रिश्तेदार गवाह या रीलेडेट विटनेस
जो गवाह आहत या मृतक या परिवादी का संबंधी या रिश्तेदार होता है उसे रिश्तेदार गवाह कहां जाता है और ऐसे गवाह के बारे में यह तर्क किया जाता है चूंकि साक्षी आहत या मृतक या परिवादी का रिश्तेदार है इसलिए उसकी साक्ष्य विश्वसनीय नहीं है।
निकट के रिश्तेदार की गवाह भी यदि सत्य पाई जाती है और सावधानी पूर्वक छानबीन करने के बाद यदि विश्वास योग्य पाई जाती है तो उस पर विश्वास करना चाहिए।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत भाग लाल लोधी विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 2292 अवलोकनीय हैं।
न्याय दृष्टांत बीरेन्द्र पोददार विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 233 में यह प्रतिपादित किया है कि रिश्तेदारी किसी गवाह के साक्ष्य को अविश्वसनीय मामने का आधार नहीं हो सकती ऐसे गवाह के साक्ष्य की सावधानी से छानबीन करना चाहिए।
न्याय दृष्टांत स्वर्ण सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ पंजाब, (1976) 4 एस.सी.सी. 369 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य को सह-अपराधी या दूषित गवाह के समान समझा जावे और उसकी साक्ष्य की पुष्टि आवश्यक हो ऐसा नियम नहीं हैं ऐसे गवाह के साक्ष्य में भी कोई कमी नहीं मानी जा सकती। न्यायालय प्रज्ञा के नियम के अनुसार न की कानून के नियम के अनुसार ऐसे साक्षी के साक्ष्य की छानबीन कर लेने में अपेक्षाकृत सतर्क रहते है न्यायालय सतर्क रहकर छानबीन करने के बाद उस साक्षी के साक्ष्य को विश्वसनीय पाते है तब बिना पुष्टि के उस पर विश्वास किया जा सकता हैं।
न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध सुबोध नाथ, (2009) 6 एस.सी.सी. 600 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यह एक सामान्य मानवीय स्वभाव हैं कि रिश्तेदार साक्षीगण उनके रिश्तेदार की हत्या के मामले में किसी अन्य को नहीं फसायेंगे और वे यह चाहेंगे की असली अपराधी दंडित हो।
न्याय दृष्टांत सलीम साहेब विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2007) 1 एस.सी.सी. 699 में यह प्रतिपादित किया गया है कि रिश्तेदारी किसी भी गवाह के विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाला कारक नहीं हो सकता लेकिन जहां झूठे फसाये जाने के आधार बताये गये हो वहां न्यायालय को सावधान रहना चाहिए।
न्याय दृष्टांत मानो विरूद्ध स्टेट आॅफ तमिलनाडू, 2007 सी.आर.एल.जे. 2736 एस.सी. में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि न तो रिश्तेदारी अकेला हितबद्ध होना मानने के लिए निर्धारिक तत्व है और न ही रिश्तेदारी साक्षी की विश्वसनीयता को प्रभावित करती हैं जहां झूठा फसाने का आधार स्थापित किया गया हो वहां न्यायालय को सावधान रहना चाहिए।
न्याय दृष्टांत दलीप सिंह विरूद्ध द स्टेट आॅफ पंजाब, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 354 चार न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः एक निकट का रिश्तेदार वह अंतिम व्यक्ति होता है जो यह चाहता है की वास्तविक अपराधी बच निकले और किसी निर्दोष व्यक्ति को फसा दिया जाये ऐसे मामलों में यह हो सकता है की दोषियों के साथ कुछ अन्य व्यक्तियों को भी लिप्त कर लिया जाए लेकिन यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
न्याय दृष्टांत सीमन उर्फ विरमन विरूद्ध स्टेट, (2005) 11 एस.सी.सी. 142 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी गवाह की साक्ष्य मात्र इस आधार पर अविश्वसनीय नहीं मानी जा सकती है कि वह रिश्तेदार गवाह या एक मात्र गवाह है प्रथम सूचना में लिखाए गये स्वतंत्र साक्षी को प्रस्तुत न करना हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य पर अविश्वास करने में आधार नहीं हो सकता।
न्याय दृष्टांत हरिराम विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., (2004) 8 एस.सी.सी. 146 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां घटना घर के अंदर हुई हो तब घर में रहने वाले प्राकृतिक रूप से गवाह होते है और ऐसे में रिश्तेदारी उन गवाहों की विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाला कारक नहीं हो सकता ।
न्याय दृष्टांत कैलाश विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (3) एम.पी.एल.जे. 249 में यह प्रतिपादित किया गया है कि दहेज हत्या में मामले में विकटिम के रिश्तेदार श्रेष्ठ गवाह होते है इन मामलों में स्वतंत्र गवाह न होने का कोई प्रभाव नहीं होता।
न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध बल्लभ दास, ए.आई.आर. 1985 एस.सी. 1384 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गाॅंव में जहां अलग-अलग दल बने होते है वहां यह असंभव होगा की कोई स्वतंत्र व्यक्ति सामने आकर घटना के बारे में गवाह दे ऐसे में किसी पक्ष विशेष के गवाह ही प्राकृतिक और संभाव्य गवाह होते हैं।
हितबद्ध गवाह की साक्ष्य के मूल्यांकन में न्याय दृष्टांत हरि ओबूला रेड्डी विरूद्ध द स्टेट आॅफ आंध्रप्रदेश, ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 82 से मार्गदर्शन लिया जा सकता हैं।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत बलराज विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र (2010) 6 एस.सी.सी. 673, प्रहलाद पटेल विरूद्ध स्टेट आॅफ म.प्र., (2011) 4 एस.सी.सी. 262, स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध नरेश, (2011) 4 एस.सी.सी. 324, वामन विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, (2011) 7 एस.सी.सी. 295, स्टेट आॅफ ए.पी. विरूद्ध रयाप्पा, (2006) 4 एस.सी.सी. 512, मसालती विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 202, वाडी वेलू थेवर विरूद्ध स्टेट आॅफ मद्रास, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614, स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध तेजराम, (1999) 3 एस.सी.सी. 507, गुली चंद विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, (1974) 3 एस.सी.सी. 698, सुच्चा सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ पंजाब, (2003) 7 एस.सी.सी. 643, श्रीराम विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (1) जे.एल.जे. 252 एस.सी., हरिजना नारायणा विरूद्ध स्टेट आॅफ ए.पी., ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 2851, गंगाधर बेहेरा विरूद्ध स्टेट आॅफ उड़ीसा, (2002) 8 एस.सी.सी. 381, रीजान विरूद्ध स्टेट आॅफ छत्तीसगढ़, (2003) 2 एस.सी.सी. 661 अवलोकनीय हैं।
जो गवाह आहत या मृतक या परिवादी का संबंधी या रिश्तेदार होता है उसे रिश्तेदार गवाह कहां जाता है और ऐसे गवाह के बारे में यह तर्क किया जाता है चूंकि साक्षी आहत या मृतक या परिवादी का रिश्तेदार है इसलिए उसकी साक्ष्य विश्वसनीय नहीं है।
निकट के रिश्तेदार की गवाह भी यदि सत्य पाई जाती है और सावधानी पूर्वक छानबीन करने के बाद यदि विश्वास योग्य पाई जाती है तो उस पर विश्वास करना चाहिए।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत भाग लाल लोधी विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 2292 अवलोकनीय हैं।
न्याय दृष्टांत बीरेन्द्र पोददार विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 233 में यह प्रतिपादित किया है कि रिश्तेदारी किसी गवाह के साक्ष्य को अविश्वसनीय मामने का आधार नहीं हो सकती ऐसे गवाह के साक्ष्य की सावधानी से छानबीन करना चाहिए।
न्याय दृष्टांत स्वर्ण सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ पंजाब, (1976) 4 एस.सी.सी. 369 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य को सह-अपराधी या दूषित गवाह के समान समझा जावे और उसकी साक्ष्य की पुष्टि आवश्यक हो ऐसा नियम नहीं हैं ऐसे गवाह के साक्ष्य में भी कोई कमी नहीं मानी जा सकती। न्यायालय प्रज्ञा के नियम के अनुसार न की कानून के नियम के अनुसार ऐसे साक्षी के साक्ष्य की छानबीन कर लेने में अपेक्षाकृत सतर्क रहते है न्यायालय सतर्क रहकर छानबीन करने के बाद उस साक्षी के साक्ष्य को विश्वसनीय पाते है तब बिना पुष्टि के उस पर विश्वास किया जा सकता हैं।
न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध सुबोध नाथ, (2009) 6 एस.सी.सी. 600 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यह एक सामान्य मानवीय स्वभाव हैं कि रिश्तेदार साक्षीगण उनके रिश्तेदार की हत्या के मामले में किसी अन्य को नहीं फसायेंगे और वे यह चाहेंगे की असली अपराधी दंडित हो।
न्याय दृष्टांत सलीम साहेब विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2007) 1 एस.सी.सी. 699 में यह प्रतिपादित किया गया है कि रिश्तेदारी किसी भी गवाह के विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाला कारक नहीं हो सकता लेकिन जहां झूठे फसाये जाने के आधार बताये गये हो वहां न्यायालय को सावधान रहना चाहिए।
न्याय दृष्टांत मानो विरूद्ध स्टेट आॅफ तमिलनाडू, 2007 सी.आर.एल.जे. 2736 एस.सी. में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि न तो रिश्तेदारी अकेला हितबद्ध होना मानने के लिए निर्धारिक तत्व है और न ही रिश्तेदारी साक्षी की विश्वसनीयता को प्रभावित करती हैं जहां झूठा फसाने का आधार स्थापित किया गया हो वहां न्यायालय को सावधान रहना चाहिए।
न्याय दृष्टांत दलीप सिंह विरूद्ध द स्टेट आॅफ पंजाब, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 354 चार न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः एक निकट का रिश्तेदार वह अंतिम व्यक्ति होता है जो यह चाहता है की वास्तविक अपराधी बच निकले और किसी निर्दोष व्यक्ति को फसा दिया जाये ऐसे मामलों में यह हो सकता है की दोषियों के साथ कुछ अन्य व्यक्तियों को भी लिप्त कर लिया जाए लेकिन यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
न्याय दृष्टांत सीमन उर्फ विरमन विरूद्ध स्टेट, (2005) 11 एस.सी.सी. 142 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी गवाह की साक्ष्य मात्र इस आधार पर अविश्वसनीय नहीं मानी जा सकती है कि वह रिश्तेदार गवाह या एक मात्र गवाह है प्रथम सूचना में लिखाए गये स्वतंत्र साक्षी को प्रस्तुत न करना हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य पर अविश्वास करने में आधार नहीं हो सकता।
न्याय दृष्टांत हरिराम विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., (2004) 8 एस.सी.सी. 146 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां घटना घर के अंदर हुई हो तब घर में रहने वाले प्राकृतिक रूप से गवाह होते है और ऐसे में रिश्तेदारी उन गवाहों की विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाला कारक नहीं हो सकता ।
न्याय दृष्टांत कैलाश विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (3) एम.पी.एल.जे. 249 में यह प्रतिपादित किया गया है कि दहेज हत्या में मामले में विकटिम के रिश्तेदार श्रेष्ठ गवाह होते है इन मामलों में स्वतंत्र गवाह न होने का कोई प्रभाव नहीं होता।
न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध बल्लभ दास, ए.आई.आर. 1985 एस.सी. 1384 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गाॅंव में जहां अलग-अलग दल बने होते है वहां यह असंभव होगा की कोई स्वतंत्र व्यक्ति सामने आकर घटना के बारे में गवाह दे ऐसे में किसी पक्ष विशेष के गवाह ही प्राकृतिक और संभाव्य गवाह होते हैं।
हितबद्ध गवाह की साक्ष्य के मूल्यांकन में न्याय दृष्टांत हरि ओबूला रेड्डी विरूद्ध द स्टेट आॅफ आंध्रप्रदेश, ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 82 से मार्गदर्शन लिया जा सकता हैं।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत बलराज विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र (2010) 6 एस.सी.सी. 673, प्रहलाद पटेल विरूद्ध स्टेट आॅफ म.प्र., (2011) 4 एस.सी.सी. 262, स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध नरेश, (2011) 4 एस.सी.सी. 324, वामन विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, (2011) 7 एस.सी.सी. 295, स्टेट आॅफ ए.पी. विरूद्ध रयाप्पा, (2006) 4 एस.सी.सी. 512, मसालती विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 202, वाडी वेलू थेवर विरूद्ध स्टेट आॅफ मद्रास, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614, स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध तेजराम, (1999) 3 एस.सी.सी. 507, गुली चंद विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, (1974) 3 एस.सी.सी. 698, सुच्चा सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ पंजाब, (2003) 7 एस.सी.सी. 643, श्रीराम विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (1) जे.एल.जे. 252 एस.सी., हरिजना नारायणा विरूद्ध स्टेट आॅफ ए.पी., ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 2851, गंगाधर बेहेरा विरूद्ध स्टेट आॅफ उड़ीसा, (2002) 8 एस.सी.सी. 381, रीजान विरूद्ध स्टेट आॅफ छत्तीसगढ़, (2003) 2 एस.सी.सी. 661 अवलोकनीय हैं।
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