नाराजी याचिका (Protest Petition) क्या होती है और कौन कर सकता है इसे दाखिल?
हम अक्सर ही ऐसे मामले देखते हैं जहां एक व्यक्ति (victim/informant) एक मामले को लेकर एक FIR दर्ज करता है, पुलिस उस मामले में अन्वेषण करती है और उसके पश्च्यात पुलिस द्वारा मामले में क्लोजर रिपोर्ट अदालत में दाखिल कर दी जाती है। गौरतलब है कि यह रिपोर्ट तब दाखिल की जाती है जब पुलिस को अपने अन्वेषण में FIR में अभियुक्त के तौर पर नामजद व्यक्ति/व्यक्तियों के खिलाफ कोई मामला बनता नहीं दिखता है। इसके परिणामस्वरूप कई बार मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे व्यक्ति/व्यक्तियों को डिस्चार्ज कर दिया जाता है (हालाँकि, मजिस्ट्रेट ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं है)। जाहिर सी बात है कि ऐसे मामलों में victim/informant अवश्य ही अभियुक्त के डिस्चार्ज हो जाने से असंतुष्ट होगा। लेकिन क्या हमारा कानून ऐसे व्यक्ति को कोई उपाय देता है जिससे उसके हित को चोट न पहुंचे और अदालत द्वारा उसके मामले को उचित तवज्जो दी जाए? अक्सर यह भी देखा गया है कि जहाँ पुलिस द्वारा एक चार्जशीट दायर की जाती है, उसमे उचित प्रकार से अन्वेषण नहीं किया जाता है, और इसके परिणामस्वरूप यह साफ़ जाहिर होता है कि मामला कमजोर है और FIR में अभियुक्त के तौर पर नामजद व्यक्ति अंततः डिस्चार्ज/बरी हो जायेगा, और जिसके चलते पीड़ित/अपराध की पुलिस को सूचना देने वाले व्यक्ति को असंतुष्ट होना पड़ेगा। ऐसे मामलों में क्या victim/informant के पास क्या कोई उपाय मौजूद है? इन सवालों का जवाब हम 'नाराजी याचिका' (Protest Petition) के बारे में जानकार हासिल करेंगे। हम इस लेख के जरिये यह भी समझेंगे कि ऐसे समय में, जहां कई बार पुलिस या अभियोजन पक्ष, पीड़ित के सभी हितों की रक्षा करने में सक्षम नहीं है, वहां नाराजी याचिका जैसे उपायों के बारे में जागरूक होना, औसत नागरिक को वास्तविक न्याय के लिए उसकी तलाश में उसे कैसे सशक्त बनाता है। क्या होती है नाराजी याचिका और कौन कर सकता है इसे दाखिल? "प्रोटेस्ट पिटीशन" (नाराजी याचिका) के सम्बन्ध में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973, भारतीय दंड संहिता, 1860 या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 या किसी अन्य अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं दिया गया है। हम यह कह सकते हैं कि पुलिस द्वारा अन्वेषण पूरा होने के दौरान या बाद में victim/informant द्वारा अदालत में प्रस्तुत किया जाने वाला प्रतिनिधित्व, प्रोटेस्ट पिटीशन (नाराजी याचिका) के रूप में जाना जाता है। गौरतलब है कि जब पुलिस किसी मामले में अपनी रिपोर्ट में इस निष्कर्ष पर आती है कि अन्वेषण के दौरान अभियुक्त (या अभियुक्तों) के खिलाफ आरोप नहीं पाए गए हैं, तब मजिस्ट्रेट द्वारा अंतिम रिपोर्ट को लेकर अपने न्यायिक मत को लागू करने का निर्णय लेने से पहले, नाराजी याचिका के जरिये, victim/informant को इन निष्कर्षों के खिलाफ आपत्तियां उठाने का अवसर दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि ऐसी याचिका को 'नाराजी याचिका' कहने का चलन कलकत्ता हाईकोर्ट से शुरू हुआ जहां कई मामलों में अदालत ने इस शब्द का जिक्र किया। शेकंदर मिया बनाम एम्परर AIR 1933 Cal 614, लछमी शॉ बनाम एम्परर AIR 1932 Cal 383 एवं चार्ल्स जोह्न्स बनाम एम्परर AIR 1932 Cal 550 ऐसे मामले हैं जहाँ इस शब्द का इस्तेमाल होते हुए देखा जा सकता है। इन सभी मामलो में उच्च न्यायालय द्वारा प्रोटेस्ट याचिकाओं को पुलिस अन्वेषण का विरोध करने वाले किसी भी अभ्यावेदन के रूप में देखा जाता था। स्वाभाविक रूप से, यह आरोपी व्यक्तियों और परिवादियों/पीड़ितों, दोनों ही पक्षों के द्वारा दायर किया जाता था। जहाँ एक अभियुक्त द्वारा प्रोटेस्ट याचिका केवल जांच के दौरान दायर की जाती थी, वहीं complainant/victim/informant द्वारा यह याचिका पुलिस अन्वेषण के समापन के बाद दायर की जाती थी। आज के समय में, इस तरह की याचिका को आमतौर पर पुलिस द्वारा धारा 173 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत क्लोजर रिपोर्ट या B- रिपोर्ट (जिसे पहले आम तौर पर अंतिम रिपोर्ट के रूप में समझा जाता था) दर्ज करने के बाद एवं अदालत द्वारा न्यायिक निर्णय लिए जाने से पहले अदालत में दाखिल किया जाता है (आमतौर पर informant/victim द्वारा)। हालांकि, ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने वाला व्यक्ति/पीड़ित ही यह नाराजी याचिका दायर करे, परन्तु यह प्रथा रही है कि एक informant/victim द्वारा ही नाराजी याचिका दाखिल की जाती है। इसके अलावा, जैसा कि भगवंत सिंह बनाम कमिश्नर ऑफ़ पुलिस एवं अन्य (1985) 2 SCC 537 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा संकेत दिया गया है, इस याचिका को दाखिल करने का अधिकार मुखबिर (पुलिस को किसी अपराध की इत्तिला देने वाला व्यक्ति, जोकि मामले में पीड़ित भी हो सकता है) को ही दिया गया है और किसी को नहीं। हालाँकि, एक हालिया मामले आर. धरमलिंगम बनाम राज्य (इंस्पेक्टर ऑफ़ पुलिस दक्षिण कोयम्बटूर) Cr.RC.No.967 of 2019 में मद्रास हाईकोर्ट ने यह माना है कि जहाँ याचिकाकर्ता/पीड़ित, ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी किसी परिवाद में रुचि है और उन्हें उस मामले में दायर अंतिम रिपोर्ट के बारे में सूचित नहीं किया जाता है, तो न्यायालय उस मामले को, मजिस्ट्रेट के सामने अंतिम रिपोर्ट दायर किए जाने का समय/स्तर मानते हुए देखेगी और इसका परिणाम यह होगा कि इस स्तर पर याचिकाकर्ता को नाराजी याचिका दायर करने का अधिकार होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय के इस फैसले की पुष्टि इसी महीने (फ़रवरी 2020) में की जिसमें यह माना गया था कि एक याचिकाकर्ता, एक पीड़ित होने के नाते, पुलिस की अंतिम रिपोर्ट की स्वीकृति से पहले अनिवार्य रूप से नोटिस प्राप्त का हकदार है और यदि ऐसा कोई नोटिस नहीं उसे नहीं दिया गया है, तो उसका अधिकार है कि वह नाराजी याचिका दायर कर सके। क्या क्लोजर रिपोर्ट दाखिल होने से पहले किया जा सकता है नाराजी याचिका पर विचार? दिल्ली में वकालत करने वाले अधिवक्ता अभिनव सिकरी का यह मानना है कि क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार करने से पहले प्रोटेस्ट पिटीशन पर विचार करने पर कोई रोक नहीं है। मजिस्ट्रेट, क्लोजर रिपोर्ट से पहले ही नाराजी याचिका को अच्छी तरह से देख सकता है और फिर उसके बाद क्लोजर रिपोर्ट पर खुद ही संज्ञान ले सकता है। इसके अलावा एक विरोध याचिका प्राप्त करने के बाद मजिस्ट्रेट को धारा 156 (3) Cr.P.C के तहत आगे का अन्वेषण करने के निर्देश देने का भी अधिकार है। इसी तरह, यह भी कई मामलों में तय किया गया है कि अगर मजिस्ट्रेट, प्रोटेस्ट पिटीशन पर संज्ञान लेने का निर्णय लेता है, तो उसे सीआरपीसी की धारा 2 (डी) के तहत एक 'परिवाद' (Complaint) के अवयवों को संतुष्ट करना होगा, और फिर शिकायतकर्ता का ओथ पर परिक्षण करना होगा इससे पहले कि अभियुक्तों को समन जारी किया जा सके। नाराजी याचिका: Informant/Victim के लिए एक महत्वपूर्ण उपाय यदि पुलिस द्वारा अन्वेषण किये जाने और क्लोजर रिपोर्ट दाखिल किये जाने की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर नजर डाली जाए तो हम यह पाएंगे कि पुलिस को मामले की सूचना देने वाला शख्स/पीड़ित बिना उपाय के हो जायेगा यदि नाराजी याचिका दाखिल करते हुए उसे पुलिस की क्लोज़र रिपोर्ट (या सामान्य रूप से पुलिस अन्वेषण के निष्कर्ष) पर अपनी आपत्ति जताने का उसे मौका न मिले। ऐसे व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए ही नाराजी याचिका की अवधारणा को अदालतों द्वारा काफी तरजीह दी जाती है। गौरतलब है कि अन्वेषण हो जाने के पश्च्यात जब पुलिस धारा 173 के तहत फाइनल रिपोर्ट को मजिस्ट्रेट को सौंपती है और मजिस्ट्रेट उसे स्वीकार करता है और अभियुक्त को डिस्चार्ज करने का विचार करता है तो यह अनिवार्य है कि वह नाराज़ी याचिका की विषय सामग्री पर विचार करने के बाद ही वह किसी निष्कर्ष पर पहुँचे। गौरतलब है कि अन्वेषण अधिकारी तो अपनी तरफ से फाइनल रिपोर्ट दायर करने के बाद मामले में विषय सामग्री को सम्पूर्ण मान सकता और यह सोच सकता है कि मामले में अब आगे अन्वेषण की आवश्यकता नहीं है, पर मजिस्ट्रेट का कर्तव्य यहीं खत्म नहीं होता। उसका कार्य तुरंत फाइनल रिपोर्ट को स्वीकार कर लेना नहीं है। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि मजिस्ट्रेट के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपने समक्ष मौजूद सामग्री पर उचित रूप से विचार करे, और नाराज़ी याचिका की विषय वस्तु देख कर और परिवादी (Complainant) को सुनकर, आगे का मार्ग तय करे कि क्या मामले में आगे कार्यवाही की आवश्यकता है या फिर कार्यवाही को यहीं ख़त्म कर दिया जाना चाहिए (विष्णु तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2019 (8) SCC 27)। जाहिर है कि मजिस्ट्रेट नाराजी याचिका को देखकर यह आकलन लगाता है कि क्या पुलिस रिपोर्ट के चलते मामले में पीड़ित के साथ अन्याय हुआ है या हो सकता है। हालांकि यदि मजिस्ट्रेट मामले को खोले रहने का फैसला करता है, तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के तहत, मजिस्ट्रेट पीड़ित या गवाह की जांच कर सकता है, जहां किसी को अपना मामला सुनाने का अवसर मिलता है। यह पीड़ित को न्याय दिलाने के एक अवसर के तौर पर देखा जा सकता है, यदि अन्वेषण में आरोपी को गलत तरीके से डिस्चार्ज कर दिया गया है। यह प्रक्रिया कई मायनों में कथित अभियुक्त की सुरक्षा भी करती है, क्योंकि जब पीड़ित की नाराजी याचिका को एक परिवाद माना जाता है तो अदालत के लिए यह जरुरी हो जाता है कि ऐसे परिवादी को शपथ दिलाई जाए, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या उसका मामला/परिवाद/नाराजी याचिका फ़र्ज़ी है (जैसा कि पुलिस रिपोर्ट बताती है) और आरोपी वास्तव में निर्दोष है या परिवादी का मामला वास्तव में मजबूत है। गौरतलब है कि एक बार जब मजिस्ट्रेट इस बात को लेकर संतुष्ट हो जाता है कि यह एक झूठा मामला नहीं था और पीड़ित/परिवादी वास्तव में पुलिस रिपोर्ट के चलते असंतुष्ट है, तो वह स्वयं मामले में परिक्षण कर सकता है, या किसी अधिकारी-प्रभारी, जिसे परिवाद अग्रेषित की जाती है, द्वारा अन्वेषण का आदेश दे सकता है।
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हम अक्सर ही ऐसे मामले देखते हैं जहां एक व्यक्ति (victim/informant) एक मामले को लेकर एक FIR दर्ज करता है, पुलिस उस मामले में अन्वेषण करती है और उसके पश्च्यात पुलिस द्वारा मामले में क्लोजर रिपोर्ट अदालत में दाखिल कर दी जाती है। गौरतलब है कि यह रिपोर्ट तब दाखिल की जाती है जब पुलिस को अपने अन्वेषण में FIR में अभियुक्त के तौर पर नामजद व्यक्ति/व्यक्तियों के खिलाफ कोई मामला बनता नहीं दिखता है। इसके परिणामस्वरूप कई बार मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे व्यक्ति/व्यक्तियों को डिस्चार्ज कर दिया जाता है (हालाँकि, मजिस्ट्रेट ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं है)। जाहिर सी बात है कि ऐसे मामलों में victim/informant अवश्य ही अभियुक्त के डिस्चार्ज हो जाने से असंतुष्ट होगा। लेकिन क्या हमारा कानून ऐसे व्यक्ति को कोई उपाय देता है जिससे उसके हित को चोट न पहुंचे और अदालत द्वारा उसके मामले को उचित तवज्जो दी जाए? अक्सर यह भी देखा गया है कि जहाँ पुलिस द्वारा एक चार्जशीट दायर की जाती है, उसमे उचित प्रकार से अन्वेषण नहीं किया जाता है, और इसके परिणामस्वरूप यह साफ़ जाहिर होता है कि मामला कमजोर है और FIR में अभियुक्त के तौर पर नामजद व्यक्ति अंततः डिस्चार्ज/बरी हो जायेगा, और जिसके चलते पीड़ित/अपराध की पुलिस को सूचना देने वाले व्यक्ति को असंतुष्ट होना पड़ेगा। ऐसे मामलों में क्या victim/informant के पास क्या कोई उपाय मौजूद है? इन सवालों का जवाब हम 'नाराजी याचिका' (Protest Petition) के बारे में जानकार हासिल करेंगे। हम इस लेख के जरिये यह भी समझेंगे कि ऐसे समय में, जहां कई बार पुलिस या अभियोजन पक्ष, पीड़ित के सभी हितों की रक्षा करने में सक्षम नहीं है, वहां नाराजी याचिका जैसे उपायों के बारे में जागरूक होना, औसत नागरिक को वास्तविक न्याय के लिए उसकी तलाश में उसे कैसे सशक्त बनाता है। क्या होती है नाराजी याचिका और कौन कर सकता है इसे दाखिल? "प्रोटेस्ट पिटीशन" (नाराजी याचिका) के सम्बन्ध में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973, भारतीय दंड संहिता, 1860 या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 या किसी अन्य अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं दिया गया है। हम यह कह सकते हैं कि पुलिस द्वारा अन्वेषण पूरा होने के दौरान या बाद में victim/informant द्वारा अदालत में प्रस्तुत किया जाने वाला प्रतिनिधित्व, प्रोटेस्ट पिटीशन (नाराजी याचिका) के रूप में जाना जाता है। गौरतलब है कि जब पुलिस किसी मामले में अपनी रिपोर्ट में इस निष्कर्ष पर आती है कि अन्वेषण के दौरान अभियुक्त (या अभियुक्तों) के खिलाफ आरोप नहीं पाए गए हैं, तब मजिस्ट्रेट द्वारा अंतिम रिपोर्ट को लेकर अपने न्यायिक मत को लागू करने का निर्णय लेने से पहले, नाराजी याचिका के जरिये, victim/informant को इन निष्कर्षों के खिलाफ आपत्तियां उठाने का अवसर दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि ऐसी याचिका को 'नाराजी याचिका' कहने का चलन कलकत्ता हाईकोर्ट से शुरू हुआ जहां कई मामलों में अदालत ने इस शब्द का जिक्र किया। शेकंदर मिया बनाम एम्परर AIR 1933 Cal 614, लछमी शॉ बनाम एम्परर AIR 1932 Cal 383 एवं चार्ल्स जोह्न्स बनाम एम्परर AIR 1932 Cal 550 ऐसे मामले हैं जहाँ इस शब्द का इस्तेमाल होते हुए देखा जा सकता है। इन सभी मामलो में उच्च न्यायालय द्वारा प्रोटेस्ट याचिकाओं को पुलिस अन्वेषण का विरोध करने वाले किसी भी अभ्यावेदन के रूप में देखा जाता था। स्वाभाविक रूप से, यह आरोपी व्यक्तियों और परिवादियों/पीड़ितों, दोनों ही पक्षों के द्वारा दायर किया जाता था। जहाँ एक अभियुक्त द्वारा प्रोटेस्ट याचिका केवल जांच के दौरान दायर की जाती थी, वहीं complainant/victim/informant द्वारा यह याचिका पुलिस अन्वेषण के समापन के बाद दायर की जाती थी। आज के समय में, इस तरह की याचिका को आमतौर पर पुलिस द्वारा धारा 173 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत क्लोजर रिपोर्ट या B- रिपोर्ट (जिसे पहले आम तौर पर अंतिम रिपोर्ट के रूप में समझा जाता था) दर्ज करने के बाद एवं अदालत द्वारा न्यायिक निर्णय लिए जाने से पहले अदालत में दाखिल किया जाता है (आमतौर पर informant/victim द्वारा)। हालांकि, ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने वाला व्यक्ति/पीड़ित ही यह नाराजी याचिका दायर करे, परन्तु यह प्रथा रही है कि एक informant/victim द्वारा ही नाराजी याचिका दाखिल की जाती है। इसके अलावा, जैसा कि भगवंत सिंह बनाम कमिश्नर ऑफ़ पुलिस एवं अन्य (1985) 2 SCC 537 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा संकेत दिया गया है, इस याचिका को दाखिल करने का अधिकार मुखबिर (पुलिस को किसी अपराध की इत्तिला देने वाला व्यक्ति, जोकि मामले में पीड़ित भी हो सकता है) को ही दिया गया है और किसी को नहीं। हालाँकि, एक हालिया मामले आर. धरमलिंगम बनाम राज्य (इंस्पेक्टर ऑफ़ पुलिस दक्षिण कोयम्बटूर) Cr.RC.No.967 of 2019 में मद्रास हाईकोर्ट ने यह माना है कि जहाँ याचिकाकर्ता/पीड़ित, ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी किसी परिवाद में रुचि है और उन्हें उस मामले में दायर अंतिम रिपोर्ट के बारे में सूचित नहीं किया जाता है, तो न्यायालय उस मामले को, मजिस्ट्रेट के सामने अंतिम रिपोर्ट दायर किए जाने का समय/स्तर मानते हुए देखेगी और इसका परिणाम यह होगा कि इस स्तर पर याचिकाकर्ता को नाराजी याचिका दायर करने का अधिकार होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय के इस फैसले की पुष्टि इसी महीने (फ़रवरी 2020) में की जिसमें यह माना गया था कि एक याचिकाकर्ता, एक पीड़ित होने के नाते, पुलिस की अंतिम रिपोर्ट की स्वीकृति से पहले अनिवार्य रूप से नोटिस प्राप्त का हकदार है और यदि ऐसा कोई नोटिस नहीं उसे नहीं दिया गया है, तो उसका अधिकार है कि वह नाराजी याचिका दायर कर सके। क्या क्लोजर रिपोर्ट दाखिल होने से पहले किया जा सकता है नाराजी याचिका पर विचार? दिल्ली में वकालत करने वाले अधिवक्ता अभिनव सिकरी का यह मानना है कि क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार करने से पहले प्रोटेस्ट पिटीशन पर विचार करने पर कोई रोक नहीं है। मजिस्ट्रेट, क्लोजर रिपोर्ट से पहले ही नाराजी याचिका को अच्छी तरह से देख सकता है और फिर उसके बाद क्लोजर रिपोर्ट पर खुद ही संज्ञान ले सकता है। इसके अलावा एक विरोध याचिका प्राप्त करने के बाद मजिस्ट्रेट को धारा 156 (3) Cr.P.C के तहत आगे का अन्वेषण करने के निर्देश देने का भी अधिकार है। इसी तरह, यह भी कई मामलों में तय किया गया है कि अगर मजिस्ट्रेट, प्रोटेस्ट पिटीशन पर संज्ञान लेने का निर्णय लेता है, तो उसे सीआरपीसी की धारा 2 (डी) के तहत एक 'परिवाद' (Complaint) के अवयवों को संतुष्ट करना होगा, और फिर शिकायतकर्ता का ओथ पर परिक्षण करना होगा इससे पहले कि अभियुक्तों को समन जारी किया जा सके। नाराजी याचिका: Informant/Victim के लिए एक महत्वपूर्ण उपाय यदि पुलिस द्वारा अन्वेषण किये जाने और क्लोजर रिपोर्ट दाखिल किये जाने की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर नजर डाली जाए तो हम यह पाएंगे कि पुलिस को मामले की सूचना देने वाला शख्स/पीड़ित बिना उपाय के हो जायेगा यदि नाराजी याचिका दाखिल करते हुए उसे पुलिस की क्लोज़र रिपोर्ट (या सामान्य रूप से पुलिस अन्वेषण के निष्कर्ष) पर अपनी आपत्ति जताने का उसे मौका न मिले। ऐसे व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए ही नाराजी याचिका की अवधारणा को अदालतों द्वारा काफी तरजीह दी जाती है। गौरतलब है कि अन्वेषण हो जाने के पश्च्यात जब पुलिस धारा 173 के तहत फाइनल रिपोर्ट को मजिस्ट्रेट को सौंपती है और मजिस्ट्रेट उसे स्वीकार करता है और अभियुक्त को डिस्चार्ज करने का विचार करता है तो यह अनिवार्य है कि वह नाराज़ी याचिका की विषय सामग्री पर विचार करने के बाद ही वह किसी निष्कर्ष पर पहुँचे। गौरतलब है कि अन्वेषण अधिकारी तो अपनी तरफ से फाइनल रिपोर्ट दायर करने के बाद मामले में विषय सामग्री को सम्पूर्ण मान सकता और यह सोच सकता है कि मामले में अब आगे अन्वेषण की आवश्यकता नहीं है, पर मजिस्ट्रेट का कर्तव्य यहीं खत्म नहीं होता। उसका कार्य तुरंत फाइनल रिपोर्ट को स्वीकार कर लेना नहीं है। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि मजिस्ट्रेट के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपने समक्ष मौजूद सामग्री पर उचित रूप से विचार करे, और नाराज़ी याचिका की विषय वस्तु देख कर और परिवादी (Complainant) को सुनकर, आगे का मार्ग तय करे कि क्या मामले में आगे कार्यवाही की आवश्यकता है या फिर कार्यवाही को यहीं ख़त्म कर दिया जाना चाहिए (विष्णु तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2019 (8) SCC 27)। जाहिर है कि मजिस्ट्रेट नाराजी याचिका को देखकर यह आकलन लगाता है कि क्या पुलिस रिपोर्ट के चलते मामले में पीड़ित के साथ अन्याय हुआ है या हो सकता है। हालांकि यदि मजिस्ट्रेट मामले को खोले रहने का फैसला करता है, तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के तहत, मजिस्ट्रेट पीड़ित या गवाह की जांच कर सकता है, जहां किसी को अपना मामला सुनाने का अवसर मिलता है। यह पीड़ित को न्याय दिलाने के एक अवसर के तौर पर देखा जा सकता है, यदि अन्वेषण में आरोपी को गलत तरीके से डिस्चार्ज कर दिया गया है। यह प्रक्रिया कई मायनों में कथित अभियुक्त की सुरक्षा भी करती है, क्योंकि जब पीड़ित की नाराजी याचिका को एक परिवाद माना जाता है तो अदालत के लिए यह जरुरी हो जाता है कि ऐसे परिवादी को शपथ दिलाई जाए, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या उसका मामला/परिवाद/नाराजी याचिका फ़र्ज़ी है (जैसा कि पुलिस रिपोर्ट बताती है) और आरोपी वास्तव में निर्दोष है या परिवादी का मामला वास्तव में मजबूत है। गौरतलब है कि एक बार जब मजिस्ट्रेट इस बात को लेकर संतुष्ट हो जाता है कि यह एक झूठा मामला नहीं था और पीड़ित/परिवादी वास्तव में पुलिस रिपोर्ट के चलते असंतुष्ट है, तो वह स्वयं मामले में परिक्षण कर सकता है, या किसी अधिकारी-प्रभारी, जिसे परिवाद अग्रेषित की जाती है, द्वारा अन्वेषण का आदेश दे सकता है।
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