क्या निर्धन के रूप में प्रस्तुत दावे को न्याय
शुल्क से उन्मुक्ति प्राप्त हैं ?
यह एक भ्रान्ति है कि किसी व्यक्ति को व्य.प्र.
सं., 1908 आदेश 33 नियम 8 के अनुसार
निर्धन के रूप में दावा प्रस्तुत करने की
अनुज्ञा न्यायालय ने दी है तो न्याय शुल्क
देय नहीं होगी।
निर्धन के रूप में दावा करने में न्याय शुल्क
मात्र निलंबित होती हैं। न्याय शुल्क तो देना
ही होता हैं।
यदि निर्धन द्वारा प्रस्तुत दावा सफल होता है
तो न्यायालय का यह दायित्व है कि वह
न्यायालय फीस की संगणना करें और डिक्री
में स्पष्ट आदेश दें कि न्याय शुल्क किस
पक्षकार द्वारा देय होगा। राज्य सरकार उस
व्यक्ति से जिसे डिक्री द्वारा आदिष्ट किया
गया न्याय शुल्क वसूल करेगी। यही नहीं
वाद की विषय वस्तु पर ऐसी राशि प्रथम भार
होगी। 1⁄4देखिये आदेश 33 नियम 10 व्य.प्र.सं.1⁄2
यदि दावा असफल हो जाता है अथवा दावा
वापस ले लिया जाता है अथवा निर्धन व्यक्ति
के रूप में वाद लाने के लिये दी गयी अनुज्ञा
प्रत्याहत कर ली गयी है अथवा दावा आदेश
9 नियम 2, आदेश 9 नियम 4, आदेश 9
नियम 8 व्य.प्र.सं. के अधीन निरस्त किया
जाता है अथवा दावा किसी कारण से
उपशमित हो जाता है, इन सभी दशाओं में
न्यायालय को न्यायशुल्क की संगणना करनी
होगी और वादी को अथवा सहवादी को
निर्देश देगा कि वह न्याय शुल्क दें। 1⁄4देखिये
आदेश 33 नियम 11, 11-क व्य.प्र.सं.1⁄2
इस प्रकार अकिंचन वाद 1⁄4प्दकपहमदज ैनपज1⁄2 को
न्याय शुल्क से छूट प्राप्त नहीं है। न्याय
शुल्क तो देना ही होगा यदि दावा सफल
होता है तो न्यायालय का विवेकाधिकार है कि
वादी अथवा प्रतिवादी किसी को आदेशित कर
सकेगी कि न्याय शुल्क दें। यदि दावा
असफल होता है या अन्य किसी कारण से
खारिज अथवा उपशमित होता है तो
न्यायालय वादी को ही आदेशित करेगी कि
वह न्याय शुल्क दें। यदि वह नहीं देता तो
कलेक्टर उक्त राशि को भू-राजस्व के रूप में
वसूल सकेगा। 1⁄4देखिये आदेश 33 नियम 14
व्य.प्र.सं.1⁄2
माननीय उच्चतम न्यायालय ने आर.वी. देव
विरूद्ध मुख्य सचिव, स्टेट आॅफ
केरला, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 2698
में भी यही मत दिया है कि निर्धन वाद को
न्याय शुल्क से उन्मुक्ति नहीं है बल्कि निर्णय
तक स्थगित रहता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब अकिंचन
दावा निराकृत होता है तो न्यायालय का यह
दायित्व है कि न्याय शुल्क की संगणना करे
और दावा सफल होने की दशा निर्धारित करे
कि किसे न्याय शुल्क देना है। यदि ऐसा नहीं
करता तो राज्य सरकार स्वतः न्याय शुल्क
निर्धारित नहीं कर सकती और न ही किसी
ऐसे व्यक्ति से वसूल सकती है जिसको
न्यायालय ने न्याय शुल्क देने का आदेश नहीं
दिया हो।
इसके अतिरिक्त अकिंचन वादी की डिक्री या
आदेश की प्रति संबंधित कलेक्टर को भेजनी
चाहिये ताकि कलेक्टर को यह जानकारी हो
सके किससे और कितना न्याय शुल्क वसूल
किया जाना है। यहाँ यह भी उल्लेखित किया
जाना उचित होगा कि ऐसे मामलों में न्याय
शुल्क वसूल किये जाने का कार्य संबंधित
कलेक्टर का है।
शुल्क से उन्मुक्ति प्राप्त हैं ?
यह एक भ्रान्ति है कि किसी व्यक्ति को व्य.प्र.
सं., 1908 आदेश 33 नियम 8 के अनुसार
निर्धन के रूप में दावा प्रस्तुत करने की
अनुज्ञा न्यायालय ने दी है तो न्याय शुल्क
देय नहीं होगी।
निर्धन के रूप में दावा करने में न्याय शुल्क
मात्र निलंबित होती हैं। न्याय शुल्क तो देना
ही होता हैं।
यदि निर्धन द्वारा प्रस्तुत दावा सफल होता है
तो न्यायालय का यह दायित्व है कि वह
न्यायालय फीस की संगणना करें और डिक्री
में स्पष्ट आदेश दें कि न्याय शुल्क किस
पक्षकार द्वारा देय होगा। राज्य सरकार उस
व्यक्ति से जिसे डिक्री द्वारा आदिष्ट किया
गया न्याय शुल्क वसूल करेगी। यही नहीं
वाद की विषय वस्तु पर ऐसी राशि प्रथम भार
होगी। 1⁄4देखिये आदेश 33 नियम 10 व्य.प्र.सं.1⁄2
यदि दावा असफल हो जाता है अथवा दावा
वापस ले लिया जाता है अथवा निर्धन व्यक्ति
के रूप में वाद लाने के लिये दी गयी अनुज्ञा
प्रत्याहत कर ली गयी है अथवा दावा आदेश
9 नियम 2, आदेश 9 नियम 4, आदेश 9
नियम 8 व्य.प्र.सं. के अधीन निरस्त किया
जाता है अथवा दावा किसी कारण से
उपशमित हो जाता है, इन सभी दशाओं में
न्यायालय को न्यायशुल्क की संगणना करनी
होगी और वादी को अथवा सहवादी को
निर्देश देगा कि वह न्याय शुल्क दें। 1⁄4देखिये
आदेश 33 नियम 11, 11-क व्य.प्र.सं.1⁄2
इस प्रकार अकिंचन वाद 1⁄4प्दकपहमदज ैनपज1⁄2 को
न्याय शुल्क से छूट प्राप्त नहीं है। न्याय
शुल्क तो देना ही होगा यदि दावा सफल
होता है तो न्यायालय का विवेकाधिकार है कि
वादी अथवा प्रतिवादी किसी को आदेशित कर
सकेगी कि न्याय शुल्क दें। यदि दावा
असफल होता है या अन्य किसी कारण से
खारिज अथवा उपशमित होता है तो
न्यायालय वादी को ही आदेशित करेगी कि
वह न्याय शुल्क दें। यदि वह नहीं देता तो
कलेक्टर उक्त राशि को भू-राजस्व के रूप में
वसूल सकेगा। 1⁄4देखिये आदेश 33 नियम 14
व्य.प्र.सं.1⁄2
माननीय उच्चतम न्यायालय ने आर.वी. देव
विरूद्ध मुख्य सचिव, स्टेट आॅफ
केरला, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 2698
में भी यही मत दिया है कि निर्धन वाद को
न्याय शुल्क से उन्मुक्ति नहीं है बल्कि निर्णय
तक स्थगित रहता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब अकिंचन
दावा निराकृत होता है तो न्यायालय का यह
दायित्व है कि न्याय शुल्क की संगणना करे
और दावा सफल होने की दशा निर्धारित करे
कि किसे न्याय शुल्क देना है। यदि ऐसा नहीं
करता तो राज्य सरकार स्वतः न्याय शुल्क
निर्धारित नहीं कर सकती और न ही किसी
ऐसे व्यक्ति से वसूल सकती है जिसको
न्यायालय ने न्याय शुल्क देने का आदेश नहीं
दिया हो।
इसके अतिरिक्त अकिंचन वादी की डिक्री या
आदेश की प्रति संबंधित कलेक्टर को भेजनी
चाहिये ताकि कलेक्टर को यह जानकारी हो
सके किससे और कितना न्याय शुल्क वसूल
किया जाना है। यहाँ यह भी उल्लेखित किया
जाना उचित होगा कि ऐसे मामलों में न्याय
शुल्क वसूल किये जाने का कार्य संबंधित
कलेक्टर का है।
धन्यवाद Lalaram Meena जी
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