दांडिक मामलों में साक्ष्य के मूल्यांकन के सिद्धांत
बाल साक्षी
दांडिक मामलों में कभी-कभी बाल साक्षी की साक्ष्य अभिलेख पर होती हैं और उस पर विश्वास करने या न करने का प्रश्न उपस्थित होता हैं क्यांेकि ऐसे साक्षी को सिखाये जाने की संभावना रहती है और उसे असानी से प्रभावित करने की संभावना भी रहती हैं।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 के अनुसार सभी व्यक्ति साक्ष्य देने के लिए सक्षम होंगे जब तक की न्यायालय का यह विचार न हो कि वे अल्पवय या टेण्डर ऐज, अधिक उम्र या आॅल्ड ऐज या शरीर के या मन के किसी रोग के कारण या इसी प्रकार के किसी अन्य कारण से उनसे किये गये प्रश्नों को समझने से या उन प्रश्नों के युक्तियुक्त उत्तर देने से निवारित हैं।
इस प्रकार उक्त धारा 118 में किसी व्यक्ति के सक्षम साक्षी होने के लिए कोई न्यूनतम या अधिकतम उम्र निर्धारित नहीं है केवल संबंधित साक्षी का उससे किये गये प्रश्नों को समझने और उनका युक्तियुक्त उत्तर देने में समर्थ होना पर्याप्त होता हैं।
जब कभी बाल साक्षी की साक्ष्य के मूल्यांकन का अवसर उपस्थित होता है प्रत्येक न्यायाधीश को उसकी साक्ष्य की सावधानी पूर्वक छानबीन करना चाहिए और यदि साक्ष्य पुष्टिकारक, स्वाभाविक पाई जाती है तो उस पर विश्वास किया जा सकता हैं।
न्याय दृष्टांत दत्तू रामाराव शेखरे विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, (1997) 5 एस.सी.सी. 341 में एक 10 वर्षीय लड़की जो मृतक की पुत्री थी उसकी साक्ष्य को विश्वसनीय माना गया और यह प्रतिपादित किया की चाहे साक्षी ने शपथ नहीं ली है वह प्रश्नों की प्रकृति को समझने और उसका युक्तियुक्त उत्तर देने में समर्थ थी न्यायालय को उसके भावभंगी या डिमेनोर देखना चाहिए उसके सिखाये जाने की कोई संभावना नहीं थी ऐसे में उसकी साक्ष्य पर पुष्टि आवश्यक नहीं मानी गई पुष्टि केवल प्रज्ञा के नियम के अनुसार आवश्यक होती है बाल साक्षी के साक्ष्य पर दोष सिद्धि स्थिर की जा सकती हैं।
न्याय दृष्टांत सूर्य नारायणा विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, (2001) 9 एस.सी.सी. 129 में घटना के समय 4 वर्ष की और कथन के समय 6 वर्ष उम्र की लड़की की साक्ष्य को विश्वसनीय माना गया और यह प्रतिपादित किया की साक्षी अल्पवय या टेण्डर ऐज की है मात्र इस आधार पर उसकी साक्ष्य खारीज नहीं की जा सकती न्यायालय किसी बाल साक्षी की पुष्टि नियम के रूप में नही बल्कि सावधानी के रूप में मांग सकती है एकमात्र बाल साक्षी के साक्ष्य भी दोषसिद्धि का आधार हो सकती हैं।
न्याय दृष्टांत प्रेम दास विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (1) एम.पी.एल.ले. 265 में 14 वर्ष के एक बालक के साक्ष्य को विश्वसनीय पाया गया जो उसके पिता की हत्या का प्रत्यक्ष साक्षी था इस तथ्य को अमान्य किया गया की साक्षी सिखाया हुआ साक्षी हैं।
न्याय दृष्टांत रतन सिंह डी. नायक विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, (2004) 1 एस.सी.सी. 64 में यह प्रतिपादित किया गया कि बाल साक्षी उससे किये गये प्रश्नों को समझने और उसका युक्तियुक्त उत्तर देने में सक्षम है यह निर्णय विचारण न्यायाधीश पर छोड़़ना चाहिए यदि ऐसा निर्णय त्रुटिपूर्ण हो तभी उसमें हस्तक्षेप करना चाहिए।
किसी बाल साक्षी से केवल यह पूछना की उसने क्या धटना देखी है यह उसको सिखाया जाना नहीं माना जा सकता।
बाल साक्षी की साक्ष्य पर सावधानी पूर्वक विचार करने के बाद यदि वह विश्वसनीय पाई जाती है तो उस पर विश्वास करना चाहिए।
इस मामले में बाल साक्षी ने अपीलार्थी को दो व्यक्तियों की हत्या करते हुये देखा था उसकी साक्ष्य पर सावधानी पूर्वक विचार करने के बाद विश्वसनीय पाया गया।
न्याय दृष्टांत पंछी विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., (1998) 7 एस.सी.सी. 177 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि बाल साक्षी की साक्ष्य को अधिक सावधानी से और अधिक चैकन्ना रहते हुये मूल्यांकन करना चाहिए और यदि उसकी पुष्टि नहीं होती है तो उसे पूरी तरह निरस्त नहीं किया जा सकता मामले में एक परिवार के चार सदस्यों की हत्या में एक बाल साक्षी जिसने धटना का कुछ भाग देखा था उसे विश्वसनीय पाया गया बाल साक्षी को सिखाये जाने की संभावना रहती हैं इसलिए उसकी साक्ष्य पर सावधानी से छानबीन पर बल दिया गया।
न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध कृष्णा मास्टर, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 3071 में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक बाल साक्षी तथ्यों को याद नहीं रख सकता ऐसा कोई कानून या नियम नहीं हैं। एक बालक असामान्य घटनाओं को जो उसके जीवन में घटित होती है उसे बचे हुए जीवन में कभी नहीं भूलता हैं एक अल्पवय बालक के मन में किसी के प्रति द्वेष या बुराई नहीं होती है अतः घटना दिनांक से कथन लेखबद्ध होने के बीच में क्या गलत घटित हुआ जिसके कारण एक गंभीर अपराध में अभियुक्त को बाल साक्षी फसाना चाहता है यह भी विचारणीय बतलाया गया।
बाल साक्षी के संबंध में न्याय दृष्टांत रमेश भाई चंदू भाई राठौर विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, 2009 (3) सुप्रीम 585, स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध रमेश, (2011) 4 एस.सी.सी. 786, गोला येलूगू गोविन्दू विरूद्ध स्टेट आॅफ ए.पी., ए.आई.आर. 2008 एस.सी.सी. 1842, प्रताप सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ म.प्र., 2006 (1) एम.पी.एच.टी. 1 एस.सी., जूझार सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2006 (1) एम.पी.एल.जे. 356 भी अवलोकनीय हैं।
राम किशनू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 1277 डी.बी., लतीफ खान विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (2) एम.पी.एल.जे. नोट 7 अवलोकनीय हैं।
दांडिक मामलों में कभी-कभी बाल साक्षी की साक्ष्य अभिलेख पर होती हैं और उस पर विश्वास करने या न करने का प्रश्न उपस्थित होता हैं क्यांेकि ऐसे साक्षी को सिखाये जाने की संभावना रहती है और उसे असानी से प्रभावित करने की संभावना भी रहती हैं।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 के अनुसार सभी व्यक्ति साक्ष्य देने के लिए सक्षम होंगे जब तक की न्यायालय का यह विचार न हो कि वे अल्पवय या टेण्डर ऐज, अधिक उम्र या आॅल्ड ऐज या शरीर के या मन के किसी रोग के कारण या इसी प्रकार के किसी अन्य कारण से उनसे किये गये प्रश्नों को समझने से या उन प्रश्नों के युक्तियुक्त उत्तर देने से निवारित हैं।
इस प्रकार उक्त धारा 118 में किसी व्यक्ति के सक्षम साक्षी होने के लिए कोई न्यूनतम या अधिकतम उम्र निर्धारित नहीं है केवल संबंधित साक्षी का उससे किये गये प्रश्नों को समझने और उनका युक्तियुक्त उत्तर देने में समर्थ होना पर्याप्त होता हैं।
जब कभी बाल साक्षी की साक्ष्य के मूल्यांकन का अवसर उपस्थित होता है प्रत्येक न्यायाधीश को उसकी साक्ष्य की सावधानी पूर्वक छानबीन करना चाहिए और यदि साक्ष्य पुष्टिकारक, स्वाभाविक पाई जाती है तो उस पर विश्वास किया जा सकता हैं।
न्याय दृष्टांत दत्तू रामाराव शेखरे विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, (1997) 5 एस.सी.सी. 341 में एक 10 वर्षीय लड़की जो मृतक की पुत्री थी उसकी साक्ष्य को विश्वसनीय माना गया और यह प्रतिपादित किया की चाहे साक्षी ने शपथ नहीं ली है वह प्रश्नों की प्रकृति को समझने और उसका युक्तियुक्त उत्तर देने में समर्थ थी न्यायालय को उसके भावभंगी या डिमेनोर देखना चाहिए उसके सिखाये जाने की कोई संभावना नहीं थी ऐसे में उसकी साक्ष्य पर पुष्टि आवश्यक नहीं मानी गई पुष्टि केवल प्रज्ञा के नियम के अनुसार आवश्यक होती है बाल साक्षी के साक्ष्य पर दोष सिद्धि स्थिर की जा सकती हैं।
न्याय दृष्टांत सूर्य नारायणा विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, (2001) 9 एस.सी.सी. 129 में घटना के समय 4 वर्ष की और कथन के समय 6 वर्ष उम्र की लड़की की साक्ष्य को विश्वसनीय माना गया और यह प्रतिपादित किया की साक्षी अल्पवय या टेण्डर ऐज की है मात्र इस आधार पर उसकी साक्ष्य खारीज नहीं की जा सकती न्यायालय किसी बाल साक्षी की पुष्टि नियम के रूप में नही बल्कि सावधानी के रूप में मांग सकती है एकमात्र बाल साक्षी के साक्ष्य भी दोषसिद्धि का आधार हो सकती हैं।
न्याय दृष्टांत प्रेम दास विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (1) एम.पी.एल.ले. 265 में 14 वर्ष के एक बालक के साक्ष्य को विश्वसनीय पाया गया जो उसके पिता की हत्या का प्रत्यक्ष साक्षी था इस तथ्य को अमान्य किया गया की साक्षी सिखाया हुआ साक्षी हैं।
न्याय दृष्टांत रतन सिंह डी. नायक विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, (2004) 1 एस.सी.सी. 64 में यह प्रतिपादित किया गया कि बाल साक्षी उससे किये गये प्रश्नों को समझने और उसका युक्तियुक्त उत्तर देने में सक्षम है यह निर्णय विचारण न्यायाधीश पर छोड़़ना चाहिए यदि ऐसा निर्णय त्रुटिपूर्ण हो तभी उसमें हस्तक्षेप करना चाहिए।
किसी बाल साक्षी से केवल यह पूछना की उसने क्या धटना देखी है यह उसको सिखाया जाना नहीं माना जा सकता।
बाल साक्षी की साक्ष्य पर सावधानी पूर्वक विचार करने के बाद यदि वह विश्वसनीय पाई जाती है तो उस पर विश्वास करना चाहिए।
इस मामले में बाल साक्षी ने अपीलार्थी को दो व्यक्तियों की हत्या करते हुये देखा था उसकी साक्ष्य पर सावधानी पूर्वक विचार करने के बाद विश्वसनीय पाया गया।
न्याय दृष्टांत पंछी विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., (1998) 7 एस.सी.सी. 177 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि बाल साक्षी की साक्ष्य को अधिक सावधानी से और अधिक चैकन्ना रहते हुये मूल्यांकन करना चाहिए और यदि उसकी पुष्टि नहीं होती है तो उसे पूरी तरह निरस्त नहीं किया जा सकता मामले में एक परिवार के चार सदस्यों की हत्या में एक बाल साक्षी जिसने धटना का कुछ भाग देखा था उसे विश्वसनीय पाया गया बाल साक्षी को सिखाये जाने की संभावना रहती हैं इसलिए उसकी साक्ष्य पर सावधानी से छानबीन पर बल दिया गया।
न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध कृष्णा मास्टर, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 3071 में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक बाल साक्षी तथ्यों को याद नहीं रख सकता ऐसा कोई कानून या नियम नहीं हैं। एक बालक असामान्य घटनाओं को जो उसके जीवन में घटित होती है उसे बचे हुए जीवन में कभी नहीं भूलता हैं एक अल्पवय बालक के मन में किसी के प्रति द्वेष या बुराई नहीं होती है अतः घटना दिनांक से कथन लेखबद्ध होने के बीच में क्या गलत घटित हुआ जिसके कारण एक गंभीर अपराध में अभियुक्त को बाल साक्षी फसाना चाहता है यह भी विचारणीय बतलाया गया।
बाल साक्षी के संबंध में न्याय दृष्टांत रमेश भाई चंदू भाई राठौर विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, 2009 (3) सुप्रीम 585, स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध रमेश, (2011) 4 एस.सी.सी. 786, गोला येलूगू गोविन्दू विरूद्ध स्टेट आॅफ ए.पी., ए.आई.आर. 2008 एस.सी.सी. 1842, प्रताप सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ म.प्र., 2006 (1) एम.पी.एच.टी. 1 एस.सी., जूझार सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2006 (1) एम.पी.एल.जे. 356 भी अवलोकनीय हैं।
राम किशनू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 1277 डी.बी., लतीफ खान विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (2) एम.पी.एल.जे. नोट 7 अवलोकनीय हैं।
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