क्या हम अपने मूल अधिकारों का परित्याग कर सकते हैं, जानिए सुप्रीम कोर्ट का मत
भारत का संविधान अपने नागरिकों को (कुछ मामलों में गैर-नागरिकों को भी) कुछ मौलिक अधिकारों को लागू करने की गारंटी देता है। संविधान के अंतर्गत मौजूद मौलिक अधिकार, वैदिक काल से इस देश के लोगों द्वारा पोषित मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये अधिकार, मानवाधिकारों की बुनियादी संरचना के मद्देनजर कुछ मूलभूत गारंटियों का पैटर्न बुनते हैं। इसके अलावा यह अधिकार, राज्य पर सम्बंधित नकारात्मक दायित्वों को लागू करते हैं, ताकि इसके विभिन्न आयामों में व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण न किया जा सके। गौरतलब है कि यह मौलिक अधिकार हमे संविधान नहीं देता, बल्कि यह अधिकार हमारे अन्दर निहित हैं, संविधान में इन अधिकारों की मौजूदगी, इस बाबत एक घोषणा भर है। इन अधिकारों का उद्देश्य व्यक्ति को अपने स्वयं के दायित्व को खोजने में मदद करना है, अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्ति देना है और सरकारी और अन्य बलों को अपने रचनात्मक आवेगों से व्यक्ति को 'शोषित' करने से रोकना है। ये मौलिक अधिकार व्यापक हैं और वे 6 शीर्षकों के अंतर्गत आते हैं, मसलन, समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार और संवैधानिक उपचार का अधिकार। इन अधिकारों को संविधान के भाग III में स्थान दिया गया है। हालाँकि, ये अधिकार विभिन्न सीमाओं के अधीन हैं, जिसका अर्थ है कि ये अधिकार पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि कुछ अपवादों के अधीन हैं। इन अधिकारों में से अधिकांश अधिकार, राज्य के सापेक्ष लागू किये जाने योग्य हैं और यहां तक कि राज्य को किसी भी कानून के अनुसार इन अधिकारों को हटाने या इनका उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है (संविधान के अनुच्छेद 13 के अनुसार)। क्या कोई व्यक्ति मौलिक अधिकार का परित्याग कर सकता है? अधित्यजन का सिद्धांत (Doctrine of Waiver) इस आधार पर चर्चा का विषय बनता है कि एक व्यक्ति अपने मामले का सबसे अच्छा न्यायाधीश है और उसे राज्य द्वारा प्रदत्त ऐसे अधिकारों का लाभ न उठाने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार, अधित्यजन के सिद्धांत (Doctrine of Waiver) को "कानूनी अधिकार या लाभ के स्वैच्छिक त्याग या परित्याग (व्यक्त या निहित)" के रूप में परिभाषित किया है। हालाँकि, भारत में कोई भी व्यक्ति, संविधान में गारंटी किये गए अपने मूल अधिकारों का परित्याग/अधित्यजन (waive) नहीं कर सकता है, न ही राज्य इस तरह के परित्याग को स्वीकार कर सकता है और इसका नतीजा यह है कि नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों को लागू करने के अपने कर्तव्य से राज्य कभी मुक्त नहीं हो सकता है। हालाँकि, इस सिद्धांत को लेकर प्रथम बार बहराम खुर्शीद पेसिकाका बनाम बॉम्बे राज्य (1955) 57 BOMLR 575 के वाद में संक्षिप्त रूप से चर्चा की गई थी, लेकिन इस बिंदु पर प्रमुख निर्णय बशेशर नाथ बनाम सीआईटी 1959 SCR Supl. (1) 528 का है। दोनों ही मामलों में यह साफ़ किया गया था कि मौलिक अधिकारों का परित्याग नहीं किया जा सकता है। बहराम खुर्शीद पेसिकाका के मामले में बहुमत की राय यह थी कि मौलिक अधिकारों को केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए संविधान में नहीं रखा गया था। इन अधिकारों को सार्वजनिक नीति के रूप में संविधान में जगह दी गयी थी और इसलिए मौलिक अधिकारों के मामले में अधित्यजन का सिद्धांत (Doctrine of Waiver) लागू नहीं किया जा सकता है। ओल्गा टेलीस एवं अन्य बनाम बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन एवं अन्य 1985 SCR Supl. (2) 51 के मामले में भी यह राय रखी गयी कि कोई भी व्यक्ति संविधान द्वारा उसे दी गई स्वतंत्रता का परित्याग नहीं कर सकता है। एक कार्यवाही में यदि किसी व्यक्ति द्वारा घोषणा/रियायत की जाती है, चाहे कानून की गलती के तहत या अन्यथा, कि वह किसी विशेष मौलिक अधिकार को लागू नहीं करेगा/करेगी तो उसके पश्च्यात, राज्य द्वारा इस घोषणा/रियायत को उसके खिलाफ एक एस्टोपेल के रूप में नहीं बनाया/देखा जा सकता है। इस तरह की रियायत/घोषणा को, यदि लागू किया जाता है, तो यह संविधान के उद्देश्य को पराजित करने जैसा होगा। यदि एस्टोपेल के तर्क को मान्यता दे दी जाती है तो एक सर्व-शक्तिशाली राज्य, आसानी से किसी व्यक्ति को क्षणभंगुर, तत्काल लाभ के वादे पर अपनी कीमती व्यक्तिगत स्वतंत्रता को त्यागने के लिए लुभा सकता है। इसी क्रम में, शीर्ष अदालत ने नर सिंह पाल बनाम भारत संघ (2000) 3 SCC 588 के मामले में कहा कि, "मौलिक अधिकारों का बार्टर किया/त्यागा जाना संभव नहीं है। मौलिक अधिकारों का समझौता नहीं किया जा सकता है, और न ही संविधान के तहत उपलब्ध मौलिक अधिकार के अभ्यास के खिलाफ कोई एस्टोपेल मौजूद है।" बशेशर नाथ के मामले में हुई इस सिद्धांत पर गंभीर चर्चा इस मामले में बशेशर नाथ ने आय पर कर (जांच आयोग) अधिनियम, 1947 [Taxation on Income (Investigation Commission) Act, 1947] द्वारा स्थापित एक निपटान योजना में प्रवेश किया। इस अधिनियम को बाद में सूरज मल मोहता एवं कंपनी बनाम विश्वनाथ शास्त्री एवं अन्य 1955 SCR 448 के मामले में अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के रूप में मानते हुए स्ट्रक डाउन कर दिया गया। हालाँकि, इस निर्णय के बाद भी, बशेशर नाथ कुछ समय तक पूर्व में हस्ताक्षरित उस निपटान (सेटलमेंट) योजना के तहत किस्तों का भुगतान करते रहे, लेकिन उसके बाद वो डिफाल्टर हो गए। इसके परिणामस्वरूप, जब उनकी संपत्तियों को किस्तों का भुगतान करने में डिफ़ॉल्ट करने के चलते संलग्न (attach) किया गया तो उन्होंने यह तर्क दिया कि वह सेटलमेंट अपने आप में अवैध था, क्योंकि आय पर कर (जांच आयोग) अधिनियम, 1947 को सूरज मल के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा असंवैधानिक करार दिया गया था। इसके जवाब में, विपक्षी पक्षकार सीआईटी की ओर से यह दलील दी गयी कि बशेशर नाथ ने पूर्व में इस क़ानून की वैधता को चुनौती नहीं दी थी और उन्होंने अपनी मर्जी से एक सेटलमेंट में प्रवेश किया था, जहाँ उन्होंने क़ानून [आय पर कर (जांच आयोग) अधिनियम, 1947] की अमान्यता का लाभ लेने के अपने अधिकार का परित्याग कर दिया था। यद्यपि वर्ष 1954 में कानून को अमान्य घोषित कर दिया गया था, परन्तु बशेशर नाथ उसी कानून के तहत सेटलमेंट के तहत सितंबर, 1957 तक भुगतान करते रहे। इस मामले में अलग-अलग न्यायाधीशों ने अपनी राय रखी और अलग-अलग कारण दिए कि आखिर क्यों मौलिक अधिकार का परित्याग नहीं किया जा सकता है। नतीजतन, सुप्रीम कोर्ट ने बशेशर नाथ की अपील को अनुमति दी और न केवल वर्ष 1958 में पारित अटैचमेंट आदेश को रद्द कर दिया, बल्कि जुलाई 1954 से शुरू हुई सभी कार्यवाही को भी रद्द कर दिया। इस मामले में यह देखा गया कि अनुच्छेद 14 के तहत दिए गए अधिकार का अधित्यजन, इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि यह अधिकार, समानता सुनिश्चित करने के उद्देश्य को लागू करने की दृष्टि से सार्वजनिक नीति के तहत राज्य के लिए एक निर्देश के तौर पर संविधान में मौजूद है। इसलिए, कोई भी व्यक्ति अपने कृत्य से या एक घोषणा करते हुए, संविधान द्वारा राज्य को सौंपे गए दायित्व को खत्म नहीं कर सकता है। इसी वाद में जस्टिस सुब्बा राव ने अपनी राय रखते हुए इस बात को रेखांकित किया था कि भारत में अधिकांश लोग आर्थिक रूप से गरीब हैं, शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं और राजनीतिक रूप से अभी तक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं। व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से, उन्हें राज्य के खिलाफ खड़ा नहीं किया जा सकता है और इसलिए यह न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वे उनके अधिकारों की रक्षा स्वयं करें। चीफ जस्टिस एस. आर. दास और जस्टिस जीवनलाल कपूर ने अपने विचार रखते हुए कहा कि केवल अनुच्छेद 14 के अंतर्गत दिए गए अधिकार का परित्याग नहीं किया जा सकता है, वहीँ जस्टिस नटवरलाल एच. भगवती ने यह विचार व्यक्त किया कि एक नागरिक, भाग- III में मौजूद किसी भी मौलिक अधिकार का परित्याग नहीं कर सकता है। हालाँकि, इस मामले में (बहराम खुर्शीद पेसिकाका के मामले के अनुरूप ही) एक अल्पमत की राय भी शामिल थी (जस्टिस एस. के. दास), वो राय यह थी कि कोई व्यक्ति एक मौलिक अधिकार का परित्याग कर सकता है जो उसके स्वयं के लाभ के लिए है, लेकिन वह एक ऐसे मौलिक अधिकार का परित्याग नहीं कर सकता है जो कि सार्वजनिक लाभ के लिए है। यह बहराम के मामले में अल्पमत की राय की पुनरावृत्ति थी। हालांकी, हमारा संविधान किसी व्यक्ति के लाभ के लिए अधिनियमित मौलिक अधिकारों और सार्वजनिक हित में या सार्वजनिक नीति के आधार पर अधिनियमित किए गए अधिकारों के बीच कोई अंतर नहीं करता है, इसलिए यह राय बहुत हद तक उचित मालूम नहीं पड़ती है। कुछ अंतिम टिप्पणियां हमे यह याद रखना चाहिए कि यद्यपि यह सत्य है कि इन मौलिक अधिकारों को केवल एक व्यक्ति के लाभ के लिए संविधान में गारंटी के रूप में स्थान दिया गया है, लेकिन संवैधानिक और सार्वजनिक नीति के रूप में, अधित्यजन के सिद्धांत (Doctrine of Waiver) को एक व्यक्ति को ऐसे अधिकारों का लाभ न देने के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। तमाम कानूनी विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि जैसा कि जस्टिस एस. के. दास ने बशेशर नाथ के मामले में कहा है, जहाँ किसी मौलिक अधिकार का स्वाभाव व्यक्तिगत है, वहां किसी व्यक्ति को अपने मामले हेतु उस अधिकार का अधित्यजन करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। यह राय रखी जाती है चूँकि अमेरिकी संविधान में अधिकांश अधिकारों का उल्लेख सार्वजनिक लाभ के बजाय व्यक्तिगत लाभ के लिए किया गया है और इसलिए वहां इस सिद्धांत को मान्यता प्राप्त है, उसी प्रकार भारत में भी जो मौलिक अधिकार स्वाभाव से व्यक्तिगत प्रतीत होते हैं उनका परित्याग करने का अधिकार व्यक्ति को दिया जाना चाहिए (हालाँकि, जैसा कि मैं ऊपर बता चूका हूँ, मेरी राय इससे भिन्न है)। इस मामले को लेकर कोई तय परिणाम नहीं निकल सका है, हालाँकि अदालतों ने विभिन्न निर्णयों के साथ यह साफ़ किया है कि मौलिक अधिकारों के अधित्यजन की स्वीकृति भारत में नहीं है, अर्थात कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों का परित्याग नहीं कर सकता है। वहीँ अमेरिका में बॉयकिन बनाम अलबामा, 395 U.S. 238 (1969) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि मौलिक अधिकारों का अधित्यजन किया जा सकता है। अंत में, हमे यह समझना होगा कि अमेरिका और भारतीय संविधानों की प्रस्तावना को पढने से यह पता चलता है कि दोनों ही देशों का निर्माण, पूरी तरह से अलग उद्देश्यों के लिए और बहुत ही अलग लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किया गया था। इसके अलावा, जहाँ यूएस का संविधान उसकी भावी सरकार के लिए एक साधारण रूपरेखा भर प्रस्तुत करता है। वहीँ भारत का संविधान एक विस्तृत संविधान है, जिसमें संविधान के अंतर्गत ही मौलिक अधिकारों और उन अधिकारों की सीमाओं का उल्लेख किया गया है। यदि हम अधित्यजन के सिद्धांत (Doctrine of Waiver) को भारत में लागू करने की अनुमति देते हैं तो यह हमारे संविधान में सीमाओं को लागू करना होगा, और ऐसा करना गैर जरुरी है (बशेशर नाथ मामले में बहुमत की राय से प्रेरित)।
https://hindi.livelaw.in/know-the-law/know-about-fundamental-rights-152574
भारत का संविधान अपने नागरिकों को (कुछ मामलों में गैर-नागरिकों को भी) कुछ मौलिक अधिकारों को लागू करने की गारंटी देता है। संविधान के अंतर्गत मौजूद मौलिक अधिकार, वैदिक काल से इस देश के लोगों द्वारा पोषित मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये अधिकार, मानवाधिकारों की बुनियादी संरचना के मद्देनजर कुछ मूलभूत गारंटियों का पैटर्न बुनते हैं। इसके अलावा यह अधिकार, राज्य पर सम्बंधित नकारात्मक दायित्वों को लागू करते हैं, ताकि इसके विभिन्न आयामों में व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण न किया जा सके। गौरतलब है कि यह मौलिक अधिकार हमे संविधान नहीं देता, बल्कि यह अधिकार हमारे अन्दर निहित हैं, संविधान में इन अधिकारों की मौजूदगी, इस बाबत एक घोषणा भर है। इन अधिकारों का उद्देश्य व्यक्ति को अपने स्वयं के दायित्व को खोजने में मदद करना है, अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्ति देना है और सरकारी और अन्य बलों को अपने रचनात्मक आवेगों से व्यक्ति को 'शोषित' करने से रोकना है। ये मौलिक अधिकार व्यापक हैं और वे 6 शीर्षकों के अंतर्गत आते हैं, मसलन, समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार और संवैधानिक उपचार का अधिकार। इन अधिकारों को संविधान के भाग III में स्थान दिया गया है। हालाँकि, ये अधिकार विभिन्न सीमाओं के अधीन हैं, जिसका अर्थ है कि ये अधिकार पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि कुछ अपवादों के अधीन हैं। इन अधिकारों में से अधिकांश अधिकार, राज्य के सापेक्ष लागू किये जाने योग्य हैं और यहां तक कि राज्य को किसी भी कानून के अनुसार इन अधिकारों को हटाने या इनका उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है (संविधान के अनुच्छेद 13 के अनुसार)। क्या कोई व्यक्ति मौलिक अधिकार का परित्याग कर सकता है? अधित्यजन का सिद्धांत (Doctrine of Waiver) इस आधार पर चर्चा का विषय बनता है कि एक व्यक्ति अपने मामले का सबसे अच्छा न्यायाधीश है और उसे राज्य द्वारा प्रदत्त ऐसे अधिकारों का लाभ न उठाने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार, अधित्यजन के सिद्धांत (Doctrine of Waiver) को "कानूनी अधिकार या लाभ के स्वैच्छिक त्याग या परित्याग (व्यक्त या निहित)" के रूप में परिभाषित किया है। हालाँकि, भारत में कोई भी व्यक्ति, संविधान में गारंटी किये गए अपने मूल अधिकारों का परित्याग/अधित्यजन (waive) नहीं कर सकता है, न ही राज्य इस तरह के परित्याग को स्वीकार कर सकता है और इसका नतीजा यह है कि नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों को लागू करने के अपने कर्तव्य से राज्य कभी मुक्त नहीं हो सकता है। हालाँकि, इस सिद्धांत को लेकर प्रथम बार बहराम खुर्शीद पेसिकाका बनाम बॉम्बे राज्य (1955) 57 BOMLR 575 के वाद में संक्षिप्त रूप से चर्चा की गई थी, लेकिन इस बिंदु पर प्रमुख निर्णय बशेशर नाथ बनाम सीआईटी 1959 SCR Supl. (1) 528 का है। दोनों ही मामलों में यह साफ़ किया गया था कि मौलिक अधिकारों का परित्याग नहीं किया जा सकता है। बहराम खुर्शीद पेसिकाका के मामले में बहुमत की राय यह थी कि मौलिक अधिकारों को केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए संविधान में नहीं रखा गया था। इन अधिकारों को सार्वजनिक नीति के रूप में संविधान में जगह दी गयी थी और इसलिए मौलिक अधिकारों के मामले में अधित्यजन का सिद्धांत (Doctrine of Waiver) लागू नहीं किया जा सकता है। ओल्गा टेलीस एवं अन्य बनाम बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन एवं अन्य 1985 SCR Supl. (2) 51 के मामले में भी यह राय रखी गयी कि कोई भी व्यक्ति संविधान द्वारा उसे दी गई स्वतंत्रता का परित्याग नहीं कर सकता है। एक कार्यवाही में यदि किसी व्यक्ति द्वारा घोषणा/रियायत की जाती है, चाहे कानून की गलती के तहत या अन्यथा, कि वह किसी विशेष मौलिक अधिकार को लागू नहीं करेगा/करेगी तो उसके पश्च्यात, राज्य द्वारा इस घोषणा/रियायत को उसके खिलाफ एक एस्टोपेल के रूप में नहीं बनाया/देखा जा सकता है। इस तरह की रियायत/घोषणा को, यदि लागू किया जाता है, तो यह संविधान के उद्देश्य को पराजित करने जैसा होगा। यदि एस्टोपेल के तर्क को मान्यता दे दी जाती है तो एक सर्व-शक्तिशाली राज्य, आसानी से किसी व्यक्ति को क्षणभंगुर, तत्काल लाभ के वादे पर अपनी कीमती व्यक्तिगत स्वतंत्रता को त्यागने के लिए लुभा सकता है। इसी क्रम में, शीर्ष अदालत ने नर सिंह पाल बनाम भारत संघ (2000) 3 SCC 588 के मामले में कहा कि, "मौलिक अधिकारों का बार्टर किया/त्यागा जाना संभव नहीं है। मौलिक अधिकारों का समझौता नहीं किया जा सकता है, और न ही संविधान के तहत उपलब्ध मौलिक अधिकार के अभ्यास के खिलाफ कोई एस्टोपेल मौजूद है।" बशेशर नाथ के मामले में हुई इस सिद्धांत पर गंभीर चर्चा इस मामले में बशेशर नाथ ने आय पर कर (जांच आयोग) अधिनियम, 1947 [Taxation on Income (Investigation Commission) Act, 1947] द्वारा स्थापित एक निपटान योजना में प्रवेश किया। इस अधिनियम को बाद में सूरज मल मोहता एवं कंपनी बनाम विश्वनाथ शास्त्री एवं अन्य 1955 SCR 448 के मामले में अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के रूप में मानते हुए स्ट्रक डाउन कर दिया गया। हालाँकि, इस निर्णय के बाद भी, बशेशर नाथ कुछ समय तक पूर्व में हस्ताक्षरित उस निपटान (सेटलमेंट) योजना के तहत किस्तों का भुगतान करते रहे, लेकिन उसके बाद वो डिफाल्टर हो गए। इसके परिणामस्वरूप, जब उनकी संपत्तियों को किस्तों का भुगतान करने में डिफ़ॉल्ट करने के चलते संलग्न (attach) किया गया तो उन्होंने यह तर्क दिया कि वह सेटलमेंट अपने आप में अवैध था, क्योंकि आय पर कर (जांच आयोग) अधिनियम, 1947 को सूरज मल के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा असंवैधानिक करार दिया गया था। इसके जवाब में, विपक्षी पक्षकार सीआईटी की ओर से यह दलील दी गयी कि बशेशर नाथ ने पूर्व में इस क़ानून की वैधता को चुनौती नहीं दी थी और उन्होंने अपनी मर्जी से एक सेटलमेंट में प्रवेश किया था, जहाँ उन्होंने क़ानून [आय पर कर (जांच आयोग) अधिनियम, 1947] की अमान्यता का लाभ लेने के अपने अधिकार का परित्याग कर दिया था। यद्यपि वर्ष 1954 में कानून को अमान्य घोषित कर दिया गया था, परन्तु बशेशर नाथ उसी कानून के तहत सेटलमेंट के तहत सितंबर, 1957 तक भुगतान करते रहे। इस मामले में अलग-अलग न्यायाधीशों ने अपनी राय रखी और अलग-अलग कारण दिए कि आखिर क्यों मौलिक अधिकार का परित्याग नहीं किया जा सकता है। नतीजतन, सुप्रीम कोर्ट ने बशेशर नाथ की अपील को अनुमति दी और न केवल वर्ष 1958 में पारित अटैचमेंट आदेश को रद्द कर दिया, बल्कि जुलाई 1954 से शुरू हुई सभी कार्यवाही को भी रद्द कर दिया। इस मामले में यह देखा गया कि अनुच्छेद 14 के तहत दिए गए अधिकार का अधित्यजन, इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि यह अधिकार, समानता सुनिश्चित करने के उद्देश्य को लागू करने की दृष्टि से सार्वजनिक नीति के तहत राज्य के लिए एक निर्देश के तौर पर संविधान में मौजूद है। इसलिए, कोई भी व्यक्ति अपने कृत्य से या एक घोषणा करते हुए, संविधान द्वारा राज्य को सौंपे गए दायित्व को खत्म नहीं कर सकता है। इसी वाद में जस्टिस सुब्बा राव ने अपनी राय रखते हुए इस बात को रेखांकित किया था कि भारत में अधिकांश लोग आर्थिक रूप से गरीब हैं, शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं और राजनीतिक रूप से अभी तक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं। व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से, उन्हें राज्य के खिलाफ खड़ा नहीं किया जा सकता है और इसलिए यह न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वे उनके अधिकारों की रक्षा स्वयं करें। चीफ जस्टिस एस. आर. दास और जस्टिस जीवनलाल कपूर ने अपने विचार रखते हुए कहा कि केवल अनुच्छेद 14 के अंतर्गत दिए गए अधिकार का परित्याग नहीं किया जा सकता है, वहीँ जस्टिस नटवरलाल एच. भगवती ने यह विचार व्यक्त किया कि एक नागरिक, भाग- III में मौजूद किसी भी मौलिक अधिकार का परित्याग नहीं कर सकता है। हालाँकि, इस मामले में (बहराम खुर्शीद पेसिकाका के मामले के अनुरूप ही) एक अल्पमत की राय भी शामिल थी (जस्टिस एस. के. दास), वो राय यह थी कि कोई व्यक्ति एक मौलिक अधिकार का परित्याग कर सकता है जो उसके स्वयं के लाभ के लिए है, लेकिन वह एक ऐसे मौलिक अधिकार का परित्याग नहीं कर सकता है जो कि सार्वजनिक लाभ के लिए है। यह बहराम के मामले में अल्पमत की राय की पुनरावृत्ति थी। हालांकी, हमारा संविधान किसी व्यक्ति के लाभ के लिए अधिनियमित मौलिक अधिकारों और सार्वजनिक हित में या सार्वजनिक नीति के आधार पर अधिनियमित किए गए अधिकारों के बीच कोई अंतर नहीं करता है, इसलिए यह राय बहुत हद तक उचित मालूम नहीं पड़ती है। कुछ अंतिम टिप्पणियां हमे यह याद रखना चाहिए कि यद्यपि यह सत्य है कि इन मौलिक अधिकारों को केवल एक व्यक्ति के लाभ के लिए संविधान में गारंटी के रूप में स्थान दिया गया है, लेकिन संवैधानिक और सार्वजनिक नीति के रूप में, अधित्यजन के सिद्धांत (Doctrine of Waiver) को एक व्यक्ति को ऐसे अधिकारों का लाभ न देने के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। तमाम कानूनी विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि जैसा कि जस्टिस एस. के. दास ने बशेशर नाथ के मामले में कहा है, जहाँ किसी मौलिक अधिकार का स्वाभाव व्यक्तिगत है, वहां किसी व्यक्ति को अपने मामले हेतु उस अधिकार का अधित्यजन करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। यह राय रखी जाती है चूँकि अमेरिकी संविधान में अधिकांश अधिकारों का उल्लेख सार्वजनिक लाभ के बजाय व्यक्तिगत लाभ के लिए किया गया है और इसलिए वहां इस सिद्धांत को मान्यता प्राप्त है, उसी प्रकार भारत में भी जो मौलिक अधिकार स्वाभाव से व्यक्तिगत प्रतीत होते हैं उनका परित्याग करने का अधिकार व्यक्ति को दिया जाना चाहिए (हालाँकि, जैसा कि मैं ऊपर बता चूका हूँ, मेरी राय इससे भिन्न है)। इस मामले को लेकर कोई तय परिणाम नहीं निकल सका है, हालाँकि अदालतों ने विभिन्न निर्णयों के साथ यह साफ़ किया है कि मौलिक अधिकारों के अधित्यजन की स्वीकृति भारत में नहीं है, अर्थात कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों का परित्याग नहीं कर सकता है। वहीँ अमेरिका में बॉयकिन बनाम अलबामा, 395 U.S. 238 (1969) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि मौलिक अधिकारों का अधित्यजन किया जा सकता है। अंत में, हमे यह समझना होगा कि अमेरिका और भारतीय संविधानों की प्रस्तावना को पढने से यह पता चलता है कि दोनों ही देशों का निर्माण, पूरी तरह से अलग उद्देश्यों के लिए और बहुत ही अलग लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किया गया था। इसके अलावा, जहाँ यूएस का संविधान उसकी भावी सरकार के लिए एक साधारण रूपरेखा भर प्रस्तुत करता है। वहीँ भारत का संविधान एक विस्तृत संविधान है, जिसमें संविधान के अंतर्गत ही मौलिक अधिकारों और उन अधिकारों की सीमाओं का उल्लेख किया गया है। यदि हम अधित्यजन के सिद्धांत (Doctrine of Waiver) को भारत में लागू करने की अनुमति देते हैं तो यह हमारे संविधान में सीमाओं को लागू करना होगा, और ऐसा करना गैर जरुरी है (बशेशर नाथ मामले में बहुमत की राय से प्रेरित)।
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