाला न्यायाधीश ‘‘उदार न्यायाधीश‘‘ के रूप में संबोधित किया जाता है। दूसरा उदाहरण लेते है: एक विशेष न्यायाधीश के समक्ष बेदखली के 90 प्रतिशत मामले सफल होते है जबकि दूसरे न्यायाधीश के समक्ष बेदखली के 90 प्रतिशत मामले असफल होते है। पहले वाला न्यायाधीश ‘‘भू-स्वामी न्यायाधीश‘‘ के रूप में पहचाना जाता है और बाद वाला न्यायाधीश ‘‘भाड़ेदार न्यायाधीश‘‘ के रूप में पहचाना जाता है। इसी प्रकार श्रम मामलों में कुछ न्यायाधीश प्रबंधन के पक्ष वाले न्यायाधीश के रूप में पहचाने जाते है और कुछ श्रमिकों के पक्ष वाले न्यायाधीश उनकी दार्शनिक वरीयताओं के आधार पर जाने जाते है।
हम एक न्यायधीश को एक तरीके से और दूसरे न्यायाधीश को दूसरे तरीके से तथा तीसरे न्यायधीश को तीसरे तरीके से उनके व्यक्तिगत दर्शनों के आधार पर मामलांे का निराकरण करने की बात को सहन नही कर सकते। यह सही है कि न्यायाधीश रोबोट या कम्प्यूटर नहीं है जो समान निर्णय दे और जहाँ तक न्यायाधीश मानव है उनके व्यक्तिगत दर्शन कुछ सीमा तक उनके निर्णयों को प्रभावित करेगें किंतु एक निर्णय से विपरीत रूप से प्रभावित पक्षकार सोचेगा कि एक विशिष्ट न्यायाधीश के समक्ष उसका मामला पहुँचने के कारण वह क्यां हानि वहन करे जबकि समान प्रकृति का दूसरा मामला दूसरे न्यायाधीश के समक्ष पहुँचने पर अनुतोष दिया जाता है। अतएव व्यक्तिगत दर्शन और पूर्वाग्रहों के कुप्रभावों से बचना है और फैसलों में एकरूपता और संगतता सुनिश्चित करनी है क्योकि भारतीय न्यायालय ‘‘पूर्व-न्याय‘‘ के सिद्धांत का पालन करते हंै। मैं इस समय पूर्व न्याय के सिद्धांत पर चर्चा नही करूँगा क्योंकि यह विषय ऐसा है जो पृथक आलेख की विषयवस्तु है।
आपको यह सुनिश्चित करने में सावधान होना है कि आपका व्यक्तिगत दर्शन उस अवस्था में आगे नही आना है जब पूर्व निर्णय उपलब्ध है। पक्षकार निर्णय के आकार या न्यायाधीश के ज्ञान के प्रति चिंतित नही है। उसे तो केवल परिणाम - अर्थात् अनुतोष जिसे जज देता है या नही देता है, से मतलब है। इसलिए निर्णय प्रक्रिया में एकरूपता और संगतता लाने के प्रयास की आवश्यकता है। मैं यह नही कह रहा हूँ कि आप अपनी न्यायिक स्वतंत्रता को त्यागंे। न ही मैं कह सकता हूँ कि आपकी व्यक्तिगत अवधारणाएँ और विचार निर्णय में कोई भूमिका नही निभा सकते। मैं जो कहता हूँ वह यह है कि जब पूर्व निर्णय है तो आप उन्हे अनुसरित करने के लिए बाध्य है।
आप किसी भी पृष्ठभूमि से हो सकते हंै, आपका कुछ भी धर्म हो सकता है, आपकी जाति या समुदाय कुछ भी हो सकता है। आपकी राजनैतिक अवधारणाएँ कुछ भी हो सकती हंै। आपके अनेकों मित्र या संबंधी हो सकते है और आप अनेकों अर्थात् आपके अध्यापक, मार्गदर्शक और वरिष्ठ, के आभारी भी हो सकते हंै। आपकी पृष्ठभूमि या पूर्ववृत कुछ भी हो, आपका व्यक्तिगत दर्शन, विश्वास या अवधारणाएँ कुछ भी हों, जब आप एक न्यायाधीश बन जाते है तो आपका लगाव केवल विधि और न्याय से होना चाहिए न कि आपके मित्रों और रिश्तेदारों से जिन्होनें आपकी सहायता की हो या आपके अध्यापकों और मार्गदर्शकों से जिन्होने आपको ढाला हो या उन न्यायाधीशों से जिन्होने आपका चयन किया हो या राजनैतिक दल के उन नेताओं से जिनकी विचारधारा से आप प्रभावित हुये हों। मित्रता, वफादारी, आभारी होना, अपने आप में बहुत बड़े गुण है किंतु वे सभी आपकी निष्ठा, निष्पक्षता और न्याय के प्रति लगाव को प्रभावित करते है। आपको भय या पक्षपात, अनुराग या द्धेष के बिना अपने पद से जुड़े कर्तव्यों की सत्यनिष्ठा व ईमानदारी से पूर्ति करनी है। थाॅमस फूलर ने कहा है:
‘‘जब एक न्यायाधीश न्यायिक चोला धारण करता है तो वह रिश्तेदारी और मित्रता को त्याग देता है और बिना नातेदारी, बिना मित्र, बिना परिचय का व्यक्ति बन जाता है। संक्षेप में वह निष्पक्ष हो जाता है।‘‘
बंगलौर प्रिंसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कण्डक्ट (2002) के अनुसार निष्पक्षता का गुण न्यायिक कर्तव्य के उचित निर्वहन के लिये आवश्यक गुण है और यह बात न केवल निर्णयों के संबंध में बल्कि निर्णय प्रक्रिया के संबंध में भी लागू होती है। उन्होने निष्पक्षता प्राप्त करने के मापदण्ड इस प्रकार बताये है:
2.1 एक न्यायाधीश अपने न्यायिक कर्तव्यों को बिना अनुग्रह, पक्षपात या पूर्वाग्रह के निभाएगा।
2.2 एक न्यायधीश यह भी सुनिश्चित करेगा कि उसका आचरण न्यायालय के भीतर और न्यायालय के बाहर दोनांे जगह जनता, विधि व्यवसाईयों और पक्षकारों (मामले के) में न्यायाधीश और न्यायपालिका की निष्पक्षता के प्रति विश्वास बनाता है और बढ़ाता है।
2.3 एक न्यायाधीश, जहाँ तक युक्तियुक्त हो, इस प्रकार आचरण करेगा कि ऐसे अवसर न्यूनतम हो जिनमें वह आवश्यक रूप से मामलों की सुनवाई करने या उन्हे निराकृत करने से निर्योग्य हो जाये।
2.4 एक न्यायाधीश जानते हुये कि उसके समक्ष कार्यवाही है या आ सकती है ऐसी कोई टिप्पणी नही करेगा जिससे ऐसी कार्यवाही का परिणाम युक्तियुक्त रूप से प्रभावित होने की आशा हो या प्रक्रिया की प्रत्यक्ष ऋजुता प्रभावित हो। न्यायाधीश को जनता में या अन्यथा ऐसी टिप्पणियाँ नही करनी चाहिए जो किसी व्यक्ति या मुद्दे का ऋजु विचारण प्रभावित कर सके।
2.5 एक न्यायाधीश ऐसी किसी कार्यवाही में भाग नही लेगा जिसमें न्यायाधीश निष्पक्ष रूप से मामले का निराकृत करने में अयोग्य है या जिसमें युक्तियुक्त सम्प्रेक्षक को यह दर्शित होता है कि न्यायाधीश मामले को निष्पक्ष रूप से निराकृत करने में अयोग्य है। ऐसी कार्यवाहियों के उदाहरण जो उन तक सीमित नही है, निम्न प्रकार है-
2.5.1 न्याायाधीश के एक पक्ष से संबंधित वास्तविक पूर्वाग्रह या पक्षपात है या कार्यवाही से संबंधित विवादित साक्ष्य के तथ्यों की व्यक्तिगत जानकारी है।
2.5.2 न्यायाधीश विवादित मामले में पूर्व मंे अधिवक्ता के रूप में या साक्षी के रूप में कार्य किया है।
2.5.3 न्यायाधीश या न्यायाधीश के परिवार का सदस्य विवाद की विषयवस्तु के परिणाम में आर्थिक हित रखता है
--00--
5.1 एक न्यायाधीश को समाज में अनेकरूपता और विभिन्न स्त्रोतों जिनमें नस्ल, रंग, लिंग, धर्म, राष्ट्रीय उद्भव, जाति, निर्योग्यता, आयु, वैवाहिक प्रस्थिति, लैंगिक लगाव, समाजिक और आर्थिक प्रस्थिति और ऐसे ही समान (असंगत) कारण से उत्पन्न होने वाले किंतु उन्ही तक सीमित नही होने वाले मतभेदों को जानना है और समझना है।
5.2 एक न्यायाधाीश अपने न्यायिक कर्तव्यों के पालन मे शब्दों या आचरण द्वारा किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति असंगत आधारोें पर अपने पक्षपात या पूर्वाग्रह को उदघाटित नही करेगा।
5.3 एक न्यायाधीश सभी व्यक्तियों जैसे पक्षकारों, साक्षियों, अधिवक्ताओं, न्यायालय स्टाॅफ और न्यायालयीन सहयोगियों के प्रति न्यायिक कर्तव्यों को ऐसे कर्तव्यों के निर्वहन से अतात्विक व असंगत आधारों पर विभेदन के बिना उचित विचार कर निभाएगा।
निष्कर्ष:-
आप विधिनिर्माता नहीं है। आप प्रशासक भी नहीं हैं। आप विधि से अन्यथा क्षेत्र के विशेषज्ञ भी नहीं हैं। आप कानून नही बनाते हंै। आप देश नही चलाते हंै। किंतु आप विधि का निर्वचन करते हैं। आप सत्य की खोज करते हंै। आप न्यायदान करने वाले हंै। आप विधि शासन के संरक्षक हंै। आप समाज के कमजोर एवं शोषित तबकें के संरक्षक और उन्हें समानता दिलाने वाले हैं। आपको अपनी शक्तियों की दुर्भर प्रकृति से अपने को प्रतिदिन अवगत कराना है और अपनी शक्तियों की सीमाओं को भी जानना है। आपको यह याद रखना है कि आपके समक्ष निराकरण के लिए आने वाला प्रत्येक मामला उससे जुड़े व्यक्ति की आजीविका के अधिकार, उसके जीवन के अधिकार, उसकी स्वतंत्रता के अधिकार या उसकी संपत्ति के अधिकार के भाग्य का फैसला करता है। आपको यह याद रखना चाहिए कि प्रत्येक समय जब आप न्याय करने में असफल होते हंै तो लोग उसे अन्याय के रूप में लेते हैं। सर्वशक्तिमान से प्रतिदिन प्रार्थना करंे कि वह आपको सत्यनिष्ठा, बुद्धि और विनम्रता के साथ न्याय करने की शक्ति और साहस प्रदान करें।
न्यायिक नैतिकता के सिद्धांतों को जानना ही काफी नही है। नैतिकता के उन सिद्धांतों का निरंतर और चैकन्ने रहकर व्यवहार भी करंे। श्रेष्ठ न्यायाधीशों और नेताओं के लेखों और उनकी सादी तथा विनम्र जीवनशैली से प्रेरणा ग्रहण करें। अच्छे न्यायाधीश बनें और अपनी महान संस्था को विश्वसनियता और कांति प्रदान करें।
प्रिय युवा न्यायाधीशों, मैं आप सभी को साहस, निष्ठा, कठोर परिश्रम और नैतिक आचार से युक्त अर्थवान और सफल न्यायिक भविष्य की शुभकामना करता हूँ। मैं आपको जीवन में शांति, आनंद और संतुष्टि की कामना भी करता हूॅ।
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’ माननीय श्री न्यायमूर्ति आर.वी.रवीन्द्रन द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी भोपाल एवं विभिन्न राज्य न्यायिक अकादमियों में नवनियुक्त न्यायाधीशों को दिये गये विभिन्न व्याख्यानों पर आधारित मूल आलेख अंग्रेजी में सुप्रीम कोर्ट केसेज़ (2012) 9 एस.सी.सी. (जे) में प्रकाशित हुआ है जिसका यह भावानुवाद श्री गजेन्द्र सिंह संकाय सदस्य न्यायिक अधिकारी प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान जबलपुर द्वारा हिन्दी भाषा में किया गया है।
आप एक अच्छा न्यायाधीश कैसे बन सकते है ? क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश दीर्घ अवधि तक स्वच्छ छवि के साथ सेवारत रहकर बन सकते है ? क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश त्वरित एवं नियमित रूप से प्रत्येक माह के लिये नियत प्रकरणों के निराकरण का लक्ष्य पूरा करके बन सकते है ? क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश विद्वतापूर्ण निर्णय लिखकर बन सकते हैं?क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश अपनी पूरी सेवा अवधि में ईमानदार रहकर हो सकते है ? क्या आप एक अच्छा न्यायाधीश वादकारों के प्रति सहृदय एवं विनम्र होकर बन सकते है ?
एक न्यायाधीश का कर्तव्य न्यायदान करना है। विशद अर्थो में न्यायदान करने का तात्पर्य प्रत्येक व्यक्ति को वह देना है जिसका वह हकदार है। वे सभी- जिनमें शक्तियाँ अर्थात् शासन करने की शक्ति, विधायन की शक्ति, न्यायनिर्णयन की शक्ति और दण्ड या पुरस्कार देने की शक्ति न्यस्त की गई है, एक अर्थ में न्यायदान करते हैं। न्यायाधीशों के सन्दर्भ में न्यायदान करने का तात्पर्य सम्यक् सुनवाई की जाकर, विवादों और शिकायतों का विधि के अनुसार और जहाँॅ अपेक्षित और अनुज्ञेय है वहाँ साम्य, समता और अनुकम्पा से प्रेरित होकर ऋजु और निष्पक्ष ढंग से त्वरित, प्रभावी और सक्षम न्यायनिर्णयन करना है।
एक न्यायाधीश को अपने आचरण, सुनवाई में ऋजुता, और अपने उचित एवं साम्यिक् निर्णयों के द्वारा अपने और न्यायपालिका के लिये आम जनता और अधिवक्ताओं का विश्वास एवं सम्मान अर्जित करना चाहिए।
‘‘न्यायिक जीवन में मूल्यों के पुनर्कथन (रिस्टेटमेंट आॅफ वैल्यूज आॅफ ज्यूडिशियल लाईफ)‘‘ और ‘‘बंगलौर प्रिसिंपल आॅफ ज्यूडिशियल कंडक्ट, 2002‘‘ न्यायाधीशों के नैतिक आचरण के लिए मापदण्ड स्थापित करते है और न्यायधीशों के उचित आचरण के लिये मार्गदर्शक के रूप में है।
संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा अंगीकृत और जिसका भारत भी हस्ताक्षरकर्ता है, उस ‘‘सिविल एवं राजनैतिक अधिकारों की अंर्तराष्ट्रीय प्रसंविदा‘‘ के अनुच्छेद 14 (1) के अनुसार ‘‘ न्यायालयों एवं अधिकरणों के समक्ष सभी व्यक्ति समान होगें। उसके विरूद्ध किसी आपराधिक आरोप के निर्धारण या किसी वाद में उसके अधिकारों एवं बाध्यताओं के संबंध में प्रत्येक व्यक्ति एक सक्षम एवं स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकरण के द्वारा ऋजु और खुली सुनवाई के हकदार है। यद्यपि उपरोक्त अनुच्छेद न्यायाधीश के गुणों के संबंध में नही है किंतु वह न्यायाधीश के गुणों (अ) कि उसे सक्षम, स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए, (ब) उसे ऋजु और जनसुनवाई देनी चाहिए और (स) सभी व्यक्तियों के प्रति समान व्यवहार करना चाहिए, को ठीक ढंग से निर्धारित करता है। उपरोक्त गुणों को प्राप्त करने के लिए एक न्यायाधीश को कतिपय न्यायिक, प्रशासनिक कौशल विकसित करने चाहिए और उससे भी महत्तवपूर्ण उसे कतिपय न्यायिक नैतिक मापदण्डों का पालन करना चाहिए।
न्यायिक कौशल
एक न्यायाधीश के रूप में - लोक न्यायिक मंच पर निर्णायक के रूप में आसीन होते हुये अपने कर्तव्यों का प्रभावी ढंग से निर्वहन करने के लिए पांच न्यायिक कौशल की आपसे अपेक्षा है।
प्रक्रियाओं की जानकारी के द्वारा
आपको प्रक्रियात्मक विधि अर्थात् सिविल प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य से संबंधित संविधियाँ, परिसीमा, न्यायालय शुल्क और स्टाम्प, और न्यायालयिक विज्ञान तथा पुलिस प्रक्रिया की गहन जानकारी होनी चाहिए। उससे आप विचारण पर नियंत्रण रख सकेगें और प्रक्रियात्मक अनियमितताओं से बच सकेगें। अंतरिम आदेशों के विरूद्ध अधिकांश अपीलें और पुनरीक्षण केवल प्रक्रिया की त्रुटि से संबंधित होती है। जब आपको प्रक्रिया पर अच्छी पकड़ होगी तो मामले त्वरित गति और प्रभावी ढंग से निबटेगें।
मूलभूत या मौलिक विधियों की विशद समझ
मौलिक कानूनों तथा मौलिक संवैधानिक एवं विधिक सि़द्धांतों, सामान्यतः उपयोग में आने वाले सभी मौलिक कानूनों और मौलिक संवैधानिक एवं विधिक सिद्धांतों की आपको जानकारी होनी चाहिए। यहाँ पर मोटे-मोटे तौर पर जानना शब्द का प्रयोग किया गया है न कि जानना शब्द का प्रयोग क्यांेकि किसी भी न्यायाधीश के लिए यह संभव नही है कि वह न्यायाधीश बनने के पूर्व सभी कानून का ज्ञाता हो सके। विधि के प्रत्येक प्रावधान की कुछ विशिष्टताएँ होती है जिनका मूल्यांकन करने और जब उस विधि से संबंधित प्रश्न आपके समक्ष उठाये जाते है और अधिवक्तागण किसी विशिष्ट मामले के संदर्भ में उसका निर्वचन और विश्लेषण करते है तो विशिष्ट मामले के संदर्भ में उसे समझने के आप योग्य होने चाहिए। यदि प्रक्रियात्मक विधि आपको विचारण को नियंत्रित करने मंे मदद करती है तो मौलिक विधि की जानकारी आपको उचित एवं न्यायपूर्ण निर्णयों को देने तथा अन्याय को रोकने में मदद करती है।
उचित सुनवाई का अवसर देने की कला
आपको उचित सुनवाई करने की निपुणता विकसित करनी चाहिए। यदि आप इसके बारे मंे सोचते हैं तो आप महसूस करेगें कि सम्पूर्ण सिविल एवं आपराधिक प्रक्रियाएँ सम्यक् सुनवाई दिये जाने, नैसर्गिक न्याय के प्रथम सिद्धांत - दूसरे पक्ष को भी सुनो या कोई भी व्यक्ति बिना सुने दण्डित नही होना चाहिए को प्रभाव दिये जाने से संबंधित ही है। सम्यक् सुनवाई से तात्पर्य किसी के मामले को सुनवाई का सम्यक् अवसर मिलना है। इसमेें पक्षों को सुनना, उनकी पीड़ाओं, शिकायतों, अभिवाको, बचावों, तथ्यात्मक और विधिक समावेदनों पर विचार करना और उसके पश्चात खुले मस्तिष्क से निर्णय पर पहुँचना सम्मिलित है। एक न्यायाधीश का वास्तव में यही मुख्य कार्य है। अनेकों न्यायाधीश, दुर्भाग्यवश, एक ऋजु और सम्यक् सुनवाई की कला विकसित नही कर पाते - वे मामले के अनुसार कार्य नही करते, साक्ष्य को नही समझते और खुले मस्तिष्क से तर्क नही सुनते। प्रभावी हस्तक्षेप के द्वारा साक्ष्य और तर्को को नियंत्रित करने या अपने मार्गदर्शन के द्वारा अधिवक्ताओं से उनका सहयोग लेने के स्थान पर वे या तो अधीर हो जाते है या सुसंगत निवेदनों की सुनवाई से ही इंकार करते है या कार्यवाही के प्रति अरूचि दर्शित करते है और अपने मस्तिष्क को इधर-उधर भटकने देते है। इसका परिणाम विसंगत साक्ष्य को लेखबद्ध करने और लंबे तर्को की सुनवाई तथा मामले को न्यायाधीश द्वारा समझने में असफलता के रूप में होता है। यदि आपने अभिवचनों को पढ़कर, साक्ष्य और तर्को का अनुसरण करके तथा उचित संक्षेपण तैयार करके मामले की उचित रूप से सुनवाई की है तो सही निर्णय पर पहुँचना और निर्णय लिखना आसान और सरल हो जाता है। वास्तव में यदि आप साक्ष्य का अभिलेखन करते है और दिन-प्रतिदिन आधार पर निरंतरता में तर्को को सुनते है तो आपको निर्णय तैयार करने के लिए नस्ती को पढ़ने में बहुत अधिक समय व्यय करने की आवश्यकता नहीं है।
कुछ न्यायाधीश बार-बार यह शिकायत करते है कि अधिवक्ता उन्हें उचित सहयोग प्रदान नही करते। समय के साथ ऐसे न्यायाधीश अभिभाषकों के प्रति सामान्यतः अधैर्य रखते है। वे अभिभाषकों को अपने पूर्ण तर्क नही रखने देते और उनके तर्कों को यह कहते हुए रोक देते है कि ‘‘हाँ. हाँ. यही है, है न ? मैं मामला समझ गया हूँ। सुना। निर्णय के लिये सुरक्षित।‘‘ यह गलत है। न्यायाधीश के लिये सभी तथ्यों का पूर्ण अध्ययन करना और सभी मामलों में सभी विधिक विवादों पर रिसर्च करना और फिर निर्णय लिखना संभव नही हैं। यदि कोई न्यायाधीश ऐसा करने का प्रयास करता है तो निर्णय के लिये सुरक्षित रखा गया मामला किसी भी समय तैयार नही होगा। जब न्यायाधीश अंतिम रूप से निर्णय लिखाने के लिये मामला लेता है तो उससे तथ्यों और विधि संबंधी चूक होगी और वह न्याय नही कर पाएगा। उचित तरीका यह है कि उसे अभिभाषकों को पढ़ने, विधि संबंधी खोज करने और मामले को ठीक ढंग से तैयार करने के लिए उनका हौसला बढ़ाकर और यहाँ तक कि उन्हे डाँटने और पुचकारने द्वारा प्रेरित करना चाहिए ताकि वे आपको प्रभावी रूप से सहयोग दे सकें और उसके पश्चात यह सुनिश्चित होते हुए उन्हें सुने कि वे आपको गुमराह भी नही कर पाये। इस प्रकार आप उन्हे उचित सुनवाई का अवसर देगंे और आप बदले में अच्छी मात्रा में गुणवत्तापूर्ण कार्य करेगें और साथ ही अभिभाषको के स्तर को सुधारेगें।
तथ्यों का क्रमबन्धन और अच्छे निर्णयों का लेखन
आपको तथ्यों के क्रमबन्धन और उन तथ्यात्मक निष्कर्षों पर विधि प्रयोज्य करते हुये और तथ्यों, कारणों और निष्कर्षो को अच्छे, तर्कपूर्ण, संक्षिप्त और सुसंगत ढंग से एक आदेश/ निर्णय के प्रारूप में रखते निष्कर्ष तक पंहुॅचने की दक्षता प्राप्त करनी है। पक्षकार, अधिवक्तागण और अपीली/पुनरीक्षण न्यायालय भी आदेश/निर्णय से यह जान सके कि आपने क्या निराकृत किया है। इस विषय में आप स्पष्ट होने चाहिए कि आप क्या कहने का आशय रखते थे। आपका प्रत्येक निर्णय उत्कृष्ट होने की आवश्यकता नही है। ऐसा करने पर बहुत समय व्यतीत होता है।
स्थगन के लिए अंतरिम याचनाओं और अनुरोधों को निबटाना।
आपको अंतरिम अनुरोधों, अंतर्वर्तीय आवेदनों और स्थगन के अनुरोधों को प्रभावी ढंग से एवं दृढ़तापूर्वक विचार करने और उनका निराकरण करने की दक्षता भी प्राप्त करनी है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था से जुड़ा सबसे बदनाम ‘‘विलंब‘‘ बहुत हद तक इन मामलों से अप्रभावी और अक्षम रूप से निबटने से जुड़ा है। स्थगन के अनुरोधों पर विचार करते समय आपको अवांछित सहानुभूति को नियंत्रित करना है। आपको लोकप्रिय न्यायाधीश होने के लालच पर भी रोक लगानी है। मामले की प्रगति को विलंबित करने के लिए कुछ पक्षकारों और अधिवक्ताओं के द्वारा अपनाई जाने वाली अड़चनांे, बाधाआंे, विचलनों और आक्षेपों से निबटने में भी आपको दक्ष होना चाहिए। आपको अपना ध्यान मुख्य मामले का निराकरण करने के लिए केन्द्रित करना चाहिए। मैं ऐसा नही कह रहा हूँ कि आपको अंतर्वर्तीय आवेदनो को ग्रहण नही करना चाहिए या उन्हे निराकृत नही करना चाहिए। उनमें से कुछ सुसंगत और अत्यावश्यक (अर्जेण्ट) हो सकती है। मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह यह है कि आप मुख्य मामले को लटकाना अनुज्ञात नही करेंगे। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप सभी स्थगनों और अंतरिम निवेदनों के अनुरोधों को इंकार करेंगे। मैं तो यह कह रहा हूँ कि आप उन पर सख्ती से विचार करे।
जितना ही मामले का लंबन काल कम होगा उतनी ही अंतर्वतीय आवेदनों की संख्याँ भी कम होगी। स्थगनों को अनुज्ञात करने में आप जितना कठोर होगें उतने ही स्थगनों के अनुरोध भी कम होगें। आंकड़े यह दर्शाते है कि प्रत्येक मामले में प्रारंभ से लेकर अंत तक व्यतीत हुए संपूर्ण न्यायिक समय का एक तिहाई समय केवल प्रारंभिक कार्यवाहियों, स्थगन के आवेदनों और अंतर्वर्तीय मामलों पर ही व्यतीत होता है। यदि आप उक्त समय को न्यूनतम स्तर तक सीमित कर सकते है तो आपके द्वारा निराकृत मामलों की संख्याँ में वृद्धि होगी, लंबन काल कम होगा और विलंब से प्रभावी ढंग से निबटा जा सकेगा।
यदि आप प्रक्रियात्मक विधि का विशद ज्ञान अर्जित करते है और विधिक सिद्धंातंों तथा मौलिक विधियों का व्यापक ज्ञान अर्जित करते है तथा उचित सुनवाई दिये जाने, तथ्यों का क्रमबंधन और तर्कपूर्ण निर्णय/आदेश लिखने एवं अंतर्वर्तीय आवेदनोें के निराकरण करने तथा स्थगनों को नियंत्रित करने का कौशल विकसित कर लेते है तो कहा जा सकता है कि आपने आवश्यक न्यायिक कौशल अर्जित कर लिया है।
प्रशासनिक कौशल
पांच न्यायिक कौशल के साथ ही साथ आपको पांच प्रशासनिक कौशल भी विकसित करना है। उन्हें संक्षेप में निम्नानुसार बताया जा रहा है।
समय प्रबंधन - आपके पास एक वर्ष में लगभग 250 कार्य दिवस (जो लगभग 1250 न्यायालय घण्टों के बराबर है) है। निश्चित रूप से इसमें राज्यवार भिन्नता हो सकती है। उक्त समय आपको योजनाबद्ध ढंग से प्रारंभिक कार्य, साक्ष्य लेखन, अंतर्वर्तीय आवेदनों की सुनवाई, अंतिम तर्कांे की सुनवाई के लिये बांटना चाहिए। आपको सम्पूर्ण दिन को विभिन्न ईकाईयों के रूप में देखना चाहिए और अपने समय का प्रबंधन करना चाहिए। ऐसा करने से आपको सुने जाने वाले मामलों की संख्याँ निर्धारित हो सकेगी और आप उन्हे निराकृत कर सकेगें और इस प्रकार आप अपने परिणाम में धीरे-धीरे वृद्धि कर सकेगें।
न्यायालय में प्रत्येक 5 से 6 घण्टों के कार्य के साथ ही आपको अपने विश्राम कक्ष में प्रशासनिक कार्य के लिए भी कुछ समय व्यतीत करना चाहिए और 4 से 5 घण्टे अपने घर पर नस्तियों को पढ़ने और निर्णय तथा आदेशों को लिखने, डिक्टेशन देने और शुद्ध करने मेें देना चाहिए। अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य (व्यायाम, योग, ध्यान) और अपने परिवार के लिए भी समय देना कभी नही भूले।
बोर्ड प्रबंधन -
आपमें से प्रत्येक के बोर्ड पर औसतन 1,000 से 3,000 लंबित मामले है। आपको जानना चाहिए कि आप उक्त बोर्ड का किस ढंग से प्रबंधन करेगें। यदि आप प्रतिदिन बहुत अधिक संख्याँ में मामले सुनवाई के लिए लगाएगें तो फिर न्यायिक समय का अधिकांश हिस्सा केवल अनुत्पादक प्रारंभिक सुनवाई में ही व्यतीत हो जाएगा। आपको साक्ष्य वाले मामलों की संख्याँ तथा तर्क वाले मामलों की संख्याँ उस सीमा तक निर्धारित करनी होगी जिस संख्याँ तक आप उन्हे यथार्थ रूप से हैण्डल कर सकते है (इस बात को ध्यान में रखते हुये कि कुछ मामलों मंे स्थगन हो सकता है) और बोर्ड का मानकीकरण करे। आप साक्ष्य और तर्क के बहुत अधिक मामले सूचीबद्ध नही करें। साक्ष्य के और तर्क के बहुत अधिक मामले जैसे कि साक्ष्य के 20 और तर्क के 20 मामले सूचीबद्ध करने का कोई औचित्य नही है। आपको केस मैनेजमेंट और केस फ्लो मैनेजमेंट के टूल्स को भी प्रभावी रूप से लागू करना है। आपको पक्षकारों को वैकल्पिक विवाद निबटान प्रक्रिया अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित करना है। बोर्ड प्रबंधन और समय प्रबंधन साथ-साथ अपनाकर आप मामलों की पेन्डेंसी को कम करते है और कार्यदक्षता सुधारते है।
जब भी कोई केस साक्ष्य के लिए नियत किया जाता है तो पक्षकारों से उपस्थित रहने और साक्ष्य प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जाती है। एक पक्षकार के द्वारा बारंबार साक्ष्य के लिए न्यायालय में उपस्थित होने और तैयार रहने में व्यतीत होने वाले समय और उर्जा के व्यर्थ होने की कल्पना करंे। यही स्थिति बहुत अधिक संख्याँ में मामलों के तर्क हेतु नियत करने की हैे। प्रत्येक बार जब कोई केस तर्क के लिए नियत किया जाता है तो अभिभाषक से यह अपेक्षित है कि वह नस्ती को पढ़े और तैयार रहे। यदि कोई मामला बारंबार स्थगित होता है तो पक्षकार और अधिवक्तागण इस अनुमान में तैयार होना छोड़ देते है कि मामला सुनवाई के लिये लिया ही नही जाएगा। जब अंतिम रूप से मामला लिया जाता है तो कई बार पक्षकार और अधिवक्ता तैयार नही रहते और स्थगन के लिए अनुरोध किया जाता है या मामले का अप्रभावी अथवा दोषपूर्ण प्रस्तुतीकरण होता है जिसकी बाद में साक्षियों को पुनः बुलवाकर या तर्को को पुनः सुने जाकर मरम्मत की जाती है। किसी मामलें में सुनवाई की संख्याँ जितनी कम होगी उतना ही उस मामलें के निराकरण की गति तीव्र होगी और उतने ही पक्षकार कम तंग होंगे।
रजिस्ट्री प्रबंधन -
आपको अपने न्यायालयीन अधिकारियों, स्टेनोग्राफर्स, टाईपिस्ट, लिपिकीय एवं सहायक स्टाॅफ पर नियंत्रण और पर्यवेक्षण द्वारा यह सुनिश्चित करना है कि वे अपना कार्य उचित तरीके से करते है और आपको प्रभावी ढंग से सहयोग भी करते है। बेलिफो और आदेशिकावाहकों, (सूचनापत्रों, समन की तत्काल तामीली सुनिश्चित करने, कुर्की/विक्रयों को करने के लिए), अभिलेखागार के स्टाॅफ (अभिलेख की उचित संधारण के लिए), एवं स्टोररूम स्टाॅफ (यह सुनिश्चित करने के लिए कि भौतिक वस्तुएॅ एवं साक्ष्य उचित रूप से प्रदर्शित एवं सुरक्षित रूप से जमा किये गये है) पर विशेष ध्यान आकर्षित किया जाना है। आपको यह भी सुनिश्चित करना है कि न्यायालय का स्टाॅफ आम जनता के प्रति व्यवहारकुशल और धैर्यवान है तथा अभिभाषको और पक्षकारों के प्रति विनम्र है। कृपया यह याद रखे कि यदि न्यायालय का स्टाॅफ दक्ष नही है या उनमें निष्ठा अथवा विनम्रता का अभाव है तो वे न्यायालय की कार्यप्रणाली पर भी असर डालेंगे।
बार प्रबंधन -
अभिभाषकगण न्यायालय के अधिकारी है। जब तक आप उनका सहयोग प्राप्त नही करते तब तक आप त्वरित और प्रभावी ढंग से मामलों का निराकरण नही कर सकते। आपको समान रूप से बार के सदस्यों एवं पक्षकारों के प्रति विनम्रता प्रदर्शित करनी चाहिए। आपको साथ ही साथ दृढ़ होना चाहिए और उनके प्रति व्यवहार में चतुर होना चाहिए। आपको उनका सम्मान अपनी निष्ठा, व्यवहार और आचरण के द्वारा अर्जित करना चाहिए। बार को अपने साथ लेकर चलने और अपने विपरीत धारणा उत्पन्न किये बिना उनसे कार्य कराने में आपको दक्ष होना चाहिए। आपको अनावश्यक कठोर भी नही होना चाहिए। स्थगन के उचित अनुरोधो को मंजूर भी किया जाना चाहिए। तुच्छ और सामान्य प्रकार के स्थगन के अनुरोधों और विलंबकारी युक्तियों से दृढ़तापूर्वक निबटना चाहिए। यदि आप कहने मात्र से मामला स्थगित कर सकते है तो आप अधिवक्ता एवं अभिभाषको से तैयार रहने की अपेक्षा नही कर सकते। अंतरिम अनुदेशों और जमानत के आवेदन आपको त्वरित रूप से निबटाने चाहिए। अंतरिम अनुदेशो को कहने मात्र से प्रदान करके ख्यात होने से बचने का प्रयास करना चाहिए। आपको ‘‘नो- नाॅनसेन्स जज‘‘ - ऐसा न्यायाधीश जो अनावश्यक साक्ष्य को अभिलेख पर लाया जाना, लंबे तर्कों, तुच्छ अनुरोधो, दुवर््यपदेशनों या विलंबकारी युक्तियों को अनुज्ञात नही करेगा , की ख्याति अर्जित करनी चाहिए।
स्व-प्रबंधन -
स्व-प्रबंधन से तात्पर्य आत्म अनुशासन, समय की पाबंदी, समर्पण, सकारात्मक दृष्टिकोण और कठोर परिश्रम से है। इससे तात्पर्य अच्छे स्वास्थ्य और अच्छी आदतों को बनाये रखने से है। इससे तात्पर्य उचित एवं स्वस्थ्य मनोरंजन से भी है।
आप न्यायालय में समय पर बैठे। यदि आप न्यायालय में विलंब से है तो आप अधिवक्ताओं और कर्मचारियों से समय की पाबंदी की अपेक्षा नही कर सकते। आपको पूरे न्यायालयीन समय में सीट पर होना चाहिए। यदि आप अपने विश्राम कक्ष में बार-बार पंहुॅचते है तो आप अधिवक्ताओं और पक्षकारोें से उस समय न्यायालय कक्ष में होने की अपेक्षा नही कर सकते जब उनका मामला न्यायालय में सुनवाई के लिये लिया जाता है। आपको निर्णय और आदेश भी त्वरित रूप से देने चाहिए। आपको अनावश्यक अवकाशों जैसे वर्ष के अंत में केवल इसलिए अवकाश लेना कि कुछ आकस्मिक अवकाश उपभोग करने से रह गये है, से भी बचना चाहिए।
आपको अपना स्वास्थ्य भी अच्छा रखना है यदि आपके पास अच्छा स्वास्थ्य नही होगा तो आप प्रभावी ढंग से कार्य नही कर सकते। आपके कार्य की प्रगति के संदर्भ में आपको प्रतिदिन 12 से अधिक घण्टो तक कुर्सी पर कार्य करना होता है। ऐसी कुर्सी से बंधी हुई तनावपूर्ण जीवनशैली रक्तचाप, शक्कर, पीठ के दर्द, स्पाॅण्डिलाईटिस, वेरीकोजवेन्स और अन्य व्याधियों के लिए निमंत्रण है। यह आपको न्यायालय में थका हुआ और चिड़चिड़ा बनाने वाला है। अतएव यदि आप अच्छा स्वास्थ्य बनाये रखना चाहते है तथा प्रभावी व पूर्ण सामथ्र्य से कार्य करना चाहते है तो व्यायाम, योग, उचित आहार पूर्णतया आवश्यक है।
आपको तकनीकी के प्रति भी सहज होना चाहिए। आपको कम्प्यूटर एवं सूचना प्रौद्यि-गिकी की कार्य योग्य जानकारी होनी चाहिए। यह आपको आदेश एवं निर्णय को लिखने और संशोधित करने, केस लाॅ और आर्टिकल्स को खोजने, आंकड़ों को तैयार करने तथा प्रतिवेदनों को तैयार करने में सहायक होगा। इससे आपके सामान्य ज्ञान में विस्तार होगा एवं आपको मानव अधिकार, न्यायालयिक-विज्ञान, वैकल्पिक विवाद निबटान प्रक्रिया और न्यायालय प्रबंधन तकनीकों के बारे में अद्यतन बनाये रखेगा। पेपररहित ई-कोर्ट्स और साक्ष्य तथा तर्को का वीडियों कान्फ्रेसिंग इत्यादि के माध्यम से प्रस्तुतीकरण अब दूर नही है। तकनीकी से जूझने और उसे मैनेज करने के लिए आपको तैयार रहना है।
उपरोक्त प्रशासनिक दक्षताएॅ आपको कार्यकुशल बनाएंगी। ‘‘क्षमता एवं तत्परता‘‘ शीर्षक के अंतर्गत बंगलौर प्रिंसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कण्डक्ट 2002 में दिये गये निम्नलिखित दिशानिर्देश उपरोक्त न्यायिक एवं प्रशासकीय कौशल को साथ-साथ विकसित करने की महत्ता को रेखांकित करते है।
6..1 एक न्यायाधीश के न्यायिक कर्तव्य अन्य सभी गतिविधियों पर अभिभावी है।
6.2 एक न्यायाधीश अपनी न्यायाधीशीय प्रोफेशनल गतिविधि को न्यायिक कर्तव्य के रूप में समर्पित करेगा जो न केवल न्यायालयीन कार्यो और न्यायालय में जिम्मेदारियों और निर्णय के लिखने के निष्पादन के रूप में है बल्कि न्यायिक पद या न्यायालय के संचालन से सुसंगत अन्य सभी कार्यवाहियों के निष्पादन के रूप में है।
6.3 एक न्यायाधीश अपने ज्ञान, दक्षता और न्यायिक कर्तव्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक व्यक्तिगत गुण, को बनाये रखने और बढ़ाने के लिए उचित कदम जैसे प्रशिक्षण और इस प्रयोजन के लिए अन्य उपलब्ध सुविधाओं का भी उपयोग करेगा।
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6.5 एक न्यायाधीश सभी न्यायिक कर्तव्यों जिनमें आरक्षित निर्णयों को सुनाना भी है, प्रभावी ऋजुतापूर्वक, युक्तियुक्त, शीघ्रता से निष्पादित करेगा।
6.6 एक न्यायाधीश न्यायालय में सभी कार्यवाहियों में मर्यादा बनाये रखेगा और पक्षकारों, साक्षियों, अभिभाषको तथा वह जिनसे कार्यालयीन हैसियत में व्यवहार करता है ,उनके साथ धैर्यवान, गरिमापूर्ण और विनम्र होगा। न्यायाधीश से उसी तरह का आचरण विधिक प्रतिनिधियों, न्यायालय स्टाॅफ एवं अपने असर निर्देश या नियंत्रण के अधीन के प्रति भी अपेक्षित है।
6.7 एक न्यायाधीश अपने न्यायालयीन कर्तव्यों के उद्यमपूर्ण निर्वहन से अंसगत आचरण में संलग्न नही होगा।
न्यायिक नैतिकता
चलो हम यह मान लेते है कि आप आवश्यक न्यायिक एवं प्रशासनिक दक्षता से युक्त सक्षम न्यायाधीश है। क्या यही आपको एक अच्छा न्यायाधीश बना देगा ? यह प्रश्न न्यायाधीश के रूप में आपके आचरण को विचारणीय बनाता है। एक न्यायाधीश के द्वारा अनुसरित एवं व्यवहार में लाए जाने वाले नैतिक मापदण्ड क्या है ? उसे किस तरह व्यवहार करना चाहिए ? उसका आचरण क्या होना चाहिए ? जनता उससे क्या आशा करती है ?
एक अच्छा न्यायाधीश होने के लिए आपको पांच नैतिक सिद्धांतो - ईमानदारी एवं निष्ठा, न्यायिक अलगाव एवं, न्यायिक स्वंतत्रता, न्यायिक मिजाज एवं विनम्रता, एवं निष्पक्षता। आप सभी एक न्यायाधीश के रूप में न्यायिक आचरण के उक्त मापदण्डों से अवगत है। समस्या केवल उन्हें निष्ठा से और लगातार व्यवहार में लाने की है। अब इन सिद्धांतों पर विचार करते है।
निष्ठा एवं ईमानदारी
जब कोई एक न्यायाधीश की निष्ठावान के रूप में प्रशंसा करता है तो मैं अपमानित एवं चिड़चिड़ा महसूस करता हूँ। एक न्यायाधीश में ईमानदारी और निष्ठा न तो विशेष गुण है और न ही प्रशंसा के योग्य उपलब्धियाँ। वे तो एक न्यायाधीश होने की मौलिक पूर्वापेक्षाएँ है। वे तो उसके अशिथिलनीय योग्यता मापदण्ड है। एक न्यायाधीश का निष्ठावान एवं ईमानदार होना आपेक्षित है। यदि कोई न्यायाधीश ईमानदार नहीं है या उसमें निष्ठा की कमी है तो उसे न्यायाधीश होने का हक नही है। जब तक न्यायाधीश अपनी निष्ठा के लिए नही जाने जाएगें तब तक मजबूत, तौर प्रभावी न्यायपालिका नही हो सकती। इस देश में लगभग 15,000 न्यायाधीश है। यदि उनमें केवल कुछ ही दागी है तो भी जनता और मीडिया सम्पूर्ण न्यायपालिका को भ्रष्ट की श्रेणी में रख देती है। यदि एक न्यायाधीश कुछ भी अनुचित करता है तो न केवल त्रुटिकर्ता न्यायाधीश बल्कि सम्पूर्ण न्यायपालिका एक गलत नजरिये से देखी जाएगी। एक न्यायाधीश का प्रत्येक अनुचित कृत्य और प्रत्येक दुव्र्यवहार बढ़ा-चढ़ा कर और तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है और उससे न्यायपालिका में आमलोगों के विश्वास और भरोसे में कमी आती है। न्यायाधीश के कार्यालय की प्रकृति और कार्यों को देखते हुए सरकार के अन्य अंगो के कर्मचारियों की तुलना में न्यायाधीश बहुत अधिक सम्मान पाता है। उसी अनुरूप जनता भी उससे उसी उच्च स्तर की निष्ठा और ईमानदारी की अपेक्षा रखती है। अतएव न्यायाधीश को अपने आचरण और व्यवहार में दोहरी सावधानी रखनी होती है ताकि न्यायपालिका की उच्च प्रतिष्ठा बनी रहे।
बहुत से अभियुक्त धनी और शक्तिवान एवं साधन संपन्न है। व्यवहार मामलों के बहुत से पक्षकार मामले मंे केवल अपने अहं, लालच और ईष्र्या के कारण लगे हुए हैं।
सिविल और आपराधिक मामलों के ऐसे पक्षकार सफलता के लिए कुछ भी कर सकते है जो दुर्भाग्य से न्यायाधीश को प्रभावित करने के प्रयास के रूप मंे भी हो सकता है। अन्य कोई वृत्ति या कार्य में ईमानदारी व निष्ठा के इतने उच्च मापदण्ड की अपेक्षा नही होती और न ही वे भ्रष्ट होने के इतने प्रलोभन और अवसर उपलब्ध कराते है। आपको ऐसे प्रलोभनों से अपने को हमेशा बचाकर रखना है। भ्रष्टाचार की लड़ाई में आप आखिरी आशा है और आपको ऐसी बाड़ नही बनना है जो फसल को ही खा जाए।
जाॅन मार्शल ने कहा है ‘‘न्यायपालिका की शक्ति मामलों के निराकरण में ही नही है और न ही दण्डादेश अधिरोपित करने, अवमानना के लिए दण्डित करने में है बल्कि आम जनता के विश्वास में है। यदि न्यायपालिका में आम आदमी के विश्वास मंे कमी आती है तो वह लोकतंत्र और विधि के शासन का अंत होगा।‘‘
कुछ न्यायाधीश भ्रष्टाचार को एक मामला निराकृत करने के लिए घूंस लेने या अनुचित प्रलोभन प्राप्त करने से ही जोड़ते है। वे मानते है कि किसी अधिवक्ता या राजनैतिज्ञ या व्यवसायी से ऐसा कोई अनुग्रह लेना जो उसके समक्ष लंबित किसी मामले से संबंधित नही है, किसी भी तरह आक्षेप योग्य नहीं है और उनकी निष्ठा को भी प्रभावित नही करेगा। किंतु निष्ठा और उसके एंटिथिसिस के रूप मंे भ्रष्टाचार के बहुत से चेहरे है। उदाहरण के लिए यह मानते है कि एक न्यायाधीश अवकाश दौरेे पर जाने के लिए एक अधिवक्ता की मंहगी कार उधार लेता है या किसी पारिवारिक आयोजन जैसे विवाह, जन्मदिन के उत्सव पर अधिवक्ताओं से महँगी भेटें स्वीकार करता है। न्यायाधीश द्वारा लिये गये उपरोक्त दोनों लाभों में से किसी का भी उसके द्वारा निराकृत किये जाने वाले या निर्णय लिखाये जाने वाले मामले से किसी भी तरह से संबंधित नही है। किंतुु न्यायाधीश का ऐसा कोई भी आचरण जो भविष्य में उसकी निष्ठा को प्रभावित कर सकता है या सामान्य तौर पर न्यायपालिका की या उस विशिष्ट न्यायाधीश की विश्वसनियता को प्रभावित करने की संभाव्यता रखता है आक्षेप योग्य है, भले ही न्यायाधीश के द्वारा प्राप्त किये गये किसी भी लाभ का कोई विशिष्ट तत्प्रतित ;ुनपक चतव ुनवद्धनही है। एक न्यायाधीश के द्वारा ऐसा विवेक के अधीन लाभ प्राप्त करना जोे अन्य न्यायाधीशों को नही दिया जा रहा है एक आक्षेप योग्य व्यवहार है। याद रखें अनुग्रह सदैव बुराई के साथ आता है। जब भी एक न्यायाधीश के प्रति कोई अनुग्रह किया जाता है तो उसे करने वाला भविष्य के विनियोग के रूप में लेता है और जब भी अवसर आयेगा तो वह किसी न किसी रूप में उसकी मांग करेगा या कम से कम उसकी आशा करेगा। आपको अपनी निष्ठा बनाये रखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि ऐसा केेाई भी अनुग्रह, भेंट या लाभ, जो युक्तियुक्त रूप से न्यायाधीश को उसके न्यायिक कर्तव्यों के निष्पादन को प्रभावित करने के आशय के रूप में लिया जा सकता है, स्वीकार नहीं करे।
आपको न केवल ईमानदार रहना है बल्कि आपको ईमानदार दिखना भी है। आपको इस बारे में सावधानी बरतनी है कि आप व्यक्तिगत जीवन में दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। आप यह मानने में गलती करते हंै कि ‘‘मैं ईमानदार हूँ. मेरी अन्र्तात्मा साफ है इसलिए मैं किसी भी व्यक्ति से स्वतंत्रतापूर्वक संबंध रख सकता हॅू।‘‘ आप ईमानदार हो सकते है। किंतु, दुर्भाग्य से, मुकदमें के पक्षकार और जनता यह नही मानती कि आप ईमानदार है। एक ऐसी दुनियाँ जिसने हर जगह बेईमानी और भ्रष्टाचार ही देखा है वह भ्रष्ट हेतु को मानने मंे नही हिचकती, यदि आपका आचरण किसी भी तरह इसके लिए स्थान छोड़ता है भले ही आप ईमानदार है। यदि वे आपको किसी क्लब या रेस्टारेंट में किसी अधिवक्ता या मुकदमा लड़ने वाले की संगति में देखता है तो वह मान लेगें कि कुछ ‘सौदा‘ हो रहा है। वे यह कभी नही सोचगें कि आप मित्र के साथ रात्रिभोज ले रहे हंै। यदि आप यह सुनिश्ति करना चाहते है कि अनुचित हेतु आपके साथ न जुड़े और आप चाहते है कि आपका नाम और न्यायपालिका की अच्छी छवि प्रभावित न हो तो दूरी बनाए रखंे।
‘‘बंगलौर पिं्रसिपल आॅफ ज्यूडिशियल ंकंडक्ट (2002)‘‘ के निम्नलिखित दिशानिर्देश इस विषय में सुसंगत है -
3.1 एक न्यायाधीश यह सुनिश्चित करेगा कि एक युक्तियुक्त सम्प्रेक्षक की नजर में आपका आचरण पहँुच से बाहर है।
3.2 एक न्यायाधीश का व्यवहार एवं आचरण लोगों की न्यायपालिका में निष्ठा को पुनसर््थापित करने वाला होना चाहिए। न्याय केवल किया ही नही जाना चाहिए बल्कि न्याय होता दिखना भी चाहिए।
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4.14 एक न्यायाधीश और उसके परिवार के सदस्य न्यायाधीश द्वारा अपने कर्तव्यों के निष्पादन के रूप में अपने द्वारा किए गये या किये जाने वाले या करने में लोप के लिये कोई भेंट, ऋण या अनुग्रह न तो मांगेगे और न ही स्वीकार करेगें।
4.15 एक न्यायाधीश जानते हुये अपने न्यायालय के कर्मचारियों या अन्य किसी को न्यायाधीश के प्रभाव, निर्देश या प्राधिकार के अधीन अपने द्वारा किये गये या किये जाने वाले या करने में लोप के लियेे कोई भेंट, ऋण या अनुग्रह स्वीकार करने के लिए अनुज्ञात नही करेगा।
4.16 लोक प्रकटन की कानूनी एवं अन्य विधिक अपेक्षाओं के अध्यधीन रहते हुए एक न्यायाधीश केवल प्रतीक स्वरूप भेंट, अवार्ड या लाभ, उस अवसर के अनुरूप जिस पर ये दी गई हंै, ही स्वीकार करेगा बशर्तें ऐसी भेंट, अवार्ड या लाभ को उसके द्वारा निर्वाह किये जाने वाले न्यायिक या अन्य कर्तव्यों पर असर डालने या अन्यथा न्यायाधीश द्वारा पक्षपात के लिये आशायित होने के रूप में युक्तियुक्त रूप से उन्हें न लिया जाए।
न्यायिक अलगाव ;ंसववदिमेेद्ध एवं असंबंद्धता ;कमजंजबीउमदजद्ध
न्यायिक अलगाव, विवादों से दूर रहते हुये और परिणामों की परवाह किये बिना न्याय प्रदान करने में आपके मस्तिष्क को शक्ति देता है। आपको प्रभावित हुये बिना विधि के अनुसार यह निश्चय करना है कि कौन सही है और कौन गलत है। लार्ड ब्रिकेट ने दूरी बनाये रखने को इस तरह समझाया है -
‘‘एक न्यायाधीश का अपने समक्ष कार्यवाहियों पर पूर्ण नियंत्रण रखना सभी न्यायालयों में न्याय प्रशासन का एक अभिन्न अंग है। किसी भी समय प्रश्न के माध्यम से या अन्यथा न्यायाधीश का यह कर्तव्य है कि वह आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप करे। वह साक्ष्य में अस्पष्टताओं को स्पष्ट एवं पठनीय किये जाने की इच्छा कर सकता है, वह मामले में और अधिक आवश्यक खोज की इच्छा कर सकता है, इस तरह उसका हस्तक्षेप वांछनीय और लाभदायक हो सकता है। लेकिन यह कहना भी निरापद है कि उसके सभी हस्तक्षेप इस सर्वोच्च कर्तव्य से शासित होने चाहिए कि मामले के पक्षकार एक ऋजु विचारण का आस्वाद लें। उसका हस्तक्षेप केवल हस्तक्षेप के रूप में हो न कि अभिभाषक के कृत्यों को पूरी तरह से हड़पने के रूप में। एक न्यायाधीश द्वारा न्याय प्रशासन की सबसे अच्छे ढंग से सेवा न्यायिक शांति और न्यायिक भावभंगिमा को बनाए रख कर, विवादों से अलग थलग रहकर ही की जा सकती है।‘‘
निश्चित रूप से कुछ मामलों (उदाहरण के तौर पर जनहितवाद) में न्यायिक सक्रियता दिखाते समय न्यायाधीश को अपने आदेशों और की गई कार्यवाहियों से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर भी ध्यान देना है। इस अपवाद पर मेरे आर्टिकल ‘‘निर्णय सुनाने के कुछ सिद्धांत‘‘ में विचार किया गया है।
न्यायिक अलगाव से तात्पर्य असामाजिक होना नही है। इसका तात्पर्य समाज की समझ के प्रति उदासीन होना भी नही है। और इसका तात्पर्य दिन-प्रतिदिन के जीवन के यथार्थ को नकारना भी नहीं है। न्यायाधीशों को समाज की आवश्यकताओं के समझने योग्य होना चाहिए और उन्हें समाज के कमजोर तबके की कठिनाईयों और समस्याओं से जुड़ना चाहिए और गरीब तथा निम्न वर्ग की न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करनी चाहिए। धनी, शक्तिसंपन्न और निष्ठाहीन तथा पकड़ रखने वाले अपने मौलिक अधिकारों, मानवीय अधिकारों या सांपत्तिक अधिकारों के उल्लंघन के बारे में तेज आवाज में विरोध कर सकते हैं और सक्षम अधिवक्ताओं के माध्यम से अपने अधिकारों की संरक्षा के लिए समर्थ है। लेकिन प्रत्येक समर्थ, जो अपने अधिकारों की रक्षा कर सकता है के अलावा समाज के कमजोर तबके से संबंधित ऐसे सैकड़ों सामथ्र्यहीन भी हैं जो अपने विरूद्ध होने वाले अन्याय के प्रति विरोध दर्शित नही कर सकते और न ही अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अधिवक्ता नियुक्त कर सकते है। आप उन सभी के संरक्षक है जो अपने को संरक्षित करने में असमर्थ है। आप न केवल अवयस्कों, मानसिक चुनौती वालों, धार्मिक और खैराती संस्थाओं बल्कि महिलाओं, बुजुर्गो, अशक्तों, गरीबों और फुटपाथ पर रहने वालों के संबंध में कार्यवाही करते समय विशेष जिम्मेदारियों से युक्त होते है। जब आप संरक्षक की भूमिका में होते है तो अलगाव और अनाशक्ति कुछ समय के लिये पीछे छोड़नी होती है।
न्यायिक अलगाव न केवल मानसिक अवस्था का परिचायक है बल्कि शारीरिक रूप से ‘‘दूरी‘‘ बनाये रखना भी है। ‘‘न्यायिक जीवन के मूल्यों के पुनर्कथन‘‘ में कहा गया है कि - ‘‘एक न्यायाधीश को अपने पद की गरिमा से संगत अलगाव बनाये रखना चाहिए, अधिवक्ता संघ के किसी सदस्य से अतिनिकटता, विशेष तौर से उन व्यक्तियों के द्वारा जो उसी न्यायालय में पैरवी करते हों को दूर करना होगा। ‘‘आपको अभिभाषक संघ के सदस्यों, राजनीतिज्ञों या आपके समक्ष मुकदमें के पक्षकारों से लोक आयोजनों या विवाह और मृत्यु जैसे खुली निजी घटनाओं के सिवाय घुलना मिलना दूर करना होगा। न्यायालय के भीतर किसी अधिवक्ता या पक्षकार के प्रति मुस्कुराना, न्यायालय के बाहर किसी अधिवक्ता या पक्षकार के साथ गप्पबाजी, लोक समारोह पर किसी राजनीतिज्ञ के साथ विनोद करना, जनता या अभिभाषक संघ के सदस्यों द्वारा गलत रूप से समझे और निर्वचित किये जाने योग्य है। यदि आप उनसे अपने घर पर या उनके घर पर या होटल, रेस्टाॅरेंट, क्लब जैसे स्थानों पर अकेले में मिलते है या उनके साथ घुलते मिलते है तो आप समस्याओं को आमंत्रित कर रहे है। लोगों में फुसफुसाहट होगी। दुर्भाग्य से हम संदेहों से भरे संसार में रह रहे है खासतौर से जब मामला न्यायाधीश का हो। अतएव दूरी बनाये रखने की जरूरत है। हम आशा करे कि जब न्यायाधीश और न्यायपालिका को निष्ठा और निष्पक्षता से युक्त प्रतिष्ठा प्राप्त की जायेगी तो दूरी बनाये रखने की जरूरत ही समाप्त हो जायेगी।
जब भी मैं शारीरिक रूप से दूरी बनाये रखने की राय देता हूॅ तो सदैव एक श्रोता के निमित्त उत्तर को देखता हूँ -
आप हमें दूरी बनाये रखने को कहते हैं। लेकिन राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण हमसे विधिक जागरूकता कार्यक्रमांे को आयोजित करने के लिए कहता है जहाँ हमें वकीलों एवं पक्षकारों सहित जनता से घुलना मिलना पड़ता है। हमें जिला प्रशासन, पुलिस अधिकारियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों और अभिभाषक संघ के सदस्य का सहयोग इन कार्यक्रमांें के लिए लेना होता है। आप हमसे दूरी बनाये रखने और स्वतंत्र रहने की आशा कैसे कर सकते है।
यह विषय निसंदेह पेचीदा है। आपको दो विविध भूमिका निभानी है, एक न्यायाधीश की भूमिका है जहाँ आपसे अधिवक्ताओं, पक्षकारों से नही घुलने मिलने या उनका अनुग्रह नही लेनेे की आशा की जाती है। आपकी दूसरी भूमिका एक ऐसे प्राधिकारी की है जिसे विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के प्रावधानों को क्रियान्वित करना है जहँॅ आपको अभिभाषकों, पक्षकारों, मौलिक अधिकारियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों से रूबरू होना है। यदि आप विधिक जागरूकता कार्यक्रम से संबंधित किसी लोक आयोजन पर किसी से चर्चा करते देखे जाते है तो आपकी निष्ठा या स्वतंत्रता को प्रश्नांकित करने कोई नही जा रहा है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति आपको किसी अधिवक्ता या पक्षकार से निजी तौर पर चर्चा करते देखता है तो प्रतिदिन टिप्पणियों के लिए अवसर उपलब्ध कराता है। यदि आप अपनी न्यायिक भूमिका और अपनी विधिक सेवा भूमिका के मध्य अंतर अपने दिमाग में रखते है तो आप परेशान करने वाली स्थितियौं को दूर करने में समर्थ होगें।
मैं इस बात से सहमत हूॅ कि न्यायाधीश को किसी भी स्थिति में अपने को ऐसी स्थिति में नही डालना चाहिए जहाँ वे अधिवक्ताओं, पुलिस अधिकारियों या जिला प्रशासन के अधिकारियों का अभारी होना पड़े चाहे वह विधिक सेवा कार्यक्रम के संबंध में ही हो या किसी वरिष्ठ अधिकारी के दौरे के संबंध में हो या अन्यथा। यदि न्यायाधीश को ऐसे आयोजनों के लिए अनुग्रह लेने की आवश्यकता है तो आपको उसी रूप में अनुग्रह लौटाना होगा जिसका अर्थ होगा न्यायिक अलगाव और स्वतंत्रता के प्रति समझौता करना जो कुछ मामलों में निष्ठा खोने तक जा सकता है। इसलिए मेरी राय यह है कि बड़े और विवादित कार्यक्रमों के आयोजन से बचा जाये। न्यायाधीशों से राजनीतिज्ञों के आकार की सभायंे और कार्यक्रम आयोजित करने की अपेक्षा नही होती। छोटी बैठकें, चुनिंदा लक्षित श्रोतागण, और अर्थपूर्ण संवाद ही विधिक जागरूकता के प्रसार के लिए अपेक्षित है। कृपया स्वीकृत बजट में विधिक सेवा और अन्य न्यायालय संबंधी आयोजनों को सादे ढंग में आयोजित करने का साहस करे।
मैं विधिक सेवा प्राधिकरण के अध्यक्षों को शुभ सलाह देने का अवसर चाहूँगा। कृपया न्यायाधीशों को विधिक सेवा कार्यक्रम आयोजित या संचालित करने की अपेक्षा के समय यह सुनिश्चित करे कि उनकी स्वतंत्रता से समझौता तो नही हो रहा। वास्तव में अच्छा यह होगा यदि विधिक सेवा गतिविधियाॅ (विवादों के वैकल्पिक निदान कार्यक्रमों से अन्यथा) विधिक सेवा प्राधिकरणों के कर्मचारियों, जो न्यायिक अधिकारी नही है, द्वारा ही आयोजित किये जाये और न्यायाधीश उनमें केवल अतिथि या वक्ता के रूप में ही सम्मिलित हो। व्यक्तिगत रूप से मेरी यह राय है कि विधिक जागरूकता फैलाना और न्याय तक पहँुच प्रदान करना कार्यपालिका के कृत्य है। मैने देखा है कि किसी भी अन्य देश में विधिक जागरूकता फैलाना और विधिक सहायता विस्तारित करना न्यायपालिका के कृत्य नहीं है। लेकिन यदि हमारी संसद ने इस भार के निर्वहन के लिए न्यायपालिका को ही चुना है तो न्यायाधीशों को यह कार्य लगन के साथ निभाना चाहिए।
बंगलौर प्रिंसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कण्डक्ट (2002) की औचित्य शीर्षक में दिये गये दिशानिर्देश सुसंगत है -
4.1 एक न्यायाधीश को औचित्यहीनता एवं औचित्यहीनता के आभास को न्यायाधीश की सभी कार्यवाहियों से बचाना चाहिए।
4.2 लगातार जनता की नजर के कारण एक न्यायाधीश को व्यक्तिगत निर्बन्धन स्वीकार करने चाहिए जो आम नागरिक के द्वारा भार स्वरूप महसूस किये जा सकते है और ऐसा उसे स्वेच्छया और स्वतंत्रतापूर्वक करना चाहिए। विशेषतौर पर एक न्यायाधीश को ऐसा आचरण करना चाहिए जो उसके न्यायिक कार्य की गरिमा से संगत हो।
4.3 एक न्यायाधीश को अपने न्यायालय में वकालत करने वाले विधिक वृत्ति के किसी सदस्य के साथ व्यक्तिगत संबंधों के कारण ऐसी दशाओं से बचने का प्रयास करना चाहिए जो युक्तियुक्त रूप से पक्षपात का संदेह या आभास कराये।
न्यायिक स्वतंत्रता -
न्यायिक स्वतंत्रता न्यायपालिका की एक संस्था के रूप में स्वतंत्रता के साथ ही साथ एक न्यायाधाीश की निजी हैसियत में न्यायिक कार्यो के निष्पादन में स्वतंत्रता की ओर भी संकेत करती है। यहाँ पर हम न्यायाधीश की व्यक्तिगत रूप में स्वतंत्रता के बारे में विचार कर रहे हैं जो किसी असर या दबाव से स्वतंत्र और कार्यपालिका या विधायिका के हस्तक्षेप से स्वतंत्र न्यायिक प्रक्रिया के बारे में है। आप विधि के अनुसार मामले का अपने अनुसार निराकरण करने के लिए स्वतंत्र हैं। अपने न्यायिक कार्यों और निर्णयों के संबंध में किसी कार्यवाही या बदले या व्यक्तिगत आलोचना से आप पूर्णतया उन्मुक्त है। ऐसी उन्मुक्ति आप तब भी रखते हैं जब आपका न्यायिक कार्य अधिकारिता के बिना करते है या गलत तरीके से मामले का निराकरण कर देते हैं बशर्ते आपने ऐसा सदभाव में किया है।
जब भारत का संविधान ‘‘अधीनस्थ न्यायपालिका‘‘ अभिव्यक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों से इतर न्यायाधीशों का वर्णन करता है तो उसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसका आशय न्यायिक स्वतंत्रता पर बेडि़याँ डालना है। शब्द ‘‘अधीनस्थ‘‘ का शाब्दिक अर्थ अन्य की तुलना में किसी की निचली स्थिति से है। संविधान इस अभिव्यक्ति का उपयोग केवल न्यायिक वरिष्ठताक्रम में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से नीचे की स्थिति वाले न्यायाधीशों का वर्णन करने के लिए करता है। बाद में शब्द ‘‘अधिनस्थ‘‘ दुर्भाग्य से कुछ न्यायाधीशों के द्वारा अनुसेवी के रूप में समझा जाता है। हमें यह स्पष्ट करना है उच्चतर न्यायालय आपके द्वारा निर्णय प्रदान करने के पश्चात सुधारने की शक्ति रखता है। किंतु कोई भी आपको यह निर्देश देने की शक्ति नही रखता कि आपको प्रथमदृष्टया मामला कैसे निराकृत करना है और आपको क्या निर्णय करना चाहिए। विधि के अनुसार निर्णय करने की आपकी स्वतंत्रता किसी भी नियंत्रण या निर्बन्धनों के अधीन नही है। न्यायिक कृत्यों के प्रयोग में आप स्वतंत्र है और किसी के भी अधिनस्थ नही है। अधिनस्थ न्यायपालिकाओं के सदस्यों और उच्च न्यायपालिकाओं के सदस्य के मध्य अंतर केवल अधिकारिता से संबंधित है।
न्यायिक स्वतंत्रता का यह अर्थ इस बात की स्वतंत्रता नही है कि वे जो चाहे वह करंे और आप चाहे जिसे युक्तियुक्त और साम्यपूर्ण माने न्यायिक स्वतंत्रता का यह भी तात्पर्य नही है कि आप अपने विवेक को अपनी सनक के अनुसार उपयोग करें। यहाँ तक कि जब आप विवेक का उपयोग कर रहे हंै जिसके लिये कोई संविधिक गाईडलाईन या पूर्ण निर्णय भी नही है तो आपसे अपेक्षा है कि आप उचित रूप से और निष्पक्ष ढंग से कार्य करंे न कि स्वैच्छिक रखे आपसे विधि के अनुसार न्याय प्रदान करने की अपेक्षा है। न कि अपने धारणाओं के अनुसार या जिसे आप युक्तियुक्त समझते है। न्यायमूर्ति कार्डोजों ने चेताया है कि -
न्यायाधीश वह जब खाली भी है तब भी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है वह अपनी पसंद पर कुछ करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। वह न्याय और ऋजुता के अपने आदर्श नहीं बना सकता। उसे अपनी प्रेरणा सुस्थापित सिद्धान्तों पर आधारित करनी है। उसे अनिश्चित आवेगों पर विचार नहीं करना है।
न्यायिक स्वतंत्रता न्यायधीशों के द्वारा उपभोग किये जाने वाला विशेषाधिकार नहीं है बल्कि लोकतंत्र में विधि शासन के प्रति लोगों के विशेषाधिकार का प्रतिबिंब है। यह विधायिका एवं कार्यपालिका की स्वछंदता के विरूद्ध आम जनता की सुरक्षा के लिए एक सुरक्षा चक्र है। यह अपने कर्तव्यों के निष्पादन में गंभीर और संवेदनशीलता की जिम्मेदारी के साथ आता है। यूनियन आॅफ इंडिया विरूद्ध मद्रास बार ऐसोसियेशन में उच्चतम न्यायालय का सम्प्रेक्षण है कि:-
46. स्वतंत्रता का तात्पर्य न्यायधीशोें की यह स्वतंत्रता नहीं है कि वे चाहे जो करें। यह न्यायिक विचारों की स्वतंत्रता है। इसका तात्पर्य हस्तक्षेप और दबावों से भी मुक्ति है जो न्यायधीशों को ऐसा वातावरण देती है जहां वे न्यायिक हेतु एवं संवैधानिक मूल्यों के लिये पूर्ण समर्पण के साथ काम कर सकंे। यह जीवन, आदतों और रहन सहन में अनुशासन है जो न्यायाधीश को निष्पक्ष बनाता है।
बंगलौर प्रिंसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कंडक्ट (2002) स्पष्ट करता है कि न्यायिक स्वतंत्रता विधि शासन की पूर्ववर्ती शर्त है और ऋजु विचारण की मौलिक प्रत्याभूति है और इसीलिए एक न्यायाधीश को व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों ही रूपों में न्यायिक स्वतंत्रता को बनाये रखना है और विस्तारित करना है। इस सिद्धांत के उपयोग हेतु निम्नलिखित दिशा निर्देश दिये गये है-
1.1 एक न्यायाधीश को न्यायिक कार्य तथ्यों के अपने आंकलन के आधार से स्वतंत्र रहते हुये, किसी भी कारण से किसी भी प्रकार के बाह्य प्रभावों, प्रलोभनों, दबाव, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष धमकी या हस्तक्षेप से मुक्त होकर विधि की ईमानदार समझ के आधार पर करना है।
1.2 न्यायाधीश समाज के संबंध में सान्यतया तथा किसी भी ऐसे मामले के पक्षकारों के संबंध मंे, जिसका उसे निराकरण करना है, विशिष्टतया स्वतंत्र रहेगा।
1.3 एक न्यायाधीश न केवल शासन की कार्यपालिका एवं विधायी शाखा से अनुचित संबंधों एवं प्रभावों से मुक्त हो बल्कि उनसे मुक्त एक युक्तियुक्त संप्रेक्षक दर्शित होना चाहिए।
1.4 न्यायिक कृत्यों के निष्पादन में एक न्यायाधीश निर्णय के संबंध में, जिसका वह स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय लेने के लिये दायित्वाधीन है, अपने न्यायिक सहयोगियों से स्वतंत्र होगा।
1.5 न्यायपालिका की संस्थागत और कार्यात्मक स्वतंत्रता को बनाये रखनें और उसमंे वृद्धि के लिये एक न्यायाधीश अपने न्यायिक कृत्यों के निष्पादन के लिये सुरक्षात्मक उपायों को बनाये रखेगा और उन्हे बढ़ावा देगा।
1.6 न्यायपालिका में जनता का विश्वास पुनः स्थापित करने के लिये एक न्यायाधीश न्यायिक स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिये न्यायिक आचरण के मौलिक उच्च मापदण्डों का पालन करेगा और उन्हे बढ़ावा देगा।
न्यायिक स्वभाव एवं विनम्रता
प्रतिदिन, प्रत्येक व्यक्ति न्यायालय कक्ष के अंदर और बाहर न्यायाधीशों को ‘‘माई लार्ड‘‘ या ‘‘योअर आॅनर‘‘ संबोधित करता है। प्रत्येक व्यक्ति उनके सामने झुकता है, उनका अभिवादन करता है और उन्हें नमस्कार करता है और उन्हंे सम्मान एवं आदर देता है। दिन प्रतिदिन वे उनके निवेदनों, तर्को, परिवादों, अनुरोधों और प्रार्थनाओं को स्वीकार या अस्वीकार करके पक्षकारों के भाग्य का फैसला करते है। वे लोगों को कारावास में भेज सकते है। वे लोागों को अंकिचन घोषित कर सकते है। वे यह निश्चय करते है कि कौन सही है और कौन गलत है। उनके न्यायालय में मंत्रमुग्ध श्रोता होते हैं जो प्रत्येक विनोद एवं टिप्पणी की प्रशंसा करते है और अनुमोदन करने वाली मुस्कुराहट देते है। यह स्वभाविक है कि कुछ समय पश्चात न्यायाधीश यह सोचना शुरू कर देते है कि वे बुद्धि, ज्ञान और योग्यता का पर्याय है और खासतौर से उनके शब्द ही कानून है और उनकी इच्छा ही समादेश है। शनैः शनैः उनके मस्तिष्क और आचरण से विनम्रता जाने लगती है। हैरोल्ड आर. मैडिना ने इसीलिए चेताया है:
एक न्यायाधीश अधिनस्थों, अभिभाषकों और पक्षकारों से घिरा रहता है जो उसे बताते रहते हैं कि वह कितना उत्कृष्ट, आश्चर्यजनक, बुद्धिमान और ज्ञानी व्यक्ति है। जिस क्षण वह उन पर विश्वास करना शुरू कर देता है उसी क्षण उसकी आत्मा मरने लगती है और सबसे बड़ी बात यह है कि एक न्यायाधीश क्या होना चाहिए उसके विपरीत कार्य करने लगता है।
विनम्रता ही वह गुण है जो न्यायाधीश को यह महसूस कराता है कि न तो वह त्रुटिरहित है और न ही सब कुछ कर सकता है। यह भी कि उसे उन अधिवक्ताओं को जिन्होने तथ्यों का अध्ययन किया है और विधि को खोजा है सुनना चाहिए और सभी बिन्दुओं को एक खुला दिमाग रखते हुये निराकृत करना चाहिए। विनम्रता के बिना एक न्यायाधीश बददिमाग और अपना गलत मुल्यांकन करने वाला, विकृत मानसिकता वाला हो जाता है और यह सोचना शुरू कर देता है कि अधिवक्ता ज्यादा कुछ नही जानते, वह उनसे बेहतर जानता है और उसके फैसले उचित और सही होते है। वह न्याय को पीछे छोड़कर अपने चातुर्य, ज्ञान और अपने निर्णयों और आदेशों में अपनी वि़द्वता का प्रदर्शन करने लगता है। संक्षेप में वह सही अर्थो में ‘‘न्यायाधीश‘‘ नही रह जाता।
आपको अपनी विद्वता, योग्यता या शक्ति का प्रदर्शन करने के प्रयास, जो अवश्यंभावी रूप से अन्याय की ओर ले जाता है, के बजाय न्याय प्रदान करने पर अधिक केन्द्रित होना चाहिए। न्यायमूर्ति फ्रैन्कफुर्तर ने ‘‘न्यायिक विनम्रता‘‘ का वर्णन विधि का सम्मान करने वाले, अपनी सोच को बदल सकने वाले, अन्य विचार की संभाव्यता को स्वीकार कर सकने वाले, कारण से आश्वस्त हो सकने वाले ऐसे मस्तिष्क से युक्त तटस्थ व्यक्ति के रूप में की है जो सत्य की खोज करता है और निर्णय के पीछे अपने आवेगों को रखता है न कि उसके आगे।
आपको निष्कर्षो पर कूदने या पहले एक ‘‘विचार‘‘ बना लेने और फिर उसे बदलने से इंकार करने से बचना चाहिए। यदि आप सुनवाई के बिना या पूर्ण तथा उचित रूप से सुनवाई किये बिना पहले ही यह निश्चय कर लेते है कि परिणाम क्या होगा और फिर उस पर कायम हो जाते है और उसके पश्चात तथ्यों और विधि पर अपना निर्णय आधारित करने के बजाय अपने निर्णय को समर्थन प्रदान करने के लिये विधि और तथ्यों को खोज रहे होते है। आप अपनी राय से असहज या विपरीत विधि और तथ्यों को भूलने या नजरअंदाज करने का भी प्रयास करेगें। पूर्वनिर्धारित विचार को समर्थन प्रदान करने के लिये तथ्यों और विधि का चयन और अन्य सुसंगत तथ्यों और विधि को नजरअंदाज करना विधिक विपर्यस्तता है। यह कहा जाता है कि बहुत से सफल एवं बुद्धिमान अधिवक्ता अपने को अच्छा न्यायाधीश बनाने में असफल हो जाते हैं यदि वे न्याय प्रदान करने के बजाय प्रत्येक फैसले में अपनी योग्यता और ज्ञान का प्रदर्शन करने की हठ रखते है।
आपको न्यायालय के अंदर एवं बाहर कहे जाने वाले शब्दों के संबंध में सतर्क और संतुलित होना चाहिए। ‘‘बंगलौर पिं्रसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कंडक्ट (2002) आपको यह राय देता है:
4.6 किसी अन्य नागरिक की तरह एक न्यायाधीश भी अभिव्यक्ति, मत, संघ और सभा की स्वतंत्रता का हकदार है। किंतु इन अधिकारों का उपयोग करते समय एक न्यायाधीश इस तरह से आंकलन करेगा जो उसके न्यायिक पद की गरिमा और न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता के विपरीत न हो।
आपको समझौते या व्यवस्थापन के लिये किसी को बाध्य करने का प्रयास नही करना चाहिए। व्यवस्थापन के लिये आपके ऐसे सुझाव, जिसे आप युक्तियुक्त सोचते है, किसी भी पक्षकार द्वारा अस्वीकार करने की स्थिति में परेशान या उत्तेजित नही होना चाहिए। वास्तव में संपूर्ण तथ्यों को जाने बिना आपको समझौते के लिये प्रस्ताव भी नही देना चाहिए। मैं स्पष्ट करता हूँ। आप यह सलाह सदैव दे सकते हैं कि पक्षकारों को समझौता करना चाहिए। वास्तव में व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 89 भी न्यायाधीशों को समझौते के लिये प्रोत्साहित करती है। लेकिन आपको एक अपरिपक्व प्रक्रम पर ही समझौते की शर्तांे के रूप में अपने विचार अधिरोपित करने का प्रयास नही करना चाहिए। जब आप समझौते के सुझाव के साथ ही अपनी नजरों में उचित लगने वाली शर्तें भी सुझाते है तो बहुत से मामलों में ऐसा पक्षकार जिसका मामला बहुत कमजोर है वह तो समझौते के लिये उत्सुक होगा जबकि मजबूत पक्ष वाला या उचित कारण रखने वाला समझौते के प्रति अनिच्छा दर्शायेगा। समझौते का सुझाव देकर आप उस पक्षकार से आक्रोशित हो सकते है जो आपके सुझाव के प्रति सम्मत नही है। उसके बाद जब आप मामला सुनवाई में लेते है तो आपके सुझाव पर ध्यान नहीं देने वाले पक्षकार के प्रति आपका क्षोभ आपको उसके सही मामले को विचार में नही लेने के लिये प्रेरित कर सकता है और भावुकता आपकी न्यायिक दृष्टि को धुंधली कर सकती है। वास्तव में जब आप न्यायिक परिपक्वता और अनुभव विकसित कर लेते हैं तो ऐसा नही होना चाहिए। एक न्यायाधीश जो यह वास्तविक रूप से महसूस करता है कि एक व्यवस्थापन इस मामले में उचित है और पक्षकारों को अपने सुझाव से प्रेरित करता है तो यदि व्यवस्थापन नही हो पाता है तो उसे उस मामले की सुनवाई से बचना चाहिए।
आपको अपने निर्णय के बारे में समाचार पत्रों की टिप्पणियों या विशिष्ट समुदाय की विपरीत प्रतिक्रियाओं से व्यथित या उद्विग्न नही होना चाहिए। न तो आपके निर्णय और न ही आपके कार्य लोकप्रिय होने चाहिए। आप लोक कार्यालय नही चला रहे है। आप प्रचार पाने के लिये भी नहीं है। यदि न्यायाधीश इस ढंग से फैसले करने लगे जो बहुसंख्यक को प्रसन्न करेगा तो फिर अल्पसंख्यक को न्याय प्रदान नही किया जा सकता। यदि न्यायाधीश धनी और शक्तिशाली व्यक्तियों के विचारों पर ध्यान देगा तो गरीबों और निचले तबके वालों को न्याय प्रदान नही किया जा सकता। यदि न्यायाधीश केवल बात उठाने वाले समुदायों की राय पर ध्यान देगा तो फिर वाणीरहित बहुसंख्यक को न्याय प्रदान नही किया जा सकता। फैसला केवल मामले की मैरिट पर आधारित होना चाहिए न कि आपके आवेगों और वरीयताओं पर।
न्यायाधीशों के विरूद्ध एक आम शिकायत यह है कि वह बिल्कुल अलग रहते है और उन्हे समाज की वास्तविकताओं की समझ नही है। ऐसी टिप्पणियों से व्यथित न हों। न्यायाधीश प्रतिदिन आम आदमी की समस्याओें और मुश्किलों को देखते है। वे समाचार पत्र और पत्रिकाओं को पढ़ते और दूरदर्शन देखते है। वास्तव में अनेकों बार समस्या यह होती है कि उनके निर्णय, खासतौर से सनसनीखेज आपराधिक प्रकरणों में, लोक राय के दबाव में और मीडिया की राय के असर में हो सकते है।
दूसरी प्रायः आने वाली शिकायत यह है कि कुछ न्यायालयीन आदेश अव्यवहारिक है। यह शिकायत अर्थहीन है। न्यायाधीश कानून नही बनाते हैं। वे केवल कानून के अनुसार निराकरण करते हैं। कानूनों को विधायिका निर्मित करती है। अनुतोषों को प्रदान करना कानून के प्रावधानों की परिधि में की गई प्रार्थना और साबित किये गये मामले के अनुसार होता है। केवल जहाॅ विवाद किसी विधि के प्रावधानों मंे नही आता या उच्चतर न्यायालय के पूर्व निर्णय है वहाँ न्यायाधीश अनुतोष को ढालने के लिये साम्या के सिद्धांतों का सहारा ले सकता है। यदि किसी निर्णय में कोई कठोरता या अव्यवहारिकता है तो यह विधि की अपेक्षा है।
निष्पक्षता (पूर्वाग्रह एवं पक्षपात ;इपंेद्ध से मुक्ति)
अब हम एक न्यायाधीश गुणों में से सबसे महत्तवपूर्ण और विशिष्ट गुण - निष्पक्षता पर आते हैं। वास्तव में निष्पक्षता प्राप्त करने के लिये ऊपर सन्दर्भित चारों - ईमानदारी एवं निष्ठा, न्यायिक अलगाव, स्वतंत्रता, विनम्रता - और ऐसे ही कुछ और अर्थात् पूर्वाग्रह एवं पक्षपात से मुक्ति का गुण आपमें होना चाहिए।
बाहरी पक्षपात एवं पूर्वाग्रह
जब आपकी जाति या समुदाय का अधिवक्ता आपके समक्ष आता है तो उसकी जाति मात्र के कारण मामला उसके पक्ष में नही जाना चाहिए। यदि आपकी जाति और समुदाय से संबंधित व्यक्ति और इस प्रकार संबंधित नही होने वाले व्यक्ति के बीच में कोई विवाद है तो आपका झुकाव अपनी जाति और समुदाय से संबंधित व्यक्ति की ओर नही होना चाहिए। यह पक्षपात होगा। जब कभी आपके समक्ष उपस्थित होने वाला अधिवक्ता या पक्षकार आपकी जाति/समुदाय से पारंपरिक विरोध से संबंधित है तो आपको केवल उसकी जाति/समुदाय मात्र के कारण कठोर या उसके प्रति विपरीत नही होना चाहिए। न्यायाधीश को जाति/समुदाय पर आधारित किसी भी पूर्वाग्रहों एवं पक्षपात से अपने आप को बचाना चाहिए।
कभी-कभी एक मित्र या आपका दूर का रिश्तेदार या आपका मार्गदर्शक आपके समक्ष एक अधिवक्ता या पक्षकार के रूप में उपस्थित हो सकता है। जब कभी ऐसा होता है तो आपको उसके पक्ष में निर्णय करने अथवा उसके पक्ष में न्यायिक विवेक का उपयोग करने के झुकाव या प्रवृत्ति को दबाना चाहिए। यदि आप एकतरफा अंतरिम आदेश करके इस विशिष्ट औचित्य के आधार पर उनके पक्ष में करके अपने विवेक का उपयोग करते है कि जब सामने वाला पक्ष उपस्थित होगा तो आप अपने आदेशों को उपांतरित कर देगें तो आप निश्चित रूप से भाई-भतीजावाद के दोषी है।
कुछ न्यायाधीश सोचते है कि उन्हे अभिभाषक संघ के कनिष्ठ सदस्यों को प्रोत्साहित करना चाहिए और ऐसा करने का उचित तरीका उनके द्वारा चाहे गये अंतरिम आदेशों को प्रदान करना है तो यह प्रोत्साहन की पूर्णतया गलत धारणा पर आधारित है। आपको कनिष्ठ अभिभाषकों के प्रति कठोर नही होकर उन्हे धैर्यपूर्वक सुनकर उन्हे प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि वे संकोच, झिझक से मुक्ति पा सके और अगले दिन तैयार होकर तर्क कर सके। संक्षेप मंे आप उनके साथ सहज होकर तथा उन्हे कुछ और अवसर देकर उन्हें प्रोत्साहित कर रहे है। अपात्र मामले में केवल इसलिये अंतरिम आदेश देना, क्योकि कनिष्ठ अधिवक्ता उपस्थित हुआ है और उसने अंतरिम अनुदोश चाहा है, किसी कनिष्ठ अधिवक्ता का प्रोत्साहन नही है बल्कि न्यायिक शक्ति का दुरूपयोग है जो दूसरे पक्ष के प्रति पूर्वाग्रह का कार्य करता है। यह पूर्णतया अवांछित पक्षपात है।
अब मैं पक्षपात और पूर्वाग्रह के अन्य मामलों की ओर ध्यान दिलाता हूँ। कुछ अधिवक्ता न्यायालय के प्रति बहुत ही सम्मान पूर्ण ढंग से पेश आते है। वे सदैव विनम्र है और न्यायालय कक्ष में प्रवेश करते समय और न्यायालय कक्ष छोड़ते समय सदैव न्यायाधीश का झुककर अभिवादन करते है। वे प्रथम पंक्ति में बैठतें है और न्यायाधीश के प्रत्येक विनोद और वाकचातुर्य पर प्रशंसात्मक रूप में मुस्कुराते है चाहे वे विनोद कितने ही मूर्खतापूर्ण और सड़कछाप हो। और जब कोई न्यायाधीश कितना ही गलत और मूर्खतापूर्ण विधिक सिद्धांत प्रतिपादित करता है तो उसका अनुमोदन भी करते है। जब ऐसा होता है तो न्यायाधीश यह सोचने लगता है कि यह अधिवक्ता विद्धान और अच्छा है और ऐसे अधिवक्ता के प्रति सकारात्मक रूख अपनाने लगता है। दूसरी ओर ऐसे भी कुछ अधिवक्ता है जो सदैव न्यायालय में मुर्झाये चेहरे के साथ बैठे रहते है। जब कभी न्यायाधीश कोई चातुर्यपूर्ण टिप्पणी करता है या कुछ विधिक सिद्धांत बताता है तो वे अनिच्छापूर्वक इधर उधर देखने लगते हैं। यह दर्शित करने वाला भाव चेहरे पर ले आते हैं कि न्यायाधीश उथले ज्ञान वाला या अज्ञान है। इस पर न्यायाधीश सोचता है कि ‘‘यह अधिवक्ता मेरी वाकचातुर्य, ज्ञान या बुद्धि का मूल्यांकन नही कर सकता या उसे नही समझ सकता।‘‘ और ऐसे अधिवक्ता के विरूद्ध नकारात्मक या उसके विपरीत विचार विकसित करने लगता है। कुछ समय पश्चात कठोर दिखने वाले अधिवक्ताओं की तुलना में विवेकाधीन अंतरिम आदेश प्राप्त करने की प्रत्येक संभावना खुश दिखाई देने वाले अधिवक्ताओं को दी जाती है। कार्य में इस प्रकार के पक्षपात और पूर्वाग्रह से भी बचना चाहिए।
‘‘अच्छे‘‘ और ‘‘बुरे‘‘ अधिवक्ताओं की एक और परिभाषा है। कुछ अधिवक्ता अपने निवेदनों में बहुत युक्तियुक्त होते है। वे संक्षिप्त, सम्मान देने वाले और सारवान होते है। कुछ झगड़ालु होते है जो मुंहदेखी बात पर आना ही नही चाहते ,न्यायाधीश से सहमत नही होते और न्यायाधीश के धैर्य परीक्षण के लिये बहस ही बहस करते रहते है। कुछ समय पश्चात जब युक्तियुक्त अधिवक्ता उपस्थित होता है तो न्यायाधीश मानसिक रूप से उसके प्रति झुकाव रखने लगता है और जब कभी झगडालु अधिवक्ता उपस्थित होता है तो न्यायाधीश का मानिसक रूप से उसके विपरीत झुकाव होता है। इसका परिणाम यह होता है कि जब युक्तियुक्त अधिवक्ता का बुरा मामला होता है और झगड़ालु अधिवक्ता का अच्छा मामला होता है तो अच्छे अधिवक्ता का अपने बुरे मामले में भी कुछ अनुतोष पाने और बुरे अधिवक्ता के अच्छे मामले पर पर्याप्त अनुतोष नही पाने की संभावना हो जाती है। न्यायाधीश की ओर से ऐसी भावुक प्रतिक्रयाएॅ कार्य में पक्षपात और पूर्वाग्रह के अतिरिक्त कुछ नही है ।आपको उनसे बचना चाहिए। आपका न तो उस अच्छे के पक्ष में झुकाव होना चाहिए और न ही उस बुरे के विपरीत झुकाव। आपको केवल ‘‘सही‘‘ और ‘‘निष्पक्ष‘‘ होना चाहिए।
किसी अधिवक्ता या पक्षकार के प्रति आपकी पसंद या नापसन्द या किसी विशिष्ट जाति, समुदाय, धर्म ,वंश या क्षेत्र के पक्ष या विपक्ष में आपकी भावनायें, आपकी निकट रिश्तेदारी या मित्रता. किसी या किन्ही व्यक्तियों के प्रति वफादारी का आपके निर्णय या निर्णय करने की प्रक्रिया से कोई संबंध नही होना चाहिए। इस तरह के प्रत्येक बाह्य कारक/विचार सदैव दूर रखने चाहिए। एक मामला केवल उसकी मेरिट पर ही निराकृत होना चाहिए न कि अधिवक्ता या पक्षकार की मेरिट या ख्याति या स्तर या दृष्टिकोण पर।
आंतरिक पक्षपात एवं पूर्वाग्रह
अब ‘‘आंतरिक पक्षपात और पूर्वाग्रह‘‘ पर मुझे कहना है। क्या सही है और क्या गलत है, क्या न्यायपूर्ण है और क्या अन्यायपूर्ण है, क्या उचित है और क्या अनुचित है, के बारे में प्रत्येक न्यायाधीश की अपनी अवधारणांए होती हंै जो उसके निर्णयों से सीधा संबंध रखती हंै। यह कहा जाता है कि न्यायधीश कि ऐसी अवधारणायें उसके द्वारा महसूस किये गये और अनुभव किये गये, पढ़े गये और सुने गये (बचपन में अनुभव की गई और दिमाग पर बैठी चोटों को सम्मिलित करते हुए) से ढले उसके मन पर गहरे तक बैठी परंपरागत रूढि़यो और विश्वासांे, अर्जित किये गये दृढ़ विश्वासों और पूर्वाग्रहों से विकसित उसके व्यक्तिगत दर्शन पर आधारित हो सकती हैं। समय के अंतराल पर ऐसी अवधारणायें उसकी निर्णय प्रक्रिया को एक विशिष्ट शैली का बना देते है।
उदाहरण के तौर पर किसी न्यायाधीश के अनुभव उसकी यह सोच बना सकते है कि पुलिस की सभी कार्यवाहियाॅ संदेहास्पद होती है और इसका परिणाम उसे यह विश्वास करा सकता है कि अधिकांश अभियुक्तों को मिथ्या तौर पर आलिप्त किया गया है या उन्हें फंँसाया गया है और यह कि मिथ्या संस्वीकृतियाँ प्राप्त करने के लिये उनके प्रति बल प्रयोग किया गया है और यह कि किसी भी अभियुक्तों को अधिकांश मामलांे में संदेह का लाभ देने की आवश्यकता है। इसीलिये वह अधिकांश मामलों में दोषमुक्त करने के लिए उद्धृत होता है और ‘‘छोड़ने वाले जज‘‘ के नाम से जाना जाता है। दूसरा न्यायाधीश यह सोच सकता है कि पुलिस अनुसंधान करती है और अभियोग पत्र पेश करती है तथा आरोपोें के समर्थन में साक्ष्य लाती है तो उस पर अविश्वास नही किया जाना चाहिए और साक्षियों की साक्ष्य में आयी विसंगतियों को नजरअंदाज करना चाहिए क्योकि वे केवल मानवीय त्रुटि और दोषपूर्ण याददाश्त के कारण आयी हंै। वह इसीलिए दोषसिद्ध करने के लिए उद्धत होता है और ‘‘सजा देने वाले न्यायाधीश‘‘ के रूप में पहचाना जाता है। प्रत्येक बचाव अधिवक्ता अपने मामले की सुनवाई ‘‘सजा देने वाले न्यायाधीश‘‘ से कराने से बचेगा वही बचाव अधिवक्ता हमेशा अपना मामला ‘‘छोड़ने वाले न्यायाधीश‘‘ से कराने के लिये तैयार रहेगा। आपको ‘‘छोड़ने वाले न्यायधीश‘‘ या ‘‘सजा देने वाले न्यायधीश‘‘ की छाप से अलग विशुद्ध रूप से मेरिट पर मामला निराकृत करने वाला तटस्थ न्यायाधीश बनने के लिये सचेत होना होगा।
एक और दूसरा उदाहरण लेते है। प्रतिकर हेतु दो विभिन्न दावा अधिकरणों के समक्ष लंबित समान प्रकृति के दावों को लेते है जहाँ आयु, आय और मृतक पर आश्रितों की संख्याँ भी समान है। एक अधिकरण प्रतिकर के रूप में 04 लाख रूपये का प्रतिकर अवार्ड करता है जबकि दूसरा अधिकरण 06 लाख रूपये का प्रतिकर अवार्ड करता है। दोनो ही अधिकरणों के पीठासीन अधिकारी ईमानदार और बहुत ही निष्ठावान है फिर भी उनके व्यक्तिगत दर्शन उनके निर्णयों में प्रवेश कर जाते है जिसके कारण समरूप या समान तथ्यों पर भिन्न राशि के अवार्ड पारित होते हंै। इसका परिणाम यह होता है कि पहला वाला न्यायाधीश ‘‘बंद मुट्ठी‘‘ वाले न्यायाधीश के रूप में जाना जाता है और बाद वाला न्यायाधीश ‘‘उदार न्यायाधीश‘‘ के रूप में संबोधित किया जाता है। दूसरा उदाहरण लेते है: एक विशेष न्यायाधीश के समक्ष बेदखली के 90 प्रतिशत मामले सफल होते है जबकि दूसरे न्यायाधीश के समक्ष बेदखली के 90 प्रतिशत मामले असफल होते है। पहले वाला न्यायाधीश ‘‘भू-स्वामी न्यायाधीश‘‘ के रूप में पहचाना जाता है और बाद वाला न्यायाधीश ‘‘भाड़ेदार न्यायाधीश‘‘ के रूप में पहचाना जाता है। इसी प्रकार श्रम मामलों में कुछ न्यायाधीश प्रबंधन के पक्ष वाले न्यायाधीश के रूप में पहचाने जाते है और कुछ श्रमिकों के पक्ष वाले न्यायाधीश उनकी दार्शनिक वरीयताओं के आधार पर जाने जाते है।
हम एक न्यायधीश को एक तरीके से और दूसरे न्यायाधीश को दूसरे तरीके से तथा तीसरे न्यायधीश को तीसरे तरीके से उनके व्यक्तिगत दर्शनों के आधार पर मामलांे का निराकरण करने की बात को सहन नही कर सकते। यह सही है कि न्यायाधीश रोबोट या कम्प्यूटर नहीं है जो समान निर्णय दे और जहाँ तक न्यायाधीश मानव है उनके व्यक्तिगत दर्शन कुछ सीमा तक उनके निर्णयों को प्रभावित करेगें किंतु एक निर्णय से विपरीत रूप से प्रभावित पक्षकार सोचेगा कि एक विशिष्ट न्यायाधीश के समक्ष उसका मामला पहुँचने के कारण वह क्यां हानि वहन करे जबकि समान प्रकृति का दूसरा मामला दूसरे न्यायाधीश के समक्ष पहुँचने पर अनुतोष दिया जाता है। अतएव व्यक्तिगत दर्शन और पूर्वाग्रहों के कुप्रभावों से बचना है और फैसलों में एकरूपता और संगतता सुनिश्चित करनी है क्योकि भारतीय न्यायालय ‘‘पूर्व-न्याय‘‘ के सिद्धांत का पालन करते हंै। मैं इस समय पूर्व न्याय के सिद्धांत पर चर्चा नही करूँगा क्योंकि यह विषय ऐसा है जो पृथक आलेख की विषयवस्तु है।
आपको यह सुनिश्चित करने में सावधान होना है कि आपका व्यक्तिगत दर्शन उस अवस्था में आगे नही आना है जब पूर्व निर्णय उपलब्ध है। पक्षकार निर्णय के आकार या न्यायाधीश के ज्ञान के प्रति चिंतित नही है। उसे तो केवल परिणाम - अर्थात् अनुतोष जिसे जज देता है या नही देता है, से मतलब है। इसलिए निर्णय प्रक्रिया में एकरूपता और संगतता लाने के प्रयास की आवश्यकता है। मैं यह नही कह रहा हूँ कि आप अपनी न्यायिक स्वतंत्रता को त्यागंे। न ही मैं कह सकता हूँ कि आपकी व्यक्तिगत अवधारणाएँ और विचार निर्णय में कोई भूमिका नही निभा सकते। मैं जो कहता हूँ वह यह है कि जब पूर्व निर्णय है तो आप उन्हे अनुसरित करने के लिए बाध्य है।
आप किसी भी पृष्ठभूमि से हो सकते हंै, आपका कुछ भी धर्म हो सकता है, आपकी जाति या समुदाय कुछ भी हो सकता है। आपकी राजनैतिक अवधारणाएँ कुछ भी हो सकती हंै। आपके अनेकों मित्र या संबंधी हो सकते है और आप अनेकों अर्थात् आपके अध्यापक, मार्गदर्शक और वरिष्ठ, के आभारी भी हो सकते हंै। आपकी पृष्ठभूमि या पूर्ववृत कुछ भी हो, आपका व्यक्तिगत दर्शन, विश्वास या अवधारणाएँ कुछ भी हों, जब आप एक न्यायाधीश बन जाते है तो आपका लगाव केवल विधि और न्याय से होना चाहिए न कि आपके मित्रों और रिश्तेदारों से जिन्होनें आपकी सहायता की हो या आपके अध्यापकों और मार्गदर्शकों से जिन्होने आपको ढाला हो या उन न्यायाधीशों से जिन्होने आपका चयन किया हो या राजनैतिक दल के उन नेताओं से जिनकी विचारधारा से आप प्रभावित हुये हों। मित्रता, वफादारी, आभारी होना, अपने आप में बहुत बड़े गुण है किंतु वे सभी आपकी निष्ठा, निष्पक्षता और न्याय के प्रति लगाव को प्रभावित करते है। आपको भय या पक्षपात, अनुराग या द्धेष के बिना अपने पद से जुड़े कर्तव्यों की सत्यनिष्ठा व ईमानदारी से पूर्ति करनी है। थाॅमस फूलर ने कहा है:
‘‘जब एक न्यायाधीश न्यायिक चोला धारण करता है तो वह रिश्तेदारी और मित्रता को त्याग देता है और बिना नातेदारी, बिना मित्र, बिना परिचय का व्यक्ति बन जाता है। संक्षेप में वह निष्पक्ष हो जाता है।‘‘
बंगलौर प्रिंसिपल आॅफ ज्यूडिशियल कण्डक्ट (2002) के अनुसार निष्पक्षता का गुण न्यायिक कर्तव्य के उचित निर्वहन के लिये आवश्यक गुण है और यह बात न केवल निर्णयों के संबंध में बल्कि निर्णय प्रक्रिया के संबंध में भी लागू होती है। उन्होने निष्पक्षता प्राप्त करने के मापदण्ड इस प्रकार बताये है:
2.1 एक न्यायाधीश अपने न्यायिक कर्तव्यों को बिना अनुग्रह, पक्षपात या पूर्वाग्रह के निभाएगा।
2.2 एक न्यायधीश यह भी सुनिश्चित करेगा कि उसका आचरण न्यायालय के भीतर और न्यायालय के बाहर दोनांे जगह जनता, विधि व्यवसाईयों और पक्षकारों (मामले के) में न्यायाधीश और न्यायपालिका की निष्पक्षता के प्रति विश्वास बनाता है और बढ़ाता है।
2.3 एक न्यायाधीश, जहाँ तक युक्तियुक्त हो, इस प्रकार आचरण करेगा कि ऐसे अवसर न्यूनतम हो जिनमें वह आवश्यक रूप से मामलों की सुनवाई करने या उन्हे निराकृत करने से निर्योग्य हो जाये।
2.4 एक न्यायाधीश जानते हुये कि उसके समक्ष कार्यवाही है या आ सकती है ऐसी कोई टिप्पणी नही करेगा जिससे ऐसी कार्यवाही का परिणाम युक्तियुक्त रूप से प्रभावित होने की आशा हो या प्रक्रिया की प्रत्यक्ष ऋजुता प्रभावित हो। न्यायाधीश को जनता में या अन्यथा ऐसी टिप्पणियाँ नही करनी चाहिए जो किसी व्यक्ति या मुद्दे का ऋजु विचारण प्रभावित कर सके।
2.5 एक न्यायाधीश ऐसी किसी कार्यवाही में भाग नही लेगा जिसमें न्यायाधीश निष्पक्ष रूप से मामले का निराकृत करने में अयोग्य है या जिसमें युक्तियुक्त सम्प्रेक्षक को यह दर्शित होता है कि न्यायाधीश मामले को निष्पक्ष रूप से निराकृत करने में अयोग्य है। ऐसी कार्यवाहियों के उदाहरण जो उन तक सीमित नही है, निम्न प्रकार है-
2.5.1 न्याायाधीश के एक पक्ष से संबंधित वास्तविक पूर्वाग्रह या पक्षपात है या कार्यवाही से संबंधित विवादित साक्ष्य के तथ्यों की व्यक्तिगत जानकारी है।
2.5.2 न्यायाधीश विवादित मामले में पूर्व मंे अधिवक्ता के रूप में या साक्षी के रूप में कार्य किया है।
2.5.3 न्यायाधीश या न्यायाधीश के परिवार का सदस्य विवाद की विषयवस्तु के परिणाम में आर्थिक हित रखता है
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5.1 एक न्यायाधीश को समाज में अनेकरूपता और विभिन्न स्त्रोतों जिनमें नस्ल, रंग, लिंग, धर्म, राष्ट्रीय उद्भव, जाति, निर्योग्यता, आयु, वैवाहिक प्रस्थिति, लैंगिक लगाव, समाजिक और आर्थिक प्रस्थिति और ऐसे ही समान (असंगत) कारण से उत्पन्न होने वाले किंतु उन्ही तक सीमित नही होने वाले मतभेदों को जानना है और समझना है।
5.2 एक न्यायाधाीश अपने न्यायिक कर्तव्यों के पालन मे शब्दों या आचरण द्वारा किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति असंगत आधारोें पर अपने पक्षपात या पूर्वाग्रह को उदघाटित नही करेगा।
5.3 एक न्यायाधीश सभी व्यक्तियों जैसे पक्षकारों, साक्षियों, अधिवक्ताओं, न्यायालय स्टाॅफ और न्यायालयीन सहयोगियों के प्रति न्यायिक कर्तव्यों को ऐसे कर्तव्यों के निर्वहन से अतात्विक व असंगत आधारों पर विभेदन के बिना उचित विचार कर निभाएगा।
निष्कर्ष:-
आप विधिनिर्माता नहीं है। आप प्रशासक भी नहीं हैं। आप विधि से अन्यथा क्षेत्र के विशेषज्ञ भी नहीं हैं। आप कानून नही बनाते हंै। आप देश नही चलाते हंै। किंतु आप विधि का निर्वचन करते हैं। आप सत्य की खोज करते हंै। आप न्यायदान करने वाले हंै। आप विधि शासन के संरक्षक हंै। आप समाज के कमजोर एवं शोषित तबकें के संरक्षक और उन्हें समानता दिलाने वाले हैं। आपको अपनी शक्तियों की दुर्भर प्रकृति से अपने को प्रतिदिन अवगत कराना है और अपनी शक्तियों की सीमाओं को भी जानना है। आपको यह याद रखना है कि आपके समक्ष निराकरण के लिए आने वाला प्रत्येक मामला उससे जुड़े व्यक्ति की आजीविका के अधिकार, उसके जीवन के अधिकार, उसकी स्वतंत्रता के अधिकार या उसकी संपत्ति के अधिकार के भाग्य का फैसला करता है। आपको यह याद रखना चाहिए कि प्रत्येक समय जब आप न्याय करने में असफल होते हंै तो लोग उसे अन्याय के रूप में लेते हैं। सर्वशक्तिमान से प्रतिदिन प्रार्थना करंे कि वह आपको सत्यनिष्ठा, बुद्धि और विनम्रता के साथ न्याय करने की शक्ति और साहस प्रदान करें।
न्यायिक नैतिकता के सिद्धांतों को जानना ही काफी नही है। नैतिकता के उन सिद्धांतों का निरंतर और चैकन्ने रहकर व्यवहार भी करंे। श्रेष्ठ न्यायाधीशों और नेताओं के लेखों और उनकी सादी तथा विनम्र जीवनशैली से प्रेरणा ग्रहण करें। अच्छे न्यायाधीश बनें और अपनी महान संस्था को विश्वसनियता और कांति प्रदान करें।
प्रिय युवा न्यायाधीशों, मैं आप सभी को साहस, निष्ठा, कठोर परिश्रम और नैतिक आचार से युक्त अर्थवान और सफल न्यायिक भविष्य की शुभकामना करता हूँ। मैं आपको जीवन में शांति, आनंद और संतुष्टि की कामना भी करता हूॅ।
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’ माननीय श्री न्यायमूर्ति आर.वी.रवीन्द्रन द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी भोपाल एवं विभिन्न राज्य न्यायिक अकादमियों में नवनियुक्त न्यायाधीशों को दिये गये विभिन्न व्याख्यानों पर आधारित मूल आलेख अंग्रेजी में सुप्रीम कोर्ट केसेज़ (2012) 9 एस.सी.सी. (जे) में प्रकाशित हुआ है जिसका यह भावानुवाद श्री गजेन्द्र सिंह संकाय सदस्य न्यायिक अधिकारी प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान जबलपुर द्वारा हिन्दी भाषा में किया गया है।
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