376 IPC
1. जहां अभियेाक्त्रि की जन्मतिथि किसके द्वारा लिखाई गई, का विवाद हो, वहां जन्मतिथि किसके द्वारा लिखाई गई, के स्त्रोत का पता नहीं चलने पर जन्मतिथि का साक्ष्यगत महत्व नहीं है:-
लेखबद्ध की गयी जन्मतिथि (08.09.1991) के आधार या स्त्रोत का कोई पता नहीं चलता है। ऐसी स्थिति में उसका अपने आप में कोई साक्ष्यगत महत्व नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अकील विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1998(2) एम.पी.एल.जेे. पृष्ठ 199 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। (एस.टी. 15/10 पेज-9)
2. अभियेाक्त्रि के अस्थि विकास के संबंध में:-
अस्थि विकास जाॅच के आधार पर निष्कर्षित आयु के विषय में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि इसमें दोनों ओर दो वर्ष का विचलन हो सकता है तथा ऐसे विचलन का लाभ स्वाभाविक रूप से अभियुक्त पक्ष को मिलना चाहिये, संदर्भ- शीला बाई विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1997(1) विधि भास्वर 94. अकील विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1998(2) एम.पी.एल.जेे. पृष्ठ 199 एवं जयमाला विरूद्ध होम सेकेट्री जम्मू काष्मीर, ए.आई.आर. 1982 सु.को. 1297
3. न्याय दृष्टांत पंजाब राज्य विरूद्ध गुरमितसिंह आदि, 1996(2) एस.सी.सी. 384 (पैरा-13) में अभियोक्त्री तथा उसके माता-पिता द्वारा अभियोक्त्री की आयु के बारे में दी गयी मौखिक, अखण्डित अभिसाक्ष्य को स्वीकार्य माना गया है।
4. अभियोक्त्रि की एकल विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
इस क्रम में न्याय दृष्टांत श्री नारायण शाह विरूद्ध त्रिपुरा राज्य, (2004) 7 सु.को.के. 7751 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि बलात्संग के मामले में अभियोक्त्री की एकल असम्पुष्ट साक्ष्य यदि विश्वास योग्य पायी जाती है तो सम्पुष्टि के बिना भी उसके आधार पर दोषसिद्धि का निष्कर्ष अभिलिखित किया जा सकता है।
5. बलात्संग के मामले में विलंब से रिपोर्ट दर्ज कराने में हुए विलंब को घातक नहीं माना गया है:-
इस क्रम में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत हरपालसिंह विरूद्ध हिमाचल प्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 361 में किया गया यह प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि बलात्कार के मामलों में पीडि़ता महिला तथा उसके परिवार का सम्मान दांव पर लगा रहता है। अतः ऐसे मामलों में विचार-विमर्श कर किंचित देरी से पुलिस में रिपोर्ट करना असामान्य नहीं है, उक्त मामले में प्राथमिकी लेख कराने में हुये दस दिन के विलम्ब को भी घातक नहीं माना गया।
6. प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में हुए विलंब के आधार पर अभियोजन कहानी को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है:-
न्याय दृष्टांत तारासिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी. 536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलम्ब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविश्वसनीय ठहराने का आधार नही बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलम्ब को स्पष्ट करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक है। उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां किसी बच्ची के सम्मान और ख्याति का मुददा अंतर्वलित हो वहाॅं परिवार के वरिष्ठ सदस्यों से परामर्श लिये बिना पुलिस मे रिपोर्ट न लिखाना कतई अस्वाभाविक नहीं है।
7. साक्षी की साक्ष्य में विभिन्नता स्वभाविक है:-
जब तक विसंगतियाॅं मूल प्रश्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नहीं पड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईश्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है, संदर्भ - म.प्र.राज्य विरूद्ध रामकिशोर 1993 (1) एम.पी.जे.आर. 119.
8. न्यायालय को महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए:-
न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, संदर्भ- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272.
9. अभियोक्त्रि द्वारा विलंब से अपनी मां से घटना का हाल बताना:-
न्याय दृष्टांत रामेष्वर विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 54 के मामले में जहाॅं 8 साल की पीडि़ता बच्ची ने घटना के लगभग 4 घण्टे बाद अपनी माॅं को घटनाक्रम बताया था, वहाॅं उसे स्वतंत्र संपुष्टिकारक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया।
10. अभियोक्त्रि द्वारा आरोपी पर धमकी देकर भगाकर ले जाकर विभिन्न स्थानों पर उसके साथ घूमी तो वह सहमत पक्षकार मानी गई है:-
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत कैलाष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज.-41 (एम.पी) भी अवलोकनीय है, जिसमें इस तथ्य-स्थिति के परिप्रेक्ष्य में कि अभियोक्त्री स्वतंत्र रूप से अभियुक्त के साथ भिन्न-भिन्न स्थानों पर काफी समय तक घूमती रही, लेकिन इसके बावजूद उसने किसी से कोई षिकायत नहीं की, यह माना जायेगा कि उसका आचरण सहमतिपूर्ण था।
अभियोक्त्री (अ.सा.10) अपनी सहमति से अभियुक्त के साथ भोपाल गयी, अपनी सहमति से फोटोग्राफ खिंचवाया तथा अनेक बार यह अवसर उपलब्ध होने के बावजूद भी उसने कथित बलात् व्यपहरण की षिकायत किसी से नहीं की, जो स्पष्ट रूप से यह दर्षाता है कि वह अपनी सहमति से अभियुक्त के साथ गयी तथा उसके और अभियुक्त के बीच जो भी शारीरिक सम्बन्ध रहें वह सहमतिपूर्ण रहे। इस संदर्भ में न्याय दृष्टांत पेरू विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1996(1) एम.पी.जे.आर.शार्ट नोट-4. सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत बापूलाल विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2002 क्रि.लाॅ.रि. (एम.पी.)-139 के मामले में अभियोक्त्री, जिसके शरीर पर कोई क्षतियाॅ नहीं पायी गयी थी तथा जो अभियुक्त की संगत में लंबे समय तक विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करती रही थी तथा जिसे इस अवधि में अनेक बार यह अवसर उपलब्ध था कि वह कथित बलात् व्यपहरण के बारे में लोगों को षिकायत करे, लेकिन उसके द्वारा ऐसा नहीं किया गया, यह ठहराया गया कि अभियोक्त्री के आचरण से सुरक्षित रूप से यह निष्कर्षित किया जा सकता है कि उसका आचरण सहमतिपूर्ण था एवं उस दषा में, जबकि उसकी आयु का 18 वर्ष से कम होना प्रमाणित नहीं है, अभियुक्त को दोषी नहीं माना जा सकता है।
11. अभियोक्त्रि के नाबालिग होने के तथ्य को प्रमाणित किया जाना आवश्यक है:-
न्याय दृष्टांत शांतिदेवी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1997 क्रि.ला.रि. (एम.पी.)-101 के मामले में यह ठहराया गया है कि आपराधिक शास्त्र का यह सुस्पष्ट सिद्धांत है कि किसी अपराध को स्थापित करने के लिये उसके सभी अवयवों को अभियोजन द्वारा संदेह के परे प्रमाणित किया जाना चाहिये तथा जहाॅं मामला स्त्री के व्यपहरण से संबंधित है, वहाॅं यह बात कि आयु 18 वर्ष से कम थी, एक महत्वपूर्ण अवयव है, जिसे प्रमाणित किया जाना आवष्यक है।
12. अभियोक्त्रि के जन्म प्रमाण के संबंध में:-
उक्त प्रलेखीय साक्ष्य के विष्लेषण के पूर्व सुसंगत विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। माखन विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2003(3) एम.पी.एल.जे.-115 के मामले में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत उमेषचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1982 एस.सी.-1057 तथा रौनकी सरूप विरूद्ध राज्य, ए.आई.आर. 1970 पंजाब एवं हरियाणा-450 को उद्धृत करते हुये यह ठहराया गया है कि विद्यालय पंजी (छात्र पंजी) में की गयी प्रविष्ठियाॅ उस दषा में बहुत महत्व नहीं रखती हैं, जबकि यह स्थापित करने के लिये कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है कि ऐसी प्रविष्ठियों का आधार क्या है। उक्त मामले में मुन्नालाल विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1977 जे.एल.जे.-731 (खण्डपीठ) को उद्धृत करते हुये यह भी इंगित किया गया है कि अभियोक्त्री की आयु को प्रमाणित करने के लिये सर्वश्रेष्ठ प्रमाण उसके माता-पिता की साक्ष्य तथा जन्म प्रमाण-पत्र है तथा जहाॅ उनका परीक्षण नहीं कराया गया है तथा जन्म प्रमाण-पत्र प्रस्तुत नहीं किया गया है, वहाॅं उस स्थिति में जबकि विद्यालय पंजी में की गयी प्रविष्ठियों का आधार ही प्रकट नहीं है, विद्यालय पंजी की प्रविष्टियों का महत्व नहीं रह जाता है।
एक अन्य न्याय दृष्टांत रवीन्द्र सिंह गोरखी विरूद्ध उत्तरप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 2006 (इलाहाबाद) -2157 के मामले में इस विधिक सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है कि आयु के संबंध में साक्ष्य के विष्लेषण के लिये सिविल या दाण्डिक मामलों में पृथक-पृथक मानदण्ड लागू नहीं किये जा सकते हैं। इस मामले में प्रधान अध्यापक ने यह प्रकट किया था कि उसे जन्मतिथि के बारे में कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं है तथा हो सकता है कि अभियुक्त ने, जिसकी आयु का विवाद उक्त मामले में अंतर्वलित था, स्वयं जन्मतिथि के बारे में सूचना दी हो। ऐसी दषा में तत्संबंधित प्रविष्टि को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया गया।
आयु निर्धारण के बिन्दु पर विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये उक्त अवलंबित न्याय दृष्टांतों के अलावा कुछ अन्य न्याय निर्णयों पर भी दृष्टिपात किया जाना असंगत नहीं होगा। न्याय दृष्टांत पंजाब राज्य विरूद्ध मोहिंदरसिंह, ए.आई.आर.-2008 एस.सी.1868 में प्रतिपादित किया गया है कि विद्यालय प्रवेष पंजी में छात्र के पिता, संरक्षक या निकट संबंधी द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर की गयी प्रविष्टियाॅ भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 उपधारा 5 के अंतर्गत अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आधिकारिक प्रकृति की साक्ष्य मानी जायेगी जब तक कि यह स्थापित न कर दिया जाये कि ऐसा किया जाना संभव नहीं था।
न्याय दृष्टांत उमेषचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1982 एस.सी.1057 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि आयुु के विनिष्चय के संबंध में सामान्यतः मौखिक साक्ष्य बहुत उपयोगी नहीं है तथा ऐसे मामलो में प्रलेखीय साक्ष्य निर्भर योग्य हो सकती है यदि उसकी प्रमाणिकता प्रकट हो। इस मामले में यह ठहराया गया कि विद्यालय छात्र पंजी में जन्मतिथि के बारे में की गयी प्रविष्टियाॅं अच्छी साक्ष्य की परिधि में आती है तथा ऐसी प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि संबंधित पंजी लोकसेवक के द्वारा ही संधारित की गयी हो, अपितु कामकाज के सामान्य अनुक्रम में विधि के अंतर्गत संधारित की गयी पंजी में यथाविधि की गयी प्रविष्टियों को भी महत्व दिया जाना चाहिये।
13. अभियोक्त्रि की जन्मतिथि विद्यालय में किस आधार पर लिखाई गई, बताना आवश्यक है:-
न्याय दृष्टांत सुधा विरूद्ध चरण सिंह व एक अन्य, 2007(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-118 के मामले में अभियोजन ने विद्यालय पंजी में अभियोक्त्री की जन्मतिथि की प्रविष्टियों के विषय में अवलम्ब लेना चाहा था, लेकिन ऐसी कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी थी कि किस प्रमाण के आधार पर और किस के कहने पर विद्यालय प्राधिकारी द्वारा ये प्रविष्टियाॅं की गयीं। अभियोक्त्री के पिता ने यह स्वीकार किया था कि अभियोक्त्री की जन्मपत्री तैयार नहीं की गयी है न ही उसके पास जन्मपत्री का कोई लिखित रिकार्ड है और न ही उसने जन्म के विषय में जन्म के समय ग्राम कोटवार, सरपंच या ग्राम के चैकीदार को कोई सूचना दी थी, वह स्वयं अपनी तथा अन्य बच्चों की जन्मतिथि बताने में असफल रहा था। ऐसी दषा में विद्यालय पंजी में की गयी जन्म विषयक् प्रविष्टियों को महत्व नहीं दिया गया।
इस क्रम में न्याय दृष्टांत कैलाष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज. 41(म.प्र.) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसकी कंडिका 6 में विद्यालय छात्र पंजी की प्रविष्टियों और उसके आधार पर जारी ऐसे प्रमाण-पत्र के महत्व के बारे में विचार किया गया, जिसके संबंध में यह स्थापित नहीं हुआ था कि वास्तव मंे जन्मतिथि किसके द्वारा लिखायी गयी तथा उसका आधार क्या था। इस मामले में ऐसे प्रमाण-पत्र को साक्ष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं माना गया।
14. संरक्षक द्वारा विद्यालय में छात्र/छात्रा की आयु सामान्यतः कम कर लिखाने की प्रवृत्ति होती है:-
न्याय दृष्टांत प्रवाकर पाटी विरूद्ध अजय कुमार दास व एक अन्य, 1996 क्रि.लाॅ.ज. 2626 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा यह भी ठहराया गया है कि विद्यालय प्रवेष पंजी में छात्र की जन्मतिथि विषयक् प्रविष्टियों को बहुत अधिक निर्भर योग्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि संरक्षकों में स्वाभाविक रूप से प्रवेष के समय आयु को कम करके लिखाने की प्रवृत्ति होती है।
15. धारा 366क के आरोप को सिद्ध करने के लिए निम्न अवयव प्रमाणित किए जाने चाहिए:-
जहाॅं तक ’संहिता’ की धारा 366(क) के आरोप का संबंध है, न्याय दृष्टांत लालता प्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, क्रि.लाॅ.रि. (एस.सी.)-1979 पेज-114 के मामले प्रतिपादित किया गया कि ’संहिता’ की धारा 366(क) का अपराध स्थापित करने के लिये दो तत्वों को प्रमाणित किया जाना चाहिये, प्रथम यह कि संबंधित महिला को विधिपूर्ण संरक्षकता से अपहृत या व्यपहृत किया गया, द्वितीय यह कि उसे किसी व्यक्ति के साथ विवाह हेतु बाध्य करने के आषय से अथवा उसकी इच्छा के विरूद्ध अयुक्त सम्भोग के लिये विवष या विलुब्ध करने के आषय से व्यपहृत किया गया।
16. ग्रामीण परिवेश के व्यक्तियों से अभियोक्त्रि की निश्चित आयु की अपेक्षा करना अपने आप में रहस्यपूर्ण होगा:-
न्याय दृष्टांत सोमनाथ भानूदास मोरे विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, दाण्डिक अपील क्र. 134/2008 मुंबई उच्च न्यायालय, औरंगाबाद पीठ, निर्णय दिनाॅंक 29.03.2008 की कंडिका 11 में प्रकट की गयी यह स्थिति इस क्रम में सुसंगत एवं उल्लेखनीय है कि यह आवष्यक नहीं है कि ग्रामीण परिवेष के समाज के बिल्कुल निचले तबके से आने वाले मामलों में पिता को पीडि़त व्यक्ति की निष्चित जन्मतिथि का ज्ञान हो। वस्तुतः ऐसे ग्रामीण व्यक्तियों से निष्चित जन्मतिथि की अपेक्षा करना ही अपने आप में रहस्यपूर्ण होगा।
उमेषचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1982 एस.सी.1057के मामले में इस बात का संज्ञान माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा लिया गया कि सामान्यतः ग्रामीण व्यक्ति जन्म और मृत्यु कीं सूचना देने के बारे में बहुत सजग नहीं होते हैं तथा इस बारे में यदि कोई व्यतिक्रम है तो उसे अन्य साक्ष्य के लिये घातक नहीं माना जा सकता है। इस मामले में न्याय दृष्टांत मोहम्मद इकराम हुसैन विरूद्ध उत्तरप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1964 एस.सी.-1625 में न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह द्वारा किये गये इस प्रतिपादन का संदर्भ भी दिया गया कि विद्यालय छात्र पंजी में की गयी प्रविष्टि, जो विवाद होने के पूर्व की थी, साक्ष्यगत महत्व रखती है।
17. शासकीय या कारोबार के क्रम में की गई प्रविष्टी ग्राह्य है:-
अवलंबित न्याय दृष्टांत सुषील कुमार विरूद्ध राकेष कुमार, ए.आई.आर. 2004 एस.सी.-230 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि शासकीय या अन्य किसी कारोबार के क्रम में संधारित की जाने वाली प्रविष्ठियाॅं भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 35 के अंतर्गत सुसंगत एवं ग्राहय है।
18. प्रधानाध्यापक द्वारा प्रमाणित की गई आयु को संसुगत माना गया है:-
न्याय दृष्टांत हरपालसिंह विरूद्ध हिमाचल प्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 361 के मामले में विद्यालय छात्र पंजी में आयु विषयक की गयी प्रविष्टि को, जिसे प्रधान अध्यापक ने प्रमाणित किया था, आयु निर्धारण के लिये सुसंगत एवं अवलंबनीय माना गया।
19. बलात्संग के मामलों में क्षुद्र किस्म की विसंगतियों के आधार पर साक्ष्य को अस्वीकृत नहीं किया जाना चाहिए:-
इस क्रम में न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध जी.एस.मूर्ति, 1997(1) एस.सी.सी.-272 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’संहिता’ की धारा 376 के मामलों में न्यायालयों को पूर्ण सजगता एवं संवदेनषीलता के साथ अभिलेखगत साक्ष्य का मूल्यांकन एवं विष्लेषण सम्पूर्ण मामले की पृष्ठभूमि के आधार पर करना चाहिये न कि एकांगी तौर पर तथा यदि वृहद संभावना दोषिता की ओर इंगित करती है तो क्षुद्र किस्म की विसंगतियों अथवा दुर्बलताओं के आधार पर साक्ष्य को अस्वीकृत नहीं किया जाना चाहिये। न्याय दृष्टांत राज्य विरूद्ध गुरमीतसिंह, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1396 के मामले में भी माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने ऐसे मामलों में यथार्थ परक दृष्टिकोण अपनाये जाने की सलाह दी है।
आपराधिक अपील
1. पक्षविरोधी साक्षी की पूरी साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता, उसका सावधानीपूर्वक अभियोजन के लिए समर्थित बिन्दुओं पर विश्लेषण करना चाहिए ।
यद्यपि सहज धारणा यह है कि पक्षविरोधी घोषित किये जाने की दषा में संबंधित साक्षी का महत्व पूरी तरह समाप्त हो जाता है, लेकिन जैसा कि न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि यह धारणा सही नहीं है अपितु ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य को, जिसे अभियोजन के द्वारा पक्ष विरोधी घोषित कर दिया गया है, यांत्रिक रूप से रद्द करने के बजाय सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर यह देखना आवष्यक है कि क्या उसका कोई हिस्सा विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य है।
2. साक्षी की साक्ष्य में आई भिन्नता या विरोधाभाष के कारण साक्षी की पूरी साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता है:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि साक्ष्य में व्याप्त ऐसी विसंगतियों और विरोधाभासों को जो वर्णनात्मक भिन्नता के कारण प्रकट हुये हैं या फिर अतिरंजनाओं के कारण आये हैं, उस स्थिति में सम्पूर्ण साक्ष्य को रद्द करने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिये। जबकि आधारभूत कथा में सत्य का अंष मौजूद हो, संदर्भ:- भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753. अतः खुषीलाल (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य को उक्त कारणवष अस्वीकार करना विधि सम्मत नहीं होगा।
3. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य को मात्र उसके हितबद्ध होने के कारण नकारा नहीं जा सकता है:-
इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर कि वह हितबद्ध है, यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता है।
4. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य यदि विश्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य यदि अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण तथा विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं।
5. किसी साक्षी की साक्ष्य को मात्र इस कारण अस्वीकार नहंी किया जा सकता कि उसके समर्थन में किसी स्वतंत्र साक्षी की साक्ष्य नहीं कराई गई ।
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि उसकी सम्पुष्टि के लिये स्वतंत्र साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है। संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.लाॅ.जर्नल पेज 88. । जहाॅं साक्षीगण की अभिसाक्ष्य अन्यथा विष्वास योग्य है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई त्रुटि नहीं मानी जा सकती है।
6. एकल विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, चाहे अभियोजन द्वारा प्रत्यक्षदर्शी साक्षी प्रस्तुत भी न किया हो:-
अभियोजन का मामला विष्णुप्रसाद (अ.सा.1) की एकल साक्ष्य पर आधारित है, क्योंकि प्रत्यक्षदर्षी साक्षी बताये जाने वाले भाऊसिंह को अभियोजन ने प्रस्तुत नहीं किया है। लेकिन मात्र इस आधार पर कि प्रत्यक्षदर्षी साक्षी को प्रस्तुत नहीं किया गया, विष्णुप्रसाद (अ.सा.1) की साक्ष्य को यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता। यदि उसकी साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि निर्धारित की जा सकती है, संदर्भ:- न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य 2003 (3) एस.सी.सी.-401.
7. यदि घटना में आरोपी/अपीलार्थी को भी चोटें आई हों तो अभियोजन आरोपी को आई चोटों के संबंध में स्पष्टीकरण देना होगा:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि अभियुक्त पक्ष को चोटें है जो अत्यंत छुद्र स्वरूप की नहीं है तो अभियोजन का यह दायित्व है कि वह यह स्पष्ट करें कि ये चोटें कैसे आई अन्यथा यह उपधारित किया जायेगा कि अभियोजन घटना के स्वरूप और उद्गम को छिपा रहा है, संदर्भ लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263 ।
8. अभियोजन के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को आई प्रत्येक चोट का स्पष्टीकरण न्यायालय में दे, गंभीर चोट के संबध्ंा में स्पष्टीकरण देना आवश्यक है लेकिन क्षुद्र और सतही चोटों के संबध्ंा में स्पष्टीकरण देना आवश्यक नहीं है:-
अभियोजन पक्ष के द्वारा बचाव पक्ष की चोटांे को स्पष्ट किये जाने के बारे में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि अभियोजन के लिये यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को कारित की गयी प्रत्येक चोट को न्यायालय के समक्ष स्पष्टीकृत करें। अभियोजन अभियुक्त पक्ष को आई क्षुद्र और सतही चोटों को स्पष्ट करने के लिये दायित्वाधीन नहीं है। हाॅं, यदि चोटें गम्भीर हैं तो उन्हें स्पष्ट किया जाना आवष्यक है, संदर्भः- श्रीराम विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2004(1) जे.एल.जे.-256 (एस.सी.) एवं लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263
9. साक्ष्य मूल्यांकन के पश्चात् यदि उचित पाई गई, तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
यदि उचित मूल्यांकन एवं विवेचना के बाद साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण पाई गई है, तो उसके आधार पर अभिलिखित की गई दोष-सिद्धि को त्रुटिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है, संदर्भ:- लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी. 401
10. एक झंूठ, सब झंूठ का सिद्धांत दांडिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है:-
यह विधिक स्थिति भी यहाॅं संदर्भ योग्य है कि ’’एक झूंठ सब झूंठ का सिद्धांत’’ दाण्डिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है, संदर्भ:- जकी उर्फ सलवाराज विरूद्ध राज्य 2007 ब्तण् स्ण् श्रण् 1671 (एस.सी)।
11. किसी साक्षी की साक्ष्य को इस कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि उसका समर्थन किसी स्वतंत्र स्त्रोत से नहंी किया गया:-
यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
12. प्रतिकर दिलाये धारा 357 द.प्र.सं. की शक्ति का प्रयोग करना चाहिए :-
माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने शनैः-षनैः इस बात पर बल दिया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के प्रावधानों का समुचित, प्रभावपूर्ण एवं उदारतापूर्वक उपयोग किया जाना चाहिये। इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिकिषन विरूद्ध सुखवीर सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 2127 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 न्यायालय को इस बात के लिये सषक्त करती है कि वह पीडि़त व्यक्ति को युक्तियुक्त प्रतिकर दिलाये। ऐसा प्रतिकर अभियुक्त पर अधिरोपित अर्थदण्ड से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(1) के अंतर्गत तथा अन्यथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3) के अंतर्गत दिलाया जा सकता है। माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने व्यक्त किया है कि यह शक्ति पीडि़त व्यक्ति को इस बात का एहसास कराने के लिये है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में उसे विस्मृत नहीं किया है। अपराधों के संबंध में यह एक रचनात्मक पहुॅच है तथा आपराधिक न्याय व्यवस्था को आगे ले जाने वाला एक कदम है, जिसका उपयोग सकारात्मक, सार्थक एवं प्रभावी तरीके से किया जाना चाहिये। यह अपेक्षा की जाती है कि भविष्य में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट उक्त विधिक स्थिति के क्रम में अपनी शक्तियों का समुचित उपयोग करेंगे।
13. विवाहिता के साथ प्रताड़ना के मामले में यह आवश्यक नहीं है कि उसे इस प्रकार प्रताडि़त किया जाए कि आसपास/पडौस के लोगों की जानकारी में आए, यह आवश्यक नहीं है कि अभियोजन आसपास/पडौस के लोगों को प्रताड़ना के संबध्ंा में साक्ष्य हेतु प्रस्तुत करे:-
यदि निकट संबंधी ही साक्षी के रूप में प्रस्तुत किए गए तो उनकी अभिसाक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मंा, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।
न्याय दृष्टांत पष्चिमी बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल, 1994 क्रिमिनल लाॅ जनरल 2104 (एस.सी.) में यह अभिनिर्धारण किया गया है कि सामान्यतः यह अपेक्षित नहीं है कि पति तथा उसके रिष्तेदारों द्वारा वधु के साथ प्रताड़नापूर्ण व्यवहार इस प्रकार किया जाये कि वो पड़ोसियों तथा आसपास रहने वाले किरायेदारों की जानकारी में आये, क्योंकि ऐसी स्थिति में पड़ोसी उन्हें असम्मान एवं अवमान की दृष्टि से देखेंगे अतः वधू के साथ ससुराल पक्ष द्वारा की जाने वाली प्रताड़ना के मामले में यह आवष्यक नहीं है कि अभियोजन पड़ोसियों तथा आसपास के लोगो को स्वतंत्र साक्षी के रूप में अपने मामले के समर्थन में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें।
उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि पीडि़त के निकट संबंधियों, जो अभियोजन में रूचि रखते हैं, की अभिसाक्ष्य को केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये कि स्वतंत्र साक्षियों से उसकी सम्पुष्टि नहीं हुयी है अपितु मामले के विषिष्ट तथ्यों के आधार पर उसकी विष्वसनीयता के बारे में विनिष्चय किया जाना चाहिये क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मंा, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।
14. दांडिक मामलों में अभियोजन को अपना मामला युक्तियुक्त संदेह से परे प्रमाणित करने का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं हैै, यह प्रत्येक मामले के तथ्य व परिस्थिति पर निर्भर करता है:-
उक्त मामले में गुरूवचनसिंह विरूद्ध सतपाल सिंह, ए.आई.आर. 1990 (सु.को.)209 का संदर्भ देते हुये यह भी प्रतिपादित किया गया हे कि दाण्डिक विचारण में अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को युक्तियुक्त संदेह के परे प्रमाणित किये जाने का कोई निष्चित मापदण्ड नहीं है तथा प्रत्येक मामले के तथ्यों, परिस्थितियों एवं साक्ष्य की गुणवत्ता के आधार पर निष्कर्ष निाकला जाना चाहिये
15. प्रथम सूचना रिपोर्ट में हुए विलंब के कारण पूरे मामले को अस्वीकार नहंी किया जा सकता है:-
न्याय दृष्टान्त तारासिंह विस्द्ध पंजाब राज्य, 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी.536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलम्ब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविष्वसनीय ठहराने का आधार नहीं बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलम्ब को स्पष्ट करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना आवष्यक है।
16. साक्षियों के कथनों में आए महत्वहीन विरोधाभाष या विसंगति से न्यायालय को प्रभावित नहीं होना चाहिए बल्कि न्यायालय को यह देखना चाहिए कि उक्त विसंगति एवं विरोधाभाष का प्रभाव मूल प्रश्न पर तो नहीं पड़ता है ।
साक्षियों के कथनों में व्याप्त विसंगतियों एवं उनके प्रभाव के संबंध में सुसंगत विधिक स्थिति भी इस संबंध में संदर्भ योग्य है. उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272. में यह ठहराया गया है कि न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, जब तक विसंगतियंा मूल प्रष्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नही ंपड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईष्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है। छोटे-छोटे बिन्दुओं पर गौण फर्क जो प्रकरण के केन्द्र बिन्दु को प्रभावित नहीं करते हैंद्व उन्हें तूल देकर आधारभूत साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता हैद्व संदर्भ- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध एम.के.एन्थोनी 1985 करेन्ट क्रिमनल जजमेंट सु.को.18.
17. विधि फरियादी पक्ष को यह अनुमति नहीं देती है कि वह अपीलार्थी के शांतिपूर्ण कब्जे में उसे बलपूर्वक बेदखल करे, अपीलार्थी को अपने आधिपत्य की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है:-
विधि उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देती है कि वे बलपूर्वक आपीलार्थीगण के शांतिपूर्ण कब्जे में हस्तक्षेप करें तथा विवादित भूमि से उनको बलपूर्वक बेदखल करे अतः उस सीमा तक अपने आधिपत्य की सुरक्षा करने का अधिकार उन्हें प्राप्त है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत गंगाप्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-(1) नोट-236 एवं गुड्डू उर्फ राकेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-2001(1) नोट -34 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। जिनमंे सम्पत्ति की प्रायवेट रक्षा के अधिकार के अस्तित्व होने की दषा मेें ’संहिता’ की धारा 323/34 की दोष-सिद्धि को उचित नहीं ठहराया गया है।
18. यदि मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती तो उसे रदद नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दशा में मामले को अविश्वसनीय ठहरा सकते हैं जहां मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो:-
न्याय दृष्टांत में ही संदर्भित माननीय सर्वोच्च न्यायालय न्याय दृष्टांत नागेन्द्र बाला विरूद्ध सुनीलचंद, ए.आई.आर. 1960 एस.सी.-706 में किये गये इस प्रतिपादन का संदर्भ आवष्यक है कि चिकित्सीय साक्ष्य एक अभिमत मात्र है तथा यदि मौखिक साक्ष्य अपने आप में स्पष्ट है तो मात्र इस आधार पर कि ऐसी मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती है, उसे रद्द नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दषा में मामले को अविष्सनीय ठहराया जा सकता है, जहाॅं मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो।
19. एकल साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, अगर वह विसंगतिविहीन एवं विश्वास योग्य हो:-
निष्चय ही विधि का ऐसा कोई नियम नहीं है कि एकल साक्ष्य पर दोष-सिद्धि आधारित नहीं की जा सकती है, लेकिन ऐसा करने के लिये यह आवष्यक है कि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य ठोस, विसंगति विहीन एवं विष्वास योग्य हो। इस संबंध में न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में प्रतिपादित विधिक स्थिति सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
20. आरोपी को दिया गया दण्ड उसके अपराध के समानुपातिक होना चाहिए:-
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा बार-बार यह निर्दिष्ट किया गया है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो, संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.
21. यदि किसी साक्षी की साक्ष्य में घटना के संबध्ंा में समर्थनकारक साक्ष्य है तो उसकी साक्ष्य में आई प्रकीण बिन्दुओं पर विसंगति के कारण पूरी साक्ष्य को नहीं नकारा जा सकता है:-
विधिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये कि यदि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य में आधारभूत घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो उसे प्रकीर्ण बिन्दुओं पर आई विसंगतियों और विरोधाभासों के आधार पर रद्द नहीं किया जाना चाहिये, संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897
22.अपीलार्थीगण/आरोपीगण की न्यायालय में पहचान के संबंध में:-
(325 क्रि.अ.क्र. 96/10 पेज-10)
विवेचना-क्रम में पहचान न कराये जाने के बाद न्यायालय में पहली बार की गयी पहचान कार्यवाही को सारभूत एवं महत्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना गया है, अपितु दुर्बल किस्म की साक्ष्य माना गया है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत अफसर विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009(3) एम.पी.डब्ल्यू.एन.नोट-63 संदर्भ योग्य है, जिसमें बार-बार न्यायालय आने-जाने के बाद विचारण के दौरान साक्षी न्यायालय में द्वारा की गयी पहचान को महत्वहीन ठहराया गया।
23. द.प्र.सं. की धारा 391 के तहत आवेदन पेश होने पर उक्त आवेदन का निराकरण अपील के साथ ही किया जाना चाहिए, न्यायालय स्वयं अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित कर सकता है या विचारण न्यायालय को निर्देशित कर सकता है:-
धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपील न्यायालय आवष्यक समझने पर अतिरिक्त साक्ष्य या तो स्वयं अभिलिखित कर सकता है अथवा संबंधित मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित करने का निर्देष दे सकता है। न्याय दृष्टांत धर्मेन्द्र भंडारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006 क्रि.लाॅ.रि. एम.पी.-216 में यह अभिनिर्धारण किया गया है कि धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के आवेदन का निराकरण अपील के साथ ही किया जाना चाहिये तथा यदि आवेदन पत्र स्वीकार किया जाता है तो अपील न्यायालय मामले को साक्ष्य अभिलिखित करने के लिये अधीनस्थ न्यायालय को भेज सकता है अथवा स्वयं साक्ष्य ले सकता है।
24. पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का अन्य साक्षियों की साक्ष्य की तरह ही मूल्यांकन किया जाना चाहिए तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोत से संपुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जाएगा :-
न्याय दृष्टांत करमजीत सिंह विरूद्ध राज्य, (2003) 5 एस.सी.सी. 291 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि पुलिस अधिकारी की अभिसासक्ष्य का मूल्यांकन भी उसी कसौटी पर किया जाना चाहिये, जिस कसौटी पर किसी दूसरे साक्षी की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोंत से सम्पुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जायेगा।
25. भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो:-
उक्त क्रम में ’संहिता’ की धारा 498(क) के निर्वचन के संबंध में दो न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं। न्याय दृष्टांत भास्करलाल शर्मा विरूद्ध मोनिका 2009(प्प्) एस.सी.आर.-408 के मामले में विस्तृत विवेचना के पष्चात् यह अभिनिर्धारित किया गया है कि भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो। उक्त मामले की कंडिका 52 इस क्रम में दृष्ट्व्य है, जिसमें यह ठहराया गया है कि सामान्य मारपीट की घटना ’संहिता’ के अंतर्गत किसी अन्य अपराध की परिधि में तो आ सकती है, लेकिन ’संहिता’ की धारा 498(क) की परिधि में लाने के लिये विनिर्दिष्ट स्थितियाॅं पूरी की जानी चाहिये।
26. हर प्रताड़ना क्रूरता की परिधि में नहीं आएगी, उसके लिए धन की अवैधानिक मांग होना जरूरी है:-
न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध मधुसूदनराव, जे.टी.-2008 (टवस.11) एस.सी.-454 भी इस संबंध मंे सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि प्रत्येक प्रकृति का प्रताड़नापूर्ण व्यवहार क्रूरता की परिधि में नहीं आयेगा तथा ऐसे व्यवहार को क्रूरता की परिधि में लाने के लिये आवष्यक है कि वह धन की अवैधानिक मांग से जुड़ा हुआ हो।
27. पुलिस अधिकारी की एकल साक्ष्य, जो स्वतंत्र साक्ष्य से परिपुष्ट नहीं है, के आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, जबकि वह विश्वास योग्य हो:-
विधि या प्रज्ञा का ऐसा कोई नियम नहीं है कि पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य स्वतंत्र संपुष्टि के बिना स्वीकार नहीं की जा सकती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 दृष्टांत ’ख’ के अंतर्गत ऐसी अपेक्षा केवल सह अपराधी की अभिसाक्ष्य के विषय में की गई है। न्यायालय यदि किसी विषिष्ट मामले में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य पाता है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस विधिक स्थिति के बारे में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट ने आलोच्य निर्णय में विभिन्न न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये विधिक स्थिति का उचित विष्लेषण किया है। इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी.2783 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
28. अपचारी बालक की सुपुदर्गी या स्वतंत्र करने के संबध्ंा में:-
जैसा कि न्याय दृष्टांत गड्डो उर्फ विनोद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य 2006(1) एम.पी.जे.आर. शार्टनोट- 35 में अभिनिर्धारित किया गया है, अपचारी बालक को सुुपुर्दगी पर दिये जाने या अभिरक्षा से मुक्त किये जाने के संबंध में मामले के गुण-दोषों के बजाय ’अधिनियम’ की धारा 12 के परिप्रेक्ष्य मंे सामान्य नियम यह है कि ऐसे किषोर को अभिरक्षा से मुक्त किया जाना चाहिये। अपवाद की स्थिति वहाॅं हो सकती है, जहाॅं पर यह विष्वास करने के युक्तियुक्त आधार हो कि अभिरक्षा से मुक्त किये जाने पर ऐसे किषोर के ज्ञात अपराधियों के सानिध्य में आने की संभावना है अथवा निरोध से मुक्त किये जाने पर उसको नैतिक, भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से खतरा होगा अथवा उसके कारण न्याय के हितों का हनन होगा।
29. पुलिस को नये तथ्य की जानकारी होना ही धारा 27 साक्ष्य अधिनियम में ग्राहॅय है, यदि वह तथ्य पुलिस की जानकारी में पहले से था तो वह उक्त अधिनियम की परिधि में साक्ष्य में ग्राहॅय नहीं है:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत ऐसी साक्ष्य ही ग्राह्य है, जिससे किसी तथ्य की जानकारी मिली हो, जहाॅं कोई तथ्य पूर्व से ही पुलिस की जानकारी में है, वहाॅं उस तथ्य का पुनः पता चलना धारा 27 साक्ष्य अधिनियम की परिधि में साक्ष्य के सुसंगत एवं ग्राह्य नहीं बनायेगा, संदर्भ:- अहीर राजा विरूद्ध राज्य ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 अतः कथित संसूचना आधारित बरामदगी अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता है।
30. धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:-
’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था। इस संबंध मंें न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
31. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-
उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है।
32. धारा 138 के संबध्ंा में:-
न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।
इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।
33.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।
34. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-
ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया । उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।
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7. मैंने उभय पक्ष के तर्क सुने एवं मूल अभिलेख का परिषीलन किया। विचारणीय प्रष्न यह है कि:-
’’क्या उपरोक्तानुसार भरण-पोषण भत्ता दिलाये जाने संबंधी विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट का आदेष अषुद्ध, अवैधाकि अथवा अनौचित्यपूर्ण है ?
8. जैसा कि न्याय दृष्टांत जागीर कौर विरूद्ध जसवंत सिंह, 1963 ए.आई.आर. (एस.सी.)-521 मंे अभिनिर्धारित किया गया है कि ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत सम्पादित की जाने वाली कार्यवाहियाॅं व्यवहार प्रकृति की संक्षिप्त स्वरूप की होती है, जिनका उद्देष्य असहाय व्यक्तियों को तात्कालिक सहायता पहुॅचाने का है, ताकि उन्हें जीवन यापन के लिये सड़क पर न भटकना पड़े। ऐसे मामलों में प्रमाण भार उतना कठोर नहीं होता है, जितना कि दाण्डिक मामलों में होता है, अपितु साक्ष्य बाहुल्यता एवं अधि-संभावनाओं की प्रबलताओं के आधार पर निष्कर्ष अभिलिखित किये जाने चाहिये।
9. ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहाॅं वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537.
10. जहाॅं तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है। .
अपराधिक रिविजन
9. ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहाॅं वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537.
10. जहाॅं तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है।
द0प्र0सं0 311
9. जैसा कि न्याय दृष्टांत जाहिरा हबीबुल्ला विरूद्ध गुजरात राज्य (2004) 4 एस.सी.सी.-158 में अभिनिर्धारित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के प्रावधान किसी पक्ष को यह अधिकार नहीं देते हैं कि वे किसी साक्षी को परीक्षण, पुनः परीक्षण या प्रतिपरीक्षण हेतु बुलाये, अपितु यह शक्ति न्यायालय को इस उद्देष्य से दी गयी है ताकि न्याय के हनन को तथा समाज एवं पक्षकारों को होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोका जा सके, इन प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय मामले के सम्यक् निर्णयन हेतु तथ्यों के प्रमाण की आवष्यकता महसूस करे।
498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता
9. न्याय दृष्टांत वाय. अब्राहम अजीथ विरूद्ध इंस्पेक्टर आॅफ पुलिस, 2004(8) एस.सी.सी.-10 के मामले मंें माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया है कि क्षेत्रीय अधिकारिता के अभाव में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498(ए) के अपराध के लिये न्यायालय द्वारा विचारण नहीं किया जा सकता है। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि किसी न्यायालय की अधिकारिता के क्षेत्र में क्रूरता का कोई कृत्य ही घटित नहीं हुआ है तो ऐसे न्यायालय को विचारण की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती हैै। न्याय दृष्टांत रमेष विरूद्ध तमिलनाडू राज्य, 2005(3) एस.सी.सी. 507 के मामले में इस विधिक स्थिति को पुनः दोहराया गया है।
10. न्याय दृष्टांत गुरमीत सिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006(1) एम.पी.एल.जे.-250 के मामले में भी वाय. अब्राहम अजीथ (पूर्वोक्त) का संदर्भ देते हुये इंदौर न्यायालय जहाॅं कि अभियोग प्रस्तुत किया गया था, की क्षेत्रीय अधिकारिता को इस आधार पर प्रमाणित नहीं माना गया कि इंदौर न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता में अभियुक्तगण के द्वारा क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था।
11. न्याय दृष्टांत तस्कीन अहमद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, आई.एल.आर.(2008) म.प्र.-29 वर्तमान मामले के लिये सर्वाधिक सुसंगत है। इस मामले में 8 व्यक्तियों के विरूद्ध अभियोग पत्र भोपाल न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था, जबकि उनमें से 5 अभियुक्तों के द्वारा भोपाल न्यायालय की अधिकारिता के अंतर्गत क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था। ऐसी स्थिति में यह ठहराया गया कि उनके विरूद्ध भोपाल न्यायालय को सुनवाई की अधिकारिता नहीं हो सकती है।
12. वर्तमान मामले में उक्त विधिक स्थिति तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 177 एवं 178 के प्रावधानों के प्रकाष में दृष्टिपात करने पर यह प्रकट होता है कि आवेदिका द्वारा प्रस्तुत की गयी लिखित षिकायत तथा अनुसंधान के दौरान अभिलिखित किये गये आवेदिका के धारा 161 द.प्र.सं. के कथन में रंचमात्र भी ऐसी कोई बात नहीं है कि अनावेदकगण ने सीहोर में उसके साथ किसी प्रकार का क्रूर या प्रताड़नापूर्ण व्यवहार किया था। ऐसी स्थिति में पूर्वाेक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में सीहोर स्थिति न्यायिक मजिस्ट्रेट को अनावेदकगण के विरूद्ध सुनवाई की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती है।
एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-
8. ’पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स सप्लाय एण्ड डिस्ट्रीब्यूशन आर्डर 1972, जो अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए, केन्द्रीय शासन द्वारा जारी किये गये है, में एलपीजी गैस को अत्यावश्यक वस्तु की श्रेणी में रखा गया है । न्याय दृष्टांत सुभाषचन्द्र गोयल विरूद्व उत्तरप्रदेश राज्य 1984 इलाहाबाद लाॅ जनरल 711 में भी एल.पी.जी. को अत्यावश्यक वस्तु माना गया है । अतः पुनरीक्षणकर्ता के विद्वान अधिवक्ता द्वारा किया यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है कि एल.पी.जी. गैस सिलेंडर अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत नहीं आती है ।
306 304बी 498वी
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धारा 306,304वी,498ए
13. उक्त परिपे्रक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या अभियुक्तगण ने मृतिका के साथ क्रूर व प्रताड़नापूर्ण व्यवहार कर उसे किसी प्रकार से आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित किया ? इस बारे में दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना आवष्यक है, जिसे ’संहिता’ की धारा 306 एवं 107 में प्रतिपादित एवं इंगित किया गया है। उक्त प्रावधानों के अनुसार आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उद्धृत करने या ऐसा करने के लिये सहायता करने से है, संदर्भ:- महावीर सिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1987 जे.एल.जे. 645. उक्त परिप्रेक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या वर्तमान मामले में अभियुक्तगण ने ममताबाई को आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित या उद्धृत किया अथवा ऐसा करने में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता की अथवा इस हेतु कोई षडयंत्र किया ?
14. उक्त क्रम में मामले की विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
-12. न्याय दृष्टांत महावीर सिंह आदि विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1987 जे.एल.जे.-645 मंे यह प्रतिपादित किया गया है कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उकसाने या ऐसा कृत्य करने के लिये सहायता करने से है।
13. उक्त क्रम में मामले की विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है।
14. न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त, मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
15. न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
16. वर्तमान मामले में अभियोजन का ऐसा कहना नहीं है कि अभियुक्तगण ने अंजूबाई को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित किया अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसे आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित अथवा प्रेरित किया।
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धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता की परिधि में रखना संभव नहीं है, क्योंकि आम तौर पर परिवार में यह स्थिति होती है कि जहाॅं पति यथोचित रूप से उर्पाजन नहीं करता है वहाॅं न केवल पत्नी और बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती है अपितुु आये दिन विवाद की स्थिति भी उत्पन्न होती है। लेकिन ऐसी स्थिति को ’संहिता’ की धारा 498(ए) के उद्देष्य के लिये मानसिक या शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबध्ंा में न्याय दृष्टांत पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरिलाल जैसवाल ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1418 में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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15. न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
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24. उक्त क्रम में यह स्पष्ट करना असंगत नहीं होगा कि ’संहिता’ की धारा 498(ए)(ए) में क्रूरता को जिस रूप में परिभाषित किया गया हे, वह केवल शारीरिक क्रूरता तक सीमित नहीं है, अपितु मानसिक प्रताड़नापूर्ण क्रूरता भी उसकी परिधि में आती है। इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल एवं एक अन्य, 1994 क्रि.लाॅ.ज. 2104 के मामले में यह ठहराया है कि मृतिका पुत्र वधु के साथ उसकी सास के द्वारा ’गाली-गलौच एवं दुव्र्यवहार’ के रूप मं किया गया व्यवहार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113(ए) एवं ’संहिता’ की धारा 498(ए) के संबंध में क्रूरतापूर्ण व्यवहार है।
25. जहाॅं तक क्रूरता स्थापित करने के लिये सा़क्ष्य का संबंध है, सामान्यतः विवाहित महिला के पति अथवा उसके रिश्तदारों के द्वारा प्रश्नगत उत्पीड़न एवं क्रूर व्यवहार चूॅकि सामान्यतः सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता है, अपितु घर की चारदीवारी के अंदर किये जाने वाले ऐसे व्यवहार के बारे में यह सावधानी भी बरती जाती है कि जनसामान्य की नजर से ऐसा व्यवहार छुपा रहे, इसलिये ऐसे व्यवहार के संबंध में पड़ोसियों की अभिसाक्ष्य का अभाव प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं बन सकता है तथा सामान्यतः मृतका के माता-पिता, संबंधी एवं मित्रों को मृतका द्वारा इस बारे में बतायी गयी बातें ही साक्ष्य के रूप में ्रपस्तुत की जा सकती है, संदर्भ:- पश्चिमी बंगाल राज्य वि. ओरीलाल जायसवाल, ए.आई.आर. 1994 सु.को. 1418 एवं विकास पाथी वि. आंध्रप्रदेश राज्य, 1989 क्रि.लाॅ.ज. 1186 आंध्रप्रदेश। मृतिका द्वारा मृत्यु की परिस्थितियों के संबंध में माता-पिता एवं परिचितों को बतायी गयी बातों को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत ठहराया गया है तथा उस क्रम में मृतिका द्वारा क्रूर व्यवहार के बारे में माता-पिता आदि को बतायी गयी बातें भी सुसंगत है, संदर्भ:- शरद विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1984 सु.को. 1622. उक्त विधिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान मामले के तथ्यों पर दृष्टिपात करना होगा।
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37. यह सर्वविदित है कि एक के बाद एक नये विधिक प्रावधानों के अधिनियमन के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार की घटनाओं में कमी नहीं आयी है। न्याय दृष्टांत कर्नाटक राज्य विरूद्ध एम.व्ही.मंजूनाथे गौड़ा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 809 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रकट किया है कि इस बारे में किये गये विधायन के प्रति न्यायालयों को संवेदनषील बनाया जाना आवष्यक है तथा ऐसे मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना सामाजिक हितों के अनुरूप नहीं होगा।
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302
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21. पारिस्थितिक साक्ष्य के मूल्यांकन के संबंध में इस विधिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जहाॅं साक्ष्य पारिस्थितिक स्वरूप की होती है, वहाॅं ऐसी परिस्थितियाॅं, जिनसे दोष संबंधी निष्कर्ष निकाला जाना है, प्रथमतः पूरी तरह से साबित की जानी चाहिये और इस प्रकार से साबित किये गये सभी तथ्यों को केवल अभियुक्त के दोष की उपकल्पना से संगत होना चाहिये। पुनः परिस्थितियों को निश्चयात्मक प्रकृति और प्रवृत्ति का होना चाहिये और उन्हें ऐसा होना चाहिये, जिससे कि दोषिता साबित किये जाने के लिये प्रस्थापित उपकल्पना के सिवाय अन्य प्रत्येक उपकल्पना अपवर्जित हो जाये। अन्य शब्दों में साक्ष्य की ऐसी श्रंृखला होनी चाहिये, जो इस सीमा तक पूर्ण हो, कि जिससे अभियुक्त की निर्दोषिता से संगत निष्कर्ष के लिये कोई भी युक्तियुक्त आधार न रह जाये और उसे ऐसा होना चाहिये, जिससे यह दर्शित हो जाये कि सभी मानवीय अधिसंभाव्यनाओं के भीतर अभियुक्त ने वह कार्य अवश्य ही किया होगा, संदर्भ:- हनुमंत गोविन्द नारंगढ़कर बनाम म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 3431, चरणसिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1967(सु.को.) 5201 एवं आशीष बाथम विरूद्ध म.प्र.राज्य 2002(2) जे.एल.जे. 373 (एस.सी.)।
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बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में यह तर्क किया गया है कि पुलिस साक्षी होने के कारण संपुष्टि के अभाव में उनकी अभिसाक्ष्य पर विश्वास किया जाना विधि सम्मत नहीं होगा, लेकिन यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का मूल्यंाकन भी उसी प्रकार तथा उन्हीं मानदण्डों के आधार पर किया जाना चाहिये, जिस प्रकार अन्य साक्षियों की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से मात्र इस आधार पर रद्द कर देना कि वह एक पुलिस अधिकारी है, अथवा मात्र संपुष्टि के अभाव में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत करना न्यायिक दृष्टिकोण नहीं है, संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425
24. पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य के मूल्यांकन एवं विष्लेषण के संबंध में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि विष्लेषण एवं परीक्षण के बाद ऐसी साक्ष्य विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषिता का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है, संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2783.
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किसी साक्षी को पक्ष-विरोधी घोषित कर दिये जाने मात्र से उसकी अभिसाक्ष्य पूरी तरह नहीं धुल जाती है, अपितु न्यायालय ऐसी अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर उसमें से ऐसे अंष को, जो विष्वसनीय एवं स्वीकार किये जाने योग्य है, निष्कर्ष निकालने का आधार बना सकती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 में किया गया प्रतिपादन तथा दाण्डिक विधि संषोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 में किया गया संषोधन भी दृष्ट्व्य है, जिसकी उपधारा-1 यह प्रावधित करती है कि किसी साक्षी से धारा 154 के अंतर्गत मुख्य परीक्षण में ऐसे प्रष्न पूछने की अनुमति दिया जाना, जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते हैं, उस साक्षी की अभिसाक्ष्य के किसी अंष पर निर्भर किये जाने में बाधक नहीं होगी।
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-बचाव पक्ष की ओर से चुनौती दी गयी है कि वे हितबद्ध साक्षी हैं अतः उनकी अभिसाक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जा सकता है, लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। वस्तुतः ऐसी कोई विधि नहीं है कि ऐसे साक्षियों, जो नातेदार है, के कथनों पर केवल नातेदार होने के कारण विष्वास न किया जाये। प्रायः यह देखा जाता है कि अधिकतर अपराध आहतों के आवास पर और ऐसे असामान्य समय में कारित किये जाते हैं जिनके दौरान नातेदारों के अलावा किसी अन्य की उपस्थिति की आषा नहीं की जा सकती। अतः यदि नातेदारों के कथनों पर केवल उनके नातेदार होने के आधार पर अविष्वास किया जाता है तो ऐसी परिस्थितियों में अपराध साबित करना लगभग असंभव हो जायेगा। तथापि, सावधानी के नियम की, जिसके द्वारा न्यायालय मार्गदर्षित है, यह अपेक्षा है कि ऐसे साक्षियों के कथनों की समीक्षा (जाॅच) किसी स्वतंत्र साक्षी की तुलना में अधिक सावधानी के साथ की जानी चाहिये। उपरोक्त दृष्टिकोण उच्चतम न्यायालय द्वारा दरियासिंह बनाम पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 328 वाले मामले में अभिव्यक्त मत से समर्थित है, जिसमें प्रकट किया गया है कि ’’इस बात पर कोई संदहे नहीं किया जा सकता कि हत्या के मामले में जब साक्ष्य, आहत के निकट नातेदार द्वारा दी जाती है और हत्या कुटुम्ब (परिवार) के शत्रु द्वारा की जानी अभिकथित की गयी हो तो दांडिक न्यायालयों को आहत के निकट नातेदारों की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करनी चाहिये। किन्तु कोई व्यक्ति नातेदार या अन्यथा होने के कारण आहत में हितबद्ध हो सकता है और आवष्यक रूप से अभियुक्त का विरोधी नहीं हो सकता। ऐसी दषा में में इस तथ्य से, कि साक्षी आहत व्यक्ति का नातेदार था या उसका मित्र था, अपनी साक्ष्य में आवष्यक रूप से कोई कमी नहीं छोड़ेगा। किन्तु जहाॅं साक्षी आहत का निकट नातेदार है और यह उपदर्षित होता है कि वह आहत के हमलावर के विरूद्ध आहत व्यक्ति का साथ देगा तो दांडिक न्यायालयों के लिये स्वाभाविक रूप से यह अनिवार्य हो जाता है कि वे ऐसे साक्षियांें की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करे और उस पर कार्यवाही करने से पूर्व ऐसी साक्ष्य की कमियों की समीक्षा कर ले।’’
27. उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. 425 वाले मामले में भी ऐसी ही मताभिव्यक्ति की:-
’’ ............... हम यह भी मत व्यक्त करते हैं कि इस आधार में कि चॅूकि साक्षी निकट का नातेदार है और परिणामस्वरूप यह एक पक्षपाती साक्षी है, इसलिये उसके साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये, कोई बल नहीं है।’’
28. इस दलील को कि हितबद्ध साक्षी विष्वास योग्य नहीं होता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी दिलीप सिंह (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में खारिज कर दिया था। इस मामले में न्यायालय ने बार के सदस्यों के मस्तिष्क में यह धारणा होने पर अपना आष्चर्य प्रकट किया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं माने जा सकते हैं। न्यायालय की ओर से न्यायमूर्ति विवियन बोस ने यह मत व्यक्त किया: -
’’हम उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों से इस बात पर सहमत होने में असमर्थ हैं कि दो प्रत्यक्षदर्षी साक्षियांे के परिसाक्ष्य के लिये पुष्टि अपेक्षित है। यदि ऐसी मताभिव्यक्ति की बुनियाद ऐसे तथ्य पर आधारित है कि साक्षी महिलायें हंै और सात पुरूषों का भाग्य उनकी परिसाक्ष्य पर निर्भर है, तो हमें ऐसेे नियम की जानकारी नहीं है। यदि यह इस तथ्य पर आधारित है कि वे मृतक के निकट नातेदार है तो हम इससे सहमत होने में असमर्थ हैं। यह भ्रम अनेक दांडिक मामलों में सामान्य रूप से व्याप्त है और इस न्यायालय की एक अन्य खण्डपीठ ने भी आहत रामेष्वर बनाम राजस्थान राज्य (1952 एस.सी.आर.377 = ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54) वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है। तथापि दुर्भाग्यवष यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक काउन्सेलों की दलीलों में उपदर्षित होता है।’’
-यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को, यदि वह अन्यथा विष्वास योग्य है, इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि ऐसी साक्ष्य हितबद्ध अथवा रिष्तेदार साक्षी है। यह सही है कि पप्पू उर्फ महेष (अ.सा.1) तथा मुकेष (अ.सा.2) मृतक के सगे भाई हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. में यह मताभिव्यक्ति की है कि इस दलील में कोई बल नहीं है कि एक साक्षी निकट रिश्तेदार है और परिणामस्वरूप वह एक पक्षपाती साक्षी है इसलिये उसकी साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये। दिलीप सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364 के मामले का संदर्भ लेते हुये उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी प्रकट किया है कि दिलीप सिंह के मामले में न्यायालय द्वारा बार के सदस्यों के मस्तिष्क में व्याप्त इस धारणा पर आश्चर्य प्रकट किया गया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं होेते हैं। दिलीप सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मताभिव्यक्ति की गयी है कि अनेक दाण्डिक मामलों में यह भ्रम सामान्य रूप से व्याप्त है कि मृतक के निकट रिश्तेदारों की साक्ष्य पर निर्भर नहीं किया जा सकता है, लेकिन रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54 वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया गया है। तथापि दुर्भाग्यवश यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक अधिवक्ताओं की दलीलों में उपदर्शित होता है। न्याय दृष्टांत उ.प्र.राज्य विरूद्ध वल्लभदास आदि, ए.आई.आर., 1985 एस.सी. 1384 में यह विधिक प्रतिपादन भी किया गया है कि वर्गों में विभाजित ग्रामीण अंचलों में निष्पक्ष साक्षियों का उपलब्ध होना लगभग असम्भव है।
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न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया जाना कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतियाॅ साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है। इस विषय में न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 भी अवलोकनीय है।
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मृत्युकालिक कथन
-17. मरणासन्न कथन साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत एवं ग्राह्य है। किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी मृत्यु के एकदम निकट आ जाने के समय किये गये मरणासन्न कथन की एक विषेष सम्माननीयता है क्योंकि उस नितांत गम्भीर क्षण में यह संभावना बहुत ही कम है कि कोई व्यक्ति कोई असत्य कथन करेगा। आसन्न मृत्यु की आहट का सुनायी देने लग जाना अपने आप में उस कथन के सत्य होने की गारंटी है जो मृतक के द्वारा उन कारणों और परिस्थितियों के संबंध में किया जाता है जिनकी परिणति उसकी मृत्यु में हुयी है। अतः साक्ष्य के एक भाग के रूप में मृत्युकालिक कथन की स्थिति अतिपवित्र है क्योंकि वह उस व्यक्ति के द्वारा किया गया होता है जो मृत्यु का आखेट बना है। एक बार जब मरने वाले व्यक्ति का कथन और उसे प्रमाणित करने वाले साक्षियों की साक्ष्य न्यायालयों की सावधानीपूर्ण संवीक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाये तब वह साक्ष्य का बहुत ही महत्वपूर्ण और निर्भरणीय भाग बन जाता है और यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि मृत्युकालिक कथन सच्चा है और किसी भी बनावटीपन से मुक्त है, तो ऐसा मृत्युकालिक कथन अपने आप में ही, किसी सम्पुष्टि की तलाष के बिना ही, दोष-सिद्धि को लेखबद्ध करने के लिये पर्याप्त हो सकता है, बषर्तें वह मृतक के द्वारा तब किये गये हो जब वह स्वस्थ मानसिक स्थिति में था, संदर्भ:- कुंदुला बाला सुब्रहमण्यम बनाम आंधप्रदेष राज्य, 1993(2) एस.सी.सी. 684. एवं पी.वी.राधाकृष्ण विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2003(6) एस.सी.सी. 443
-19. पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया मृत्युुकालिक कथन स्वीकार्य है तथापि अन्वेषण अधिकारी द्वारा मृत्युकालिक कथन के अभिलिखित किये जाने की प्रथा को हतोत्साहित किया गया है और मााननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि अन्वेषण अधिकारी मृत्युकालिक कथन अभिलिखित किये जाने हेतु मजिस्ट्रेट की सेवाओं का उपयोग करें, यदि ऐसा करना संभव हो। इसका एक मात्र अपवाद तब है जब मृतक इतनी संकटपूर्ण स्थिति में हो कि सिवाय इसके कोई अन्य विकल्प शेष न रह जाये कि कथन को अन्वेषण अधिकारी या पुलिस अधिकारी के द्वारा अभिलिखित किया जाये और बाद में उसके ऊपर मृत्युकालिक कथन के रूप मंे निर्भर रहा जाये, संदर्भ:- श्रीमती लक्ष्मी विरूद्ध ओमप्रकाष आदि, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2383. न्याय दृष्टांत मुन्नु राजा व अन्य विरूद्ध म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1976 सु.को. 2199 के मामले अन्वेषण अधिकारी के द्वारा लेखबद्ध किये गये मृत्युकालिक कथन को इस आधार पर अपवर्जित कर दिया गया कि उसे अभिलिखित किये जाने के लिये मजिस्ट्रेट की सेवाओं की अध्यपेक्षा करने पर हुयी विफलता के लिये कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था।
20. न्याय दृष्टांत लक्ष्मण विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2973 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की पाॅच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया है कि मरणासन्न कथन को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि चिकित्सक के द्वारा मरणासन्न व्यक्ति की कथन देने बाबत् मानसिक सक्षमता का प्रमाण-पत्र नहीं लिया गया है। इस मामले में यह ठहराया गया है कि मरणासन्न कथन लेखबद्ध करने वाले कार्यपालक मजिस्ट्रेट की यह साक्ष्य पर्याप्त है कि कथन देने वाला व्यक्ति कथन देने की सक्षम मनःस्थिति में था।
न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध गुब्बा सत्यनारायण, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 101 में पीडि़ता को अस्पताल में भर्ती कराये जाने के समय उसने चिकित्सक को यह बताया था कि वह दुर्घटनावष आग से जल गयी है, चिकित्सक के द्वारा अपने प्रतिवेदन में अंकित की गयी इस टीप को मृत्युकालिक कथन मानते हुये यह ठहराया गया कि ऐसे कथन पर, जो प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया गया है तथा जिसके बारे में ऐसी कोई आंषका नहीं है कि मृतिका उस समय सचेत हालत मेें नहीं थी, अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है। न्याय दृष्टांत रमन कुमार विरूद्ध पंजाब राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज. 3034 एस.सी. के मामले में भी उपचार शीट में आहत व्यक्ति द्वारा दी गयी इस जानकारी को कि गैस स्टोव जलाते समय अचानक आग लग जाने से घटना घटित हुयी है, मृत्युकालिक कथन के रूप में स्वीकार्य माना गया। न्याय दृष्टांत प्रकाष विरूद्ध कर्नाटक राज्य, (2007) 3 एस.सी.सी. (क्रिमिनल) 704 के मामले में आहत व्यक्ति को अस्पताल ले जाये जाने के तुरंत बाद पुलिस अधिकारी ने उसका मृत्युकालिक कथन लेखबद्ध किया था, जिसमें उसने दुर्घटना के कारण आग लगना बताया था, इस कथन को मामले की परिस्थितियों में मृत्युकालिक कथन के रूप मंें विष्वास योग्य ठहराया गया।
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34. बचाव पक्ष की ओर से तर्क किया गया है कि प्राथमिकी प्र.पी-10 में शफीक खाॅ (अ.सा.2) की उपस्थिति का उल्लेख न होने के कारण शफीक खाॅ (अ.सा.2) की साक्ष्य विष्वास योग्य नहीं है, लेकिन इस क्रम में यह विधिक स्थिति ध्यातव्य है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट मामले की वृहद ज्ञानकोष नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित प्रत्येक विषिष्टि का उल्लेख हो। प्राथमिकी मूलतः आपराधिक विधि को गतिषील बनाने के लिये होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत बलदेव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 372 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध वल्लभदास, ए.आई.आर. 1985 (एस.सी.) 1384 के मामले से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख नहीं था कि मृतक पर लाठी से प्रहार किया गया, इस व्यतिक्रम/लोप को मामले के लिये घातक नहीं माना गया।
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टेलीफोनिक सूचना रोजनामचा पंजी में प्र.पी-18 के रूप में दर्ज की गयी है वह इस बात की संक्षिप्त जानकारी भर है कि लतीफ खाॅ को मार डाला गया है। ऐसी टेलीफोनिक सूचना को अपने आप में प्राथमिकी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत तपिन्दर सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 1566 एवं षिवप्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2005(1) एम.पी.एल.जे. नोट-13. प्र.पी.10 की उक्त रिपोर्ट धारा 157 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत सम्पुष्टिकारक साक्ष्य है अतः न केवल शफीक खाॅ (अ.सा.2) की मौखिक अभिसाक्ष्य अपितु प्र.पी-10 की प्राथमिकी से भी महक बी (अ.सा.1) के कथन को सम्पुष्टि मिलती है।
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न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध गम्भीर सिंह व अन्य, 2005 क्रि.ला.रि. (एस.सी.) 501 में मृतक के रिष्तेदार की साक्ष्य को विष्वास योग्य नहीं माना गया, जिसका कारण यह था कि पुलिस के द्वारा उसका कथन घटना के एक माह बाद लेखबद्ध किया गया था तथा उसकी साक्ष्य में विसंगतियाॅं थीं।
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यदि किसी तथ्य की जानकारी पुलिस को पूर्व से रही है तो ऐसे तथ्य के बारे में अभियुक्त द्वारा दी गयी सूचना भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत ’तथ्य के उद्घाटन’ ;क्पेबवअमतल व िंिबजद्ध की परिधि में नहीं आती है। संदर्भ:- अहीर राजा खेमा विरूद्ध सौराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 ।
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एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य अगर अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है तथा उसमें कोई तात्विक लोप या विसंगति नहीं है तो उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वह एकल साक्षी है अथवा संबंधी साक्षी है अथवा हितबद्ध साक्षी है। संदर्भ:- सीमन उर्फ वीरामन विरूद्ध राज्य, 2005(2) एस.सी.सी. 142। न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य, 2003(2) एस.सी.सी. 401 में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसे मामले हो सकते हैं, जहाॅं किसी घटना विषेष के संबंध में केवल एक ही साक्षी की अभिसाक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में न्यायालय को ऐसी साक्ष्य का सावधानीपूर्वक परीक्षण कर यह देखना चाहिये कि क्या ऐसी साक्ष्य दुर्बलताओं से मुक्त या विसंगति विहीन है।
23. न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं होती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।
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46. अभियुक्त और उसके अधिवक्ता को दण्ड के विषय में सुना गया। अभियुक्त के द्वारा अपनी पत्नी पप्पी बाई पर मिट्टी का तेल छिड़ककर उसकी हत्या करने का अपराध निष्चय ही अत्यंत गम्भीर प्रकृति का है, लेकिन न्याय दृष्टांत मच्छीसिंह आदि वि0 पंजाब राज्य ए.आई.आर. 1983 सु.को. 1957 एवं न्याय दृष्टांत वचनसिंह बनाम पंजाब राज्य ए.आई.आर.1980 एस.सी. 898 के मामलों में मृत्युदण्ड के लिये विरलों में से विरलतम मामलों की जो परिसीमा खींची गयी है, उसमें इस मामले को नहीं रखा जा सकता है। अतः अभियुक्त को मृत्युदण्ड से दण्डित करने का औचित्य प्रकट नहीं है।
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23. न्याय दृष्टांत पडाला वीरा रेड्डी विरूद्ध आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य, ए.आई.आर. 1990 एस.सी.79 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाॅ मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित होता है वहाॅं ऐसे साक्ष्य को निम्नलिखित कसौटियों को संतुष्ट करना चाहिए:-
(1) वे परिस्थितियाॅं जिनसे दोषिता का निष्कर्ष निकाले जाने की ईप्सा की गई है, तर्कपूर्ण और दृढ़ता से साबित की जानी चाहिए,
(2) वे परिस्थितियां निश्चित प्रवृत्ति की होनी चाहिए जिनसे अभियुक्त की दोषिता बिना किसी त्रुटि के इंगित होती हो,
(3) परिस्थितियों को संचयी रूप से लिए जाने पर उनसे एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिए कि इस निष्कर्ष से न बचा जा सके कि समस्त मानवीय संभाव्यता में अपराध अभियुक्त द्वारा कारित किया गया था और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं, और
(4) दोषसिद्धि को मान्य ठहराने के लिए पारिस्थितिक साक्ष्य पूर्ण होनी चाहिए और अभियुक्त की दोषिसिद्धि से भिन्न कोई अन्य संकल्पना के स्पष्टीकरण के अयोग्य होनी चाहिए और ऐसा साक्ष्य न केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि के संगत होनी चाहिए अपितु यह उसकी निर्दोषिता से भी असंगत होनी चाहिए।’’
24. न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अशोक कुमार, 1992 क्रि.लाॅ.ज. 1104 के मामले में यह उल्लेख किया गया था कि पारिस्थितिक साक्ष्य का मूल्यांकन करने में गहन सतर्कता बरती जानी चाहिए और यदि अवलंब लिए गए साक्ष्य के आधार पर युक्तियुक्त रूप से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हों तब अभियुक्त के पक्ष वाला निष्कर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए। यह भी उल्लेख किया गया था कि अवलंब ली गई परिस्थितियाॅं पूर्णतया साबित हुई पाई जानी चाहिए और इस प्रकार साबित किए गए सभी तथ्यों का संचयी प्रभाव केवल दोषिता की संकल्पना से संगत होना चाहिए।
25. उक्त परिप्रेक्ष्य में अभियोजन द्वारा अभियुक्त के विरूद्ध अभिकथित विभिन्न परिस्थितियों के विषय में क्रमवार साक्ष्य का विष्लेषण करना आवष्यक होगा। अभियोजन ने अभियुक्त के विरूद्ध प्रधानतः निम्न दोषिताकारक परिस्थितियाॅं अभिकथित की है:-
7. अभियुक्त की संलिप्तता के विषय में रोजनामचा प्रविष्टि (प्रमाणित प्रतिलिपि प्र.पी-32(सी)) के अनुसार सूचना प्राप्त होना,
8. अभियुक्त का घटनास्थल के निकट ही पेड़ से बंधा होना,
9. अभियुक्त द्वारा घटना के तत्काल बाद गले में फांसी लगाकर आत्महत्या का प्रयास करना,
10. बसंती बाई (अ.सा.1) का विलाप कर यह बताना कि अभियुक्त मगनलाल ने बच्चियों को काट डाला है,
11. अभियुक्त द्वारा रतनसिंह (अ.सा.7) के समक्ष की गयी कथित न्यायकेत्तर संस्वीकृति,
12. अभियुक्त, जो घटनास्थल पर मौजूद था, के द्वारा तत्काल घटना के बारे में किसी को सूचित न किया जाना,
13. कथित रूप से अभियुक्त से अभिग्रहित पेंट तथा मृतक फूलकुॅवर की फ्राक और अण्डरवियर तथा घटनास्थल से जप्त कुल्हाड़ी पर ’ए-बी’ रक्त समूह की उपस्थिति,
14. अभियुक्त के हाथ और पैर के नाखूनों पर रक्त की मौजूदगी,
15. अभियुक्त द्वारा अपनी कृषि भूमि विक्रय करने की इच्छा और उसकी पत्नियाॅं बसंती बाई (अ.सा.1) और संतोबाई (अ.सा.2) द्वारा इसका विरोध,
16. अभियुक्त की कथित विरोधाभासपूर्ण एवं अस्वाभाविक प्रतिरक्षा।
26. उक्त अभिकथित दोषिताकारक परिस्थितियों के बारे में अभिलेखगत साक्ष्य का क्रमवार विष्लेषण एवं मूल्यांकन कर यह देखना होना कि क्या उक्त परिस्थितियाॅं युक्तियुक्त संदेह के परे प्रमाणित है तथा क्या उनके आधार पर एक ऐसी कड़ी निर्मित होती है, जो एकल और एकल रूप से उक्त पाॅचों मृत बालिकाओं की हत्या के संबंध में अभियुक्त की संलिप्तता की ओर ही इंगित करती है तथा उसकी निर्दोषिता से असंगत है ?
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पक्ष विरोधी घोषित किया गया है, लेकिन न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध राज्य, 1993(3) क्राईम्स 82 एस.सी. के मामले में यह सुस्पष्ट अभिनिर्धारण किया गया है कि पक्ष विरोधी साक्षियों के कथन को अभिलेख से बिल्कुल साफ हुआ नहीं माना जा सकता है। उनके साक्ष्य का वह भाग, जो मान्य किये जाने योग्य है, उपयोग में लाया जा सकता है।
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44. प्र.पी-40 प्रयोगषाला के सहायक रासायनिक परीक्षक द्वारा जारी प्रतिवेदन है, जिसमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि ज्ञापन के अनुसार भेजे गये सभी पैकेट उचित रूप से सीलबंद हालत में प्राप्त हुये। प्रतिवेदन प्र.पी-40 में सहायक रासायनिक परीक्षक ने वस्तु ’ई’, जो अभियुक्त से जप्तषुदा पेंट बतायी जाती है तथा वस्तु ’जे-1’ एवं ’जे-2’, जो मृतिका फूलकुॅवर की अण्डरवियर और फ्राक बतायी जाती है, पर ’ए-बी’ समूह का रक्त प्रतिवेदित किया है। यही रक्त कुल्हाड़ी ’डी’ पर भी प्रतिवेदित किया गया है, जो अभियुक्त की टापरी से अभिग्रहित की गयी। प्र.पी-40 का प्रतिवेदन, जो धारा 293 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत औपचारिक सिद्धि के बिना साक्ष्य में ग्राह्य है, पर अविष्वास करने का कोई कारण प्रकट नहीं है। अतः यह सुप्रमाणित है कि अभियुक्त से अभिग्रहित पेंट तथा मृतिका फूलकुॅवर की अण्डवियर और फ्राक एवं अभियुक्त की टापरी से प्राप्त कुल्हाड़ी पर एक ही समूह-’ए-बी’ समूह का रक्त पाया गया।
45. अभिग्रहित वस्तुओं पर रक्त की मौजूदगी तथा उसकी प्रजाति एवं प्रवर्ग संबंधी साक्ष्य के मूल्य के विषय में विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। जहाॅं कंसा बेहरा विरूद्ध उड़ीसा राज्य, ए.आई.आर. 1987 सु.को. 1507 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर पाये गये रक्त समूह का मृतक के रक्त समूह से समरूप पाया जाना एक निर्णायक व निष्चयात्मक दोषिताकारक परिस्थिति माना गया है, वहीं पूरनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1989 क्रिमिनल लाॅ रिपोर्टर एस.सी. 12 के मामले में अभियुक्त से अभिग्रहीत वस्तु पर सीरम विज्ञानी द्वारा प्रतिवेदित मानव रक्त की मौजूदगी को, जिसके रक्त समूह का पता नहीं लग सका था, पर्याप्त संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया। न्याय दृष्टांत रामस्नेही विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1984 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 342 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर केवल रक्त की उपस्थिति, जिसके स्त्रोत का पता नहीं लग सका था, को भी संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया है। हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान राज्य विरूद्ध तेजाराम, 1999 (भाग-3) सु.को.केसेस 507 के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जहाॅं रक्त के स्त्रोत का पता नहीं चल सका है, अभिग्रहीत वस्तु पर रक्त की उपस्थ्तिि से प्रकट परिस्थिति को अनुपयोगी मानकर रद्द कर दिया जायेगा।
46. पूर्वोक्त विधिक एवं ताथ्यिक पृष्ठभूमि के संबंध में अभियुक्त की पेेंट व घटनास्थल से अभिग्रहित कुल्हाड़ी पर पर उसी समूह के रक्त की उपस्थिति, जो समूह मृतिका फूलकुुॅवर की फ्राक और अण्डरवियर पर पाया गया, अपने आप में ठोस एवं निर्णायक दोषिताकारक परिस्थिति है। अभियुक्त अपनी पेंट पर रक्त की उक्त मौजूदगी के बारे में किसी भी प्रकार का कोई स्पष्टीकरण धारा 313 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किये गये परीक्षण में अथवा अन्यथा देने में असफल रहा है। अतः उक्त स्थिति अभियुक्त के विरूद्ध एक महत्वपूर्ण दोषिताकारक कड़ी के रूप में सामने आती है।
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49. माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने देवनंदन मिश्र विरूद्ध बिहार राज्य, 1955 ए.आई.आर. 801 के मामले में यह विधिक प्रतिपादन किया है कि जहाॅं अभियुक्त के विरूद्ध अभियोजन द्वारा विभिन्न सूत्र समाधानप्रद रूप से सिद्ध कर दिये गये हैं एवं परिस्थतिथियाॅं अभियुक्त को संभाव्य हमलावर, युक्तियुक्त निष्चितता और समय तथा स्थिति के बाबत् मृतक के सानिध्य में बताती है, अभियुक्त के स्पष्टीकरण की ऐसी अनुपस्थिति या मिथ्या स्पष्टीकरण अतिरिक्त सूत्र के रूप में श्रृंखला को अपने आप पूरा कर देगा। स्पष्टीकरण के अभाव अथवा मिथ्या स्पष्टीकरण को श्रृंखला पूरा करने वाली अतिरिक्त कड़ी के रूप में उस दषा में प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि:-
(1) अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य से श्रृंखला की विभिन्न कडि़या समाधानप्रद रूप से साबित कर दी गयी हों।
(2) ये परिस्थितियाॅं युक्तियुक्त निष्चितता के साथ अभियुक्त की दोषिता का संकेत देती हों, और
(3) यह परिस्थितियाॅं समय की स्थिति की दृष्टि से नैकट्य में हो।
50. इस क्रम में न्याय दृष्टांत शंकरलाल ग्यारसीलाल दीक्षित विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 765 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध सुरेश (2000)1 एस.सी.सी. 471 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि दोषिता-कारक परिस्थिति के विषय में पूछे जाने पर अभियुक्त द्वारा उसका असत्य उत्तर एक ऐसी परिस्थिति को निर्मित करेगा जो परिस्थिति-जन्य श्रृंखला की गुमशुदा कडी के रुप में प्रयुक्त की जा सकेगी।
51. वर्तमान मामले में अभियुक्त के द्वारा यह प्रतिरक्षा ली गयी है कि घटना वाले दिन कोई व्यक्ति उसके घर आया था, जिसने पाॅचों बच्चियों की हत्या कर दी तथा इसके बाद वह व्यक्ति अभियुक्त को टापरी के निकट स्थित पेड़ से उसे बांधकर चला गया। अभिलेखगत साक्ष्य के गहन एवं विस्तृत विष्लेषण में अभियुक्त की उक्त प्रतिरक्षा पूरी तरह असत्य, निराधार एवं कपोल-कल्पित पायी गयी है तथा अभियुक्त के द्वारा ली गयी उक्त असत्य एवं निराधार प्रतिरक्षा अपने आप में वर्तमान मामले में एक दोषिताकारक परिस्थिति को जन्म देती है।
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हेतुक:-
52. बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि वर्तमान मामले में अभिकथित हत्याओं के विषय में अभियुक्त का हेतुक अभियोजन के द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया है अतः अभियोजन की यह कहानी कि उक्त पाॅचों बच्चियों की हत्या अभियुक्त के द्वारा की गयी, युक्तियुक्त रूप से संदेहास्पद हो जाती है।
53. उक्त तर्क के संबंध में सुसंगत विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना उचित होगा। ’हेतुक’ एक गुह्य मानसिक स्थिति है, जो मनुष्य की उपचेतना ;ैनइ.बवदेबपवनेद्ध में निवास करती है। इसके द्वारा ही मन कार्य की ओर अग्रसर होता है। विधि शास्त्री सामण्ड ने इसे अंतरस्थ आषय की संज्ञा दी है। ’हेतुक’ वह भीतरी प्रेरणा है, जो किसी कार्य के लिये गुप्त रूप से मन को उकसाती है। अंतःपरक होने के कारण ’हेतुक’ को प्रमाणित करना कठिन होता है, क्योंकि उसकी जानकारी केवल अपराधकर्ता को ही होती है। विधि का यह सुनिष्चित सिद्धांत है कि जहाॅं हत्या के संबंध में अभियुक्त के विरूद्ध निष्चित, संगत, स्पष्ट एवं विष्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी परिस्थितियों में हत्या के ’हेतुक’ को प्रमाणित करना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है, संदर्भ:- अमरजीतसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1995 क्रि.लाॅ.रि.(सु.को.) 495 । जब हत्या का अपराध साक्ष्य से भली-भाॅंति प्रमाणित हो तब ’हेतुक’ प्रमाणित करना अभियोजन के लिये आवष्यक नहीं है, संदर्भ:- सुरेन्द्र नारायण उर्फ मुन्ना विरूद्ध उत्तर प्रदेष राज्य, 1197 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4156 । न्याय दृष्टांत दिल्ली प्रषासन विरूद्ध सुरेन्द्र पाल जैन, उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 1985 दिल्ली-333 में इस क्रम में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मानव प्रकृति एक अत्यधिक जटिल चीज है। कोई व्यक्ति क्या करता है, यह अनेक बातों पर निर्भर होता है। ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहाॅं ’हेतुक’ पता चल जाये किन्तु ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनमें ’हेतुक’ का कतई पता न चले। ’हेतुक’ के सबूत का अभाव अपने आप में उन निष्कर्षों को अस्वीकार करने के लिये विकल्प प्रदान नहीं करता है, जो अन्यथा तथ्यों और साक्ष्य के समूह से युक्तियुक्त एवं न्यायोचित रूप से निकाले जा सकते हों।
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59. न्याय दृष्टांत माछीसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, (1983)3 एस.सी.सी. 470 के मामले में निम्न मत व्यक्त किया गया था:-
’विरल से विरलतम मामले’ जिसमंे मृत्यु दंडादेश अधिरोपित किया जा सकता है का अवधारण करने के लिए कसौटी के रूप में निम्नलिखित प्रश्नोत्तर किए जा सकते हैं:-
(क) क्या अपराध के बारे में ऐसी कोई असमान्य बात है जो आजीवन कारावास के दंडादेश को अपर्याप्त बनाती हो और मृत्यु दंडादेश अपेक्षित हो जाए ?
(ख) क्या अपराध की परिस्थितियाॅं, ऐसी हैं कि अपराधी के पक्ष की न्यूनकारी परिस्थितियों को अधिकतम महत्व देने के पश्चात् भी मृत्यु दंडादेश अधिरोपित करने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं है ?
60. माछीसिंह (पूर्वोक्त) के मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि न्याय दृष्टांत बचनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, (1980)2 एस.सी.सी. 184 वाले मामले से उद्भूत निम्नलिखित मार्गदर्शक सिद्धांत प्रत्येक ऐसे मामले के तथ्यों पर लागू किए जाने चाहिए जहाॅं मृत्यु दंडादेश का प्रश्न उठाता है:
;पद्ध हत्या के घोरतम जघन्य मामलों के सिवाए मृत्यु का घोर दंड अधिरोपित नहीं किया जाना चाहिए,
;पपद्ध मृत्युदण्ड का विकल्प चुनने के पूर्व ’अपराध’ की परिस्थितियों सहित अपराधी की परिस्थिति को भी विचार में लिया जाना चाहिए,
;पपपद्ध आजीवन कारावास नियम है और मृत्यु दंडादेश एक अपवाद है। मृत्यु दण्डादेश तभी अधिरोपित किया जाना चाहिए जब अपराध की सुसंगत परिस्थितियों को दृष्टिगत करते हुए आजीवन कारावास कुल मिलाकर अपर्याप्त दण्ड प्रतीत होता हो और अपराध की प्रकृति और परिस्थतियों तथा सभी सुसंगत परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आजीवन कारावास के दंडादेश के विकल्प का प्रयोग न किया जा सकता हो,
;पअद्ध गुरूतरकारी ;।हहतंअंजपदहद्ध और न्यूनकारी ;डपजपहंजपदहद्ध परिस्थितियों को विचार में लिया जाना चाहिए और ऐसा करते हुये न्यूनकारी परस्थितियों को पूरा महत्व देना चाहिए और विकल्प का प्रयोग करने के पूर्व गुरूतरकारी और न्यूनकारी परिस्थितियों के बीच एक उचित संतुलन बनाया जाना चाहिए।
61. न्याय दृष्टांत देवेन्द्र पाल सिंह विरूद्ध देहली राज्य, (2002) 5 एस.सी.सी. 234 के मामले में बचनसिंह (पूर्वोक्त) तथा माछीसिंह (पूर्वोक्त) के मामलों का संदर्भ लेते हुये यह प्रतिपादित किया गया कि जब समाज का अंतःकरण संचयी रूप से इतना व्यथित हो जाए जिससे वह न्यायिक शक्ति धारकों से, मृत्युदण्ड की वांछनीयता या अन्यथा के संबंध में उनकी व्यक्तिगत राय को विचार में लिए बिना, मृत्युदण्ड अधिरोपित करने की प्रत्याशा करना चाहे तब मृत्युदण्ड अधिनिर्णित किया जाना चाहिए। इस मामले में प्रकट किया गया कि समाज में ऐसी भावना, निम्नलिखित परिस्थितियों में उत्पन्न हो सकती है:-
(1) जब हत्या अत्यधिक पाश्विक, विकृत, क्रूर, घिनौनी रीति से या नृशंस रूप से की गई हो, जिससे समुदाय में अत्यधिक उत्तेजना, क्रोध उत्पन्न होता है।
(2) जब हत्या ऐसे हेतुक के लिए की जाती है, जिससे पूर्णतया जघन्यता और नीचता प्रदर्शित हो, अर्थात् भाड़े पर लाए गए हत्यारे द्वारा धन या इनाम के लिए नृशंस हत्या की गई हो या जहाॅं हत्यारे के नियंत्रणाधीन किसी प्रतिपाल्य या किसी व्यक्ति की या उसके संबंध में जिस पर हत्यारे का अधिक प्रभुत्व है या उसका विश्वासपात्र है, से फायदा लेने के लिए या मातृभूमि से विश्वासघात करने के लिए हत्या की जाती है।
(3) जब अनुसूचित जाति या अल्पसंख्यक समुदाय इत्यादि के किसी सदस्य की हत्या किसी निजी कारण से नहीं बल्कि उन परिस्थितियों में की जाती है, जिससे समाज में क्रोध उत्पन्न होता है या ’नव-वधु जलाने’ या ’दहेज-मृत्यु’ की दशा में या जब कोई हत्या एक बार पुनः दहेज ऐंठने के लिए पुनर्विवाह करने हेतु या प्रोमोन्माद के कारण किसी अन्य महिला से विवाह करने के लिए की जाती है।
(4) जब वह अपराध आनुपातिक रूप से अत्यंत बड़ा हो। अर्थात् किसी कुटुंब के सभी या लगभग सभी सदस्यों की हत्या की जाती है या किसी विशेष जाति, समुदाय या परिक्षेत्र के अनेक सदस्यों की हत्याएं की जाती हैं।
(5) जब हत्या का शिकार एक अबोध शिशु या असहाय महिला या कोई वृद्ध व्यक्ति या असहाय व्यक्ति या ऐसा व्यक्ति है जिस पर हत्यारे का प्रभुत्व है या आहत व्यक्ति एक ऐसा प्रमुख व्यक्ति है, जिसे साधारणतया समाज द्वारा प्यार और सम्मान दिया जाता है।
62. यदि उपरोक्त प्रतिपादनों को दृष्टिगत करते हुए सभी परिस्थितियों पर विचार करने पर और यदि विरल से विरलतम मामलों की कसौटी के लिए पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों के आधार पर मामला विरल से विरलतम मामले की परिधि में आता है, तब मामले की परिस्थितियों में मृत्युदण्डादेश अपेक्षित होगा और न्यायालय ऐसा करने को अग्रसर होगा।
63 न्याय दृष्टांत धनंजय चटर्जी उर्फ धन्ना विरूद्ध पष्चिम बंगाल राज्य, (1994)2 एस.सी.सी. 220 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि कुछ अपराधियों को अत्यंत कठोर दण्ड मिलता है, कुछ अन्य को कम दण्ड मिलता है, जबकि अपराध समान रूप से गम्भीर है और अनेक अपराधी दण्डित किये बिना ही बच निकलते हैं, जो अंततः अपराधी को प्रोत्साहित करता है एवं न्यायिक व्यवस्था की विष्वसनीयता के क्षीण होने के कारण न्याय प्रभावित होता है। इस मामले में यह भी ठहराया गया कि अपराधी का आचरण तथा पीडि़त/मृतक की बचाव रहित स्थिति भी इस संबंध में देखी जाना चाहिये। युक्तियुक्त दण्ड का अधिरोपण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा न्यायालय न्याय के लिये समाज की पुकार के प्रति अपनी चेतना को व्यक्त करता है। न्याय की अपेक्षा है कि न्यायालय को अपराध की गम्भीरता के समानुपातिक ऐसा दण्ड अधिरोपित करना चाहिये, जिससे कि जनसामान्य में उस अपराध के प्रति घृणा की स्थिति परिलक्षित हो। न्यायालयों को केवल अपराधी के ही अधिकारों का ध्यान नहीं रखना चाहिये अपितु अपराध के पीडि़त एवं समाज के अधिकारों को भी दण्ड अधिरोपण के समय दृष्टिगत रखना चाहिये।
64. न्याय दृष्टांत रावजी उर्फ रामचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 787 के मामले में पत्नी, तीन अवयस्क बच्चे एवं एक पड़ोसी, जिनका कहीं कोई दोष नहीं था, की जघन्य हत्या के लिये मृत्युदण्ड को उचित ठहराया गया।
65. न्याय दृष्टांत उमाषंकर पंडा विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, (1996)8 एस.सी.सी. 110 के मामले में पत्नी तथा 2 पुत्रियों की हत्या तथा अन्य 2 पुत्रियों एवं 1 पुत्र की हत्या का प्रयास करने के लिये घटना में प्रयुक्त हथियार, अपराध की पाष्विक प्रकृति तथा मारे गये व्यक्तियों की संख्या एवं उनकी असहाय स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये मृत्युदण्ड को उचित ठहराया गया।
66. न्याय दृष्टांत सुरेषचंद्र बहेरी विरूद्ध बिहार राज्य, (1985) (सप्लीमेंट)1 एस.सी.सी. 80 के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह ठहराया गया कि अबोध बच्चे की उनके ही पिता के द्वारा खून को जमा देने वाले तरीके से की गयी क्रूर हत्या, जिसमें परिवार के लगभग सभी सदस्यों को खत्म कर दिया गया था, के लिये मृत्युदण्ड के अलावा अन्य कोई उपयुक्त दण्ड समझ में नहीं आता है तथा मामला विरल से विरलतम मामलों की श्रेणी में आता है, जहाॅं मृत्युदण्ड के अलावा किसी अन्य दण्ड को उचित एवं पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है।
67. न्याय दृष्टांत जगदीष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, (2009) 9 एस.सी.सी. 495, जिसमें अभियुक्त के द्वारा पत्नी और 5 बच्चों की हत्या की गयी थी, में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विचार करते हुये यह पाया कि अभियुक्त ने नितांत पाष्विक, वीभत्स और निर्दय तरीके से पत्नी और बच्चों की हत्या की है, जिनके ऊपर वह प्रभावी स्थिति में था तथा जो सभी निर्दोष और असहाय थे अतः मामले की समग्रता को देखते हुये मृत्युदण्ड उचित ठहराया गया।
------------------------------------------------------20. उक्त पृष्ठभूमि में प्रत्यक्षदर्षी साक्ष्य के रूप में मृतक दीनदयाल के पुत्र दीपक (अ.सा.5) की अभिसाक्ष्य अभिलेख पर शेष रह जाती है। एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि निष्कर्षित किये जाने के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्याय दृष्टांत वादीवेलु थेवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत किसी तथ्य को प्रमाणित करने के लिये किसी विषिष्ट संख्या में साक्षियों की आवष्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि न्यायालय के समक्ष यदि एक मात्र साक्षी की अभिसाक्ष्य है तो ऐसी साक्ष्य को उसकी गुणवत्ता के आधार पर 3 श्रेणी में रखा जा सकता है:-
प्रथम - पूर्णतः विष्वसनीय,
द्वितीय - पूर्णतः अविष्वसनीय, एवं
तृतीय - न तो पूर्णतः विष्वसनीय और न ही पूर्णतः अविष्वसनीय।
21. उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि प्रथम दो स्थितियों में साक्ष्य को अस्वीकार या रद्द करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है, लेकिन तृतीय श्रेणी के मामलों में कठिनाई स्वाभाविक है तथा ऐसी स्थिति में न्यायालय को न केवल सजग रहना चाहिये, अपितु निर्भरता योग्य पारिस्थतिक या प्रत्यक्ष साक्ष्य से सम्पुष्टि की मांग भी की जानी चाहिये। बचाव पक्ष के विद्वान अधिवक्ता द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 854 में उक्त विधिक प्रतिपादन को पुनः दोहराया गया है।
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307 323 325 326
धारा 307,323,325,326
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15. यह सही है कि ग्राम दोराहा में सलीम के घर के आसपास रहने वाला कोई व्यक्ति प्रत्यक्षदर्षी समर्थक साक्षी के रूप में अभियोजन ने प्रस्तुत नहीं किया है, लेकिन यह सुविदित है कि सामान्यतः लोग दूसरों के झगड़े में पड़कर किसी से बैर भाव नहीं लेना चाहते हैं, इस कारण न्यायालय में साक्षी के रूप में उपस्थित होने में अनिच्छुक रहते हैं। संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998. ऐसी स्थिति में इमरान खान (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य मात्र इस आधार पर अस्वीकार नहीं की जा सकती है कि किसी स्वतंत्र साक्षी की अभिसाक्ष्य से उसका समर्थन नहीं है। प्रकटतः उसकी साक्ष्य अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है, उसमें किसी प्रकार की कोई सारवान् विसंगति या विरोधाभास नहीं है, ऐसी स्थिति में उक्त अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय मानने का कोई कारण प्रकट नहीं है।
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हित वद साक्षी-उक्त दोनों ही साक्षियों के प्रतिपरीक्षण में ऐसी कोई बात प्रकट नहीं है, जिसके आधार पर उनकी साक्ष्य को अविष्वसनीय मानकर अस्वीकार किया जाये। मात्र इस आधार पर कि वे इमरान खान (अ.सा.1) की माॅ और बहन हैं, उनकी अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य यदि अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण तथा विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं। ------------------------------------------------------
21. ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.------------------------------------------------------
लोप-विरोधाभाश-अतिरंजना--इस क्रम में यह विधिक स्थिति सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि साक्षियों की प्रवृत्ति तथ्यों को किंचित नमक मिर्च लगाकर अतिरंजना के साथ प्रस्तुत करने की होती है, लेकिन यदि साक्ष्य में घटना के मूल स्वरूप के बारे में सच्चाई का अंष विद्यमान है तो ऐसी अतिरंजनाओं के आधार पर, जो मामले की तह तक नहीं जाती है, साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये, संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998.
16. उक्त परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि आहतगण राजू सिंह चैहान (अ.सा.1) एवं लक्ष्मीनारायण (अ.सा.7) की साक्ष्य की सम्पुष्टि करने के लिये कोई स्वतंत्र प्रत्यक्षदर्षी साक्ष्य अभिलेख पर नहीं है, लेकिन यह विधिक स्थिति स्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर अविष्वसनीय अथवा अस्वीकार्य नहीं माना जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की सम्पुष्टि नहीं होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा किया गया यह प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रायः यह देखने में आया है कि स्वतंत्र साक्षी अभियोजन की कथा का समर्थन करने के लिये अनिच्छुक रहते हैं अतः ऐसी स्थिति में न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह उपलब्ध साक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण एवं मूल्यांकन करें। यदि ऐसी अभिसाक्ष्य विष्वास योग्य एवं गुणवत्तापूर्ण है, तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है।
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17. उक्त क्रम में इस विधिक स्थिति का संदर्भ लिया जाना भी असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी के कथन में यदि मूल घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो ऐसी अतिरंजनाओं और विसंगतियों के कारण सम्पूर्ण मामले को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897. न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतियों साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है।
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26. धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
27. महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
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11. उक्त परिप्रेक्ष्य में आधारभूत घटना के संबंध में अजबसिंह (अ.सा.4) की अभिसाक्ष्य में कोई सारवान् विसंगति अथवा विषमतायें विद्यमान नहीं है। जहाॅं तक प्रकीर्ण विसंगति एवं विषमताओं का प्रष्न है, यह विधिक स्थिति उल्लेखनीय है कि अभिसाक्ष्य में मामूली एवं अमहत्वपूर्ण स्वरूप की विसंगतियाॅं या विरोधाभास जो आधारभूत कथा की सत्यता को प्रभावित नहीं करते हैं, को महत्व नहीं दिया जाना चाहिये, संदर्भ:- गणेश विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1985 जे.एल.जे. 778 एवं नानूसिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1985 एम.पी.एल.जे. 268. यह भी ध्यातव्य है कि एक घायल व्यक्ति साक्षी के रूप में ऐसा कभी नहीं चाहेगा कि जिन्होंने उसे वास्तव में आहत किया है, वे बच जायें तथा अन्य निर्दोष लोग ऐसे मामले में फंसा दिये जाये, संदर्भ:- बलवंतसिंह विरूद्ध हरियाणा राज्य, 1972-तीन सु.को.केसेस 193. उक्त विधिक स्थिति के प्रकाश में अभियोजन की अभिसाक्ष्य का विश्लेषण करना होगा।
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17. ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है, संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
18. महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।
19. म.प्र.राज्य विरूद्ध सलीम उर्फ चमरू एवं एक अन्य (2005) 5 एस.सी.सी. 554 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत दोषसिद्धि को न्यायोचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो, जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि चोट की प्रकृति, अभियुक्त के आशय का पता लगाने में सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा आशय मामले की अन्य परिस्थितियों तथा कतिपय मामलों में कारित चोट के संदर्भ के बिना भी पता लगाया जा सकता है। इस मामले में स्पष्ट रूप से यह ठहराया गया है कि मामले को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत लाने के लिये यह कतई आवश्यक नहीं है कि आहत को पहुॅचायी गयी चोट, प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो, अपितु यह देखा जाना चाहिये कि क्या कृत्य ऐसे आशय अथवा ज्ञान के साथ किया गया है जैसा धारा में उल्लिखित है। इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये यह स्पष्ट किया है कि केवल यह तथ्य कि आहत के मार्मिक शारीरिक अवयव क्षतिग्रस्त नहीं हुये हैं, अपने आप में उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के बाहर नहीं ले जा सकता है।
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हितबद्ध साक्षी-निष्चय ही कृष्ण गोपाल उर्फ गोपाल (अ.सा.5) की उक्त अभिसाक्ष्य स्पष्ट एवं विसंगति विहीन होने कारण स्वीकार योग्य हैं तथा उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि कृष्ण गोपाल उर्फ गोपाल (अ.सा.5), विनोद कुमार (अ.सा.4) का भतीजा है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि केवल हितबद्धता के आधार पर किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय मानकर रद्द नहीं किया जा सकता है, संदर्भ:- सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82.
16. उक्त परिप्रेक्ष्य में अभिकथित घटनाक्रम के विषय में एक मात्र ओंकार पुरी (अ.सा.2) की अभिसाक्ष्य शेष रह जाती है। यह सही है कि ओंकार पुरी (अ.सा.2) एक हितबद्ध साक्षी है, लेकिन यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह हितबद्ध है, अपितु ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण किया जाना चाहिये तथा उस पर निर्भर करने के लिये यह आवष्यक है कि वह गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय हो, संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851
10. इसी प्रकार इस विधिक स्थिति का संज्ञान लिया जाना भी आवष्यक है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य को इस आधार पर कि वह हितबद्ध है रद्द किया जाना विधि सम्मत नहीं है, लेकिन ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य पर निर्भर करने के लिये यह आवष्यक है कि वह गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय हो, संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851.
11. इसी क्रम में न्याय दृष्टांत सूरजपाल विरूद्ध राज्य, 1994(2) क्रि.लाॅ.ज. 928 एस.सी. भी अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि किसी साक्षी का कथन मात्र इस आधार पर निरस्त नहीं किया जाना चाहिये कि वह हितबद्ध है, अपितु उसी साक्ष्य की सावधानीपूर्वक छानबीन की जानी चाहिये तथा जहाॅं ऐसी साक्ष्य एकरूपतापूर्ण है, वहाॅं उस पर विष्वास किया जा सकता है।
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25. जहाॅं तक प्रथम बिन्दु का सम्बन्ध है, ’संहिता’ की धारा 34 के अंतर्गत दायित्व आरोपित करने के लिये यह स्थापित किया जाना आवष्यक है कि मात्र उकसाने के अलावा कुछ ऐसा कार्य किया गया, जो सामान्य आषय का परिचायक हो। इस क्रम में न्याय दृष्टांत उड़ीसा राज्य विरूद्ध अर्जुनदास अग्रवाल, ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 3229 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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29. ’संहिता’ की धारा 307 के अपराध के संबंध में न्याय दृष्टांत सरजू प्रसाद विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 843 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मामले को ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में रखने के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित तीन प्रकार के आषयों में से कोई आषय अथवा ज्ञान की स्थिति उस समय विद्यामन थी, जबकि प्रहार किया गया तथा अभियुक्त की मनःस्थिति घटना के समय विद्यमान साम्पाष्र्विक परिस्थितियों के आधार पर तय की जानी चाहिये। वर्तमान मामले में प्रहार इतनी तीव्रता के साथ नहीं किया गया है कि उससे कंधे पर काफी गहरायी तक चोट आये, क्योंकि प्रष्नगत चोट मात्र 1) से.मी. गहरी है। प्रहार की पुनरावृत्ति भी प्रकट नहीं है और न ही शरीर के किसी मार्मिक हिस्से पर चोट पहुॅचायी गयी है। ऐसी दषा में ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित आषय अथवा ज्ञान की स्थिति वर्तमान मामले में स्थापित नहीं होती है अतः यह नहीं कहा जा सकता है कि एल्कारसिंह प्रष्नगत प्रहार के द्वारा विनोद कुमार (अ.सा.4) की हत्या करने का आषय रखता था अथवा उसके द्वारा अपने ज्ञान में ऐसी चोट कारित की गयी, जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो।
30. परिणामस्वरूप अभियुक्त एल्कारसिंह का कृत्य ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में न आकर ’संहिता’ की धारा 326 की परिधि में आता है, जो धारदार हथियार से गम्भीर उपहति कारित किये जाने को दण्डनीय ठहराता है।
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12. बचाव पक्ष की ओर से न्याय दृष्टांत सर्वेष नारायण शुक्ला विरूद्ध दरोगा सिंह, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 320 (पैरा-11) तथा म.प्र.राज्य विरूद्ध रमेष प्रसाद मिश्रा, 1996(3) क्राइम्स 181 एस.सी. का अवलंब लेते हुये उचित रूप से इस विधिक स्थिति की ओर से न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया है कि पक्ष विरोधी साक्षी की अभिसाक्ष्य को यंत्रवत तरीके से पूरी तरह रद्द नहीं किया जाना चाहिये तथा सघन परीक्षण के बाद यदि ऐसी साक्ष्य अभियोजन की कहानी अथवा बचाव पक्ष द्वारा ली गयी प्रतिरक्षा से संगत है तो उसका उपयोग उस सीमा तक किया जाना चाहिये। निष्चय ही उक्त विधिक स्थिति सुस्थापित है तथा रमेष (अ.सा.3) एवं धरमसिंह (अ.सा.7) की अभिसाक्ष्य का विष्लेषण करते समय उक्त विधिक स्थिति को दृष्टिगत रखा जाना चाहिये।
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21. बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में न्याय दृष्टांत विरेन्द्र कुमार प्यासी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1993(प्प्) डण्च्ण्ॅण्छण् छवजम.77 का अवलम्ब लेते हुये यह तर्क किया है कि सभी चोटें साधारण प्रकृति की हैं अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्तगण का आषय ओंकार पुरी (अ.सा.2) की हत्या करने का था। अवलम्बित मामले के तथ्यों पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि इस मामले में आहत को चाकू से 7 चोटें पहुॅचायी गयी थी, जिनमें से एक चोट सीने पर भी थी तथा कोई भी चोट शरीर के मार्मिक हिस्से पर नहीं थी अतः मामले को ’संहिता’ की धारा 307 के बजाय धारा 324 की परिधि में रखा गया। लेकिन वर्तमान मामले में यह प्रकट है कि ओंकार पुरी (अ.सा.2) के सिर पर, जो शरीर का एक मार्मिक हिस्सा है, 5 ग् 1 ग् 6 से.मी. आकार का हड्डी तक गहरा फटा हुआ घाव कारित किया तथा सिर की ऐसी चोट कभी भी, किसी भी व्यक्ति के लिये प्राण-घातक साबित हो सकती है, इस स्थिति को सहज ही नकारा नहीं जा सकता है।
22. उक्त क्रम में विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ भी समीचीन होगा। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
23. ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ: म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
24. धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
25. उपरोक्त विधिक स्थिति से यह सुप्रकट है कि अभियुक्तगण के आषय के निर्धारण में उसके द्वारा कार्य की निरंतरता, चोटें कारित करने हेतु अवसर और समय की पर्याप्तता, हथियार का स्वरूप तथा चोटों का स्थान जैसे तत्व सहायक हो सकते हैं, लेकिन सदैव ही चोट की प्रकृति मात्र के आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि आषय हत्या करने का नहीं था। वर्तमान मामले में ओंकार पुरी (अ.सा.2) के सिर पर, जो एक संवेदनषील हिस्सा है, बड़े आकार का फटा हुआ घाव पाया गया है, कंधे पर मौजूद तीन चोटें कहीं न कहीं यह इंगित करती है कि प्रहार सिर के मार्मिक भाग के आस-पास किया गया, पीठ पर पायी गयी दो लम्बी चोटें भी मेरूदण्ड को किन्हीं परिस्थितियों में भारी क्षति कारित कर सकती थीं, यह बात अलग है कि ऐसी क्षति कारित नहीं हुयी। ऐसी दषा में मामले की सम्पूर्ण परिस्थितियों को देखते हुये एकमेव यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अभियुक्तगण सामान्य आषय के अग्रषरण में ओंकार पुरी (अ.सा.2) को उक्त उपहति कारित कर उसकी हत्या करना चाहते थे।
26. परिणामस्वरूप अभिलेखगत साक्ष्य के आधार पर अभियुक्तगण के विरूद्ध ’संहिता’ की धारा 307/34 का यह आरोप युक्तियुक्त शंका और संदेह के परे प्रमाणित है कि घटना दिनाॅंक 05.12.2009 को शाम लगभग 4.30 बजे उन्होंने ग्राम भाऊखेड़ी में ओंकार पुरी (अ.सा.2) के खेत के निकट सामान्य आषय के अग्रषरण में उसके सिर पर तथा शरीर के अन्य भागों पर लाठी और ’निजन’ से प्रहार कर उसकी हत्या का प्रयास किया।
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23. ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
24. महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
25. ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
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30. दण्ड के संबंध में अभियुक्त को सुना गया। अभियुक्त की ओर से यह प्रार्थना की गयी है कि वह युवा है तथा उसका कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है अतः दण्ड के संबंध मंे उदार दृष्टिकोण अपनाया जाये। दण्ड अधिरोपित किये जाने के संबंध में यह विधिक स्थिति ध्यान में रखना आवष्यक है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो, संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.
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उक्त क्रम में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि साक्षी के कथन में आयी ऐसी विसंगतियाॅ, जो मामले की तह तक नहीं जाती हंै तथा प्रकीर्ण स्वरूप की हैं, उसकी अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय ठहराये जाने का आधार नहीं बनायी जा सकती हैं। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा साक्षी मिले जिसकी अभिसाक्ष्य में अतिरंजनायें, विसंगतियाॅं या असत्य का अंश न हो, लेकिन मात्र इस आधार पर उसकी अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से अस्वीकृत करना न्याय सम्मत नहीं है। न्यायालय का यह कर्तव्य है कि ऐसे मामले में वह सत्य और झूंठ का पता लगाये तथा यदि आधारभूत बिन्दुओं पर साक्ष्य विश्वास योग्य है तो उसका उपयोग करे। केवल उसी दशा में ही सम्पूर्ण साक्ष्य को अस्वीकृत किया जा सकता है, जब सत्य और झूंठ को पृथक करना असम्भव हो।
एकल साक्षी-
15. यद्यपि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में ऐसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूर्णतः विष्वसनीय होनी चाहिये। यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वेदी वेलू थिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
21. इसी क्रम में उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.लाॅ.जर्नल पेज 88 = ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज 1998 दिशा निर्धारक मामले में शीर्षस्थ न्यायालय ने दांडिक मामलों में साक्ष्य विश्लेषण संबंधी सिद्धांत की गहन एवं विस्तृत समीक्षा करते हुये यह प्रतिपादित किया है कि यदि प्रस्तुत किया गया मामला अन्यथा सत्य एवं स्वीकार है तो उसे केवल इस आधार पर अस्वीकार करना उचित नहीं है कि घटना के सभी साक्षीगण तथा स्वतंत्र साक्षीगण को संपुष्टि के लिये प्रस्तुत नहीं किया गया है। साक्ष्यगत अतिरंजना के विषय में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह इंगित किया है कि हमारे देश के साक्षियों में यह प्रवृत्ति होती है कि किसी भी अच्छे मामले का अतिश्योक्तिपूर्ण कथन द्वारा समर्थन किया जाये तथा साक्षीगण इस भय के कारण भी अभियोजन पक्ष के वृतांत में नमक मिर्च मिला देते हैं कि उस पर विश्वास किया जायेगा, किन्तु यदि मुख्य मामले में सच्चाई का अंश है तो उक्त कारणवश उनकी साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह साक्ष्य में से वास्तविक सच्चाई का पता लगाये तथा इस क्रम में यह स्मरण रखना आवश्यक है कि कोई न्यायाधीश दांडिक विचारण में मात्र यह सुनिश्चित करने के लिये पीठासीन नहीं होता कि कोई निर्दोष व्यक्ति दण्डित न किया जाये अपितु न्यायाधीश यह सुनिश्चित करने के लिये भी कर्तव्यबद्ध है कि अपराधी व्यक्ति बच न निकले।
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बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि ब्रजेष की उक्त चोट को अभियोजन ने स्पष्टीकृत नहीं किया है अतः अभियोजन की कहानी युक्तियुक्त संदेहग्रस्त हो जाती है। इस तर्क के समर्थन में न्याय दृष्टांत डी.बी.शणमुगम विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1997 (एस.सी.) 2583 का अवलंब भी लिया गया है, जिनमें अभियुक्त पक्ष को आयी चोटों के स्पष्ट न किये जाने के बारे में विधिक स्थिति पर विचार किया गया है।
25. न्याय दृष्टांत डी.बी.शणमुगम (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिषा निर्धारक निर्णय लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर 1976 (एस.सी.) 2263 का अवलंब लेते हुये इस स्थिति को स्पष्ट किया गया है कि यदि अभियुक्त पक्ष की चोटें गंभीर प्रकृति की है और उन्हें स्पष्ट नहीं किया गया है, वहाॅं यह उपधारित किया जा सकता है कि अभियोजन ने घटना की वस्तु-स्थिति को छिपाने का प्रयास किया है।
26. वर्तमान मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि अभियोजन के द्वारा अभियुक्त ब्रजेष की चोटों को छिपाने का प्रयास किया गया है, क्योंकि ब्रजेष के गिरफ्तारी पत्रक प्र.पी-3 की कंडिका 7 में ही इस बात का उल्लेख है कि दिनाॅंक 04.06.2009 को बंदी बनाये जाते समय उसके बांये हाथ की दूसरी ऊंगली में कटने की चोट पायी गयी। तद्क्रम में उसका मेडिकल परीक्षण अभियोजन के द्वारा कराया एवं मेडिकल परीक्षण प्रतिवेदन प्र.डी-4 अभियोगपत्र के साथ प्रस्तुत किया गया। अभियुक्त ब्रजेष भील के द्वारा हरिनारायण (अ.सा.2) को ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया गया है कि उसने प्रष्नगत घटना के समय या उसके पूर्व उसकी ऊंगली को काट लिया था। कंडिका 9 में हरिनारायण (अ.सा.2) को मात्र यह सुझाव दिया गया है कि उसके लड़के संजय ने दिन के 5-6 बजे डण्डे से मारपीट की थी, निष्चय ही डण्डे से ऊंगली का कटना संभव नहीं है। साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि 4 जून को बंदी बनाये जाने से पूर्व अभियुक्त ब्रजेष के द्वारा उसके बांये हाथ में आयी उक्त चोट के बारे में हरिनारायण (अ.सा.2) या अन्य के विरूद्ध कोई षिकायत पुलिस में नहीं की गयी है। ऐसी दषा में यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रष्नगत चोट उसे प्रष्नगत घटनाक्रम में कारित हुयी।
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एकल साक्षी-15. यद्यपि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में ऐसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूर्णतः विष्वसनीय होनी चाहिये। यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वादी वेलू थिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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13. दिनेष कुमार (अ.सा.2) का नाम प्राथमिकी प्र.डी-3 में प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में नहीं लिखाया गया है तथा इस आधार पर बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) की साक्ष्य को प्रत्यक्षदर्षी साक्षी की साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाना विधि-सम्मत नहीं होगा। लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट अपने आप में घटना का विस्तृत ज्ञानकोष नहीं है तथा ऐसी रिपोर्ट में मामले की एक सामान्य तस्वीर होना ही आवष्यक है तथा यह जरूरी नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित विषिष्टियाॅं उल्लिखित की जाये, संदर्भ:- बल्देव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 (एस.सी.) 372.
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11. उक्त क्रम में सजनसिंह (अ.सा.3) की अभिसाक्ष्य भी दृष्ट्व्य है। यद्यपि अभियोजन ने इस साक्षी को पक्ष विरोधी घोषित किया है, लेकिन यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि मात्र पक्ष विरोधी घोषित किये जाने से किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूरी तरह धुल नहीं जाती है तथा यदि उसका कोई अंष विष्वास योग्य है तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है। (संदर्भ:- खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853)
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15. इस बात के बावजूद कि पंच साक्षी देवेन्द्र सिंह (अ.सा.3) एवं मांगीलाल (अ.सा.11) की अभिसाक्ष्य छत्रपाल सिंह सोलंकी (अ.सा.12) की अभिसाक्ष्य को सम्पुष्ट नहीं करती है, छत्रपाल सिंह सोलंकी (अ.सा.12) की अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से इस आधार पर रदद् नहीं किया जा सकता कि वे पुलिस अधिकारी हैं, संदर्भ:- न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425 ।
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19. उक्त पृष्ठभूमि में अभिलेख पर प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में एक मात्र रमेष (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य शेष रह जाती है। बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में यह तर्क किया गया है कि रमेष (अ.सा.1) जो एकल हितबद्ध साक्षी है तथा जिसकी अभिसाक्ष्य की सम्पुष्टि किसी स्वतंत्र स्त्रोत से नहीं हुयी है पर विष्वास किया जाना सुरक्षित नहीं है, लेकिन उक्त तर्क विधि सम्मत न होने के कारण स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। न्याय दृष्टांत वादी वेलूथिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 के मामले में यह ठहराया गया है कि यदि एकल साक्षी पूर्णतः विष्वास योग्य है तो स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि के अभाव में भी उसकी अभिसाक्ष्य पर निर्भर किया जा सकता है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी.-401 में पुनः रेखांकित किया गया है। जहाॅं तक स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि का प्रष्न है यह आवष्यक नहीं है कि प्रत्येक मामले में स्वतंत्र साक्षी उपलब्ध हों। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998 में यह इंगित किया गया है कि यह देखने में आया है कि स्वतंत्र साक्षी प्रायः अभियोजन घटनाक्रम का समर्थन करने के लिये बहुत अधिक इच्छुक नहीं रहते हैं, ऐसी दषा में उपलब्ध साक्ष्य को मात्र यह कहकर अस्वीकृत कर देना कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसका समर्थन नहीं होता है, उचित नहीं है।
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13. दिनेष कुमार (अ.सा.2) का नाम प्राथमिकी प्र.डी-3 में प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में नहीं लिखाया गया है तथा इस आधार पर बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) की साक्ष्य को प्रत्यक्षदर्षी साक्षी की साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाना विधि-सम्मत नहीं होगा। लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट अपने आप में घटना का विस्तृत ज्ञानकोष नहीं है तथा ऐसी रिपोर्ट में मामले की एक सामान्य तस्वीर होना ही आवष्यक है तथा यह जरूरी नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित विषिष्टियाॅं उल्लिखित की जाये, संदर्भ:- बल्देव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 (एस.सी.) 372. इस क्रम में यह बात भी उल्लेखनीय है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) को प्रतिपरीक्षण की कंडिका 5 में यह सुझाव दिया गया है जब टापरी जली तो वह, उसका पिता (परसराम-अ.सा.1), रामसिंह तथा मल्की बाई मौजूद थे, जिसे इस साक्षी ने स्वीकार किया है। इस सुझाव के परिप्रेक्ष्य में भी घटनास्थल पर दिनेष कुमार (अ.सा.2) की उपस्थिति संदेहास्पद नहीं लगती है।
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11. उक्त क्रम में सजनसिंह (अ.सा.3) की अभिसाक्ष्य भी दृष्ट्व्य है। यद्यपि अभियोजन ने इस साक्षी को पक्ष विरोधी घोषित किया है, लेकिन यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि मात्र पक्ष विरोधी घोषित किये जाने से किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूरी तरह धुल नहीं जाती है तथा यदि उसका कोई अंष विष्वास योग्य है तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है। (संदर्भ:- खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853)
लालाराम मीणा, अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश गाडरवारा भोपाल
लेखबद्ध की गयी जन्मतिथि (08.09.1991) के आधार या स्त्रोत का कोई पता नहीं चलता है। ऐसी स्थिति में उसका अपने आप में कोई साक्ष्यगत महत्व नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अकील विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1998(2) एम.पी.एल.जेे. पृष्ठ 199 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। (एस.टी. 15/10 पेज-9)
2. अभियेाक्त्रि के अस्थि विकास के संबंध में:-
अस्थि विकास जाॅच के आधार पर निष्कर्षित आयु के विषय में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि इसमें दोनों ओर दो वर्ष का विचलन हो सकता है तथा ऐसे विचलन का लाभ स्वाभाविक रूप से अभियुक्त पक्ष को मिलना चाहिये, संदर्भ- शीला बाई विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1997(1) विधि भास्वर 94. अकील विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1998(2) एम.पी.एल.जेे. पृष्ठ 199 एवं जयमाला विरूद्ध होम सेकेट्री जम्मू काष्मीर, ए.आई.आर. 1982 सु.को. 1297
3. न्याय दृष्टांत पंजाब राज्य विरूद्ध गुरमितसिंह आदि, 1996(2) एस.सी.सी. 384 (पैरा-13) में अभियोक्त्री तथा उसके माता-पिता द्वारा अभियोक्त्री की आयु के बारे में दी गयी मौखिक, अखण्डित अभिसाक्ष्य को स्वीकार्य माना गया है।
4. अभियोक्त्रि की एकल विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
इस क्रम में न्याय दृष्टांत श्री नारायण शाह विरूद्ध त्रिपुरा राज्य, (2004) 7 सु.को.के. 7751 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि बलात्संग के मामले में अभियोक्त्री की एकल असम्पुष्ट साक्ष्य यदि विश्वास योग्य पायी जाती है तो सम्पुष्टि के बिना भी उसके आधार पर दोषसिद्धि का निष्कर्ष अभिलिखित किया जा सकता है।
5. बलात्संग के मामले में विलंब से रिपोर्ट दर्ज कराने में हुए विलंब को घातक नहीं माना गया है:-
इस क्रम में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत हरपालसिंह विरूद्ध हिमाचल प्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 361 में किया गया यह प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि बलात्कार के मामलों में पीडि़ता महिला तथा उसके परिवार का सम्मान दांव पर लगा रहता है। अतः ऐसे मामलों में विचार-विमर्श कर किंचित देरी से पुलिस में रिपोर्ट करना असामान्य नहीं है, उक्त मामले में प्राथमिकी लेख कराने में हुये दस दिन के विलम्ब को भी घातक नहीं माना गया।
6. प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में हुए विलंब के आधार पर अभियोजन कहानी को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है:-
न्याय दृष्टांत तारासिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी. 536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलम्ब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविश्वसनीय ठहराने का आधार नही बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलम्ब को स्पष्ट करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक है। उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां किसी बच्ची के सम्मान और ख्याति का मुददा अंतर्वलित हो वहाॅं परिवार के वरिष्ठ सदस्यों से परामर्श लिये बिना पुलिस मे रिपोर्ट न लिखाना कतई अस्वाभाविक नहीं है।
7. साक्षी की साक्ष्य में विभिन्नता स्वभाविक है:-
जब तक विसंगतियाॅं मूल प्रश्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नहीं पड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईश्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है, संदर्भ - म.प्र.राज्य विरूद्ध रामकिशोर 1993 (1) एम.पी.जे.आर. 119.
8. न्यायालय को महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए:-
न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, संदर्भ- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272.
9. अभियोक्त्रि द्वारा विलंब से अपनी मां से घटना का हाल बताना:-
न्याय दृष्टांत रामेष्वर विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 54 के मामले में जहाॅं 8 साल की पीडि़ता बच्ची ने घटना के लगभग 4 घण्टे बाद अपनी माॅं को घटनाक्रम बताया था, वहाॅं उसे स्वतंत्र संपुष्टिकारक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया।
10. अभियोक्त्रि द्वारा आरोपी पर धमकी देकर भगाकर ले जाकर विभिन्न स्थानों पर उसके साथ घूमी तो वह सहमत पक्षकार मानी गई है:-
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत कैलाष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज.-41 (एम.पी) भी अवलोकनीय है, जिसमें इस तथ्य-स्थिति के परिप्रेक्ष्य में कि अभियोक्त्री स्वतंत्र रूप से अभियुक्त के साथ भिन्न-भिन्न स्थानों पर काफी समय तक घूमती रही, लेकिन इसके बावजूद उसने किसी से कोई षिकायत नहीं की, यह माना जायेगा कि उसका आचरण सहमतिपूर्ण था।
अभियोक्त्री (अ.सा.10) अपनी सहमति से अभियुक्त के साथ भोपाल गयी, अपनी सहमति से फोटोग्राफ खिंचवाया तथा अनेक बार यह अवसर उपलब्ध होने के बावजूद भी उसने कथित बलात् व्यपहरण की षिकायत किसी से नहीं की, जो स्पष्ट रूप से यह दर्षाता है कि वह अपनी सहमति से अभियुक्त के साथ गयी तथा उसके और अभियुक्त के बीच जो भी शारीरिक सम्बन्ध रहें वह सहमतिपूर्ण रहे। इस संदर्भ में न्याय दृष्टांत पेरू विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1996(1) एम.पी.जे.आर.शार्ट नोट-4. सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत बापूलाल विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2002 क्रि.लाॅ.रि. (एम.पी.)-139 के मामले में अभियोक्त्री, जिसके शरीर पर कोई क्षतियाॅ नहीं पायी गयी थी तथा जो अभियुक्त की संगत में लंबे समय तक विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करती रही थी तथा जिसे इस अवधि में अनेक बार यह अवसर उपलब्ध था कि वह कथित बलात् व्यपहरण के बारे में लोगों को षिकायत करे, लेकिन उसके द्वारा ऐसा नहीं किया गया, यह ठहराया गया कि अभियोक्त्री के आचरण से सुरक्षित रूप से यह निष्कर्षित किया जा सकता है कि उसका आचरण सहमतिपूर्ण था एवं उस दषा में, जबकि उसकी आयु का 18 वर्ष से कम होना प्रमाणित नहीं है, अभियुक्त को दोषी नहीं माना जा सकता है।
11. अभियोक्त्रि के नाबालिग होने के तथ्य को प्रमाणित किया जाना आवश्यक है:-
न्याय दृष्टांत शांतिदेवी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1997 क्रि.ला.रि. (एम.पी.)-101 के मामले में यह ठहराया गया है कि आपराधिक शास्त्र का यह सुस्पष्ट सिद्धांत है कि किसी अपराध को स्थापित करने के लिये उसके सभी अवयवों को अभियोजन द्वारा संदेह के परे प्रमाणित किया जाना चाहिये तथा जहाॅं मामला स्त्री के व्यपहरण से संबंधित है, वहाॅं यह बात कि आयु 18 वर्ष से कम थी, एक महत्वपूर्ण अवयव है, जिसे प्रमाणित किया जाना आवष्यक है।
12. अभियोक्त्रि के जन्म प्रमाण के संबंध में:-
उक्त प्रलेखीय साक्ष्य के विष्लेषण के पूर्व सुसंगत विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। माखन विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2003(3) एम.पी.एल.जे.-115 के मामले में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत उमेषचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1982 एस.सी.-1057 तथा रौनकी सरूप विरूद्ध राज्य, ए.आई.आर. 1970 पंजाब एवं हरियाणा-450 को उद्धृत करते हुये यह ठहराया गया है कि विद्यालय पंजी (छात्र पंजी) में की गयी प्रविष्ठियाॅ उस दषा में बहुत महत्व नहीं रखती हैं, जबकि यह स्थापित करने के लिये कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है कि ऐसी प्रविष्ठियों का आधार क्या है। उक्त मामले में मुन्नालाल विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1977 जे.एल.जे.-731 (खण्डपीठ) को उद्धृत करते हुये यह भी इंगित किया गया है कि अभियोक्त्री की आयु को प्रमाणित करने के लिये सर्वश्रेष्ठ प्रमाण उसके माता-पिता की साक्ष्य तथा जन्म प्रमाण-पत्र है तथा जहाॅ उनका परीक्षण नहीं कराया गया है तथा जन्म प्रमाण-पत्र प्रस्तुत नहीं किया गया है, वहाॅं उस स्थिति में जबकि विद्यालय पंजी में की गयी प्रविष्ठियों का आधार ही प्रकट नहीं है, विद्यालय पंजी की प्रविष्टियों का महत्व नहीं रह जाता है।
एक अन्य न्याय दृष्टांत रवीन्द्र सिंह गोरखी विरूद्ध उत्तरप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 2006 (इलाहाबाद) -2157 के मामले में इस विधिक सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है कि आयु के संबंध में साक्ष्य के विष्लेषण के लिये सिविल या दाण्डिक मामलों में पृथक-पृथक मानदण्ड लागू नहीं किये जा सकते हैं। इस मामले में प्रधान अध्यापक ने यह प्रकट किया था कि उसे जन्मतिथि के बारे में कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं है तथा हो सकता है कि अभियुक्त ने, जिसकी आयु का विवाद उक्त मामले में अंतर्वलित था, स्वयं जन्मतिथि के बारे में सूचना दी हो। ऐसी दषा में तत्संबंधित प्रविष्टि को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया गया।
आयु निर्धारण के बिन्दु पर विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये उक्त अवलंबित न्याय दृष्टांतों के अलावा कुछ अन्य न्याय निर्णयों पर भी दृष्टिपात किया जाना असंगत नहीं होगा। न्याय दृष्टांत पंजाब राज्य विरूद्ध मोहिंदरसिंह, ए.आई.आर.-2008 एस.सी.1868 में प्रतिपादित किया गया है कि विद्यालय प्रवेष पंजी में छात्र के पिता, संरक्षक या निकट संबंधी द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर की गयी प्रविष्टियाॅ भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 उपधारा 5 के अंतर्गत अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आधिकारिक प्रकृति की साक्ष्य मानी जायेगी जब तक कि यह स्थापित न कर दिया जाये कि ऐसा किया जाना संभव नहीं था।
न्याय दृष्टांत उमेषचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1982 एस.सी.1057 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि आयुु के विनिष्चय के संबंध में सामान्यतः मौखिक साक्ष्य बहुत उपयोगी नहीं है तथा ऐसे मामलो में प्रलेखीय साक्ष्य निर्भर योग्य हो सकती है यदि उसकी प्रमाणिकता प्रकट हो। इस मामले में यह ठहराया गया कि विद्यालय छात्र पंजी में जन्मतिथि के बारे में की गयी प्रविष्टियाॅं अच्छी साक्ष्य की परिधि में आती है तथा ऐसी प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि संबंधित पंजी लोकसेवक के द्वारा ही संधारित की गयी हो, अपितु कामकाज के सामान्य अनुक्रम में विधि के अंतर्गत संधारित की गयी पंजी में यथाविधि की गयी प्रविष्टियों को भी महत्व दिया जाना चाहिये।
13. अभियोक्त्रि की जन्मतिथि विद्यालय में किस आधार पर लिखाई गई, बताना आवश्यक है:-
न्याय दृष्टांत सुधा विरूद्ध चरण सिंह व एक अन्य, 2007(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-118 के मामले में अभियोजन ने विद्यालय पंजी में अभियोक्त्री की जन्मतिथि की प्रविष्टियों के विषय में अवलम्ब लेना चाहा था, लेकिन ऐसी कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी थी कि किस प्रमाण के आधार पर और किस के कहने पर विद्यालय प्राधिकारी द्वारा ये प्रविष्टियाॅं की गयीं। अभियोक्त्री के पिता ने यह स्वीकार किया था कि अभियोक्त्री की जन्मपत्री तैयार नहीं की गयी है न ही उसके पास जन्मपत्री का कोई लिखित रिकार्ड है और न ही उसने जन्म के विषय में जन्म के समय ग्राम कोटवार, सरपंच या ग्राम के चैकीदार को कोई सूचना दी थी, वह स्वयं अपनी तथा अन्य बच्चों की जन्मतिथि बताने में असफल रहा था। ऐसी दषा में विद्यालय पंजी में की गयी जन्म विषयक् प्रविष्टियों को महत्व नहीं दिया गया।
इस क्रम में न्याय दृष्टांत कैलाष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज. 41(म.प्र.) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसकी कंडिका 6 में विद्यालय छात्र पंजी की प्रविष्टियों और उसके आधार पर जारी ऐसे प्रमाण-पत्र के महत्व के बारे में विचार किया गया, जिसके संबंध में यह स्थापित नहीं हुआ था कि वास्तव मंे जन्मतिथि किसके द्वारा लिखायी गयी तथा उसका आधार क्या था। इस मामले में ऐसे प्रमाण-पत्र को साक्ष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं माना गया।
14. संरक्षक द्वारा विद्यालय में छात्र/छात्रा की आयु सामान्यतः कम कर लिखाने की प्रवृत्ति होती है:-
न्याय दृष्टांत प्रवाकर पाटी विरूद्ध अजय कुमार दास व एक अन्य, 1996 क्रि.लाॅ.ज. 2626 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा यह भी ठहराया गया है कि विद्यालय प्रवेष पंजी में छात्र की जन्मतिथि विषयक् प्रविष्टियों को बहुत अधिक निर्भर योग्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि संरक्षकों में स्वाभाविक रूप से प्रवेष के समय आयु को कम करके लिखाने की प्रवृत्ति होती है।
15. धारा 366क के आरोप को सिद्ध करने के लिए निम्न अवयव प्रमाणित किए जाने चाहिए:-
जहाॅं तक ’संहिता’ की धारा 366(क) के आरोप का संबंध है, न्याय दृष्टांत लालता प्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, क्रि.लाॅ.रि. (एस.सी.)-1979 पेज-114 के मामले प्रतिपादित किया गया कि ’संहिता’ की धारा 366(क) का अपराध स्थापित करने के लिये दो तत्वों को प्रमाणित किया जाना चाहिये, प्रथम यह कि संबंधित महिला को विधिपूर्ण संरक्षकता से अपहृत या व्यपहृत किया गया, द्वितीय यह कि उसे किसी व्यक्ति के साथ विवाह हेतु बाध्य करने के आषय से अथवा उसकी इच्छा के विरूद्ध अयुक्त सम्भोग के लिये विवष या विलुब्ध करने के आषय से व्यपहृत किया गया।
16. ग्रामीण परिवेश के व्यक्तियों से अभियोक्त्रि की निश्चित आयु की अपेक्षा करना अपने आप में रहस्यपूर्ण होगा:-
न्याय दृष्टांत सोमनाथ भानूदास मोरे विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, दाण्डिक अपील क्र. 134/2008 मुंबई उच्च न्यायालय, औरंगाबाद पीठ, निर्णय दिनाॅंक 29.03.2008 की कंडिका 11 में प्रकट की गयी यह स्थिति इस क्रम में सुसंगत एवं उल्लेखनीय है कि यह आवष्यक नहीं है कि ग्रामीण परिवेष के समाज के बिल्कुल निचले तबके से आने वाले मामलों में पिता को पीडि़त व्यक्ति की निष्चित जन्मतिथि का ज्ञान हो। वस्तुतः ऐसे ग्रामीण व्यक्तियों से निष्चित जन्मतिथि की अपेक्षा करना ही अपने आप में रहस्यपूर्ण होगा।
उमेषचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1982 एस.सी.1057के मामले में इस बात का संज्ञान माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा लिया गया कि सामान्यतः ग्रामीण व्यक्ति जन्म और मृत्यु कीं सूचना देने के बारे में बहुत सजग नहीं होते हैं तथा इस बारे में यदि कोई व्यतिक्रम है तो उसे अन्य साक्ष्य के लिये घातक नहीं माना जा सकता है। इस मामले में न्याय दृष्टांत मोहम्मद इकराम हुसैन विरूद्ध उत्तरप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1964 एस.सी.-1625 में न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह द्वारा किये गये इस प्रतिपादन का संदर्भ भी दिया गया कि विद्यालय छात्र पंजी में की गयी प्रविष्टि, जो विवाद होने के पूर्व की थी, साक्ष्यगत महत्व रखती है।
17. शासकीय या कारोबार के क्रम में की गई प्रविष्टी ग्राह्य है:-
अवलंबित न्याय दृष्टांत सुषील कुमार विरूद्ध राकेष कुमार, ए.आई.आर. 2004 एस.सी.-230 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि शासकीय या अन्य किसी कारोबार के क्रम में संधारित की जाने वाली प्रविष्ठियाॅं भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 35 के अंतर्गत सुसंगत एवं ग्राहय है।
18. प्रधानाध्यापक द्वारा प्रमाणित की गई आयु को संसुगत माना गया है:-
न्याय दृष्टांत हरपालसिंह विरूद्ध हिमाचल प्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 361 के मामले में विद्यालय छात्र पंजी में आयु विषयक की गयी प्रविष्टि को, जिसे प्रधान अध्यापक ने प्रमाणित किया था, आयु निर्धारण के लिये सुसंगत एवं अवलंबनीय माना गया।
19. बलात्संग के मामलों में क्षुद्र किस्म की विसंगतियों के आधार पर साक्ष्य को अस्वीकृत नहीं किया जाना चाहिए:-
इस क्रम में न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध जी.एस.मूर्ति, 1997(1) एस.सी.सी.-272 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’संहिता’ की धारा 376 के मामलों में न्यायालयों को पूर्ण सजगता एवं संवदेनषीलता के साथ अभिलेखगत साक्ष्य का मूल्यांकन एवं विष्लेषण सम्पूर्ण मामले की पृष्ठभूमि के आधार पर करना चाहिये न कि एकांगी तौर पर तथा यदि वृहद संभावना दोषिता की ओर इंगित करती है तो क्षुद्र किस्म की विसंगतियों अथवा दुर्बलताओं के आधार पर साक्ष्य को अस्वीकृत नहीं किया जाना चाहिये। न्याय दृष्टांत राज्य विरूद्ध गुरमीतसिंह, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1396 के मामले में भी माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने ऐसे मामलों में यथार्थ परक दृष्टिकोण अपनाये जाने की सलाह दी है।
आपराधिक अपील
1. पक्षविरोधी साक्षी की पूरी साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता, उसका सावधानीपूर्वक अभियोजन के लिए समर्थित बिन्दुओं पर विश्लेषण करना चाहिए ।
यद्यपि सहज धारणा यह है कि पक्षविरोधी घोषित किये जाने की दषा में संबंधित साक्षी का महत्व पूरी तरह समाप्त हो जाता है, लेकिन जैसा कि न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि यह धारणा सही नहीं है अपितु ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य को, जिसे अभियोजन के द्वारा पक्ष विरोधी घोषित कर दिया गया है, यांत्रिक रूप से रद्द करने के बजाय सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर यह देखना आवष्यक है कि क्या उसका कोई हिस्सा विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य है।
2. साक्षी की साक्ष्य में आई भिन्नता या विरोधाभाष के कारण साक्षी की पूरी साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता है:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि साक्ष्य में व्याप्त ऐसी विसंगतियों और विरोधाभासों को जो वर्णनात्मक भिन्नता के कारण प्रकट हुये हैं या फिर अतिरंजनाओं के कारण आये हैं, उस स्थिति में सम्पूर्ण साक्ष्य को रद्द करने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिये। जबकि आधारभूत कथा में सत्य का अंष मौजूद हो, संदर्भ:- भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753. अतः खुषीलाल (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य को उक्त कारणवष अस्वीकार करना विधि सम्मत नहीं होगा।
3. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य को मात्र उसके हितबद्ध होने के कारण नकारा नहीं जा सकता है:-
इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर कि वह हितबद्ध है, यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता है।
4. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य यदि विश्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य यदि अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण तथा विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं।
5. किसी साक्षी की साक्ष्य को मात्र इस कारण अस्वीकार नहंी किया जा सकता कि उसके समर्थन में किसी स्वतंत्र साक्षी की साक्ष्य नहीं कराई गई ।
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि उसकी सम्पुष्टि के लिये स्वतंत्र साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है। संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.लाॅ.जर्नल पेज 88. । जहाॅं साक्षीगण की अभिसाक्ष्य अन्यथा विष्वास योग्य है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई त्रुटि नहीं मानी जा सकती है।
6. एकल विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, चाहे अभियोजन द्वारा प्रत्यक्षदर्शी साक्षी प्रस्तुत भी न किया हो:-
अभियोजन का मामला विष्णुप्रसाद (अ.सा.1) की एकल साक्ष्य पर आधारित है, क्योंकि प्रत्यक्षदर्षी साक्षी बताये जाने वाले भाऊसिंह को अभियोजन ने प्रस्तुत नहीं किया है। लेकिन मात्र इस आधार पर कि प्रत्यक्षदर्षी साक्षी को प्रस्तुत नहीं किया गया, विष्णुप्रसाद (अ.सा.1) की साक्ष्य को यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता। यदि उसकी साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि निर्धारित की जा सकती है, संदर्भ:- न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य 2003 (3) एस.सी.सी.-401.
7. यदि घटना में आरोपी/अपीलार्थी को भी चोटें आई हों तो अभियोजन आरोपी को आई चोटों के संबंध में स्पष्टीकरण देना होगा:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि अभियुक्त पक्ष को चोटें है जो अत्यंत छुद्र स्वरूप की नहीं है तो अभियोजन का यह दायित्व है कि वह यह स्पष्ट करें कि ये चोटें कैसे आई अन्यथा यह उपधारित किया जायेगा कि अभियोजन घटना के स्वरूप और उद्गम को छिपा रहा है, संदर्भ लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263 ।
8. अभियोजन के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को आई प्रत्येक चोट का स्पष्टीकरण न्यायालय में दे, गंभीर चोट के संबध्ंा में स्पष्टीकरण देना आवश्यक है लेकिन क्षुद्र और सतही चोटों के संबध्ंा में स्पष्टीकरण देना आवश्यक नहीं है:-
अभियोजन पक्ष के द्वारा बचाव पक्ष की चोटांे को स्पष्ट किये जाने के बारे में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि अभियोजन के लिये यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को कारित की गयी प्रत्येक चोट को न्यायालय के समक्ष स्पष्टीकृत करें। अभियोजन अभियुक्त पक्ष को आई क्षुद्र और सतही चोटों को स्पष्ट करने के लिये दायित्वाधीन नहीं है। हाॅं, यदि चोटें गम्भीर हैं तो उन्हें स्पष्ट किया जाना आवष्यक है, संदर्भः- श्रीराम विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2004(1) जे.एल.जे.-256 (एस.सी.) एवं लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263
9. साक्ष्य मूल्यांकन के पश्चात् यदि उचित पाई गई, तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
यदि उचित मूल्यांकन एवं विवेचना के बाद साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण पाई गई है, तो उसके आधार पर अभिलिखित की गई दोष-सिद्धि को त्रुटिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है, संदर्भ:- लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी. 401
10. एक झंूठ, सब झंूठ का सिद्धांत दांडिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है:-
यह विधिक स्थिति भी यहाॅं संदर्भ योग्य है कि ’’एक झूंठ सब झूंठ का सिद्धांत’’ दाण्डिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है, संदर्भ:- जकी उर्फ सलवाराज विरूद्ध राज्य 2007 ब्तण् स्ण् श्रण् 1671 (एस.सी)।
11. किसी साक्षी की साक्ष्य को इस कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि उसका समर्थन किसी स्वतंत्र स्त्रोत से नहंी किया गया:-
यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
12. प्रतिकर दिलाये धारा 357 द.प्र.सं. की शक्ति का प्रयोग करना चाहिए :-
माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने शनैः-षनैः इस बात पर बल दिया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के प्रावधानों का समुचित, प्रभावपूर्ण एवं उदारतापूर्वक उपयोग किया जाना चाहिये। इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिकिषन विरूद्ध सुखवीर सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 2127 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 न्यायालय को इस बात के लिये सषक्त करती है कि वह पीडि़त व्यक्ति को युक्तियुक्त प्रतिकर दिलाये। ऐसा प्रतिकर अभियुक्त पर अधिरोपित अर्थदण्ड से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(1) के अंतर्गत तथा अन्यथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3) के अंतर्गत दिलाया जा सकता है। माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने व्यक्त किया है कि यह शक्ति पीडि़त व्यक्ति को इस बात का एहसास कराने के लिये है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में उसे विस्मृत नहीं किया है। अपराधों के संबंध में यह एक रचनात्मक पहुॅच है तथा आपराधिक न्याय व्यवस्था को आगे ले जाने वाला एक कदम है, जिसका उपयोग सकारात्मक, सार्थक एवं प्रभावी तरीके से किया जाना चाहिये। यह अपेक्षा की जाती है कि भविष्य में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट उक्त विधिक स्थिति के क्रम में अपनी शक्तियों का समुचित उपयोग करेंगे।
13. विवाहिता के साथ प्रताड़ना के मामले में यह आवश्यक नहीं है कि उसे इस प्रकार प्रताडि़त किया जाए कि आसपास/पडौस के लोगों की जानकारी में आए, यह आवश्यक नहीं है कि अभियोजन आसपास/पडौस के लोगों को प्रताड़ना के संबध्ंा में साक्ष्य हेतु प्रस्तुत करे:-
यदि निकट संबंधी ही साक्षी के रूप में प्रस्तुत किए गए तो उनकी अभिसाक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मंा, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।
न्याय दृष्टांत पष्चिमी बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल, 1994 क्रिमिनल लाॅ जनरल 2104 (एस.सी.) में यह अभिनिर्धारण किया गया है कि सामान्यतः यह अपेक्षित नहीं है कि पति तथा उसके रिष्तेदारों द्वारा वधु के साथ प्रताड़नापूर्ण व्यवहार इस प्रकार किया जाये कि वो पड़ोसियों तथा आसपास रहने वाले किरायेदारों की जानकारी में आये, क्योंकि ऐसी स्थिति में पड़ोसी उन्हें असम्मान एवं अवमान की दृष्टि से देखेंगे अतः वधू के साथ ससुराल पक्ष द्वारा की जाने वाली प्रताड़ना के मामले में यह आवष्यक नहीं है कि अभियोजन पड़ोसियों तथा आसपास के लोगो को स्वतंत्र साक्षी के रूप में अपने मामले के समर्थन में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें।
उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि पीडि़त के निकट संबंधियों, जो अभियोजन में रूचि रखते हैं, की अभिसाक्ष्य को केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये कि स्वतंत्र साक्षियों से उसकी सम्पुष्टि नहीं हुयी है अपितु मामले के विषिष्ट तथ्यों के आधार पर उसकी विष्वसनीयता के बारे में विनिष्चय किया जाना चाहिये क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मंा, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।
14. दांडिक मामलों में अभियोजन को अपना मामला युक्तियुक्त संदेह से परे प्रमाणित करने का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं हैै, यह प्रत्येक मामले के तथ्य व परिस्थिति पर निर्भर करता है:-
उक्त मामले में गुरूवचनसिंह विरूद्ध सतपाल सिंह, ए.आई.आर. 1990 (सु.को.)209 का संदर्भ देते हुये यह भी प्रतिपादित किया गया हे कि दाण्डिक विचारण में अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को युक्तियुक्त संदेह के परे प्रमाणित किये जाने का कोई निष्चित मापदण्ड नहीं है तथा प्रत्येक मामले के तथ्यों, परिस्थितियों एवं साक्ष्य की गुणवत्ता के आधार पर निष्कर्ष निाकला जाना चाहिये
15. प्रथम सूचना रिपोर्ट में हुए विलंब के कारण पूरे मामले को अस्वीकार नहंी किया जा सकता है:-
न्याय दृष्टान्त तारासिंह विस्द्ध पंजाब राज्य, 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी.536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलम्ब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविष्वसनीय ठहराने का आधार नहीं बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलम्ब को स्पष्ट करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना आवष्यक है।
16. साक्षियों के कथनों में आए महत्वहीन विरोधाभाष या विसंगति से न्यायालय को प्रभावित नहीं होना चाहिए बल्कि न्यायालय को यह देखना चाहिए कि उक्त विसंगति एवं विरोधाभाष का प्रभाव मूल प्रश्न पर तो नहीं पड़ता है ।
साक्षियों के कथनों में व्याप्त विसंगतियों एवं उनके प्रभाव के संबंध में सुसंगत विधिक स्थिति भी इस संबंध में संदर्भ योग्य है. उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272. में यह ठहराया गया है कि न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, जब तक विसंगतियंा मूल प्रष्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नही ंपड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईष्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है। छोटे-छोटे बिन्दुओं पर गौण फर्क जो प्रकरण के केन्द्र बिन्दु को प्रभावित नहीं करते हैंद्व उन्हें तूल देकर आधारभूत साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता हैद्व संदर्भ- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध एम.के.एन्थोनी 1985 करेन्ट क्रिमनल जजमेंट सु.को.18.
17. विधि फरियादी पक्ष को यह अनुमति नहीं देती है कि वह अपीलार्थी के शांतिपूर्ण कब्जे में उसे बलपूर्वक बेदखल करे, अपीलार्थी को अपने आधिपत्य की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है:-
विधि उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देती है कि वे बलपूर्वक आपीलार्थीगण के शांतिपूर्ण कब्जे में हस्तक्षेप करें तथा विवादित भूमि से उनको बलपूर्वक बेदखल करे अतः उस सीमा तक अपने आधिपत्य की सुरक्षा करने का अधिकार उन्हें प्राप्त है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत गंगाप्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-(1) नोट-236 एवं गुड्डू उर्फ राकेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-2001(1) नोट -34 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। जिनमंे सम्पत्ति की प्रायवेट रक्षा के अधिकार के अस्तित्व होने की दषा मेें ’संहिता’ की धारा 323/34 की दोष-सिद्धि को उचित नहीं ठहराया गया है।
18. यदि मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती तो उसे रदद नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दशा में मामले को अविश्वसनीय ठहरा सकते हैं जहां मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो:-
न्याय दृष्टांत में ही संदर्भित माननीय सर्वोच्च न्यायालय न्याय दृष्टांत नागेन्द्र बाला विरूद्ध सुनीलचंद, ए.आई.आर. 1960 एस.सी.-706 में किये गये इस प्रतिपादन का संदर्भ आवष्यक है कि चिकित्सीय साक्ष्य एक अभिमत मात्र है तथा यदि मौखिक साक्ष्य अपने आप में स्पष्ट है तो मात्र इस आधार पर कि ऐसी मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती है, उसे रद्द नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दषा में मामले को अविष्सनीय ठहराया जा सकता है, जहाॅं मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो।
19. एकल साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, अगर वह विसंगतिविहीन एवं विश्वास योग्य हो:-
निष्चय ही विधि का ऐसा कोई नियम नहीं है कि एकल साक्ष्य पर दोष-सिद्धि आधारित नहीं की जा सकती है, लेकिन ऐसा करने के लिये यह आवष्यक है कि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य ठोस, विसंगति विहीन एवं विष्वास योग्य हो। इस संबंध में न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में प्रतिपादित विधिक स्थिति सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
20. आरोपी को दिया गया दण्ड उसके अपराध के समानुपातिक होना चाहिए:-
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा बार-बार यह निर्दिष्ट किया गया है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो, संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.
21. यदि किसी साक्षी की साक्ष्य में घटना के संबध्ंा में समर्थनकारक साक्ष्य है तो उसकी साक्ष्य में आई प्रकीण बिन्दुओं पर विसंगति के कारण पूरी साक्ष्य को नहीं नकारा जा सकता है:-
विधिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये कि यदि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य में आधारभूत घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो उसे प्रकीर्ण बिन्दुओं पर आई विसंगतियों और विरोधाभासों के आधार पर रद्द नहीं किया जाना चाहिये, संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897
22.अपीलार्थीगण/आरोपीगण की न्यायालय में पहचान के संबंध में:-
(325 क्रि.अ.क्र. 96/10 पेज-10)
विवेचना-क्रम में पहचान न कराये जाने के बाद न्यायालय में पहली बार की गयी पहचान कार्यवाही को सारभूत एवं महत्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना गया है, अपितु दुर्बल किस्म की साक्ष्य माना गया है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत अफसर विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009(3) एम.पी.डब्ल्यू.एन.नोट-63 संदर्भ योग्य है, जिसमें बार-बार न्यायालय आने-जाने के बाद विचारण के दौरान साक्षी न्यायालय में द्वारा की गयी पहचान को महत्वहीन ठहराया गया।
23. द.प्र.सं. की धारा 391 के तहत आवेदन पेश होने पर उक्त आवेदन का निराकरण अपील के साथ ही किया जाना चाहिए, न्यायालय स्वयं अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित कर सकता है या विचारण न्यायालय को निर्देशित कर सकता है:-
धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपील न्यायालय आवष्यक समझने पर अतिरिक्त साक्ष्य या तो स्वयं अभिलिखित कर सकता है अथवा संबंधित मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित करने का निर्देष दे सकता है। न्याय दृष्टांत धर्मेन्द्र भंडारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006 क्रि.लाॅ.रि. एम.पी.-216 में यह अभिनिर्धारण किया गया है कि धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के आवेदन का निराकरण अपील के साथ ही किया जाना चाहिये तथा यदि आवेदन पत्र स्वीकार किया जाता है तो अपील न्यायालय मामले को साक्ष्य अभिलिखित करने के लिये अधीनस्थ न्यायालय को भेज सकता है अथवा स्वयं साक्ष्य ले सकता है।
24. पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का अन्य साक्षियों की साक्ष्य की तरह ही मूल्यांकन किया जाना चाहिए तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोत से संपुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जाएगा :-
न्याय दृष्टांत करमजीत सिंह विरूद्ध राज्य, (2003) 5 एस.सी.सी. 291 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि पुलिस अधिकारी की अभिसासक्ष्य का मूल्यांकन भी उसी कसौटी पर किया जाना चाहिये, जिस कसौटी पर किसी दूसरे साक्षी की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोंत से सम्पुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जायेगा।
25. भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो:-
उक्त क्रम में ’संहिता’ की धारा 498(क) के निर्वचन के संबंध में दो न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं। न्याय दृष्टांत भास्करलाल शर्मा विरूद्ध मोनिका 2009(प्प्) एस.सी.आर.-408 के मामले में विस्तृत विवेचना के पष्चात् यह अभिनिर्धारित किया गया है कि भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो। उक्त मामले की कंडिका 52 इस क्रम में दृष्ट्व्य है, जिसमें यह ठहराया गया है कि सामान्य मारपीट की घटना ’संहिता’ के अंतर्गत किसी अन्य अपराध की परिधि में तो आ सकती है, लेकिन ’संहिता’ की धारा 498(क) की परिधि में लाने के लिये विनिर्दिष्ट स्थितियाॅं पूरी की जानी चाहिये।
26. हर प्रताड़ना क्रूरता की परिधि में नहीं आएगी, उसके लिए धन की अवैधानिक मांग होना जरूरी है:-
न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध मधुसूदनराव, जे.टी.-2008 (टवस.11) एस.सी.-454 भी इस संबंध मंे सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि प्रत्येक प्रकृति का प्रताड़नापूर्ण व्यवहार क्रूरता की परिधि में नहीं आयेगा तथा ऐसे व्यवहार को क्रूरता की परिधि में लाने के लिये आवष्यक है कि वह धन की अवैधानिक मांग से जुड़ा हुआ हो।
27. पुलिस अधिकारी की एकल साक्ष्य, जो स्वतंत्र साक्ष्य से परिपुष्ट नहीं है, के आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, जबकि वह विश्वास योग्य हो:-
विधि या प्रज्ञा का ऐसा कोई नियम नहीं है कि पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य स्वतंत्र संपुष्टि के बिना स्वीकार नहीं की जा सकती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 दृष्टांत ’ख’ के अंतर्गत ऐसी अपेक्षा केवल सह अपराधी की अभिसाक्ष्य के विषय में की गई है। न्यायालय यदि किसी विषिष्ट मामले में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य पाता है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस विधिक स्थिति के बारे में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट ने आलोच्य निर्णय में विभिन्न न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये विधिक स्थिति का उचित विष्लेषण किया है। इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी.2783 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
28. अपचारी बालक की सुपुदर्गी या स्वतंत्र करने के संबध्ंा में:-
जैसा कि न्याय दृष्टांत गड्डो उर्फ विनोद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य 2006(1) एम.पी.जे.आर. शार्टनोट- 35 में अभिनिर्धारित किया गया है, अपचारी बालक को सुुपुर्दगी पर दिये जाने या अभिरक्षा से मुक्त किये जाने के संबंध में मामले के गुण-दोषों के बजाय ’अधिनियम’ की धारा 12 के परिप्रेक्ष्य मंे सामान्य नियम यह है कि ऐसे किषोर को अभिरक्षा से मुक्त किया जाना चाहिये। अपवाद की स्थिति वहाॅं हो सकती है, जहाॅं पर यह विष्वास करने के युक्तियुक्त आधार हो कि अभिरक्षा से मुक्त किये जाने पर ऐसे किषोर के ज्ञात अपराधियों के सानिध्य में आने की संभावना है अथवा निरोध से मुक्त किये जाने पर उसको नैतिक, भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से खतरा होगा अथवा उसके कारण न्याय के हितों का हनन होगा।
29. पुलिस को नये तथ्य की जानकारी होना ही धारा 27 साक्ष्य अधिनियम में ग्राहॅय है, यदि वह तथ्य पुलिस की जानकारी में पहले से था तो वह उक्त अधिनियम की परिधि में साक्ष्य में ग्राहॅय नहीं है:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत ऐसी साक्ष्य ही ग्राह्य है, जिससे किसी तथ्य की जानकारी मिली हो, जहाॅं कोई तथ्य पूर्व से ही पुलिस की जानकारी में है, वहाॅं उस तथ्य का पुनः पता चलना धारा 27 साक्ष्य अधिनियम की परिधि में साक्ष्य के सुसंगत एवं ग्राह्य नहीं बनायेगा, संदर्भ:- अहीर राजा विरूद्ध राज्य ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 अतः कथित संसूचना आधारित बरामदगी अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता है।
30. धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:-
’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था। इस संबंध मंें न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
31. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-
उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है।
32. धारा 138 के संबध्ंा में:-
न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।
इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।
33.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।
34. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-
ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया । उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।
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7. मैंने उभय पक्ष के तर्क सुने एवं मूल अभिलेख का परिषीलन किया। विचारणीय प्रष्न यह है कि:-
’’क्या उपरोक्तानुसार भरण-पोषण भत्ता दिलाये जाने संबंधी विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट का आदेष अषुद्ध, अवैधाकि अथवा अनौचित्यपूर्ण है ?
8. जैसा कि न्याय दृष्टांत जागीर कौर विरूद्ध जसवंत सिंह, 1963 ए.आई.आर. (एस.सी.)-521 मंे अभिनिर्धारित किया गया है कि ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत सम्पादित की जाने वाली कार्यवाहियाॅं व्यवहार प्रकृति की संक्षिप्त स्वरूप की होती है, जिनका उद्देष्य असहाय व्यक्तियों को तात्कालिक सहायता पहुॅचाने का है, ताकि उन्हें जीवन यापन के लिये सड़क पर न भटकना पड़े। ऐसे मामलों में प्रमाण भार उतना कठोर नहीं होता है, जितना कि दाण्डिक मामलों में होता है, अपितु साक्ष्य बाहुल्यता एवं अधि-संभावनाओं की प्रबलताओं के आधार पर निष्कर्ष अभिलिखित किये जाने चाहिये।
9. ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहाॅं वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537.
10. जहाॅं तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है। .
अपराधिक रिविजन
9. ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहाॅं वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537.
10. जहाॅं तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है।
द0प्र0सं0 311
9. जैसा कि न्याय दृष्टांत जाहिरा हबीबुल्ला विरूद्ध गुजरात राज्य (2004) 4 एस.सी.सी.-158 में अभिनिर्धारित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के प्रावधान किसी पक्ष को यह अधिकार नहीं देते हैं कि वे किसी साक्षी को परीक्षण, पुनः परीक्षण या प्रतिपरीक्षण हेतु बुलाये, अपितु यह शक्ति न्यायालय को इस उद्देष्य से दी गयी है ताकि न्याय के हनन को तथा समाज एवं पक्षकारों को होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोका जा सके, इन प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय मामले के सम्यक् निर्णयन हेतु तथ्यों के प्रमाण की आवष्यकता महसूस करे।
498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता
9. न्याय दृष्टांत वाय. अब्राहम अजीथ विरूद्ध इंस्पेक्टर आॅफ पुलिस, 2004(8) एस.सी.सी.-10 के मामले मंें माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया है कि क्षेत्रीय अधिकारिता के अभाव में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498(ए) के अपराध के लिये न्यायालय द्वारा विचारण नहीं किया जा सकता है। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि किसी न्यायालय की अधिकारिता के क्षेत्र में क्रूरता का कोई कृत्य ही घटित नहीं हुआ है तो ऐसे न्यायालय को विचारण की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती हैै। न्याय दृष्टांत रमेष विरूद्ध तमिलनाडू राज्य, 2005(3) एस.सी.सी. 507 के मामले में इस विधिक स्थिति को पुनः दोहराया गया है।
10. न्याय दृष्टांत गुरमीत सिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006(1) एम.पी.एल.जे.-250 के मामले में भी वाय. अब्राहम अजीथ (पूर्वोक्त) का संदर्भ देते हुये इंदौर न्यायालय जहाॅं कि अभियोग प्रस्तुत किया गया था, की क्षेत्रीय अधिकारिता को इस आधार पर प्रमाणित नहीं माना गया कि इंदौर न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता में अभियुक्तगण के द्वारा क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था।
11. न्याय दृष्टांत तस्कीन अहमद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, आई.एल.आर.(2008) म.प्र.-29 वर्तमान मामले के लिये सर्वाधिक सुसंगत है। इस मामले में 8 व्यक्तियों के विरूद्ध अभियोग पत्र भोपाल न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था, जबकि उनमें से 5 अभियुक्तों के द्वारा भोपाल न्यायालय की अधिकारिता के अंतर्गत क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था। ऐसी स्थिति में यह ठहराया गया कि उनके विरूद्ध भोपाल न्यायालय को सुनवाई की अधिकारिता नहीं हो सकती है।
12. वर्तमान मामले में उक्त विधिक स्थिति तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 177 एवं 178 के प्रावधानों के प्रकाष में दृष्टिपात करने पर यह प्रकट होता है कि आवेदिका द्वारा प्रस्तुत की गयी लिखित षिकायत तथा अनुसंधान के दौरान अभिलिखित किये गये आवेदिका के धारा 161 द.प्र.सं. के कथन में रंचमात्र भी ऐसी कोई बात नहीं है कि अनावेदकगण ने सीहोर में उसके साथ किसी प्रकार का क्रूर या प्रताड़नापूर्ण व्यवहार किया था। ऐसी स्थिति में पूर्वाेक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में सीहोर स्थिति न्यायिक मजिस्ट्रेट को अनावेदकगण के विरूद्ध सुनवाई की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती है।
एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-
8. ’पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स सप्लाय एण्ड डिस्ट्रीब्यूशन आर्डर 1972, जो अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए, केन्द्रीय शासन द्वारा जारी किये गये है, में एलपीजी गैस को अत्यावश्यक वस्तु की श्रेणी में रखा गया है । न्याय दृष्टांत सुभाषचन्द्र गोयल विरूद्व उत्तरप्रदेश राज्य 1984 इलाहाबाद लाॅ जनरल 711 में भी एल.पी.जी. को अत्यावश्यक वस्तु माना गया है । अतः पुनरीक्षणकर्ता के विद्वान अधिवक्ता द्वारा किया यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है कि एल.पी.जी. गैस सिलेंडर अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत नहीं आती है ।
306 304बी 498वी
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धारा 306,304वी,498ए
13. उक्त परिपे्रक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या अभियुक्तगण ने मृतिका के साथ क्रूर व प्रताड़नापूर्ण व्यवहार कर उसे किसी प्रकार से आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित किया ? इस बारे में दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना आवष्यक है, जिसे ’संहिता’ की धारा 306 एवं 107 में प्रतिपादित एवं इंगित किया गया है। उक्त प्रावधानों के अनुसार आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उद्धृत करने या ऐसा करने के लिये सहायता करने से है, संदर्भ:- महावीर सिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1987 जे.एल.जे. 645. उक्त परिप्रेक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या वर्तमान मामले में अभियुक्तगण ने ममताबाई को आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित या उद्धृत किया अथवा ऐसा करने में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता की अथवा इस हेतु कोई षडयंत्र किया ?
14. उक्त क्रम में मामले की विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
-12. न्याय दृष्टांत महावीर सिंह आदि विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1987 जे.एल.जे.-645 मंे यह प्रतिपादित किया गया है कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उकसाने या ऐसा कृत्य करने के लिये सहायता करने से है।
13. उक्त क्रम में मामले की विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है।
14. न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त, मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
15. न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
16. वर्तमान मामले में अभियोजन का ऐसा कहना नहीं है कि अभियुक्तगण ने अंजूबाई को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित किया अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसे आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित अथवा प्रेरित किया।
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धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता की परिधि में रखना संभव नहीं है, क्योंकि आम तौर पर परिवार में यह स्थिति होती है कि जहाॅं पति यथोचित रूप से उर्पाजन नहीं करता है वहाॅं न केवल पत्नी और बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती है अपितुु आये दिन विवाद की स्थिति भी उत्पन्न होती है। लेकिन ऐसी स्थिति को ’संहिता’ की धारा 498(ए) के उद्देष्य के लिये मानसिक या शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबध्ंा में न्याय दृष्टांत पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरिलाल जैसवाल ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1418 में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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15. न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
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24. उक्त क्रम में यह स्पष्ट करना असंगत नहीं होगा कि ’संहिता’ की धारा 498(ए)(ए) में क्रूरता को जिस रूप में परिभाषित किया गया हे, वह केवल शारीरिक क्रूरता तक सीमित नहीं है, अपितु मानसिक प्रताड़नापूर्ण क्रूरता भी उसकी परिधि में आती है। इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल एवं एक अन्य, 1994 क्रि.लाॅ.ज. 2104 के मामले में यह ठहराया है कि मृतिका पुत्र वधु के साथ उसकी सास के द्वारा ’गाली-गलौच एवं दुव्र्यवहार’ के रूप मं किया गया व्यवहार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113(ए) एवं ’संहिता’ की धारा 498(ए) के संबंध में क्रूरतापूर्ण व्यवहार है।
25. जहाॅं तक क्रूरता स्थापित करने के लिये सा़क्ष्य का संबंध है, सामान्यतः विवाहित महिला के पति अथवा उसके रिश्तदारों के द्वारा प्रश्नगत उत्पीड़न एवं क्रूर व्यवहार चूॅकि सामान्यतः सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता है, अपितु घर की चारदीवारी के अंदर किये जाने वाले ऐसे व्यवहार के बारे में यह सावधानी भी बरती जाती है कि जनसामान्य की नजर से ऐसा व्यवहार छुपा रहे, इसलिये ऐसे व्यवहार के संबंध में पड़ोसियों की अभिसाक्ष्य का अभाव प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं बन सकता है तथा सामान्यतः मृतका के माता-पिता, संबंधी एवं मित्रों को मृतका द्वारा इस बारे में बतायी गयी बातें ही साक्ष्य के रूप में ्रपस्तुत की जा सकती है, संदर्भ:- पश्चिमी बंगाल राज्य वि. ओरीलाल जायसवाल, ए.आई.आर. 1994 सु.को. 1418 एवं विकास पाथी वि. आंध्रप्रदेश राज्य, 1989 क्रि.लाॅ.ज. 1186 आंध्रप्रदेश। मृतिका द्वारा मृत्यु की परिस्थितियों के संबंध में माता-पिता एवं परिचितों को बतायी गयी बातों को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत ठहराया गया है तथा उस क्रम में मृतिका द्वारा क्रूर व्यवहार के बारे में माता-पिता आदि को बतायी गयी बातें भी सुसंगत है, संदर्भ:- शरद विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1984 सु.को. 1622. उक्त विधिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान मामले के तथ्यों पर दृष्टिपात करना होगा।
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37. यह सर्वविदित है कि एक के बाद एक नये विधिक प्रावधानों के अधिनियमन के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार की घटनाओं में कमी नहीं आयी है। न्याय दृष्टांत कर्नाटक राज्य विरूद्ध एम.व्ही.मंजूनाथे गौड़ा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 809 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रकट किया है कि इस बारे में किये गये विधायन के प्रति न्यायालयों को संवेदनषील बनाया जाना आवष्यक है तथा ऐसे मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना सामाजिक हितों के अनुरूप नहीं होगा।
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302
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21. पारिस्थितिक साक्ष्य के मूल्यांकन के संबंध में इस विधिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जहाॅं साक्ष्य पारिस्थितिक स्वरूप की होती है, वहाॅं ऐसी परिस्थितियाॅं, जिनसे दोष संबंधी निष्कर्ष निकाला जाना है, प्रथमतः पूरी तरह से साबित की जानी चाहिये और इस प्रकार से साबित किये गये सभी तथ्यों को केवल अभियुक्त के दोष की उपकल्पना से संगत होना चाहिये। पुनः परिस्थितियों को निश्चयात्मक प्रकृति और प्रवृत्ति का होना चाहिये और उन्हें ऐसा होना चाहिये, जिससे कि दोषिता साबित किये जाने के लिये प्रस्थापित उपकल्पना के सिवाय अन्य प्रत्येक उपकल्पना अपवर्जित हो जाये। अन्य शब्दों में साक्ष्य की ऐसी श्रंृखला होनी चाहिये, जो इस सीमा तक पूर्ण हो, कि जिससे अभियुक्त की निर्दोषिता से संगत निष्कर्ष के लिये कोई भी युक्तियुक्त आधार न रह जाये और उसे ऐसा होना चाहिये, जिससे यह दर्शित हो जाये कि सभी मानवीय अधिसंभाव्यनाओं के भीतर अभियुक्त ने वह कार्य अवश्य ही किया होगा, संदर्भ:- हनुमंत गोविन्द नारंगढ़कर बनाम म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 3431, चरणसिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1967(सु.को.) 5201 एवं आशीष बाथम विरूद्ध म.प्र.राज्य 2002(2) जे.एल.जे. 373 (एस.सी.)।
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बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में यह तर्क किया गया है कि पुलिस साक्षी होने के कारण संपुष्टि के अभाव में उनकी अभिसाक्ष्य पर विश्वास किया जाना विधि सम्मत नहीं होगा, लेकिन यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का मूल्यंाकन भी उसी प्रकार तथा उन्हीं मानदण्डों के आधार पर किया जाना चाहिये, जिस प्रकार अन्य साक्षियों की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से मात्र इस आधार पर रद्द कर देना कि वह एक पुलिस अधिकारी है, अथवा मात्र संपुष्टि के अभाव में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत करना न्यायिक दृष्टिकोण नहीं है, संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425
24. पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य के मूल्यांकन एवं विष्लेषण के संबंध में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि विष्लेषण एवं परीक्षण के बाद ऐसी साक्ष्य विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषिता का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है, संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2783.
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किसी साक्षी को पक्ष-विरोधी घोषित कर दिये जाने मात्र से उसकी अभिसाक्ष्य पूरी तरह नहीं धुल जाती है, अपितु न्यायालय ऐसी अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर उसमें से ऐसे अंष को, जो विष्वसनीय एवं स्वीकार किये जाने योग्य है, निष्कर्ष निकालने का आधार बना सकती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 में किया गया प्रतिपादन तथा दाण्डिक विधि संषोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 में किया गया संषोधन भी दृष्ट्व्य है, जिसकी उपधारा-1 यह प्रावधित करती है कि किसी साक्षी से धारा 154 के अंतर्गत मुख्य परीक्षण में ऐसे प्रष्न पूछने की अनुमति दिया जाना, जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते हैं, उस साक्षी की अभिसाक्ष्य के किसी अंष पर निर्भर किये जाने में बाधक नहीं होगी।
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-बचाव पक्ष की ओर से चुनौती दी गयी है कि वे हितबद्ध साक्षी हैं अतः उनकी अभिसाक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जा सकता है, लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। वस्तुतः ऐसी कोई विधि नहीं है कि ऐसे साक्षियों, जो नातेदार है, के कथनों पर केवल नातेदार होने के कारण विष्वास न किया जाये। प्रायः यह देखा जाता है कि अधिकतर अपराध आहतों के आवास पर और ऐसे असामान्य समय में कारित किये जाते हैं जिनके दौरान नातेदारों के अलावा किसी अन्य की उपस्थिति की आषा नहीं की जा सकती। अतः यदि नातेदारों के कथनों पर केवल उनके नातेदार होने के आधार पर अविष्वास किया जाता है तो ऐसी परिस्थितियों में अपराध साबित करना लगभग असंभव हो जायेगा। तथापि, सावधानी के नियम की, जिसके द्वारा न्यायालय मार्गदर्षित है, यह अपेक्षा है कि ऐसे साक्षियों के कथनों की समीक्षा (जाॅच) किसी स्वतंत्र साक्षी की तुलना में अधिक सावधानी के साथ की जानी चाहिये। उपरोक्त दृष्टिकोण उच्चतम न्यायालय द्वारा दरियासिंह बनाम पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 328 वाले मामले में अभिव्यक्त मत से समर्थित है, जिसमें प्रकट किया गया है कि ’’इस बात पर कोई संदहे नहीं किया जा सकता कि हत्या के मामले में जब साक्ष्य, आहत के निकट नातेदार द्वारा दी जाती है और हत्या कुटुम्ब (परिवार) के शत्रु द्वारा की जानी अभिकथित की गयी हो तो दांडिक न्यायालयों को आहत के निकट नातेदारों की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करनी चाहिये। किन्तु कोई व्यक्ति नातेदार या अन्यथा होने के कारण आहत में हितबद्ध हो सकता है और आवष्यक रूप से अभियुक्त का विरोधी नहीं हो सकता। ऐसी दषा में में इस तथ्य से, कि साक्षी आहत व्यक्ति का नातेदार था या उसका मित्र था, अपनी साक्ष्य में आवष्यक रूप से कोई कमी नहीं छोड़ेगा। किन्तु जहाॅं साक्षी आहत का निकट नातेदार है और यह उपदर्षित होता है कि वह आहत के हमलावर के विरूद्ध आहत व्यक्ति का साथ देगा तो दांडिक न्यायालयों के लिये स्वाभाविक रूप से यह अनिवार्य हो जाता है कि वे ऐसे साक्षियांें की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करे और उस पर कार्यवाही करने से पूर्व ऐसी साक्ष्य की कमियों की समीक्षा कर ले।’’
27. उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. 425 वाले मामले में भी ऐसी ही मताभिव्यक्ति की:-
’’ ............... हम यह भी मत व्यक्त करते हैं कि इस आधार में कि चॅूकि साक्षी निकट का नातेदार है और परिणामस्वरूप यह एक पक्षपाती साक्षी है, इसलिये उसके साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये, कोई बल नहीं है।’’
28. इस दलील को कि हितबद्ध साक्षी विष्वास योग्य नहीं होता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी दिलीप सिंह (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में खारिज कर दिया था। इस मामले में न्यायालय ने बार के सदस्यों के मस्तिष्क में यह धारणा होने पर अपना आष्चर्य प्रकट किया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं माने जा सकते हैं। न्यायालय की ओर से न्यायमूर्ति विवियन बोस ने यह मत व्यक्त किया: -
’’हम उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों से इस बात पर सहमत होने में असमर्थ हैं कि दो प्रत्यक्षदर्षी साक्षियांे के परिसाक्ष्य के लिये पुष्टि अपेक्षित है। यदि ऐसी मताभिव्यक्ति की बुनियाद ऐसे तथ्य पर आधारित है कि साक्षी महिलायें हंै और सात पुरूषों का भाग्य उनकी परिसाक्ष्य पर निर्भर है, तो हमें ऐसेे नियम की जानकारी नहीं है। यदि यह इस तथ्य पर आधारित है कि वे मृतक के निकट नातेदार है तो हम इससे सहमत होने में असमर्थ हैं। यह भ्रम अनेक दांडिक मामलों में सामान्य रूप से व्याप्त है और इस न्यायालय की एक अन्य खण्डपीठ ने भी आहत रामेष्वर बनाम राजस्थान राज्य (1952 एस.सी.आर.377 = ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54) वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है। तथापि दुर्भाग्यवष यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक काउन्सेलों की दलीलों में उपदर्षित होता है।’’
-यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को, यदि वह अन्यथा विष्वास योग्य है, इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि ऐसी साक्ष्य हितबद्ध अथवा रिष्तेदार साक्षी है। यह सही है कि पप्पू उर्फ महेष (अ.सा.1) तथा मुकेष (अ.सा.2) मृतक के सगे भाई हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. में यह मताभिव्यक्ति की है कि इस दलील में कोई बल नहीं है कि एक साक्षी निकट रिश्तेदार है और परिणामस्वरूप वह एक पक्षपाती साक्षी है इसलिये उसकी साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये। दिलीप सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364 के मामले का संदर्भ लेते हुये उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी प्रकट किया है कि दिलीप सिंह के मामले में न्यायालय द्वारा बार के सदस्यों के मस्तिष्क में व्याप्त इस धारणा पर आश्चर्य प्रकट किया गया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं होेते हैं। दिलीप सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मताभिव्यक्ति की गयी है कि अनेक दाण्डिक मामलों में यह भ्रम सामान्य रूप से व्याप्त है कि मृतक के निकट रिश्तेदारों की साक्ष्य पर निर्भर नहीं किया जा सकता है, लेकिन रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54 वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया गया है। तथापि दुर्भाग्यवश यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक अधिवक्ताओं की दलीलों में उपदर्शित होता है। न्याय दृष्टांत उ.प्र.राज्य विरूद्ध वल्लभदास आदि, ए.आई.आर., 1985 एस.सी. 1384 में यह विधिक प्रतिपादन भी किया गया है कि वर्गों में विभाजित ग्रामीण अंचलों में निष्पक्ष साक्षियों का उपलब्ध होना लगभग असम्भव है।
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न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया जाना कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतियाॅ साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है। इस विषय में न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 भी अवलोकनीय है।
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मृत्युकालिक कथन
-17. मरणासन्न कथन साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत एवं ग्राह्य है। किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी मृत्यु के एकदम निकट आ जाने के समय किये गये मरणासन्न कथन की एक विषेष सम्माननीयता है क्योंकि उस नितांत गम्भीर क्षण में यह संभावना बहुत ही कम है कि कोई व्यक्ति कोई असत्य कथन करेगा। आसन्न मृत्यु की आहट का सुनायी देने लग जाना अपने आप में उस कथन के सत्य होने की गारंटी है जो मृतक के द्वारा उन कारणों और परिस्थितियों के संबंध में किया जाता है जिनकी परिणति उसकी मृत्यु में हुयी है। अतः साक्ष्य के एक भाग के रूप में मृत्युकालिक कथन की स्थिति अतिपवित्र है क्योंकि वह उस व्यक्ति के द्वारा किया गया होता है जो मृत्यु का आखेट बना है। एक बार जब मरने वाले व्यक्ति का कथन और उसे प्रमाणित करने वाले साक्षियों की साक्ष्य न्यायालयों की सावधानीपूर्ण संवीक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाये तब वह साक्ष्य का बहुत ही महत्वपूर्ण और निर्भरणीय भाग बन जाता है और यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि मृत्युकालिक कथन सच्चा है और किसी भी बनावटीपन से मुक्त है, तो ऐसा मृत्युकालिक कथन अपने आप में ही, किसी सम्पुष्टि की तलाष के बिना ही, दोष-सिद्धि को लेखबद्ध करने के लिये पर्याप्त हो सकता है, बषर्तें वह मृतक के द्वारा तब किये गये हो जब वह स्वस्थ मानसिक स्थिति में था, संदर्भ:- कुंदुला बाला सुब्रहमण्यम बनाम आंधप्रदेष राज्य, 1993(2) एस.सी.सी. 684. एवं पी.वी.राधाकृष्ण विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2003(6) एस.सी.सी. 443
-19. पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया मृत्युुकालिक कथन स्वीकार्य है तथापि अन्वेषण अधिकारी द्वारा मृत्युकालिक कथन के अभिलिखित किये जाने की प्रथा को हतोत्साहित किया गया है और मााननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि अन्वेषण अधिकारी मृत्युकालिक कथन अभिलिखित किये जाने हेतु मजिस्ट्रेट की सेवाओं का उपयोग करें, यदि ऐसा करना संभव हो। इसका एक मात्र अपवाद तब है जब मृतक इतनी संकटपूर्ण स्थिति में हो कि सिवाय इसके कोई अन्य विकल्प शेष न रह जाये कि कथन को अन्वेषण अधिकारी या पुलिस अधिकारी के द्वारा अभिलिखित किया जाये और बाद में उसके ऊपर मृत्युकालिक कथन के रूप मंे निर्भर रहा जाये, संदर्भ:- श्रीमती लक्ष्मी विरूद्ध ओमप्रकाष आदि, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2383. न्याय दृष्टांत मुन्नु राजा व अन्य विरूद्ध म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1976 सु.को. 2199 के मामले अन्वेषण अधिकारी के द्वारा लेखबद्ध किये गये मृत्युकालिक कथन को इस आधार पर अपवर्जित कर दिया गया कि उसे अभिलिखित किये जाने के लिये मजिस्ट्रेट की सेवाओं की अध्यपेक्षा करने पर हुयी विफलता के लिये कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था।
20. न्याय दृष्टांत लक्ष्मण विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2973 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की पाॅच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया है कि मरणासन्न कथन को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि चिकित्सक के द्वारा मरणासन्न व्यक्ति की कथन देने बाबत् मानसिक सक्षमता का प्रमाण-पत्र नहीं लिया गया है। इस मामले में यह ठहराया गया है कि मरणासन्न कथन लेखबद्ध करने वाले कार्यपालक मजिस्ट्रेट की यह साक्ष्य पर्याप्त है कि कथन देने वाला व्यक्ति कथन देने की सक्षम मनःस्थिति में था।
न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध गुब्बा सत्यनारायण, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 101 में पीडि़ता को अस्पताल में भर्ती कराये जाने के समय उसने चिकित्सक को यह बताया था कि वह दुर्घटनावष आग से जल गयी है, चिकित्सक के द्वारा अपने प्रतिवेदन में अंकित की गयी इस टीप को मृत्युकालिक कथन मानते हुये यह ठहराया गया कि ऐसे कथन पर, जो प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया गया है तथा जिसके बारे में ऐसी कोई आंषका नहीं है कि मृतिका उस समय सचेत हालत मेें नहीं थी, अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है। न्याय दृष्टांत रमन कुमार विरूद्ध पंजाब राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज. 3034 एस.सी. के मामले में भी उपचार शीट में आहत व्यक्ति द्वारा दी गयी इस जानकारी को कि गैस स्टोव जलाते समय अचानक आग लग जाने से घटना घटित हुयी है, मृत्युकालिक कथन के रूप में स्वीकार्य माना गया। न्याय दृष्टांत प्रकाष विरूद्ध कर्नाटक राज्य, (2007) 3 एस.सी.सी. (क्रिमिनल) 704 के मामले में आहत व्यक्ति को अस्पताल ले जाये जाने के तुरंत बाद पुलिस अधिकारी ने उसका मृत्युकालिक कथन लेखबद्ध किया था, जिसमें उसने दुर्घटना के कारण आग लगना बताया था, इस कथन को मामले की परिस्थितियों में मृत्युकालिक कथन के रूप मंें विष्वास योग्य ठहराया गया।
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34. बचाव पक्ष की ओर से तर्क किया गया है कि प्राथमिकी प्र.पी-10 में शफीक खाॅ (अ.सा.2) की उपस्थिति का उल्लेख न होने के कारण शफीक खाॅ (अ.सा.2) की साक्ष्य विष्वास योग्य नहीं है, लेकिन इस क्रम में यह विधिक स्थिति ध्यातव्य है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट मामले की वृहद ज्ञानकोष नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित प्रत्येक विषिष्टि का उल्लेख हो। प्राथमिकी मूलतः आपराधिक विधि को गतिषील बनाने के लिये होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत बलदेव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 372 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध वल्लभदास, ए.आई.आर. 1985 (एस.सी.) 1384 के मामले से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख नहीं था कि मृतक पर लाठी से प्रहार किया गया, इस व्यतिक्रम/लोप को मामले के लिये घातक नहीं माना गया।
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टेलीफोनिक सूचना रोजनामचा पंजी में प्र.पी-18 के रूप में दर्ज की गयी है वह इस बात की संक्षिप्त जानकारी भर है कि लतीफ खाॅ को मार डाला गया है। ऐसी टेलीफोनिक सूचना को अपने आप में प्राथमिकी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत तपिन्दर सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 1566 एवं षिवप्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2005(1) एम.पी.एल.जे. नोट-13. प्र.पी.10 की उक्त रिपोर्ट धारा 157 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत सम्पुष्टिकारक साक्ष्य है अतः न केवल शफीक खाॅ (अ.सा.2) की मौखिक अभिसाक्ष्य अपितु प्र.पी-10 की प्राथमिकी से भी महक बी (अ.सा.1) के कथन को सम्पुष्टि मिलती है।
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न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध गम्भीर सिंह व अन्य, 2005 क्रि.ला.रि. (एस.सी.) 501 में मृतक के रिष्तेदार की साक्ष्य को विष्वास योग्य नहीं माना गया, जिसका कारण यह था कि पुलिस के द्वारा उसका कथन घटना के एक माह बाद लेखबद्ध किया गया था तथा उसकी साक्ष्य में विसंगतियाॅं थीं।
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यदि किसी तथ्य की जानकारी पुलिस को पूर्व से रही है तो ऐसे तथ्य के बारे में अभियुक्त द्वारा दी गयी सूचना भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत ’तथ्य के उद्घाटन’ ;क्पेबवअमतल व िंिबजद्ध की परिधि में नहीं आती है। संदर्भ:- अहीर राजा खेमा विरूद्ध सौराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 ।
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एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य अगर अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है तथा उसमें कोई तात्विक लोप या विसंगति नहीं है तो उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वह एकल साक्षी है अथवा संबंधी साक्षी है अथवा हितबद्ध साक्षी है। संदर्भ:- सीमन उर्फ वीरामन विरूद्ध राज्य, 2005(2) एस.सी.सी. 142। न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य, 2003(2) एस.सी.सी. 401 में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसे मामले हो सकते हैं, जहाॅं किसी घटना विषेष के संबंध में केवल एक ही साक्षी की अभिसाक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में न्यायालय को ऐसी साक्ष्य का सावधानीपूर्वक परीक्षण कर यह देखना चाहिये कि क्या ऐसी साक्ष्य दुर्बलताओं से मुक्त या विसंगति विहीन है।
23. न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं होती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।
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46. अभियुक्त और उसके अधिवक्ता को दण्ड के विषय में सुना गया। अभियुक्त के द्वारा अपनी पत्नी पप्पी बाई पर मिट्टी का तेल छिड़ककर उसकी हत्या करने का अपराध निष्चय ही अत्यंत गम्भीर प्रकृति का है, लेकिन न्याय दृष्टांत मच्छीसिंह आदि वि0 पंजाब राज्य ए.आई.आर. 1983 सु.को. 1957 एवं न्याय दृष्टांत वचनसिंह बनाम पंजाब राज्य ए.आई.आर.1980 एस.सी. 898 के मामलों में मृत्युदण्ड के लिये विरलों में से विरलतम मामलों की जो परिसीमा खींची गयी है, उसमें इस मामले को नहीं रखा जा सकता है। अतः अभियुक्त को मृत्युदण्ड से दण्डित करने का औचित्य प्रकट नहीं है।
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23. न्याय दृष्टांत पडाला वीरा रेड्डी विरूद्ध आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य, ए.आई.आर. 1990 एस.सी.79 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाॅ मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित होता है वहाॅं ऐसे साक्ष्य को निम्नलिखित कसौटियों को संतुष्ट करना चाहिए:-
(1) वे परिस्थितियाॅं जिनसे दोषिता का निष्कर्ष निकाले जाने की ईप्सा की गई है, तर्कपूर्ण और दृढ़ता से साबित की जानी चाहिए,
(2) वे परिस्थितियां निश्चित प्रवृत्ति की होनी चाहिए जिनसे अभियुक्त की दोषिता बिना किसी त्रुटि के इंगित होती हो,
(3) परिस्थितियों को संचयी रूप से लिए जाने पर उनसे एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिए कि इस निष्कर्ष से न बचा जा सके कि समस्त मानवीय संभाव्यता में अपराध अभियुक्त द्वारा कारित किया गया था और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं, और
(4) दोषसिद्धि को मान्य ठहराने के लिए पारिस्थितिक साक्ष्य पूर्ण होनी चाहिए और अभियुक्त की दोषिसिद्धि से भिन्न कोई अन्य संकल्पना के स्पष्टीकरण के अयोग्य होनी चाहिए और ऐसा साक्ष्य न केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि के संगत होनी चाहिए अपितु यह उसकी निर्दोषिता से भी असंगत होनी चाहिए।’’
24. न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अशोक कुमार, 1992 क्रि.लाॅ.ज. 1104 के मामले में यह उल्लेख किया गया था कि पारिस्थितिक साक्ष्य का मूल्यांकन करने में गहन सतर्कता बरती जानी चाहिए और यदि अवलंब लिए गए साक्ष्य के आधार पर युक्तियुक्त रूप से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हों तब अभियुक्त के पक्ष वाला निष्कर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए। यह भी उल्लेख किया गया था कि अवलंब ली गई परिस्थितियाॅं पूर्णतया साबित हुई पाई जानी चाहिए और इस प्रकार साबित किए गए सभी तथ्यों का संचयी प्रभाव केवल दोषिता की संकल्पना से संगत होना चाहिए।
25. उक्त परिप्रेक्ष्य में अभियोजन द्वारा अभियुक्त के विरूद्ध अभिकथित विभिन्न परिस्थितियों के विषय में क्रमवार साक्ष्य का विष्लेषण करना आवष्यक होगा। अभियोजन ने अभियुक्त के विरूद्ध प्रधानतः निम्न दोषिताकारक परिस्थितियाॅं अभिकथित की है:-
7. अभियुक्त की संलिप्तता के विषय में रोजनामचा प्रविष्टि (प्रमाणित प्रतिलिपि प्र.पी-32(सी)) के अनुसार सूचना प्राप्त होना,
8. अभियुक्त का घटनास्थल के निकट ही पेड़ से बंधा होना,
9. अभियुक्त द्वारा घटना के तत्काल बाद गले में फांसी लगाकर आत्महत्या का प्रयास करना,
10. बसंती बाई (अ.सा.1) का विलाप कर यह बताना कि अभियुक्त मगनलाल ने बच्चियों को काट डाला है,
11. अभियुक्त द्वारा रतनसिंह (अ.सा.7) के समक्ष की गयी कथित न्यायकेत्तर संस्वीकृति,
12. अभियुक्त, जो घटनास्थल पर मौजूद था, के द्वारा तत्काल घटना के बारे में किसी को सूचित न किया जाना,
13. कथित रूप से अभियुक्त से अभिग्रहित पेंट तथा मृतक फूलकुॅवर की फ्राक और अण्डरवियर तथा घटनास्थल से जप्त कुल्हाड़ी पर ’ए-बी’ रक्त समूह की उपस्थिति,
14. अभियुक्त के हाथ और पैर के नाखूनों पर रक्त की मौजूदगी,
15. अभियुक्त द्वारा अपनी कृषि भूमि विक्रय करने की इच्छा और उसकी पत्नियाॅं बसंती बाई (अ.सा.1) और संतोबाई (अ.सा.2) द्वारा इसका विरोध,
16. अभियुक्त की कथित विरोधाभासपूर्ण एवं अस्वाभाविक प्रतिरक्षा।
26. उक्त अभिकथित दोषिताकारक परिस्थितियों के बारे में अभिलेखगत साक्ष्य का क्रमवार विष्लेषण एवं मूल्यांकन कर यह देखना होना कि क्या उक्त परिस्थितियाॅं युक्तियुक्त संदेह के परे प्रमाणित है तथा क्या उनके आधार पर एक ऐसी कड़ी निर्मित होती है, जो एकल और एकल रूप से उक्त पाॅचों मृत बालिकाओं की हत्या के संबंध में अभियुक्त की संलिप्तता की ओर ही इंगित करती है तथा उसकी निर्दोषिता से असंगत है ?
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पक्ष विरोधी घोषित किया गया है, लेकिन न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध राज्य, 1993(3) क्राईम्स 82 एस.सी. के मामले में यह सुस्पष्ट अभिनिर्धारण किया गया है कि पक्ष विरोधी साक्षियों के कथन को अभिलेख से बिल्कुल साफ हुआ नहीं माना जा सकता है। उनके साक्ष्य का वह भाग, जो मान्य किये जाने योग्य है, उपयोग में लाया जा सकता है।
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44. प्र.पी-40 प्रयोगषाला के सहायक रासायनिक परीक्षक द्वारा जारी प्रतिवेदन है, जिसमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि ज्ञापन के अनुसार भेजे गये सभी पैकेट उचित रूप से सीलबंद हालत में प्राप्त हुये। प्रतिवेदन प्र.पी-40 में सहायक रासायनिक परीक्षक ने वस्तु ’ई’, जो अभियुक्त से जप्तषुदा पेंट बतायी जाती है तथा वस्तु ’जे-1’ एवं ’जे-2’, जो मृतिका फूलकुॅवर की अण्डरवियर और फ्राक बतायी जाती है, पर ’ए-बी’ समूह का रक्त प्रतिवेदित किया है। यही रक्त कुल्हाड़ी ’डी’ पर भी प्रतिवेदित किया गया है, जो अभियुक्त की टापरी से अभिग्रहित की गयी। प्र.पी-40 का प्रतिवेदन, जो धारा 293 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत औपचारिक सिद्धि के बिना साक्ष्य में ग्राह्य है, पर अविष्वास करने का कोई कारण प्रकट नहीं है। अतः यह सुप्रमाणित है कि अभियुक्त से अभिग्रहित पेंट तथा मृतिका फूलकुॅवर की अण्डवियर और फ्राक एवं अभियुक्त की टापरी से प्राप्त कुल्हाड़ी पर एक ही समूह-’ए-बी’ समूह का रक्त पाया गया।
45. अभिग्रहित वस्तुओं पर रक्त की मौजूदगी तथा उसकी प्रजाति एवं प्रवर्ग संबंधी साक्ष्य के मूल्य के विषय में विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। जहाॅं कंसा बेहरा विरूद्ध उड़ीसा राज्य, ए.आई.आर. 1987 सु.को. 1507 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर पाये गये रक्त समूह का मृतक के रक्त समूह से समरूप पाया जाना एक निर्णायक व निष्चयात्मक दोषिताकारक परिस्थिति माना गया है, वहीं पूरनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1989 क्रिमिनल लाॅ रिपोर्टर एस.सी. 12 के मामले में अभियुक्त से अभिग्रहीत वस्तु पर सीरम विज्ञानी द्वारा प्रतिवेदित मानव रक्त की मौजूदगी को, जिसके रक्त समूह का पता नहीं लग सका था, पर्याप्त संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया। न्याय दृष्टांत रामस्नेही विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1984 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 342 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर केवल रक्त की उपस्थिति, जिसके स्त्रोत का पता नहीं लग सका था, को भी संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया है। हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान राज्य विरूद्ध तेजाराम, 1999 (भाग-3) सु.को.केसेस 507 के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जहाॅं रक्त के स्त्रोत का पता नहीं चल सका है, अभिग्रहीत वस्तु पर रक्त की उपस्थ्तिि से प्रकट परिस्थिति को अनुपयोगी मानकर रद्द कर दिया जायेगा।
46. पूर्वोक्त विधिक एवं ताथ्यिक पृष्ठभूमि के संबंध में अभियुक्त की पेेंट व घटनास्थल से अभिग्रहित कुल्हाड़ी पर पर उसी समूह के रक्त की उपस्थिति, जो समूह मृतिका फूलकुुॅवर की फ्राक और अण्डरवियर पर पाया गया, अपने आप में ठोस एवं निर्णायक दोषिताकारक परिस्थिति है। अभियुक्त अपनी पेंट पर रक्त की उक्त मौजूदगी के बारे में किसी भी प्रकार का कोई स्पष्टीकरण धारा 313 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किये गये परीक्षण में अथवा अन्यथा देने में असफल रहा है। अतः उक्त स्थिति अभियुक्त के विरूद्ध एक महत्वपूर्ण दोषिताकारक कड़ी के रूप में सामने आती है।
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49. माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने देवनंदन मिश्र विरूद्ध बिहार राज्य, 1955 ए.आई.आर. 801 के मामले में यह विधिक प्रतिपादन किया है कि जहाॅं अभियुक्त के विरूद्ध अभियोजन द्वारा विभिन्न सूत्र समाधानप्रद रूप से सिद्ध कर दिये गये हैं एवं परिस्थतिथियाॅं अभियुक्त को संभाव्य हमलावर, युक्तियुक्त निष्चितता और समय तथा स्थिति के बाबत् मृतक के सानिध्य में बताती है, अभियुक्त के स्पष्टीकरण की ऐसी अनुपस्थिति या मिथ्या स्पष्टीकरण अतिरिक्त सूत्र के रूप में श्रृंखला को अपने आप पूरा कर देगा। स्पष्टीकरण के अभाव अथवा मिथ्या स्पष्टीकरण को श्रृंखला पूरा करने वाली अतिरिक्त कड़ी के रूप में उस दषा में प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि:-
(1) अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य से श्रृंखला की विभिन्न कडि़या समाधानप्रद रूप से साबित कर दी गयी हों।
(2) ये परिस्थितियाॅं युक्तियुक्त निष्चितता के साथ अभियुक्त की दोषिता का संकेत देती हों, और
(3) यह परिस्थितियाॅं समय की स्थिति की दृष्टि से नैकट्य में हो।
50. इस क्रम में न्याय दृष्टांत शंकरलाल ग्यारसीलाल दीक्षित विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 765 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध सुरेश (2000)1 एस.सी.सी. 471 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि दोषिता-कारक परिस्थिति के विषय में पूछे जाने पर अभियुक्त द्वारा उसका असत्य उत्तर एक ऐसी परिस्थिति को निर्मित करेगा जो परिस्थिति-जन्य श्रृंखला की गुमशुदा कडी के रुप में प्रयुक्त की जा सकेगी।
51. वर्तमान मामले में अभियुक्त के द्वारा यह प्रतिरक्षा ली गयी है कि घटना वाले दिन कोई व्यक्ति उसके घर आया था, जिसने पाॅचों बच्चियों की हत्या कर दी तथा इसके बाद वह व्यक्ति अभियुक्त को टापरी के निकट स्थित पेड़ से उसे बांधकर चला गया। अभिलेखगत साक्ष्य के गहन एवं विस्तृत विष्लेषण में अभियुक्त की उक्त प्रतिरक्षा पूरी तरह असत्य, निराधार एवं कपोल-कल्पित पायी गयी है तथा अभियुक्त के द्वारा ली गयी उक्त असत्य एवं निराधार प्रतिरक्षा अपने आप में वर्तमान मामले में एक दोषिताकारक परिस्थिति को जन्म देती है।
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हेतुक:-
52. बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि वर्तमान मामले में अभिकथित हत्याओं के विषय में अभियुक्त का हेतुक अभियोजन के द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया है अतः अभियोजन की यह कहानी कि उक्त पाॅचों बच्चियों की हत्या अभियुक्त के द्वारा की गयी, युक्तियुक्त रूप से संदेहास्पद हो जाती है।
53. उक्त तर्क के संबंध में सुसंगत विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना उचित होगा। ’हेतुक’ एक गुह्य मानसिक स्थिति है, जो मनुष्य की उपचेतना ;ैनइ.बवदेबपवनेद्ध में निवास करती है। इसके द्वारा ही मन कार्य की ओर अग्रसर होता है। विधि शास्त्री सामण्ड ने इसे अंतरस्थ आषय की संज्ञा दी है। ’हेतुक’ वह भीतरी प्रेरणा है, जो किसी कार्य के लिये गुप्त रूप से मन को उकसाती है। अंतःपरक होने के कारण ’हेतुक’ को प्रमाणित करना कठिन होता है, क्योंकि उसकी जानकारी केवल अपराधकर्ता को ही होती है। विधि का यह सुनिष्चित सिद्धांत है कि जहाॅं हत्या के संबंध में अभियुक्त के विरूद्ध निष्चित, संगत, स्पष्ट एवं विष्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी परिस्थितियों में हत्या के ’हेतुक’ को प्रमाणित करना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है, संदर्भ:- अमरजीतसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1995 क्रि.लाॅ.रि.(सु.को.) 495 । जब हत्या का अपराध साक्ष्य से भली-भाॅंति प्रमाणित हो तब ’हेतुक’ प्रमाणित करना अभियोजन के लिये आवष्यक नहीं है, संदर्भ:- सुरेन्द्र नारायण उर्फ मुन्ना विरूद्ध उत्तर प्रदेष राज्य, 1197 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4156 । न्याय दृष्टांत दिल्ली प्रषासन विरूद्ध सुरेन्द्र पाल जैन, उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 1985 दिल्ली-333 में इस क्रम में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मानव प्रकृति एक अत्यधिक जटिल चीज है। कोई व्यक्ति क्या करता है, यह अनेक बातों पर निर्भर होता है। ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहाॅं ’हेतुक’ पता चल जाये किन्तु ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनमें ’हेतुक’ का कतई पता न चले। ’हेतुक’ के सबूत का अभाव अपने आप में उन निष्कर्षों को अस्वीकार करने के लिये विकल्प प्रदान नहीं करता है, जो अन्यथा तथ्यों और साक्ष्य के समूह से युक्तियुक्त एवं न्यायोचित रूप से निकाले जा सकते हों।
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59. न्याय दृष्टांत माछीसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, (1983)3 एस.सी.सी. 470 के मामले में निम्न मत व्यक्त किया गया था:-
’विरल से विरलतम मामले’ जिसमंे मृत्यु दंडादेश अधिरोपित किया जा सकता है का अवधारण करने के लिए कसौटी के रूप में निम्नलिखित प्रश्नोत्तर किए जा सकते हैं:-
(क) क्या अपराध के बारे में ऐसी कोई असमान्य बात है जो आजीवन कारावास के दंडादेश को अपर्याप्त बनाती हो और मृत्यु दंडादेश अपेक्षित हो जाए ?
(ख) क्या अपराध की परिस्थितियाॅं, ऐसी हैं कि अपराधी के पक्ष की न्यूनकारी परिस्थितियों को अधिकतम महत्व देने के पश्चात् भी मृत्यु दंडादेश अधिरोपित करने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं है ?
60. माछीसिंह (पूर्वोक्त) के मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि न्याय दृष्टांत बचनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, (1980)2 एस.सी.सी. 184 वाले मामले से उद्भूत निम्नलिखित मार्गदर्शक सिद्धांत प्रत्येक ऐसे मामले के तथ्यों पर लागू किए जाने चाहिए जहाॅं मृत्यु दंडादेश का प्रश्न उठाता है:
;पद्ध हत्या के घोरतम जघन्य मामलों के सिवाए मृत्यु का घोर दंड अधिरोपित नहीं किया जाना चाहिए,
;पपद्ध मृत्युदण्ड का विकल्प चुनने के पूर्व ’अपराध’ की परिस्थितियों सहित अपराधी की परिस्थिति को भी विचार में लिया जाना चाहिए,
;पपपद्ध आजीवन कारावास नियम है और मृत्यु दंडादेश एक अपवाद है। मृत्यु दण्डादेश तभी अधिरोपित किया जाना चाहिए जब अपराध की सुसंगत परिस्थितियों को दृष्टिगत करते हुए आजीवन कारावास कुल मिलाकर अपर्याप्त दण्ड प्रतीत होता हो और अपराध की प्रकृति और परिस्थतियों तथा सभी सुसंगत परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आजीवन कारावास के दंडादेश के विकल्प का प्रयोग न किया जा सकता हो,
;पअद्ध गुरूतरकारी ;।हहतंअंजपदहद्ध और न्यूनकारी ;डपजपहंजपदहद्ध परिस्थितियों को विचार में लिया जाना चाहिए और ऐसा करते हुये न्यूनकारी परस्थितियों को पूरा महत्व देना चाहिए और विकल्प का प्रयोग करने के पूर्व गुरूतरकारी और न्यूनकारी परिस्थितियों के बीच एक उचित संतुलन बनाया जाना चाहिए।
61. न्याय दृष्टांत देवेन्द्र पाल सिंह विरूद्ध देहली राज्य, (2002) 5 एस.सी.सी. 234 के मामले में बचनसिंह (पूर्वोक्त) तथा माछीसिंह (पूर्वोक्त) के मामलों का संदर्भ लेते हुये यह प्रतिपादित किया गया कि जब समाज का अंतःकरण संचयी रूप से इतना व्यथित हो जाए जिससे वह न्यायिक शक्ति धारकों से, मृत्युदण्ड की वांछनीयता या अन्यथा के संबंध में उनकी व्यक्तिगत राय को विचार में लिए बिना, मृत्युदण्ड अधिरोपित करने की प्रत्याशा करना चाहे तब मृत्युदण्ड अधिनिर्णित किया जाना चाहिए। इस मामले में प्रकट किया गया कि समाज में ऐसी भावना, निम्नलिखित परिस्थितियों में उत्पन्न हो सकती है:-
(1) जब हत्या अत्यधिक पाश्विक, विकृत, क्रूर, घिनौनी रीति से या नृशंस रूप से की गई हो, जिससे समुदाय में अत्यधिक उत्तेजना, क्रोध उत्पन्न होता है।
(2) जब हत्या ऐसे हेतुक के लिए की जाती है, जिससे पूर्णतया जघन्यता और नीचता प्रदर्शित हो, अर्थात् भाड़े पर लाए गए हत्यारे द्वारा धन या इनाम के लिए नृशंस हत्या की गई हो या जहाॅं हत्यारे के नियंत्रणाधीन किसी प्रतिपाल्य या किसी व्यक्ति की या उसके संबंध में जिस पर हत्यारे का अधिक प्रभुत्व है या उसका विश्वासपात्र है, से फायदा लेने के लिए या मातृभूमि से विश्वासघात करने के लिए हत्या की जाती है।
(3) जब अनुसूचित जाति या अल्पसंख्यक समुदाय इत्यादि के किसी सदस्य की हत्या किसी निजी कारण से नहीं बल्कि उन परिस्थितियों में की जाती है, जिससे समाज में क्रोध उत्पन्न होता है या ’नव-वधु जलाने’ या ’दहेज-मृत्यु’ की दशा में या जब कोई हत्या एक बार पुनः दहेज ऐंठने के लिए पुनर्विवाह करने हेतु या प्रोमोन्माद के कारण किसी अन्य महिला से विवाह करने के लिए की जाती है।
(4) जब वह अपराध आनुपातिक रूप से अत्यंत बड़ा हो। अर्थात् किसी कुटुंब के सभी या लगभग सभी सदस्यों की हत्या की जाती है या किसी विशेष जाति, समुदाय या परिक्षेत्र के अनेक सदस्यों की हत्याएं की जाती हैं।
(5) जब हत्या का शिकार एक अबोध शिशु या असहाय महिला या कोई वृद्ध व्यक्ति या असहाय व्यक्ति या ऐसा व्यक्ति है जिस पर हत्यारे का प्रभुत्व है या आहत व्यक्ति एक ऐसा प्रमुख व्यक्ति है, जिसे साधारणतया समाज द्वारा प्यार और सम्मान दिया जाता है।
62. यदि उपरोक्त प्रतिपादनों को दृष्टिगत करते हुए सभी परिस्थितियों पर विचार करने पर और यदि विरल से विरलतम मामलों की कसौटी के लिए पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों के आधार पर मामला विरल से विरलतम मामले की परिधि में आता है, तब मामले की परिस्थितियों में मृत्युदण्डादेश अपेक्षित होगा और न्यायालय ऐसा करने को अग्रसर होगा।
63 न्याय दृष्टांत धनंजय चटर्जी उर्फ धन्ना विरूद्ध पष्चिम बंगाल राज्य, (1994)2 एस.सी.सी. 220 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि कुछ अपराधियों को अत्यंत कठोर दण्ड मिलता है, कुछ अन्य को कम दण्ड मिलता है, जबकि अपराध समान रूप से गम्भीर है और अनेक अपराधी दण्डित किये बिना ही बच निकलते हैं, जो अंततः अपराधी को प्रोत्साहित करता है एवं न्यायिक व्यवस्था की विष्वसनीयता के क्षीण होने के कारण न्याय प्रभावित होता है। इस मामले में यह भी ठहराया गया कि अपराधी का आचरण तथा पीडि़त/मृतक की बचाव रहित स्थिति भी इस संबंध में देखी जाना चाहिये। युक्तियुक्त दण्ड का अधिरोपण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा न्यायालय न्याय के लिये समाज की पुकार के प्रति अपनी चेतना को व्यक्त करता है। न्याय की अपेक्षा है कि न्यायालय को अपराध की गम्भीरता के समानुपातिक ऐसा दण्ड अधिरोपित करना चाहिये, जिससे कि जनसामान्य में उस अपराध के प्रति घृणा की स्थिति परिलक्षित हो। न्यायालयों को केवल अपराधी के ही अधिकारों का ध्यान नहीं रखना चाहिये अपितु अपराध के पीडि़त एवं समाज के अधिकारों को भी दण्ड अधिरोपण के समय दृष्टिगत रखना चाहिये।
64. न्याय दृष्टांत रावजी उर्फ रामचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 787 के मामले में पत्नी, तीन अवयस्क बच्चे एवं एक पड़ोसी, जिनका कहीं कोई दोष नहीं था, की जघन्य हत्या के लिये मृत्युदण्ड को उचित ठहराया गया।
65. न्याय दृष्टांत उमाषंकर पंडा विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, (1996)8 एस.सी.सी. 110 के मामले में पत्नी तथा 2 पुत्रियों की हत्या तथा अन्य 2 पुत्रियों एवं 1 पुत्र की हत्या का प्रयास करने के लिये घटना में प्रयुक्त हथियार, अपराध की पाष्विक प्रकृति तथा मारे गये व्यक्तियों की संख्या एवं उनकी असहाय स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये मृत्युदण्ड को उचित ठहराया गया।
66. न्याय दृष्टांत सुरेषचंद्र बहेरी विरूद्ध बिहार राज्य, (1985) (सप्लीमेंट)1 एस.सी.सी. 80 के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह ठहराया गया कि अबोध बच्चे की उनके ही पिता के द्वारा खून को जमा देने वाले तरीके से की गयी क्रूर हत्या, जिसमें परिवार के लगभग सभी सदस्यों को खत्म कर दिया गया था, के लिये मृत्युदण्ड के अलावा अन्य कोई उपयुक्त दण्ड समझ में नहीं आता है तथा मामला विरल से विरलतम मामलों की श्रेणी में आता है, जहाॅं मृत्युदण्ड के अलावा किसी अन्य दण्ड को उचित एवं पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है।
67. न्याय दृष्टांत जगदीष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, (2009) 9 एस.सी.सी. 495, जिसमें अभियुक्त के द्वारा पत्नी और 5 बच्चों की हत्या की गयी थी, में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विचार करते हुये यह पाया कि अभियुक्त ने नितांत पाष्विक, वीभत्स और निर्दय तरीके से पत्नी और बच्चों की हत्या की है, जिनके ऊपर वह प्रभावी स्थिति में था तथा जो सभी निर्दोष और असहाय थे अतः मामले की समग्रता को देखते हुये मृत्युदण्ड उचित ठहराया गया।
------------------------------------------------------20. उक्त पृष्ठभूमि में प्रत्यक्षदर्षी साक्ष्य के रूप में मृतक दीनदयाल के पुत्र दीपक (अ.सा.5) की अभिसाक्ष्य अभिलेख पर शेष रह जाती है। एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि निष्कर्षित किये जाने के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्याय दृष्टांत वादीवेलु थेवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत किसी तथ्य को प्रमाणित करने के लिये किसी विषिष्ट संख्या में साक्षियों की आवष्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि न्यायालय के समक्ष यदि एक मात्र साक्षी की अभिसाक्ष्य है तो ऐसी साक्ष्य को उसकी गुणवत्ता के आधार पर 3 श्रेणी में रखा जा सकता है:-
प्रथम - पूर्णतः विष्वसनीय,
द्वितीय - पूर्णतः अविष्वसनीय, एवं
तृतीय - न तो पूर्णतः विष्वसनीय और न ही पूर्णतः अविष्वसनीय।
21. उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि प्रथम दो स्थितियों में साक्ष्य को अस्वीकार या रद्द करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है, लेकिन तृतीय श्रेणी के मामलों में कठिनाई स्वाभाविक है तथा ऐसी स्थिति में न्यायालय को न केवल सजग रहना चाहिये, अपितु निर्भरता योग्य पारिस्थतिक या प्रत्यक्ष साक्ष्य से सम्पुष्टि की मांग भी की जानी चाहिये। बचाव पक्ष के विद्वान अधिवक्ता द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 854 में उक्त विधिक प्रतिपादन को पुनः दोहराया गया है।
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307 323 325 326
धारा 307,323,325,326
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15. यह सही है कि ग्राम दोराहा में सलीम के घर के आसपास रहने वाला कोई व्यक्ति प्रत्यक्षदर्षी समर्थक साक्षी के रूप में अभियोजन ने प्रस्तुत नहीं किया है, लेकिन यह सुविदित है कि सामान्यतः लोग दूसरों के झगड़े में पड़कर किसी से बैर भाव नहीं लेना चाहते हैं, इस कारण न्यायालय में साक्षी के रूप में उपस्थित होने में अनिच्छुक रहते हैं। संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998. ऐसी स्थिति में इमरान खान (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य मात्र इस आधार पर अस्वीकार नहीं की जा सकती है कि किसी स्वतंत्र साक्षी की अभिसाक्ष्य से उसका समर्थन नहीं है। प्रकटतः उसकी साक्ष्य अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है, उसमें किसी प्रकार की कोई सारवान् विसंगति या विरोधाभास नहीं है, ऐसी स्थिति में उक्त अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय मानने का कोई कारण प्रकट नहीं है।
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हित वद साक्षी-उक्त दोनों ही साक्षियों के प्रतिपरीक्षण में ऐसी कोई बात प्रकट नहीं है, जिसके आधार पर उनकी साक्ष्य को अविष्वसनीय मानकर अस्वीकार किया जाये। मात्र इस आधार पर कि वे इमरान खान (अ.सा.1) की माॅ और बहन हैं, उनकी अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य यदि अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण तथा विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं। ------------------------------------------------------
21. ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.------------------------------------------------------
लोप-विरोधाभाश-अतिरंजना--इस क्रम में यह विधिक स्थिति सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि साक्षियों की प्रवृत्ति तथ्यों को किंचित नमक मिर्च लगाकर अतिरंजना के साथ प्रस्तुत करने की होती है, लेकिन यदि साक्ष्य में घटना के मूल स्वरूप के बारे में सच्चाई का अंष विद्यमान है तो ऐसी अतिरंजनाओं के आधार पर, जो मामले की तह तक नहीं जाती है, साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये, संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998.
16. उक्त परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि आहतगण राजू सिंह चैहान (अ.सा.1) एवं लक्ष्मीनारायण (अ.सा.7) की साक्ष्य की सम्पुष्टि करने के लिये कोई स्वतंत्र प्रत्यक्षदर्षी साक्ष्य अभिलेख पर नहीं है, लेकिन यह विधिक स्थिति स्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर अविष्वसनीय अथवा अस्वीकार्य नहीं माना जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की सम्पुष्टि नहीं होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा किया गया यह प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रायः यह देखने में आया है कि स्वतंत्र साक्षी अभियोजन की कथा का समर्थन करने के लिये अनिच्छुक रहते हैं अतः ऐसी स्थिति में न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह उपलब्ध साक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण एवं मूल्यांकन करें। यदि ऐसी अभिसाक्ष्य विष्वास योग्य एवं गुणवत्तापूर्ण है, तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है।
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17. उक्त क्रम में इस विधिक स्थिति का संदर्भ लिया जाना भी असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी के कथन में यदि मूल घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो ऐसी अतिरंजनाओं और विसंगतियों के कारण सम्पूर्ण मामले को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897. न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतियों साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है।
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26. धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
27. महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
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11. उक्त परिप्रेक्ष्य में आधारभूत घटना के संबंध में अजबसिंह (अ.सा.4) की अभिसाक्ष्य में कोई सारवान् विसंगति अथवा विषमतायें विद्यमान नहीं है। जहाॅं तक प्रकीर्ण विसंगति एवं विषमताओं का प्रष्न है, यह विधिक स्थिति उल्लेखनीय है कि अभिसाक्ष्य में मामूली एवं अमहत्वपूर्ण स्वरूप की विसंगतियाॅं या विरोधाभास जो आधारभूत कथा की सत्यता को प्रभावित नहीं करते हैं, को महत्व नहीं दिया जाना चाहिये, संदर्भ:- गणेश विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1985 जे.एल.जे. 778 एवं नानूसिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1985 एम.पी.एल.जे. 268. यह भी ध्यातव्य है कि एक घायल व्यक्ति साक्षी के रूप में ऐसा कभी नहीं चाहेगा कि जिन्होंने उसे वास्तव में आहत किया है, वे बच जायें तथा अन्य निर्दोष लोग ऐसे मामले में फंसा दिये जाये, संदर्भ:- बलवंतसिंह विरूद्ध हरियाणा राज्य, 1972-तीन सु.को.केसेस 193. उक्त विधिक स्थिति के प्रकाश में अभियोजन की अभिसाक्ष्य का विश्लेषण करना होगा।
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17. ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है, संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
18. महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।
19. म.प्र.राज्य विरूद्ध सलीम उर्फ चमरू एवं एक अन्य (2005) 5 एस.सी.सी. 554 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत दोषसिद्धि को न्यायोचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो, जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि चोट की प्रकृति, अभियुक्त के आशय का पता लगाने में सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा आशय मामले की अन्य परिस्थितियों तथा कतिपय मामलों में कारित चोट के संदर्भ के बिना भी पता लगाया जा सकता है। इस मामले में स्पष्ट रूप से यह ठहराया गया है कि मामले को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत लाने के लिये यह कतई आवश्यक नहीं है कि आहत को पहुॅचायी गयी चोट, प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो, अपितु यह देखा जाना चाहिये कि क्या कृत्य ऐसे आशय अथवा ज्ञान के साथ किया गया है जैसा धारा में उल्लिखित है। इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये यह स्पष्ट किया है कि केवल यह तथ्य कि आहत के मार्मिक शारीरिक अवयव क्षतिग्रस्त नहीं हुये हैं, अपने आप में उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के बाहर नहीं ले जा सकता है।
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हितबद्ध साक्षी-निष्चय ही कृष्ण गोपाल उर्फ गोपाल (अ.सा.5) की उक्त अभिसाक्ष्य स्पष्ट एवं विसंगति विहीन होने कारण स्वीकार योग्य हैं तथा उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि कृष्ण गोपाल उर्फ गोपाल (अ.सा.5), विनोद कुमार (अ.सा.4) का भतीजा है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि केवल हितबद्धता के आधार पर किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय मानकर रद्द नहीं किया जा सकता है, संदर्भ:- सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82.
16. उक्त परिप्रेक्ष्य में अभिकथित घटनाक्रम के विषय में एक मात्र ओंकार पुरी (अ.सा.2) की अभिसाक्ष्य शेष रह जाती है। यह सही है कि ओंकार पुरी (अ.सा.2) एक हितबद्ध साक्षी है, लेकिन यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह हितबद्ध है, अपितु ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण किया जाना चाहिये तथा उस पर निर्भर करने के लिये यह आवष्यक है कि वह गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय हो, संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851
10. इसी प्रकार इस विधिक स्थिति का संज्ञान लिया जाना भी आवष्यक है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य को इस आधार पर कि वह हितबद्ध है रद्द किया जाना विधि सम्मत नहीं है, लेकिन ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य पर निर्भर करने के लिये यह आवष्यक है कि वह गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय हो, संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851.
11. इसी क्रम में न्याय दृष्टांत सूरजपाल विरूद्ध राज्य, 1994(2) क्रि.लाॅ.ज. 928 एस.सी. भी अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि किसी साक्षी का कथन मात्र इस आधार पर निरस्त नहीं किया जाना चाहिये कि वह हितबद्ध है, अपितु उसी साक्ष्य की सावधानीपूर्वक छानबीन की जानी चाहिये तथा जहाॅं ऐसी साक्ष्य एकरूपतापूर्ण है, वहाॅं उस पर विष्वास किया जा सकता है।
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25. जहाॅं तक प्रथम बिन्दु का सम्बन्ध है, ’संहिता’ की धारा 34 के अंतर्गत दायित्व आरोपित करने के लिये यह स्थापित किया जाना आवष्यक है कि मात्र उकसाने के अलावा कुछ ऐसा कार्य किया गया, जो सामान्य आषय का परिचायक हो। इस क्रम में न्याय दृष्टांत उड़ीसा राज्य विरूद्ध अर्जुनदास अग्रवाल, ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 3229 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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29. ’संहिता’ की धारा 307 के अपराध के संबंध में न्याय दृष्टांत सरजू प्रसाद विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 843 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मामले को ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में रखने के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित तीन प्रकार के आषयों में से कोई आषय अथवा ज्ञान की स्थिति उस समय विद्यामन थी, जबकि प्रहार किया गया तथा अभियुक्त की मनःस्थिति घटना के समय विद्यमान साम्पाष्र्विक परिस्थितियों के आधार पर तय की जानी चाहिये। वर्तमान मामले में प्रहार इतनी तीव्रता के साथ नहीं किया गया है कि उससे कंधे पर काफी गहरायी तक चोट आये, क्योंकि प्रष्नगत चोट मात्र 1) से.मी. गहरी है। प्रहार की पुनरावृत्ति भी प्रकट नहीं है और न ही शरीर के किसी मार्मिक हिस्से पर चोट पहुॅचायी गयी है। ऐसी दषा में ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित आषय अथवा ज्ञान की स्थिति वर्तमान मामले में स्थापित नहीं होती है अतः यह नहीं कहा जा सकता है कि एल्कारसिंह प्रष्नगत प्रहार के द्वारा विनोद कुमार (अ.सा.4) की हत्या करने का आषय रखता था अथवा उसके द्वारा अपने ज्ञान में ऐसी चोट कारित की गयी, जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो।
30. परिणामस्वरूप अभियुक्त एल्कारसिंह का कृत्य ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में न आकर ’संहिता’ की धारा 326 की परिधि में आता है, जो धारदार हथियार से गम्भीर उपहति कारित किये जाने को दण्डनीय ठहराता है।
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12. बचाव पक्ष की ओर से न्याय दृष्टांत सर्वेष नारायण शुक्ला विरूद्ध दरोगा सिंह, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 320 (पैरा-11) तथा म.प्र.राज्य विरूद्ध रमेष प्रसाद मिश्रा, 1996(3) क्राइम्स 181 एस.सी. का अवलंब लेते हुये उचित रूप से इस विधिक स्थिति की ओर से न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया है कि पक्ष विरोधी साक्षी की अभिसाक्ष्य को यंत्रवत तरीके से पूरी तरह रद्द नहीं किया जाना चाहिये तथा सघन परीक्षण के बाद यदि ऐसी साक्ष्य अभियोजन की कहानी अथवा बचाव पक्ष द्वारा ली गयी प्रतिरक्षा से संगत है तो उसका उपयोग उस सीमा तक किया जाना चाहिये। निष्चय ही उक्त विधिक स्थिति सुस्थापित है तथा रमेष (अ.सा.3) एवं धरमसिंह (अ.सा.7) की अभिसाक्ष्य का विष्लेषण करते समय उक्त विधिक स्थिति को दृष्टिगत रखा जाना चाहिये।
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21. बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में न्याय दृष्टांत विरेन्द्र कुमार प्यासी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1993(प्प्) डण्च्ण्ॅण्छण् छवजम.77 का अवलम्ब लेते हुये यह तर्क किया है कि सभी चोटें साधारण प्रकृति की हैं अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्तगण का आषय ओंकार पुरी (अ.सा.2) की हत्या करने का था। अवलम्बित मामले के तथ्यों पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि इस मामले में आहत को चाकू से 7 चोटें पहुॅचायी गयी थी, जिनमें से एक चोट सीने पर भी थी तथा कोई भी चोट शरीर के मार्मिक हिस्से पर नहीं थी अतः मामले को ’संहिता’ की धारा 307 के बजाय धारा 324 की परिधि में रखा गया। लेकिन वर्तमान मामले में यह प्रकट है कि ओंकार पुरी (अ.सा.2) के सिर पर, जो शरीर का एक मार्मिक हिस्सा है, 5 ग् 1 ग् 6 से.मी. आकार का हड्डी तक गहरा फटा हुआ घाव कारित किया तथा सिर की ऐसी चोट कभी भी, किसी भी व्यक्ति के लिये प्राण-घातक साबित हो सकती है, इस स्थिति को सहज ही नकारा नहीं जा सकता है।
22. उक्त क्रम में विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ भी समीचीन होगा। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
23. ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ: म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
24. धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
25. उपरोक्त विधिक स्थिति से यह सुप्रकट है कि अभियुक्तगण के आषय के निर्धारण में उसके द्वारा कार्य की निरंतरता, चोटें कारित करने हेतु अवसर और समय की पर्याप्तता, हथियार का स्वरूप तथा चोटों का स्थान जैसे तत्व सहायक हो सकते हैं, लेकिन सदैव ही चोट की प्रकृति मात्र के आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि आषय हत्या करने का नहीं था। वर्तमान मामले में ओंकार पुरी (अ.सा.2) के सिर पर, जो एक संवेदनषील हिस्सा है, बड़े आकार का फटा हुआ घाव पाया गया है, कंधे पर मौजूद तीन चोटें कहीं न कहीं यह इंगित करती है कि प्रहार सिर के मार्मिक भाग के आस-पास किया गया, पीठ पर पायी गयी दो लम्बी चोटें भी मेरूदण्ड को किन्हीं परिस्थितियों में भारी क्षति कारित कर सकती थीं, यह बात अलग है कि ऐसी क्षति कारित नहीं हुयी। ऐसी दषा में मामले की सम्पूर्ण परिस्थितियों को देखते हुये एकमेव यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अभियुक्तगण सामान्य आषय के अग्रषरण में ओंकार पुरी (अ.सा.2) को उक्त उपहति कारित कर उसकी हत्या करना चाहते थे।
26. परिणामस्वरूप अभिलेखगत साक्ष्य के आधार पर अभियुक्तगण के विरूद्ध ’संहिता’ की धारा 307/34 का यह आरोप युक्तियुक्त शंका और संदेह के परे प्रमाणित है कि घटना दिनाॅंक 05.12.2009 को शाम लगभग 4.30 बजे उन्होंने ग्राम भाऊखेड़ी में ओंकार पुरी (अ.सा.2) के खेत के निकट सामान्य आषय के अग्रषरण में उसके सिर पर तथा शरीर के अन्य भागों पर लाठी और ’निजन’ से प्रहार कर उसकी हत्या का प्रयास किया।
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23. ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
24. महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
25. ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
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30. दण्ड के संबंध में अभियुक्त को सुना गया। अभियुक्त की ओर से यह प्रार्थना की गयी है कि वह युवा है तथा उसका कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है अतः दण्ड के संबंध मंे उदार दृष्टिकोण अपनाया जाये। दण्ड अधिरोपित किये जाने के संबंध में यह विधिक स्थिति ध्यान में रखना आवष्यक है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो, संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.
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उक्त क्रम में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि साक्षी के कथन में आयी ऐसी विसंगतियाॅ, जो मामले की तह तक नहीं जाती हंै तथा प्रकीर्ण स्वरूप की हैं, उसकी अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय ठहराये जाने का आधार नहीं बनायी जा सकती हैं। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा साक्षी मिले जिसकी अभिसाक्ष्य में अतिरंजनायें, विसंगतियाॅं या असत्य का अंश न हो, लेकिन मात्र इस आधार पर उसकी अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से अस्वीकृत करना न्याय सम्मत नहीं है। न्यायालय का यह कर्तव्य है कि ऐसे मामले में वह सत्य और झूंठ का पता लगाये तथा यदि आधारभूत बिन्दुओं पर साक्ष्य विश्वास योग्य है तो उसका उपयोग करे। केवल उसी दशा में ही सम्पूर्ण साक्ष्य को अस्वीकृत किया जा सकता है, जब सत्य और झूंठ को पृथक करना असम्भव हो।
एकल साक्षी-
15. यद्यपि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में ऐसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूर्णतः विष्वसनीय होनी चाहिये। यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वेदी वेलू थिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
21. इसी क्रम में उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.लाॅ.जर्नल पेज 88 = ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज 1998 दिशा निर्धारक मामले में शीर्षस्थ न्यायालय ने दांडिक मामलों में साक्ष्य विश्लेषण संबंधी सिद्धांत की गहन एवं विस्तृत समीक्षा करते हुये यह प्रतिपादित किया है कि यदि प्रस्तुत किया गया मामला अन्यथा सत्य एवं स्वीकार है तो उसे केवल इस आधार पर अस्वीकार करना उचित नहीं है कि घटना के सभी साक्षीगण तथा स्वतंत्र साक्षीगण को संपुष्टि के लिये प्रस्तुत नहीं किया गया है। साक्ष्यगत अतिरंजना के विषय में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह इंगित किया है कि हमारे देश के साक्षियों में यह प्रवृत्ति होती है कि किसी भी अच्छे मामले का अतिश्योक्तिपूर्ण कथन द्वारा समर्थन किया जाये तथा साक्षीगण इस भय के कारण भी अभियोजन पक्ष के वृतांत में नमक मिर्च मिला देते हैं कि उस पर विश्वास किया जायेगा, किन्तु यदि मुख्य मामले में सच्चाई का अंश है तो उक्त कारणवश उनकी साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह साक्ष्य में से वास्तविक सच्चाई का पता लगाये तथा इस क्रम में यह स्मरण रखना आवश्यक है कि कोई न्यायाधीश दांडिक विचारण में मात्र यह सुनिश्चित करने के लिये पीठासीन नहीं होता कि कोई निर्दोष व्यक्ति दण्डित न किया जाये अपितु न्यायाधीश यह सुनिश्चित करने के लिये भी कर्तव्यबद्ध है कि अपराधी व्यक्ति बच न निकले।
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बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि ब्रजेष की उक्त चोट को अभियोजन ने स्पष्टीकृत नहीं किया है अतः अभियोजन की कहानी युक्तियुक्त संदेहग्रस्त हो जाती है। इस तर्क के समर्थन में न्याय दृष्टांत डी.बी.शणमुगम विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1997 (एस.सी.) 2583 का अवलंब भी लिया गया है, जिनमें अभियुक्त पक्ष को आयी चोटों के स्पष्ट न किये जाने के बारे में विधिक स्थिति पर विचार किया गया है।
25. न्याय दृष्टांत डी.बी.शणमुगम (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिषा निर्धारक निर्णय लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर 1976 (एस.सी.) 2263 का अवलंब लेते हुये इस स्थिति को स्पष्ट किया गया है कि यदि अभियुक्त पक्ष की चोटें गंभीर प्रकृति की है और उन्हें स्पष्ट नहीं किया गया है, वहाॅं यह उपधारित किया जा सकता है कि अभियोजन ने घटना की वस्तु-स्थिति को छिपाने का प्रयास किया है।
26. वर्तमान मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि अभियोजन के द्वारा अभियुक्त ब्रजेष की चोटों को छिपाने का प्रयास किया गया है, क्योंकि ब्रजेष के गिरफ्तारी पत्रक प्र.पी-3 की कंडिका 7 में ही इस बात का उल्लेख है कि दिनाॅंक 04.06.2009 को बंदी बनाये जाते समय उसके बांये हाथ की दूसरी ऊंगली में कटने की चोट पायी गयी। तद्क्रम में उसका मेडिकल परीक्षण अभियोजन के द्वारा कराया एवं मेडिकल परीक्षण प्रतिवेदन प्र.डी-4 अभियोगपत्र के साथ प्रस्तुत किया गया। अभियुक्त ब्रजेष भील के द्वारा हरिनारायण (अ.सा.2) को ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया गया है कि उसने प्रष्नगत घटना के समय या उसके पूर्व उसकी ऊंगली को काट लिया था। कंडिका 9 में हरिनारायण (अ.सा.2) को मात्र यह सुझाव दिया गया है कि उसके लड़के संजय ने दिन के 5-6 बजे डण्डे से मारपीट की थी, निष्चय ही डण्डे से ऊंगली का कटना संभव नहीं है। साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि 4 जून को बंदी बनाये जाने से पूर्व अभियुक्त ब्रजेष के द्वारा उसके बांये हाथ में आयी उक्त चोट के बारे में हरिनारायण (अ.सा.2) या अन्य के विरूद्ध कोई षिकायत पुलिस में नहीं की गयी है। ऐसी दषा में यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रष्नगत चोट उसे प्रष्नगत घटनाक्रम में कारित हुयी।
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एकल साक्षी-15. यद्यपि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में ऐसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूर्णतः विष्वसनीय होनी चाहिये। यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वादी वेलू थिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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13. दिनेष कुमार (अ.सा.2) का नाम प्राथमिकी प्र.डी-3 में प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में नहीं लिखाया गया है तथा इस आधार पर बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) की साक्ष्य को प्रत्यक्षदर्षी साक्षी की साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाना विधि-सम्मत नहीं होगा। लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट अपने आप में घटना का विस्तृत ज्ञानकोष नहीं है तथा ऐसी रिपोर्ट में मामले की एक सामान्य तस्वीर होना ही आवष्यक है तथा यह जरूरी नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित विषिष्टियाॅं उल्लिखित की जाये, संदर्भ:- बल्देव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 (एस.सी.) 372.
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11. उक्त क्रम में सजनसिंह (अ.सा.3) की अभिसाक्ष्य भी दृष्ट्व्य है। यद्यपि अभियोजन ने इस साक्षी को पक्ष विरोधी घोषित किया है, लेकिन यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि मात्र पक्ष विरोधी घोषित किये जाने से किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूरी तरह धुल नहीं जाती है तथा यदि उसका कोई अंष विष्वास योग्य है तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है। (संदर्भ:- खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853)
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15. इस बात के बावजूद कि पंच साक्षी देवेन्द्र सिंह (अ.सा.3) एवं मांगीलाल (अ.सा.11) की अभिसाक्ष्य छत्रपाल सिंह सोलंकी (अ.सा.12) की अभिसाक्ष्य को सम्पुष्ट नहीं करती है, छत्रपाल सिंह सोलंकी (अ.सा.12) की अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से इस आधार पर रदद् नहीं किया जा सकता कि वे पुलिस अधिकारी हैं, संदर्भ:- न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425 ।
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19. उक्त पृष्ठभूमि में अभिलेख पर प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में एक मात्र रमेष (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य शेष रह जाती है। बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में यह तर्क किया गया है कि रमेष (अ.सा.1) जो एकल हितबद्ध साक्षी है तथा जिसकी अभिसाक्ष्य की सम्पुष्टि किसी स्वतंत्र स्त्रोत से नहीं हुयी है पर विष्वास किया जाना सुरक्षित नहीं है, लेकिन उक्त तर्क विधि सम्मत न होने के कारण स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। न्याय दृष्टांत वादी वेलूथिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 के मामले में यह ठहराया गया है कि यदि एकल साक्षी पूर्णतः विष्वास योग्य है तो स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि के अभाव में भी उसकी अभिसाक्ष्य पर निर्भर किया जा सकता है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी.-401 में पुनः रेखांकित किया गया है। जहाॅं तक स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि का प्रष्न है यह आवष्यक नहीं है कि प्रत्येक मामले में स्वतंत्र साक्षी उपलब्ध हों। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998 में यह इंगित किया गया है कि यह देखने में आया है कि स्वतंत्र साक्षी प्रायः अभियोजन घटनाक्रम का समर्थन करने के लिये बहुत अधिक इच्छुक नहीं रहते हैं, ऐसी दषा में उपलब्ध साक्ष्य को मात्र यह कहकर अस्वीकृत कर देना कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसका समर्थन नहीं होता है, उचित नहीं है।
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13. दिनेष कुमार (अ.सा.2) का नाम प्राथमिकी प्र.डी-3 में प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में नहीं लिखाया गया है तथा इस आधार पर बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) की साक्ष्य को प्रत्यक्षदर्षी साक्षी की साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाना विधि-सम्मत नहीं होगा। लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट अपने आप में घटना का विस्तृत ज्ञानकोष नहीं है तथा ऐसी रिपोर्ट में मामले की एक सामान्य तस्वीर होना ही आवष्यक है तथा यह जरूरी नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित विषिष्टियाॅं उल्लिखित की जाये, संदर्भ:- बल्देव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 (एस.सी.) 372. इस क्रम में यह बात भी उल्लेखनीय है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) को प्रतिपरीक्षण की कंडिका 5 में यह सुझाव दिया गया है जब टापरी जली तो वह, उसका पिता (परसराम-अ.सा.1), रामसिंह तथा मल्की बाई मौजूद थे, जिसे इस साक्षी ने स्वीकार किया है। इस सुझाव के परिप्रेक्ष्य में भी घटनास्थल पर दिनेष कुमार (अ.सा.2) की उपस्थिति संदेहास्पद नहीं लगती है।
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11. उक्त क्रम में सजनसिंह (अ.सा.3) की अभिसाक्ष्य भी दृष्ट्व्य है। यद्यपि अभियोजन ने इस साक्षी को पक्ष विरोधी घोषित किया है, लेकिन यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि मात्र पक्ष विरोधी घोषित किये जाने से किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूरी तरह धुल नहीं जाती है तथा यदि उसका कोई अंष विष्वास योग्य है तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है। (संदर्भ:- खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853)
लालाराम मीणा, अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश गाडरवारा भोपाल
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