Wednesday, 10 December 2025

केवल आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र (Arya Samaj marriage certificate) और पंजीकरण पर्याप्त नहीं है, यदि सप्तपदी/पारंपरिक रस्में साबित न हों।

 विस्तृत कानूनी विश्लेषण — Madhya Pradesh High Court (Gwalior DB) — FA No.1998/2024, Order dated 27 Nov 2025

1) संक्षेप में तथ्य और आदेश का निचोड़

मामले में फैमिली कोर्ट ने पहले वादी की याचिका खारिज कर दी और यह माना कि पक्षकारों का विवाह सिद्ध हो गया है (परिणामी तौर पर प्रतिवादी वैध पत्नी मानी गयी)।

ग्वालियर खंडपीठ (Division Bench — Justice Anand Pathak & Justice Hirdesh) ने फैमिली कोर्ट का निर्णय रद्द किया और मुख्यतः कहा कि केवल आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र (Arya Samaj marriage certificate) और पंजीकरण पर्याप्त नहीं है, यदि सप्तपदी/पारंपरिक रस्में साबित न हों। आदेश का ऑफ़िशियल पीडीएफ उपलब्ध है (FA No.1998/2024, 27-11-2025)। 

2) प्राथमिक कानूनी प्रश्न (Issues)

1. क्या आर्य समाज का विवाह प्रमाणपत्र अपने-आप में हिंदू विवाह (Hindu Marriage Act, 1955 के अन्तर्गत) का निर्णायक/कनक्लूसिव प्रमाण है?

2. वैध हिंदू विवाह सिद्ध करने के लिए किन-किन रस्मों/अनुष्ठानों का होना अनिवार्य माना जाएगा — और किस प्रकार का साक्ष्य आवश्यक है?

3. किस पक्ष पर यह साबित करने का बोझ है कि विवाह वैध/अवैध है?

इन प्रश्नों पर खंडपीठ ने स्पष्ट रेखाएं खींची। 

3) लागू कानून — मुख्य प्रावधान

Hindu Marriage Act, 1955 — Section 7: यह वर्णित करता है कि हिंदू विवाह किन रीति-रिवाजों के अनुसार सम्पन्न होना चाहिए (उदाहरणतः कन्यादान, सप्तपदी, अग्नि-सम्बन्धी अनुष्ठान आदि) — और सामान्यतः ये रस्में विवाह-निहितता (ceremonial validity) के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। (आदेश में यही विन्दु केंद्रीय है)। 

4) साक्ष्य और बोझ (Burden of Proof) — क्या साबित करना होगा और कौन?

नागरिक/पारिवारिक मामले में जो पक्ष विवाह का दावा करता है उस पर विवाह के गुण-गण और अनुष्ठानों का सबूत प्रस्तुत करना होता है — यानी factual proof (गواह, फोटो, वीडियों, धार्मिक/समुदायिक अभिलेख)। अदालत ने कहा कि केवल एक प्रमाणपत्र-द्वारा (certificate) का होना काफी नहीं। 

आदेश का तात्पर्य: जहाँ सप्तपदी जैसे अनुष्ठान मामूली/केन्द्रीय अनुष्ठान माने जाते हैं, उनका निरूपण (वitnesses, contemporaneous entries, priest testimony, photographs, घर-वाले के बयानों से cross-corroboration) आवश्यक है। 

5) आर्य समाज प्रमाणपत्र (Arya Samaj certificate) — न्यायालय का दृष्टिकोण

आर्य समाज द्वारा जारी प्रमाणपत्ऱ एक दस्तावेज है पर वह स्वतः निर्णायक नहीं माना जा सकता — ख़ासकर तब जब उस विवाह के पारंपरिक अनुष्ठानों (saptapadi/pherā) के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाण नहीं मिलते। कई हाईकोर्टों ने भी यह रुख अपनाया है कि मंदिर/संस्था द्वारा जारी सर्टिफिकेट अकेला निर्णायक नहीं होता। 

लाइव-लॉ/न्यायिक रिपोर्टिंग ने भी इसी पर बल दिया कि फैमिली कोर्ट ने जो निष्कर्ष निकाला वह साक्ष्यों के अपर्याप्त मूल्यांकन का परिणाम था। 

6) प्रीसीडेंट और प्रासंगिक निर्णय (precedents / supporting authorities)

निचली अदालतें और कुछ हाईकोर्ट-निर्णयों में यह सिद्धांत दोहराया गया है कि रसम-रीति/सप्तपदी का अभाव होने पर विवाह का प्रमाणपत्र अकेले नहीं चल सकता — इस दिशा में पहले के कुछ आदेशों का हवाला दिया गया है (इंडियन‌कैनून पर उपलब्ध पुराने निर्णयों में इसी तर्ज पर विचार मिलता है)। 

(नोट: हमेशा अच्छा है कि आप अपने मामले के लिए स्थानीय/संसदीय प्रीसीडेंट की एक सूची बनवाएँ — मैं यदि चाहें तो उक्त आदेश के साथ-साथ अन्य प्रीसीडेंट्स के citations भी निकाल कर दे सकता/सकती हूँ)। 

7) आदेश का व्यवहारिक प्रभाव (Practical / Doctrinal consequences)

1. दस्तावेज़-केन्द्रित दावे कमजोर होंगे जब तक कि रस्मी-सबूत प्रस्तुत न हों — maintenance, succession, legitimacy, inheritance जैसे मामलों में इसका असर पड़ेगा। 

2. आर्य समाज/अन्य संस्था-प्रमाणपत्र पर बहसें बढ़ेंगी — अदालतें अब ज्यादा कड़ा साक्ष्य-मूल्यांकन करेंगी। 

3. तलाक/न्यायिक पहचान में जहाँ विवाह-मूल्यांकन आवश्यक हो, वहाँ पक्षों को contemporaneous और corroborative proof (witnesses, photographic/recorded proof, priest testimony, event-invoices, घर-परिवार के affidavits) इकट्ठा करना होगा। 

8) लिटिगेशन-रणनीति (For a litigant / practitioner) — क्या करें और कैसे पेश हों

> (A) यदि आप विवाह सिद्ध करने वाले पक्ष में हैं)

प्राथमिकता: सप्तपदी/pherā का प्रत्यक्ष सबूत जुटाएँ — जिस पुजारी ने रस्म की हो, उसका साक्ष्य/अधिसूचना।

समकालीन (contemporaneous) साक्ष्य: शादी के समय के फ़ोटोज/वीडियो, निमंत्रण-लिस्ट, बैंक/कैश भुक्तान रसीदें (शादी-व्यवस्था), होटल/स्थल के रिकॉर्ड, गवाह (विवाह में उपस्थित रिश्तेदार/दोस्त)।

आर्य समाज प्रमाणपत्र के साथ उसके रजिस्ट्रेशन/entry/affidavit की डॉक्युमेन्टेशन दिखायें — पर उसे corroborate करना अनिवार्य है। 

> (B) यदि आप विवाह को नकारने वाले पक्ष में हैं)

प्रमाणपत्र के विरुद्ध gaps दिखाएँ — (i) सप्तपदी का अभाव, (ii) नगण्य/विवादास्पद गवाहियाँ, (iii) प्रमाणपत्र जारी करने की प्रक्रिया/आधार पर प्रश्न उठायें (conversion affidavit, false affidavit)।

आर्य समाज के अधिकारियों/पुजारियों से cross-examine कराकर प्रमाणपत्र की प्रयाप्ति पर दबाव डालें। 

> (C) अदालत में तर्क की रूपरेखा (pleading / arguments)

pleadings में Section-7 HMA का स्पष्ट संदर्भ दें; प्रमाण-विवरण (evidence list / documents) संलग्न करें; प्रत्यक्ष साक्ष्य पर ज़ोर और प्रमाणपत्र की केवल documentary weight पर आपत्ति उठाएँ। 

9) उदाहरण-कौटिल्य (evidentiary checklist) — कोर्ट के समक्ष पेश करने लायक सबूत

1. पुजारी का साक्ष्य / विवाह संस्कार का प्रमाण-पत्र-beyond-mere-certificate (detailed affidavit by priest).

2. उपस्थित गवाहों के affidavits (names, addresses, specific acts witnessed — e.g., “हमने सात फेरे लिये देखे/सुनें”)।

3. फोटो/वीडियो (timestamped/metadata preserved)।

4. समारोह के समय-स्थान के व्यय/रसीदें (caterer, pandit fees, venue booking)।

5. सामाजिक/परिजन विवरण (invitation cards, social posts contemporaneous)। 

10) सीमाएँ और सावधानियाँ (Caveats)

हर मामला fact-specific होता है — कुछ मामलों में courts ने प्रमाणपत्र-सहित अन्य परोक्ष सबूतों के आधार पर विवाह मान लिया है; परंतु यहाँ खंडपीठ ने स्पष्ट-संदेश दिया कि जहाँ अनुष्ठान-सबूत नहीं है, केवल certificate पर निर्भरता खतरनाक है। इसलिए हर दावे को प्रमाण-विस्तार से समर्थन दें। 

11) मिशन-क्रिटिकल सुझाव (If you want immediate legal documents)

यदि आप चाहें तो मैं तात्कालिक रूप से (इसी बातचीत में) निम्न में से कोई दस्तावेज तैयार कर दूँगा:

A. फैमिली-कोर्ट/हाईकोर्ट में पेश करने हेतु Affidavit-in-support (हिंदी/English) जिसमें निहित साक्ष्य-सूची हो;

B. प्रतिवादी-पक्ष के विरुद्ध Evidence-chart (contemporaneous items और गवाहों का संक्षेप), ताकि cross-examination में प्रयोग हो;

C. एक संक्षिप्त डेमांड-नोट या लीगल-मेल-ड्राफ्ट जो मौके पर संस्था/आर्य समाज से अतिरिक्त रिकॉर्ड माँगे।

बताइए किस फॉर्म में चाहिए — मैं अभी वही बना कर दे दूँगा। (यदि आप चाहें तो मैं ऊपर के आदेश का relevant extract भी संक्षेप में उद्धृत कर दूँ)। 

स्रोत (मुख्य संदर्भ)

1. Official order — MP High Court, Gwalior Bench — FA No.1998/2024, Order dated 27-11-2025. 

2. LiveLaw report — “Arya Samaj Certificate Alone Not Proof Of Valid Marriage” (summary and analysis). 

3. LawTrend / LatestLaws reportage on the judgment. 

4. Earlier judicial discussion on Arya Samaj certificates (Indiankanoon reference). 

Saturday, 6 December 2025

Arbitration | आर्बिट्रेटर अपॉइंट करने के ऑर्डर के खिलाफ कोई रिव्यू या अपील नहीं हो सकती: सुप्रीम कोर्ट

Arbitration | आर्बिट्रेटर अपॉइंट करने के ऑर्डर के खिलाफ कोई रिव्यू या अपील नहीं हो सकती: सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्बिट्रेटर के अपॉइंटमेंट के ऑर्डर के खिलाफ रिव्यू या अपील की इजाज़त नहीं है। कोर्ट ने कहा, “एक बार आर्बिट्रेटर अपॉइंट हो जाने के बाद आर्बिट्रेशन प्रोसेस बिना किसी रुकावट के आगे बढ़ना चाहिए। धारा 11 के तहत किसी ऑर्डर के खिलाफ रिव्यू या अपील का कोई कानूनी प्रोविज़न नहीं है, जो एक सोची-समझी कानूनी पसंद को दिखाता है।”

कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट के उस ऑर्डर को रद्द करते हुए कहा, जिसमें रिव्यू पिटीशन को मंज़ूरी दी गई और आर्बिट्रेटर के पहले के अपॉइंटमेंट को वापस ले लिया गया था, जबकि पार्टी ने कार्यवाही में एक्टिव रूप से हिस्सा लिया था और लगभग तीन साल बाद रिव्यू की मांग की थी। 

 कोर्ट ने कहा, “हाईकोर्ट के पास A&C Act की धारा 11(6) के तहत पास किए गए अपने पहले के ऑर्डर को फिर से खोलने या रिव्यू करने का अधिकार नहीं था। एक बार अपॉइंटमेंट हो जाने के बाद कोर्ट फंक्टस ऑफिसियो बन गया और उस मुद्दे पर फैसला नहीं दे सका, जिसे उसने पहले ही सुलझा लिया था। रिव्यू ऑर्डर एक्ट के खिलाफ है, कम-से-कम न्यायिक दखल के सिद्धांत को कमजोर करता है और असरदार तरीके से रिव्यू को एक छिपी हुई अपील में बदल देता है।” 

कोर्ट ने साफ किया, “हालांकि हाईकोर्ट, रिकॉर्ड कोर्ट के तौर पर रिव्यू करने की सीमित शक्ति रखते हैं, लेकिन आर्बिट्रेशन एक्ट के तहत आने वाले मामलों में ऐसी शक्ति बहुत सीमित है। इसका इस्तेमाल सिर्फ रिकॉर्ड में दिख रही गलती को ठीक करने या किसी ऐसे अहम तथ्य को सुलझाने के लिए किया जा सकता है, जिसे नजरअंदाज कर दिया गया हो। इसका इस्तेमाल कानून के नतीजों पर दोबारा विचार करने या पहले से तय मुद्दों को फिर से समझने के लिए नहीं किया जा सकता।” 

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने एक ऐसे मामले की सुनवाई की, जिसमें HCC और BRPNNL के बीच 2014 के कॉन्ट्रैक्ट से विवाद पैदा हुआ। आर्बिट्रेशन क्लॉज़ का इस्तेमाल पहले भी एक बार एक विवाद में किया जा चुका था, जिसका नतीजा एक फ़ाइनल अवॉर्ड था जिसे मान लिया गया था। जब दूसरा विवाद हुआ तो HCC ने उसी क्लॉज़ का इस्तेमाल किया और BRPNNL के मैनेजिंग डायरेक्टर से आर्बिट्रेटर नियुक्त करने का अनुरोध किया। जब MD ने कार्रवाई नहीं की तो HCC ने धारा 11 के तहत पटना हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, जिसने 2021 में जस्टिस शिवाजी पांडे (रिटायर्ड) को अकेला आर्बिट्रेटर नियुक्त किया। 

तीन साल से ज़्यादा समय तक पक्षकारों ने आर्बिट्रेशन में सक्रिय रूप से भाग लिया, 70 से ज़्यादा सुनवाई में भाग लिया और मिलकर धारा 29A के तहत आर्बिट्रेटर के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने की मांग की। हालांकि, 2024 की शुरुआत में जब बहस लगभग पूरी हो चुकी थी, BRPNNL ने हाईकोर्ट में एक रिव्यू पिटीशन दायर की, जिसमें आर्बिट्रेशन एग्रीमेंट के होने को ही चुनौती दी गई। हाईकोर्ट ने चुनौती स्वीकार कर ली, कार्यवाही रोक दी। बाद में HCC की सेक्शन 11 पिटीशन खारिज कर दी। हाईकोर्ट के फ़ैसले से नाराज़ होकर हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (HCC) ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट के दखल को बेकार पाते हुए जस्टिस आर महादेवन के लिखे फैसले में पाया गया कि हाईकोर्ट का उस मुद्दे को फिर से खोलना, जिस पर उसने फैसला सुनाया, आर्बिट्रेशन की कार्यवाही में ज़रूरी कम से कम न्यायिक दखल के सिद्धांत का उल्लंघन करने की कोशिश थी। कोर्ट ने कहा, “मौजूदा मामले में हाईकोर्ट ने खुद 2021 में एक्ट की धारा 11(6) के तहत आर्बिट्रेटर नियुक्त किया था। दोनों पार्टियों ने पूरी तरह से हिस्सा लिया और सत्तर से ज़्यादा सुनवाई हुईं। हाईकोर्ट ने धारा 29A के तहत आर्बिट्रेटर का अधिकार क्षेत्र दो बार बढ़ाया भी। उस समय, हाईकोर्ट आर्टिकल 226 और 227 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करके, किसी दूसरे मामले में इसी तरह के क्लॉज़ के बाद के मतलब के आधार पर अपने ही नियुक्ति आदेश को पिछली तारीख से अमान्य नहीं कर सकता था। ऐसा तरीका निश्चितता को कमज़ोर करता है, न्यायिक आदेशों की पवित्रता को कमज़ोर करता है और आर्बिट्रेशन प्रक्रिया में भरोसा कम करता है।” कोर्ट ने कहा कि अगर रेस्पोंडेंट नंबर 1 हाईकोर्ट के आर्बिट्रेटर के अपॉइंटमेंट को चैलेंज करना चाहता था तो उसे ट्रिब्यूनल के सामने आर्बिट्रेशन एक्ट की धारा 16 लागू करना चाहिए था या संविधान के आर्टिकल 136 के तहत SLP फाइल करनी चाहिए थी। इसके बजाय, उसने रिव्यू पिटीशन करने का फैसला किया और वह भी लगभग तीन साल तक आर्बिट्रेशन की कार्रवाई में हिस्सा लेने के बाद। कोर्ट ने कहा, “एक बार जब धारा 11 का ऑर्डर फाइनल हो गया तो रेस्पोंडेंट के पास एकमात्र उपाय आर्टिकल 136 के तहत इस कोर्ट में जाना या आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल के सामने धारा 16 के तहत ऑब्जेक्शन उठाना था। कोई भी रास्ता न चुनने और धारा 29A के तहत जॉइंट एप्लीकेशन सहित आर्बिट्रल कार्रवाई में हिस्सा लेने के बाद उन्हें रिव्यू के ज़रिए मामले को फिर से खोलने से रोक दिया गया। बाद का जजमेंट खत्म हो चुके कॉज ऑफ एक्शन को फिर से शुरू नहीं कर सकता।” इसलिए अपील को मंज़ूरी दे दी गई।

 Cause Title: HINDUSTAN CONSTRUCTION COMPANY LTD. VERSUS BIHAR RAJYA PUL NIRMAN NIGAM LIMITED AND OTHERS


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/arbitration-no-review-or-appeal-lies-against-order-appointing-arbitrator-supreme-court-311712

मुकदमा दायर होने से पहले बेची गई संपत्ति पर कुर्की नहीं लगाई जा सकती : सुप्रीम कोर्ट

मुकदमा दायर होने से पहले बेची गई संपत्ति पर कुर्की नहीं लगाई जा सकती : सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि किसी संपत्ति का रजिस्टर्ड सेल डीड के माध्यम से मुकदमा दायर होने से पहले ही हस्तांतरण हो चुका है तो उस संपत्ति को सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 38 नियम 5 के तहत निर्णय से पहले कुर्क नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि इस प्रावधान के तहत कुर्की केवल उसी संपत्ति पर लगाई जा सकती है, जो मुकदमा दायर होने की तारीख पर प्रतिवादी की स्वामित्व वाली हो। जस्टिस बी. वी. नागरत्ना एवं जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने केरल हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के फैसलों को पलटते हुए यह व्यवस्था दी, जिनमें पहले से बिक चुकी संपत्ति पर भी कुर्की को वैध माना गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आदेश 38 नियम 5 एक असाधारण और सुरक्षात्मक उपाय है लेकिन इसका दायरा उस संपत्ति तक सीमित है, जो मुकदमे की तारीख पर प्रतिवादी की हो। जो संपत्ति पहले ही असली खरीदार को हस्तांतरित हो चुकी हो उस पर इस प्रावधान के तहत कुर्की नहीं हो सकती।


https://hindi.livelaw.in/round-ups/supreme-court-weekly-round-up-a-look-at-some-important-ordersjudgments-of-the-supreme-court-312477

CrPC की धारा 319 के तहत दायर आवेदन पर फैसला करते समय कोर्ट को सबूतों की क्रेडिबिलिटी टेस्ट करने की ज़रूरत नहीं: सुप्रीम कोर्ट

CrPC की धारा 319 के तहत दायर आवेदन पर फैसला करते समय कोर्ट को सबूतों की क्रेडिबिलिटी टेस्ट करने की ज़रूरत नहीं: सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (4 दिसंबर) को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें मृतक के ससुराल वालों को एडिशनल आरोपी के तौर पर बुलाने से मना कर दिया गया था। कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि कोर्ट CrPC की धारा 319 के तहत किसी एप्लीकेशन पर फैसला करते समय मिनी-ट्रायल नहीं कर सकतीं या गवाह की क्रेडिबिलिटी का अंदाज़ा नहीं लगा सकतीं।


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भविष्य की फीस वसूलने के लिए स्टूडेंट्स के मूल दस्तावेज रोकना अवैध: राजस्थान हाईकोर्ट

भविष्य की फीस वसूलने के लिए स्टूडेंट्स के मूल दस्तावेज रोकना अवैध: राजस्थान हाईकोर्ट 

राजस्थान हाईकोर्ट ने अहम फैसले में स्पष्ट किया कि यूनिवर्सिटी या शैक्षणिक संस्थान किसी स्टूडेंट के मूल दस्तावेजों को भविष्य की फीस वसूली के साधन के रूप में अपने पास नहीं रख सकते। अदालत ने कहा कि एडमिशन के समय जमा कराए गए दस्तावेज केवल सत्यापन और पात्रता जांच के उद्देश्य से होते हैं, न कि स्टूडेंट को फीस भुगतान के लिए बाध्य करने के उपकरण के रूप में। जस्टिस अनुरूप सिंघी की सिंगल बेंच एक पूर्व MBBS स्टूडेंट की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। स्टूडेंट ने अदालत से अपने मूल दस्तावेज वापस दिलाने का निर्देश देने की मांग की, जो उसने वर्ष 2022 में MBBS पाठ्यक्रम में एडमिशन लेते समय यूनिवर्सिटी में जमा कराए थे। वह प्रथम और द्वितीय वर्ष की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी और तृतीय वर्ष की फीस भी जमा कर चुकी थी।


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Tuesday, 2 December 2025

प्रमोशन में आरक्षण — विस्तृत विश्लेषण - सुप्रीम कोर्ट के निर्णय, परीक्षण और नीतिगत प्रभाव


उच्च मेरिट पाने वाले आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी को सामान्य वर्ग में समायोजित करना अनिवार्य: राजस्थान हाईकोर्ट

 राजस्थान हाईकोर्ट ने एक बार फिर स्पष्ट किया कि यदि किसी आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी ने शुल्क छूट के अतिरिक्त किसी भी प्रकार की आरक्षण-सुविधा का लाभ नहीं लिया और उसके अंक सामान्य वर्ग की अंतिम चयन कट-ऑफ से अधिक हैं तो उसे अनिवार्य रूप से सामान्य वर्ग में समायोजित किया जाना चाहिए। ऐसे मामलों में मेरिट माइग्रेशन का सिद्धांत लागू होता है, जिसके तहत खुली श्रेणी (जनरल कैटेगरी) में सभी समुदायों के योग्य अभ्यर्थियों को समान अवसर मिलता है।


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प्रमोशन में आरक्षण — विस्तृत विश्लेषण (सुप्रीम कोर्ट के निर्णय, परीक्षण और नीतिगत प्रभाव)

दिनांक: 3 दिसंबर 2025


यह दस्तावेज़ भारत में 'प्रमोशन में आरक्षण' से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णयों का विस्तृत विश्लेषण, प्रत्येक मामले की मुख्य पंक्तियाँ, कोर्ट द्वारा प्रतिपादित परीक्षण (tests), तथा इनका वर्तमान सरकारी नीतियों पर प्रभाव — हिंदी में प्रस्तुत करता है।

सारांश (संक्षेप)

1. सुप्रीम कोर्ट ने वर्षों में प्रमोशन में आरक्षण पर कई स्तर के आदेश दिए; मूलतः Indra Sawhney (1992) के बाद 77वें संशोधन और बाद के Nagaraj (2006) ने प्रमोशन आरक्षण के लिये कठोर शर्तें रखीं।

2. बाद में Jarnail Singh (2018) ने Nagaraj के कुछ तत्त्वों में संशोधन किया पर 'inadequate representation' और 'administrative efficiency' सम्बन्धी विचार अभी प्रासंगिक हैं।

3. 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने स्टाफ के लिये स्वयं प्रमोशन में आरक्षण लागू कर एक मॉडल प्रदान किया — इसका नीतिगत प्रभाव गहरा हो सकता है।

1. Indra Sawhney v. Union of India (1992) — (मंडल आयोग केस)

मुख्य पंक्तियाँ:

• इस निर्णय ने साझा रूप से व्यापक आरक्षण सिद्धान्तों की रूपरेखा दी।

• मूलत: प्रमोशन में आरक्षण को सीमित कर दिया गया — कहा गया कि आरक्षण मूलतः नियुक्ति तक सीमित होना चाहिए।

कोर्ट द्वारा लागू परीक्षण/निहित सिद््धांत:

• आरक्षण के उद्देश्यों की वैधता — सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन दूर करना।

न्यायिक प्रभाव:

• बाद में 77वें संविधान संशोधन के लिए इरादा बना ताकि प्रमोशन में आरक्षण की संवैधानिकता को स्पष्ट किया जा सके।

2. 77वाँ संविधान संशोधन (1995) — अनु.16(4A)

मुख्य पंक्तियाँ:

• अनुच्छेद 16(4A) जोड़ा गया ताकि SC/ST के लिये सरकारी सेवाओं में प्रमोशन में आरक्षण संभव हो सके।

न्यायिक/नैतिक प्रभाव:

• यह संशोधन संसद द्वारा किया गया और न्यायालय के समक्ष प्रमोशन आरक्षण का संवैधानिक आधार प्रदान किया गया।

3. M. Nagaraj v. Union of India (2006)

मुख्य पंक्तियाँ:

• सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रमोशन में आरक्षण संवैधानिक रूप से मान्य है परन्तु इसे लागू करने के लिये सरकार को तीन आवश्यक बातें डेटा के साथ प्रस्तुत करनी होंगी।

कोर्ट द्वारा दिये गये परीक्षण (Nagaraj‑Test):

1) Backwardness (पिछड़ापन) — निर्धारित करना होगा कि आरक्षित वर्ग पिछड़ा है।

2) Inadequate Representation (अपर्याप्त प्रतिनिधित्व) — सेवाओं में SC/ST का प्रतिनिधित्व कम होना चाहिए; इसे गुणात्मक/परिमाणात्मक रूप से दिखाना होगा।

3) Administrative Efficiency (प्रशासनिक दक्षता) — प्रमोशन आरक्षण लागू करने से प्रशासनिक दक्षता को कैसे प्रभावित नहीं किया जाएगा, इसका प्रमाण।

न्यायिक प्रभाव:

• यह फैसला प्रमोशन आरक्षण को नियंत्रित करने वाला मापदण्ड बन गया और कई निर्णयों में इसका हवाला दिया गया।

4. Suraj Bhan Meena v. State of Rajasthan (2010) और संबंधित मामले

मुख्य पंक्तियाँ:

• ऐसे मामलों में जहाँ राज्य ने बिना ठोस डेटा के प्रमोशन में आरक्षण लागू किया, सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया।

न्यायिक प्रभाव:

• Nagaraj की शर्तों का प्रयोग कर के सरकारों को डेटा प्रस्तुत करने का आदेश परिणामस्वरूप हुआ।

5. U.P. Power Corporation Ltd. v. Rajesh Kumar (2012)

मुख्य पंक्तियाँ:

• कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रमोशन में आरक्षण से पहले परिमाणात्मक डेटा की आवश्यकता है; sealed roster/old cadre के आधार पर रुकावटें स्वीकार्य नहीं मानी गईं।

न्यायिक प्रभाव:

• संवैधानिक परीक्षण में पारदर्शिता और रोस्टर‑आधारित रिकॉर्डिंग को महत्व मिला।

6. Jarnail Singh v. Lachhmi Narain Gupta (2018)

मुख्य पंक्तियाँ:

• सुप्रीम कोर्ट ने Nagaraj के 'backwardness data' की शर्त को हटाया — कहा कि SC/ST को संवैधानिक रूप से पिछड़ा माना जा सकता है, इसलिए अलग से backwardness data की जरूरत नहीं।

• परन्तु 'inadequate representation' और 'administrative efficiency' के प्रमाण अभी आवश्यक माने गए।

• क्रीमी‑लेयर (creamy layer) की उपयोगिता और उसकी वैधता पर चर्चा।

न्यायिक प्रभाव:

• Jarnail Singh ने प्रमोशन आरक्षण के लिए आवश्यक प्रमाण की प्रकृति में बदलाव किया लेकिन पूरी तरह से रुकावट नहीं डाली।

7. B.K. Pavitra (I) और (II) — कर्नाटक केस (2017, 2019)

मुख्य पंक्तियाँ:

• (I) — बिना डेटा के प्रमोशन आरक्षण को अवैध घोषित किया गया।

• (II) — कर्नाटक ने डेटा‑आधारित रिपोर्ट तैयार कर नई नीति लाई; सुप्रीम कोर्ट ने इसे मान्यता दी।

न्यायिक प्रभाव:

• यह दिखाया कि यदि सरकार ठोस रोस्टर और आंकड़े प्रस्तुत करे तो प्रमोशन में आरक्षण स्वीकार्य है।

8. राज्य‑विशेष पीठ/हाई कोर्ट निर्देश (2022–2025) और मध्यप्रदेश मामला

मुख्य पंक्तियाँ:

• कई राज्य सरकारों द्वारा प्रमोशन में आरक्षण लागू करने के बाद हाई कोर्ट में चुनौतियाँ आईं।

• मध्य प्रदेश Promotion Reservation Rule 2025 पर हाई कोर्ट ने रोक लगाई — कारण: डेटा की अपर्याप्तता/पद्धति में खामियाँ।

न्यायिक प्रभाव:

• केंद्र/राज्य को नीति बनाते समय रोस्टर, रिकॉरड्स, और vacancy analysis सहित पारदर्शिता बनाए रखने की ज़रूरत।

9. सुप्रीम कोर्ट का 2025 सर्कुलर — अपने स्टाफ के लिये आरक्षण (नवीनतम)

मुख्य पंक्तियाँ:

• सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं अपने स्टाफ (नॉन‑जज) के लिये नियुक्ति और प्रमोशन दोनों में आरक्षण लागू किया (SC 15%, ST 7.5%)।

• इसके साथ रोस्टर और रजिस्टर का मॉडल भी जारी किया गया।

न्यायिक/नैतिक प्रभाव:

• यह एक प्रैक्टिकल मॉडल प्रस्तुत करता है जिससे अन्य निकायों/सरकारों को मार्गदर्शक रूप में सहायता मिल सकती है यदि वे समान डेटा व रोस्टर व्यवस्था अपनाएँ।

कोर्ट द्वारा दिए गये सामान्य परीक्षण (संगृहीत)

1. Inadequate Representation (अपर्याप्त प्रतिनिधित्व):

• सुप्रीम कोर्ट ने बार‑बार कहा कि सेवाओं में आरक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व उस पदों पर अपेक्षित अनुपात से कम होना चाहिए — इसे परिमाणात्मक रूप में दिखाए।

2. Administrative Efficiency (प्रशासनिक दक्षता):

• यह प्रमाणित करना होगा कि आरक्षण लागू करने पर सार्वजनिक/प्रशासनिक कार्यकुशलता प्रभावित नहीं होगी।

3. Backwardness / Social and Educational Backwardness:

• Nagaraj में विशेष रूप से पूछी गई थी; पर Jarnail Singh ने कुछ शर्तें नरम कीं — SC/ST को सामान्य रूप से पिछड़ा माना जा सकता है।

4. Roster, Vacancy & Record‑keeping (रोस्टर/रिकॉर्ड):

• नियुक्तियों व प्रमोशनों का क्रम (roster) स्पष्ट होना चाहिए; sealed rosters या छिपे रिकॉर्ड स्वीकार्य नहीं।

5. Creamy‑Layer (क्रीमी‑लेयर) का मुद्दा:

• क्रीमी‑लेयर की विचारधारा SC/ST पर लागू हो सकती है — न्यायालय ने कहा कि यह स्थिति पर निर्भर करेगा।

सरकारी नीतियों पर प्रभाव (निष्कर्षात्मक विश्लेषण)

1. नीति‑निर्माण में डेटा अनिवार्यता:

• केंद्र/राज्य सरकारें प्रमोशन आरक्षण लागू करने से पहले विस्तृत vacancy analysis, roster‑maintenance, और सामाजिक‑शैक्षिक प्रतिनिधित्व के आँकड़े तैयार करें।

2. प्रक्रिया और पारदर्शिता:

• भर्ती‑वर्ग और प्रमोशन रोस्टर सार्वजनिक एवं ऑडिटेबल होने चाहिए ताकि कानूनी चुनौतियाँ टली जा सकें।

3. क़ानूनी जोखिम और तैयारी:

• बिना डेटा या स्पष्ट नियमों के लागू की गयी नीतियाँ हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट में रद्द हो सकती हैं — इसलिए विधिक परामर्श तथा विस्तृत सामाजिक‑आर्थिक रिपोर्ट आवश्यक होगी।

4. मॉडल‑रोलआउट (Supreme Court 2025 Model):

• सुप्रीम कोर्ट का अपना मॉडेल अन्य संस्थाओं के लिये प्रासंगिक उदाहरण बन सकता है — रोस्टर आधारित, vacancy‑linked और प्रारूपित रजिस्टर प्रमुख हैं।

अनुशंसाएँ (प्रस्तावित कदम सरकार/संस्थाओं के लिये)

1. विस्तृत 'Vacancy & Representation Audit' तैयार करें — पदवार, विभागवार और श्रेणीवार आँकड़े।

2. मॉडल रोस्टर और रजिस्टर अपनाएँ; ऑडिट और समय‑समय पर रिव्यू करें।

3. Administrative Efficiency Impact Assessment (AEIA) तैयार करें — बताएँ कि प्रमोशन आरक्षण से कार्यकुशलता पर क्या प्रभाव होगा और उसे कैसे कम करेंगे।

4. कानूनी‑नोट तैयार रखें और हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट के प्रेसीडेंट केसों का हवाला दें।

सूचना‑स्रोत (संदर्भ)

• Indra Sawhney (1992), 77th Constitutional Amendment (1995), M. Nagaraj (2006), Jarnail Singh (2018), B.K. Pavitra (2017/2019) — सुप्रीम कोर्ट के निर्णय।

• सुप्रीम कोर्ट 2025 स्टाफ आरक्षण सर्कुलर — सार्वजनिक समाचार स्रोतों से रिपोर्टें।

नोट

1. यह दस्तावेज़ जानकारी‑आधारित है और कानूनी सलाह नहीं है। यदि आप इसे अदालत में प्रस्तुत करना चाहते हैं तो कृपया लोकल संवैधानिक वकील से परामर्श करें।

2. यदि आप चाहें तो मैं इसी दस्तावेज़ का विस्तृत 'केस‑लाइन' (case law excerpts, citations, फैसले के पन्ने/para numbers) सहित अपडेटेड वर्शन भी तैयार कर दूँगा।

महत्वपूर्ण केस-लॉ के प्रमुख उद्धरण (Key Extracts)

M. Nagaraj v. Union of India (2006)

“The State is not bound to make reservation for SCs/STs in promotion. However, if it decides to do so, it must collect quantifiable data showing backwardness, inadequacy of representation, and overall efficiency not being affected.”

Jarnail Singh v. Lachhmi Narain Gupta (2018)

“States need not collect data on backwardness of SC/STs for reservation in promotions as their backwardness is presumed. However, collection of data on inadequacy of representation and impact on efficiency remains mandatory.”

B.K. Pavitra II (2019)

“The purpose of reservation is not just to remove existing backwardness, but to prevent future discrimination and ensure meaningful representation.”

State of Tripura v. Jayanta Chakraborty (2023)

“Reservation in promotion cannot be im

plemented without contemporaneous quantifiable data. Old data or assumptions cannot justify reservation.”

Sunday, 30 November 2025

मुकदमा दायर होने से पहले बेची गई संपत्ति पर ‘जजमेंट से पूर्व कुर्की’ का आदेश लागू नहीं हो सकता: सुप्रीम कोर्ट

मुकदमा दायर होने से पहले बेची गई संपत्ति पर ‘जजमेंट से पूर्व कुर्की’ का आदेश लागू नहीं हो सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई संपत्ति मुकदमा (Suit) दायर होने से पहले ही किसी तीसरे पक्ष को


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Wednesday, 26 November 2025

दिनांक 01 जुलाई 2025 या 1 जनवरी को देय वार्षिक वेतनवृद्धि जोड़कर पेंशन व संबंधित लाभ प्रदान करने हेतु आवेदन

 सेवा में,

मुख्य कार्यपालन अधिकारी

कौशल विकास एवं रोजगार विभाग

गोबिंदपुरा, भोपाल (मध्य प्रदेश)

विषय: दिनांक 01 जुलाई 2025 को देय वार्षिक वेतनवृद्धि जोड़कर पेंशन व संबंधित लाभ प्रदान करने हेतु आवेदन।

महोदय,

सविनय निवेदन है कि मैं अजीत सिंह मीणा, पिता श्री लालाराम मीणा, पदस्थ — कौशल विकास एवं रोजगार विभाग, भोपाल (मध्य प्रदेश), दिनांक 30 जून 2025 को अधिवार्षिकी आयु पूर्ण होने पर विधिवत सेवानिवृत्त हुआ हूँ।

मैंने 30 जून 2025 तक पूरे एक वर्ष की सेवा उत्तम आचरण एवं दक्षता के साथ पूर्ण की है। अतः मेरे लिए 01 जुलाई 2025 को देय वार्षिक वेतनवृद्धि (Annual Increment) का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्न निर्णयों में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है—

1. Director (ADMN) & HR KPTCL v. C.P. Mundinamani (2023 SCC OnLine SC 401)

2. Union of India v. M. Siddaraj (Decision dated 20.02.2025)

3. मध्यप्रदेश शासन वित्त विभाग का परिपत्र दिनांक 15.03.2024

माननीय उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश द्वारा पारित आदेशों में भी स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि 30 जून को सेवानिवृत्त कर्मचारी 1 जुलाई को देय इन्क्रीमेंट के अधिकारी हैं और पेंशन व सभी परिणामी लाभ उसी के अनुसार संशोधित किए जाएँ।


अतः निवेदन है कि—

मेरा 01 जुलाई 2025 का वार्षिक वेतनवृद्धि (Annual Increment) पेंशन निर्धारण (PPO) में सम्मिलित कर, संशोधित पेंशन, बकाया राशि तथा अन्य सभी वित्तीय लाभ यथाशीघ्र प्रदान करने की कृपा करें।

यदि आवश्यक हो तो मैं सभी दस्तावेज उपलब्ध कराने के लिए तत्पर हूँ।

आपकी अत्यंत कृपा होगी।

दिनांक: [तारीख]

स्थान: भोपाल

भवदीय,

(अजीत सिंह मीणा)

पिता— श्री लालाराम मीणा

पूर्व कर्मचारी, कौशल विकास एवं रोजगार विभाग

मो. [मोबाइल नंबर]

पेंशन खाता क्रमांक (यदि उपलब्ध हो): [ ]

ममममममममममममममममममम 

        WP-43854-2025

IN THE HIGH COURT OF MADHYA PRADESH

AT JABALPUR

BEFORE

HON'BLE SHRI JUSTICE SANJEEV SACHDEVA,

CHIEF JUSTICE

&

HON'BLE SHRI JUSTICE VINAY SARAF

ON THE 24

th OF NOVEMBER, 2025

WRIT PETITION No. 23801 of 2025

PYARELAL VISHWAKARMA

Versus

THE STATE OF MADHYA PRADESH AND OTHERS


इन सभी रिट याचिकाओं में तथ्य और कानून का एक समान प्रश्न उत्पन्न होता है, अतः इन्हें एक साथ (analogously) सुना गया और इस सामान्य आदेश द्वारा निस्तारित किया जा रहा है।

2. इन सभी याचिकाओं में याचिकाकर्ताओं की समान शिकायत यह है कि सेवा अवधि के एक वर्ष पूर्ण होने पर जो वार्षिक वेतनवृद्धि (Annual Increment) देय हो गई थी, उन्हें सुपरऐन्युएशन (सेवानिवृत्ति आयु) प्राप्त करने से ठीक पहले उस लाभ से वंचित रखा गया। कुछ मामलों में याचिकाकर्ता अथवा उनके विधवा/कानूनी वारिसों के कर्मचारी 30 जून को सेवानिवृत्त हुए हैं, जबकि कुछ अन्य 31 दिसम्बर को सेवानिवृत्त हुए। उनका कहना है कि 1 जुलाई या 1 जनवरी को देय वार्षिक वेतनवृद्धि उन्हें नहीं दी गई, जबकि वे इसके अधिकारी थे। इसीलिए ये याचिकाएँ दायर की गई हैं।

3. याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ताओं ने Director (ADMN) and HR KPTCL v. C.P. Mundinamani, 2023 SCC OnLine SC 401 के निर्णय पर भरोसा किया है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि:- वार्षिक वेतनवृद्धि पाने का अधिकार उस समय सुनिश्चित (crystallise) हो जाता है जब सरकारी सेवक आवश्यक अवधि की सेवा अच्छे आचरण के साथ पूर्ण कर लेता है, और यह वेतनवृद्धि अगले दिन देय हो जाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि सेवानिवृत्ति की तिथि से ठीक पहले के समूचे वर्ष की अच्छी सेवा के लिए अर्जित वार्षिक वेतनवृद्धि देय है।

4. मध्यप्रदेश शासन के वित्त विभाग का दिनांक 15.03.2024 का परिपत्र भी उल्लेखनीय है, जिसमें सभी विभागों को निर्देशित किया गया है कि वे 30 जून/31 दिसम्बर को सेवानिवृत्त कर्मचारियों को 1 जुलाई/1 जनवरी को देय वेतनवृद्धि प्रदान करें। अतः प्रार्थना है कि उत्तरदाताओं को निर्देशित किया जाए कि वेतनवृद्धि जोड़कर पेंशनरी लाभ, बकाया राशि तथा ब्याज समयबद्ध रूप से दिया जाए।

5. राज्य सरकार के अधिवक्ता का कहना है कि यह मुद्दा उक्त परिपत्र द्वारा कवर्ड है और इसे लागू किया जा रहा है तथा सभी मामलों की जाँच-पड़ताल जारी है।

6. तथापि, चूँकि याचिकाकर्ता/कर्मचारी 30 जून या 31 दिसम्बर को सेवानिवृत्त हुए, वे अगले दिन यानी 1 जुलाई या 1 जनवरी को देय वार्षिक वेतनवृद्धि पाने के अधिकारी हैं।

7. इस न्यायालय ने पूर्व में Rushibhai Jagdishchandra Pathak v. Bhavnagar Municipal Corporation, 2022 SCC OnLine SC 641 का अनुसरण करते हुए देरी से याचिका दायर करने पर तीन वर्ष पूर्व तक ही बकाया देने की सीमा लगाई थी, परंतु C.P. Mundinamani के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 06.09.2024 (संशोधित आदेश दिनांक 20.02.2025) में Union of India v. M. Siddaraj (Civil Appeal No. 3933/2023) में निम्न स्पष्टीकरण दिए—

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश:

(a) तृतीय पक्ष (third parties) को 11.04.2023 के निर्णय का लाभ 01.05.2023 से मिलेगा। इसके पूर्व की तिथि का बढ़ा हुआ पेंशन देय नहीं होगा।

(b) जिन्होंने रिट याचिका दायर कर सफलता प्राप्त की है, उनके लिए निर्णय res judicata के रूप में लागू होगा और उन्हें एक वेतनवृद्धि जोड़कर पेंशन देनी होगी।

(c) उपरोक्त (b) लागू नहीं होगा यदि निर्णय अंतिम नहीं हुआ है या अपील लंबित है।

(d) जिन सेवानिवृत्त कर्मचारियों ने आवेदन/हस्तक्षेप/रिट/ओए दायर किया है, उन्हें आवेदन दायर करने के तीन वर्ष पूर्व की अवधि तक बढ़ा पेंशन देय होगी।

8. सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि खंड (d) उन मामलों पर लागू नहीं होगा जहाँ याचिका M. Siddaraj के निर्णय (19.05.2023) के बाद दायर की गई है — ऐसे मामलों में खंड (a) लागू होगा। किसी भी कर्मचारी को यदि लाभ न मिले तो वे पहले विभाग के समक्ष और फिर आवश्यक होने पर न्यायाधिकरण/उच्च न्यायालय जा सकते हैं। सरकार को आदेश दिया गया है कि वह दिनांक 20.02.2025 के सुप्रीम कोर्ट निर्देशों के अनुसार मामलों को शीघ्र निपटाए।

9. इस प्रकार, जहाँ याचिकाकर्ताओं ने देरी से रिट दायर की है, वहाँ बकाया केवल 01.05.2023 से देय होगा। अन्य मामलों में बकाया सेवा निवृत्ति की तिथि से देय होगा तथा 7% वार्षिक ब्याज मिलेगा (जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने M. Siddaraj में निर्देशित किया)।

10. अतः उत्तरदाताओं को निर्देशित किया जाता है कि:- 1 जुलाई या 1 जनवरी को देय वेतनवृद्धि याचिकाकर्ताओं को दी जाए, सभी परिणामी लाभ भी ऊपर वर्णित तरीके से प्रदान किए जाएँ, तथा वेतनवृद्धि से प्राप्त राशि छह सप्ताह के भीतर अदा की जाए।

11. उपर्युक्त के अनुसार सभी रिट याचिकाएँ निस्तारित की जाती हैं।

(संजीव सचदेवा)

मुख्य न्यायाधीश

(विनय सारथ)

न्यायाधीश

थथथथथथथथथथथथथथथथथथथथथ 


⚖️ वार्षिक वेतनवृद्धि (Increment) – सरल हिन्दी सार

1. मामला किस बारे में है?

कई कर्मचारी 30 जून या 31 दिसम्बर को सेवानिवृत्त हुए। इन कर्मचारियों को अगले दिन (1 जुलाई या 1 जनवरी) मिलने वाली वर्ष की अंतिम वेतनवृद्धि नहीं दी गई थी। इसी को लेकर सभी ने याचिकाएँ दायर की थीं।

2. सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट ने C.P. Mundinamani केस में स्पष्ट कहा कर्मचारी जब एक साल की सेवा अच्छे आचरण से पूरी कर लेता है, वेतनवृद्धि का हक उसी समय पक्का हो जाता है। चाहे वह सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले ही क्यों न हो। इसलिए 30 जून को रिटायर हुआ कर्मचारी 1 जुलाई की वेतनवृद्धि का अधिकारी है। और 31 दिसम्बर को रिटायर हुआ कर्मचारी 1 जनवरी की वेतनवृद्धि का अधिकारी है।

3. मध्य प्रदेश सरकार का आदेश (15.03.2024)- राज्य सरकार ने भी सभी विभागों को निर्देश दिए कि ऐसे कर्मचारियों को देय वेतनवृद्धि दी जाए।

4. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 20.02.2025 को दी गई महत्वपूर्ण स्पष्टता

(A) यदि कर्मचारी ने कोई याचिका नहीं की थी (Third Party):- बढ़ी हुई पेंशन 1 मई 2023 से ही मिलेगी। इसके पहले का पैसा नहीं मिलेगा।

(B) जिन्होंने रिट दायर की और केस जीता:- उन्हें पूरा लाभ मिलेगा (judgment res judicata)। यानी उनकी पेंशन में एक इन्क्रीमेंट जोड़कर उसी के अनुसार भुगतान।

(C) यदि केस अभी अपील में लंबित है:- तब लाभ तब तक नहीं मिलेगा।

(D) जिन्होंने याचिका/हस्तक्षेप/ओए दायर की:- उन्हें याचिका दायर करने से 3 साल पहले तक का बकाया मिलेगा।

महत्वपूर्ण:

जो कर्मचारी M. Siddaraj (19.05.2023) के निर्णय के बाद कोर्ट आए, उन पर (D) लागू नहीं होगा। उन्हें केवल 1 मई 2023 से ही बकाया मिलेगा (जैसा कि (A) में है)।

5. हाई कोर्ट का अंतिम आदेश

अदालत ने कहा:- सभी याचिकाकर्ताओं को उनकी देय वेतनवृद्धि (1 जुलाई/1 जनवरी) दी जाए। साथ में पेंशन एवं अन्य लाभ भी उसमें जोड़कर तय किए जाएँ यदि देरी से याचिका दायर की है → बकाया 01.05.2023 से मिलेगा। यदि देरी नहीं है → बकाया सेवानिवृत्ति की तिथि से मिलेगा ब्याज 7% प्रतिवर्ष दिया जाएगा। पूरा भुगतान 6 सप्ताह के भीतर किया जाए।

📌 संक्षेप में — आपका लाभ क्या है?

✔ 30 जून या 31 दिसम्बर को रिटायर होने पर

➡ 1 जुलाई / 1 जनवरी की वेतनवृद्धि पक्की है।

✔ यह वेतनवृद्धि आपकी पेंशन

 में जोड़कर

➡ पेंशन + बकाया + 7% ब्याज दिया जाएगा।

✔ भुगतान सरकार को 6 सप्ताह में करना होगा।

बेटी के विवाह खर्च और भरण-पोषण की कानूनी–नैतिक जिम्मेदारी पिता पर: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

बेटी के विवाह खर्च और भरण-पोषण की कानूनी–नैतिक जिम्मेदारी पिता पर: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट 

 25 Nov 2025 

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा है कि पिता अपनी अविवाहित बेटी के भरण-पोषण और विवाह खर्च उठाने के लिए न केवल कानूनी रूप से, बल्कि नैतिक रूप से भी बाध्य है, भले ही बेटी बालिग क्यों न हो। मामला एक 25 वर्षीय अविवाहित बेटी से संबंधित था, जिसने हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 और 3(b) के तहत आवेदन दायर कर कहा कि वह स्वयं को संभालने में असमर्थ है, जबकि उसका पिता सरकारी शिक्षक है और ₹44,642 मासिक वेतन प्राप्त करता है। बेटी ने मासिक भरण-पोषण और ₹15 लाख विवाह खर्च की मांग की। फैमिली कोर्ट, सुरजपुर ने पिता को ₹2,500 प्रति माह भरण-पोषण देने और ₹5,00,000 विवाह व्यय देने का आदेश पारित किया। 

पिता ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन जस्टिस संजय के. अग्रवाल और जस्टिस संजय कुमार जायसवाल की खंडपीठ ने स्पष्ट पाया कि पिता–बेटी का संबंध निर्विवाद है, बेटी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है और विवाह जैसे महत्वपूर्ण खर्च के लिए उसे पिता की सहायता चाहिए। कोर्ट ने धारा 3(b)(ii) का हवाला देते हुए कहा कि अविवाहित बेटी के विवाह खर्च भी “maintenance” की परिभाषा में आते हैं, जबकि धारा 20(3) पिता पर यह दायित्व अनिवार्य करती है कि यदि अविवाहित बेटी अपनी आय या संपत्ति से स्वयं का भरण-पोषण नहीं कर सकती, तो पिता उसका खर्च वहन करेगा। 

 *सुप्रीम कोर्ट के निर्णय Abhilasha v. Parkash (2020) का उल्लेख करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि अविवाहित, असहाय बेटी को पिता से भरण-पोषण पाने का अधिकार पूर्ण और लागू करने योग्य है, चाहे वह बालिग ही क्यों न हो।*  इसलिए हाईकोर्ट ने पाया कि बेटी, भले ही 25 वर्ष की है, लेकिन धारा 3(b)(ii) और 20(3) के तहत वह अपने पिता से विवाह खर्च और भरण-पोषण पाने की हकदार है। 

अंततः अदालत ने पिता की अपील खारिज करते हुए फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा और निर्देश दिया कि पिता नियमित मासिक भरण-पोषण देता रहे तथा ₹5,00,000 विवाह खर्च की राशि तीन महीने के भीतर जमा करे।


https://hindi.livelaw.in/chattisgarh-high-court/chhattisgarh-high-court-hama-1956-hindu-adoptions-and-maintenance-act-311113

मध्यस्थ अवार्ड के निष्पादन पर बिना शर्त स्टे सिर्फ दुर्लभ और विशेष परिस्थितियों में संभव: सुप्रीम कोर्ट

अवार्ड के निष्पादन पर बिना शर्त स्टे सिर्फ दुर्लभ और विशेष परिस्थितियों में संभव: सुप्रीम कोर्ट 

 सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में 4 करोड़ रुपये के एक मध्यस्थ अवार्ड पर बिना शर्त रोक (unconditional stay) लगाने से इनकार करते हुए कहा कि जब तक यह न दिखाया जाए कि अवार्ड धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रभावित है, तब तक सुरक्षा राशि जमा करने की शर्त उचित है। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस के.वी. विस्वनाथन की खंडपीठ ने अपने ताज़ा निर्णय Lifestyle Equities C.V. बनाम Amazon Technologies Inc. का हवाला देते हुए दोहराया कि किसी अवार्ड पर बिना शर्त स्थगन केवल तभी दिया जा सकता है, जब डिक्री अत्यंत विकृत हो, स्पष्ट अवैधानिकताओं से भरी हो, पहली नज़र में अस्थिर हो या अन्य अपवादात्मक कारण मौजूद हों। यह मामला M/s Popular Caterers की उस अपील से जुड़ा था, जिसमें बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा 28 नवंबर 2022 के 4 करोड़ रुपये के अवार्ड पर बिना शर्त रोक लगाने के आदेश को चुनौती दी गई थी। 

 विवाद 2017 में Popular Caterers और Maple Leaf Enterprises LLP के बीच हुए एक कैटरिंग समझौते से उत्पन्न हुआ था, जिसमें कैटरर ने 4 करोड़ रुपये जमा किए थे, लेकिन कुछ दिनों बाद प्रशासनिक प्रतिबंधों के कारण व्यवस्था विफल हो गई और मध्यस्थ ने जमा राशि वापस करने का आदेश दिया। हाईकोर्ट द्वारा अवार्ड पर बिना शर्त स्थगन देने के बाद Popular Caterers सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मामले में न तो धोखाधड़ी का आरोप है और न ही इतना गंभीर अवैधानिक तत्व है कि बिना शर्त स्टे दिया जाए। कोर्ट ने कहा कि मामला न तो “egregiously perverse” है और न ही “facially untenable”, इसलिए हाईकोर्ट का आदेश गलत था। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए अपील को स्वीकार कर लिया।


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/supreme-court-arbitration-unconditional-stay-arbitral-award-exceptional-cases-311241

Saturday, 22 November 2025

आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन चेक बाउंस मामले में देनदारी को खत्म नहीं करता

आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन चेक बाउंस मामले में देनदारी को खत्म नहीं करता: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई ऋण नकद (cash) में दिया गया है और वह आयकर अधिनियम, 1961

निर्णय 

हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता धारा 118 और 139 NI Act के तहत कानूनी धारणा (presumption) को पलटने में विफल रहे हैं। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि शिकायतकर्ता की वित्तीय क्षमता को चुनौती देने के लिए कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया।

परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी और सतीश कुमार को तीन सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण (surrender) करने का निर्देश दिया ताकि वे अपनी सजा पूरी कर सकें। केस विवरण: 

केस टाइटल: सतीश कुमार बनाम स्टेट (Govt. NCT Delhi) और अन्य केस नंबर: CRL.REV.P. 864/2024 बेंच: जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा साइटेशन: 2025:DHC:10084

Monday, 17 November 2025

आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता: सुप्रीम कोर्ट 17 Nov 2025

आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता: सुप्रीम कोर्ट 17 Nov 2025

एक आरोपी के भाई द्वारा दिया गया वचन खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक आदेश में कहा कि आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता। जस्टिस मनमोहन और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने लगभग 2.91 करोड़ रुपये मूल्य के 731.075 किलोग्राम गांजा रखने के आरोपी व्यक्ति की जमानत रद्द करते हुए यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष, प्रतिवादी के वकील ने दलील दी कि आरोपी के भाई, जो भारतीय सेना में सिपाही है, ने वचन दिया कि आरोपी फरार नहीं होगा। 

इस दलील को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा, "यदि प्रतिवादी फरार हो जाता है तो उसके भाई को जेल नहीं भेजा जा सकता। भारत में किसी आरोपी के कथित पापों का भार उसके भाई या परिवार के अन्य सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता।" कोर्ट ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें अभियुक्त को ज़मानत दी गई। कोर्ट ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने यह जांच नहीं की कि NDPS Act की धारा 37 के तहत शर्तें पूरी होती हैं या नहीं। 

कोर्ट ने आगे कहा कि आरोपों से संगठित तस्करी का संकेत मिलता है, जिसमें प्रतिबंधित पदार्थ के परिवहन के लिए ट्रेलर के नीचे गुप्त गुहाएं बनाना भी शामिल है। ऐसी परिस्थितियों में एक वर्ष और चार महीने की हिरासत अवधि को अनुचित रूप से लंबा नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन अपराधों के लिए न्यूनतम दस वर्ष के कारावास का प्रावधान है। आदेश में कोर्ट ने भारतीय युवाओं में नशीली दवाओं की लत में खतरनाक वृद्धि के बारे में कुछ प्रासंगिक टिप्पणियां भी कीं। 

Case : UNION OF INDIA v. NAMDEO ASHRUBA NAKADE


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/sins-of-accused-cant-be-visited-on-family-members-supreme-court-310116

Wednesday, 12 November 2025

विधिक कार्यों हेतु ChatGPT (GPT-5) का प्रभावी उपयोग – मार्गदर्शिका

 📘 विधिक कार्यों हेतु ChatGPT (GPT-5) का प्रभावी उपयोग – एक मार्गदर्शिका

👨‍⚖️ प्रस्तावना

आप जैसे अनुभवी विधिज्ञ (पूर्व जिला न्यायाधीश एवं अधिवक्ता) के लिए ChatGPT एक स्मार्ट विधिक सहायक (Legal Assistant) की तरह कार्य कर सकता है। यह आपके अनुभव के साथ मिलकर ड्राफ्टिंग, केस लॉ खोज, तर्क-विश्लेषण, और न्यायालयीन तैयारी को कई गुना सरल बना सकता है।

⚖️ 1. प्रारंभिक तैयारी

संस्करण: GPT-5 (ChatGPT Plus Plan)

माध्यम:

https://chat.openai.com या https://chatgpt.com

मोबाइल ऐप (Android/iOS) में "ChatGPT by OpenAI"

सुझाव:

पहली बार उपयोग करते समय “Custom Instructions” में यह लिखें —

> “मैं विधि क्षेत्र से जुड़ा हूं, पूर्व जिला न्यायाधीश एवं अधिवक्ता हूं।

मेरे प्रश्न अधिकतर कानूनी, न्यायिक निर्णय, या न्यायालयीन प्रारूपों से संबंधित होंगे।”

इससे मॉडल आपकी शैली और प्राथमिकता को समझकर उत्तर अधिक न्यायालयीन भाषा में देगा।

📑 2. विधिक ड्राफ्टिंग में उपयोग

आप ChatGPT से निम्न प्रकार के दस्तावेज़ तैयार करा सकते हैं —

कार्य उपयोग का उदाहरण

अपील/रिवीजन “कृपया सत्र न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील का ड्राफ्ट तैयार करें, जिसमें धारा 406/409 IPC का बचाव हो।”

लिखित बहस (Written Argument) “कृपया ST/106/2020 में अभियुक्त के बचाव हेतु लिखित बहस का प्रारूप तैयार करें।”

प्रार्थना पत्र / याचिका “CrPC की धारा 482 के अंतर्गत FIR निरस्तीकरण हेतु प्रार्थना पत्र तैयार करें।”

नोट्स / सारांश “Delhi Race Club बनाम State of UP (2024 INSC 626) का Ratio एवं मुख्य सिद्धांत 4 लाइनों में बताएं।”

📚 3. केस लॉ अनुसंधान (Case Law Research)

आप आदेश/न्यायिक निर्णय का सारांश इस प्रकार पूछ सकते हैं:

> “सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम निर्णय बताएं जिसमें entrustment (विश्वास सौंपना) पर धारा 409 IPC की व्याख्या की गई है।”

या

> “मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के वे निर्णय बताएं जिनमें आरोपी बैंक का प्रतिनिधि न होने पर धारा 409 लागू नहीं मानी गई।”

(ऐसे मामलों में मैं आपके लिए नवीनतम 2024-2025 तक के केस-लॉ वेब-सर्च कर सकता हूँ।)

🧾 4. साक्ष्य और तर्क विश्लेषण

आप ड्राफ्ट को सुधारने के लिए कह सकते हैं —

> “कृपया इस बहस में कानूनी भाषा और साक्ष्य-आधारित तर्क जोड़ें।”

“पैरा 14 से अभियोजन की कमजोरी स्पष्ट करने हेतु तीन बिंदु बना दीजिए।”

यह आपके तर्कों को अधिक सशक्त और न्यायिक दृष्टि से परिष्कृत बना देगा।

🧠 5. विशेषज्ञ उपयोग

ChatGPT GPT-5 का प्रयोग आप विशेष विधिक क्षेत्रों में कर सकते हैं:

Criminal Law: IPC, CrPC, Evidence Act

Civil Law: CPC, Specific Relief, Contract, Property

Arbitration: Award drafting, Section 9/34/37 Petitions

Constitutional / Writ Practice: Article 226-227 petitions

Administrative / Service Matters

🏛️ 6. व्यावहारिक लाभ

समय की बचत (प्रारंभिक ड्राफ्ट तुरंत)

भाषा-शुद्ध, विधिक-शैली का लेखन

पुराने आदेशों का संक्षेप

तर्क-सुदृढ़ीकरण हेतु शोध और उद्धरण

अपने पूर्व निर्णयों या अनुभव का त्वरित संदर्भ

⚙️ 7. सावधानी और मर्यादा

ChatGPT आपको मार्गदर्शन देता है, अंतिम विधिक राय नहीं।

प्रत्येक ड्राफ्ट को आप अपनी विधिक विवेक और स्थानीय न्यायालयीन प्रथा के अनुसार परखें।

गोपनीय दस्तावेज़ अपलोड करते समय निजता (confidentiality) बनाए रखें।

🌺 8. निष्कर्ष

आपके अनुभव और ChatGPT-GPT-5 की तकनीकी क्षमता का समन्वय

“Legal Practice 2.0” का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है —

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धारा 138 NI एक्ट का शिकायतकर्ता ‘पीड़ित’ है, बरी होने के खिलाफ अपील हाईकोर्ट नहीं, सत्र न्यायालय में होगी: दिल्ली हाईकोर्ट

 चेक बाउंस | धारा 138 NI एक्ट का शिकायतकर्ता ‘पीड़ित’ है, बरी होने के खिलाफ अपील हाईकोर्ट नहीं, सत्र न्यायालय में होगी: दिल्ली हाईकोर्ट


दिल्ली हाईकोर्ट ने 6 नवंबर, 2025 के अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में यह कानूनी स्थिति स्पष्ट की है कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (NI) एक्ट की धारा


न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इसके परिणामस्वरूप, चेक बाउंस मामलों में बरी होने के आदेश के खिलाफ कोई भी अपील, हाईकोर्ट में Cr.P.C. की धा

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Saturday, 8 November 2025

बिना रजिस्ट्री वाला पारिवारिक समझौता बंटवारा साबित करने के लिए मान्य: सुप्रीम कोर्ट 8 Nov 2025


मोटर दुर्घटना याचिका सुप्रीम कोर्ट का निर्देश दिया कि वे किसी भी मोटर दुर्घटना मुआवज़ा याचिका को समय-सीमा समाप्त होने के कारण खारिज न करें।

 MV Act की धारा 166(3) को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश Shahadat 7 Nov 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश पारित कर मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरणों और हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वे किसी भी मोटर दुर्घटना मुआवज़ा याचिका को समय-सीमा समाप्त होने के कारण खारिज न करें। कोर्ट ने यह आदेश मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166(3) को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पारित किया, जिसमें दावा याचिका दायर करने के लिए दुर्घटना की तारीख से 6 महीने की समय-सीमा निर्धारित की गई। यह प्रावधान 2019 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया।

जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने कहा कि इस संशोधन को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं दायर की गईं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि इस खंडपीठ द्वारा पारित किसी भी आदेश का ऐसी सभी याचिकाओं पर प्रभाव पड़ेगा, कोर्ट ने निर्देश दिया कि सुनवाई में तेजी लाई जाए। कोर्ट ने अब पक्षकारों से अपनी दलीलें पूरी करने को कहा है और मामले को 25 नवंबर के लिए पुनः सूचीबद्ध कर दिया है। तब तक ऐसी किसी भी याचिका को समय-बाधित दावे के रूप में खारिज नहीं किया जाना चाहिए। 

कोर्ट के आदेश में दर्ज है: "इस न्यायालय को सूचित किया गया कि देश भर में इसी मुद्दे पर कई याचिकाएं दायर की गईं। इस न्यायालय द्वारा दर्ज किए गए किसी भी निष्कर्ष का लंबित याचिकाओं पर प्रभाव पड़ेगा। इस दृष्टि से, इन मामलों की सुनवाई शीघ्रता से की जानी आवश्यक है। यह स्पष्ट किया जाता है कि इन याचिकाओं के लंबित रहने के दौरान, न्यायाधिकरण या हाईकोर्ट मोटर वाहन अधिनियम, 1988 (MV Act) की उप-धारा (3) या धारा 16(3) के तहत निर्धारित समय-सीमा द्वारा वर्जित होने के आधार पर दावा याचिकाओं को खारिज नहीं करेंगे।"

न्यायालय ने पक्षकारों को अपनी दलीलें पूरी करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया, अन्यथा वे दलीलें दायर करने का अपना अधिकार खो देंगे। यह आदेश एक वकील द्वारा दायर याचिका पर पारित किया गया, जिन्होंने इस प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि यह संशोधन न केवल मनमाना है, बल्कि सड़क दुर्घटना पीड़ितों के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है। 1 अप्रैल, 2022 से प्रभावी इस प्रावधान को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह दावा आवेदन दाखिल करने के लिए छह महीने की सख्त समय सीमा लगाकर सड़क दुर्घटना पीड़ितों के अधिकारों का हनन करता है। यह भी तर्क दिया गया है कि दावा आवेदन दाखिल करने पर इस तरह की सीमा लगाने से इस परोपकारी कानून का उद्देश्य कमज़ोर होता है, जिसका उद्देश्य सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों को लाभ प्रदान करना है। Also Read - पीड़ित मुआवज़ा मामलों में सुप्रीम कोर्ट का बड़ा निर्देश, सभी ट्रायल कोर्ट को समय पर भुगतान सुनिश्चित करने पर जोर याचिका में कहा गया, "सरकारी अधिसूचना के मद्देनजर 1.4.2022 से लागू होने वाला यह संशोधन मनमाना, अधिकार-बाह्य और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करने वाला है। इसे रद्द किए जाने योग्य घोषित किया जाए।" उल्लेखनीय है कि 1939 के मोटर वाहन अधिनियम को 1988 के अधिनियम द्वारा संशोधित किया गया, जिसके अनुसार दावा याचिका छह महीने के भीतर दायर की जानी थी। हालांकि, 1994 में संशोधन के माध्यम से किसी भी समय हुई दुर्घटना के संबंध में दावा याचिका दायर करने की समय सीमा हटा दी गई। 2019 के अधिनियम 32, जो 1.04.2022 से प्रभावी हुआ, उसके लागू होने के साथ विधानमंडल ने 166(3) के पुराने प्रावधानों को पुनः लागू किया और मुआवज़े के आवेदन पर तब तक विचार करने पर प्रतिबंध लगा दिया जब तक कि वह दुर्घटना घटित होने के छह महीने के भीतर प्रस्तुत न किया जाए। बता दें, धारा 166(3) इस प्रकार है: "(3) मुआवज़े के लिए कोई भी आवेदन तब तक स्वीकार नहीं किया जाएगा जब तक कि वह दुर्घटना घटित होने के छह महीने के भीतर प्रस्तुत न किया जाए।" याचिकाकर्ता ने इस संशोधन को इसलिए भी चुनौती दी, क्योंकि इस कानून में किसी भी राय पर विचार नहीं किया गया या इसके पीछे किसी विधि आयोग की रिपोर्ट या संसदीय बहस का उल्लेख नहीं किया गया। इसके अलावा, इस प्रक्रिया के दौरान प्रभावी हितधारकों से परामर्श नहीं किया गया। याचिका में आगे कहा गया, "इस संशोधन के पीछे की आपत्ति और कारण वर्तमान मामले के तथ्य और परिस्थितियों में पूरी तरह से मौन हैं, जो किसी भी नए वैधानिक प्रावधान को लागू करने या किसी क़ानून के मौजूदा प्रावधान में संशोधन करने से पहले सबसे प्रासंगिक पहलुओं में से एक है। इसलिए यह वर्तमान रिट याचिका सार्वजनिक स्थानों पर मोटर वाहनों के कारण सड़क उपयोगकर्ताओं और दुर्घटना पीड़ितों के हितों की रक्षा के लिए है।" इसके मद्देनजर, यह प्रस्तुत किया गया कि विवादित नियम "अनुचित, मनमाना और अतार्किक" है और सड़क दुर्घटना पीड़ितों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस याचिका पर नोटिस बाद में वर्ष अप्रैल में जारी किया गया।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/no-motor-accident-claim-should-be-dismissed-as-time-barred-supreme-courts-interim-order-in-plea-challenging-s1663-mv-act-309117


अपील की सुनवाई से पहले अपीलकर्ता की मृत्यु होने पर उसके पक्ष में पारित डिक्री अमान्य हो जाती है

 सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि अपील की सुनवाई से पहले अपीलकर्ता की मृत्यु होने पर उसके पक्ष में पारित डिक्री अमान्य हो जाती है, क्योंकि कानूनी वारिसों को रिकॉर्ड पर नहीं लाया गया था। नतीजतन, मूल ट्रायल कोर्ट की डिक्री पुनर्जीवित हो जाती है और निष्पादन योग्य हो जाती है, क्योंकि अपील अदालत का फैसला रद्द हो गया है। 

  • अमान्य डिक्री: यदि अपील की सुनवाई से पहले ही अपीलकर्ता की मृत्यु हो जाती है और उसके कानूनी वारिसों को केस में शामिल नहीं किया जाता है, तो अपील पर पारित कोई भी डिक्री अवैध मानी जाएगी।
  • ट्रायल कोर्ट की डिक्री पुनर्जीवित: चूंकि उच्च न्यायालय का फैसला अमान्य है, इसलिए मूल निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) का फैसला ही अंतिम माना जाएगा और वह निष्पादन के लिए उपलब्ध होगा।
  • अधिकारों की रक्षा: इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कानूनी वारिसों के अधिकारों की रक्षा हो सके, जिन्हें उचित प्रक्रिया के माध्यम से मुकदमे में शामिल नहीं किया गया था।
  • अदालती आदेश रद्द: इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निष्पादन अदालत और उच्च न्यायालय के उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिन्होंने अमान्य डिक्री को कायम रखा था और निष्पादन की कार्यवाही को बहाल किया। 

Cause Title: SURESH CHANDRA (DECEASED) THR. LRS. & ORS. VERSUS PARASRAM & ORS.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/appeal-fully-abates-if-lrs-of-deceased-party-in-joint-decree-not-substituted-supreme-court-summarises-law-on-suit-abatement-298080

Thursday, 6 November 2025

156(3) CrPC शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट 5 Nov 2025

 156(3) CrPC  शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट 5 Nov 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (4 नवंबर) को कहा कि जब शिकायत में आरोपित तथ्य किसी अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं तो मजिस्ट्रेट पुलिस को CrPC की धारा 156(3) (अब BNSS की धारा 175(3)) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश देने के लिए अधिकृत हैं। जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की खंडपीठ ने कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया, जिसमें मजिस्ट्रेट के निर्देश पर CrPC की धारा 156(3) के तहत दर्ज की गई FIR रद्द कर दी गई थी। 

चूंकि मजिस्ट्रेट को दी गई शिकायत में आरोपित तथ्य एक संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं, इसलिए कोर्ट ने पुलिस जांच के निर्देश देने के मजिस्ट्रेट के आदेश को यह कहते हुए उचित ठहराया कि संज्ञान-पूर्व चरण में मजिस्ट्रेट को केवल यह आकलन करने की आवश्यकता है कि क्या शिकायत एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, न कि यह कि आरोप सत्य हैं या प्रमाणित। अपने समर्थन में कोर्ट ने माधव बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2013) 5 एससीसी 615 के मामले का हवाला दिया, जहां यह टिप्पणी की गई: - “जब मजिस्ट्रेट को कोई शिकायत प्राप्त होती है तो वह संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं होता यदि शिकायत में आरोपित तथ्य किसी अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं। मजिस्ट्रेट के पास इस मामले में विवेकाधिकार होता है। 

यदि शिकायत का अध्ययन करने पर वह पाता है कि उसमें आरोपित आरोप एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करते हैं और CrPC की धारा 156(3) के तहत जांच के लिए शिकायत को पुलिस को भेजना न्याय के लिए अनुकूल होगा और मजिस्ट्रेट के बहुमूल्य समय को उस मामले की जांच में बर्बाद होने से बचाएगा, जिसकी जांच करना मुख्य रूप से पुलिस का कर्तव्य था तो अपराध का संज्ञान लेने के विकल्प के रूप में उस तरीके को अपनाना उसके लिए उचित होगा।” 

इस मामले में शिकायतकर्ता ने न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) से संपर्क किया, क्योंकि पुलिस ने कथित तौर पर हाईकोर्ट को गुमराह करने के लिए इस्तेमाल किए गए जाली किराया समझौते के संबंध में उसकी शिकायत पर कार्रवाई करने में विफल रही। शिकायत और सहायक सामग्री, विशेष रूप से ई-स्टाम्प पेपर के नकली होने की पुष्टि करने वाले आधिकारिक सत्यापन की जांच के बाद JMFC ने CrPC की धारा 156(3) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश दिया। पुलिस ने अनुपालन करते हुए जालसाजी (IPC की धारा 468, 471), धोखाधड़ी (IPC की धारा 420) और आपराधिक षड्यंत्र (IPC की धारा 120बी) सहित अपराधों के लिए एक FIR दर्ज की। हालांकि, हाईकोर्ट ने FIR और मजिस्ट्रेट के आदेश दोनों को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि निर्देश प्रक्रियात्मक त्रुटियों से ग्रस्त है और प्रथम दृष्टया कोई मामला स्थापित नहीं होता। 

हाईकोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर शिकायतकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। हाईकोर्ट का निर्णय रद्द करते हुए जस्टिस अमानुल्लाह द्वारा लिखित निर्णय में हाईकोर्ट की इस बात के लिए आलोचना की गई कि उसने जांच के प्रारंभिक चरण में ही हस्तक्षेप किया। इस तथ्य की अनदेखी की कि शिकायत में लगाए गए आरोप एक संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं। मजिस्ट्रेट के फैसले का समर्थन करते हुए अदालत ने कहा: “तथ्यात्मक स्थिति को देखते हुए JMFC के 18.01.2018 के आदेश में कोई त्रुटि नहीं है। पुलिस द्वारा पूर्ण जांच को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। हमारे विचार से JMFC ने मामले को जांच के लिए पुलिस को सौंपना उचित ही किया, क्योंकि JMFC के पास उपलब्ध सामग्री के आधार पर अभियुक्तों के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है।” 

तदनुसार, अदालत ने अपील स्वीकार की और आदेश दिया: “इस प्रकार, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों, अभिलेख में उपलब्ध सामग्री और पक्षकारों के वकीलों द्वारा प्रस्तुत तर्कों के समग्र अवलोकन के आधार पर दिनांक 24.07.2019 और 18.11.2021 के प्रथम और द्वितीय आक्षेपित आदेश निरस्त किए जाते हैं। खड़े बाजार पुलिस स्टेशन में दर्ज FIR अपराध संख्या 12/2018 को बहाल किया जाता है। पुलिस को कानून के अनुसार मामले की शीघ्रता से जांच करने का निर्देश दिया जाता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि निजी पक्ष पुलिस जांच के दौरान और संबंधित न्यायालय के समक्ष उचित स्तर पर कानून के अनुसार, अपने बचाव/स्थिति को दर्शाने के लिए सामग्री प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र होंगे।” 

Cause Title: SADIQ B. HANCHINMANI VERSUS THE STATE OF KARNATAKA & ORS.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/s-1563-crpc-once-complaint-discloses-cognizable-offence-magistrate-can-direct-police-to-register-fir-supreme-court-308918

अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के दो घंटे के अंदर लिखित आधार प्रस्तुत किए जाए, अन्यथा रिमांड होगी अवैध: सुप्रीम कोर्ट Shahadat 6 Nov 2025

अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के दो घंटे के अंदर लिखित आधार प्रस्तुत किए जाए, अन्यथा रिमांड होगी अवैध: सुप्रीम कोर्ट Shahadat 6 Nov 2025 

एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (6 नवंबर) को गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में देने की आवश्यकता को IPC/BNS के तहत सभी अपराधों पर लागू करने का निर्णय लिया, न कि केवल PMLA या UAPA जैसे विशेष कानूनों के तहत उत्पन्न होने वाले मामलों पर। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा कि गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी समझ में आने वाली भाषा में गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में न देने पर गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड अवैध हो जाएगी। अदालत ने कहा, "भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) के आलोक में गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार बताने की आवश्यकता महज औपचारिकता नहीं है, बल्कि अनिवार्य बाध्यकारी संवैधानिक सुरक्षा है, जिसे संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शामिल किया गया। इस प्रकार, यदि किसी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में यथाशीघ्र सूचित नहीं किया जाता है तो यह उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा, जिससे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होगा और गिरफ्तारी अवैध हो जाएगी।" 

कोर्ट द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत किए गए महत्वपूर्ण बिंदु:

 "i) गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार बताना संवैधानिक आदेश है, जो सभी क़ानूनों के अंतर्गत आने वाले सभी अपराधों में अनिवार्य है, जिसमें IPC 1860 (अब BNS 2023) के अंतर्गत आने वाले अपराध भी शामिल हैं। 

ii) गिरफ्तारी के आधार गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी समझ में आने वाली भाषा में लिखित रूप में बताए जाने चाहिए। 

iii) ऐसे मामलों में जहां गिरफ्तार करने वाला अधिकारी/व्यक्ति गिरफ्तारी के समय या उसके तुरंत बाद गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में बताने में असमर्थ हो, मौखिक रूप से ऐसा किया जाना चाहिए। उक्त आधारों को उचित समय के भीतर और किसी भी स्थिति में मजिस्ट्रेट के समक्ष रिमांड कार्यवाही के लिए गिरफ्तार व्यक्ति को पेश करने से कम से कम दो घंटे पहले लिखित रूप में बताया जाना चाहिए। 

iv) उपरोक्त का पालन न करने की स्थिति में गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड अवैध मानी जाएगी और व्यक्ति को रिहा किया जा सकता है।" 

Cause Title: MIHIR RAJESH SHAH VERSUS STATE OF MAHARASHTRA AND ANOTHER

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/written-grounds-of-arrest-not-furnished-atleast-two-hrs-before-production-of-accused-before-magistrate-the-arrest-and-subsequent-remand-illegal-supreme-court-309034

Monday, 20 October 2025

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में फर्जी जाति प्रमाण पत्र का इस्तेमाल करने के आरोपी पूर्व विधायक के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया 15 Oct 2025

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में फर्जी जाति प्रमाण पत्र का इस्तेमाल करने के आरोपी पूर्व विधायक के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया  15 Oct 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (14 अक्टूबर) को मध्य प्रदेश के गुना के आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए धोखाधड़ी से अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र हासिल करने के आरोपी पूर्व विधायक राजेंद्र सिंह और अन्य के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर पीठ का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें प्रथम दृष्टया मामला होने के बावजूद मिनी-ट्रायल किया गया था। खंडपीठ ने कहा कि एक बार जब किसी शिकायत में धोखाधड़ी, जालसाजी और षड्यंत्र के प्रथम दृष्टया अपराध का खुलासा होता है तो मामले की सुनवाई होनी चाहिए और रद्द करने के चरण में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। 

 शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि राजेंद्र सिंह, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से सामान्य वर्ग से संबंधित बताया गया, उन्होंने 2008 में एक फर्जी अनुसूचित जाति (सांसी) प्रमाण पत्र प्राप्त किया, जिससे उन्हें गुना (एससी आरक्षित) निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने और जीतने का मौका मिला। बाद में एक उच्चाधिकार प्राप्त जांच समिति ने यह पाते हुए प्रमाणपत्र रद्द किया कि यह अवैध रूप से और अनिवार्य प्रक्रियाओं का पालन किए बिना जारी किया गया था। समिति के आदेश को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट और अंततः 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा। 

 इसके बाद 2014 में निजी आपराधिक शिकायत दर्ज की गई, जिसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 420 (धोखाधड़ी), 467, 468, 471 (जालसाजी से संबंधित अपराध) और 120-बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया। हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए जस्टिस विश्वनाथन द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया: “हमने निर्णय के पूर्वार्ध में शिकायत का सारांश प्रस्तुत किया। जैसा कि ऊपर संक्षेप में दिए गए कथनों से स्पष्ट है, शिकायत और निर्विवाद दस्तावेजों को पढ़ने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त राजेंद्र सिंह के विरुद्ध IPC की धारा 420, 467, 468 और 471 तथा अभियुक्त अमरीक सिंह, हरवीर सिंह और श्रीमती किरण जैन के विरुद्ध IPC की धारा 420, 467, 468, 471 सहपठित धारा 120बी के अंतर्गत कोई अपराध प्रथम दृष्टया नहीं बनता। इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतिम निर्णय मुकदमे में आगे के सबूतों पर निर्भर करेगा।” 

अदालत ने आगे कहा, "शिकायत में स्पष्ट रूप से आरोप लगाया गया कि राजेंद्र सिंह और अमरीक सिंह सामान्य वर्ग से हैं। हमेशा खुद को सामान्य वर्ग का बताते रहे हैं और केवल आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के उद्देश्य से ही उन्होंने चुनाव की पूर्व संध्या पर जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए दस्तावेज, हलफनामे और पंचनामा प्रस्तुत किए। हमने संज्ञान लेने के आदेश का भी अवलोकन किया। ट्रायल जज ने सावधानीपूर्वक अपने विवेक का प्रयोग किया और अनाज से भूसा अलग किया और प्रस्तुत कारणों से बारह अभियुक्तों में से केवल चार प्रतिवादियों-अभियुक्तों के विरुद्ध ही संज्ञान लिया।" तदनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई और मामले को ट्रायल कोर्ट की फाइल में इस निर्देश के साथ वापस कर दिया गया कि मुकदमा एक वर्ष के भीतर पूरा किया जाए। 

Cause Title: KOMAL PRASAD SHAKYA VERSUS RAJENDRA SINGH AND OTHERS


https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/supreme-court-restores-criminal-case-against-ex-mla-for-allegedly-using-fake-caste-certificate-in-election-306973

Sunday, 19 October 2025

मोटर एक्सीडेंट ट्रिब्यूनल मृतक के साथी को मुआवजा दे सकता है: एमपी हाईकोर्ट 15 Oct 2025

मोटर एक्सीडेंट ट्रिब्यूनल मृतक के साथी को मुआवजा दे सकता है: एमपी हाईकोर्ट  15 Oct 2025 

 मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने यह कहा है कि मोटर एक्सीडेंट क्लेम्स ट्रिब्यूनल (Motor Accident Claims Tribunal) ऐसे सहवासिता (cohabitant) को मुआवजा प्रदान कर सकता है जो मृतक के साथ पति-पत्नी की तरह जीवन व्यतीत करता था, बशर्ते कि दावा करने वाला यह साबित कर सके कि उनका संबंध दीर्घकालिक, स्थिर और विवाह जैसी प्रकृति का था और वह आर्थिक रूप से मृतक पर निर्भर था, भले ही उनका विवाह औपचारिक रूप से नहीं हुआ हो। न्यायालय ने ट्रिब्यूनल का वह आदेश रद्द कर दिया जिसमें मृतक के पिता को मुआवजा दिया गया था और अपीलकर्ता के दावे को खारिज किया गया था। 

 मामले की पृष्ठभूमि: अपीलकर्ता, जो मृतक की विधवा भाभी थी, ने मुआवजा मांगा था यह कहते हुए कि वह और उसकी बेटी मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थीं। उनका तर्क था कि उनके पति की मृत्यु के बाद, मृतक ने स्थानीय रिवाजों के अनुसार उसे अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार किया और वे पति-पत्नी की तरह खुले रूप से रहते थे। गांव के सरपंच ने भी इस संबंध में प्रमाण पत्र जारी किया था। हालांकि, ट्रिब्यूनल ने अपीलकर्ता को कानूनी उत्तराधिकारी (legal heir) के रूप में मान्यता नहीं दी और मृतक के पिता को 2,38,500 रुपये का मुआवजा दिया। नाराज अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट का रुख किया। 

 अपीलकर्ता ने यह भी कहा कि मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत मुआवजा देने के लिए उनका वैवाहिक स्थिति महत्वपूर्ण नहीं है और ट्रिब्यूनल ने उनके आर्थिक निर्भरता और मृतक के साथ वास्तविक संबंध (de facto relationship) को नजरअंदाज किया। बीमा कंपनी ने अपील का विरोध किया और कहा कि चूंकि अपीलकर्ता मृतक की कानूनी पत्नी नहीं थी, इसलिए वह मुआवजे की पात्र नहीं है। "क्या मृतक की गैर-कानूनी पत्नी और उसकी बेटी, जो मृतक की संतान नहीं है, मोटर एक्सीडेंट क्लेम्स के तहत मुआवजे की पात्र हैं?" 

 कोर्ट का निर्णय: न्यायालय ने कहा कि मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत मृत्यु से संबंधित मुआवजा दावा मृतक के कानूनी प्रतिनिधियों (legal representatives) और उनके द्वारा अधिकृत एजेंट द्वारा किया जा सकता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि 'कानूनी प्रतिनिधि' की परिभाषा में मृतक की संपत्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले विरासतदार या कोई भी व्यक्ति जो मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर है शामिल है। 

N. Jayasree v Cholamandalam MS General Insurance Co Ltd के मामले का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि अधिनियम 'कानूनी उत्तराधिकार' की तुलना में आर्थिक निर्भरता और प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता देता है। 

 जस्टिस हिमांशु जोशी ने कहा,"उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए, यह अदालत मानती है कि ट्रिब्यूनल मृतक के उस सहवासिता को मुआवजा दे सकता है जो पति-पत्नी की तरह जीवन व्यतीत करता था। यह न्याय के सिद्धांत के अनुसार, मृतक पर उसकी निर्भरता को मान्यता देता है। हालांकि, सहवासिता को यह साबित करना होगा कि वह स्थिर, दीर्घकालिक संबंध में थी, मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थी और संबंध विवाह जैसी प्रकृति का था, भले ही वह औपचारिक न हो।" न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए मामले को ट्रिब्यूनल में अपीलकर्ता और मृतक के पिता दोनों के दावे पर फिर से विचार करने के लिए भेज दिया और आदेश दिया कि तीन महीने के भीतर नया मुआवजा आदेश पारित किया जाए।


https://hindi.livelaw.in/madhya-pradesh-high-court/motor-accident-tribunal-compensation-deceaseds-cohabitant-madhya-pradesh-high-court-307053

Order VII Rule 11 CPC | आदेश 7 नियम 11 में वादपत्र की अस्वीकृति का निर्णय केवल वादपत्र के कथनों के आधार पर होगा: सुप्रीम कोर्ट

Order VII Rule 11 CPC | आदेश 7 नियम 11 में वादपत्र की अस्वीकृति का निर्णय केवल वादपत्र के कथनों के आधार पर होगा: सुप्रीम कोर्ट

संतानहीन मुस्लिम विधवा को मृतक पति की संपत्ति में एक चौथाई हिस्सेदारी का अधिकार- सुप्रीम कोर्ट 17 Oct 2025

संतानहीन मुस्लिम विधवा को मृतक पति की संपत्ति में एक चौथाई हिस्सेदारी का अधिकार- सुप्रीम कोर्ट  17 Oct 2025 

सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले की पुष्टि की, जिसमें एक मुस्लिम विधवा को उनके मृत पति की संपत्ति में ¾ हिस्सेदारी से वंचित किया गया था। कोर्ट ने कहा कि यदि मुस्लिम पत्नी के कोई संतान नहीं है, तो वह केवल ¼ हिस्सेदारी की हकदार होती है। 

साथ ही, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मृतक के भाई द्वारा किए गए बिक्री समझौते से विधवा के वारिस होने के अधिकार प्रभावित नहीं होते, क्योंकि ऐसा समझौता मालिकाना हक स्थानांतरित या समाप्त नहीं करता। 

 मामला चंद खान की संपत्ति से संबंधित था, जो बिना उत्तराधिकारी और संतान के निधन हो गया। उनकी विधवा, ज़ोहरबी (अपीलकर्ता), ने दावा किया कि मुस्लिम कानून के तहत उन्हें संपत्ति का तीन-चौथाई हिस्सा मिलना चाहिए। मृतक के भाई (प्रतिवादी) ने तर्क दिया कि मृतक द्वारा जीवनकाल में संपन्न किए गए बिक्री समझौते के तहत संपत्ति का एक हिस्सा पहले ही हस्तांतरित हो गया था, इसलिए इसे वारिसी पूल से बाहर रखा जाना चाहिए। ट्रायल कोर्ट ने यह मान लिया, लेकिन अपीलेट कोर्ट और हाई कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि बिक्री समझौते से मालिकाना हक पैदा नहीं होता। 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट की धारा 54 के तहत, बिक्री का समझौता स्वयं में अचल संपत्ति का मालिकाना हक नहीं देता। चूंकि कोई रजिस्टर्ड सेल डीड नहीं बनाई गई थी, मृतक की मृत्यु तक संपत्ति उसी के नाम रही, और इसलिए यह मौरुक्का (matruka) संपत्ति का हिस्सा बनी, जिसे कानूनी वारिसों में बांटना था। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने मुस्लिम कानून के तहत मौरुक्का और उत्तराधिकार की अवधारणा पर विस्तृत चर्चा की। 

उन्होंने बताया कि मौरुक्का में मृतक मुस्लिम द्वारा छोड़ी गई सभी चल और अचल संपत्तियाँ शामिल होती हैं। वितरण से पहले, वैध वसीयत (जो अधिकतम एक-तिहाई तक हो सकती है) और मृतक के ऋण चुकाए जाते हैं। शेष संपत्ति फिर कुरान में निर्धारित हिस्सों के अनुसार वारिसों में बाँटी जाती है। 

 कोर्ट ने कहा कि कुरान के अध्याय IV, आयत 12 के अनुसार, विधवा को यदि संतान नहीं है तो पति की संपत्ति का एक-चौथाई हिस्सा मिलता है, और यदि संतान है तो केवल एक-आठवां हिस्सा। इस मामले में चंद खान के कोई संतान नहीं थी, इसलिए उनकी विधवा केवल ¼ हिस्सेदारी की हकदार थी। शेष हिस्सा अन्य वारिसों, जिनमें भाई भी शामिल हैं, में बाँटा गया। 

सुप्रीम कोर्ट ने विधवा की याचिका खारिज करते हुए यह स्पष्ट किया कि मुस्लिम कानून के तहत वारिसों के लिए कुरान में निर्धारित हिस्सेदारी मान्य होती है। यदि विधवा के कोई संतान या पोते-पोती नहीं हैं, तो उन्हें ¼ हिस्सा मिलता है; यदि संतान है, तो हिस्सेदारी घटकर 1/8 हो जाती है। कोर्ट ने कहा,“मुस्लिम वारिस कानून यह दर्शाता है कि सभी वारिसों को तय हिस्सेदारी मिलती है और पत्नी को वारिस के रूप में 1/8 हिस्सा मिलता है, लेकिन यदि कोई संतान या पोता नहीं है, तो पत्नी को मिलने वाला हिस्सा 1/4 है।”


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Thursday, 16 October 2025

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम | अदालत से प्रमाणित वसीयत को राज्य चुनौती नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम | अदालत से प्रमाणित वसीयत को राज्य चुनौती नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह फैसला दिया कि यदि किसी हिंदू पुरुष ने वसीयत (Will) बनाई है, जो अदालत द्वारा वैध घोषित की जा चुकी है और जिसे प्रोबेट (Probate) भी मिल चुका है, तो राज्य सरकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 29 के तहत एस्कीट (Escheat) के सिद्धांत का उपयोग नहीं कर सकती। यह फैसला जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस एस.सी. शर्मा की खंडपीठ ने दिया। मामला खेतीड़ी (राजस्थान) के राजा बहादुर सरदार सिंह की वसीयत से जुड़ा है, जिनका निधन 1987 में हुआ था। वसीयत (दिनांक 30 अक्टूबर, 1985) के अनुसार, उनकी सारी संपत्ति “खेतीड़ी ट्रस्ट” नामक एक लोकहितकारी चैरिटेबल ट्रस्ट को दी जानी थी।


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S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए

S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए 

16 Sept 2025  CrPCC की धारा 223 (अब BNSS की धारा 243) की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहां एक ही लेन-देन से उत्पन्न अपराधों में कई अभियुक्त शामिल हों, वहां संयुक्त सुनवाई स्वीकार्य है। अलग सुनवाई तभी उचित होगी जब प्रत्येक अभियुक्त के कृत्य अलग-अलग और पृथक करने योग्य हों। न्यायालय ने संयुक्त सुनवाई के संबंध में निम्नलिखित प्रस्ताव रखे:- 

(i) CrPC की धारा 218 के अंतर्गत अलग सुनवाई का नियम है। संयुक्त सुनवाई की अनुमति तब दी जा सकती है, जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों या CrPC की धारा 219-223 की शर्तें पूरी होती हों। हालांकि, तब भी यह न्यायिक विवेकाधिकार का विषय है। 

(ii) संयुक्त या अलग सुनवाई आयोजित करने का निर्णय सामान्यतः कार्यवाही की शुरुआत में और ठोस कारणों से लिया जाना चाहिए। 

(iii) ऐसे निर्णय लेने में दो सर्वोपरि विचारणीय बिंदु हैं: क्या संयुक्त सुनवाई से अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न होगा, और क्या इससे न्यायिक समय में देरी या बर्बादी होगी? 

(iv) एक मुकदमे में दर्ज साक्ष्य को दूसरे मुकदमे में शामिल नहीं किया जा सकता, जिससे मुकदमे के दो हिस्सों में विभाजित होने पर गंभीर प्रक्रियात्मक जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। 

 (v) दोषसिद्धि या बरी करने के आदेश को केवल इसलिए रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि संयुक्त या पृथक सुनवाई संभव है। हस्तक्षेप तभी उचित है जब पूर्वाग्रह या न्याय का हनन दर्शाया गया हो। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ विधायक मम्मन खान की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी, जिसमें 2023 के नूंह हिंसा मामले में उनके खिलाफ अलग से मुकदमा चलाने के निर्देश देने वाले निचली अदालत के आदेश को बरकरार रखा गया था, जिसमें कथित तौर पर छह लोग मारे गए थे। खान पर अन्य सह-आरोपियों के साथ इसी लेनदेन से उत्पन्न हिंसा को कथित रूप से भड़काने का मामला दर्ज किया गया। 

 हाईकोर्ट का फैसला खारिज करते हुए जस्टिस आर. महादेवन द्वारा लिखित फैसले में कहा गया कि खान के मामले में अलग से मुकदमा चलाने के ट्रायल कोर्ट का आदेश बरकरार रखने में हाईकोर्ट ने गलती की। कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का तर्क त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि कोई अलग तथ्य नहीं है, साक्ष्य अविभाज्य हैं और खान के प्रति कोई पूर्वाग्रह प्रदर्शित नहीं किया गया, जिससे अलगाव को उचित ठहराया जा सके। कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों तो CrPC की धारा 223 के तहत संयुक्त मुकदमा उचित है, क्योंकि एकत्रित सामग्री और साक्ष्य एक ही कथित घटना से संबंधित हैं। 

 खंडपीठ ने कहा, "मौजूदा मामले में अपीलकर्ता के खिलाफ सबूत सह-अभियुक्तों के खिलाफ सबूतों के समान हैं। अलग-अलग मुकदमों में अनिवार्य रूप से उन्हीं गवाहों को फिर से बुलाना शामिल होगा, जिसके परिणामस्वरूप दोहराव, देरी और असंगत निष्कर्षों का जोखिम होगा। हाईकोर्ट ने अलगाव के आदेश की पुष्टि करते हुए इन परिणामों को समझने में विफल रहा और तथ्यात्मक परिस्थितियों के ऐसे अलगाव को उचित ठहराए जाने का मूल्यांकन किए बिना खुद को CrPC की धारा 223 की विवेकाधीन भाषा तक सीमित कर लिया। इसलिए हम मानते हैं कि बिना किसी कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त औचित्य के अपीलकर्ता के मुकदमे को अलग करना कानून की दृष्टि से अस्थिर है। अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अपीलकर्ता के अधिकार का उल्लंघन है।" 

Cause Title: MAMMAN KHAN VERSUS STATE OF HARYANA


Wednesday, 15 October 2025

पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

  11 Sept 2025 सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि पुलिस को FIR दर्ज करते समय शिकायत की सत्यता या विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है; यदि शिकायत में प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो पुलिस FIR दर्ज करने के लिए बाध्य है। अदालत ने कहा, "यदि प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध बनता है तो FIR दर्ज करना पुलिस का कर्तव्य है, पुलिस को उक्त सूचना की सत्यता और विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है।" अदालत ने कहा कि रमेश कुमारी बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2006) 2 एससीसी 677 में यह निर्धारित किया गया कि "सूचना की सत्यता या विश्वसनीयता एफआईआर दर्ज करने के लिए पूर्व शर्त नहीं है।" जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की खंडपीठ ने दिल्ली पुलिस के पूर्व आयुक्त नीरज कुमार और इंस्पेक्टर विनोद कुमार पांडे के खिलाफ FIR दर्ज करने के दिल्ली हाईकोर्ट का निर्देश बरकरार रखते हुए ये टिप्पणियां कीं। यह निर्देश वर्ष 2000 में CBI में प्रतिनियुक्ति के दौरान धमकाने, रिकॉर्ड में हेराफेरी और जालसाजी के आरोपों के बाद दिया गया था।


सेल एग्रीमेंट सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी से संपत्ति का स्वामित्व नहीं मिलेगा: सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया

सेल एग्रीमेंट सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी से संपत्ति का स्वामित्व नहीं मिलेगा: सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया 

सुप्रीम कोर्ट ने पुनः पुष्टि की कि रजिस्टर्ड विक्रय पत्र के बिना अचल संपत्ति का स्वामित्व हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय रद्द कर दिया, जिसमें निचली अदालत के उस आदेश की पुष्टि की गई। इसमें वादी के पक्ष में हस्तांतरण को मान्य करने वाला कोई रजिस्टर्ड विक्रय पत्र निष्पादित न होने के बावजूद, वाद में कब्ज़ा, अनिवार्य निषेधाज्ञा और घोषणा का आदेश दिया गया। 

Cause Title: RAMESH CHAND (D) THR. LRS. VERSUS SURESH CHAND AND ANR.


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S.100 CPC | द्वितीय अपीलों में अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने के लिए हाईकोर्ट को कारण बताना होगा: सुप्रीम कोर्ट

 S.100 CPC | द्वितीय अपीलों में अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने के लिए हाईकोर्ट को कारण बताना होगा: - सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने सिद्धांत निर्धारित किए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट के लिए यह अनिवार्य है कि वे किसी दीवानी मामले में द्वितीय अपील में मूल रूप से न उठाए गए अतिरिक्त विधि प्रश्न को तैयार करते समय कारण दर्ज करें। धारा 100(5) का प्रावधान हाईकोर्ट को अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने की शक्ति प्रदान करता है। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि इस शक्ति का प्रयोग नियमित रूप से नहीं किया जा सकता, बल्कि केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, जिसके लिए हाईकोर्ट द्वारा कारण दर्ज करना आवश्यक हो। 

 Cause Title: C.P. FRANCIS VERSUS C.P. JOSEPH AND OTHERS


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Motor Accident Claims | दावेदार आय प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता तो बीमाकर्ता को लागू न्यूनतम वेतन अधिसूचना प्रस्तुत करनी होगी: सुप्रीम कोर्ट

 Motor Accident Claims | दावेदार आय प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता तो बीमाकर्ता को लागू न्यूनतम वेतन अधिसूचना प्रस्तुत करनी होगी: सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सड़क दुर्घटना में स्थायी रूप से दिव्यांग हो गए एक नाबालिग को दिए जाने वाले मुआवजे की राशि ₹8.65 लाख से बढ़ाकर ₹35.90 लाख कर दी। न्यायालय ने कहा कि आय निर्धारण के लिए नाबालिग को गैर-कमाऊ व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। इसके बजाय, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि नाबालिग की आय को उस राज्य में अधिसूचित कुशल श्रमिक के न्यूनतम वेतन के बराबर माना जाना चाहिए, जहां वाद का कारण उत्पन्न हुआ था। 

Cause Title: HITESH NAGJIBHAI PATEL VERSUS BABABHAI NAGJIBHAI RABARI & ANR.


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Monday, 29 September 2025

Motor Accident Compensation - न्यूनतम मज़दूरी केवल शैक्षिक योग्यता के आधार पर तय नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट 29 Sept 2025

Motor Accident Compensation - न्यूनतम मज़दूरी केवल शैक्षिक योग्यता के आधार पर तय नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट  29 Sept 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यूनतम मज़दूरी किसी व्यक्ति की शैक्षिक योग्यता के आधार पर उसके द्वारा किए जा रहे कार्य की प्रकृति के संदर्भ के बिना निर्धारित नहीं की जा सकती।अदालत मोटर दुर्घटना मुआवज़े के मामले पर निर्णय दे रहा था, जहां आय की मात्रा पर विवाद था। यह मामला एक 20 वर्षीय बी.कॉम फाइनल इयर स्टूडेंट से संबंधित था, जिसने भारतीय चार्टर्ड एकाउंटेंट्स संस्थान में भी दाखिला लिया था। हालांकि, 2001 में एक मोटर दुर्घटना के बाद वह लकवाग्रस्त हो गया और अपनी मृत्यु तक दो दशकों तक बिस्तर पर पड़ा रहा। ट्रिब्यूनल और दिल्ली हाईकोर्ट ने मुआवज़ा देने के उद्देश्य से श्रमिकों के लिए अधिसूचित न्यूनतम मज़दूरी, यानी 3,352 रुपये प्रति माह, लागू करके उसकी आय की गणना की थी। हाईकोर्ट ने तर्क दिया कि हालांकि पीड़ित की शैक्षणिक संभावनाएं थीं, लेकिन उसने अभी तक चार्टर्ड एकाउंटेंट की योग्यता हासिल नहीं की थी। इसलिए उस स्तर पर आय तय नहीं की जा सकती। 

इस दृष्टिकोण से असहमत होते हुए जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की खंडपीठ ने कहा कि न्यूनतम मजदूरी अनुसूची केवल शैक्षणिक योग्यता के आधार पर लागू नहीं की जा सकती। अदालत ने कहा, "हम इस बात से सहमत नहीं हैं कि न्यूनतम मजदूरी केवल शैक्षणिक योग्यता के आधार पर निर्धारित की जाएगी, बिना कार्य की प्रकृति के संदर्भ के।" साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि इन परिस्थितियों में कुशल श्रमिक की मजदूरी अपनाना भी उचित नहीं है। यह ध्यान में रखते हुए कि पीड़ित ग्रेजुएट होने पर एकाउंटेंट के रूप में नियोजित हो सकता था, अदालत ने प्रणय सेठी के अनुसार, भविष्य की संभावनाओं के लिए 40% अतिरिक्त के साथ, 2001 में 5,000 रुपये मासिक आय निर्धारित की। 

 इस आधार पर अदालत ने मुआवजे की राशि बढ़ाकर 40.34 लाख रुपये की। साथ ही बीमाकर्ता को पीड़ित के माता-पिता द्वारा उसके जीवनकाल में किए गए सत्यापित मेडिकल व्यय के लिए 20 लाख रुपये अतिरिक्त भुगतान करने का निर्देश दिया। यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि आय के नुकसान का आकलन करते समय अदालतों को न्यूनतम मजदूरी के कठोर वर्गीकरण से परे देखना चाहिए और पीड़ितों की वास्तविक रोजगार संभावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए। 

Case : Sharad Singh v HD Narang


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Thursday, 25 September 2025

पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती, केवल मूल डिक्री/आदेश ही अपील योग्य: सुप्रीम कोर्ट 24 Sept 2025

पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती, केवल मूल डिक्री/आदेश ही अपील योग्य: सुप्रीम कोर्ट  24 Sept 2025 

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (23 सितंबर) को फैसला सुनाया कि पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश को स्वतंत्र रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह केवल मूल आदेश या डिक्री की पुष्टि करता है। इसलिए पीड़ित पक्ष को मूल आदेश या डिक्री को ही चुनौती देनी चाहिए, न कि पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश को। कोर्ट ने कहा कि जब पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी जाती है तो मूल डिक्री का बर्खास्तगी आदेश के साथ विलय नहीं होता है। 

कोर्ट ने स्पष्ट किया: “जब भी किसी डिक्री या आदेश से व्यथित कोई पक्ष धारा 114 के साथ पठित आदेश XLVII, CPC में निर्दिष्ट मापदंडों के आधार पर उस पर पुनर्विचार की मांग करता है और आवेदन अंततः विफल हो जाता है तो पुनर्विचाराधीन डिक्री या आदेश में कोई परिवर्तन नहीं होता है। यह अक्षुण्ण रहता है। ऐसी स्थिति में पुनर्विचार के अस्वीकृति आदेश में पुनर्विचाराधीन डिक्री या आदेश का विलय नहीं होता है, क्योंकि ऐसी अस्वीकृति डिक्री या आदेश में कोई परिवर्तन या संशोधन नहीं लाती है; बल्कि, इसके परिणामस्वरूप डिक्री या आदेश की पुष्टि होती है। चूंकि किसी विलय का कोई प्रश्न ही नहीं है, इसलिए पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति से व्यथित पक्ष को, जैसा भी मामला हो, डिक्री या आदेश को चुनौती देनी होगी, न कि पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति के आदेश को।” 

अदालत ने आगे कहा, "इसके विपरीत यदि पुनर्विचार याचिका स्वीकार कर ली जाती है और वाद या कार्यवाही पुनर्विचार के लिए रखी जाती है तो नियम 7(1) पीड़ित पक्ष को पुनर्विचार की अनुमति देने वाले आदेश पर तुरंत आपत्ति करने या वाद में अंतिम रूप से पारित या दिए गए आदेश या डिक्री के विरुद्ध अपील करने की अनुमति देता है, अर्थात विवादित मामले की पुनर्विचार के बाद।" जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें दो विशेष अनुमति याचिकाएं दायर की गई थीं, एक हाईकोर्ट के आदेश की पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति के विरुद्ध और दूसरी हाईकोर्ट के मूल आदेश के विरुद्ध। 

 जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित निर्णय में दोनों विशेष अनुमति याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज किया गया कि स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि इसमें केवल पुनर्विचार याचिका की अस्वीकृति को चुनौती दी गई। दूसरी पर रोक लगा दी गई, क्योंकि इसे पुनः दाखिल करने की अनुमति प्राप्त किए बिना पिछली विशेष अनुमति याचिका को बिना शर्त वापस लेने के बाद पुनः दाखिल किया गया।

 Cause Title: SATHEESH V.K. VERSUS THE FEDERAL BANK LTD.


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Tuesday, 23 September 2025

यदि उसी आदेश के विरुद्ध पहली विशेष अनुमति याचिका बिना शर्त वापस ले ली गई हो तो दूसरी विशेष अनुमति याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी: सुप्रीम कोर्ट 23 Sept 2025

यदि उसी आदेश के विरुद्ध पहली विशेष अनुमति याचिका बिना शर्त वापस ले ली गई हो तो दूसरी विशेष अनुमति याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी: सुप्रीम कोर्ट  23 Sept 2025

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (23 सितंबर) को कहा कि एक बार विशेष अनुमति याचिका (SLP) बिना शर्त वापस ले ली गई हो तो उसी आदेश को चुनौती देने वाली दूसरी विशेष अनुमति याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी। अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि यदि आक्षेपित आदेश के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी जाती है तो उसके बाद न तो पुनर्विचार याचिका की बर्खास्तगी को और न ही मूल आदेश को चुनौती दी जा सकती है। अदालत ने कहा, “किसी पक्षकार के कहने पर दूसरी विशेष अनुमति याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी, जो पहले की विशेष अनुमति याचिका में दी गई चुनौती पर आगे नहीं बढ़ना चाहता और नई विशेष अनुमति याचिका दायर करने की अनुमति प्राप्त किए बिना ऐसी याचिका वापस ले लेता है; यदि ऐसा पक्षकार उस अदालत के समक्ष पुनर्विचार याचिका दायर करता है, जिसके आदेश से विशेष अनुमति याचिका शुरू में दायर की गई। पुनर्विचार याचिका विफल हो जाती है तो वह न तो पुनर्विचार याचिका को खारिज करने वाले आदेश को और न ही उस आदेश को चुनौती दे सकता है, जिसके पुनर्विचार की मांग की गई।” जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने केरल हाईकोर्ट से उत्पन्न मामले की सुनवाई की, जिसने अपीलकर्ता सतीश को किश्तों में ऋण की बकाया राशि चुकाने का निर्देश दिया था। इसे चुनौती देते हुए उन्होंने 2024 में SLP के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हालांकि, 28 नवंबर, 2024 को जब न्यायालय ने गुण-दोष पर संदेह व्यक्त किया तो वकील ने बिना किसी शर्त के नए सिरे से याचिका दायर करने की स्वतंत्रता मांगे बिना याचिका वापस ले ली। इसके बाद अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने दो नई विशेष अनुमति याचिकाएं दायर कीं, अर्थात् एक मूल हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध और दूसरी पुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश के विरुद्ध। ये विशेष अनुमति याचिकाएं वर्तमान अपीलों में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आईं। सीपीसी के आदेश XXIII नियम 1 का संदर्भ लेते हुए जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया कि एक बार जब कोई वादी बिना किसी स्वतंत्रता के याचिका वापस ले लेता है तो उसे उसी वाद-कारण पर नई याचिका दायर करने से रोक दिया जाता है। अदालत ने उपाध्याय एंड कंपनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1999) मामले पर भरोसा किया, जिसमें इस सीपीसी सिद्धांत को SLP पर भी स्पष्ट रूप से लागू किया गया। अदालत ने कहा कि जो पक्षकार नई SLP दायर करने की स्वतंत्रता प्राप्त किए बिना SLP वापस ले लेता है, वह बाद में उसी आदेश को नई SLP के माध्यम से फिर से चुनौती नहीं दे सकता। अदालत ने कहा, "उपाध्याय एंड कंपनी (सुप्रा), जो समय की दृष्टि से कुन्हायम्मद (सुप्रा) से पहले आता है, अभी भी इस क्षेत्र में कानून का पालन करता है। स्पष्ट रूप से यह घोषित करता है कि सीपीसी के आदेश XXIII नियम 1 से निकलने वाला सिद्धांत इस अदालत के समक्ष प्रस्तुत विशेष अनुमति याचिकाओं पर भी लागू होता है।" अदालत ने इस सिद्धांत पर जोर दिया कि मुकदमेबाजी का अंत जनहित में है। ऐसी परिस्थितियों में दूसरी SLP पर विचार करना इस सिद्धांत का उल्लंघन होगा और अदालत के अपने पूर्व आदेश, जो वापसी पर अंतिम हो गया, उसके विरुद्ध अपील करने के समान होगा। अदालत ने कहा, "हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान प्रकृति के किसी मामले में SLP पर विचार करना लोक नीति के विरुद्ध होगा और यहां तक कि इस अदालत के पूर्व आदेश, जो अंतिम हो चुका है, उसके विरुद्ध अपील करने के समान भी हो सकता है। जनहित में यह सर्वमान्य है कि मुकदमेबाजी का अंत हो।" यह कथन चारों ओर लागू होगा, जब यह पाया जाता है कि किसी आदेश को चुनौती देने वाली कार्यवाही SLP वापस लेने के कारण आगे नहीं बढ़ाई गई और वादी कुछ समय बाद उसी आदेश को चुनौती देने के लिए उसी अदालत में वापस आ गया, जिस पर पहले चुनौती दी गई थी और उस चुनौती पर आगे कार्रवाई नहीं की गई। यह एक ऐसा कदम है, जिसे न तो सिद्धांत रूप में और न ही सिद्धांत रूप में उचित ठहराया जा सकता है।" अदालत ने आगे कहा कि पुनर्विचार याचिका की बर्खास्तगी के विरुद्ध आदेश XLVII नियम 7 CPC के आलोक में अपील सुनवाई योग्य नहीं है, जो पुनर्विचार को खारिज

करने वाले आदेश के विरुद्ध अपील पर रोक लगाता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसी बर्खास्तगी मूल आदेश को नहीं बदलती, बल्कि केवल उसकी पुष्टि करती है। इसलिए इसे स्वतंत्र रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती। यद्यपि याचिकाकर्ता ने कहा कि पुनर्विचार आदेश को चुनौती देने वाली दूसरी SLP की सुनवाई योग्यता का प्रश्न एस नरहरि एवं अन्य बनाम एसआर कुमार एवं अन्य मामले में एक वृहद पीठ को भेजा गया, पीठ ने उक्त मामले को इस प्रकार विभेदित किया कि उसमें पुनर्विचार याचिका दायर करने की स्वतंत्रता मांगी गई। हालांकि, इस मामले में ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं मांगी गई। पीठ ने एनएफ रेलवे वेंडिंग एंड कैटरिंग कॉन्ट्रैक्टर्स एसोसिएशन, लुमडिंग डिवीजन बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में हाल ही में दिए गए फैसले का भी हवाला दिया। अपीलकर्ता ने कुन्हयाम्मेद बनाम केरल राज्य (2000) और खोदे डिस्टिलरीज लिमिटेड (2019) के मामलों का हवाला दिया, जिनमें बिना किसी स्पष्ट आदेश के विशेष अनुमति याचिकाओं को खारिज किए जाने के बावजूद पुनर्विचार याचिकाओं की सुनवाई योग्यता को मान्यता दी गई। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि वे मामले खारिज करने से संबंधित थे, स्वैच्छिक वापसी से नहीं। यहां, न्यायालय में पुनः जाने की कोई स्वतंत्रता नहीं दी गई। तदनुसार, अपील खारिज कर दी गई। 

Cause Title: SATHEESH V.K. VERSUS THE FEDERAL BANK LTD.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/second-special-leave-petition-not-maintainable-if-first-slp-against-same-order-was-withdrawn-unconditionally-supreme-court-304875 

SARFAESI Act सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों के पूर्वव्यापी अनुप्रयोग के सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया

SARFAESI Act सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों के पूर्वव्यापी अनुप्रयोग के सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया 23 Sept 2025 

 हाल ही में दिए गए एक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों के पूर्वव्यापी अनुप्रयोग के सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने यह विचार-विमर्श करते हुए कहा कि SARFAESI Act की धारा 13(8) में 2016 का संशोधन, संशोधन लागू होने से पहले लिए गए ऋणों पर लागू होगा, यदि चूक संशोधन के बाद हुई हो। खंडपीठ ने सिद्धांतों का सारांश इस प्रकार प्रस्तुत किया: 

(i) पूर्वव्यापी प्रभाव के विरुद्ध उपधारणा उन अधिनियमों पर लागू नहीं होती, जो केवल प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं या मंच बदलते हैं या घोषणात्मक हैं। 

(ii) पूर्वव्यापी प्रभाव किसी प्रावधान में उस संदर्भ में निहित हो सकता है जहाँ वह घटित होता है। 

(iii) संदर्भ को देखते हुए किसी प्रावधान को ऐसे प्रावधान के लागू होने के बाद वाद हेतुक पर लागू माना जा सकता है, भले ही जिस दावे पर वाद आधारित हो, वह पूर्ववर्ती तिथि का हो। 

(iv) एक उपचारात्मक क़ानून लंबित कार्यवाहियों पर लागू होता है। यदि आवेदन किसी लंबित वाद हेतुक के संदर्भ में भविष्य में किया जाना है तो ऐसे आवेदन को पूर्वव्यापी नहीं माना जा सकता है। 

(v) SARFAESI Act एक उपचारात्मक क़ानून है, जिसका उद्देश्य पूर्व-विद्यमान ऋण लेनदेन की समस्या से निपटना है, जिसकी शीघ्र वसूली आवश्यक है। 

Cause Title: M. RAJENDRAN & ORS. VERSUS M/S KPK OILS AND PROTIENS INDIA PVT. LTD. & ORS.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/supreme-court-summarises-principles-on-retrospective-application-of-laws-304855 

सुप्रीम कोर्ट ने 1971 के विक्रय पत्र मामले में 71 वर्षीय महिला के खिलाफ FIR दर्ज कराने वाले वकील को फटकार लगाई 22 Sept 2025

सुप्रीम कोर्ट ने 1971 के विक्रय पत्र मामले में 71 वर्षीय महिला के खिलाफ FIR दर्ज कराने वाले वकील को फटकार लगाई 22 Sept 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने वकील को यह बताने का निर्देश दिया कि पांच दशक से भी पहले, 1971 में निष्पादित विक्रय पत्र में जालसाजी का आरोप लगाते हुए 2023 में FIR दर्ज कराने के लिए उन पर अनुकरणीय जुर्माना क्यों न लगाया जाए। यह देखते हुए कि यह मामला कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत होता है, अदालत ने संबंधित थाना प्रभारी को भी कारण बताने के लिए कहा कि कार्यवाही को रद्द क्यों न कर दिया जाए। FIR में आरोपी एक 71 वर्षीय महिला है। 

जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस एनके सिंह की पीठ उस महिला द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रही थी, जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था। अदालत ने याचिका खारिज करने के "लापरवाह" तरीके के लिए हाईकोर्ट की आलोचना की। याचिकाकर्ता महिला की गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए पीठ ने कहा, "यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता एक 71 वर्षीय महिला हैं। उस महिला की अग्रिम ज़मानत की प्रार्थना को अतार्किक रूप से अस्वीकार कर दिया, *जबकि वह न तो विक्रेता हैं, न ही क्रेता, न ही 21.08.1971 के विक्रय पत्र की गवाह या लाभार्थी।* जिस लापरवाही से यह आदेश पारित किया गया, वह आत्मनिरीक्षण का विषय है। इस समय हम इससे अधिक कुछ नहीं कहेंगे।" 

अदालत ने कहा कि प्रतिवादी नंबर 2-शिकायतकर्ता पेशे से वकील हैं और वे सेवा से बच रहे हैं। इसलिए अदालत ने अगली तारीख पर उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए ज़मानती वारंट जारी किए। अदालत ने आगे कहा कि यदि शिकायतकर्ता नोटिस स्वीकार करने में कोई अनिच्छा दिखाता है तो उसकी उपस्थिति गैर-ज़मानती वारंट के माध्यम से सुनिश्चित की जाएगी। *चूंकि शिकायतकर्ता ने 1971 के विक्रय पत्र में जालसाजी का आरोप लगाते हुए 2023 में FIR दर्ज कराई,* इसलिए अदालत ने उनसे कारण बताओ नोटिस जारी करने को भी कहा कि उन पर कठोर दंड क्यों न लगाया जाए। अदालत ने संबंधित थाने के प्रभारी को FIR दर्ज करने से संबंधित मूल अभिलेख प्रस्तुत करने और कारण बताओ नोटिस जारी करने को भी कहा कि कार्यवाही को रद्द क्यों न कर दिया जाए, क्योंकि प्रथम दृष्टया यह कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत होता है। यह मामला अगली सुनवाई 8 अक्टूबर को सूचीबद्ध है। 

Case Title: USHA MISHRA VERSUS STATE OF U.P. & ANR., SLP(Crl.) No(s). 9346/2025

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/supreme-court-hauls-up-advocate-who-lodged-fir-against-71-year-old-woman-alleging-forgery-in-1971-sale-deed-304627