Saturday, 22 November 2025

आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन चेक बाउंस मामले में देनदारी को खत्म नहीं करता

आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन चेक बाउंस मामले में देनदारी को खत्म नहीं करता: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई ऋण नकद (cash) में दिया गया है और वह आयकर अधिनियम, 1961

निर्णय 

हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता धारा 118 और 139 NI Act के तहत कानूनी धारणा (presumption) को पलटने में विफल रहे हैं। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि शिकायतकर्ता की वित्तीय क्षमता को चुनौती देने के लिए कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया।

परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी और सतीश कुमार को तीन सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण (surrender) करने का निर्देश दिया ताकि वे अपनी सजा पूरी कर सकें। केस विवरण: 

केस टाइटल: सतीश कुमार बनाम स्टेट (Govt. NCT Delhi) और अन्य केस नंबर: CRL.REV.P. 864/2024 बेंच: जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा साइटेशन: 2025:DHC:10084

Monday, 17 November 2025

आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता: सुप्रीम कोर्ट 17 Nov 2025

आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता: सुप्रीम कोर्ट 17 Nov 2025

एक आरोपी के भाई द्वारा दिया गया वचन खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक आदेश में कहा कि आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता। जस्टिस मनमोहन और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने लगभग 2.91 करोड़ रुपये मूल्य के 731.075 किलोग्राम गांजा रखने के आरोपी व्यक्ति की जमानत रद्द करते हुए यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष, प्रतिवादी के वकील ने दलील दी कि आरोपी के भाई, जो भारतीय सेना में सिपाही है, ने वचन दिया कि आरोपी फरार नहीं होगा। 

इस दलील को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा, "यदि प्रतिवादी फरार हो जाता है तो उसके भाई को जेल नहीं भेजा जा सकता। भारत में किसी आरोपी के कथित पापों का भार उसके भाई या परिवार के अन्य सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता।" कोर्ट ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें अभियुक्त को ज़मानत दी गई। कोर्ट ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने यह जांच नहीं की कि NDPS Act की धारा 37 के तहत शर्तें पूरी होती हैं या नहीं। 

कोर्ट ने आगे कहा कि आरोपों से संगठित तस्करी का संकेत मिलता है, जिसमें प्रतिबंधित पदार्थ के परिवहन के लिए ट्रेलर के नीचे गुप्त गुहाएं बनाना भी शामिल है। ऐसी परिस्थितियों में एक वर्ष और चार महीने की हिरासत अवधि को अनुचित रूप से लंबा नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन अपराधों के लिए न्यूनतम दस वर्ष के कारावास का प्रावधान है। आदेश में कोर्ट ने भारतीय युवाओं में नशीली दवाओं की लत में खतरनाक वृद्धि के बारे में कुछ प्रासंगिक टिप्पणियां भी कीं। 

Case : UNION OF INDIA v. NAMDEO ASHRUBA NAKADE


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/sins-of-accused-cant-be-visited-on-family-members-supreme-court-310116

Wednesday, 12 November 2025

विधिक कार्यों हेतु ChatGPT (GPT-5) का प्रभावी उपयोग – मार्गदर्शिका

 📘 विधिक कार्यों हेतु ChatGPT (GPT-5) का प्रभावी उपयोग – एक मार्गदर्शिका

👨‍⚖️ प्रस्तावना

आप जैसे अनुभवी विधिज्ञ (पूर्व जिला न्यायाधीश एवं अधिवक्ता) के लिए ChatGPT एक स्मार्ट विधिक सहायक (Legal Assistant) की तरह कार्य कर सकता है। यह आपके अनुभव के साथ मिलकर ड्राफ्टिंग, केस लॉ खोज, तर्क-विश्लेषण, और न्यायालयीन तैयारी को कई गुना सरल बना सकता है।

⚖️ 1. प्रारंभिक तैयारी

संस्करण: GPT-5 (ChatGPT Plus Plan)

माध्यम:

https://chat.openai.com या https://chatgpt.com

मोबाइल ऐप (Android/iOS) में "ChatGPT by OpenAI"

सुझाव:

पहली बार उपयोग करते समय “Custom Instructions” में यह लिखें —

> “मैं विधि क्षेत्र से जुड़ा हूं, पूर्व जिला न्यायाधीश एवं अधिवक्ता हूं।

मेरे प्रश्न अधिकतर कानूनी, न्यायिक निर्णय, या न्यायालयीन प्रारूपों से संबंधित होंगे।”

इससे मॉडल आपकी शैली और प्राथमिकता को समझकर उत्तर अधिक न्यायालयीन भाषा में देगा।

📑 2. विधिक ड्राफ्टिंग में उपयोग

आप ChatGPT से निम्न प्रकार के दस्तावेज़ तैयार करा सकते हैं —

कार्य उपयोग का उदाहरण

अपील/रिवीजन “कृपया सत्र न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील का ड्राफ्ट तैयार करें, जिसमें धारा 406/409 IPC का बचाव हो।”

लिखित बहस (Written Argument) “कृपया ST/106/2020 में अभियुक्त के बचाव हेतु लिखित बहस का प्रारूप तैयार करें।”

प्रार्थना पत्र / याचिका “CrPC की धारा 482 के अंतर्गत FIR निरस्तीकरण हेतु प्रार्थना पत्र तैयार करें।”

नोट्स / सारांश “Delhi Race Club बनाम State of UP (2024 INSC 626) का Ratio एवं मुख्य सिद्धांत 4 लाइनों में बताएं।”

📚 3. केस लॉ अनुसंधान (Case Law Research)

आप आदेश/न्यायिक निर्णय का सारांश इस प्रकार पूछ सकते हैं:

> “सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम निर्णय बताएं जिसमें entrustment (विश्वास सौंपना) पर धारा 409 IPC की व्याख्या की गई है।”

या

> “मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के वे निर्णय बताएं जिनमें आरोपी बैंक का प्रतिनिधि न होने पर धारा 409 लागू नहीं मानी गई।”

(ऐसे मामलों में मैं आपके लिए नवीनतम 2024-2025 तक के केस-लॉ वेब-सर्च कर सकता हूँ।)

🧾 4. साक्ष्य और तर्क विश्लेषण

आप ड्राफ्ट को सुधारने के लिए कह सकते हैं —

> “कृपया इस बहस में कानूनी भाषा और साक्ष्य-आधारित तर्क जोड़ें।”

“पैरा 14 से अभियोजन की कमजोरी स्पष्ट करने हेतु तीन बिंदु बना दीजिए।”

यह आपके तर्कों को अधिक सशक्त और न्यायिक दृष्टि से परिष्कृत बना देगा।

🧠 5. विशेषज्ञ उपयोग

ChatGPT GPT-5 का प्रयोग आप विशेष विधिक क्षेत्रों में कर सकते हैं:

Criminal Law: IPC, CrPC, Evidence Act

Civil Law: CPC, Specific Relief, Contract, Property

Arbitration: Award drafting, Section 9/34/37 Petitions

Constitutional / Writ Practice: Article 226-227 petitions

Administrative / Service Matters

🏛️ 6. व्यावहारिक लाभ

समय की बचत (प्रारंभिक ड्राफ्ट तुरंत)

भाषा-शुद्ध, विधिक-शैली का लेखन

पुराने आदेशों का संक्षेप

तर्क-सुदृढ़ीकरण हेतु शोध और उद्धरण

अपने पूर्व निर्णयों या अनुभव का त्वरित संदर्भ

⚙️ 7. सावधानी और मर्यादा

ChatGPT आपको मार्गदर्शन देता है, अंतिम विधिक राय नहीं।

प्रत्येक ड्राफ्ट को आप अपनी विधिक विवेक और स्थानीय न्यायालयीन प्रथा के अनुसार परखें।

गोपनीय दस्तावेज़ अपलोड करते समय निजता (confidentiality) बनाए रखें।

🌺 8. निष्कर्ष

आपके अनुभव और ChatGPT-GPT-5 की तकनीकी क्षमता का समन्वय

“Legal Practice 2.0” का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है —

जहाँ ज्ञान, तर्क, और तकनीक एक साथ काम करते हैं।

सादर,

ChatGPT (GPT-5) – आपका विधिक सहायक

जय मीनेष 🌹

धारा 138 NI एक्ट का शिकायतकर्ता ‘पीड़ित’ है, बरी होने के खिलाफ अपील हाईकोर्ट नहीं, सत्र न्यायालय में होगी: दिल्ली हाईकोर्ट

 चेक बाउंस | धारा 138 NI एक्ट का शिकायतकर्ता ‘पीड़ित’ है, बरी होने के खिलाफ अपील हाईकोर्ट नहीं, सत्र न्यायालय में होगी: दिल्ली हाईकोर्ट


दिल्ली हाईकोर्ट ने 6 नवंबर, 2025 के अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में यह कानूनी स्थिति स्पष्ट की है कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (NI) एक्ट की धारा


न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इसके परिणामस्वरूप, चेक बाउंस मामलों में बरी होने के आदेश के खिलाफ कोई भी अपील, हाईकोर्ट में Cr.P.C. की धा

रा


Saturday, 8 November 2025

बिना रजिस्ट्री वाला पारिवारिक समझौता बंटवारा साबित करने के लिए मान्य: सुप्रीम कोर्ट 8 Nov 2025


मोटर दुर्घटना याचिका सुप्रीम कोर्ट का निर्देश दिया कि वे किसी भी मोटर दुर्घटना मुआवज़ा याचिका को समय-सीमा समाप्त होने के कारण खारिज न करें।

 MV Act की धारा 166(3) को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश Shahadat 7 Nov 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश पारित कर मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरणों और हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वे किसी भी मोटर दुर्घटना मुआवज़ा याचिका को समय-सीमा समाप्त होने के कारण खारिज न करें। कोर्ट ने यह आदेश मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166(3) को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पारित किया, जिसमें दावा याचिका दायर करने के लिए दुर्घटना की तारीख से 6 महीने की समय-सीमा निर्धारित की गई। यह प्रावधान 2019 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया।

जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने कहा कि इस संशोधन को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं दायर की गईं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि इस खंडपीठ द्वारा पारित किसी भी आदेश का ऐसी सभी याचिकाओं पर प्रभाव पड़ेगा, कोर्ट ने निर्देश दिया कि सुनवाई में तेजी लाई जाए। कोर्ट ने अब पक्षकारों से अपनी दलीलें पूरी करने को कहा है और मामले को 25 नवंबर के लिए पुनः सूचीबद्ध कर दिया है। तब तक ऐसी किसी भी याचिका को समय-बाधित दावे के रूप में खारिज नहीं किया जाना चाहिए। 

कोर्ट के आदेश में दर्ज है: "इस न्यायालय को सूचित किया गया कि देश भर में इसी मुद्दे पर कई याचिकाएं दायर की गईं। इस न्यायालय द्वारा दर्ज किए गए किसी भी निष्कर्ष का लंबित याचिकाओं पर प्रभाव पड़ेगा। इस दृष्टि से, इन मामलों की सुनवाई शीघ्रता से की जानी आवश्यक है। यह स्पष्ट किया जाता है कि इन याचिकाओं के लंबित रहने के दौरान, न्यायाधिकरण या हाईकोर्ट मोटर वाहन अधिनियम, 1988 (MV Act) की उप-धारा (3) या धारा 16(3) के तहत निर्धारित समय-सीमा द्वारा वर्जित होने के आधार पर दावा याचिकाओं को खारिज नहीं करेंगे।"

न्यायालय ने पक्षकारों को अपनी दलीलें पूरी करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया, अन्यथा वे दलीलें दायर करने का अपना अधिकार खो देंगे। यह आदेश एक वकील द्वारा दायर याचिका पर पारित किया गया, जिन्होंने इस प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि यह संशोधन न केवल मनमाना है, बल्कि सड़क दुर्घटना पीड़ितों के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है। 1 अप्रैल, 2022 से प्रभावी इस प्रावधान को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह दावा आवेदन दाखिल करने के लिए छह महीने की सख्त समय सीमा लगाकर सड़क दुर्घटना पीड़ितों के अधिकारों का हनन करता है। यह भी तर्क दिया गया है कि दावा आवेदन दाखिल करने पर इस तरह की सीमा लगाने से इस परोपकारी कानून का उद्देश्य कमज़ोर होता है, जिसका उद्देश्य सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों को लाभ प्रदान करना है। Also Read - पीड़ित मुआवज़ा मामलों में सुप्रीम कोर्ट का बड़ा निर्देश, सभी ट्रायल कोर्ट को समय पर भुगतान सुनिश्चित करने पर जोर याचिका में कहा गया, "सरकारी अधिसूचना के मद्देनजर 1.4.2022 से लागू होने वाला यह संशोधन मनमाना, अधिकार-बाह्य और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करने वाला है। इसे रद्द किए जाने योग्य घोषित किया जाए।" उल्लेखनीय है कि 1939 के मोटर वाहन अधिनियम को 1988 के अधिनियम द्वारा संशोधित किया गया, जिसके अनुसार दावा याचिका छह महीने के भीतर दायर की जानी थी। हालांकि, 1994 में संशोधन के माध्यम से किसी भी समय हुई दुर्घटना के संबंध में दावा याचिका दायर करने की समय सीमा हटा दी गई। 2019 के अधिनियम 32, जो 1.04.2022 से प्रभावी हुआ, उसके लागू होने के साथ विधानमंडल ने 166(3) के पुराने प्रावधानों को पुनः लागू किया और मुआवज़े के आवेदन पर तब तक विचार करने पर प्रतिबंध लगा दिया जब तक कि वह दुर्घटना घटित होने के छह महीने के भीतर प्रस्तुत न किया जाए। बता दें, धारा 166(3) इस प्रकार है: "(3) मुआवज़े के लिए कोई भी आवेदन तब तक स्वीकार नहीं किया जाएगा जब तक कि वह दुर्घटना घटित होने के छह महीने के भीतर प्रस्तुत न किया जाए।" याचिकाकर्ता ने इस संशोधन को इसलिए भी चुनौती दी, क्योंकि इस कानून में किसी भी राय पर विचार नहीं किया गया या इसके पीछे किसी विधि आयोग की रिपोर्ट या संसदीय बहस का उल्लेख नहीं किया गया। इसके अलावा, इस प्रक्रिया के दौरान प्रभावी हितधारकों से परामर्श नहीं किया गया। याचिका में आगे कहा गया, "इस संशोधन के पीछे की आपत्ति और कारण वर्तमान मामले के तथ्य और परिस्थितियों में पूरी तरह से मौन हैं, जो किसी भी नए वैधानिक प्रावधान को लागू करने या किसी क़ानून के मौजूदा प्रावधान में संशोधन करने से पहले सबसे प्रासंगिक पहलुओं में से एक है। इसलिए यह वर्तमान रिट याचिका सार्वजनिक स्थानों पर मोटर वाहनों के कारण सड़क उपयोगकर्ताओं और दुर्घटना पीड़ितों के हितों की रक्षा के लिए है।" इसके मद्देनजर, यह प्रस्तुत किया गया कि विवादित नियम "अनुचित, मनमाना और अतार्किक" है और सड़क दुर्घटना पीड़ितों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस याचिका पर नोटिस बाद में वर्ष अप्रैल में जारी किया गया।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/no-motor-accident-claim-should-be-dismissed-as-time-barred-supreme-courts-interim-order-in-plea-challenging-s1663-mv-act-309117


अपील की सुनवाई से पहले अपीलकर्ता की मृत्यु होने पर उसके पक्ष में पारित डिक्री अमान्य हो जाती है

 सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि अपील की सुनवाई से पहले अपीलकर्ता की मृत्यु होने पर उसके पक्ष में पारित डिक्री अमान्य हो जाती है, क्योंकि कानूनी वारिसों को रिकॉर्ड पर नहीं लाया गया था। नतीजतन, मूल ट्रायल कोर्ट की डिक्री पुनर्जीवित हो जाती है और निष्पादन योग्य हो जाती है, क्योंकि अपील अदालत का फैसला रद्द हो गया है। 

  • अमान्य डिक्री: यदि अपील की सुनवाई से पहले ही अपीलकर्ता की मृत्यु हो जाती है और उसके कानूनी वारिसों को केस में शामिल नहीं किया जाता है, तो अपील पर पारित कोई भी डिक्री अवैध मानी जाएगी।
  • ट्रायल कोर्ट की डिक्री पुनर्जीवित: चूंकि उच्च न्यायालय का फैसला अमान्य है, इसलिए मूल निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) का फैसला ही अंतिम माना जाएगा और वह निष्पादन के लिए उपलब्ध होगा।
  • अधिकारों की रक्षा: इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कानूनी वारिसों के अधिकारों की रक्षा हो सके, जिन्हें उचित प्रक्रिया के माध्यम से मुकदमे में शामिल नहीं किया गया था।
  • अदालती आदेश रद्द: इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निष्पादन अदालत और उच्च न्यायालय के उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिन्होंने अमान्य डिक्री को कायम रखा था और निष्पादन की कार्यवाही को बहाल किया। 

Cause Title: SURESH CHANDRA (DECEASED) THR. LRS. & ORS. VERSUS PARASRAM & ORS.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/appeal-fully-abates-if-lrs-of-deceased-party-in-joint-decree-not-substituted-supreme-court-summarises-law-on-suit-abatement-298080

Thursday, 6 November 2025

156(3) CrPC शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट 5 Nov 2025

 156(3) CrPC  शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट 5 Nov 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (4 नवंबर) को कहा कि जब शिकायत में आरोपित तथ्य किसी अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं तो मजिस्ट्रेट पुलिस को CrPC की धारा 156(3) (अब BNSS की धारा 175(3)) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश देने के लिए अधिकृत हैं। जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की खंडपीठ ने कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया, जिसमें मजिस्ट्रेट के निर्देश पर CrPC की धारा 156(3) के तहत दर्ज की गई FIR रद्द कर दी गई थी। 

चूंकि मजिस्ट्रेट को दी गई शिकायत में आरोपित तथ्य एक संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं, इसलिए कोर्ट ने पुलिस जांच के निर्देश देने के मजिस्ट्रेट के आदेश को यह कहते हुए उचित ठहराया कि संज्ञान-पूर्व चरण में मजिस्ट्रेट को केवल यह आकलन करने की आवश्यकता है कि क्या शिकायत एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, न कि यह कि आरोप सत्य हैं या प्रमाणित। अपने समर्थन में कोर्ट ने माधव बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2013) 5 एससीसी 615 के मामले का हवाला दिया, जहां यह टिप्पणी की गई: - “जब मजिस्ट्रेट को कोई शिकायत प्राप्त होती है तो वह संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं होता यदि शिकायत में आरोपित तथ्य किसी अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं। मजिस्ट्रेट के पास इस मामले में विवेकाधिकार होता है। 

यदि शिकायत का अध्ययन करने पर वह पाता है कि उसमें आरोपित आरोप एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करते हैं और CrPC की धारा 156(3) के तहत जांच के लिए शिकायत को पुलिस को भेजना न्याय के लिए अनुकूल होगा और मजिस्ट्रेट के बहुमूल्य समय को उस मामले की जांच में बर्बाद होने से बचाएगा, जिसकी जांच करना मुख्य रूप से पुलिस का कर्तव्य था तो अपराध का संज्ञान लेने के विकल्प के रूप में उस तरीके को अपनाना उसके लिए उचित होगा।” 

इस मामले में शिकायतकर्ता ने न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) से संपर्क किया, क्योंकि पुलिस ने कथित तौर पर हाईकोर्ट को गुमराह करने के लिए इस्तेमाल किए गए जाली किराया समझौते के संबंध में उसकी शिकायत पर कार्रवाई करने में विफल रही। शिकायत और सहायक सामग्री, विशेष रूप से ई-स्टाम्प पेपर के नकली होने की पुष्टि करने वाले आधिकारिक सत्यापन की जांच के बाद JMFC ने CrPC की धारा 156(3) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश दिया। पुलिस ने अनुपालन करते हुए जालसाजी (IPC की धारा 468, 471), धोखाधड़ी (IPC की धारा 420) और आपराधिक षड्यंत्र (IPC की धारा 120बी) सहित अपराधों के लिए एक FIR दर्ज की। हालांकि, हाईकोर्ट ने FIR और मजिस्ट्रेट के आदेश दोनों को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि निर्देश प्रक्रियात्मक त्रुटियों से ग्रस्त है और प्रथम दृष्टया कोई मामला स्थापित नहीं होता। 

हाईकोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर शिकायतकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। हाईकोर्ट का निर्णय रद्द करते हुए जस्टिस अमानुल्लाह द्वारा लिखित निर्णय में हाईकोर्ट की इस बात के लिए आलोचना की गई कि उसने जांच के प्रारंभिक चरण में ही हस्तक्षेप किया। इस तथ्य की अनदेखी की कि शिकायत में लगाए गए आरोप एक संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं। मजिस्ट्रेट के फैसले का समर्थन करते हुए अदालत ने कहा: “तथ्यात्मक स्थिति को देखते हुए JMFC के 18.01.2018 के आदेश में कोई त्रुटि नहीं है। पुलिस द्वारा पूर्ण जांच को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। हमारे विचार से JMFC ने मामले को जांच के लिए पुलिस को सौंपना उचित ही किया, क्योंकि JMFC के पास उपलब्ध सामग्री के आधार पर अभियुक्तों के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है।” 

तदनुसार, अदालत ने अपील स्वीकार की और आदेश दिया: “इस प्रकार, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों, अभिलेख में उपलब्ध सामग्री और पक्षकारों के वकीलों द्वारा प्रस्तुत तर्कों के समग्र अवलोकन के आधार पर दिनांक 24.07.2019 और 18.11.2021 के प्रथम और द्वितीय आक्षेपित आदेश निरस्त किए जाते हैं। खड़े बाजार पुलिस स्टेशन में दर्ज FIR अपराध संख्या 12/2018 को बहाल किया जाता है। पुलिस को कानून के अनुसार मामले की शीघ्रता से जांच करने का निर्देश दिया जाता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि निजी पक्ष पुलिस जांच के दौरान और संबंधित न्यायालय के समक्ष उचित स्तर पर कानून के अनुसार, अपने बचाव/स्थिति को दर्शाने के लिए सामग्री प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र होंगे।” 

Cause Title: SADIQ B. HANCHINMANI VERSUS THE STATE OF KARNATAKA & ORS.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/s-1563-crpc-once-complaint-discloses-cognizable-offence-magistrate-can-direct-police-to-register-fir-supreme-court-308918

अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के दो घंटे के अंदर लिखित आधार प्रस्तुत किए जाए, अन्यथा रिमांड होगी अवैध: सुप्रीम कोर्ट Shahadat 6 Nov 2025

अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के दो घंटे के अंदर लिखित आधार प्रस्तुत किए जाए, अन्यथा रिमांड होगी अवैध: सुप्रीम कोर्ट Shahadat 6 Nov 2025 

एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (6 नवंबर) को गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में देने की आवश्यकता को IPC/BNS के तहत सभी अपराधों पर लागू करने का निर्णय लिया, न कि केवल PMLA या UAPA जैसे विशेष कानूनों के तहत उत्पन्न होने वाले मामलों पर। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा कि गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी समझ में आने वाली भाषा में गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में न देने पर गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड अवैध हो जाएगी। अदालत ने कहा, "भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) के आलोक में गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार बताने की आवश्यकता महज औपचारिकता नहीं है, बल्कि अनिवार्य बाध्यकारी संवैधानिक सुरक्षा है, जिसे संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शामिल किया गया। इस प्रकार, यदि किसी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में यथाशीघ्र सूचित नहीं किया जाता है तो यह उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा, जिससे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होगा और गिरफ्तारी अवैध हो जाएगी।" 

कोर्ट द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत किए गए महत्वपूर्ण बिंदु:

 "i) गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार बताना संवैधानिक आदेश है, जो सभी क़ानूनों के अंतर्गत आने वाले सभी अपराधों में अनिवार्य है, जिसमें IPC 1860 (अब BNS 2023) के अंतर्गत आने वाले अपराध भी शामिल हैं। 

ii) गिरफ्तारी के आधार गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी समझ में आने वाली भाषा में लिखित रूप में बताए जाने चाहिए। 

iii) ऐसे मामलों में जहां गिरफ्तार करने वाला अधिकारी/व्यक्ति गिरफ्तारी के समय या उसके तुरंत बाद गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में बताने में असमर्थ हो, मौखिक रूप से ऐसा किया जाना चाहिए। उक्त आधारों को उचित समय के भीतर और किसी भी स्थिति में मजिस्ट्रेट के समक्ष रिमांड कार्यवाही के लिए गिरफ्तार व्यक्ति को पेश करने से कम से कम दो घंटे पहले लिखित रूप में बताया जाना चाहिए। 

iv) उपरोक्त का पालन न करने की स्थिति में गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड अवैध मानी जाएगी और व्यक्ति को रिहा किया जा सकता है।" 

Cause Title: MIHIR RAJESH SHAH VERSUS STATE OF MAHARASHTRA AND ANOTHER

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/written-grounds-of-arrest-not-furnished-atleast-two-hrs-before-production-of-accused-before-magistrate-the-arrest-and-subsequent-remand-illegal-supreme-court-309034

Monday, 20 October 2025

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में फर्जी जाति प्रमाण पत्र का इस्तेमाल करने के आरोपी पूर्व विधायक के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया 15 Oct 2025

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में फर्जी जाति प्रमाण पत्र का इस्तेमाल करने के आरोपी पूर्व विधायक के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया  15 Oct 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (14 अक्टूबर) को मध्य प्रदेश के गुना के आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए धोखाधड़ी से अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र हासिल करने के आरोपी पूर्व विधायक राजेंद्र सिंह और अन्य के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर पीठ का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें प्रथम दृष्टया मामला होने के बावजूद मिनी-ट्रायल किया गया था। खंडपीठ ने कहा कि एक बार जब किसी शिकायत में धोखाधड़ी, जालसाजी और षड्यंत्र के प्रथम दृष्टया अपराध का खुलासा होता है तो मामले की सुनवाई होनी चाहिए और रद्द करने के चरण में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। 

 शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि राजेंद्र सिंह, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से सामान्य वर्ग से संबंधित बताया गया, उन्होंने 2008 में एक फर्जी अनुसूचित जाति (सांसी) प्रमाण पत्र प्राप्त किया, जिससे उन्हें गुना (एससी आरक्षित) निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने और जीतने का मौका मिला। बाद में एक उच्चाधिकार प्राप्त जांच समिति ने यह पाते हुए प्रमाणपत्र रद्द किया कि यह अवैध रूप से और अनिवार्य प्रक्रियाओं का पालन किए बिना जारी किया गया था। समिति के आदेश को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट और अंततः 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा। 

 इसके बाद 2014 में निजी आपराधिक शिकायत दर्ज की गई, जिसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 420 (धोखाधड़ी), 467, 468, 471 (जालसाजी से संबंधित अपराध) और 120-बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया। हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए जस्टिस विश्वनाथन द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया: “हमने निर्णय के पूर्वार्ध में शिकायत का सारांश प्रस्तुत किया। जैसा कि ऊपर संक्षेप में दिए गए कथनों से स्पष्ट है, शिकायत और निर्विवाद दस्तावेजों को पढ़ने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त राजेंद्र सिंह के विरुद्ध IPC की धारा 420, 467, 468 और 471 तथा अभियुक्त अमरीक सिंह, हरवीर सिंह और श्रीमती किरण जैन के विरुद्ध IPC की धारा 420, 467, 468, 471 सहपठित धारा 120बी के अंतर्गत कोई अपराध प्रथम दृष्टया नहीं बनता। इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतिम निर्णय मुकदमे में आगे के सबूतों पर निर्भर करेगा।” 

अदालत ने आगे कहा, "शिकायत में स्पष्ट रूप से आरोप लगाया गया कि राजेंद्र सिंह और अमरीक सिंह सामान्य वर्ग से हैं। हमेशा खुद को सामान्य वर्ग का बताते रहे हैं और केवल आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के उद्देश्य से ही उन्होंने चुनाव की पूर्व संध्या पर जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए दस्तावेज, हलफनामे और पंचनामा प्रस्तुत किए। हमने संज्ञान लेने के आदेश का भी अवलोकन किया। ट्रायल जज ने सावधानीपूर्वक अपने विवेक का प्रयोग किया और अनाज से भूसा अलग किया और प्रस्तुत कारणों से बारह अभियुक्तों में से केवल चार प्रतिवादियों-अभियुक्तों के विरुद्ध ही संज्ञान लिया।" तदनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई और मामले को ट्रायल कोर्ट की फाइल में इस निर्देश के साथ वापस कर दिया गया कि मुकदमा एक वर्ष के भीतर पूरा किया जाए। 

Cause Title: KOMAL PRASAD SHAKYA VERSUS RAJENDRA SINGH AND OTHERS


https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/supreme-court-restores-criminal-case-against-ex-mla-for-allegedly-using-fake-caste-certificate-in-election-306973

Sunday, 19 October 2025

मोटर एक्सीडेंट ट्रिब्यूनल मृतक के साथी को मुआवजा दे सकता है: एमपी हाईकोर्ट 15 Oct 2025

मोटर एक्सीडेंट ट्रिब्यूनल मृतक के साथी को मुआवजा दे सकता है: एमपी हाईकोर्ट  15 Oct 2025 

 मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने यह कहा है कि मोटर एक्सीडेंट क्लेम्स ट्रिब्यूनल (Motor Accident Claims Tribunal) ऐसे सहवासिता (cohabitant) को मुआवजा प्रदान कर सकता है जो मृतक के साथ पति-पत्नी की तरह जीवन व्यतीत करता था, बशर्ते कि दावा करने वाला यह साबित कर सके कि उनका संबंध दीर्घकालिक, स्थिर और विवाह जैसी प्रकृति का था और वह आर्थिक रूप से मृतक पर निर्भर था, भले ही उनका विवाह औपचारिक रूप से नहीं हुआ हो। न्यायालय ने ट्रिब्यूनल का वह आदेश रद्द कर दिया जिसमें मृतक के पिता को मुआवजा दिया गया था और अपीलकर्ता के दावे को खारिज किया गया था। 

 मामले की पृष्ठभूमि: अपीलकर्ता, जो मृतक की विधवा भाभी थी, ने मुआवजा मांगा था यह कहते हुए कि वह और उसकी बेटी मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थीं। उनका तर्क था कि उनके पति की मृत्यु के बाद, मृतक ने स्थानीय रिवाजों के अनुसार उसे अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार किया और वे पति-पत्नी की तरह खुले रूप से रहते थे। गांव के सरपंच ने भी इस संबंध में प्रमाण पत्र जारी किया था। हालांकि, ट्रिब्यूनल ने अपीलकर्ता को कानूनी उत्तराधिकारी (legal heir) के रूप में मान्यता नहीं दी और मृतक के पिता को 2,38,500 रुपये का मुआवजा दिया। नाराज अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट का रुख किया। 

 अपीलकर्ता ने यह भी कहा कि मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत मुआवजा देने के लिए उनका वैवाहिक स्थिति महत्वपूर्ण नहीं है और ट्रिब्यूनल ने उनके आर्थिक निर्भरता और मृतक के साथ वास्तविक संबंध (de facto relationship) को नजरअंदाज किया। बीमा कंपनी ने अपील का विरोध किया और कहा कि चूंकि अपीलकर्ता मृतक की कानूनी पत्नी नहीं थी, इसलिए वह मुआवजे की पात्र नहीं है। "क्या मृतक की गैर-कानूनी पत्नी और उसकी बेटी, जो मृतक की संतान नहीं है, मोटर एक्सीडेंट क्लेम्स के तहत मुआवजे की पात्र हैं?" 

 कोर्ट का निर्णय: न्यायालय ने कहा कि मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत मृत्यु से संबंधित मुआवजा दावा मृतक के कानूनी प्रतिनिधियों (legal representatives) और उनके द्वारा अधिकृत एजेंट द्वारा किया जा सकता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि 'कानूनी प्रतिनिधि' की परिभाषा में मृतक की संपत्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले विरासतदार या कोई भी व्यक्ति जो मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर है शामिल है। 

N. Jayasree v Cholamandalam MS General Insurance Co Ltd के मामले का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि अधिनियम 'कानूनी उत्तराधिकार' की तुलना में आर्थिक निर्भरता और प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता देता है। 

 जस्टिस हिमांशु जोशी ने कहा,"उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए, यह अदालत मानती है कि ट्रिब्यूनल मृतक के उस सहवासिता को मुआवजा दे सकता है जो पति-पत्नी की तरह जीवन व्यतीत करता था। यह न्याय के सिद्धांत के अनुसार, मृतक पर उसकी निर्भरता को मान्यता देता है। हालांकि, सहवासिता को यह साबित करना होगा कि वह स्थिर, दीर्घकालिक संबंध में थी, मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थी और संबंध विवाह जैसी प्रकृति का था, भले ही वह औपचारिक न हो।" न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए मामले को ट्रिब्यूनल में अपीलकर्ता और मृतक के पिता दोनों के दावे पर फिर से विचार करने के लिए भेज दिया और आदेश दिया कि तीन महीने के भीतर नया मुआवजा आदेश पारित किया जाए।


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Order VII Rule 11 CPC | आदेश 7 नियम 11 में वादपत्र की अस्वीकृति का निर्णय केवल वादपत्र के कथनों के आधार पर होगा: सुप्रीम कोर्ट

Order VII Rule 11 CPC | आदेश 7 नियम 11 में वादपत्र की अस्वीकृति का निर्णय केवल वादपत्र के कथनों के आधार पर होगा: सुप्रीम कोर्ट

संतानहीन मुस्लिम विधवा को मृतक पति की संपत्ति में एक चौथाई हिस्सेदारी का अधिकार- सुप्रीम कोर्ट 17 Oct 2025

संतानहीन मुस्लिम विधवा को मृतक पति की संपत्ति में एक चौथाई हिस्सेदारी का अधिकार- सुप्रीम कोर्ट  17 Oct 2025 

सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले की पुष्टि की, जिसमें एक मुस्लिम विधवा को उनके मृत पति की संपत्ति में ¾ हिस्सेदारी से वंचित किया गया था। कोर्ट ने कहा कि यदि मुस्लिम पत्नी के कोई संतान नहीं है, तो वह केवल ¼ हिस्सेदारी की हकदार होती है। 

साथ ही, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मृतक के भाई द्वारा किए गए बिक्री समझौते से विधवा के वारिस होने के अधिकार प्रभावित नहीं होते, क्योंकि ऐसा समझौता मालिकाना हक स्थानांतरित या समाप्त नहीं करता। 

 मामला चंद खान की संपत्ति से संबंधित था, जो बिना उत्तराधिकारी और संतान के निधन हो गया। उनकी विधवा, ज़ोहरबी (अपीलकर्ता), ने दावा किया कि मुस्लिम कानून के तहत उन्हें संपत्ति का तीन-चौथाई हिस्सा मिलना चाहिए। मृतक के भाई (प्रतिवादी) ने तर्क दिया कि मृतक द्वारा जीवनकाल में संपन्न किए गए बिक्री समझौते के तहत संपत्ति का एक हिस्सा पहले ही हस्तांतरित हो गया था, इसलिए इसे वारिसी पूल से बाहर रखा जाना चाहिए। ट्रायल कोर्ट ने यह मान लिया, लेकिन अपीलेट कोर्ट और हाई कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि बिक्री समझौते से मालिकाना हक पैदा नहीं होता। 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट की धारा 54 के तहत, बिक्री का समझौता स्वयं में अचल संपत्ति का मालिकाना हक नहीं देता। चूंकि कोई रजिस्टर्ड सेल डीड नहीं बनाई गई थी, मृतक की मृत्यु तक संपत्ति उसी के नाम रही, और इसलिए यह मौरुक्का (matruka) संपत्ति का हिस्सा बनी, जिसे कानूनी वारिसों में बांटना था। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने मुस्लिम कानून के तहत मौरुक्का और उत्तराधिकार की अवधारणा पर विस्तृत चर्चा की। 

उन्होंने बताया कि मौरुक्का में मृतक मुस्लिम द्वारा छोड़ी गई सभी चल और अचल संपत्तियाँ शामिल होती हैं। वितरण से पहले, वैध वसीयत (जो अधिकतम एक-तिहाई तक हो सकती है) और मृतक के ऋण चुकाए जाते हैं। शेष संपत्ति फिर कुरान में निर्धारित हिस्सों के अनुसार वारिसों में बाँटी जाती है। 

 कोर्ट ने कहा कि कुरान के अध्याय IV, आयत 12 के अनुसार, विधवा को यदि संतान नहीं है तो पति की संपत्ति का एक-चौथाई हिस्सा मिलता है, और यदि संतान है तो केवल एक-आठवां हिस्सा। इस मामले में चंद खान के कोई संतान नहीं थी, इसलिए उनकी विधवा केवल ¼ हिस्सेदारी की हकदार थी। शेष हिस्सा अन्य वारिसों, जिनमें भाई भी शामिल हैं, में बाँटा गया। 

सुप्रीम कोर्ट ने विधवा की याचिका खारिज करते हुए यह स्पष्ट किया कि मुस्लिम कानून के तहत वारिसों के लिए कुरान में निर्धारित हिस्सेदारी मान्य होती है। यदि विधवा के कोई संतान या पोते-पोती नहीं हैं, तो उन्हें ¼ हिस्सा मिलता है; यदि संतान है, तो हिस्सेदारी घटकर 1/8 हो जाती है। कोर्ट ने कहा,“मुस्लिम वारिस कानून यह दर्शाता है कि सभी वारिसों को तय हिस्सेदारी मिलती है और पत्नी को वारिस के रूप में 1/8 हिस्सा मिलता है, लेकिन यदि कोई संतान या पोता नहीं है, तो पत्नी को मिलने वाला हिस्सा 1/4 है।”


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/mohammedan-law-muslim-widow-husbands-estate-supreme-court-307291

Thursday, 16 October 2025

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम | अदालत से प्रमाणित वसीयत को राज्य चुनौती नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम | अदालत से प्रमाणित वसीयत को राज्य चुनौती नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह फैसला दिया कि यदि किसी हिंदू पुरुष ने वसीयत (Will) बनाई है, जो अदालत द्वारा वैध घोषित की जा चुकी है और जिसे प्रोबेट (Probate) भी मिल चुका है, तो राज्य सरकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 29 के तहत एस्कीट (Escheat) के सिद्धांत का उपयोग नहीं कर सकती। यह फैसला जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस एस.सी. शर्मा की खंडपीठ ने दिया। मामला खेतीड़ी (राजस्थान) के राजा बहादुर सरदार सिंह की वसीयत से जुड़ा है, जिनका निधन 1987 में हुआ था। वसीयत (दिनांक 30 अक्टूबर, 1985) के अनुसार, उनकी सारी संपत्ति “खेतीड़ी ट्रस्ट” नामक एक लोकहितकारी चैरिटेबल ट्रस्ट को दी जानी थी।


https://hindi.livelaw.in/round-ups/supreme-court-monthly-round-up-september-2025-306954

S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए

S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए 

16 Sept 2025  CrPCC की धारा 223 (अब BNSS की धारा 243) की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहां एक ही लेन-देन से उत्पन्न अपराधों में कई अभियुक्त शामिल हों, वहां संयुक्त सुनवाई स्वीकार्य है। अलग सुनवाई तभी उचित होगी जब प्रत्येक अभियुक्त के कृत्य अलग-अलग और पृथक करने योग्य हों। न्यायालय ने संयुक्त सुनवाई के संबंध में निम्नलिखित प्रस्ताव रखे:- 

(i) CrPC की धारा 218 के अंतर्गत अलग सुनवाई का नियम है। संयुक्त सुनवाई की अनुमति तब दी जा सकती है, जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों या CrPC की धारा 219-223 की शर्तें पूरी होती हों। हालांकि, तब भी यह न्यायिक विवेकाधिकार का विषय है। 

(ii) संयुक्त या अलग सुनवाई आयोजित करने का निर्णय सामान्यतः कार्यवाही की शुरुआत में और ठोस कारणों से लिया जाना चाहिए। 

(iii) ऐसे निर्णय लेने में दो सर्वोपरि विचारणीय बिंदु हैं: क्या संयुक्त सुनवाई से अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न होगा, और क्या इससे न्यायिक समय में देरी या बर्बादी होगी? 

(iv) एक मुकदमे में दर्ज साक्ष्य को दूसरे मुकदमे में शामिल नहीं किया जा सकता, जिससे मुकदमे के दो हिस्सों में विभाजित होने पर गंभीर प्रक्रियात्मक जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। 

 (v) दोषसिद्धि या बरी करने के आदेश को केवल इसलिए रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि संयुक्त या पृथक सुनवाई संभव है। हस्तक्षेप तभी उचित है जब पूर्वाग्रह या न्याय का हनन दर्शाया गया हो। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ विधायक मम्मन खान की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी, जिसमें 2023 के नूंह हिंसा मामले में उनके खिलाफ अलग से मुकदमा चलाने के निर्देश देने वाले निचली अदालत के आदेश को बरकरार रखा गया था, जिसमें कथित तौर पर छह लोग मारे गए थे। खान पर अन्य सह-आरोपियों के साथ इसी लेनदेन से उत्पन्न हिंसा को कथित रूप से भड़काने का मामला दर्ज किया गया। 

 हाईकोर्ट का फैसला खारिज करते हुए जस्टिस आर. महादेवन द्वारा लिखित फैसले में कहा गया कि खान के मामले में अलग से मुकदमा चलाने के ट्रायल कोर्ट का आदेश बरकरार रखने में हाईकोर्ट ने गलती की। कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का तर्क त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि कोई अलग तथ्य नहीं है, साक्ष्य अविभाज्य हैं और खान के प्रति कोई पूर्वाग्रह प्रदर्शित नहीं किया गया, जिससे अलगाव को उचित ठहराया जा सके। कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों तो CrPC की धारा 223 के तहत संयुक्त मुकदमा उचित है, क्योंकि एकत्रित सामग्री और साक्ष्य एक ही कथित घटना से संबंधित हैं। 

 खंडपीठ ने कहा, "मौजूदा मामले में अपीलकर्ता के खिलाफ सबूत सह-अभियुक्तों के खिलाफ सबूतों के समान हैं। अलग-अलग मुकदमों में अनिवार्य रूप से उन्हीं गवाहों को फिर से बुलाना शामिल होगा, जिसके परिणामस्वरूप दोहराव, देरी और असंगत निष्कर्षों का जोखिम होगा। हाईकोर्ट ने अलगाव के आदेश की पुष्टि करते हुए इन परिणामों को समझने में विफल रहा और तथ्यात्मक परिस्थितियों के ऐसे अलगाव को उचित ठहराए जाने का मूल्यांकन किए बिना खुद को CrPC की धारा 223 की विवेकाधीन भाषा तक सीमित कर लिया। इसलिए हम मानते हैं कि बिना किसी कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त औचित्य के अपीलकर्ता के मुकदमे को अलग करना कानून की दृष्टि से अस्थिर है। अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अपीलकर्ता के अधिकार का उल्लंघन है।" 

Cause Title: MAMMAN KHAN VERSUS STATE OF HARYANA


Wednesday, 15 October 2025

पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

  11 Sept 2025 सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि पुलिस को FIR दर्ज करते समय शिकायत की सत्यता या विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है; यदि शिकायत में प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो पुलिस FIR दर्ज करने के लिए बाध्य है। अदालत ने कहा, "यदि प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध बनता है तो FIR दर्ज करना पुलिस का कर्तव्य है, पुलिस को उक्त सूचना की सत्यता और विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है।" अदालत ने कहा कि रमेश कुमारी बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2006) 2 एससीसी 677 में यह निर्धारित किया गया कि "सूचना की सत्यता या विश्वसनीयता एफआईआर दर्ज करने के लिए पूर्व शर्त नहीं है।" जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की खंडपीठ ने दिल्ली पुलिस के पूर्व आयुक्त नीरज कुमार और इंस्पेक्टर विनोद कुमार पांडे के खिलाफ FIR दर्ज करने के दिल्ली हाईकोर्ट का निर्देश बरकरार रखते हुए ये टिप्पणियां कीं। यह निर्देश वर्ष 2000 में CBI में प्रतिनियुक्ति के दौरान धमकाने, रिकॉर्ड में हेराफेरी और जालसाजी के आरोपों के बाद दिया गया था।


सेल एग्रीमेंट सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी से संपत्ति का स्वामित्व नहीं मिलेगा: सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया

सेल एग्रीमेंट सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी से संपत्ति का स्वामित्व नहीं मिलेगा: सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया 

सुप्रीम कोर्ट ने पुनः पुष्टि की कि रजिस्टर्ड विक्रय पत्र के बिना अचल संपत्ति का स्वामित्व हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय रद्द कर दिया, जिसमें निचली अदालत के उस आदेश की पुष्टि की गई। इसमें वादी के पक्ष में हस्तांतरण को मान्य करने वाला कोई रजिस्टर्ड विक्रय पत्र निष्पादित न होने के बावजूद, वाद में कब्ज़ा, अनिवार्य निषेधाज्ञा और घोषणा का आदेश दिया गया। 

Cause Title: RAMESH CHAND (D) THR. LRS. VERSUS SURESH CHAND AND ANR.


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S.100 CPC | द्वितीय अपीलों में अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने के लिए हाईकोर्ट को कारण बताना होगा: सुप्रीम कोर्ट

 S.100 CPC | द्वितीय अपीलों में अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने के लिए हाईकोर्ट को कारण बताना होगा: - सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने सिद्धांत निर्धारित किए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट के लिए यह अनिवार्य है कि वे किसी दीवानी मामले में द्वितीय अपील में मूल रूप से न उठाए गए अतिरिक्त विधि प्रश्न को तैयार करते समय कारण दर्ज करें। धारा 100(5) का प्रावधान हाईकोर्ट को अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने की शक्ति प्रदान करता है। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि इस शक्ति का प्रयोग नियमित रूप से नहीं किया जा सकता, बल्कि केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, जिसके लिए हाईकोर्ट द्वारा कारण दर्ज करना आवश्यक हो। 

 Cause Title: C.P. FRANCIS VERSUS C.P. JOSEPH AND OTHERS


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Motor Accident Claims | दावेदार आय प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता तो बीमाकर्ता को लागू न्यूनतम वेतन अधिसूचना प्रस्तुत करनी होगी: सुप्रीम कोर्ट

 Motor Accident Claims | दावेदार आय प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता तो बीमाकर्ता को लागू न्यूनतम वेतन अधिसूचना प्रस्तुत करनी होगी: सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सड़क दुर्घटना में स्थायी रूप से दिव्यांग हो गए एक नाबालिग को दिए जाने वाले मुआवजे की राशि ₹8.65 लाख से बढ़ाकर ₹35.90 लाख कर दी। न्यायालय ने कहा कि आय निर्धारण के लिए नाबालिग को गैर-कमाऊ व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। इसके बजाय, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि नाबालिग की आय को उस राज्य में अधिसूचित कुशल श्रमिक के न्यूनतम वेतन के बराबर माना जाना चाहिए, जहां वाद का कारण उत्पन्न हुआ था। 

Cause Title: HITESH NAGJIBHAI PATEL VERSUS BABABHAI NAGJIBHAI RABARI & ANR.


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Monday, 29 September 2025

Motor Accident Compensation - न्यूनतम मज़दूरी केवल शैक्षिक योग्यता के आधार पर तय नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट 29 Sept 2025

Motor Accident Compensation - न्यूनतम मज़दूरी केवल शैक्षिक योग्यता के आधार पर तय नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट  29 Sept 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यूनतम मज़दूरी किसी व्यक्ति की शैक्षिक योग्यता के आधार पर उसके द्वारा किए जा रहे कार्य की प्रकृति के संदर्भ के बिना निर्धारित नहीं की जा सकती।अदालत मोटर दुर्घटना मुआवज़े के मामले पर निर्णय दे रहा था, जहां आय की मात्रा पर विवाद था। यह मामला एक 20 वर्षीय बी.कॉम फाइनल इयर स्टूडेंट से संबंधित था, जिसने भारतीय चार्टर्ड एकाउंटेंट्स संस्थान में भी दाखिला लिया था। हालांकि, 2001 में एक मोटर दुर्घटना के बाद वह लकवाग्रस्त हो गया और अपनी मृत्यु तक दो दशकों तक बिस्तर पर पड़ा रहा। ट्रिब्यूनल और दिल्ली हाईकोर्ट ने मुआवज़ा देने के उद्देश्य से श्रमिकों के लिए अधिसूचित न्यूनतम मज़दूरी, यानी 3,352 रुपये प्रति माह, लागू करके उसकी आय की गणना की थी। हाईकोर्ट ने तर्क दिया कि हालांकि पीड़ित की शैक्षणिक संभावनाएं थीं, लेकिन उसने अभी तक चार्टर्ड एकाउंटेंट की योग्यता हासिल नहीं की थी। इसलिए उस स्तर पर आय तय नहीं की जा सकती। 

इस दृष्टिकोण से असहमत होते हुए जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की खंडपीठ ने कहा कि न्यूनतम मजदूरी अनुसूची केवल शैक्षणिक योग्यता के आधार पर लागू नहीं की जा सकती। अदालत ने कहा, "हम इस बात से सहमत नहीं हैं कि न्यूनतम मजदूरी केवल शैक्षणिक योग्यता के आधार पर निर्धारित की जाएगी, बिना कार्य की प्रकृति के संदर्भ के।" साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि इन परिस्थितियों में कुशल श्रमिक की मजदूरी अपनाना भी उचित नहीं है। यह ध्यान में रखते हुए कि पीड़ित ग्रेजुएट होने पर एकाउंटेंट के रूप में नियोजित हो सकता था, अदालत ने प्रणय सेठी के अनुसार, भविष्य की संभावनाओं के लिए 40% अतिरिक्त के साथ, 2001 में 5,000 रुपये मासिक आय निर्धारित की। 

 इस आधार पर अदालत ने मुआवजे की राशि बढ़ाकर 40.34 लाख रुपये की। साथ ही बीमाकर्ता को पीड़ित के माता-पिता द्वारा उसके जीवनकाल में किए गए सत्यापित मेडिकल व्यय के लिए 20 लाख रुपये अतिरिक्त भुगतान करने का निर्देश दिया। यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि आय के नुकसान का आकलन करते समय अदालतों को न्यूनतम मजदूरी के कठोर वर्गीकरण से परे देखना चाहिए और पीड़ितों की वास्तविक रोजगार संभावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए। 

Case : Sharad Singh v HD Narang


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Thursday, 25 September 2025

पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती, केवल मूल डिक्री/आदेश ही अपील योग्य: सुप्रीम कोर्ट 24 Sept 2025

पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती, केवल मूल डिक्री/आदेश ही अपील योग्य: सुप्रीम कोर्ट  24 Sept 2025 

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (23 सितंबर) को फैसला सुनाया कि पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश को स्वतंत्र रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह केवल मूल आदेश या डिक्री की पुष्टि करता है। इसलिए पीड़ित पक्ष को मूल आदेश या डिक्री को ही चुनौती देनी चाहिए, न कि पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश को। कोर्ट ने कहा कि जब पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी जाती है तो मूल डिक्री का बर्खास्तगी आदेश के साथ विलय नहीं होता है। 

कोर्ट ने स्पष्ट किया: “जब भी किसी डिक्री या आदेश से व्यथित कोई पक्ष धारा 114 के साथ पठित आदेश XLVII, CPC में निर्दिष्ट मापदंडों के आधार पर उस पर पुनर्विचार की मांग करता है और आवेदन अंततः विफल हो जाता है तो पुनर्विचाराधीन डिक्री या आदेश में कोई परिवर्तन नहीं होता है। यह अक्षुण्ण रहता है। ऐसी स्थिति में पुनर्विचार के अस्वीकृति आदेश में पुनर्विचाराधीन डिक्री या आदेश का विलय नहीं होता है, क्योंकि ऐसी अस्वीकृति डिक्री या आदेश में कोई परिवर्तन या संशोधन नहीं लाती है; बल्कि, इसके परिणामस्वरूप डिक्री या आदेश की पुष्टि होती है। चूंकि किसी विलय का कोई प्रश्न ही नहीं है, इसलिए पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति से व्यथित पक्ष को, जैसा भी मामला हो, डिक्री या आदेश को चुनौती देनी होगी, न कि पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति के आदेश को।” 

अदालत ने आगे कहा, "इसके विपरीत यदि पुनर्विचार याचिका स्वीकार कर ली जाती है और वाद या कार्यवाही पुनर्विचार के लिए रखी जाती है तो नियम 7(1) पीड़ित पक्ष को पुनर्विचार की अनुमति देने वाले आदेश पर तुरंत आपत्ति करने या वाद में अंतिम रूप से पारित या दिए गए आदेश या डिक्री के विरुद्ध अपील करने की अनुमति देता है, अर्थात विवादित मामले की पुनर्विचार के बाद।" जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें दो विशेष अनुमति याचिकाएं दायर की गई थीं, एक हाईकोर्ट के आदेश की पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति के विरुद्ध और दूसरी हाईकोर्ट के मूल आदेश के विरुद्ध। 

 जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित निर्णय में दोनों विशेष अनुमति याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज किया गया कि स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि इसमें केवल पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति को चुनौती दी गई। दूसरी पर रोक लगा दी गई, क्योंकि इसे पुनः दाखिल करने की अनुमति प्राप्त किए बिना पिछली विशेष अनुमति याचिका को बिना शर्त वापस लेने के बाद पुनः दाखिल किया गया।

 Cause Title: SATHEESH V.K. VERSUS THE FEDERAL BANK LTD.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/order-rejecting-review-cannot-be-challenged-only-original-decreeorder-appealable-supreme-court-304972

Tuesday, 23 September 2025

यदि उसी आदेश के विरुद्ध पहली विशेष अनुमति याचिका बिना शर्त वापस ले ली गई हो तो दूसरी विशेष अनुमति याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी: सुप्रीम कोर्ट 23 Sept 2025

यदि उसी आदेश के विरुद्ध पहली विशेष अनुमति याचिका बिना शर्त वापस ले ली गई हो तो दूसरी विशेष अनुमति याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी: सुप्रीम कोर्ट  23 Sept 2025

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (23 सितंबर) को कहा कि एक बार विशेष अनुमति याचिका (SLP) बिना शर्त वापस ले ली गई हो तो उसी आदेश को चुनौती देने वाली दूसरी विशेष अनुमति याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी। अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि यदि आक्षेपित आदेश के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी जाती है तो उसके बाद न तो पुनर्विचार याचिका की बर्खास्तगी को और न ही मूल आदेश को चुनौती दी जा सकती है। अदालत ने कहा, “किसी पक्षकार के कहने पर दूसरी विशेष अनुमति याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी, जो पहले की विशेष अनुमति याचिका में दी गई चुनौती पर आगे नहीं बढ़ना चाहता और नई विशेष अनुमति याचिका दायर करने की अनुमति प्राप्त किए बिना ऐसी याचिका वापस ले लेता है; यदि ऐसा पक्षकार उस अदालत के समक्ष पुनर्विचार याचिका दायर करता है, जिसके आदेश से विशेष अनुमति याचिका शुरू में दायर की गई। पुनर्विचार याचिका विफल हो जाती है तो वह न तो पुनर्विचार याचिका को खारिज करने वाले आदेश को और न ही उस आदेश को चुनौती दे सकता है, जिसके पुनर्विचार की मांग की गई।” जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने केरल हाईकोर्ट से उत्पन्न मामले की सुनवाई की, जिसने अपीलकर्ता सतीश को किश्तों में ऋण की बकाया राशि चुकाने का निर्देश दिया था। इसे चुनौती देते हुए उन्होंने 2024 में SLP के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हालांकि, 28 नवंबर, 2024 को जब न्यायालय ने गुण-दोष पर संदेह व्यक्त किया तो वकील ने बिना किसी शर्त के नए सिरे से याचिका दायर करने की स्वतंत्रता मांगे बिना याचिका वापस ले ली। इसके बाद अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने दो नई विशेष अनुमति याचिकाएं दायर कीं, अर्थात् एक मूल हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध और दूसरी पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश के विरुद्ध। ये विशेष अनुमति याचिकाएं वर्तमान अपीलों में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आईं। सीपीसी के आदेश XXIII नियम 1 का संदर्भ लेते हुए जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया कि एक बार जब कोई वादी बिना किसी स्वतंत्रता के याचिका वापस ले लेता है तो उसे उसी वाद-कारण पर नई याचिका दायर करने से रोक दिया जाता है। अदालत ने उपाध्याय एंड कंपनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1999) मामले पर भरोसा किया, जिसमें इस सीपीसी सिद्धांत को SLP पर भी स्पष्ट रूप से लागू किया गया। अदालत ने कहा कि जो पक्षकार नई SLP दायर करने की स्वतंत्रता प्राप्त किए बिना SLP वापस ले लेता है, वह बाद में उसी आदेश को नई SLP के माध्यम से फिर से चुनौती नहीं दे सकता। अदालत ने कहा, "उपाध्याय एंड कंपनी (सुप्रा), जो समय की दृष्टि से कुन्हायम्मद (सुप्रा) से पहले आता है, अभी भी इस क्षेत्र में कानून का पालन करता है। स्पष्ट रूप से यह घोषित करता है कि सीपीसी के आदेश XXIII नियम 1 से निकलने वाला सिद्धांत इस अदालत के समक्ष प्रस्तुत विशेष अनुमति याचिकाओं पर भी लागू होता है।" अदालत ने इस सिद्धांत पर जोर दिया कि मुकदमेबाजी का अंत जनहित में है। ऐसी परिस्थितियों में दूसरी SLP पर विचार करना इस सिद्धांत का उल्लंघन होगा और अदालत के अपने पूर्व आदेश, जो वापसी पर अंतिम हो गया, उसके विरुद्ध अपील करने के समान होगा। अदालत ने कहा, "हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान प्रकृति के किसी मामले में SLP पर विचार करना लोक नीति के विरुद्ध होगा और यहां तक कि इस अदालत के पूर्व आदेश, जो अंतिम हो चुका है, उसके विरुद्ध अपील करने के समान भी हो सकता है। जनहित में यह सर्वमान्य है कि मुकदमेबाजी का अंत हो।" यह कथन चारों ओर लागू होगा, जब यह पाया जाता है कि किसी आदेश को चुनौती देने वाली कार्यवाही SLP वापस लेने के कारण आगे नहीं बढ़ाई गई और वादी कुछ समय बाद उसी आदेश को चुनौती देने के लिए उसी अदालत में वापस आ गया, जिस पर पहले चुनौती दी गई थी और उस चुनौती पर आगे कार्रवाई नहीं की गई। यह एक ऐसा कदम है, जिसे न तो सिद्धांत रूप में और न ही सिद्धांत रूप में उचित ठहराया जा सकता है।" अदालत ने आगे कहा कि पुनर्विचार याचिका की बर्खास्तगी के विरुद्ध आदेश XLVII नियम 7 CPC के आलोक में अपील सुनवाई योग्य नहीं है, जो पुनर्विचार को खारिज

करने वाले आदेश के विरुद्ध अपील पर रोक लगाता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसी बर्खास्तगी मूल आदेश को नहीं बदलती, बल्कि केवल उसकी पुष्टि करती है। इसलिए इसे स्वतंत्र रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती। यद्यपि याचिकाकर्ता ने कहा कि पुनर्विचार आदेश को चुनौती देने वाली दूसरी SLP की सुनवाई योग्यता का प्रश्न एस नरहरि एवं अन्य बनाम एसआर कुमार एवं अन्य मामले में एक वृहद पीठ को भेजा गया, पीठ ने उक्त मामले को इस प्रकार विभेदित किया कि उसमें पुनर्विचार याचिका दायर करने की स्वतंत्रता मांगी गई। हालांकि, इस मामले में ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं मांगी गई। पीठ ने एनएफ रेलवे वेंडिंग एंड कैटरिंग कॉन्ट्रैक्टर्स एसोसिएशन, लुमडिंग डिवीजन बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में हाल ही में दिए गए फैसले का भी हवाला दिया। अपीलकर्ता ने कुन्हयाम्मेद बनाम केरल राज्य (2000) और खोदे डिस्टिलरीज लिमिटेड (2019) के मामलों का हवाला दिया, जिनमें बिना किसी स्पष्ट आदेश के विशेष अनुमति याचिकाओं को खारिज किए जाने के बावजूद पुनर्विचार याचिकाओं की सुनवाई योग्यता को मान्यता दी गई। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि वे मामले खारिज करने से संबंधित थे, स्वैच्छिक वापसी से नहीं। यहां, न्यायालय में पुनः जाने की कोई स्वतंत्रता नहीं दी गई। तदनुसार, अपील खारिज कर दी गई। 

Cause Title: SATHEESH V.K. VERSUS THE FEDERAL BANK LTD.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/second-special-leave-petition-not-maintainable-if-first-slp-against-same-order-was-withdrawn-unconditionally-supreme-court-304875 

SARFAESI Act सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों के पूर्वव्यापी अनुप्रयोग के सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया

SARFAESI Act सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों के पूर्वव्यापी अनुप्रयोग के सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया 23 Sept 2025 

 हाल ही में दिए गए एक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों के पूर्वव्यापी अनुप्रयोग के सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने यह विचार-विमर्श करते हुए कहा कि SARFAESI Act की धारा 13(8) में 2016 का संशोधन, संशोधन लागू होने से पहले लिए गए ऋणों पर लागू होगा, यदि चूक संशोधन के बाद हुई हो। खंडपीठ ने सिद्धांतों का सारांश इस प्रकार प्रस्तुत किया: 

(i) पूर्वव्यापी प्रभाव के विरुद्ध उपधारणा उन अधिनियमों पर लागू नहीं होती, जो केवल प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं या मंच बदलते हैं या घोषणात्मक हैं। 

(ii) पूर्वव्यापी प्रभाव किसी प्रावधान में उस संदर्भ में निहित हो सकता है जहाँ वह घटित होता है। 

(iii) संदर्भ को देखते हुए किसी प्रावधान को ऐसे प्रावधान के लागू होने के बाद वाद हेतुक पर लागू माना जा सकता है, भले ही जिस दावे पर वाद आधारित हो, वह पूर्ववर्ती तिथि का हो। 

(iv) एक उपचारात्मक क़ानून लंबित कार्यवाहियों पर लागू होता है। यदि आवेदन किसी लंबित वाद हेतुक के संदर्भ में भविष्य में किया जाना है तो ऐसे आवेदन को पूर्वव्यापी नहीं माना जा सकता है। 

(v) SARFAESI Act एक उपचारात्मक क़ानून है, जिसका उद्देश्य पूर्व-विद्यमान ऋण लेनदेन की समस्या से निपटना है, जिसकी शीघ्र वसूली आवश्यक है। 

Cause Title: M. RAJENDRAN & ORS. VERSUS M/S KPK OILS AND PROTIENS INDIA PVT. LTD. & ORS.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/supreme-court-summarises-principles-on-retrospective-application-of-laws-304855 

सुप्रीम कोर्ट ने 1971 के विक्रय पत्र मामले में 71 वर्षीय महिला के खिलाफ FIR दर्ज कराने वाले वकील को फटकार लगाई 22 Sept 2025

सुप्रीम कोर्ट ने 1971 के विक्रय पत्र मामले में 71 वर्षीय महिला के खिलाफ FIR दर्ज कराने वाले वकील को फटकार लगाई 22 Sept 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने वकील को यह बताने का निर्देश दिया कि पांच दशक से भी पहले, 1971 में निष्पादित विक्रय पत्र में जालसाजी का आरोप लगाते हुए 2023 में FIR दर्ज कराने के लिए उन पर अनुकरणीय जुर्माना क्यों न लगाया जाए। यह देखते हुए कि यह मामला कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत होता है, अदालत ने संबंधित थाना प्रभारी को भी कारण बताने के लिए कहा कि कार्यवाही को रद्द क्यों न कर दिया जाए। FIR में आरोपी एक 71 वर्षीय महिला है। 

जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस एनके सिंह की पीठ उस महिला द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रही थी, जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था। अदालत ने याचिका खारिज करने के "लापरवाह" तरीके के लिए हाईकोर्ट की आलोचना की। याचिकाकर्ता महिला की गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए पीठ ने कहा, "यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता एक 71 वर्षीय महिला हैं। उस महिला की अग्रिम ज़मानत की प्रार्थना को अतार्किक रूप से अस्वीकार कर दिया, *जबकि वह न तो विक्रेता हैं, न ही क्रेता, न ही 21.08.1971 के विक्रय पत्र की गवाह या लाभार्थी।* जिस लापरवाही से यह आदेश पारित किया गया, वह आत्मनिरीक्षण का विषय है। इस समय हम इससे अधिक कुछ नहीं कहेंगे।" 

अदालत ने कहा कि प्रतिवादी नंबर 2-शिकायतकर्ता पेशे से वकील हैं और वे सेवा से बच रहे हैं। इसलिए अदालत ने अगली तारीख पर उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए ज़मानती वारंट जारी किए। अदालत ने आगे कहा कि यदि शिकायतकर्ता नोटिस स्वीकार करने में कोई अनिच्छा दिखाता है तो उसकी उपस्थिति गैर-ज़मानती वारंट के माध्यम से सुनिश्चित की जाएगी। *चूंकि शिकायतकर्ता ने 1971 के विक्रय पत्र में जालसाजी का आरोप लगाते हुए 2023 में FIR दर्ज कराई,* इसलिए अदालत ने उनसे कारण बताओ नोटिस जारी करने को भी कहा कि उन पर कठोर दंड क्यों न लगाया जाए। अदालत ने संबंधित थाने के प्रभारी को FIR दर्ज करने से संबंधित मूल अभिलेख प्रस्तुत करने और कारण बताओ नोटिस जारी करने को भी कहा कि कार्यवाही को रद्द क्यों न कर दिया जाए, क्योंकि प्रथम दृष्टया यह कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत होता है। यह मामला अगली सुनवाई 8 अक्टूबर को सूचीबद्ध है। 

Case Title: USHA MISHRA VERSUS STATE OF U.P. & ANR., SLP(Crl.) No(s). 9346/2025

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/supreme-court-hauls-up-advocate-who-lodged-fir-against-71-year-old-woman-alleging-forgery-in-1971-sale-deed-304627

Sunday, 21 September 2025

म.प्र. हाई कोर्ट ने शिवपुरी श्री विवेक शर्मा प्रथम सेशन जज के खिलाफ की विभागीय जांच की सिफारिश की

भ्रष्टाचार मामले में म.प्र. हाई कोर्ट ने शिवपुरी श्री विवेक शर्मा प्रथम सेशन जज के खिलाफ की विभागीय जांच की सिफारिश की

 मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने सेशन जज के खिलाफ विभागीय जांच और अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की। अदालत ने पाया कि जज ने ज़मीन अधिग्रहण कार्यालय में कार्यरत सरकारी कंप्यूटर ऑपरेटर जिस पर 5 करोड़ रुपये की सार्वजनिक धनराशि गबन करने का आरोप है, उनके खिलाफ गंभीर धाराओं को नज़रअंदाज़ कर केवल हल्की धारा कायम रखी, जिससे उसे अनुचित लाभ मिला। जस्टिस राजेश कुमार गुप्ता की पीठ ने आदेश दिया कि इस मामले की प्रति प्रिंसिपल रजिस्ट्रार (विजिलेंस), हाईकोर्ट ऑफ़ मध्यप्रदेश, जबलपुर को भेजी जाए और माननीय चीफ जस्टिस के समक्ष प्रस्तुत की जाए ताकि संबंधित सेशन जज (विवेक शर्मा, प्रथम एडिशनल सेशन जज शिवपुरी) के खिलाफ जांच और अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुमति ली जा सके। 

यह मामला शिवपुरी ज़िले में ज़मीन अधिग्रहण के मुआवज़े से जुड़े धन के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग से संबंधित है। आरोप है कि कंप्यूटर ऑपरेटर रूपसिंह परिहार ने फर्जी दस्तावेज़ों का इस्तेमाल कर 5.10 करोड़ रुपये अपनी निजी खातों में ट्रांसफ़र कर लिए। राज्य की ओर से यह भी बताया गया कि आरोपी ने राजस्व अभिलेखों में आग लगाई, जिस पर अलग से FIR दर्ज की गई। अदालत ने गौर किया कि मामले में यह दिखाने का कोई सबूत नहीं है कि वास्तव में आवेदक की ज़मीन सरकार ने अधिग्रहित की थी, जिसके एवज़ में उसे इतनी बड़ी राशि मिलती। बावजूद इसके सेशन जज ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 409, 420, 467, 468 और 471 समेत भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धाराओं को हटाकर केवल IPC की धारा 406 (आपराधिक न्यासभंग) कायम रखी। हाईकोर्ट ने टिप्पणी की कि यह प्रतीत होता है कि प्रथम अडिशनल सेशन जज ने जानबूझकर केवल IPC की धारा 406 के अंतर्गत आरोप कायम किया ताकि आवेदक को ज़मानत का अनुचित लाभ मिल सके। हाईकोर्ट ने अंततः आरोपी की ज़मानत याचिका खारिज कर दी और मामले को चीफ जस्टिस के पास विभागीय कार्रवाई के लिए भेज दिया।


https://hindi.livelaw.in/madhya-pradesh-high-court/madhya-pradesh-high-court-justice-rajesh-kumar-gupta-embezzlement-of-public-money-gwalior-bench-304367

Saturday, 20 September 2025

S. 482 CrPC/S. 528 BNSS | कुछ FIR रद्द करने वाली याचिकाओं में हाईकोर्ट को मामला दायर करने की पृष्ठभूमि भी समझना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

 S. 482 CrPC/S. 528 BNSS | कुछ FIR रद्द करने वाली याचिकाओं में हाईकोर्ट को मामला दायर करने की पृष्ठभूमि भी समझना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (18 सितंबर) को हाईकोर्ट को केवल FIR की विषय-वस्तु के आधार पर याचिकाओं को यंत्रवत् खारिज करने के प्रति आगाह किया। इस बात पर ज़ोर दिया कि कुछ मामलों में FIR दायर करने के परिवेश और परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि हाईकोर्ट को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि क्या FIR किसी जवाबी हमले का परिणाम थी या वादी को परेशान करने के किसी अप्रत्यक्ष उद्देश्य से प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के रूप में दर्ज की गई।


अदालत ने कहा, “हालांकि यह सच है कि इस स्तर पर विस्तृत बचाव और रिकॉर्ड में पेश किए गए साक्ष्यों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए। यह भी उतना ही सच है कि यंत्रवत् दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं किया जा सकता। न्यायिक सोच को जो चीज़ विशिष्ट बनाती है, वह है कानून के अनुसार दिए गए तथ्यों पर उसका प्रयोग। इसलिए अदालत को कम से कम कुछ हद तक उस पृष्ठभूमि को समझना चाहिए, जिसमें प्रतिवादी ने संबंधित एफआईआर दर्ज की थी।” सीबीआई बनाम आर्यन सिंह और राजीव कौरव बनाम बाईसाहब जैसे फैसलों का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि CrPC की धारा 482 के स्तर पर हाईकोर्ट से केवल अपराध की प्रथम दृष्टया संभावना पर ही विचार करने की अपेक्षा की जाती है। हालांकि, कुछ मामलों में पृष्ठभूमि को भी समझना आवश्यक है। 

जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट की आलोचना की कि उसने परिस्थितियों पर विचार किए बिना ही FIR रद्द करने से यांत्रिक रूप से इनकार कर दिया। हाईकोर्ट ने FIR दर्ज करने के संदर्भ को नज़रअंदाज़ किया और केवल FIR की विषयवस्तु पर यह कहते हुए भरोसा किया कि चूंकि आरोप लगाए जा चुके हैं और जांच प्रारंभिक चरण में थी, इसलिए हस्तक्षेप करना "बहुत जल्दबाजी" होगी। जून, 2013 में दंपति अलग हो गए और पत्नी अपने बच्चे के साथ ऑस्ट्रेलिया चली गई। बाद के मुकदमों में ऑस्ट्रेलियाई अदालतों ने उसे हेग कन्वेंशन के तहत बार-बार बच्चे को ऑस्ट्रेलिया वापस भेजने का निर्देश दिया, लेकिन उसने इन आदेशों की अवहेलना की। इस बीच अप्रैल, 2016 में ऑस्ट्रेलियाई अदालत ने पति के पक्ष में तलाक दे दिया।  बमुश्किल एक महीने बाद मई, 2016 में पत्नी ने पंजाब में FIR दर्ज कराई, जिसमें विवाह के दौरान क्रूरता और दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाया गया। हाईकोर्ट का फैसला खारिज करते हुए जस्टिस करोल द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि हाईकोर्ट यह ध्यान देने में विफल रहा कि पत्नी द्वारा दर्ज कराई गई FIR प्रतिशोधात्मक कदम और कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग थी, जो पति के पक्ष में तलाक का आदेश दिए जाने के एक महीने बाद दर्ज कराई गई। 

 अदालत ने पत्नी की FIR को पति के विरुद्ध प्रतिवाद पाया, "यहां, प्रतिवादी ने तलाक के एक महीने बाद शिकायत दर्ज कराई। यह मानते हुए कि कानून द्वारा ऐसा करना स्पष्ट रूप से निषिद्ध नहीं है, यह निश्चित रूप से प्रश्न उठाता है कि लगभग तीन वर्षों से अपीलकर्ता से अलग रहने के बावजूद, प्रतिवादी ने उस प्रासंगिक समय पर पुलिस में आवेदन दायर करने पर विचार क्यों किया। यह संभावना मानना ​​कि यह इस तथ्य के विपरीत प्रतिवाद मात्र है कि अपीलकर्ता के पक्ष में दो आदेश हैं, एक ऑस्ट्रिया की अदालतों द्वारा प्रतिवादी को बच्चे को ऑस्ट्रेलिया वापस लाने का आदेश और दूसरा, ऑस्ट्रेलिया की अदालतों द्वारा अपीलकर्ता की तलाक की प्रार्थना को स्वीकार करना, अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लगता।" तदनुसार, अदालत ने अपील स्वीकार कर ली। 

Cause Title: NITIN AHLUWALIA Versus STATE OF PUNJAB & ANR.

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/s-482-crpcs-528-bnss-in-some-fir-quashing-pleas-high-court-must-appreciate-background-in-which-case-was-filed-supreme-court-304403

मांग नोटिस में चेक की सही राशि का उल्लेख नहीं है तो NI Act की धारा 138 के तहत शिकायत सुनवाई योग्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

मांग नोटिस में चेक की सही राशि का उल्लेख नहीं है तो NI Act की धारा 138 के तहत शिकायत सुनवाई योग्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/s138-ni-act-complaint-not-maintainable-if-demand-notice-didnt-mention-exact-cheque-amount-supreme-court-304521

Tuesday, 16 September 2025

सिर्फ़ रुपये की बरामदगी रिश्वत नहीं मानी जाएगी, मांग का सबूत ज़रूरी

सिर्फ़ रुपये की बरामदगी रिश्वत नहीं मानी जाएगी, मांग का सबूत ज़रूरी

: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट Praveen Mishra 16 Sept 2025

 हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक वन अधिकारी की बरी होने की सज़ा को बरकरार रखा है, जिस पर ₹3000 रिश्वत मांगने और लेने का आरोप था। कोर्ट ने कहा कि सिर्फ़ आरोपी के पास रंगे हाथ पकड़े गए नोट मिलना रिश्वत साबित करने के लिए काफ़ी नहीं है, जब तक अवैध मांग और स्वेच्छा से स्वीकार करने का सबूत न हो। जस्टिस सुशील कुक्रेजा ने कहा कि मांग और स्वीकार्यता के अभाव में अभियोजन अपना केस संदेह से परे साबित करने में नाकाम रहा और ट्रायल कोर्ट ने सही ढंग से आरोपी को बरी किया। मामला 2010 का है, जब आरोपी ब्लॉक फॉरेस्ट ऑफिसर के पद पर था। उस पर पेड़ काटने की अनुमति और लकड़ी पर एक्सपोर्ट हैमर लगाने के लिए ₹3000 रिश्वत मांगने का आरोप लगा। विजिलेंस ने ट्रैप बिछाया और आरोपी से नोट बरामद हुए। लेकिन ट्रायल में यह साबित नहीं हुआ कि आरोपी ने रिश्वत मांगी या ली। राज्य ने धारा 7 तथा धारा 13(1)(d) सहपठित धारा 13(2), भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत बरी करने के आदेश को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने पाया कि गवाहों ने अभियोजन का साथ नहीं दिया और प्री-ट्रैप व पोस्ट-ट्रैप कार्यवाही से इनकार किया। इस वजह से अभियोजन को कोई लाभ नहीं मिला। अंततः हाईकोर्ट ने बरी को बरकरार रखते हुए आरोपी को ₹50,000 का निजी मुचलका और इतनी ही राशि की एक जमानत देने का निर्देश दिया।


https://hindi.livelaw.in/himanchal-high-court/recovery-of-money-demand-of-bribery-accused-304154

बिना आरोप पत्र दाखिल किए आपराधिक मामला लंबित होने पर पदोन्नति से इनकार नहीं किया जा सकता

बिना आरोप पत्र दाखिल किए आपराधिक मामला लंबित होने पर पदोन्नति से इनकार नहीं किया जा सकता: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट Shahadat 16 Sept 2025 

 हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा कि किसी आपराधिक मामले का लंबित होना, जिसमें आरोप पत्र दाखिल न किया गया हो, विभागीय जांच में सभी आरोपों से बरी हुए कर्मचारी को पदोन्नति से वंचित करने का आधार नहीं हो सकता। 

जस्टिस संदीप शर्मा ने कहा: "निश्चित रूप से याचिकाकर्ता को कोई आरोप पत्र नहीं दिया गया। हालांकि, संबंधित मजिस्ट्रेट को आगे की जांच का आदेश देने का पूरा अधिकार है। हालांकि, ऐसा कोई भी तथ्य, यदि कोई हो, प्रतिवादियों को उच्च पद पर पदोन्नति से वंचित करने का आधार नहीं बन सकता, खासकर जब आरोप पत्र अभी तक तय नहीं किया गया हो।" 

में चंदे राम नामक व्यक्ति के खिलाफ 1 क्विंटल 7 किलोग्राम 500 गांजा बरामद होने के बाद NDPS का मामला दर्ज किया गया। ट्रायल कोर्ट ने उसे 20 साल की सजा सुनाई थी। ट्रायल कोर्ट के आदेश से व्यथित होकर उसने अपील दायर की। अपील के दौरान, हाईकोर्ट की खंडपीठ ने अभियोजन पक्ष से उस शेड के दरवाजे पर कथित रूप से इस्तेमाल किए गए ताले पेश करने को कहा, जहां से चरस बरामद की गई। यद्यपि ताले पुलिस के गोदाम से लाए गए। हालांकि, चाबियां ताले से मेल नहीं खाती हैं, जिससे मामले की संपत्ति के साथ छेड़छाड़ या गलत तरीके से इस्तेमाल किए जाने का संदेह पैदा हुआ। 

इसके बाद विसंगतियों के कारण खंडपीठ ने पुलिस महानिदेशक को संबंधित अवधि के दौरान पुलिस गोदाम के प्रभारी सभी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ जाँच करने का निर्देश दिया। इसके आधार पर याचिकाकर्ता के खिलाफ वर्तमान में मानद हेड कांस्टेबल के रूप में कार्यरत है। मामले की संपत्ति के कुप्रबंधन के लिए धारा 409 (जनता द्वारा आपराधिक विश्वासघात) और 120-बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत FIR दर्ज की गई, जिसमें अन्य 7 लोग भी शामिल थे, जो सह-आरोपी हैं। 

 अधिकारियों के खिलाफ जांच की गई और उसके बाद 02.04.2012 को याचिका को दोषमुक्त कर दिया गया। जांच एजेंसी ने अज्ञात रिपोर्ट दाखिल की। हालांकि, हिमाचल प्रदेश के कुल्लू स्थित लाहौल एवं स्पीति के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और पुलिस को मामले की आगे जांच करने का निर्देश दिया। बाद में विभागीय कार्यवाही में याचिकाकर्ता को दोषमुक्त किए जाने के बावजूद, HASI के पद पर पदोन्नति के लिए याचिकाकर्ता पर विचार नहीं किया गया। 

पेंशन न देने... पदोन्नति से इनकार किए जाने से व्यथित होकर उन्होंने हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें तर्क दिया गया कि जब विभागीय जांच में अधिकारी को दोषमुक्त कर दिया गया और कोई आरोप-पत्र दाखिल नहीं किया गया तो पदोन्नति से इनकार नहीं किया जा सकता। अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता को कोई आरोप-पत्र नहीं दिया गया, बल्कि जांच एजेंसी ने तीन बार अज्ञात रिपोर्ट दाखिल की। हालांकि, संबंधित मजिस्ट्रेट अज्ञात रिपोर्ट से संतुष्ट न होने के कारण आगे की जांच के आदेश दे चुके हैं। 

इस प्रकार, याचिकाकर्ता ने याचिका स्वीकार कर ली।


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Saturday, 13 September 2025

समय-सीमा कानून सरकार और नागरिकों पर समान रूप से लागू: सुप्रीम कोर्ट ने 11 साल की देरी को माफ करने वाले हाईकोर्ट के आदेश को रद्द किया

समय-सीमा कानून सरकार और नागरिकों पर समान रूप से लागू: सुप्रीम कोर्ट ने 11 साल की देरी को माफ करने वाले हाईकोर्ट के आदेश को रद्द किया 


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Wednesday, 10 September 2025

केवल दस्तावेज़ी प्रमाण के अभाव में नकद लोन रद्द नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

केवल दस्तावेज़ी प्रमाण के अभाव में नकद लोन रद्द नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट 

 9 Sept 2025 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल इसलिए कि धन का एक हिस्सा बैंक हस्तांतरण के बजाय नकद के माध्यम से किया गया, इसका मतलब यह नहीं है कि केवल बैंकिंग माध्यम से हस्तांतरित राशि को ही प्रमाणित माना जा सकता है, खासकर जब वचन पत्र में पूरे लेनदेन का उल्लेख हो। न्यायालय ने आगे कहा कि दस्तावेज़ी प्रमाण का अभाव अपने आप में नकद लेनदेन रद्द नहीं कर देता। न्यायालय ने स्वीकार किया कि ऐसी स्थितियां होंगी, जहां लेनदेन करना होगा, जिसके लिए कोई प्रमाण नहीं होगा। 

 जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस विपुल एम पंचोली की खंडपीठ ने केरल हाईकोर्ट के उस निर्णय से उत्पन्न मामले की सुनवाई की, जिसमें अपीलकर्ता द्वारा प्रतिवादी को दी गई लोन राशि को ₹30.8 लाख से घटाकर ₹22 लाख कर दिया गया। केवल इसलिए कि ₹8.8 लाख की अंतर राशि बैंकिंग माध्यम से नहीं, बल्कि नकद के माध्यम से वितरित की गई। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने प्रतिवादी के हस्ताक्षरित वचन पत्र को स्वीकार नहीं किया, जिसमें उसने अपीलकर्ता से ₹30.8 लाख प्राप्त करने की बात स्वीकार की। 

 हाईकोर्ट का निर्णय खारिज करते हुए न्यायालय ने वचन पत्र की प्रधानता पर बल देते हुए कहा कि एक बार जब इसकी प्रामाणिकता स्वीकार कर ली जाती है तो लोन के संबंध में कानूनी धारणा बन जाती है, जब तक कि इसे बनाने वाले द्वारा गलत साबित न कर दिया जाए। चूंकि प्रतिवादी ने वचन पत्र में ₹30.8 लाख की पूरी राशि स्वीकार करना स्वीकार किया था, इसलिए न्यायालय ने पाया कि हाईकोर्ट ने लोन को दो भागों, अर्थात् "सिद्ध" और "असिद्ध" भागों में विभाजित करके गलती की। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मौखिक साक्ष्य दीवानी मामलों में प्रमाण का एक वैध और विश्वसनीय रूप है। वाणिज्यिक लेनदेन में नकदी घटकों को केवल रसीदों या बैंकिंग रिकॉर्ड के अभाव में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। 

अदालत ने कहा, “यह असामान्य नहीं है कि धन के लेन-देन में नकदी भी शामिल होती है। सिर्फ़ इसलिए कि कोई व्यक्ति आधिकारिक माध्यमों, यानी किसी परक्राम्य लिखत या बैंक लेनदेन के ज़रिए हस्तांतरण को साबित नहीं कर पाता, इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता कि ऐसी राशि नकद में नहीं चुकाई गई। खासकर तब जब अपीलकर्ता ने संबंधित न्यायालय के समक्ष इस आशय का स्पष्ट बयान दिया हो। इसके अलावा, कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण की प्रारंभिक धारणा परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) से भी आती है। इसलिए यह साबित करने का दायित्व प्रतिवादी पर है कि ऐसी कोई राशि नहीं दी गई थी। सिर्फ़ इसलिए कि दस्तावेज़ी प्रमाण उपलब्ध नहीं थे, हम इस दृष्टिकोण को ग़लत पाते हैं।” 

 अदालत ने आगे कहा, "जो व्यक्ति नकद देता है, उसके पास स्पष्ट रूप से कोई दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं होगा। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि नकद लेन-देन के लिए भी रसीद ली जाए। हालांकि, रसीद न होने से यह बात नकार या गलत साबित नहीं होगी कि पक्षकारों के बीच नकद लेन-देन हुआ था। वर्तमान मामले में हाईकोर्ट द्वारा किया गया विभाजन स्पष्ट रूप से त्रुटिपूर्ण है। इसलिए टिकने योग्य नहीं है।" तदनुसार, अपील यह कहते हुए स्वीकार कर लिया गया कि हाईकोर्ट ने डिक्रीटल राशि कम करने में गलती की।

 Cause Title: GEORGEKUTTY CHACKO Vs. M.N. SAJI


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Tuesday, 9 September 2025

आयु-छूट लेने वाले आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार सामान्य श्रेणी सीटों पर नहीं जा सकते: सुप्रीम कोर्ट

आयु-छूट लेने वाले आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार सामान्य श्रेणी सीटों पर नहीं जा सकते: सुप्रीम कोर्ट 

10 Sept 2025 

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (9 सितम्बर) को कहा कि आरक्षित वर्ग के वे उम्मीदवार, जो आरक्षण श्रेणी में आयु-छूट लेकर आवेदन करते हैं, उन्हें बाद में अनारक्षित (सामान्य) श्रेणी की रिक्तियों में चयन के लिए नहीं माना जा सकता, यदि भर्ती नियम ऐसे स्थानांतरण (migration) को स्पष्ट रूप से रोकते हैं। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने यह मामला सुना, जो स्टाफ सिलेक्शन कमीशन (SSC) की कॉन्स्टेबल (GD) भर्ती से जुड़ा था। इसमें आयु सीमा 18–23 वर्ष तय थी और ओबीसी उम्मीदवारों को 3 साल की छूट दी गई थी। प्रतिवादियों ने ओबीसी उम्मीदवार के रूप में आवेदन किया और इस छूट का लाभ लिया। हालांकि उन्होंने सामान्य वर्ग के अंतिम चयनित उम्मीदवार से अधिक अंक प्राप्त किए, लेकिन ओबीसी वर्ग के अंतिम चयनित उम्मीदवार से कम अंक होने के कारण चयनित नहीं हो सके। 

इसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट का रुख किया। हाईकोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला दिया और कहा कि उन्हें मेरिट के आधार पर सामान्य वर्ग की सीटों पर विचार किया जाना चाहिए। इस फैसले के खिलाफ भारत सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने जितेन्द्र कुमार सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2010) पर गलत तरीके से भरोसा किया। उस मामले में उत्तर प्रदेश के विशेष कानूनी प्रावधान लागू थे, जो ऐसे स्थानांतरण की अनुमति देते थे। जबकि वर्तमान मामले में कार्यालय ज्ञापन (Office Memorandum) स्पष्ट रूप से कहता है कि छूट लेने वाले उम्मीदवारों को सामान्य वर्ग की सीटों पर नहीं माना जाएगा। 

जस्टिस बागची ने कहा,"आरक्षित उम्मीदवार, जिन्होंने फीस/ऊपरी आयु सीमा में छूट लेकर सामान्य उम्मीदवारों के साथ खुले प्रतिस्पर्धा में भाग लिया है, उन्हें सामान्य वर्ग की सीटों पर नियुक्त किया जा सकता है या नहीं, यह हर मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि भर्ती नियमों/नोटिफिकेशन में इस पर कोई रोक नहीं है, तो ऐसे उम्मीदवार, जिन्होंने सामान्य वर्ग के अंतिम चयनित उम्मीदवार से अधिक अंक प्राप्त किए हैं, उन्हें सामान्य वर्ग की सीट पर चयन का अधिकार होगा। लेकिन यदि भर्ती नियमों में रोक है, तो ऐसे उम्मीदवारों को सामान्य वर्ग की सीट पर चयन का लाभ नहीं दिया जा सकता।" 

 कोर्ट ने सौरव यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2020) मामले का भी हवाला दिया और स्पष्ट किया कि उम्मीदवार केवल तभी सामान्य वर्ग की सीटों पर स्थानांतरित हो सकते हैं जब उन्होंने कोई विशेष रियायत न ली हो और भर्ती नियमों में इस पर कोई रोक न हो। चूंकि वर्तमान मामले में स्थानांतरण पर स्पष्ट रोक थी, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया और प्रतिवादियों को सामान्य सीटों पर स्थानांतरण की अनुमति नहीं दी। 

इस प्रकार अपील को मंजूरी दी गई।


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आरक्षित वर्ग के मेधावी उम्मीदवारों को सामान्य वर्ग का माना जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

आरक्षित वर्ग के मेधावी उम्मीदवारों को सामान्य वर्ग का माना जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि आरक्षित श्रेणी के मेधावी उम्मीदवारों ने कोई आरक्षण लाभ/छूट नहीं ली है तो ऐसे आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों को उनके अंकों के आधार पर अनारक्षित/सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के बराबर माना जाएगा। हाईकोर्ट के फैसले की पुष्टि करते हुए जस्टिस सी.टी. रविकुमार और जस्टिस संजय कुमार की खंडपीठ ने पाया कि आरक्षण का लाभ नहीं लेने के बावजूद, यदि आरक्षित श्रेणी के मेधावी उम्मीदवारों को उन आरक्षण श्रेणियों से संबंधित माना जाता है तो इससे मेरिट सूची में नीचे अन्य योग्य आरक्षण श्रेणी के उम्मीदवारों को उस श्रेणी का आरक्षण का लाभ प्रभावित होगा। 

जस्टिस संजय कुमार द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया, “हम यह भी नोट कर सकते हैं कि मध्य प्रदेश राज्य सेवा परीक्षा नियम, 2015 के नियम 4(3)(डी)(III) ने आरक्षण श्रेणी के उम्मीदवारों के हितों को स्पष्ट रूप से नुकसान पहुंचाया, यहां तक कि ऐसी श्रेणियों के मेधावी उम्मीदवारों ने भी, जिन्होंने कोई लाभ नहीं उठाया। आरक्षण लाभ/छूट को उन आरक्षण श्रेणियों से संबंधित माना जाना था और उन्हें प्रारंभिक परीक्षा परिणाम चरण में मेधावी अनारक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों के साथ अलग नहीं किया जाना। परिणामस्वरूप, वे आरक्षण श्रेणी के स्लॉट पर कब्ज़ा करते रहे, जो अन्यथा उस श्रेणी की योग्यता सूची में नीचे के योग्य आरक्षण श्रेणी के उम्मीदवारों को मिलता, यदि उन्हें उनके अंकों के आधार पर मेधावी अनारक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों के साथ शामिल किया जाता। 

मध्य प्रदेश राज्य सेवा परीक्षा नियम, 2015 (2015 नियम) के नियम 4 में संशोधन लाया गया। पुराने नियम और नए नियम के बीच अंतर मेधावी छात्रों के समायोजन और पृथक्करण को लेकर है। पुराने नियम में प्रावधान है कि मेधावी आरक्षण श्रेणी के अभ्यर्थियों का समायोजन और पृथक्करण मेधावी अनारक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों के साथ प्रारंभिक परिणाम के समय होगा, जबकि नया नियम इस तरह के समायोजन और पृथक्करण को केवल अंतिम चयन के समय निर्धारित करता है, न कि प्रारंभिक/मुख्य परीक्षा के अंतिम चयन के समय। 

 अदालत ने सौरव यादव और अन्य बनाम यूपी राज्य और अन्य के अपने फैसले पर भरोसा किया, जहां अदालत ने इस सिद्धांत की भी पुष्टि की कि किसी भी ऊर्ध्वाधर आरक्षण श्रेणियों से संबंधित उम्मीदवार 'खुली श्रेणी' में चयनित होने के हकदार होंगे और यदि आरक्षण श्रेणियों से संबंधित ऐसे उम्मीदवार इसके आधार पर चयनित होने के हकदार हैं, उनकी अपनी योग्यता, उनके चयन को ऊर्ध्वाधर आरक्षण की श्रेणियों के लिए आरक्षित कोटा के विरुद्ध नहीं गिना जा सकता। 

तदनुसार, न्यायालय को म.प्र. राज्य के निर्णय में कोई त्रुटि नहीं मिली। नियम 4 को बहाल करने के लिए, जैसा कि यह संशोधन से पहले मौजूद था। अदालत ने कहा, “यह स्थापित कानूनी स्थिति होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि मध्य प्रदेश राज्य को स्वयं आरक्षण श्रेणी के उम्मीदवारों को होने वाले नुकसान का एहसास हुआ और उसने नियम 4 को बहाल करने का फैसला किया, जैसा कि यह पहले था, जो प्रारंभिक परिणाम तैयार करने में सक्षम था। प्रारंभिक परीक्षा चरण में ही मेधावी आरक्षण श्रेणी के योग्य अभ्यर्थियों को मेधावी अनारक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों से अलग करके परीक्षा दी जाएगी। चूंकि यह वह प्रक्रिया थी जो किशोर चौधरी (सुप्रा) मामले में फैसले के बाद शुरू की गई, जिसके तहत बड़ी संख्या में आरक्षण श्रेणी के उम्मीदवारों ने प्रारंभिक परीक्षा उत्तीर्ण की और मुख्य परीक्षा में बैठने के लिए योग्य माने गए। इसलिए ऐसी प्रक्रिया की वैधता के साथ कोई विवाद नहीं हो सकता।” 

केस टाइटल: दीपेंद्र यादव और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य


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Monday, 8 September 2025

चेक बाउंस केस में फर्म को पक्षकार न बनाने की कमी दूर की जा सकती है: दिल्ली हाईकोर्ट 3 Sept 2025

चेक बाउंस केस में फर्म को पक्षकार न बनाने की कमी दूर की जा सकती है: दिल्ली हाईकोर्ट  3 Sept 2025

 दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपने पार्टनर के खिलाफ लगाए गए चेक बाउंस मामले में फर्म का पक्षकार नहीं होना एक इलाज योग्य दोष है। इस प्रकार शिकायतकर्ता/आदाता को 35,000/- रुपये की लागत के अधीन दलीलों में संशोधन करने की अनुमति देते हुए, जस्टिस अमित महाजन ने कहा, "इस न्यायालय का विचार है कि फर्म का गैर-पक्षकार एक इलाज योग्य दोष है ... प्रभावी परीक्षण का चरण अभी शुरू नहीं हुआ है। आरोपी को अभी तक दलील, सबूत या जिरह की रिकॉर्डिंग की प्रक्रिया का सामना नहीं करना पड़ा है। ऐसी परिस्थितियों में, यह नहीं कहा जा सकता है कि साझेदारी फर्म को शामिल करने के लिए संशोधन की अनुमति देने से याचिकाकर्ता को पूर्वाग्रह होगा। इसके विपरीत, इस तरह के संशोधन की अनुमति देने से इनकार करने से केवल तकनीकी आधार पर कार्यवाही का गला घोंट दिया जाएगा, जिससे एनआई अधिनियम की धारा 138 का उद्देश्य विफल हो जाएगा। 


 पार्टनर ने शिकायत मामले को रद्द करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट का रुख किया था। यह उनका मामला था कि आरोपी फर्म को ही कार्यवाही में पक्षकार नहीं बनाया गया था। प्रतिवादी-कंपनी, जो डब्ल्यू और ऑरेलिया जैसे महिलाओं के परिधान ब्रांडों का मालिक है और चलाती है, ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने खुद को एकमात्र मालिक के रूप में प्रस्तुत किया था और इस तरह, इकाई के गलत रूप के तहत कार्यवाही शुरू की गई थी। इसने दलीलों में संशोधन के माध्यम से फर्म को फंसाने की मांग की। 


 NHAI ने दिल्ली हाईकोर्ट को बताया चूंकि ट्रायल कोर्ट पहले ही समन जारी कर चुका है, इसलिए अदालत के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या शिकायत को समन के बाद के चरण में संशोधित करने की अनुमति दी जा सकती है। शुरुआत में, हाईकोर्ट ने कहा कि वह एनआई अधिनियम के मामलों में कार्यवाही को रद्द कर सकता है, यदि आरोपी व्यक्तियों द्वारा ऐसी असंदिग्ध सामग्री सामने लाई जाती है, जो इंगित करती है कि वे चेक जारी करने से संबंधित नहीं थे, या ऐसे मामले में जहां इस तरह की कानूनी कमी बताई गई है जो मामले की जड़ तक जाती है। 


हालांकि, वर्तमान मामले में, न्यायालय ने कहा, हालांकि वर्तमान मामले में संज्ञान लिया गया था, याचिकाकर्ता को जारी किए गए समन कई मौकों पर तामील नहीं हुए। इस प्रकार, प्रभावी परीक्षण का चरण अभी तक शुरू नहीं हुआ है। "शिकायत वर्ष 2019 में वापस दर्ज की गई थी। न्याय के हित में, प्रतिवादी को शिकायत में संशोधन करने और इन त्रुटियों को सुधारने के लिए आवेदन दायर करने का अवसर दिया जाना चाहिए, ताकि योग्यता के आधार पर उचित निर्णय सुनिश्चित किया जा सके। जहां शिकायत में एक सरल/इलाज योग्य दुर्बलता है और न तो यह शिकायत की प्रकृति को बदलती है और न ही आरोपी व्यक्तियों के लिए पूर्वाग्रह पैदा करती है, शिकायत में एक औपचारिक संशोधन की अनुमति दी जा सकती है।


https://hindi.livelaw.in/delhi-high-court/cheque-bounce-case-curable-defects-delhi-high-court-302877

Sunday, 7 September 2025

सरकारी नौकरी से पहले आवेदन किया तो वकील को पूरा प्रैक्टिस लाइसेंस मिलेगा: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

सरकारी नौकरी से पहले आवेदन किया तो वकील को पूरा प्रैक्टिस लाइसेंस मिलेगा: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

 जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने एक वकील के अस्थायी लाइसेंस को रद्द करने को रद्द कर दिया है, जिसे इस आधार पर पूर्ण लाइसेंस से वंचित कर दिया गया था कि वह बाद में अभियोजन अधिकारी के रूप में सरकारी सेवा में शामिल हो गया था। जस्टिस जावेद इकबाल वानी और जस्टिस मोक्ष खजूरिया काजमी की खंडपीठ ने कहा कि जब एक वकील ने पहले ही पूर्ण लाइसेंस के लिए आवेदन कर दिया है, तो आवेदन को आगे बढ़ाने में बार काउंसिल की देरी को उसके खिलाफ केवल इसलिए नहीं पढ़ा जा सकता क्योंकि उसे बाद में सरकारी सेवा में नियुक्त किया गया था।


https://hindi.livelaw.in/round-ups/high-court-weekly-round-up-a-look-at-some-important-ordersjudgments-of-the-past-week-303089

Thursday, 28 August 2025

एमपी हाई कोर्ट का आदेश, न्यायालय में केस होने के कारण विभागीय जांच नहीं रोकी जा सकती

एमपी हाई कोर्ट का आदेश, न्यायालय में केस होने के कारण विभागीय जांच नहीं रोकी जा सकती, कर्मचारियों की याचिका ख़ारिज

शिकायतकर्ता ओमप्रकाश चंद्रवंशी की शिकायत पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने अप्रैल 2023 में दोनों कर्मचारियों  *अभिषेक पारे और गौरीशंकर मीणा* को रिश्वत लेते हुए को रंगे हाथ पकड़ा था।

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने एफसीआई के दो कर्मचारियों की याचिका को ख़ारिज कर उन्हें झटका दिया है, कोर्ट ने कहा भ्रष्टाचार से जुड़े मामले में किसी भी विभागीय जाँच को इस आधार पर नहीं रोका नहीं जा सकता कि मामला कोर्ट में चल रहा है।

फूड कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया के दो कर्मचारियों ने हाई कोर्ट में एक याचिका दायर कर उनके खिलाफ चल रही विभागीय जांच रोकने का अनुरोध किया था, याचिका में कर्मचारियों ने कहा कि विभागीय जांच के कारण कोर्ट केस में उन्हें अपना बचाव करने में उन्हें मुश्किल होगी।

FCI के दो कर्मचारियों ने DE रोकने की की मांग  

बता दें FCI के दो कर्मचारियों अभिषेक पारे और गौरीशंकर मीणा को CBI ने अप्रैल 2023 में एक शिकायत के आधार पर रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ पकड़ा था, सीबीआई ने भ्रष्टाचार के इस मामले में दोनों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की और फिर जून 2023 में अदालत में चालान पेश किया।

करोड़ों रुपये खर्च कर एयरपोर्ट का विस्तार, नहीं बढ़ी फ्लाइट की संख्या, हाई कोर्ट ने नागरिक उड्डयन मंत्रालय को जारी किया नोटिस

याचिकाकर्ताओं ने दिया ये तर्क 

सीबीआई द्वारा एफआईआर दर्ज होने के बाद एफसीआई ने दोनों कर्मचारियों के खिलाफ आरोप पत्र जारी किये और विभागीय जांच के आदेश दिए, इसी विभागीय जाँच को रुकवाने दोनों कर्मचारी हाई कोर्ट पहुंच गए, उन्होंने तर्क दिया कि विभागीय जाँच और आपराधिक मुकदमा साथ साथ चलने से उन्हें परेशानी हो रही है।

हाई कोर्ट ने ख़ारिज की याचिका 

जस्टिस विवेक जैन की अदलत में हुई सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ताओं संजय अग्रवाल, मुकेश अग्रवाल और उत्कर्ष अग्रवाल ने पक्ष रखते हुए विभागीय जाँच को रोकने का अनुरोध किया लेकिन अदालत ने उनकी अनुरोध को स्वीकार नहीं किया, कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आरोपों में विभागीय जांच को रोका नहीं जा सकता, इतना कहकर अदालत ने याचिका ख़ारिज कर दी।

जबलपुर से संदीप कुमार की रिपोर्ट 

Tuesday, 19 August 2025

सिविल मामले में अपराधिक मामला बनाकर धन की वसूली के संबंध में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दिए गए आदेश निरस्त किये - सुप्रीम कोर्ट

सिविल  मामले में अपराधिक मामला बनाकर धन की वसूली के संबंध में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दिए गए आदेश निरस्त किये - सुप्रीम कोर्ट

जस्टिस पारदीवाला ने कहा, हाई कोर्ट जज को आपराधिक काम से दूर रखा जाए, केवल डीबी में सीनियर जज के साथ ही बिठाया जाये

 "इस मामले के किसी भी दृष्टिकोण से चूंकि माननीय सीजेआई से लिखित अनुरोध प्राप्त हुआ है। उसी के अनुरूप, हम 4 अगस्त 2025 के अपने आदेश से पैरा 25 और 26 को हटाते हैं। आदेश में तदनुसार सुधार किया जाए। हम इन पैराग्राफों को हटाते हुए अब इस मामले की जांच का काम इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पर छोड़ते हैं। हम पूरी तरह से स्वीकार करते हैं कि हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ही रोस्टर जारी करते हैं। ये निर्देश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की प्रशासनिक शक्ति में बिल्कुल भी हस्तक्षेप नहीं करते हैं। जब मामले कानून के शासन को प्रभावित करने वाली संस्थागत चिंताओं को जन्म देते हैं तो यह न्यायालय हस्तक्षेप करने और सुधारात्मक कदम उठाने के लिए बाध्य हो सकता है।" हालांकि, खंडपीठ ने कहा कि विवादित आदेश "विकृत" और "अवैध" था। खंडपीठ ने रिखब ईरानी मामले में पूर्व सीजेआई संजीव खन्ना और जस्टिस संजय खन्ना की खंडपीठ द्वारा हाल ही में पारित आदेश का भी उल्लेख किया, जिसमें उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा नागरिक अपराधों पर FIR दर्ज करने पर चिंता व्यक्त की गई थी। खंडपीठ ने निष्कर्ष में कहा, "हमें उम्मीद है कि भविष्य में हमें किसी भी हाईकोर्ट से इस तरह के विकृत और अन्यायपूर्ण आदेश का सामना नहीं करना पड़ेगा। हाईकोर्ट का प्रयास हमेशा कानून के शासन को बनाए रखना और संस्थागत विश्वसनीयता बनाए रखना होना चाहिए। यदि न्यायालय के भीतर ही कानून के शासन को बनाए नहीं रखा जाता या संरक्षित नहीं किया जाता है तो यह देश की संपूर्ण न्याय प्रणाली का अंत होगा। किसी भी स्तर के जजों से अपेक्षा की जाती है कि वे कुशलतापूर्वक काम करें, अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करें और हमेशा अपनी संवैधानिक शपथ को पूरा करने का प्रयास करें।" 

Case Details: M/S. SHIKHAR CHEMICALS v THE STATE OF UTTAR PRADESH AND ANR|SLP(Crl) No. 11445/2025


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/after-cjis-request-supreme-court-recalls-direction-to-remove-allahabad-hc-judge-from-criminal-jurisdiction-300303

Sunday, 17 August 2025

रजिस्टर्ड वसीयत की प्रामाणिकता की धारणा होती है, इसकी वैधता पर विवाद करने वाले पक्ष पर सबूत का भार: सुप्रीम कोर्ट

रजिस्टर्ड वसीयत की प्रामाणिकता की धारणा होती है, इसकी वैधता पर विवाद करने वाले पक्ष पर सबूत का भार: सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (21 जुलाई 2025) को दोहराया कि रजिस्टर्ड 'वसीयत' के उचित निष्पादन और प्रामाणिकता की धारणा होती है और सबूत का भार वसीयत को चुनौती देने वाले पक्ष पर होता है। ऐसा मानते हुए जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया, जिसमें विवादित भूमि में अपीलकर्ता/लासुम बाई का हिस्सा कम कर दिया गया था और रजिस्टर्ड वसीयत और मौखिक पारिवारिक समझौते के आधार पर उनका पूर्ण स्वामित्व बरकरार रखा।

*अदालत ने कहा* 

पारिवारिक समझौते (जिसके संबंध में अदालत ने कहा, पारिवारिक समझौते (जिसके संबंध में मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत किए गए) और रजिस्टर्ड वसीयत के अनुसार संपत्तियों का वितरण लगभग समान अनुपात में है। वसीयत रजिस्टर्ड दस्तावेज है और इसलिए इसकी प्रामाणिकता के बारे में एक अनुमान है। निचली अदालत ने अपने समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर वसीयत के निष्पादन को स्वीकार कर लिया। चूंकि वसीयत रजिस्टर्ड दस्तावेज है, इसलिए उस पक्षकार, जिसने इसके अस्तित्व पर विवाद किया था, जो इस मामले में प्रतिवादी-मुथैया होगा, पर यह स्थापित करने का दायित्व होगा कि वसीयत कथित तरीके से निष्पादित नहीं की गई या ऐसी संदिग्ध परिस्थितियां थीं, जिनके कारण यह संदिग्ध हो गई। हालांकि, प्रतिवादी-मुथैया ने अपने साक्ष्य में रजिस्टर्ड वसीयत पर दिखाई देने वाले हस्ताक्षरों को अपने पिता एम. राजन्ना के हस्ताक्षरों के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि वादी-लसुम बाई के पास 6 एकड़ और 16 गुंटा ज़मीन थी, जो वसीयत के अनुसार उनके हिस्से में आती थी। इस पृष्ठभूमि में निचली अदालत का यह मानना सही था कि एम. राजन्ना ने अपनी मूर्त संपत्ति का अपने कानूनी उत्तराधिकारियों के बीच उचित वितरण किया था। 24 जुलाई, 1974 की वसीयत और मौखिक पारिवारिक समझौते को निष्पादित करते हुए। हमारा मानना है कि अभिलेखों में उपलब्ध साक्ष्य मौखिक पारिवारिक समझौते के अस्तित्व और उसकी ठोस प्रकृति को पुष्ट करते हैं, जिसकी पुष्टि विवादित संपत्ति सहित मुकदमे की अनुसूची की संपत्तियों के कब्जे के तथ्य से होती है, जो स्वीकार्य रूप से वादी-लसुम बाई और बाद में क्रेता यानी जनार्दन रेड्डी के पास थी।" 

तदनुसार, अदालत ने निचली अदालत का फैसला बहाल कर दिया, जिससे अपीलकर्ता/लसुम बाई को संपत्ति का पूर्ण स्वामी घोषित कर दिया गया।


 Cause Title: METPALLI LASUM BAI (SINCE DEAD) AND OTHERS VERSUS METAPALLI MUTHAIH(D) BY LRS

Friday, 15 August 2025

शादी का असाध्य रूप से टूटना' अनुच्छेद 142 शक्तियों का उपयोग करते हुए विवाह को भंग करने का आधार: सुप्रीम कोर्ट

'शादी का असाध्य रूप से टूटना' अनुच्छेद 142 शक्तियों का उपयोग करते हुए विवाह को भंग करने का आधार: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक खंडपीठ ने महत्वपूर्ण फैसले में सोमवार को कहा कि वह भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग कर सकता है, जो विवाह के असाध्य रूप से टूटने के आधार पर तलाक दे सकता है, जो अभी तक वैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त आधार नहीं है। कोर्ट ने कहा, "हमने माना कि इस अदालत के लिए विवाह के असाध्य रूप से टूटने के आधार पर विवाह को भंग करना संभव है। यह सार्वजनिक नीति के विशिष्ट या मौलिक सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करेगा।"

न्यायालय ने माना कि इसने उन कारकों को निर्दिष्ट किया है, जिनके आधार पर विवाह को असाध्य रूप से टूटा हुआ माना जा सकता है और भरण-पोषण, गुजारा भत्ता और बच्चों के अधिकारों के संबंध में इक्विटी को कैसे संतुलित किया जाए। विशेष रूप से खंडपीठ ने यह भी कहा कि आपसी सहमति से तलाक के लिए छह महीने की अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि को पिछले निर्णयों में निर्धारित आवश्यकताओं और शर्तों के अधीन किया जा सकता है। जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस ए.एस. ओका, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस जेके माहेश्वरी की संवैधानिक खंडपीठ ने फैसला सुनाया।

जस्टिस संजय खन्ना ने फैसले के ऑपरेटिव हिस्से को पढ़कर सुनाया। संविधान पीठ को भेजा गया मूल मुद्दा यह था कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13बी के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि को माफ किया जा सकता है। हालांकि, सुनवाई के दौरान, संविधान पीठ ने इस मुद्दे पर विचार करने का निर्णय लिया कि क्या विवाहों के असाध्य रूप से टूटने के आधार पर भंग किया जा सकता है। संविधान पीठ ने 20 सितंबर, 2022 को पारित अपने आदेश में दर्ज किया,

"हम मानते हैं कि अन्य प्रश्न जिस पर विचार करने की आवश्यकता होगी, वह यह होगा कि क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्ति किसी भी तरह से ऐसे परिदृश्य में बाधित है जहां न्यायालय की राय में विवाह का असाध्य रूप से टूटना है, लेकिन पक्षकार शर्तों पर सहमति नहीं दे रहे हैं।" सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह, कपिल सिब्बल, वी गिरी, दुष्यंत दवे और मीनाक्षी अरोड़ा को मामले में एमीसी क्यूरी नियुक्त किया गया। जबकि जयसिंह ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के प्रयोग में असाध्य रूप से टूटे हुए विवाहों को भंग किया जाना चाहिए।


दवे ने तर्क देने के लिए विपरीत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया कि न्यायालयों को ऐसी शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिए जब संसद ने अपने विवेक में तलाक के लिए इस तरह के आधार को मान्यता नहीं दी। गिरि ने तर्क दिया कि विवाह के असाध्य रूप से टूटने को मोटे तौर पर क्रूरता के आधार के रूप में माना जा सकता है, जिसे मानसिक क्रूरता को शामिल करने के लिए न्यायिक रूप से व्याख्या की गई है। सिब्बल ने तर्क दिया, "पुरुषों और महिलाओं को अपने जीवन को खोने से रोकने के लिए भरण-पोषण और कस्टडी को निर्धारित करने की प्रक्रिया को तलाक की कार्यवाही से पूरी तरह से अलग किया जाना चाहिए।" अरोड़ा ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 142 के तहत अपने असाधारण अधिकार क्षेत्र को सक्रिय करने के बाद सुप्रीम कोर्ट वैधानिक कानून से बाध्य नहीं है, जैसे कि कहा गया कि न्याय, इक्विटी और अच्छे विवेक की धारणाओं को शामिल किया। संविधान पीठ ने 29 सितंबर, 2022 को सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया। उल्लेखनीय है कि पिछले हफ्ते दो न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि विवाह के अपरिवर्तनीय रूप से टूटने को विवाह भंग करने के लिए 'क्रूरता' के आधार के रूप में माना जा सकता है। 


केस टाइटल: शिल्पा सैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन [टीपी (सी) नंबर 1118/2014] और अन्य जुड़े मामले


https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/fine-court-proceedings-black-magic-tis-hazari-court-301029

मजिस्ट्रेट/सेशन कोर्ट डिफ़ॉल्ट बेल देने में सक्षम, भले ही नियमित जमानत याचिका हाईकोर्ट में लंबित हो: P&H हाईकोर्ट

*मजिस्ट्रेट/सेशन कोर्ट डिफ़ॉल्ट बेल देने में सक्षम, भले ही नियमित जमानत याचिका हाईकोर्ट में लंबित हो: P&H हाईकोर्ट*

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय, जैसा भी मामला हो, किसी अभियुक्त को डिफ़ॉल्ट ज़मानत देने का अधिकार रखता है, भले ही नियमित ज़मानत आवेदन सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय में लंबित हो। यह घटनाक्रम एक नियमित ज़मानत याचिका पर सुनवाई के दौरान सामने आया, जिसमें आवेदन के लंबित रहने के दौरान, अभियुक्त ने 3 महीने पूरे कर लिए थे और मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत डिफ़ॉल्ट ज़मानत दे दी थी, जो धारा 187(3) बीएनएसएस के अनुरूप है।

"जब नियमित ज़मानत याचिका उच्च न्यायालय में लंबित थी, तब भी सत्र न्यायालय डिफ़ॉल्ट ज़मानत देने के लिए सक्षम है, जिसे बाध्यकारी ज़मानत या वैधानिक ज़मानत भी कहा जाता है, और इसी प्रकार मजिस्ट्रेट डिफ़ॉल्ट ज़मानत देने के लिए सक्षम है, भले ही नियमित ज़मानत याचिका सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय में लंबित थी।" एम. रविन्द्रन बनाम खुफिया अधिकारी, राजस्व खुफिया निदेशालय सहित कई निर्णयों का हवाला देते हुए इस बात पर जोर दिया गया कि यदि अभियुक्त ने जमानत के लिए आवेदन किया है, तो डिफ़ॉल्ट जमानत पर रिहा होने का अधिकार लागू रहता है, भले ही जमानत आवेदन लंबित हो; या अभियोजन पक्ष द्वारा न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र या समय विस्तार की मांग वाली रिपोर्ट बाद में दाखिल की गई हो; या उस अंतराल के दौरान आरोप पत्र दाखिल किया गया हो जब जमानत आवेदन की अस्वीकृति को चुनौती उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित हो।

न्यायालय ने बिक्रमजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (2020) का भी उल्लेख किया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि, "डिफ़ॉल्ट ज़मानत का अधिकार, जैसा कि इस न्यायालय के निर्णयों द्वारा सही ढंग से माना गया है, संहिता की धारा 167(2) के प्रथम प्रावधान के अंतर्गत केवल वैधानिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का हिस्सा है, जो, इसलिए, धारा 167(2) के प्रथम प्रावधान की शर्तें पूरी होने पर अभियुक्त को ज़मानत पर रिहा करने का एक मौलिक अधिकार है।"

न्यायाधीश ने कहा कि, "डिफ़ॉल्ट ज़मानत का वैधानिक अधिकार भारत के क्षेत्राधिकार में प्रत्येक व्यक्ति को प्रदत्त मौलिक अधिकारों से उत्पन्न होता है।" अदालत ने आगे कहा कि भले ही ऐसे कोई विशिष्ट नियम और निर्देश हों जिनके अनुसार किसी भी न्यायालय में ज़मानत याचिका दायर करते समय, उच्च न्यायालय में ज़मानत याचिका के लंबित रहने की जानकारी संबंधित न्यायालय को दी जानी चाहिए, फिर भी ऐसे कोई भी नियम, आदेश या निर्देश मजिस्ट्रेट और सत्र न्यायालय की डिफ़ॉल्ट ज़मानत देने की वैधानिक शक्तियों को ज़रा भी कम या कम नहीं कर सकते, क्योंकि ये भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों में गहराई से अंतर्निहित हैं। अदालत ने कहा कि, सीआरपीसी की धारा 167(2) या बीएनएसएस की धारा 187(2) के तहत प्रदत्त शक्तियां तब तक प्रभावी नहीं होतीं जब तक कि विधानमंडल द्वारा निर्दिष्ट समय-सीमा के भीतर पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। अदालत ने आगे बताया कि, "धारा 187(2) बीएनएसएस, 2023 के तहत दी गई डिफ़ॉल्ट ज़मानत का अधिकार, जो सीआरपीसी, 1973 की धारा 167(2) के अनुरूप है, पुलिस रिपोर्ट के अभाव में 60 दिन, 90 दिन या 180 दिन की वैधानिक अवधि से अधिक या कुछ क़ानूनों के तहत आगे की अवधि के विस्तार, जैसा भी मामला हो, से अधिक हिरासत की अनुमति नहीं देता है।"

कोर्ट ने कहा, 

"विधायी मंशा बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि किसी को एकतरफा आरोपों पर गिरफ्तार किया गया है, तो जांच क़ानून द्वारा जांच एजेंसियों को प्रदान की गई समय-सीमा के भीतर पूरी की जानी चाहिए। यदि जांचकर्ता निर्दिष्ट समय-सीमा के भीतर अपनी जांच पूरी करने में असमर्थ हैं, तो ऐसे अभियुक्त को, यदि गिरफ्तार किया गया है और हिरासत में है, तो क़ानून द्वारा निर्दिष्ट समय-सीमा से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।" न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कार्यालय आदेश, अधिसूचनाएं जारी करने या नियम बनाने से भी मजिस्ट्रेटों को बीएनएसएस, 2023 की धारा 187 या सीआरपीसी, 1973 की धारा 167 के तहत डिफ़ॉल्ट ज़मानत देने के उनके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। उपरोक्त के आलोक में, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि, "उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में ज़मानत याचिका लंबित रहने से मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय, जैसा भी मामला हो, बीएनएसएस, 2023 की धारा 187(2) या सीआरपीसी, 1973 की धारा 167(2) के तहत उनकी वैधानिक शक्तियों से वंचित नहीं होंगे।" इसके विपरीत, पीठ ने कहा, "यदि मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय ऐसी परिस्थितियों में डिफ़ॉल्ट ज़मानत नहीं देते हैं, तो ऐसे न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकार का उल्लंघन या माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का उल्लंघन करने की संभावना हो सकती है।"


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