Monday, 17 February 2014

धारा 311 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973

धारा 311 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973

     कभी-कभी किसी जांच विचारण या अन्य कार्यवाही में किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक होता है तब न्यायालय या तो स्वतः ही या किसी पक्ष के आवेदन पर उस व्यक्ति को साक्षी के रूप में बुलाती है ऐसी परिस्थिति में इस संबंध में वैधानिक स्थिति स्पष्ट हो तब ऐसे आवेदन का निराकरण सुविधाजनक रूप से किया जा सकता है।
     धारा 311 दं.प्र.सं. में प्रावधान है कि कोई न्यायालय इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी प्रक्रम में किसी व्यक्ति को साक्षी के तौर पर समन कर सकता है या किसी ऐसे व्यक्ति की, जो हाजिर हो, यद्यपि वह साक्षी के रूप में समन न  किया गया हो, परीक्षा कर सकता है, किसी व्यक्ति को, जिसकी पहले परीक्षा की जा चुकी है पुनः बुला सकता है और उसकी पुनः परीक्षा कर सकता है; और यदि न्यायालय को मामले के न्यायसंगत विनिश्चय के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक प्रतीत होता है तो वह ऐसे व्यक्ति को समन करेगा और उसकी परीक्षा करेगा या उसे पुनः बुलाएगा और उसकी पुनः परीक्षा करेगा।
     न्याय दृष्टांत मोहन लाल श्याम जी सोनी विरूद्ध यूनियन आॅफ इंडिया,         ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 1346 में यह विधि प्रतिपादित की गई है कि धारा 311 दं.प्र.सं. का प्रथम भाग वैवेकीय है और दूसरा भाग आज्ञापक है। न्याय दृष्टांत राम पासवान विरूद्ध स्टेट, 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू, 2779 में भी धारा 311 दं.प्र.सं. के प्रथम भाग को वैवेकीय और द्वितीय भाग को आज्ञापक बतलाया गया हैं।

किसी भी प्रक्रम पर
    
     धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग निर्णय सुनाने के पूर्व किसी भी प्रक्रम पर किया जा सकता है न्याय दृष्टांत विजय कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., ए.आई.आर. 2011 एस.सी.डब्ल्यू. 6236 के अनुसार इन शक्तियों का प्रयोग प्रकरण के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये यदि गवाह का परीक्षण आवश्यक हो तो किसी भी प्रक्रम पर किया जा सकता है।
     प्रतिरक्षा साक्षी के कथन के बाद भी न्यायालय धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग कर सकती है और इसे अभियोजन की कमी को पूरा करने वाला नहीं कहां जा सकता जब तक की अभियुक्त के हितों पर प्रतिकूल असर गिरना न दर्शाया गया हो जैसा कि न्याय दृष्टांत यू.टी. आॅफ दादरा एवं हवेली विरूद्ध फतेसिंह मोहन सिंह चैहान, 2006 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4880 में प्रतिपादित किया गया है।
     न्याय दृष्टांत सी.पी. साहू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 401 के अनुसार ये शक्तियाॅं विस्तृत है और न्यायालय किसी भी प्रक्रम पर किसी भी व्यक्ति को गवाह के रूप में बुला सकती है।

न्यायाल का कत्र्तव्य

     न्याय दृष्टांत जाहीरा हबीबुल्ला शेख विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3114 के अनुसार पीठासीन न्यायाधीश को एक दर्शक नहीं होना चाहिये और न ही बयान लेखन की मशीन होना चाहिये बल्कि उसे साक्ष्य संग्रह की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाना चाहिये व सही निर्णय तक पहुंचने के लिये सभी तात्विक साक्ष्य अभिलेख पर आ जाये ऐसा प्रयास करना चाहिये। न्याय दृष्टांत हिमांशू सिंह शबरवाल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1943 में भी यही विधि प्रतिपादित की गई है।
     न्याय दृष्टांत रामचन्द्र विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 1036 के अनुसार न्यायाधीश को न दर्शक बने रहना चाहिये और न ही साक्ष्य अभिलिखित करने की मशीन, बल्कि बुद्धिमानी पूर्वक विचारण में सक्रिय भाग लेना चाहिये लेकिन उसे अभियोजक की या प्रतिरक्षा की भूमिका में पहुंचने तक नहीं जाना चाहिये केवल सत्य को प्रकाश में लाने का कार्य सावधानी पूर्वक करना चाहिये। दुर्भाग्य से विचारण में बैठने वाले पीठासीन न्यायाधीश की मानसिकता ऐसी रहती है कि वे स्वयं को रेफरी या एम्पायर समझते है और विचारण अभियोजन और बचाव के बीच एक कंटेस्ट बनकर रह जाता है।
     न्याय दृष्टांत शैलेन्द्र कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, ए.आई.आर. 2002      एस.सी. 270 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में एक हत्या के मामले में दो-तीन औपचारिक गवाह लेने के बाद विचारण न्यायालय ने इस आधार पर प्रमाण समाप्त कर दिया था कि अभियोजक ने गवाहों के परीक्षण के लिये स्थगन की कोई प्रार्थना नहीं की माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसे उचित नहीं माना और यह बतलाया की न्यायालय को अन्वेषण अधिकारी को समन करना था गवाहों को समन/वारंट से बुलाना था।
     उक्त वैधानिक स्थिति से यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि यह न्यायालय का कत्र्तव्य है कि वह यह देखे कि प्रकरण के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये सभी आवश्यक साक्ष्य अभिलेख पर आ जाना चाहिये और इसके लिये न्यायाधीश को विचारण में सक्रिय भूमिका निभाना चाहिये।

किसी पक्ष की कमी को पूरा करना

     विचारण न्यायालय के सामने एक प्रश्न यह रहता है कि यदि वे किसी गवाह को इन शक्तियों का प्रयोग करके न्यायालय साक्षी के रूप में बुलाते है तो उन पर किसी पक्ष की कमी को पूरा करने का आक्षेप आ सकता है ऐसे अवसर पर न्याय दृष्टांत इंदर विरूद्ध आबिदा, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 3029 से मार्गदर्शन लेना चाहिये जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायालय को तात्विक गवाह लेने की शक्तियाॅं है न केवल अभियुक्त का समर्थन करने वाली बल्कि अभियोजन का समर्थन करने वाली साक्ष्य भी लेने की शक्तियाॅं है। यह विचार योग्य नहीं है कि वह साक्ष्य अभियोजन के मामले की कमी को पूरा करेगी यह तो पूरक या गौण तथ्य है जिसे विचार में नहीं लेना चाहिये।
     न्याय दृष्टांत राजेन्द्र प्रसाद विरूद्ध नारकोटिक्स सेल, ए.आई.आर. 1991     एस.सी. 2291 में यह प्रतिपादित किया गया है कि लोक अभियोजक द्वारा प्रकरण के संचालन में की गई कमी या त्रुटि को अभियोजन की प्रकरण की कमी नहीं समझा जा सकता है यदि अभियोजक मामले में दो बार अभियोजन प्रमाण यह सत्यापित किये बिना समाप्त कर देता है की सभी गवाहों का प्रतिपरीक्षण हो चुका है या नहीं ऐसे में न्यायालय न्यायहित में उन गवाहों को समन करती है तो यह उचित है इस मामले में किसी पक्ष की कमी या लेकूना किसे कहते है इस पर भी प्रकाश डाला गया है।
     उक्त न्याय दृष्टांत यू.टी. आॅफ दादरा एण्ड हवेली विरूद्ध फतेसिंह, 2006     ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4880 भी इस बारे में अवलोकनीय है जिसमें बचाव साक्षी हो जाने के बाद धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग किया गया था।
     इस प्रकार न्यायालय को इन शक्तियों का प्रयोग कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर यदि साक्ष्य मामले के न्यायपूर्ण निराकरण के लिए आवश्यक है तब अवश्य करना चाहिये क्योंकि न्यायालय का कार्य न्यायदान है और यही मुख्य विषय है।

साक्ष्य के बाद शपथ पत्र

     किसी साक्षी का परीक्षण हो जाने के बाद उसका शपथ पत्र पेश करके उसे फिर से साक्ष्य में बुलाने की प्रार्थना कई बार की जाती है और धारा 311 दं.प्र.सं. का आवेदन ऐसे साक्षी के लिये पेश किया जाता है ऐसे अवसर पर आवेदन निराकृत करने में बहुत सावधान रहना चाहिये।
     न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध बद्री यादव, ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 1769 के मामले में अभियोजन साक्षी के रूप में गवाहों का कथन हुआ वे ही साक्षी प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में कथन देने उपस्थित हुये गवाहों ने शपथ दिया था की उन्हें पुलिस ने प्रताडि़त व उत्प्रेरित किया था साक्षी प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में कथन देने नहीं आ सकते है लंबे समय बाद शपथ पत्र लिया गया था ऐसे गवाह झूठी साक्ष्य देने की कार्यवाही के उत्तरदायी है ऐसा भी कहां गया।
     न्याय दृष्टांत मांगी उर्फ नर्मदा विरूद्ध आॅफ एम.पी., 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 136 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी साक्षी को उसके कथित शपथ पत्र के आधार पर अतिरिक्त परीक्षा या प्रतिपरीक्षण के लिये नहीं बुलाना चाहिये मामले में न्याय दृष्टांत याकूब इस्माईल भाई पटेल विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 4209 पर विचार किया गया है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि एक बार किसी गवाह का शपथ पर परीक्षण हो जाता है उसके बाद उसे शपथ पत्र के आधार पर पुनः बुलाना उचित नहीं हैं।
     न्याय दृष्टांत उमर मोहम्मद विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. (सप्लीमेंट) 231 के मामले में गवाह के कथन हो जाने के बाद घटना के 4 वर्ष बाद गवाह द्वारा यह आवेदन दिया गया कि चार आरोपी के नाम कम किये जाये जो यह दर्शाता है कि गवाह को विपक्ष ने मिला लिया है ऐसा आवेदन निरस्त किया गया।
     न्याय दृष्टांत राम पासवान विरूद्ध स्टेट, 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 2799 के मामले में प्रतिरक्षा प्रमाण हो जाने के बाद धारा 311 दं.प्र.सं. का आवेदन प्रस्तुत हुआ कि परिवादी को पुनः तलब किया जाये क्योंकि मामला उभय पक्ष के बीच सेटल हो चुका है ऐसा आवेदन निरस्त किया गया।
     न्याय दृष्टांत राजपाल सिंह विरूद्ध सी.बी.आई. भोपाल, 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 482 के मामले में आवेदन प्रस्तुत हुआ कि साक्षी ने पूर्व का कथन धमकी के अधीन दिया था अतः उसे पुनः बुलाया जाये न्यायालय ने बिना जांच के साक्षी को पुनः तलब करने का आदेश दिया जिसे उचित नहीं माना गया हैं।
     न्याय दृष्टांत राम हेत शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 2273 के मामले में अभियुक्त ने कुछ ऐसे दस्तावेज जो साक्षी के कथन के बाद पता लगे उनके आधार पर साक्षी को अपनी प्रतिरक्षा स्थापित करने के लिये पुनः तलब करने का आवेदन दिया जिसे उसी सीमा तक प्रतिपरीक्षण के लिये स्वीकार किया गया।
     न्याय दृष्टांत लाल किशोर झा विरूद्ध स्टेट आॅफ झारखण्ड, (2011) 6       एस.सी.सी. 453 के मामले में धारा 494 एवं 498 ए भा.दं.सं. में परिवादी पत्नी के और अभियुक्त पति के बीच कुछ समझौता हुआ और पति पत्नी को घर ले गया पत्नी परिवादी ने कथन में आरोपों पर बल देना नहीं चाहा मामले के निराकरण के पूर्व  पत्नी ने एक आवेदन दिया की पति ने उसे घर से निकाल दिया है और समझौते का भंग किया है विचारण न्यायालय ने धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग करते हुये पत्नी का फिर से कथन लिया गया मामले में दोषसिद्धि हुई इसे उचित माना गया।

साक्ष्य सूची में नाम न होना

     न्याय दृष्टांत सी.पी. साहू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 401 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि साक्षी की साक्ष्य मामले के न्यायपूर्ण निराकरण के आवश्यक है तब न्यायालय के लिये यह आवश्यक है कि ऐसे साक्षी को समन करके उसका कथन लेवे साक्षी का नाम अभियोजन की साक्ष्य सूची में नहीं है इस आधार पर न्यायालय पर कोई रोक नहीं होती है और ऐसे गवाह को भी न्यायालय साक्ष्य में बुला सकता है।
     न्याय दृष्टांत जमुना दास बालादीन जाटव विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 1994 एम.पी.एल.जे. 569 के अनुसार यदि अभियोजन की साक्ष्य सूची में गवाहों के नाम शामिल नहीं है और यदि वे मामले के न्यायपूर्ण निराकरण के लिए समन करना चाहिये। 
     अतः साक्षी का नाम साक्ष्य सूची में न होने मात्र से कोई अंतर नहीं होता है।

अन्य अवसर पर भिन्न कथन

     यदि किसी मामले में किसी साक्षी का परीक्षण हो जाता है और उसे इस आधार पर पुनः बुलाने की प्रार्थना की जाती है कि उसने बाल न्यायालय में असंगत साक्ष्य दी है तब ऐसी प्रार्थना को स्वीकार योग्य नहीं माना गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत हनुमान राय विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 69 अवलोकनीय है जिसमें साक्षी ने बाल न्यायालय में कुछ असंगत साक्ष्य दी थी।
     न्याय दृष्टांत मिश्री लाल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 2770 भी इस मामले में अवलोकनीय हैं जिसमें यह भी कहां गया है कि बाल न्यायालय में असंगत साक्ष्य देना दोषमुक्ति का आधार नहीं हो सकता है।

न्यायालय साक्षी के बारे में

     यदि न्यायालय किसी साक्षी को स्वतः ही साक्ष्य में बुलाती है तब उससे प्रतिपरीक्षण का अधिकार दोनों पक्ष को होता है इस संबंध न्याय दृष्टांत एस.आर.एस. यादव विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 1997 (2) जे.एल.जे. 110, राम पासवान विरूद्ध स्टेट, 2007     ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 2779 अवलोकनीय हैं।
     न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ असम विरूद्ध मुहिम बर्काताकी, ए.आई.आर. 1987    एस.सी. 98 में एक हत्या के मामले में एक पुलिस अधिकारी को न्यायालय ने न्यायालय साक्षी के रूप में बुला कर परीक्षा की मात्र इस आधार पर विचारण न्यायालय के निष्कर्षो में कोई कमी नहीं कही जा सकती एक साक्षी पुलिस अधिकारी है मात्र इस आधार पर उसकी साक्ष्य को कम नहीं आका जा सकता।

गवाह खर्च

     सामान्यतः जो पक्ष गवाह को बुलाता है वह उसका खर्च उठाता है लेकिन जहां अभियोजन की किसी त्रुटि के कारण गवाह बचाव पक्ष द्वारा पुनः बुलाना पड़ा हो वहां अभियुक्त से उसका खर्च दिलवाना उचित नहीं होता है न्याय दृष्टांत नंद लाल विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 98 इस संबंध में अवलोकनीय हैं।
     उक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि धारा 311 दं.प्र.सं. का प्रथम भाग वैवेकीय और द्वितीय भाग आज्ञापक है अतः किसी साक्षी का कथन यदि प्रकरण के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये आवश्यक हो तो न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ऐसे व्यक्ति को समन करके उसका परीक्षण कर सकती है, उसे पुनः बुला सकती है और पुनः परीक्षण कर सकती है। यह प्रश्न तात्विक नहीं है कि ऐसे साक्षी को बुलाना किसी पक्ष की कमी को पूरा करना है तात्विक यह है कि प्रकरण के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये ऐसे साक्षी का साक्ष्य आवश्यक हैं। यदि साक्षी का नाम साक्ष्य सूची में न हो तब भी उसे तलब किया जा सकता हैं। न्यायालय साक्षी से दोनों पक्षों को प्रतिपरीक्षण का अधिकार होता है लेकिन किसी गवाह का कथन एक बार हो जाने के बाद उसे बाद में दिये गये शपथ पत्र के आधार पर पुनः बुलाना उचित नहीं माना गया है इन वैधानिक स्थितियों को ध्यान मंे रखते हुये धारा 311 दं.प्र.सं. के आवेदन का न्यायपूर्ण निराकरण करना चाहिये और इन शक्तियों का प्रयोग करना चाहिये और न्यायाधीश या मजिस्टेªट को अपने कत्र्तव्य का विचारण के समय विशेष कर साक्ष्य लेखन के समय ध्यान रखना चाहिये।
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द0प्र0सं0 311
                           न्याय दृष्टांत जाहिरा हबीबुल्ला विरूद्ध गुजरात राज्य (2004) 4 एस.सी.सी.-158 में अभिनिर्धारित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के प्रावधान किसी पक्ष को यह अधिकार नहीं देते हैं कि वे किसी साक्षी को परीक्षण, पुनः परीक्षण या प्रतिपरीक्षण हेतु बुलाये, अपितु यह शक्ति न्यायालय को इस उद्देष्य से दी गयी है ताकि न्याय के हनन को तथा समाज एवं पक्षकारों को होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोका जा सके, इन प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय मामले के सम्यक् निर्णयन हेतु तथ्यों के प्रमाण की आवष्यकता महसूस करे।

5 comments:

  1. Mere upar 307 ka jhota case laga hai jhota hai medical nil hai isme mujhe high court se janch mil sakti hai

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  2. बहुत हि अच्छी कानूनी जानकारी प्राप्त कराई महाशय आपने
    ईसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद सर।

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  3. बहुत हि अच्छी कानूनी जानकारी प्राप्त कराई महाशय आपने
    ईसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद सर।

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  4. Mere uper ek cash hai jisme mere again party isme gawahi nhi karati hai aur 3 baar mere cash me coart gawah band karke again party ke uper 500 ka penisment fee laga deti hai pr wo again party baar baar mere cash ko dhara 311 ka partition de kr baar cash fasa deta hai
    To mujhe is cash se chhutkara kaise milega
    Qki again party na gawahi karati na cash ka order hone deta
    Jb order ka time aata hai tb 311 ka partition daal deta hai
    To hum akhir kaise cash khatm hoga

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  5. Mere uper jhoota cash hai
    Lekin again party sirf o sirf hume pareshan karne ke liye hi cash ko fasa kr rakha hai
    Please aur aap mujhe isse chhutkara dilane ka upaye bataye

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