शादी टूटने से बच्चे के प्रति माता पिता की ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि शादी टूटने के बाद भी किसी दंपति की पैतृक जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती है। बच्चे की कस्टडी के मामलों में चाहे कोई भी अभिभावक जीते, लेकिन बच्चा हमेशा हारता है। ये बच्चे ही हैं जो इस लड़ाई में सबसे भारी कीमत चुकाते हैं ,क्योंकि वे उस समय टूट जाते हैं जब न्यायिक प्रक्रिया द्वारा न्यायालय उन्हें माता-पिता में से जिसे न्यायालय उचित समझता है, उसके साथ जाने के लिए कहता है। एक वैवाहिक विवाद के मामले में दायर सिविल अपील पर विचार करते हुए जस्टिस ए.एम खानविल्कर और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने यह टिप्पणी की। अपील पर सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों द्वारा दी गई दलीलों पर विचार करने के बाद पीठ ने कहा कि- इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि बच्चे के अधिकारों का सम्मान करने की आवश्यकता है, क्योंकि वह माता-पिता दोनों के प्यार का हकदार है। भले ही शादी टूट जाए तो भी यह माता-पिता की जिम्मेदारी खत्म होने का संकेत नहीं है। एक वैवाहिक विवाद में सबसे ज्यादा पीड़ित बच्चा होता है। इस न्यायालय के निर्णयों की श्रृंखला द्वारा भी यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि बच्चे की कस्टडी के मामलों को तय करते समय, प्राथमिक और सर्वोपरि विचार हमेशा बच्चे की भलाई है। यदि किसी भी तरीके से बच्चे की भलाई होती है तो तकनीकी आपत्तियां उसके रास्ते में नहीं आ सकतीं। हालांकि बच्चे की भलाई के लिए निर्णय लेते समय सिर्फ एक पति या पत्नी के विचार को ही ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए। न्यायालयों को कस्टडी के मामलों पर सर्वोपरि विचार करना चाहिए जो कि कस्टडी की लड़ाई में पीड़ित बच्चे के हित में हो। न्यायालय ने यह भी कहा कि वैवाहिक मामलों में सबसे पहले मध्यस्थता की प्रक्रिया के माध्यम से वैवाहिक विवादों को सुलझाने के लिए सारे प्रयास किए जाते हैं, जो कि व्यक्तिगत विवादों को सुलझाने के लिए वैकल्पिक प्रक्रिया के प्रभावी तरीकों में से एक है। परंतु मध्यस्थता की प्रक्रिया के माध्यम से अगर हल निकालना संभव न हो सके तो इस तरह के व्यक्तिगत विवादों को जल्द से जल्द सुलझाने के लिए न्यायालय को अपनी न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से और प्रयास करने चाहिए। पीठ ने कहा कि ''निर्णय में देरी निश्चित रूप से किसी व्यक्ति को बहुत नुकसान पहुंचाती है और उसे उसके उन अधिकारों से वंचित करती है जो कि संविधान के तहत संरक्षित हैं। चूंकि हर गुजरते दिन के साथ बच्चा अपने माता-पिता के प्यार और स्नेह से वंचित होने की भारी कीमत चुकाता है, जबकि इन सबके लिए उसकी कोई गलती नहीं थी, परंतु हमेशा बच्चा हारता है, जिसकी भरपाई किसी तरह के मुआवजा देकर नहीं की जा सकती।''
https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/parental-responsibility-does-not-end-with-breakdown-of-marriage-152895
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि शादी टूटने के बाद भी किसी दंपति की पैतृक जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती है। बच्चे की कस्टडी के मामलों में चाहे कोई भी अभिभावक जीते, लेकिन बच्चा हमेशा हारता है। ये बच्चे ही हैं जो इस लड़ाई में सबसे भारी कीमत चुकाते हैं ,क्योंकि वे उस समय टूट जाते हैं जब न्यायिक प्रक्रिया द्वारा न्यायालय उन्हें माता-पिता में से जिसे न्यायालय उचित समझता है, उसके साथ जाने के लिए कहता है। एक वैवाहिक विवाद के मामले में दायर सिविल अपील पर विचार करते हुए जस्टिस ए.एम खानविल्कर और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने यह टिप्पणी की। अपील पर सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों द्वारा दी गई दलीलों पर विचार करने के बाद पीठ ने कहा कि- इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि बच्चे के अधिकारों का सम्मान करने की आवश्यकता है, क्योंकि वह माता-पिता दोनों के प्यार का हकदार है। भले ही शादी टूट जाए तो भी यह माता-पिता की जिम्मेदारी खत्म होने का संकेत नहीं है। एक वैवाहिक विवाद में सबसे ज्यादा पीड़ित बच्चा होता है। इस न्यायालय के निर्णयों की श्रृंखला द्वारा भी यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि बच्चे की कस्टडी के मामलों को तय करते समय, प्राथमिक और सर्वोपरि विचार हमेशा बच्चे की भलाई है। यदि किसी भी तरीके से बच्चे की भलाई होती है तो तकनीकी आपत्तियां उसके रास्ते में नहीं आ सकतीं। हालांकि बच्चे की भलाई के लिए निर्णय लेते समय सिर्फ एक पति या पत्नी के विचार को ही ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए। न्यायालयों को कस्टडी के मामलों पर सर्वोपरि विचार करना चाहिए जो कि कस्टडी की लड़ाई में पीड़ित बच्चे के हित में हो। न्यायालय ने यह भी कहा कि वैवाहिक मामलों में सबसे पहले मध्यस्थता की प्रक्रिया के माध्यम से वैवाहिक विवादों को सुलझाने के लिए सारे प्रयास किए जाते हैं, जो कि व्यक्तिगत विवादों को सुलझाने के लिए वैकल्पिक प्रक्रिया के प्रभावी तरीकों में से एक है। परंतु मध्यस्थता की प्रक्रिया के माध्यम से अगर हल निकालना संभव न हो सके तो इस तरह के व्यक्तिगत विवादों को जल्द से जल्द सुलझाने के लिए न्यायालय को अपनी न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से और प्रयास करने चाहिए। पीठ ने कहा कि ''निर्णय में देरी निश्चित रूप से किसी व्यक्ति को बहुत नुकसान पहुंचाती है और उसे उसके उन अधिकारों से वंचित करती है जो कि संविधान के तहत संरक्षित हैं। चूंकि हर गुजरते दिन के साथ बच्चा अपने माता-पिता के प्यार और स्नेह से वंचित होने की भारी कीमत चुकाता है, जबकि इन सबके लिए उसकी कोई गलती नहीं थी, परंतु हमेशा बच्चा हारता है, जिसकी भरपाई किसी तरह के मुआवजा देकर नहीं की जा सकती।''
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