क्या एक विचारणधीन अभियुक्त, जिसका
जमानत आवेदन पत्र पूर्वतन प्रकक्रम पर
निरस्त हुआ है द्वारा पश्चातवर्ती प्रक्रम
पर अभियोजन साक्षियों के पक्षद्रोही होने
अथवा अभियोजन का समर्थन नही करने
के आधार पर जमानत हेतु प्रस्तुत
आवेदन पत्र स्वीकार योग्य है ?
सामान्य रूप से किसी अपराध के अभियुक्त
व्यक्ति को जमानत देने से इन्कार करना धारा
437 या धारा 439 दण्ड प्रक्रिया संहिता के
अंतर्गत न्यायालय के विवेकाधीन होता है।
तथापि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों
के संबंध में न्यायालय द्वारा जमानत संबंधी
विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग माननीय सर्वोच्च
न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित
मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुसरण में किया जाना
बाध्यकारी है। यह सुस्थापित मत है कि जमानत
पर देखना चाहिए। जमानत के प्रकरण पर साक्ष्य
का विवेचन कर मामले के गुण-दोष को विचार
में नही लेना चाहिए जैसा कि निरंजन सिंह
विरूद्ध प्रभाकर राजाराम, ए.आई.आर. 1980
सु.को. 785 में प्रतिपादित किया गया है।
एक अभियुक्त, जिसका जमानत आवेदन पत्र
पूर्वतन प्रक्रम वा गुण-दोषों पर निरस्त हुआ
है, द्वारा पश्चातवर्ती प्रक्रम पर अभियोजन
साक्षियों के पक्षद्रोही होने अथवा अभियोजन का
समर्थन नही करने के आधार पर जमानत के
लिए प्रस्तुत आवेदन पत्र स्वीकार योग्य नही
होगा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सतीश
जग्गी विरूद्ध स्टेट आफ छत्तीसगढ़, 2007
क्रि.ला.ज. 2766 में साक्षियों के पक्षद्रोही हो
जाने के आधार पर उच्च न्यायालय द्वारा दी गई
जमानत के आदेश को अपास्त करते हुए
अवधारित किया है कि जमानत देने के प्रक्रम पर
न्यायालय द्वारा अभियोजन की ओर से प्रस्तुत
साक्षियों की सत्यता एवं विश्वसनीयता का बिन्दु
विचार में नही लिया जा सकता है। अभियोजन
साक्षियों की सत्यता एवं विश्वसनियता का
परीक्षण केवल गुण-दोष पर निर्णय के समय
किया जा सकता है क्योकि इस से पूर्व का
साक्ष्य का विवेचन परोक्ष रूप से मामले के
गुण-दोष पर न्यायालय का अभिमत प्रगट करने
जैसा होगा। इसी तरह नारायण घोष विरूद्ध
स्टेट आफ उड़ीसा, ए.आई.आर. 2008 सु.
को. 1159 के मामले में माननीय सर्वोच्च
न्यायालय ने अभियोजन साक्षियों के पक्षद्रोही
होने को जमानत देने के आधार के रूप में
स्वीकार नही किया।
जमानत आवेदन पत्र पूर्वतन प्रकक्रम पर
निरस्त हुआ है द्वारा पश्चातवर्ती प्रक्रम
पर अभियोजन साक्षियों के पक्षद्रोही होने
अथवा अभियोजन का समर्थन नही करने
के आधार पर जमानत हेतु प्रस्तुत
आवेदन पत्र स्वीकार योग्य है ?
सामान्य रूप से किसी अपराध के अभियुक्त
व्यक्ति को जमानत देने से इन्कार करना धारा
437 या धारा 439 दण्ड प्रक्रिया संहिता के
अंतर्गत न्यायालय के विवेकाधीन होता है।
तथापि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों
के संबंध में न्यायालय द्वारा जमानत संबंधी
विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग माननीय सर्वोच्च
न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित
मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुसरण में किया जाना
बाध्यकारी है। यह सुस्थापित मत है कि जमानत
पर देखना चाहिए। जमानत के प्रकरण पर साक्ष्य
का विवेचन कर मामले के गुण-दोष को विचार
में नही लेना चाहिए जैसा कि निरंजन सिंह
विरूद्ध प्रभाकर राजाराम, ए.आई.आर. 1980
सु.को. 785 में प्रतिपादित किया गया है।
एक अभियुक्त, जिसका जमानत आवेदन पत्र
पूर्वतन प्रक्रम वा गुण-दोषों पर निरस्त हुआ
है, द्वारा पश्चातवर्ती प्रक्रम पर अभियोजन
साक्षियों के पक्षद्रोही होने अथवा अभियोजन का
समर्थन नही करने के आधार पर जमानत के
लिए प्रस्तुत आवेदन पत्र स्वीकार योग्य नही
होगा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सतीश
जग्गी विरूद्ध स्टेट आफ छत्तीसगढ़, 2007
क्रि.ला.ज. 2766 में साक्षियों के पक्षद्रोही हो
जाने के आधार पर उच्च न्यायालय द्वारा दी गई
जमानत के आदेश को अपास्त करते हुए
अवधारित किया है कि जमानत देने के प्रक्रम पर
न्यायालय द्वारा अभियोजन की ओर से प्रस्तुत
साक्षियों की सत्यता एवं विश्वसनीयता का बिन्दु
विचार में नही लिया जा सकता है। अभियोजन
साक्षियों की सत्यता एवं विश्वसनियता का
परीक्षण केवल गुण-दोष पर निर्णय के समय
किया जा सकता है क्योकि इस से पूर्व का
साक्ष्य का विवेचन परोक्ष रूप से मामले के
गुण-दोष पर न्यायालय का अभिमत प्रगट करने
जैसा होगा। इसी तरह नारायण घोष विरूद्ध
स्टेट आफ उड़ीसा, ए.आई.आर. 2008 सु.
को. 1159 के मामले में माननीय सर्वोच्च
न्यायालय ने अभियोजन साक्षियों के पक्षद्रोही
होने को जमानत देने के आधार के रूप में
स्वीकार नही किया।
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