न्यायालय को महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए
1- न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया जाना कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतियाॅ साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है। इस विषय में न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 भी अवलोकनीय है।
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2- न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध गम्भीर सिंह व अन्य, 2005 क्रि.ला.रि. (एस.सी.) 501 में मृतक के रिष्तेदार की साक्ष्य को विष्वास योग्य नहीं माना गया, जिसका कारण यह था कि पुलिस के द्वारा उसका कथन घटना के एक माह बाद लेखबद्ध किया गया था तथा उसकी साक्ष्य में विसंगतियाॅं थीं।
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3. उक्त क्रम में इस विधिक स्थिति का संदर्भ लिया जाना भी असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी के कथन में यदि मूल घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो ऐसी अतिरंजनाओं और विसंगतियों के कारण सम्पूर्ण मामले को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897.
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4. उक्त परिप्रेक्ष्य में आधारभूत घटना के संबंध में अजबसिंह (अ.सा.4) की अभिसाक्ष्य में कोई सारवान् विसंगति अथवा विषमतायें विद्यमान नहीं है। जहाॅं तक प्रकीर्ण विसंगति एवं विषमताओं का प्रष्न है, यह विधिक स्थिति उल्लेखनीय है कि अभिसाक्ष्य में मामूली एवं अमहत्वपूर्ण स्वरूप की विसंगतियाॅं या विरोधाभास जो आधारभूत कथा की सत्यता को प्रभावित नहीं करते हैं, को महत्व नहीं दिया जाना चाहिये, संदर्भ:- गणेश विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1985 जे.एल.जे. 778 एवं नानूसिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1985 एम.पी.एल.जे. 268. यह भी ध्यातव्य है कि एक घायल व्यक्ति साक्षी के रूप में ऐसा कभी नहीं चाहेगा कि जिन्होंने उसे वास्तव में आहत किया है, वे बच जायें तथा अन्य निर्दोष लोग ऐसे मामले में फंसा दिये जाये, संदर्भ:- बलवंतसिंह विरूद्ध हरियाणा राज्य, 1972-तीन सु.को.केसेस 193. उक्त विधिक स्थिति के प्रकाश में अभियोजन की अभिसाक्ष्य का विश्लेषण करना होगा।
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5- साक्षी की साक्ष्य में विभिन्नता स्वभाविक है:-
जब तक विसंगतियाॅं मूल प्रश्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नहीं पड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईश्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है, संदर्भ - म.प्र.राज्य विरूद्ध रामकिशोर 1993 (1) एम.पी.जे.आर. 119.
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6. न्यायालय को महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए:-
न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, संदर्भ- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272. न्याय दृष्टांत राज्य विरूद्ध गुरमीतसिंह, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1396 के मामले में भी माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने ऐसे मामलों में यथार्थ परक दृष्टिकोण अपनाये जाने की सलाह दी है।
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