देय मुआवज़े का निर्धारण उस दिन से होता है जिस दिन दुर्घटना हुई : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम 1923 के तहत देय मुआवज़े का निर्धारण उस दिन से होता है जिस दिन दुर्घटना हुई। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने कहा कि अधिनियम में 2009 में हुआ संशोधन (जिसने कर्मचारी के वेतन को ₹4000 तक सीमित किया गया था उसे हटा दिया) का प्रावधान उन दुर्घटनाओं पर लागू नहीं होता जो इस क़ानून के लागू होने के पहले हो चुकी हैं। सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक अपील पर सुनवाई कर रहा था जिसने 2009 के संशोधन का लाभ एक ऐसी दुर्घटना के मामले में दिया जो इस क़ानून के लागू होने से पहले हुई थी। इसने प्रताप नारायण सिंह बनाम श्रीनिवास सबता मामले में आए तीन जजों के फ़ैसले को भिन्न मानने की अपील को ख़ारिज कर दिया था। यह दलील कि अगर किसी संशोधन से किसी व्यक्ति को लाभ पहुंचता है तो इसको अवश्य ही पिछले प्रभाव से लागू किया जाना चाहिए। पीठ ने कहा कि 1923 अधिनियम के तहत देय मुआवज़ा में संशोधन कर वृद्धि करना कर्मचारियों को लाभ पहुंचाना है; नियोक्ता पर इसके अनुरूप ज़्यादा मुआवज़ा देने का इसी तरह का बोझ डाला जाता है। फिर अदालत ने कहा कि अधिनियम 2009 में इस क़ानून के लागू होने के पहले हुई दुर्घटनाओं में इसका फ़ायदा पहुंचाने की मंशा जैसा मत ज़ाहिर नहीं किया गया है। हाईकोर्ट के आदेश को बदलते हुए पीठ ने कहा, "2009 के एक्ट 45 के पहले…एक कर्मचारी के वेतन को इस तथ्य के बावजूद कि कर्मचारी ने यह साबित किया था कि उसे ₹4000 से अधिक वेतन मिलता है, ₹4000 प्रतिमाह तक सीमित किया गया था। विधायिका ने अपनी सोच और 1923 अधिनियम के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए इस प्रस्ताव में राशि में बढ़ोतरी नहीं की बल्कि इसे पूरी तरह हटा दिया। यह संशोधन का उद्देश्य काम पर रहते हुए रोज़गार के कारण होनेवाली दुर्घटना की स्थिति में मुआवज़ा दिलाना है। इस संशोधन का उद्देश्य मासिक वेतन पर लगी सीमा को हटाना है और उनके वास्तविक वेतन को इसका आधार बनाना है। हालाँकि, इस बात का कोई संकेत नहीं है कि विधायिका की मंशा ऐसी दुर्घटनाओं के शिकार को लाभ पहुँचाना है जो इस क़ानून के लागू होने से पहले हुए।" हालांकि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पीठ ने मुआवजे पर हाईकोर्ट के आदेश में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करने से मना कर दिया।
https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/employees-compensation-act-relevant-date-for-the-determination-of-compensation-payable-is-the-date-of-the-accident-sc-152758
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम 1923 के तहत देय मुआवज़े का निर्धारण उस दिन से होता है जिस दिन दुर्घटना हुई। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने कहा कि अधिनियम में 2009 में हुआ संशोधन (जिसने कर्मचारी के वेतन को ₹4000 तक सीमित किया गया था उसे हटा दिया) का प्रावधान उन दुर्घटनाओं पर लागू नहीं होता जो इस क़ानून के लागू होने के पहले हो चुकी हैं। सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक अपील पर सुनवाई कर रहा था जिसने 2009 के संशोधन का लाभ एक ऐसी दुर्घटना के मामले में दिया जो इस क़ानून के लागू होने से पहले हुई थी। इसने प्रताप नारायण सिंह बनाम श्रीनिवास सबता मामले में आए तीन जजों के फ़ैसले को भिन्न मानने की अपील को ख़ारिज कर दिया था। यह दलील कि अगर किसी संशोधन से किसी व्यक्ति को लाभ पहुंचता है तो इसको अवश्य ही पिछले प्रभाव से लागू किया जाना चाहिए। पीठ ने कहा कि 1923 अधिनियम के तहत देय मुआवज़ा में संशोधन कर वृद्धि करना कर्मचारियों को लाभ पहुंचाना है; नियोक्ता पर इसके अनुरूप ज़्यादा मुआवज़ा देने का इसी तरह का बोझ डाला जाता है। फिर अदालत ने कहा कि अधिनियम 2009 में इस क़ानून के लागू होने के पहले हुई दुर्घटनाओं में इसका फ़ायदा पहुंचाने की मंशा जैसा मत ज़ाहिर नहीं किया गया है। हाईकोर्ट के आदेश को बदलते हुए पीठ ने कहा, "2009 के एक्ट 45 के पहले…एक कर्मचारी के वेतन को इस तथ्य के बावजूद कि कर्मचारी ने यह साबित किया था कि उसे ₹4000 से अधिक वेतन मिलता है, ₹4000 प्रतिमाह तक सीमित किया गया था। विधायिका ने अपनी सोच और 1923 अधिनियम के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए इस प्रस्ताव में राशि में बढ़ोतरी नहीं की बल्कि इसे पूरी तरह हटा दिया। यह संशोधन का उद्देश्य काम पर रहते हुए रोज़गार के कारण होनेवाली दुर्घटना की स्थिति में मुआवज़ा दिलाना है। इस संशोधन का उद्देश्य मासिक वेतन पर लगी सीमा को हटाना है और उनके वास्तविक वेतन को इसका आधार बनाना है। हालाँकि, इस बात का कोई संकेत नहीं है कि विधायिका की मंशा ऐसी दुर्घटनाओं के शिकार को लाभ पहुँचाना है जो इस क़ानून के लागू होने से पहले हुए।" हालांकि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पीठ ने मुआवजे पर हाईकोर्ट के आदेश में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करने से मना कर दिया।
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