मृत्युकालिक कथन
1. मरणासन्न कथन साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत
एवं ग्राह्य है। किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी मृत्यु के एकदम निकट आ जाने
के समय किये गये मरणासन्न कथन की एक विषेष सम्माननीयता है क्योंकि उस
नितांत गम्भीर क्षण में यह संभावना बहुत ही कम है कि कोई व्यक्ति कोई असत्य
कथन करेगा। आसन्न मृत्यु की आहट का सुनायी देने लग जाना अपने आप में उस
कथन के सत्य होने की गारंटी है जो मृतक के द्वारा उन कारणों और
परिस्थितियों के संबंध में किया जाता है जिनकी परिणति उसकी मृत्यु में हुयी
है। अतः साक्ष्य के एक भाग के रूप में मृत्युकालिक कथन की स्थिति
अतिपवित्र है क्योंकि वह उस व्यक्ति के द्वारा किया गया होता है जो मृत्यु
का आखेट बना है। एक बार जब मरने वाले व्यक्ति का कथन और उसे प्रमाणित करने
वाले साक्षियों की साक्ष्य न्यायालयों की सावधानीपूर्ण संवीक्षा की परीक्षा
में उत्तीर्ण हो जाये तब वह साक्ष्य का बहुत ही महत्वपूर्ण और निर्भरणीय
भाग बन जाता है और यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि मृत्युकालिक
कथन सच्चा है और किसी भी बनावटीपन से मुक्त है, तो ऐसा मृत्युकालिक कथन अपने आप में ही, किसी सम्पुष्टि की तलाष के बिना ही, दोष-सिद्धि को लेखबद्ध करने के लिये पर्याप्त हो सकता है, बषर्तें वह मृतक के द्वारा तब किये गये हो जब वह स्वस्थ मानसिक स्थिति में था, संदर्भ:- कुंदुला
बाला सुब्रहमण्यम बनाम आंधप्रदेष राज्य, 1993(2) एस.सी.सी. 684. एवं
पी.वी.राधाकृष्ण विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2003(6) एस.सी.सी. 443
2. पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया मृत्युुकालिक कथन स्वीकार्य है तथापि अन्वेषण अधिकारी द्वारा मृत्युकालिक कथन के अभिलिखित किये जाने की प्रथा को हतोत्साहित किया गया है और मााननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि अन्वेषण अधिकारी मृत्युकालिक कथन अभिलिखित किये जाने हेतु मजिस्ट्रेट की सेवाओं का उपयोग करें, यदि ऐसा करना संभव हो। इसका एक मात्र अपवाद तब है जब मृतक इतनी संकटपूर्ण स्थिति में हो कि सिवाय इसके कोई अन्य विकल्प शेष न रह जाये कि कथन को अन्वेषण अधिकारी या पुलिस अधिकारी के द्वारा अभिलिखित किया जाये और बाद में उसके ऊपर मृत्युकालिक कथन के रूप मंे निर्भर रहा जाये, संदर्भ:- श्रीमती लक्ष्मी विरूद्ध ओमप्रकाष आदि, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2383. न्याय दृष्टांत मुन्नु राजा व अन्य विरूद्ध म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1976 सु.को. 2199 के मामले अन्वेषण अधिकारी के द्वारा लेखबद्ध किये गये मृत्युकालिक कथन को इस आधार पर अपवर्जित कर दिया गया कि उसे अभिलिखित किये जाने के लिये मजिस्ट्रेट की सेवाओं की अध्यपेक्षा करने पर हुयी विफलता के लिये कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था।
3. न्याय दृष्टांत लक्ष्मण विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2973 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की पाॅच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया है कि मरणासन्न कथन को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि चिकित्सक के द्वारा मरणासन्न व्यक्ति की कथन देने बाबत् मानसिक सक्षमता का प्रमाण-पत्र नहीं लिया गया है। इस मामले में यह ठहराया गया है कि मरणासन्न कथन लेखबद्ध करने वाले कार्यपालक मजिस्ट्रेट की यह साक्ष्य पर्याप्त है कि कथन देने वाला व्यक्ति कथन देने की सक्षम मनःस्थिति में था।
4. न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध गुब्बा सत्यनारायण, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 101 में पीडि़ता को अस्पताल में भर्ती कराये जाने के समय उसने चिकित्सक को यह बताया था कि वह दुर्घटनावष आग से जल गयी है, चिकित्सक के द्वारा अपने प्रतिवेदन में अंकित की गयी इस टीप को मृत्युकालिक कथन मानते हुये यह ठहराया गया कि ऐसे कथन पर, जो प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया गया है तथा जिसके बारे में ऐसी कोई आंषका नहीं है कि मृतिका उस समय सचेत हालत मेें नहीं थी, अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है।
2. पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया मृत्युुकालिक कथन स्वीकार्य है तथापि अन्वेषण अधिकारी द्वारा मृत्युकालिक कथन के अभिलिखित किये जाने की प्रथा को हतोत्साहित किया गया है और मााननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि अन्वेषण अधिकारी मृत्युकालिक कथन अभिलिखित किये जाने हेतु मजिस्ट्रेट की सेवाओं का उपयोग करें, यदि ऐसा करना संभव हो। इसका एक मात्र अपवाद तब है जब मृतक इतनी संकटपूर्ण स्थिति में हो कि सिवाय इसके कोई अन्य विकल्प शेष न रह जाये कि कथन को अन्वेषण अधिकारी या पुलिस अधिकारी के द्वारा अभिलिखित किया जाये और बाद में उसके ऊपर मृत्युकालिक कथन के रूप मंे निर्भर रहा जाये, संदर्भ:- श्रीमती लक्ष्मी विरूद्ध ओमप्रकाष आदि, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2383. न्याय दृष्टांत मुन्नु राजा व अन्य विरूद्ध म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1976 सु.को. 2199 के मामले अन्वेषण अधिकारी के द्वारा लेखबद्ध किये गये मृत्युकालिक कथन को इस आधार पर अपवर्जित कर दिया गया कि उसे अभिलिखित किये जाने के लिये मजिस्ट्रेट की सेवाओं की अध्यपेक्षा करने पर हुयी विफलता के लिये कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था।
3. न्याय दृष्टांत लक्ष्मण विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2973 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की पाॅच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया है कि मरणासन्न कथन को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि चिकित्सक के द्वारा मरणासन्न व्यक्ति की कथन देने बाबत् मानसिक सक्षमता का प्रमाण-पत्र नहीं लिया गया है। इस मामले में यह ठहराया गया है कि मरणासन्न कथन लेखबद्ध करने वाले कार्यपालक मजिस्ट्रेट की यह साक्ष्य पर्याप्त है कि कथन देने वाला व्यक्ति कथन देने की सक्षम मनःस्थिति में था।
4. न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध गुब्बा सत्यनारायण, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 101 में पीडि़ता को अस्पताल में भर्ती कराये जाने के समय उसने चिकित्सक को यह बताया था कि वह दुर्घटनावष आग से जल गयी है, चिकित्सक के द्वारा अपने प्रतिवेदन में अंकित की गयी इस टीप को मृत्युकालिक कथन मानते हुये यह ठहराया गया कि ऐसे कथन पर, जो प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया गया है तथा जिसके बारे में ऐसी कोई आंषका नहीं है कि मृतिका उस समय सचेत हालत मेें नहीं थी, अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है।
5. न्याय दृष्टांत रमन कुमार विरूद्ध पंजाब राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज. 3034 एस.सी. के मामले में भी उपचार शीट में आहत व्यक्ति द्वारा दी गयी इस जानकारी को कि गैस स्टोव जलाते समय अचानक आग लग जाने से घटना घटित हुयी है, मृत्युकालिक कथन के रूप में स्वीकार्य माना गया।
6 न्याय दृष्टांत प्रकाष विरूद्ध कर्नाटक राज्य, (2007) 3 एस.सी.सी. (क्रिमिनल) 704 के मामले में आहत व्यक्ति को अस्पताल ले जाये जाने के तुरंत बाद पुलिस अधिकारी ने उसका मृत्युकालिक कथन लेखबद्ध किया था, जिसमें उसने दुर्घटना के कारण आग लगना बताया था, इस कथन को मामले की परिस्थितियों में मृत्युकालिक कथन के रूप मंें विष्वास योग्य ठहराया गया।
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