भरण-पोषण धारा 125 द.प्र.स. 1973 के प्रावधान
प्रायः न्यायिक मजिस्टेªट प्रथम श्रेणी के न्यायालय में भरण पोषण संबंधी प्रार्थना पत्र किसी व्यक्ति की पत्नी अवयस्क संतानें या माता-पिता द्वारा प्रस्तुत किये जाते हैं इनके निराकरण के संबंध में आवश्यक वैधानिक बिन्दु और नवीनतम वैधानिक स्थिति को समझ लेना अत्यंत आवश्यक होता है। कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर हम क्रमवार चर्चा करेंगे ।
न्याय दृष्टांत कैप्टन रमेश चंद कौशल विरूद्ध श्रीमती बीना कौशल ए.आई.आर 1978 एस.सी. 1807 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 125 द.प्र.स. 1973 के प्रावधानों को परित्यक्त महिलाओं और बच्चांे के साथ सामाजिक न्याय हो सके इसका उपाय इन प्रावधानों को बताया है और ये प्रतिपादित किया है कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15 और 39 में दिये गये अधिकारों की सुरक्षा कर सकें । इस तरह से इनका अर्थान्वयन किया जाना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत सविता बेन विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात 2005 ए.आई.आर. एस.सी.डब्लू. 1601 भी अवलोकनीय है ।
इन प्रावधानों का उद्देश्य यह है कि परित्यक्त पत्नी अवयस्क बच्चों वृद्ध माता-पिता की सुरक्षा और उनके मूलभूत अधिकार रोटी कपड़ा और मकान उन्हें मिल सकें। अतः इन प्रावधानो ंको इस प्रकार लागू किया जाना चाहिए कि अधिनियम के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके ।
1. धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में यह प्रावधान है किः-
1. यदि पर्याप्त साधनों वाला कोई व्यक्ति:-
एः- अपनी पत्नी का जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है,
बीः- अपनी धर्मज या अधर्मज अवयस्क संतान का चाहे विवाहित हो या न हो जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है,
सीः- अपनी धर्मज या अधर्मज संतान का, (जो विवाहित पुत्री नहीं है), जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है लेकिन ऐसी संतान किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है, या
डीः- अपने पिता या माता का जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है,
भरण पोषण करने में उपेक्षा या इंकार करता है तब प्रथम वर्ग मजिस्टेªट या ऐसी उपेक्षा या इंकार के साबित हो जाने पर ऐसे व्यक्ति को यह निर्देश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी या ऐसी संतान या पिता या माता के भरण पोषण के लिए ऐसी मासिक दर पर जिसे मजिस्टेªट ठीक समझे मासिक भत्ता दे और उस भत्ते का सदंाय ऐसे व्यक्ति को करें जिसको संदाय करने का मजिस्टेªट समय-समय पर निर्देश दें ।
परंतु विवाहित पुत्री यदि अवयस्क है और उसके पति के पास पर्याप्त साधन नहीं है तब मजिस्टेªट उसके पिता को उक्त निर्देश दे सकता है ।
वर्ष 2001 के संशोधन द्वारा मूल कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अंतरिम भरण-पोषण देने के प्रावधान भी जोड़े गये हैं और अंतरिम भरण-पोषण के आवेदन पत्र को 60 दिन के भीतर निपटाने के निर्देश दिये गये हैं ।
स्पष्टीकरणः- ए. अवयस्क से तात्पर्य ऐसा व्यक्ति है जिसने भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 के तहत वयस्कता प्राप्त नहीं की है ।
बी. पत्नी के अंतर्गत ऐसी स्त्री भी है जिसके पति ने उससे या उसने अपने पति से विवाह विच्छेद कर लिया है और पुर्नविवाह नहीं किया है ।
2. भरण पोषण या अंतरिम भरण पोषण के लिए कोई भत्ता और कार्यवाही के लिए व्यय आदेश दिनांक से या आवेदन पत्र दिनांक से दिलवाये जा सकते हैं ।
3. यदि कोई व्यक्ति जिसे उक्त आदेश दिया गया हो उस आदेश का अनुपालन करने में पर्याप्त कारण के बिना असफल रहता है तो उस आदेश के प्रत्येक भंग के लिए मजिस्टेªट जुर्माना वसूली की तरह राशि को वसूल करने के लिए वारण्ट जारी कर सकता है और उस व्यक्ति को एक मास की अवधि तक के लिए कारावास का दण्ड भी दे सकता है । ऐसा आवेदन जब रकम देय हो जाती है तो उसके एक वर्ष के भीतर प्रस्तुत किया जाना चाहिए ।
यदि वह व्यक्ति यह प्रस्ताव करता है कि उसकी पत्नी उसके साथ रहे और पत्नी साथ रहने से इंकार करती है तब मजिस्टेªट इंकारी के आधारों पर भी विचार कर सकता है । और यदि मजिस्टेªट का समाधान हो जाता है कि पत्नी के पास पति के साथ रहने से इंकार करने के न्यायसंगत आधार हैं तो भरण पोषण का आदेश कर सकता है ।
स्पष्टीकरणः- यदि पति ने अन्य स्त्री से विवाह कर लिया है या वह रखैल रखता है तो पत्नी द्वारा पति के साथ रहने से इंकार करने का पर्याप्त आधार माना जायेगा ।
4. यदि कोई पत्नी जारता की दशा में रह रही है या पर्याप्त कारण के बिना पति के साथ रहने से इंकार करती है या वह पारस्परिक सम्मति से पृथक रह रहे हैं तो पत्नी भरण पोषण या अंतरिम भरण पोषण पाने के अधिकारी नहीं होगी ।
5. मजिस्टेªट यह साबित होने पर आदेश को रद्द कर सकता है कि कोई पत्नी जिसके पक्ष में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया है जारता की दशा में रह रही है अथवा पर्याप्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है या वह पारस्परिक सम्मति से पृथक रह रहे हैं ।
धारा 125 द.प्र.सं. 1973 मेें मध्य प्रदेश का स्थानीय संशोधन भी जोड़ा गया है जिसके अनुसार धारा 125 में पितामह, मातामह अर्थात ग्राण्डफादर और ग्राण्डमदर भी यदि अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है तो उन्हें भी भरण पोषण दिलाने के निर्देश दिये जा सकते हैं लेकिन उनका कोई पुत्र या पुत्रियां जीवित नहीं हो तभी उनके पोते या पोतियों से भरण पोषण दिलवाया जा सकता है ।
2. विचारणीय प्रश्न
2 इन मामलों में अनावेदक का जवाब आने पर सिविल मामलों की तरह कोई वाद प्रश्न नहीं बनते हैं और न ही दाण्डिक मामलों की तरह आरोप रचना जैसी कोई व्यवस्था है सामान्यतः इन मामलों में अंतिम आदेश के समय निम्नलिखित विचारणीय प्रश्न बनाये जा सकते हैं यदि तथ्य स्वीकृत न हो तब निम्नलिखित विचारणीय प्रश्न बनाकर उन पर निष्कर्ष देना चाहिए:-
1. क्या प्रार्थी/प्रार्थीगण अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है ?
2. क्या प्रतिप्रार्थी के पास पर्याप्त साधन है ?
3. क्या प्रतिप्रार्थी, प्रार्थी/प्रार्थीगण के भरण पोषण में उपेक्षा या इंकार करता है ?
4. क्या प्रार्थी का अपने पति प्रतिप्रार्थी के साथ रहने से इंकार करने का न्यायसंगत आधार है ?
5. क्या प्रार्थी/प्रतिप्रार्थीगण भरण पोषण पाने के पात्र हैं यदि हां तो किस मासिक दर से और किस दिनांक से ?
सामान्यतः इन कार्यवाहियों में उक्त विचारणीय प्रश्न बनते हैं यदि प्रार्थी का विवाहित पत्नी होना विवादित हो तब इस संबंध में भी प्रश्न बन सकता है या मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में अन्य विचारणीय प्रश्न भी बन सकते हैं।ं
प्रायः न्यायिक मजिस्टेªट प्रथम श्रेणी के न्यायालय में भरण पोषण संबंधी प्रार्थना पत्र किसी व्यक्ति की पत्नी अवयस्क संतानें या माता-पिता द्वारा प्रस्तुत किये जाते हैं इनके निराकरण के संबंध में आवश्यक वैधानिक बिन्दु और नवीनतम वैधानिक स्थिति को समझ लेना अत्यंत आवश्यक होता है। कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर हम क्रमवार चर्चा करेंगे ।
न्याय दृष्टांत कैप्टन रमेश चंद कौशल विरूद्ध श्रीमती बीना कौशल ए.आई.आर 1978 एस.सी. 1807 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 125 द.प्र.स. 1973 के प्रावधानों को परित्यक्त महिलाओं और बच्चांे के साथ सामाजिक न्याय हो सके इसका उपाय इन प्रावधानों को बताया है और ये प्रतिपादित किया है कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15 और 39 में दिये गये अधिकारों की सुरक्षा कर सकें । इस तरह से इनका अर्थान्वयन किया जाना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत सविता बेन विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात 2005 ए.आई.आर. एस.सी.डब्लू. 1601 भी अवलोकनीय है ।
इन प्रावधानों का उद्देश्य यह है कि परित्यक्त पत्नी अवयस्क बच्चों वृद्ध माता-पिता की सुरक्षा और उनके मूलभूत अधिकार रोटी कपड़ा और मकान उन्हें मिल सकें। अतः इन प्रावधानो ंको इस प्रकार लागू किया जाना चाहिए कि अधिनियम के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके ।
1. धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में यह प्रावधान है किः-
1. यदि पर्याप्त साधनों वाला कोई व्यक्ति:-
एः- अपनी पत्नी का जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है,
बीः- अपनी धर्मज या अधर्मज अवयस्क संतान का चाहे विवाहित हो या न हो जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है,
सीः- अपनी धर्मज या अधर्मज संतान का, (जो विवाहित पुत्री नहीं है), जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है लेकिन ऐसी संतान किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है, या
डीः- अपने पिता या माता का जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है,
भरण पोषण करने में उपेक्षा या इंकार करता है तब प्रथम वर्ग मजिस्टेªट या ऐसी उपेक्षा या इंकार के साबित हो जाने पर ऐसे व्यक्ति को यह निर्देश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी या ऐसी संतान या पिता या माता के भरण पोषण के लिए ऐसी मासिक दर पर जिसे मजिस्टेªट ठीक समझे मासिक भत्ता दे और उस भत्ते का सदंाय ऐसे व्यक्ति को करें जिसको संदाय करने का मजिस्टेªट समय-समय पर निर्देश दें ।
परंतु विवाहित पुत्री यदि अवयस्क है और उसके पति के पास पर्याप्त साधन नहीं है तब मजिस्टेªट उसके पिता को उक्त निर्देश दे सकता है ।
वर्ष 2001 के संशोधन द्वारा मूल कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अंतरिम भरण-पोषण देने के प्रावधान भी जोड़े गये हैं और अंतरिम भरण-पोषण के आवेदन पत्र को 60 दिन के भीतर निपटाने के निर्देश दिये गये हैं ।
स्पष्टीकरणः- ए. अवयस्क से तात्पर्य ऐसा व्यक्ति है जिसने भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 के तहत वयस्कता प्राप्त नहीं की है ।
बी. पत्नी के अंतर्गत ऐसी स्त्री भी है जिसके पति ने उससे या उसने अपने पति से विवाह विच्छेद कर लिया है और पुर्नविवाह नहीं किया है ।
2. भरण पोषण या अंतरिम भरण पोषण के लिए कोई भत्ता और कार्यवाही के लिए व्यय आदेश दिनांक से या आवेदन पत्र दिनांक से दिलवाये जा सकते हैं ।
3. यदि कोई व्यक्ति जिसे उक्त आदेश दिया गया हो उस आदेश का अनुपालन करने में पर्याप्त कारण के बिना असफल रहता है तो उस आदेश के प्रत्येक भंग के लिए मजिस्टेªट जुर्माना वसूली की तरह राशि को वसूल करने के लिए वारण्ट जारी कर सकता है और उस व्यक्ति को एक मास की अवधि तक के लिए कारावास का दण्ड भी दे सकता है । ऐसा आवेदन जब रकम देय हो जाती है तो उसके एक वर्ष के भीतर प्रस्तुत किया जाना चाहिए ।
यदि वह व्यक्ति यह प्रस्ताव करता है कि उसकी पत्नी उसके साथ रहे और पत्नी साथ रहने से इंकार करती है तब मजिस्टेªट इंकारी के आधारों पर भी विचार कर सकता है । और यदि मजिस्टेªट का समाधान हो जाता है कि पत्नी के पास पति के साथ रहने से इंकार करने के न्यायसंगत आधार हैं तो भरण पोषण का आदेश कर सकता है ।
स्पष्टीकरणः- यदि पति ने अन्य स्त्री से विवाह कर लिया है या वह रखैल रखता है तो पत्नी द्वारा पति के साथ रहने से इंकार करने का पर्याप्त आधार माना जायेगा ।
4. यदि कोई पत्नी जारता की दशा में रह रही है या पर्याप्त कारण के बिना पति के साथ रहने से इंकार करती है या वह पारस्परिक सम्मति से पृथक रह रहे हैं तो पत्नी भरण पोषण या अंतरिम भरण पोषण पाने के अधिकारी नहीं होगी ।
5. मजिस्टेªट यह साबित होने पर आदेश को रद्द कर सकता है कि कोई पत्नी जिसके पक्ष में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया है जारता की दशा में रह रही है अथवा पर्याप्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है या वह पारस्परिक सम्मति से पृथक रह रहे हैं ।
धारा 125 द.प्र.सं. 1973 मेें मध्य प्रदेश का स्थानीय संशोधन भी जोड़ा गया है जिसके अनुसार धारा 125 में पितामह, मातामह अर्थात ग्राण्डफादर और ग्राण्डमदर भी यदि अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है तो उन्हें भी भरण पोषण दिलाने के निर्देश दिये जा सकते हैं लेकिन उनका कोई पुत्र या पुत्रियां जीवित नहीं हो तभी उनके पोते या पोतियों से भरण पोषण दिलवाया जा सकता है ।
2. विचारणीय प्रश्न
2 इन मामलों में अनावेदक का जवाब आने पर सिविल मामलों की तरह कोई वाद प्रश्न नहीं बनते हैं और न ही दाण्डिक मामलों की तरह आरोप रचना जैसी कोई व्यवस्था है सामान्यतः इन मामलों में अंतिम आदेश के समय निम्नलिखित विचारणीय प्रश्न बनाये जा सकते हैं यदि तथ्य स्वीकृत न हो तब निम्नलिखित विचारणीय प्रश्न बनाकर उन पर निष्कर्ष देना चाहिए:-
1. क्या प्रार्थी/प्रार्थीगण अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है ?
2. क्या प्रतिप्रार्थी के पास पर्याप्त साधन है ?
3. क्या प्रतिप्रार्थी, प्रार्थी/प्रार्थीगण के भरण पोषण में उपेक्षा या इंकार करता है ?
4. क्या प्रार्थी का अपने पति प्रतिप्रार्थी के साथ रहने से इंकार करने का न्यायसंगत आधार है ?
5. क्या प्रार्थी/प्रतिप्रार्थीगण भरण पोषण पाने के पात्र हैं यदि हां तो किस मासिक दर से और किस दिनांक से ?
सामान्यतः इन कार्यवाहियों में उक्त विचारणीय प्रश्न बनते हैं यदि प्रार्थी का विवाहित पत्नी होना विवादित हो तब इस संबंध में भी प्रश्न बन सकता है या मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में अन्य विचारणीय प्रश्न भी बन सकते हैं।ं
3.. प्रमाण भार का स्तर
3. इन मामलों में प्रार्थी/प्रार्थीगण अपना मामला अधिसंभावना की प्रबलता के स्तर तक प्रमाणित करना होता है। युक्तियुक्त संदेह से परे तथ्यों को प्रमाणित करना आवश्यक नहीं होता है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत राधामणि विरूद्ध मोनू 1986 सी.आर.एल.जे. 1129 अवलोकनीय है।
इन मामलों मेें विवाह का कठोर प्रमाण आवश्यक नहीं होता है। प्रथम दृष्टया यह प्रमाणित होना चाहिए कि प्राथी और प्रतिप्रार्थी पति पत्नी की तरह रहते हैं। आवश्यक अनुष्ठान प्रमाणित न होना घातक नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत द्वारिका प्रसाद विरूद्ध विद्युत प्रवा दीक्षित 2000 सी.आर.एल.जे. 1 अवलोकनीय है । साथ ही न्याय दृष्टांत सुमित्रा देवी विरूद्ध भीखन चैधरी ए.आई.आर. 1985 एस.सी. 765 भी अवलोकनीय है। पूर्व विवाह के बारे में और उसके प्रमाण के बारे में न्याय दृष्टांत के. विमला विरूद्ध के. वीरास्वामी 1991 ए.आई.आर. एस.सी.डब्लू 754 अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत फूलाबाई विरूद्ध बीरू 1991 सी.आर.एल.जे. 3270 एम.पी. में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां प्रार्थी और प्रतिपार्थी विगत 20 वर्षों से पति पत्नी के रूप में रहते हैं और रिश्तेदार भी उन्हें पति पत्नी के रूप में मानते हैं । वहां विवाह के कठोर प्रमाण की आवश्यकता नहीं है ।
इन मामलों में साक्षीगण की साक्ष्य शपथ पत्र के रूप मेें मूल कार्यवाही में नहीं लेना चाहिए । बल्कि धारा 126 द.प्र.स. 1973 बतलायी गयी प्रक्रिया के अनुसार साक्ष्य अभिलिखित करना चाहिए । धारा 126 में समन मामलों की तरह साक्ष्य अभिलिखित करने की व्यवस्था है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत रामप्रसाद तिवारी विरूद्ध श्रीमती अशिमा 2005 (2) एम.पी.एच.टी. 192 अवलोकनीय है ।
अतः साक्ष्य अभिलिखित करते समय उक्त वैधानिक स्थिति ध्यान में रखना चाहिए और मूल कार्यवाही में साक्ष्य समन मामलों की तरह अभिलिखित करना चाहिए ।
लेकिन अंतरिम भरण पोषण के मामले में साक्ष्य अभिलिखित करना जरूरी नहंीं है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत अनुपम ताल्लुकदार विरूद्ध पियाली ताल्लुकदार 2009 सी.आर.एल.जे. 1846 कलकत्ता अवलोकनीय है । साथ ही सुरेश विरूद्ध ललिता 2002 सी.आर.एल.जे. 380 राजस्थान भी अवलोकनीय है ।
4. पर्याप्त साधन के बारे मे
यदि कोई व्यक्ति योग्य शरीर वाला है और कमाने की स्थिति में है तो उसे भरण पोषण के मामले में पर्याप्त साधन वाला व्यक्ति माना जाता है कोई व्यक्ति यह कहकर अपने दायित्व से नहीं बच सकता है कि उसके पास कोई संपत्ति नहीं है इस संबंध में न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह विरूद्ध प्रेमबाई 1990 सी.आर.एल.जे. 2065 अवलोकनीय है ।
इस तरह कोई व्यक्ति पर्याप्त साधन वाला है या नहीं इस पर विचार करते समय यह ध्यान देना चाहिए कि वह आमदनी अर्जित करने में सक्षम है या नहीं या वह किसी गंभीर शारीरिक अयोग्यता के अधीन तो नहीं है जो उसे आय अर्जित करने में असमर्थ बना दे और यदि ऐसा नहीं है तो एक अच्छे शरीर वाले व्यक्ति को पर्याप्त साधन वाला व्यक्ति माना जाना चाहिए केवल उसके पास संपत्ति का न होना या उसका बेरोजगार होना उसे भरण पोषण के दायित्व से मुक्त नहीं करता है क्योंकि यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री से विवाह करता है तो उसका यह प्राथमिक दायित्व है कि पत्नी का भरण पोषण करे । पति का साधू हो जाना उसे पत्नी और बच्चों के भरण पोषण के दायित्वों से मुक्त नहीं करता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत हरदेव सिंह विरूद्ध स्टेट आफ यू0 पी0 1995 सी.आर.एल.जे. 1652 इलाहाबाद अवलोकनीय है।
5. पत्नी की आय
यदि पत्नी जीने के लिए कुछ कमा रही है तो यह भरण पोषण से इंकार करने का आधार नहीं हो सकता । पत्नी पति के साथ जैसा जीवन स्तर गुजारती थी वैसा ही स्तर उसे अलग रहने पर भी मिलना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत चतुर्भुज विरूद्ध सीताबाई ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 30 अवलोकनीय है ।
न्यायदृष्टांत मीनाक्षी गुर विरूद्ध चितरंजन ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1377 भी अवलोकनीय है इस मामले में भी पत्नी आय अर्जित करती थी लेकिन वह आय पर्याप्त नहीं थी इसलिए उसे भरण पोषण का पात्र माना गया ।
परित्यक्त पत्नी पचास वर्ष की उम्र की थी और जीने के लिए मजदूरी करती थी । उसे भरण पोषण करने में असमर्थ माना गया। इस संबंध में न्यायदृष्टांत रेवती बाई विरूद्ध जगेश्वर 1991 सी.आर.एल.जे. 40 एम.पी. अवलोकनीय है ।
पत्नी के पिता के आय को विचार में नहीं किया जा सकता पत्नी के व्यक्तिगत कमाई को ही विचार मे ंले सकते है इस संबंध मे ंन्यायादृष्टांत रामलाल वि0 अनीता 2004 सी.आर.एल.जे. 3669 एम. पी. अवलोकनीय है।
इस तरह प्रार्थी अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है। इस प्रश्न पर विचार करते समय यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि पत्नी का कुछ आय अर्जित कर लेना ही उसे भरण पोषण के लिए अयोग्य नहंीं बना देता है बल्कि इस प्रश्न पर इस तरह विचार करना चाहिए कि पत्नी की आय इतनी है कि वह पति के साथ जैसा जीवन स्तर बिताती थी उसके लिए पर्याप्त है या नहीं।
6. भरण पोषण की मात्रा
प्रायः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह भरण पोषण किस दर से दिलाया जावे । इस संबंध में निम्न लिखित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए:-
1. पक्षकारों का जीवन स्तर
3. विपक्षी के अन्य वैधानिक दायित्व
4. वर्तमान मंहगाई व आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतें
6. बच्चों के मामलों में उनका शैक्षणिक खर्च
न्यायदृष्टांत मंजु रघुवंशी विरूद्ध दिलीप सिंह 2006 (4) एम.पी.एल.जे. 302 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि पति सम्पन्न व्यवसायी है उसके पास कृषि भूमि संपत्ति मकान कार और अन्य वाहन हैं वह यात्री बस का भी स्वामी है । प्रार्थी का पति समाज में उच्च वर्ग से संबंध रखता है । ऐसे में प्रार्थी भी उसी दर्जे के अनुसार भरण पोषण पाने की हकदार है । यद्यपि यह न्याय दृष्टांत धारा 24 हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 पर आधारित है लेकिन भरण पोषण की मात्रा तय करने में इससे मार्गदर्शन लिया जा सकता है ।
न्याय दृष्टांत अर्चना विरूद्ध योगेन्द्र 1994 एम.पी.एल.जे. 285 में भी भरण पोषण दिलाने के कारकों पर विचार किया गया है और यदि पत्नी को उसके माता पिता मदद करते हैं तो मात्र इस आधार पर भरण पोषण के हक से वंचित नहीं हो जाती है । इस न्याय दृष्टांत में भरण पोषण की मात्रा निर्धारित करते समय एक संतुलन बनाये रखने पर भी बल दिया गया है ।
न्याय दृष्टांत चित्रसेन गुप्ता विरूद्ध देरूबा ज्योति सेन गुप्ता ए.आई.आर. 1988 कलकत्ता 98 की खण्डपीठ से भी मार्गदर्शन लिया जा सकता है। जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पत्नी पति के साथ रहते समय जैसा जीवन स्तर बिताती थी उसी स्तर के अनुरूप वह रह सके। ऐसी राशि दिलवाना चाहिए ।
न्याय दृष्टांत शैल कुमारी विरूद्ध कृष्ण भगवान पाठक (2008) 9 एस.सी.सी. 632 भी अवलोकनीय है । इस मामले में पत्नी पति के द्वारा दिये गये मकान में रहती थी । और उसकी कृषि भूमि से कुछ आय प्राप्त करती थी । जिससे भरण पोषण की मात्रा तय करने में विचार में लेने के निर्देश माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दिये ।
न्याय दृष्टांत निर्मला विरूद्ध शोभाराम 1986 वाल्यूम 2 एम.पी.डब्लू.एन. 118, एवं न्याय दृष्टांत कमला बाई विरूद्ध घनश्याम 1998 (1) एम.पी.एल.जे. 654 भी अवलोकनीय है ।
इस तरह भरण पोषण की मात्रा तय करने का कोई निर्धारित फार्मूला नहीं है । यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर परिस्थितियों पर निर्भर करता है। और न्यायालय को उक्त तथ्यों को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए एक युक्तियुक्त राशि दिलवाया जाना चाहिए । न्याय दृष्घ्टांत प्रीति विरूद्ध रवींद्र कुमार ए.आई.आर. 1979 इलाहाबाद 29 में कही गयी इस बात को ध्यान मे रखना चाहिए कि न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि कहीं एक पक्ष राजा की तरह और दूसरा सेवक की तरह न रह रहा हो । इनके बीच एक संतुलन बनाना चाहिए ।
7. पत्नी
धारा 125 द.प्र.सं. 1973 के लिए पत्नी से तात्पर्य वेध विवाहित पत्नि से है । एक पति या पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह शून्य होता है । ऐसी द्वितीय विवाह वाली पत्नी भरण पोषण नहीं पा सकती है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत सविता बेन विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात (2005) 3 एस.सी.सी. 636 एवं यमुनाबाई विरूद्ध अनंतराव शिवराम (1988) 1 एस.सी.सी. 530 एवं विमला विरूद्ध वीरास्वामी (1991) 2 एस.सी.सी. 375, डी0 वेलू स्वामी विरूद्ध डी0 पाट छियाम्मल (2010) 10 एस.सी.सी. 469 अवलोकनीय है ।
पत्नी जो तलाक लेते समय भरण पोषण के अधिकारों को समर्पित कर देती है वह भरण पोषण नहंी पा सकेगी। न्याय दृष्टांत निरपत सिंह विरूद्ध किरण 2005 (2) एम.पी.जे.आर. 439 अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत गजराज सिंह विरूद्ध फूल कुंवर 2005 (2) विधि भास्वर 193 में माननीय म0प्र0. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि ‘‘नातरा‘‘ से शादी वेध विवाह नही है अतः ऐसी पत्नी को भरण पाोषण नहंीं मिलेगा ।
न्यायदृष्टांत रोहताश सिंह विरूद्ध रामेन्द्री ए.आई.आर. 2000 एस.सी. 952 में यह प्रतिपादित किया गया है कि तलाक शुदा महिला भी पत्नी का स्तर रखती है और वह जब तक पुर्र्निववाह नहीं कर लेती भरण पोषण की पात्र होती है । इसे पति का परित्याग कर देना नहीं माना जा सकता। इस संबंध में न्याय दृष्टांत रमेश चंद विरूद्ध बीना सक्सेना 1982 सी.आर.एल.जे. 1426 भी अवलोकनीय है ।
न्यायदृष्टांत चनमुनिया विरूद्ध वीरेन्द्र कुमार सिंह (2011) 1 एस.सी.सी. 141 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने लम्बे समय तक पति पत्नि के रूप में बिना वेध विवाह के रहने वाले पुरूष और स्त्रियों के संबंध में मामला लार्जर बेंच को रिफर किया है ताकि लम्बे समय तक पति पत्नि के रूप में साथ रहने वाली व्यक्तियों के मामलों में भी उन्हें न्याय मिल सके और पत्नि शब्द की व्याख्या के लिए मामला भेजा गया है जो अभी विचाराधीन है ।
8. भरण पोषण कब से
प्रायः मजिस्टेªट के समक्ष यह विचार का प्रश्न उठता है कि भरण पोषण किस दिनांक से दिलायें अर्थात आवेदन दिनांक से या आदेश दिनांक से इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरोजबाई विरूद्ध जयकुमार 1994 एम.पी.एल.जे. 928 पूर्ण पीठ अवलोकनीय है । इस निर्णय के चरण 15 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि सामान्यतः भरण पोषण आवेदन दिनांक से दिलवाना चाहिए और यदि कोई न्यायसंगत परिस्थितियां हो जिसमें विपरीत मत लिया जा सकता हो तब इसे आदेश दिनांक से दिलवाना चाहिए । इस न्याय दृष्टांत में विभिन्न न्यायदृष्टातों पर विचार करके माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने यह व्यवस्था दी है कि सामान्यतः भरण पोषण आवेदन दिनांक से दिलवाना चाहिए ।
न्याय दृष्टांत शैल कुमारी विरूद्ध कृष्ण भगवान के उक्त मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि भरण पोषण प्रार्थना पत्र दिनांक से दिलाने के लिए कोई विशेष कारण देने की आवश्यकता नहीं है । लेकिन धारा 354 (6) द.प्र.स. 1973 के तहत आदेश में कारण दिये जाने चाहिए । यह नियम सही नहीं है कि भरण पोषण केवल आदेश दिनांक से ही दिलाना चाहिए ।
उक्त वैधानिक स्थिति से स्पष्ट है कि सामान्यतः भरण पोषण आवेदन दिनांक से दिलाना चाहिए और यदि आदेश दिनांक से दिलवा रहे हों तब उसके कारण लिखना चाहिए ।
9. परिसीमा
धारा 125 द.प्र.स. 1973 के आवेदन के लिए कोई परिसीमा नियत नहीं है । अतः विलम्ब से आवेदन पेश होना आवेदन को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता है । इस संबंध में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय द्वारा निराकृत दाण्डिक रिवीजन 4/2002 निराकृत मार्च 2007 अवलोकनीय है और इस संबंध में जोती जर्नल वर्ष 2007 पेज 153 नोट नं. 125 अवलोकनीय है । जिसमें न्यायदृष्टांत गोला सीथा रामालू विरूद्ध गोला रत्नमाला 1991 सी.आर.एल.जे. 1533 का उल्लेख किया गया है । इस तरह धारा 125 द.प्र.स. के मूल प्रार्थना पत्र को प्रस्तुत करने के लिए कोई परिसीमा नियत नहीं है । अतः इन आवेदन पत्रों को विलम्ब के आधार पर खारिज नहीं करना चाहिए ।
लेकिन धारा 125 के आदेश के निष्पादन का आवेदन पत्र आदेश दिनांक के एक वर्ष के भीतर प्रस्तुत होना चाहिए ।
यदि पुनरीक्षण न्यायालय या उच्च न्यायालय से कार्यवाही स्थगित रहती है तब धारा 15 (1) परिसीमा अधिनियम के तहत स्थगन की अवधि छूट में मिलती है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत अमरेन्द्र कुमार पाल विरूद्ध माया पाल (2009) 8 एस.सी.सी. 359 अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत शांता विरूद्ध बी.जी. शिवनागप्पा (2005) 4 एस.सी.सी. 468 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रार्थी ने धारा 125 के तहत पारित आदेश की वसूली का आवेदन दिया जो लम्बित था । ऐसे में पश्चात्वर्ती आवेदन जो उसी कार्यवाही में पेश किया गया उसे नया आवेदन नही माना जायेगा उसे परिसीमा की बाधा नहीं आयेगी । क्योंकि अभी पूर्व के भरण पोषण की ही वसूली नहीं हुई है ।
न्यायदृष्टांत नन्नीबाई विरूद्ध नेतराम 2001 सी.आर.एल.जे. 4325 एम.पी. भी परिसीमा के बिन्दु पर अवलोकनीय है ।
न्यायदृष्टांत ममता विरूद्ध बुद्धमल 2004 वाल्यूम 2 एम.पी.डब्लू.एल 49 के अनुसार एक वर्ष के बाद भरण पोषण के आदेश की वसूली की कार्यवाही चलने योग्य नहीं होती है लेकिन न्यायदृष्टांत जनगम श्रीनिवास राव विरूद्ध जनगम राजेश्वरी 1990 सी.आर.एल.जे. 2506 के अनुसार पत्नी तीन वर्ष की अवधि के भीतर व्यवहार वाद लगाकर भरणपोषण की राशि वसूल सकती है।
भरण पोषण आदेश दिनांक से दिलाया गया। ऐसा भरण पोषण आदेश की तारीख से ड्यू होगा। अतः आदेश की तारीख से परिसीमा निष्पादन के लिए प्रारंभ होगी। इस संबंध में न्याय दृष्टांत तक्कापल्ली लक्षमम्मा विरूद्ध टी. रंगेश 1952 सी.आर.एल.जे. 266 ए. पी. अवलोकनीय है।
10. मुस्लिम तलाक शुदा महिला के बारे में
एक मुस्लिम तलाक शुदा महिला जब तक पुनः विवाह नहीं कर लेती तब तक भरण पोषण पाने की पात्र होती है । उसके इस अधिकार को इद्दत की अवधि तक सीमित नहीं किया जा सकता । इस संबंध में न्याय दृष्टांत डेनियल लतीफ विरूद्ध यूनियन आफ इण्डिया (2001) 7 एस.सी.सी. 740, इकबाल बानो विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी. (2007) 6 एस.सी.सी. 785, शबाना बानो विरूद्ध इमरान खान (2010) 1 एस.सी.सी. 666 न्याय दृष्टांत बेबी ताहिरा विरूद्ध अली हुसैन 1979 सी.आर.एल.जे. 15, एस.सी. जाहिरा खातून विरूद्ध मोहम्मद इब्राहिम ए.आई.आर. 1986 एस.एसी. 587 अवलोकनीय है ।
मुस्लिम फीमेल चाइल्ड भी वयस्कता तिथि तक भरण पोषण पाने के पात्र होते हैं । इस संबंध में न्याय दृष्टांत जशरथ विरूद्ध श्रीमती गुड्डी 2003 (1) एम.पी.जे.आर. 51 एवं अब्दुल हमीद विरूद्ध कुमारी गजाला 2003 वाल्यूम 1 एम.पी.डब्लू.एन. 106 अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत नूर शबा खातून विरूद्ध मोहम्मद कासिम ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 3280 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मुस्लिम अवयस्क बच्चे वयस्कता तिथि तक भरण पोषण पाने के पात्र हैं यह तात्विक नहीं है कि वह तलाकशुदा पत्नी के साथ रह रहे हैं ।
न्यायदृष्टांत जूमाना बी वि0 मुस्ताक अली आइएलआर (2008) एम.पी. 1839 के अनुसार जिस मुस्लिम महिला को तलाक नहीं दिया गया है वह भरण पोषण का आवेदन पत्र धारा 125 द्रप्रसं में भी दे सकती है।
11. आदेश की अवधि
धारा 125 द.प्र.सं. 1973 के तहत पारित आदेश तब तक अस्तित्व में रहता है जब तक उसे धारा 125 के उप पैरा-5 या धारा 127 द.प्र.स. के तहत निरस्त या परिवर्तित या परिवर्घित नहीं करवा लिया गया हो । इस संबंध में न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र सिंह विरूद्ध दलजीत कौर 1979 सी.आर.एल.जे. 198 एस.सी. अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत रामसिंह विरूद्ध सोमथ बाई 2003 (2) एम.पी.एच.टी. 180 में धारा 125 के तहत आदेश पारित होने के बाद वसूली के दौरान विपक्षी ने यह बचाव लिया कि न्यायालय के बाहर समझौता हो चुका है । इस बचाव को मान्य नहीं किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया कि आदेश जब तक धारा 127 के तहत परिवर्तित परिवर्धित या निरस्त नहीं करवा लिया गया हो । तब तक वह अस्तित्व में रहता है ।
न्यायदृष्टांत एस. राजेन्द्रन वि0 रेवती 1994 सी.आर.एल.जे. 3017 में पक्षकारों के मध्य भरणपोषण के आदेश पारित होने के बाद समझौता हुआ और वे कुछ समय साथ रहे लेकिन इस कारण आदश के निष्पादन से इंकार नहीं किया जा सकता क्योकि आदेश जब तक धारा 125(5) दं.प्र.सं. 1973 के तहत आदेश को अपास्त नहीं कराया जाता वह अस्तित्व में रहता है यह प्रतिपादित किया गया ।
12. पत्नी के पति के साथ रहने से इंकार करने के आधार
1. यदि पति अन्य महिला के साथ रहता है तो यह पत्नि का पति के साथ रहने से इंकार करने का न्याय संगत आधार माना जायेगा और यह माना जायेगा कि पति भरण पोषण में उपेक्षा या इंकार करता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजथी विरूद्ध श्रीगणेशन ए.आई.आर. 1989 एस.सी. 2374 अवलोकनीय है ।
2. तलाक के कारण पति पत्नि पृथक रह रहे हैं यह नहीं कहा जा सकता है कि वे परस्पर सहमति से पृथक रह रहे हैं । पत्नि भरण पोषण की अधिकारी है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत मूल्याबाई विरूद्ध विश्राम सिंह 1992 सी.आर.एल.जे. 69 एम.पी. अवलोकनीय है ।
3. पति नपुंसक है वह इस कारण वैवाहिक जीवन में असफल है । नपुंसकता दूर होने योग्य भी नहीं है । पत्नि का पति से अलग रहने का यह उचित आधार माना गया । दृष्टांत अशोक कुमार सिंह विरूद्ध छठे अतिरिक्त सेशन जज वाराणसी 1996 सी.आर.एल.जे. 392 अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत सिराज मोहम्मद खान विरूद्ध हाफिजू निशा 1991 सी.आर.एल.जे. 1430 एस.सी. भी इस संबंध में अवलोकनीय है । जिसमें पति की नपुंसकता को पत्नि के प्रति क्रूरता माना गया और यदि पत्नि इस आधार पर पति के साथ रहने से इंकार करती है तो इसंे न्याय संगत आधार माना गया । इसी मामले में पत्नि को दहेज की मांग के कारण पति द्वारा शारीरिक नुकसान का भय होने से वह पति के साथ रहने से इंकार करती है इसे न्याय संगत आधार माना गया ।
4. पत्नी उसकी बीमार माता की देखभाल के लिए उसके माता-पिता के यहां कुछ महीने रही। इस दौरान पति ने दूसरा विवाह कर लिया । कुछ माह माता की देखभाल के लिए जाना पति को परित्याग कर देना नहीं माना जायेगा। यदि पत्नी ऐसे पति के साथ रहने से इंकार करती है तो इसे न्यायसंगत आधार माना गया। इस संबंध में न्याय दृष्टांत गंगा बाई विरूद्ध शिवराम 1991 सी.आर.एल.जे. 2018 एम.पी. अवलोकनीय है ।
5. पत्नी सास द्वारा क्रूरता के कारण पति के साथ रहने से इंकार करती है इसे न्याय संगत आधार माना गया । न्यायदृष्टांत राधामणि विरूद्ध सोनू 1986 सी.आर.एल.जे. 1129 एम.पी. अवलोकनीय है ।
6. पति ने दूसरा विवाह करने के लिए पत्नी की लिखित सहमति ली । पत्नी अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है और दूसरे विवाह के बाद पति से अलग रह रही है । पत्नी का अलग रहने का पर्याप्त आधार है और पति द्वारा दूसरा विवाह करना क्रूरता माना गया । न्याय दृष्टांत अनुसूईया बाई विरूद्ध नवसलाल 1991 सी.आर.एल.जे. 2959 एम.पी. अवलोकनीय है । इसी मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि आवेदन पत्र में केवल ये शब्द न लिखना कि पत्नी अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है । घातक नहीं है । पत्नी ने यह कहा है कि वह कुछ नहीं करती है । यह पर्याप्त नहीं है ।
7. न्याय दृष्टांत यशवंत विरूद्ध समता 2003 (2) एम.पी.एच.टी. 286 में यह प्रतिपादित किया गया है कि परस्पर अनुबंध के आधार पर विवाह समाप्त हुआ तलाकशुदा पत्नी अपना भरणपोषण करने में असर्मथ है तो वह भरण पोषण की अधिकारी होगी।
13. जारता
धारा 125(4) के तहत यदि पत्नी जारता की दशा में रह रही है तो वह भरण पोषण पाने की अधिकारी नहीं होगी । लेकिन जारता के बारे में वैधानिक स्थिति यह है कि पत्नी का सतत जारता की दशा में रहना प्रमाणित होना चाहिए और जारता के बारे में ठोस प्रमाण होना चाहिए और इन तथ्यों को प्रमाणित करने का भार पति पर होता है । केवल एक घटना पर्याप्त नही ंमानी गयी । इस संबंध में न्याय दृष्टांत निर्मल दास विरूद्ध सुनीता 2006 सी.आर.एल.जे. 2635 बाम्बे, चंदा विरूद्ध प्रीतम 2002 सी.आर.एल.जे. 1397 बाम्बे, के. विरह विरूद्ध मुत्थू लक्ष्मी 1999 सी.आर.एल.जे. 624 मद्रास एवं नारथ टी. सांधा विरूद्ध कोट्टियट टी.नारायण 1999 सी.आर.एल.जे. 1663 अवलोकनीय है ।
इस प्रकार उक्त वैधानिक स्थिति के प्रकाश में पति पर यह प्रमाण भार होता है कि वह यह प्रमाणित करे कि उसकी पत्नी लगातार जारता की दशा में रह रही है । जारता का एकाध उदाहरण पर्याप्त नहीं माना गया है ।
14. क्षेत्राधिकार
1. धारा 126 द.प्र.सं. 1973 के तहत किसी व्यक्ति के विरूद्ध धारा 125 के अधीन कार्यवाही किसी ऐसे जिले में की जा सकती हैः-
ए जहां वह रहता है अथवा
बी जहां वह या उसकी पत्नी रहती है
सी जहां उसने अंतिम बार अपनी पत्नी के साथ या अधर्मज संतान की माता के साथ निवास किया है ।
2. न्याय दृष्टांत विजय कुमार प्रसाद विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार (2004) 5 एस. सी.सी. 196 में प्रतिपादित विधि के प्रकाश में माता-पिता को उनके पुत्र के विरूद्ध भरण पोषण का आवेदन पत्र उस स्थान पर लगाना होगा जहां उनका पुत्र रहता है । इस प्रकार धारा 126 में जो विकल्प दिए हैं वे केवल पत्नी और बच्चों के लिए है । माता पिता के लिए नहीं है ।
3. न्याय दृष्टांत शबाना बानो विरूद्ध इमरान (2010) 1 एस.सी.सी. 666 के अनुसार जहां परिवार न्यायालय स्थापित है वहां भरण पोषण के लिए परिवार न्यायालय को एक मात्र क्षेत्राधिकार प्राप्त होता है।
15. धारा 24 हिन्दू विवाह अधिनियम का प्रभाव
यदि पत्नी को धारा 24 हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत अंतरिम भरणपोषण मिल रहा है तब भी धारा 125 द.प्र.सं 1973 के तहत उसका आवेदन प्रचलन योग्य होता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत अशोक सिहं विरूद्ध श्रीमती मंजूलता 2008 (2) एम.पी.एच.टी. 275 अवलोकनीय है ।
ऐसे मामले में न्यायालय को यह ध्यान रखन ाचाहिए कि दोनों प्रावधान के तहत मिलने वाले भरण पोषण को मिलाकर एक युक्तियुक्त राशि हो जाना चाहिए और धारा 24 के तहत दिलायी गयी राशि को ध्यान में रखते हुए भरण पोषण या अंतरिम भरण पोषण तय करना चाहिए।
न्याय दृष्ष्टांत सुदीप चैधरी विरूद्ध राधा चैधरी ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 536 इस संबंध में अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 24 के तहत दी गयी राशि, धारा 125 के तहत दिलायी गयी राशि में समायोजित होने के योग्य है ।
16. संशोधन आवेदन पत्र
इन मामलों मे संशोधन आवेदन पत्र चलने योग्य होते हैं । इस संबंध मंे न्याय दृष्टांत अहसान अंसारी विरूद्ध स्टेट आफ झारखण्ड 2007 सी.आर.एल.जे. एन.ओ.सी. 766 अवलोकनीय है । ं
3. इन मामलों में प्रार्थी/प्रार्थीगण अपना मामला अधिसंभावना की प्रबलता के स्तर तक प्रमाणित करना होता है। युक्तियुक्त संदेह से परे तथ्यों को प्रमाणित करना आवश्यक नहीं होता है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत राधामणि विरूद्ध मोनू 1986 सी.आर.एल.जे. 1129 अवलोकनीय है।
इन मामलों मेें विवाह का कठोर प्रमाण आवश्यक नहीं होता है। प्रथम दृष्टया यह प्रमाणित होना चाहिए कि प्राथी और प्रतिप्रार्थी पति पत्नी की तरह रहते हैं। आवश्यक अनुष्ठान प्रमाणित न होना घातक नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत द्वारिका प्रसाद विरूद्ध विद्युत प्रवा दीक्षित 2000 सी.आर.एल.जे. 1 अवलोकनीय है । साथ ही न्याय दृष्टांत सुमित्रा देवी विरूद्ध भीखन चैधरी ए.आई.आर. 1985 एस.सी. 765 भी अवलोकनीय है। पूर्व विवाह के बारे में और उसके प्रमाण के बारे में न्याय दृष्टांत के. विमला विरूद्ध के. वीरास्वामी 1991 ए.आई.आर. एस.सी.डब्लू 754 अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत फूलाबाई विरूद्ध बीरू 1991 सी.आर.एल.जे. 3270 एम.पी. में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां प्रार्थी और प्रतिपार्थी विगत 20 वर्षों से पति पत्नी के रूप में रहते हैं और रिश्तेदार भी उन्हें पति पत्नी के रूप में मानते हैं । वहां विवाह के कठोर प्रमाण की आवश्यकता नहीं है ।
इन मामलों में साक्षीगण की साक्ष्य शपथ पत्र के रूप मेें मूल कार्यवाही में नहीं लेना चाहिए । बल्कि धारा 126 द.प्र.स. 1973 बतलायी गयी प्रक्रिया के अनुसार साक्ष्य अभिलिखित करना चाहिए । धारा 126 में समन मामलों की तरह साक्ष्य अभिलिखित करने की व्यवस्था है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत रामप्रसाद तिवारी विरूद्ध श्रीमती अशिमा 2005 (2) एम.पी.एच.टी. 192 अवलोकनीय है ।
अतः साक्ष्य अभिलिखित करते समय उक्त वैधानिक स्थिति ध्यान में रखना चाहिए और मूल कार्यवाही में साक्ष्य समन मामलों की तरह अभिलिखित करना चाहिए ।
लेकिन अंतरिम भरण पोषण के मामले में साक्ष्य अभिलिखित करना जरूरी नहंीं है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत अनुपम ताल्लुकदार विरूद्ध पियाली ताल्लुकदार 2009 सी.आर.एल.जे. 1846 कलकत्ता अवलोकनीय है । साथ ही सुरेश विरूद्ध ललिता 2002 सी.आर.एल.जे. 380 राजस्थान भी अवलोकनीय है ।
4. पर्याप्त साधन के बारे मे
यदि कोई व्यक्ति योग्य शरीर वाला है और कमाने की स्थिति में है तो उसे भरण पोषण के मामले में पर्याप्त साधन वाला व्यक्ति माना जाता है कोई व्यक्ति यह कहकर अपने दायित्व से नहीं बच सकता है कि उसके पास कोई संपत्ति नहीं है इस संबंध में न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह विरूद्ध प्रेमबाई 1990 सी.आर.एल.जे. 2065 अवलोकनीय है ।
इस तरह कोई व्यक्ति पर्याप्त साधन वाला है या नहीं इस पर विचार करते समय यह ध्यान देना चाहिए कि वह आमदनी अर्जित करने में सक्षम है या नहीं या वह किसी गंभीर शारीरिक अयोग्यता के अधीन तो नहीं है जो उसे आय अर्जित करने में असमर्थ बना दे और यदि ऐसा नहीं है तो एक अच्छे शरीर वाले व्यक्ति को पर्याप्त साधन वाला व्यक्ति माना जाना चाहिए केवल उसके पास संपत्ति का न होना या उसका बेरोजगार होना उसे भरण पोषण के दायित्व से मुक्त नहीं करता है क्योंकि यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री से विवाह करता है तो उसका यह प्राथमिक दायित्व है कि पत्नी का भरण पोषण करे । पति का साधू हो जाना उसे पत्नी और बच्चों के भरण पोषण के दायित्वों से मुक्त नहीं करता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत हरदेव सिंह विरूद्ध स्टेट आफ यू0 पी0 1995 सी.आर.एल.जे. 1652 इलाहाबाद अवलोकनीय है।
5. पत्नी की आय
यदि पत्नी जीने के लिए कुछ कमा रही है तो यह भरण पोषण से इंकार करने का आधार नहीं हो सकता । पत्नी पति के साथ जैसा जीवन स्तर गुजारती थी वैसा ही स्तर उसे अलग रहने पर भी मिलना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत चतुर्भुज विरूद्ध सीताबाई ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 30 अवलोकनीय है ।
न्यायदृष्टांत मीनाक्षी गुर विरूद्ध चितरंजन ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1377 भी अवलोकनीय है इस मामले में भी पत्नी आय अर्जित करती थी लेकिन वह आय पर्याप्त नहीं थी इसलिए उसे भरण पोषण का पात्र माना गया ।
परित्यक्त पत्नी पचास वर्ष की उम्र की थी और जीने के लिए मजदूरी करती थी । उसे भरण पोषण करने में असमर्थ माना गया। इस संबंध में न्यायदृष्टांत रेवती बाई विरूद्ध जगेश्वर 1991 सी.आर.एल.जे. 40 एम.पी. अवलोकनीय है ।
पत्नी के पिता के आय को विचार में नहीं किया जा सकता पत्नी के व्यक्तिगत कमाई को ही विचार मे ंले सकते है इस संबंध मे ंन्यायादृष्टांत रामलाल वि0 अनीता 2004 सी.आर.एल.जे. 3669 एम. पी. अवलोकनीय है।
इस तरह प्रार्थी अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है। इस प्रश्न पर विचार करते समय यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि पत्नी का कुछ आय अर्जित कर लेना ही उसे भरण पोषण के लिए अयोग्य नहंीं बना देता है बल्कि इस प्रश्न पर इस तरह विचार करना चाहिए कि पत्नी की आय इतनी है कि वह पति के साथ जैसा जीवन स्तर बिताती थी उसके लिए पर्याप्त है या नहीं।
6. भरण पोषण की मात्रा
प्रायः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह भरण पोषण किस दर से दिलाया जावे । इस संबंध में निम्न लिखित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए:-
1. पक्षकारों का जीवन स्तर
3. विपक्षी के अन्य वैधानिक दायित्व
4. वर्तमान मंहगाई व आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतें
6. बच्चों के मामलों में उनका शैक्षणिक खर्च
न्यायदृष्टांत मंजु रघुवंशी विरूद्ध दिलीप सिंह 2006 (4) एम.पी.एल.जे. 302 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि पति सम्पन्न व्यवसायी है उसके पास कृषि भूमि संपत्ति मकान कार और अन्य वाहन हैं वह यात्री बस का भी स्वामी है । प्रार्थी का पति समाज में उच्च वर्ग से संबंध रखता है । ऐसे में प्रार्थी भी उसी दर्जे के अनुसार भरण पोषण पाने की हकदार है । यद्यपि यह न्याय दृष्टांत धारा 24 हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 पर आधारित है लेकिन भरण पोषण की मात्रा तय करने में इससे मार्गदर्शन लिया जा सकता है ।
न्याय दृष्टांत अर्चना विरूद्ध योगेन्द्र 1994 एम.पी.एल.जे. 285 में भी भरण पोषण दिलाने के कारकों पर विचार किया गया है और यदि पत्नी को उसके माता पिता मदद करते हैं तो मात्र इस आधार पर भरण पोषण के हक से वंचित नहीं हो जाती है । इस न्याय दृष्टांत में भरण पोषण की मात्रा निर्धारित करते समय एक संतुलन बनाये रखने पर भी बल दिया गया है ।
न्याय दृष्टांत चित्रसेन गुप्ता विरूद्ध देरूबा ज्योति सेन गुप्ता ए.आई.आर. 1988 कलकत्ता 98 की खण्डपीठ से भी मार्गदर्शन लिया जा सकता है। जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पत्नी पति के साथ रहते समय जैसा जीवन स्तर बिताती थी उसी स्तर के अनुरूप वह रह सके। ऐसी राशि दिलवाना चाहिए ।
न्याय दृष्टांत शैल कुमारी विरूद्ध कृष्ण भगवान पाठक (2008) 9 एस.सी.सी. 632 भी अवलोकनीय है । इस मामले में पत्नी पति के द्वारा दिये गये मकान में रहती थी । और उसकी कृषि भूमि से कुछ आय प्राप्त करती थी । जिससे भरण पोषण की मात्रा तय करने में विचार में लेने के निर्देश माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दिये ।
न्याय दृष्टांत निर्मला विरूद्ध शोभाराम 1986 वाल्यूम 2 एम.पी.डब्लू.एन. 118, एवं न्याय दृष्टांत कमला बाई विरूद्ध घनश्याम 1998 (1) एम.पी.एल.जे. 654 भी अवलोकनीय है ।
इस तरह भरण पोषण की मात्रा तय करने का कोई निर्धारित फार्मूला नहीं है । यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर परिस्थितियों पर निर्भर करता है। और न्यायालय को उक्त तथ्यों को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए एक युक्तियुक्त राशि दिलवाया जाना चाहिए । न्याय दृष्घ्टांत प्रीति विरूद्ध रवींद्र कुमार ए.आई.आर. 1979 इलाहाबाद 29 में कही गयी इस बात को ध्यान मे रखना चाहिए कि न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि कहीं एक पक्ष राजा की तरह और दूसरा सेवक की तरह न रह रहा हो । इनके बीच एक संतुलन बनाना चाहिए ।
7. पत्नी
धारा 125 द.प्र.सं. 1973 के लिए पत्नी से तात्पर्य वेध विवाहित पत्नि से है । एक पति या पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह शून्य होता है । ऐसी द्वितीय विवाह वाली पत्नी भरण पोषण नहीं पा सकती है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत सविता बेन विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात (2005) 3 एस.सी.सी. 636 एवं यमुनाबाई विरूद्ध अनंतराव शिवराम (1988) 1 एस.सी.सी. 530 एवं विमला विरूद्ध वीरास्वामी (1991) 2 एस.सी.सी. 375, डी0 वेलू स्वामी विरूद्ध डी0 पाट छियाम्मल (2010) 10 एस.सी.सी. 469 अवलोकनीय है ।
पत्नी जो तलाक लेते समय भरण पोषण के अधिकारों को समर्पित कर देती है वह भरण पोषण नहंी पा सकेगी। न्याय दृष्टांत निरपत सिंह विरूद्ध किरण 2005 (2) एम.पी.जे.आर. 439 अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत गजराज सिंह विरूद्ध फूल कुंवर 2005 (2) विधि भास्वर 193 में माननीय म0प्र0. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि ‘‘नातरा‘‘ से शादी वेध विवाह नही है अतः ऐसी पत्नी को भरण पाोषण नहंीं मिलेगा ।
न्यायदृष्टांत रोहताश सिंह विरूद्ध रामेन्द्री ए.आई.आर. 2000 एस.सी. 952 में यह प्रतिपादित किया गया है कि तलाक शुदा महिला भी पत्नी का स्तर रखती है और वह जब तक पुर्र्निववाह नहीं कर लेती भरण पोषण की पात्र होती है । इसे पति का परित्याग कर देना नहीं माना जा सकता। इस संबंध में न्याय दृष्टांत रमेश चंद विरूद्ध बीना सक्सेना 1982 सी.आर.एल.जे. 1426 भी अवलोकनीय है ।
न्यायदृष्टांत चनमुनिया विरूद्ध वीरेन्द्र कुमार सिंह (2011) 1 एस.सी.सी. 141 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने लम्बे समय तक पति पत्नि के रूप में बिना वेध विवाह के रहने वाले पुरूष और स्त्रियों के संबंध में मामला लार्जर बेंच को रिफर किया है ताकि लम्बे समय तक पति पत्नि के रूप में साथ रहने वाली व्यक्तियों के मामलों में भी उन्हें न्याय मिल सके और पत्नि शब्द की व्याख्या के लिए मामला भेजा गया है जो अभी विचाराधीन है ।
8. भरण पोषण कब से
प्रायः मजिस्टेªट के समक्ष यह विचार का प्रश्न उठता है कि भरण पोषण किस दिनांक से दिलायें अर्थात आवेदन दिनांक से या आदेश दिनांक से इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरोजबाई विरूद्ध जयकुमार 1994 एम.पी.एल.जे. 928 पूर्ण पीठ अवलोकनीय है । इस निर्णय के चरण 15 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि सामान्यतः भरण पोषण आवेदन दिनांक से दिलवाना चाहिए और यदि कोई न्यायसंगत परिस्थितियां हो जिसमें विपरीत मत लिया जा सकता हो तब इसे आदेश दिनांक से दिलवाना चाहिए । इस न्याय दृष्टांत में विभिन्न न्यायदृष्टातों पर विचार करके माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने यह व्यवस्था दी है कि सामान्यतः भरण पोषण आवेदन दिनांक से दिलवाना चाहिए ।
न्याय दृष्टांत शैल कुमारी विरूद्ध कृष्ण भगवान के उक्त मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि भरण पोषण प्रार्थना पत्र दिनांक से दिलाने के लिए कोई विशेष कारण देने की आवश्यकता नहीं है । लेकिन धारा 354 (6) द.प्र.स. 1973 के तहत आदेश में कारण दिये जाने चाहिए । यह नियम सही नहीं है कि भरण पोषण केवल आदेश दिनांक से ही दिलाना चाहिए ।
उक्त वैधानिक स्थिति से स्पष्ट है कि सामान्यतः भरण पोषण आवेदन दिनांक से दिलाना चाहिए और यदि आदेश दिनांक से दिलवा रहे हों तब उसके कारण लिखना चाहिए ।
9. परिसीमा
धारा 125 द.प्र.स. 1973 के आवेदन के लिए कोई परिसीमा नियत नहीं है । अतः विलम्ब से आवेदन पेश होना आवेदन को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता है । इस संबंध में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय द्वारा निराकृत दाण्डिक रिवीजन 4/2002 निराकृत मार्च 2007 अवलोकनीय है और इस संबंध में जोती जर्नल वर्ष 2007 पेज 153 नोट नं. 125 अवलोकनीय है । जिसमें न्यायदृष्टांत गोला सीथा रामालू विरूद्ध गोला रत्नमाला 1991 सी.आर.एल.जे. 1533 का उल्लेख किया गया है । इस तरह धारा 125 द.प्र.स. के मूल प्रार्थना पत्र को प्रस्तुत करने के लिए कोई परिसीमा नियत नहीं है । अतः इन आवेदन पत्रों को विलम्ब के आधार पर खारिज नहीं करना चाहिए ।
लेकिन धारा 125 के आदेश के निष्पादन का आवेदन पत्र आदेश दिनांक के एक वर्ष के भीतर प्रस्तुत होना चाहिए ।
यदि पुनरीक्षण न्यायालय या उच्च न्यायालय से कार्यवाही स्थगित रहती है तब धारा 15 (1) परिसीमा अधिनियम के तहत स्थगन की अवधि छूट में मिलती है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत अमरेन्द्र कुमार पाल विरूद्ध माया पाल (2009) 8 एस.सी.सी. 359 अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत शांता विरूद्ध बी.जी. शिवनागप्पा (2005) 4 एस.सी.सी. 468 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रार्थी ने धारा 125 के तहत पारित आदेश की वसूली का आवेदन दिया जो लम्बित था । ऐसे में पश्चात्वर्ती आवेदन जो उसी कार्यवाही में पेश किया गया उसे नया आवेदन नही माना जायेगा उसे परिसीमा की बाधा नहीं आयेगी । क्योंकि अभी पूर्व के भरण पोषण की ही वसूली नहीं हुई है ।
न्यायदृष्टांत नन्नीबाई विरूद्ध नेतराम 2001 सी.आर.एल.जे. 4325 एम.पी. भी परिसीमा के बिन्दु पर अवलोकनीय है ।
न्यायदृष्टांत ममता विरूद्ध बुद्धमल 2004 वाल्यूम 2 एम.पी.डब्लू.एल 49 के अनुसार एक वर्ष के बाद भरण पोषण के आदेश की वसूली की कार्यवाही चलने योग्य नहीं होती है लेकिन न्यायदृष्टांत जनगम श्रीनिवास राव विरूद्ध जनगम राजेश्वरी 1990 सी.आर.एल.जे. 2506 के अनुसार पत्नी तीन वर्ष की अवधि के भीतर व्यवहार वाद लगाकर भरणपोषण की राशि वसूल सकती है।
भरण पोषण आदेश दिनांक से दिलाया गया। ऐसा भरण पोषण आदेश की तारीख से ड्यू होगा। अतः आदेश की तारीख से परिसीमा निष्पादन के लिए प्रारंभ होगी। इस संबंध में न्याय दृष्टांत तक्कापल्ली लक्षमम्मा विरूद्ध टी. रंगेश 1952 सी.आर.एल.जे. 266 ए. पी. अवलोकनीय है।
10. मुस्लिम तलाक शुदा महिला के बारे में
एक मुस्लिम तलाक शुदा महिला जब तक पुनः विवाह नहीं कर लेती तब तक भरण पोषण पाने की पात्र होती है । उसके इस अधिकार को इद्दत की अवधि तक सीमित नहीं किया जा सकता । इस संबंध में न्याय दृष्टांत डेनियल लतीफ विरूद्ध यूनियन आफ इण्डिया (2001) 7 एस.सी.सी. 740, इकबाल बानो विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी. (2007) 6 एस.सी.सी. 785, शबाना बानो विरूद्ध इमरान खान (2010) 1 एस.सी.सी. 666 न्याय दृष्टांत बेबी ताहिरा विरूद्ध अली हुसैन 1979 सी.आर.एल.जे. 15, एस.सी. जाहिरा खातून विरूद्ध मोहम्मद इब्राहिम ए.आई.आर. 1986 एस.एसी. 587 अवलोकनीय है ।
मुस्लिम फीमेल चाइल्ड भी वयस्कता तिथि तक भरण पोषण पाने के पात्र होते हैं । इस संबंध में न्याय दृष्टांत जशरथ विरूद्ध श्रीमती गुड्डी 2003 (1) एम.पी.जे.आर. 51 एवं अब्दुल हमीद विरूद्ध कुमारी गजाला 2003 वाल्यूम 1 एम.पी.डब्लू.एन. 106 अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत नूर शबा खातून विरूद्ध मोहम्मद कासिम ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 3280 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मुस्लिम अवयस्क बच्चे वयस्कता तिथि तक भरण पोषण पाने के पात्र हैं यह तात्विक नहीं है कि वह तलाकशुदा पत्नी के साथ रह रहे हैं ।
न्यायदृष्टांत जूमाना बी वि0 मुस्ताक अली आइएलआर (2008) एम.पी. 1839 के अनुसार जिस मुस्लिम महिला को तलाक नहीं दिया गया है वह भरण पोषण का आवेदन पत्र धारा 125 द्रप्रसं में भी दे सकती है।
11. आदेश की अवधि
धारा 125 द.प्र.सं. 1973 के तहत पारित आदेश तब तक अस्तित्व में रहता है जब तक उसे धारा 125 के उप पैरा-5 या धारा 127 द.प्र.स. के तहत निरस्त या परिवर्तित या परिवर्घित नहीं करवा लिया गया हो । इस संबंध में न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र सिंह विरूद्ध दलजीत कौर 1979 सी.आर.एल.जे. 198 एस.सी. अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत रामसिंह विरूद्ध सोमथ बाई 2003 (2) एम.पी.एच.टी. 180 में धारा 125 के तहत आदेश पारित होने के बाद वसूली के दौरान विपक्षी ने यह बचाव लिया कि न्यायालय के बाहर समझौता हो चुका है । इस बचाव को मान्य नहीं किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया कि आदेश जब तक धारा 127 के तहत परिवर्तित परिवर्धित या निरस्त नहीं करवा लिया गया हो । तब तक वह अस्तित्व में रहता है ।
न्यायदृष्टांत एस. राजेन्द्रन वि0 रेवती 1994 सी.आर.एल.जे. 3017 में पक्षकारों के मध्य भरणपोषण के आदेश पारित होने के बाद समझौता हुआ और वे कुछ समय साथ रहे लेकिन इस कारण आदश के निष्पादन से इंकार नहीं किया जा सकता क्योकि आदेश जब तक धारा 125(5) दं.प्र.सं. 1973 के तहत आदेश को अपास्त नहीं कराया जाता वह अस्तित्व में रहता है यह प्रतिपादित किया गया ।
12. पत्नी के पति के साथ रहने से इंकार करने के आधार
1. यदि पति अन्य महिला के साथ रहता है तो यह पत्नि का पति के साथ रहने से इंकार करने का न्याय संगत आधार माना जायेगा और यह माना जायेगा कि पति भरण पोषण में उपेक्षा या इंकार करता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजथी विरूद्ध श्रीगणेशन ए.आई.आर. 1989 एस.सी. 2374 अवलोकनीय है ।
2. तलाक के कारण पति पत्नि पृथक रह रहे हैं यह नहीं कहा जा सकता है कि वे परस्पर सहमति से पृथक रह रहे हैं । पत्नि भरण पोषण की अधिकारी है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत मूल्याबाई विरूद्ध विश्राम सिंह 1992 सी.आर.एल.जे. 69 एम.पी. अवलोकनीय है ।
3. पति नपुंसक है वह इस कारण वैवाहिक जीवन में असफल है । नपुंसकता दूर होने योग्य भी नहीं है । पत्नि का पति से अलग रहने का यह उचित आधार माना गया । दृष्टांत अशोक कुमार सिंह विरूद्ध छठे अतिरिक्त सेशन जज वाराणसी 1996 सी.आर.एल.जे. 392 अवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत सिराज मोहम्मद खान विरूद्ध हाफिजू निशा 1991 सी.आर.एल.जे. 1430 एस.सी. भी इस संबंध में अवलोकनीय है । जिसमें पति की नपुंसकता को पत्नि के प्रति क्रूरता माना गया और यदि पत्नि इस आधार पर पति के साथ रहने से इंकार करती है तो इसंे न्याय संगत आधार माना गया । इसी मामले में पत्नि को दहेज की मांग के कारण पति द्वारा शारीरिक नुकसान का भय होने से वह पति के साथ रहने से इंकार करती है इसे न्याय संगत आधार माना गया ।
4. पत्नी उसकी बीमार माता की देखभाल के लिए उसके माता-पिता के यहां कुछ महीने रही। इस दौरान पति ने दूसरा विवाह कर लिया । कुछ माह माता की देखभाल के लिए जाना पति को परित्याग कर देना नहीं माना जायेगा। यदि पत्नी ऐसे पति के साथ रहने से इंकार करती है तो इसे न्यायसंगत आधार माना गया। इस संबंध में न्याय दृष्टांत गंगा बाई विरूद्ध शिवराम 1991 सी.आर.एल.जे. 2018 एम.पी. अवलोकनीय है ।
5. पत्नी सास द्वारा क्रूरता के कारण पति के साथ रहने से इंकार करती है इसे न्याय संगत आधार माना गया । न्यायदृष्टांत राधामणि विरूद्ध सोनू 1986 सी.आर.एल.जे. 1129 एम.पी. अवलोकनीय है ।
6. पति ने दूसरा विवाह करने के लिए पत्नी की लिखित सहमति ली । पत्नी अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है और दूसरे विवाह के बाद पति से अलग रह रही है । पत्नी का अलग रहने का पर्याप्त आधार है और पति द्वारा दूसरा विवाह करना क्रूरता माना गया । न्याय दृष्टांत अनुसूईया बाई विरूद्ध नवसलाल 1991 सी.आर.एल.जे. 2959 एम.पी. अवलोकनीय है । इसी मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि आवेदन पत्र में केवल ये शब्द न लिखना कि पत्नी अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है । घातक नहीं है । पत्नी ने यह कहा है कि वह कुछ नहीं करती है । यह पर्याप्त नहीं है ।
7. न्याय दृष्टांत यशवंत विरूद्ध समता 2003 (2) एम.पी.एच.टी. 286 में यह प्रतिपादित किया गया है कि परस्पर अनुबंध के आधार पर विवाह समाप्त हुआ तलाकशुदा पत्नी अपना भरणपोषण करने में असर्मथ है तो वह भरण पोषण की अधिकारी होगी।
13. जारता
धारा 125(4) के तहत यदि पत्नी जारता की दशा में रह रही है तो वह भरण पोषण पाने की अधिकारी नहीं होगी । लेकिन जारता के बारे में वैधानिक स्थिति यह है कि पत्नी का सतत जारता की दशा में रहना प्रमाणित होना चाहिए और जारता के बारे में ठोस प्रमाण होना चाहिए और इन तथ्यों को प्रमाणित करने का भार पति पर होता है । केवल एक घटना पर्याप्त नही ंमानी गयी । इस संबंध में न्याय दृष्टांत निर्मल दास विरूद्ध सुनीता 2006 सी.आर.एल.जे. 2635 बाम्बे, चंदा विरूद्ध प्रीतम 2002 सी.आर.एल.जे. 1397 बाम्बे, के. विरह विरूद्ध मुत्थू लक्ष्मी 1999 सी.आर.एल.जे. 624 मद्रास एवं नारथ टी. सांधा विरूद्ध कोट्टियट टी.नारायण 1999 सी.आर.एल.जे. 1663 अवलोकनीय है ।
इस प्रकार उक्त वैधानिक स्थिति के प्रकाश में पति पर यह प्रमाण भार होता है कि वह यह प्रमाणित करे कि उसकी पत्नी लगातार जारता की दशा में रह रही है । जारता का एकाध उदाहरण पर्याप्त नहीं माना गया है ।
14. क्षेत्राधिकार
1. धारा 126 द.प्र.सं. 1973 के तहत किसी व्यक्ति के विरूद्ध धारा 125 के अधीन कार्यवाही किसी ऐसे जिले में की जा सकती हैः-
ए जहां वह रहता है अथवा
बी जहां वह या उसकी पत्नी रहती है
सी जहां उसने अंतिम बार अपनी पत्नी के साथ या अधर्मज संतान की माता के साथ निवास किया है ।
2. न्याय दृष्टांत विजय कुमार प्रसाद विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार (2004) 5 एस. सी.सी. 196 में प्रतिपादित विधि के प्रकाश में माता-पिता को उनके पुत्र के विरूद्ध भरण पोषण का आवेदन पत्र उस स्थान पर लगाना होगा जहां उनका पुत्र रहता है । इस प्रकार धारा 126 में जो विकल्प दिए हैं वे केवल पत्नी और बच्चों के लिए है । माता पिता के लिए नहीं है ।
3. न्याय दृष्टांत शबाना बानो विरूद्ध इमरान (2010) 1 एस.सी.सी. 666 के अनुसार जहां परिवार न्यायालय स्थापित है वहां भरण पोषण के लिए परिवार न्यायालय को एक मात्र क्षेत्राधिकार प्राप्त होता है।
15. धारा 24 हिन्दू विवाह अधिनियम का प्रभाव
यदि पत्नी को धारा 24 हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत अंतरिम भरणपोषण मिल रहा है तब भी धारा 125 द.प्र.सं 1973 के तहत उसका आवेदन प्रचलन योग्य होता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत अशोक सिहं विरूद्ध श्रीमती मंजूलता 2008 (2) एम.पी.एच.टी. 275 अवलोकनीय है ।
ऐसे मामले में न्यायालय को यह ध्यान रखन ाचाहिए कि दोनों प्रावधान के तहत मिलने वाले भरण पोषण को मिलाकर एक युक्तियुक्त राशि हो जाना चाहिए और धारा 24 के तहत दिलायी गयी राशि को ध्यान में रखते हुए भरण पोषण या अंतरिम भरण पोषण तय करना चाहिए।
न्याय दृष्ष्टांत सुदीप चैधरी विरूद्ध राधा चैधरी ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 536 इस संबंध में अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 24 के तहत दी गयी राशि, धारा 125 के तहत दिलायी गयी राशि में समायोजित होने के योग्य है ।
16. संशोधन आवेदन पत्र
इन मामलों मे संशोधन आवेदन पत्र चलने योग्य होते हैं । इस संबंध मंे न्याय दृष्टांत अहसान अंसारी विरूद्ध स्टेट आफ झारखण्ड 2007 सी.आर.एल.जे. एन.ओ.सी. 766 अवलोकनीय है । ं
17. श्वसुर का दायित्व
धारा 125 द.प्र.सं. 1973 में पत्नी के भरण पोषण का दायित्व उसके पति का है और धर्मज या अधर्मज संतानों के भरण पोषण का दायित्व उनके पिता का होता है । एक मामले में विधवा और पोते ने भरण पोषण का आवेदन पत्रः श्वसुर पर लगाया जो चलने योग्य नहीं पाया गया । न्याय दृष्टांत वेद प्रकाश विरूद्ध लीना 1996 सी.आर.एल.जे. 2703 पंजाब एवं हरियाणा अवलोकनीय है ।
18. वसूली आवेदन के बारे में
धारा 125 द.प्र.स. 1973 के तहत दिए गए भरण पोषण आदेश की वसूली हेतु हर माह नया आवेदन देना जरूरी नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अजब राव विरूद्ध रेखा बाई 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 579 एवं लीलाबाई विरूद्ध कैलाश 2003 (1) ए.एन.जे. 23 एम.पी. अवलोकनीय है ।
19. किश्तों की सुविधा
धारा 125 द.प्र.सं. 1973 भरण पोषण मासिक दर से दिलाया जाता है लेकिन विपक्षी को किश्त की सुविधा देने के बारे में कोई प्रावधान नहीं है। अतः किसी प्रावधान के अभाव में किश्तों की सुविधा नहीं दिलायी जा सकती। जब आवेदक वसूली कार्यवाही लगाता है तब राशि की मात्रा को देखते हुए राशि जमा करवाने के लिए युक्तियुक्त समय मामले के तथ्यों और परिस्थितियों मंें दिया जा सकता है।
20. अवयस्क संतानें
धर्मज और अधर्मज दोनों प्रकार की अवयस्क संतानें उनकी वयस्कता तिथि तक धारा 125 द.प्र.सं. 1973 में भरण पोषण पा सकती है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत डिम्पल गुप्ता विरूद्ध राजीव ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 239, मनोज गौतम विरूद्ध लक्ष्मी 2003 (1) एम.पी.एल.जे. 257 अवलोकनीय है ।
धर्मज या अधर्मज संतान यदि वयस्क भी है लेकिन किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यतः क्षति के कारण अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है और अवयस्क विवाहित पुत्री के पति के पास यदि पर्याप्त साधन नहीं है तब भी वह भरण पोषण के पात्र होते हैं ।
21. दाम्पत्य अधिकारों की पुनस्र्थापना के बारे में
यदि पति ने दाम्पत्य अधिकारों के पुनस्र्थापना की आज्ञप्ति प्राप्त कर ली है तो मात्र इस आधार पर पत्नी भरण पोषण पाने के अयोग्य नहीं हो जाती। मजिस्टेªट पत्नी के पति के साथ रहने से इंकार करने के आधारों पर विचार कर सकते हैं। न्यायदृष्टांत बाबूलाल विरूद्ध सुनीता 1987 सी.आर.एल.जे. 525 एम.पी. अवलोकनीय है। साथ ही पति द्वारा ऐसी एकपक्षीय आज्ञप्ति ले लेने से भी पत्नी भरण पोषण के लिए अयोग्य नही हो जाती। इस संबंध में न्याय दृष्टांत प्रशांत श्रीवास्तव विरूद्ध श्रीमती सुषमा आई.एल.आर.(2010) एम.पी. 1216 अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत भगवान विरूद्ध कमला देवी ए0आई0आर0 1975 एस.सी. 83 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि पत्नी दाम्पत्य अधिकारों की पुनः स्थापना की आज्ञप्ति का पालन नहीं करती है तब भी उसके भरणपोषण का अधिकार समाप्त नहीं होता इस संबंध मे ंन्यायदृष्णांत सावित्रि विरूद्ध गोविंद 1986 सी.आर.एल.जे. 48 भी अवलोकनीय है ।
पत्नी स्वेच्छा से अलग निवास कर रहीं हो उसके विरूद्ध दाम्पत्य अधिकारों की पुनः स्थापना की डिक्री दी गई हो पति ने उसे साथ रखने के सभी प्रयास किये हो और बिना किसी कारण के पत्नी यदि साथ रहने से इंकार करती हो तो ऐसे में अंतरिम भरणपोषण के आदेश को निरस्त किया जाना उचित माना गया इस संबंध में न्यायदृष्टांत श्रीमती रेणु विरूद्ध हीरा लाला 2002 सी.आर.एल.जे. 2591 एम. पी. अवलोकनीय है।
इस प्रकार जहां दाम्पत्य अधिकरों के पुनःस्थापना की आज्ञप्ति पति के पक्ष में दी गई हो तब भी मजिस्ट््रेट पत्नी के पति से अलग रहने के आधारों पर विचार करते हुए भरणपोषण आवेदन पत्र निराकृत कर सकते है।
22. वसूली की प्रक्रिया
1. समान्यतः वसूली हेतु आवेदन पेश होने पर पहले चल या अचल या दोनों संपत्ति की कुर्की और विक्रय द्वारा राशि वसूल करने की प्रक्रिया अपनाना चाहिए उस के बाद ही विपक्षी को प्रत्येक व्यतिक्रम के लिए एक माह के कारावास से दण्डित किया जा सकता है लेकिन प्रकरण की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये वसूली वारण्ट जारी किये बिना सीधे विपक्षी का गिरफतारी वारण्ट जारी किया जा सकता है।
न्यायदृष्टांत भूरे विरूद्ध गोमती 1981 सी.आर.एल.जे. 789 एवं भोगी राम विरूद्ध भगवती बाई 1989 (1) एम.पी.डब्ल्यू.एम. 287 इस संबंध में अवलोकनीय है कि अनावेदक के विरूद्ध वसूली वारण्ट जारी किये बिना कब सीधे गिरफतारी वारण्ट जारी किया जा सकता है।
अनावेदक यदि कारावास भुगत चुका है तो ये उसे भरणपोषण के दायित्व से मुक्त नहीं करेगा क्योंकि कारावास का दिया जाना राशि को वसूल करने की विधि है इस संबंध मे ंन्यायदृष्टांत कुलदीप सिंह विरूद्ध सुरेन्दर सिह ए.आइ.आर. 1989 एस.सी. 232 आवलोकनीय है ।
न्याय दृष्टांत वली मोहम्मद विरूद्ध बतूल बाई 2003 (2) एम.पी.एल.जे. 513 पूर्ण पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक माह से अधिक की भरण पोषण की राशि वसूली अवशेष होने पर अनावेदक को एक माह से अधिक की अवधि के लिए कारावास दिया जा सकता है न्यायदृष्टांत गोरक्षकनाथ खंडू विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य 2005 सी.आर.एल.जे. 3158 बाम्बे खण्डपीठ के अनुसार एक वर्ष की भरण पोषण राशि की वसूली हेतु आवेदन पत्र प्रस्तुत होने पर अनावेदक को अधिकतम 12 माह के कारावास की सजा दी जा सकती है।
पती का वेतन चल संपत्ति में आता है और इसे भरण पोषण के लिए कुर्क किया जा सकता है इस संबंध मे ंन्यायदृष्टांत वाय0 एल0 मूर्ति 1986 सी.आर.एल.जे. 1846 आंध्रप्रदेश एवं भगवत गायकवाड विरूद्ध बाबूराव 1994 सी.आर.एल.जे. 2393 अवलोकनीय है।
लेकिन विपक्ष को सूचना पत्र दिये बिना वेतन कुर्क करने का आदेश दिया गया उसे उचित नहीं माना गया इस संबंध में न्यायदृष्टांत नबीन चन्द्र विरूद्ध हेमन्त कुमारी 1996 सी.आर.एल.जे. 2782 आवलोकनीय है ।
न्यायदृष्टांत अली खान विरूद्ध हजरम बी 1981 सी.आर.एल.जे. 642 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि भविष्य का वेतन कुर्क नहीं किया जा सकता।
न्यायदृष्टांत सैलेश विरूद्ध हरवती 1989 सी.आर.एल.जे. 1661 के अनुसार भरण पोषण के मामले में पक्षकारों के मध्य समझौता हुआ समझौते की शर्तो के अनुसार आदेश पारित किया गया ऐसे आदेश का धारा 125 (3) द्र.प्र.सं. के तहत निष्पादन कराया जा सकता है।
जोती जर्नल वर्ष 2009 पृष्ठ क्रमांक 202 में इस संबंध मे ंएक लेख प्रकाशित हुआ है उससे भी मार्गदर्शन लिया जा सकता है।
23. एक पक्षीय कार्यवाही के बारे में
धारा 126 (2) के अनुसार यदि विपक्षी तामील से जानबुझकर बचता है या न्यायालय में उपस्थित होने में जानबूझकर उपेक्षा करता है ऐसा समाधान हो जाने पर उसके विरूद्ध एक पक्षीय कार्यवाही की जा सकती है और मामला एक पक्षीय सुनकर निराकृत कियाजा सकता है।
आदेश की तारीख से तीन माह के अंदर आवेदन प्रस्तुत करके अनुपस्थिति के अच्छे कारण दर्शाता है तो मजिस्टेªट एक पक्षीय कार्यवाहीं केे आदेश अपास्त कर सकते है और मामला फिर से गुणदोष पर सुने जाने के आदेश दे सकते है।
न्यायदृष्टांत मीरजा हसन बेग विरूद्ध ईस्रत यासमीन 2004 सी.आर.एल.जे. 4330 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि पति/अनावेदक ने अभिभाषक नियुक्त किये अभिभाषक ने उन्हे आश्वासन दिया कि वह उपस्थित हो जायेगे और अनावेदक को जब उपस्थित होना होगा उसे सूचित करेगें अभिभाषक उपस्थित नहीं हुए न अनावेदक को सूचित किया ऐसे में अनावेदक ने अपनी अनुपस्थिति का अच्छा कारण बतलाया है यह माना गया।
न्यायदृष्टात बाबूलाल विरूद्ध सुनिता 1987 सी.आर.एल.जे. 525 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि भरण पोषणके मामले मे ंएक पक्षीय आदेश के बजाय दोनों पक्षों को सुनकर आदेश किया जाना प्रिफर करना चाहिए।
समान्यतः किसी भी कार्यवाही में उसे गुणदोष पर निराकृत किये जाने के प्रयास किये जाने चाएि और प्रत्येक पक्ष को सुनवाई का अवसर मिल सके इसे ध्यान में रखना चाहिए सुनवाई का अवसर दिया जाता प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार भी आवश्यक होता है और यह एक संविधानिक अधिकार भी होता है अतः समान्यतः इस अधिकार से किसी भी पक्ष को वंचित नहीं करना चाहिए।
24. कारावास की प्रकृति
न्यायदृष्टांत मोईदीन कुट्टी के0 हाजी विरूद्ध स्टेट आॅफ केरल 2008 सी.आर.एल.जे. 3402 में यह प्रतिपादित किया गया है कि भरणपोषण न देने पर साधारण प्रकृति का कारावास दिया जा सकता है ।
यदि अनावेदक को किसी चूक के कारण एक बार कारावास में भेज दिया गया हो तो उसी अवधि के लिए उसे पुनः कारावास में नहीं भेजा जा सकता राशि वसूल की जा सकती है इस संबंध में ंन्यायदृष्टांत मोहम्मद हासीम विरूद्ध रूबीना 2009 (1) एम.पी.एच.टी. 58 आवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत शहदखातून विरूद्ध अमजत अली 1999 सी.आर.एल.जे. 5060 के अनुसार मजिस्ट्रेट ऐसा आदेश नहीं दे सकते कि जब तक आनावेदक भुगतान नहीं करते उसे अभिरक्षा में रखा जावे एक माह की चूक के लिए अधिकतम एक माह का कारावास दिया जा सकता है और उक्त गोरक्षकनाथ के मामले के अनुसार एक वर्ष की राशि देय हो जाने पर अधिकतम 12 का कारावास दिया जा सकता है।
25. धारा 127 द.प्र.सं. के तहत भरणपोषण में परिवर्तन
मजिस्टेªट ने धारा 125 के तहत यदि भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण दिलवाया है और परिस्थितियों में यदि परिवर्तन होना कोई भी पक्ष प्रमाणित कर देता है तो मजिस्टेªट उक्त आदेश में उचित परिवर्तन कर सकते है। इसके लिए संबंधीत पक्षको आवेदन देना होता है और दोनों पक्षों को सुनकर आदेश में परिवर्तन किया जा सकता हे
यदि सक्षम सिविल न्यायालय के आदेश से भरणपोषण का आदेश रद्द या परिवर्तित किया जाना हेै तब ऐसा किया जा सकता है।
यदि तलाक शुदा महिला पुनः विवाह कर लेती है तब पुनःविवाह के तारीख से ऐसा आदेश रद्द किया जाता है ।
यदि विवाह विच्छेद के समय कोई महिला भरणपोषण की पूरी राशि एक मुश्त ले लेती है या भरणपोषण के अधिकार का त्याग कर देती है तब भी आदेश मे ंपरिवर्तन किया जा सकता है।
जब भी धारा 127 द.प्र.सं. के तहत कोई आवेदन प्रस्तुत हो तब विपक्ष को सूचना पत्र दिया जाना चाहिए उभय पक्ष को सुनकर मूल अभिलेख बुूलवाकर मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को उचित आदेश किया जाना चाहिए।
न्यायदृष्टांत शबनम विरूद्ध जमील खान 2007 (2) एमपीएलजे 111 के अनुसार धारा 127 दं.प्र.स. का आवेदन प्रस्तुत होने पर मजिस्टेªट ने भरणपोषण के आदेश को स्थगित कर दिया इसे उचित नहीं माना गया ।
26. धारा 128 दंप्र.सं के बारे में
धारा 128 द.प्र.सं में भरण पोषण आदेश/अंतरिम भरण पोषण आदेश की प्रतिलिपि प्रार्थी को निशुल्क देने के प्रावधान है और ऐसे आदेश के प्रवर्तन के बारे में प्रावधान है ।
27. विविध तथ्य
1. अंतरिम भरण पोषण आवेदन पत्र पर आवेदक के हस्ताक्षर नहीं थे उसके अभिभषक के हस्ताक्षर थे इस आधार पर आवेदन को निरस्त करना उचित नहीं माना गया इस संबंध मे ंन्यायदृष्टांत बलराम विरूद्ध ए0 चन्द्रम्मा 1997 सी.आर.एल.जे. 3976 अवलोकनीय है।
2. अंतरिम भरणपोषण न देने पर अनावेदक का बचाव समाप्त नहीं किया जा सकता इस संबंध मे ंन्यायादृष्टांत गुरविंदर सिंह विरूद्ध मूर्ति 1991 सी.आर.एल.जे. 2353 पंजाब एवं हरियाणा अवलोकनीय है ।
3. अंतरिम भरण पोषणके विरूद्ध संबंधित पक्ष को पुनरिक्षण करने या रिविजन प्रस्तुत करने का अधिकार होता है ऐसे आदेश को अंतरिम आदेश नहीं कहा जात सकता इस संबंध में न्यायदृष्टांत आकांक्षा श्रीवास्तत विरूद्ध विरेन्द्र श्रीवास्त 2010 (3) एम.पी.एल.जे. 151 डीबी आवलोकनीय है ।
4. न्यायदृष्टांत गौतम विरूद्ध स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 2295 में पिता ने बच्चे की पैतृत्व को चुनौति दी और रक्त परीक्षण करवाना चाहा न्यायालय ने यह पाया कि ऐसा परीक्षण केवल भरण पोषण को टालने के लिए किया जा रहा था आवेदन निरस्त किया गया।
5. बच्चे जैसे ही वयस्क हो जाते है तब धारा 125 (3) द.प्र.सं के प्रावधान लागू होने बंद हो जाते है अर्थात बच्चे अवयस्कता तक ही भरण पोषण पा सकते है इस संबंध में न्यायदृष्टांत अरमेन्द्र पाॅल वि0 माया पाॅल 2010 सी.आर.एल.जे. 395 एस.सी. अवलोकनीय है ।
6. सौतेली माता उसक सौतेले पुत्र से भरणपोषण पाने की अधिकारी नहीं है इस संबंध में न्यायदृष्टांत रेवालाल विरूद्ध कमला बाई 1986 सी.आर.एल.जे. 282 एम. पी. अवलोकनीय है।
प्रदीप कुमार ब्यास
विशेष कत्र्तव्यस्थ अधिकारी,
न्यायिक अधिकारी प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान,
जबलपुर (म0प्र0)
न्याय दृष्टांत गजराज सिंह विरूद्ध फूल कुंवर 2005 (2) विधि भास्वर 193 में माननीय म0प्र0. उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि ‘‘नातरा‘‘ से शादी वेध विवाह नही है अतः ऐसी पत्नी को भरण पाोषण नहंीं मिलेगा ।
ReplyDeleteSir, ‘‘नातरा‘‘ से शादी वेध विवाह नही है अतः ऐसी पत्नी को भरण पाोषण नहंीं मिलेगा | isko mene bhut dhunda lekin nahi mil pa raha he kya aap meri madad kar sakte he kya. This is very important for me , Please Sir.
सर गजराजसिह बनाम फूलकंवर जजमेंट की कापी मिल सकती है क्या
Deletesir m apne wife ko mantnance dene m asamth hu ..or mare wrarant ho chuke h 9-5-2017 ko m court m ja rha hu .tho kya muje jail m bhaj degi cout. or jail jana hoga tho kinte din ke leya?
ReplyDeletekya jail se bachne ka samadan h plz hel me ..
sir m apne wife ko mantnance dene m asamth hu ..or mare wrarant ho chuke h 9-5-2017 ko m court m ja rha hu .tho kya muje jail m bhaj degi cout. or jail jana hoga tho kinte din ke leya?
ReplyDeletekya jail se bachne ka samadan h plz hel me ..
Nahi bhai 1year m ek baar 1month k liya
ReplyDeleteMy mob no 9837149108
ReplyDeleteMera bda Bhai mere pita ji ki jagah railway ki nokri PR LGA h or woh hmse alag rehta h WO meri mata ji ki dekhbahl nhi krta h or na unhe ghr ke liye pese deta h ase me muje kya krna chahiye
ReplyDeleteलड़की ससुराल से कोई फर्जी वजह बना कर अपने मायके चली गई और वहां जा कर उसने दहेज की शिकायत कर दी वह शिकायत वूमनसैल में झूठी निकली और अदालत में खर्चे का केस कर दिया और अदालत ने भी कुछ समय बाद बिना लड़के का पक्ष सुने खर्चा बांध दिया इसके बाद सैशन में में अपील की जोकि खारिज कर दी गई, क्या लड़के का पक्ष सुने बगैर अदालत खर्चा बांध सकती है अगर बांध सकती है तो इसे कैसे रोका जाये,
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ReplyDeletesir yadi mahila padhi likhi hai pr kamati nhi hai to use bharn poshan 125 dhara k tahat milaga kya?
ReplyDeleteसर में उत्तर प्रदेश से हु मेरी पत्नी ने इंदौर कोर्ट से धारा 125 में भरण पोषण का केश किया जिस में एक पक्ष आदेश हुआ जिसमे 10000 रुपये प्रति माह कोर्ट का आदेश हुया ओर कोर्ट की तरफ से कुर्की वारंट भी मेरे खिलाफ हो गए हैं में घर पर नही रहते है और मेरे नाम कोई प्रोपर्टी नही है पुलिस मेरे घर बालो को परेशान कर रही है क्या करूँ
ReplyDeletehello sir agar 1 saal tk maitance nhi dene pr kitno dino ki sajja hoti h
ReplyDelete2 mhine ki Saja phele mhine patni Ko court Mai 3410rupees JMA Krane pdange or dusre mhine dabble apke or jail ka karcha hai ye teesre mhine case end
DeleteMata pita dono nhi hai pita teacher the sauteli ma bachho ki dekh dekh ka jumma liya par ab bachho palne se MNA kr rhi hai bachho nabalig hai . Pls guide me
ReplyDeleteWife agar padi likhi ho to bhi maintenance allowed hua aisa citation bataye
ReplyDeleteSir mere upar ek sal ka mentenence ho gaya he mene sirf ek bar 2000 RS Meri patni Jo diye he ab nahi de sakta to mujhe kitne din ke liye jail Jana padega
ReplyDeleteSir..125 Ko sarkari Naukri ke form dikhane par Naukri mil jayegi..kya
ReplyDeleteSir Meri wife apni merzi say ghar say chali gai hai sir yeh baat usnay thanay may bhi like kar di hai ki woh apni merzi say ja rahi hai ab usnay 125 ka case kar Diya hai sir mujhay ab Kya karna chaiya.
ReplyDeleteSir. Mai private school me teachdar hu aur 10000 milta hai. Kuch tuition v padhata hu. Patni ne maintaince ka case kia hai. Court kitna tak maintaince fix karegi mujhpe
ReplyDeleteक्या गुजरा ना देने पर अचल संपत्ति की भी कुर्की हो सकती है। किस नियम के तहत या किस रूल के तहत।
ReplyDeleteसर आवेदन की ड्राफ्टिंग कैसे करें इसका फॉर्मेट डाल दीजिए
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