मूक/बधिर साक्षी के कथन एवं ऐसे
अभियुक्त की परीक्षा लिपिबद्ध करने में क्या
सावधानियाँ बरतना आवश्यक है?
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 119 के
अनुसार बोलने में असमर्थ साक्षी किसी अन्य
बोधगम्य रूप में यथा लिखकर या संकेतों के
माध्यम से खुले न्यायालय में अपनी साक्ष्य दे
सकता है जिसे मौखिक साक्ष्य ही माना जाएगा।
इस संबंध में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 282
अवलोकनीय है जो प्रावधानित करती है कि जब
किसी साक्ष्य या कथन के भाषान्तर के लिये
दुभाषिये की सेवा की अपेक्षा किसी न्यायालय द्व
ारा की जाती है तब वह दुभाषिया ऐसी
साक्ष्य या कथन का सत्य भाषान्तर करने के
लिये आबद्ध होगा।
ऐसा साक्षी जो मौन व्रत धारण किये हुये हो
उसकी साक्ष्य उसे बोलने को मजबूर किये बिना
लिखित में ली जा सकती है एवं धारा 119 के
परिप्रेक्ष्य यह माना जाएगा कि वह बोलने में
असमर्थ है। देखिये लाखन सिंह विरूद्ध आर.,
ए.आई.आर. 1942 पटना 183 । ऐसा
साक्षी यदि पढ़ा लिखा न हो तो न्यायालय
उसके कथन उसके द्वारा किये गये संकेतों के
माध्यम से लेखबद्ध कर सकता है।
इस प्रकार मूक बधिर साक्षी के द्वारा अपने कथन
में उपयोग में लाये गये संकेतों के भाषान्तर और
अर्थ के लिये न्यायालय द्वारा ऐसे दुभाषिये या
परिजन/ परिचित व्यक्ति की सहायता ली जाना
चाहिये जो निष्पक्ष हो तथा जिसकी मामले में
हितबद्धता नहीं हो। न्याय दृष्टाँत कदूनगोठ
आलवी विरूद्ध केरल राज्य, 1982 सी.
आर.एल.जे. 94 में केरल उच्च न्यायालय द्वारा
हत्या के प्रकरण में मूक-बधिर साक्षी का
न्यायालय द्वारा विशेषज्ञ या साक्षी के दैनिक
जीवन में अपनी बात को प्रकट करने के तरीको
से परिचित व्यक्ति की सहायता के बिना परीक्षण
करने को उचित नहीं माना गया और ऐसे
लिपिबद्ध की गई साक्ष्य को विश्वास योग्य नहीं
होना ठहराया गया।
ऐसा मूक साक्षी जो लिखित में कथन देने में
असमर्थ है तब वह जो कहना चाहता है, संकेतों
के माध्यम से व्यक्त कर सकता है तथा
न्यायालय के लिये उन संकेतों को लिखना
अनिवार्य है। विचारण न्यायालय द्वारा उक्त
संकेतों में से सभी संकेत न लिखते हुए कुछ ही
संकेतों को लिखना या साक्षी द्वारा किये गये
संकेतों को न लिखते हुए मात्र दुभाषिये द्वारा
व्यक्त किया गया अर्थ मात्र ही लेखबद्ध करना
विधिपूर्ण नही होगा और ऐसी दशा में संकेतों का
मात्र अर्थान्वयन साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगा
क्योंकि साक्ष्य में, साक्षी द्वारा अपने हाथों या
भाव-भंगिमा से किये गये ऐसे संकेत ग्राह्य हैं
जो साक्षी द्वारा अपने कथन को अभिव्यक्त करने
में प्रयोग किये गये है। इस संबंध में न्याय
दृष्टाँत क्रमशः कुंभर मुसा अलीब विरूद्ध
गुजरात राज्य, ए.आई.आर. 1966 गुजरात
101, एवं दिलावरसाब अलीसाब जकाती
विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2005 सी.आर.एल.जे.
26871⁄4कर्नाटक1⁄2 अवलोकनीय है, जिनमें क्रमशः
गुजरात एवं कर्नाटक उच्च न्यायालय ने संकेतों
को लिपिबद्ध न करते हुए दुभाषिये द्वारा संकेतों
के किये गये अर्थान्वयन मात्र को लिपिबद्ध करने
पर ऐसी साक्ष्य को अग्राहय माना है।
आन्ध्रप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टाँत
लोक अभियोजक, आन्ध्रप्रदेश
उच्च न्यायालय, हैदराबाद विरूद्ध लींगीसेट्टी
सीनु 1997 सी.आर.एल.जे. 4003 में मूक विद्य
ालय के प्राचार्य के कथन को बधिर साक्षी के
संकेतों की व्याख्या करने हेतु विशेषज्ञ साक्षी का
कथन होना ठहराते हुए साक्षी द्वारा किये गये
संकेतों को लिपिबद्ध करने के साथ-साथ ऐसे
विशेषज्ञ साक्षी की सहायता से बधिर साक्षी के
लिपिबद्ध किये गये कथन को विश्वास योग्य
होना माना गया है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि शपथ अधिनियम,
1969 की धारा 4 और 5 के प्रावधानों के
अनुसार यह आवश्यक है कि कथन के पूर्व
न्यायालय साक्षी और दुभाषिये दोनों को शपथ
दिलाये या प्रतिज्ञान कराये तथा न्यायालय के
लिये यह भी आवश्यक है कि साक्षी द्वारा कथन
में हाथो या भाव-भंगिमा से किये गये संकेतों को
अनिवार्यतः उचित रूप से लेखबद्ध करे और
उसके साथ-साथ उन संकेतों का दुभाषिये द्वारा
किया गया अर्थान्वयन 1⁄4व्याख्या1⁄2 भी लेखबद्ध
करे।
इसी प्रकार, किसी मूक/बधिर अभियुक्त व्यक्ति
की धारा 313 दं.प्र.सं. के अंतर्गत परीक्षा भी इसी
पद्धति से अभिलिखित की जा सकती है।
1⁄4देखें-इन री बेडा, ए.आई.आर. 1970
उड़ीसा 31⁄2
अभियुक्त की परीक्षा लिपिबद्ध करने में क्या
सावधानियाँ बरतना आवश्यक है?
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 119 के
अनुसार बोलने में असमर्थ साक्षी किसी अन्य
बोधगम्य रूप में यथा लिखकर या संकेतों के
माध्यम से खुले न्यायालय में अपनी साक्ष्य दे
सकता है जिसे मौखिक साक्ष्य ही माना जाएगा।
इस संबंध में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 282
अवलोकनीय है जो प्रावधानित करती है कि जब
किसी साक्ष्य या कथन के भाषान्तर के लिये
दुभाषिये की सेवा की अपेक्षा किसी न्यायालय द्व
ारा की जाती है तब वह दुभाषिया ऐसी
साक्ष्य या कथन का सत्य भाषान्तर करने के
लिये आबद्ध होगा।
ऐसा साक्षी जो मौन व्रत धारण किये हुये हो
उसकी साक्ष्य उसे बोलने को मजबूर किये बिना
लिखित में ली जा सकती है एवं धारा 119 के
परिप्रेक्ष्य यह माना जाएगा कि वह बोलने में
असमर्थ है। देखिये लाखन सिंह विरूद्ध आर.,
ए.आई.आर. 1942 पटना 183 । ऐसा
साक्षी यदि पढ़ा लिखा न हो तो न्यायालय
उसके कथन उसके द्वारा किये गये संकेतों के
माध्यम से लेखबद्ध कर सकता है।
इस प्रकार मूक बधिर साक्षी के द्वारा अपने कथन
में उपयोग में लाये गये संकेतों के भाषान्तर और
अर्थ के लिये न्यायालय द्वारा ऐसे दुभाषिये या
परिजन/ परिचित व्यक्ति की सहायता ली जाना
चाहिये जो निष्पक्ष हो तथा जिसकी मामले में
हितबद्धता नहीं हो। न्याय दृष्टाँत कदूनगोठ
आलवी विरूद्ध केरल राज्य, 1982 सी.
आर.एल.जे. 94 में केरल उच्च न्यायालय द्वारा
हत्या के प्रकरण में मूक-बधिर साक्षी का
न्यायालय द्वारा विशेषज्ञ या साक्षी के दैनिक
जीवन में अपनी बात को प्रकट करने के तरीको
से परिचित व्यक्ति की सहायता के बिना परीक्षण
करने को उचित नहीं माना गया और ऐसे
लिपिबद्ध की गई साक्ष्य को विश्वास योग्य नहीं
होना ठहराया गया।
ऐसा मूक साक्षी जो लिखित में कथन देने में
असमर्थ है तब वह जो कहना चाहता है, संकेतों
के माध्यम से व्यक्त कर सकता है तथा
न्यायालय के लिये उन संकेतों को लिखना
अनिवार्य है। विचारण न्यायालय द्वारा उक्त
संकेतों में से सभी संकेत न लिखते हुए कुछ ही
संकेतों को लिखना या साक्षी द्वारा किये गये
संकेतों को न लिखते हुए मात्र दुभाषिये द्वारा
व्यक्त किया गया अर्थ मात्र ही लेखबद्ध करना
विधिपूर्ण नही होगा और ऐसी दशा में संकेतों का
मात्र अर्थान्वयन साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगा
क्योंकि साक्ष्य में, साक्षी द्वारा अपने हाथों या
भाव-भंगिमा से किये गये ऐसे संकेत ग्राह्य हैं
जो साक्षी द्वारा अपने कथन को अभिव्यक्त करने
में प्रयोग किये गये है। इस संबंध में न्याय
दृष्टाँत क्रमशः कुंभर मुसा अलीब विरूद्ध
गुजरात राज्य, ए.आई.आर. 1966 गुजरात
101, एवं दिलावरसाब अलीसाब जकाती
विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2005 सी.आर.एल.जे.
26871⁄4कर्नाटक1⁄2 अवलोकनीय है, जिनमें क्रमशः
गुजरात एवं कर्नाटक उच्च न्यायालय ने संकेतों
को लिपिबद्ध न करते हुए दुभाषिये द्वारा संकेतों
के किये गये अर्थान्वयन मात्र को लिपिबद्ध करने
पर ऐसी साक्ष्य को अग्राहय माना है।
आन्ध्रप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टाँत
लोक अभियोजक, आन्ध्रप्रदेश
उच्च न्यायालय, हैदराबाद विरूद्ध लींगीसेट्टी
सीनु 1997 सी.आर.एल.जे. 4003 में मूक विद्य
ालय के प्राचार्य के कथन को बधिर साक्षी के
संकेतों की व्याख्या करने हेतु विशेषज्ञ साक्षी का
कथन होना ठहराते हुए साक्षी द्वारा किये गये
संकेतों को लिपिबद्ध करने के साथ-साथ ऐसे
विशेषज्ञ साक्षी की सहायता से बधिर साक्षी के
लिपिबद्ध किये गये कथन को विश्वास योग्य
होना माना गया है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि शपथ अधिनियम,
1969 की धारा 4 और 5 के प्रावधानों के
अनुसार यह आवश्यक है कि कथन के पूर्व
न्यायालय साक्षी और दुभाषिये दोनों को शपथ
दिलाये या प्रतिज्ञान कराये तथा न्यायालय के
लिये यह भी आवश्यक है कि साक्षी द्वारा कथन
में हाथो या भाव-भंगिमा से किये गये संकेतों को
अनिवार्यतः उचित रूप से लेखबद्ध करे और
उसके साथ-साथ उन संकेतों का दुभाषिये द्वारा
किया गया अर्थान्वयन 1⁄4व्याख्या1⁄2 भी लेखबद्ध
करे।
इसी प्रकार, किसी मूक/बधिर अभियुक्त व्यक्ति
की धारा 313 दं.प्र.सं. के अंतर्गत परीक्षा भी इसी
पद्धति से अभिलिखित की जा सकती है।
1⁄4देखें-इन री बेडा, ए.आई.आर. 1970
उड़ीसा 31⁄2
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