Sunday, 30 November 2025

मुकदमा दायर होने से पहले बेची गई संपत्ति पर ‘जजमेंट से पूर्व कुर्की’ का आदेश लागू नहीं हो सकता: सुप्रीम कोर्ट

मुकदमा दायर होने से पहले बेची गई संपत्ति पर ‘जजमेंट से पूर्व कुर्की’ का आदेश लागू नहीं हो सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई संपत्ति मुकदमा (Suit) दायर होने से पहले ही किसी तीसरे पक्ष को


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Wednesday, 26 November 2025

दिनांक 01 जुलाई 2025 या 1 जनवरी को देय वार्षिक वेतनवृद्धि जोड़कर पेंशन व संबंधित लाभ प्रदान करने हेतु आवेदन

 सेवा में,

मुख्य कार्यपालन अधिकारी

कौशल विकास एवं रोजगार विभाग

गोबिंदपुरा, भोपाल (मध्य प्रदेश)

विषय: दिनांक 01 जुलाई 2025 को देय वार्षिक वेतनवृद्धि जोड़कर पेंशन व संबंधित लाभ प्रदान करने हेतु आवेदन।

महोदय,

सविनय निवेदन है कि मैं अजीत सिंह मीणा, पिता श्री लालाराम मीणा, पदस्थ — कौशल विकास एवं रोजगार विभाग, भोपाल (मध्य प्रदेश), दिनांक 30 जून 2025 को अधिवार्षिकी आयु पूर्ण होने पर विधिवत सेवानिवृत्त हुआ हूँ।

मैंने 30 जून 2025 तक पूरे एक वर्ष की सेवा उत्तम आचरण एवं दक्षता के साथ पूर्ण की है। अतः मेरे लिए 01 जुलाई 2025 को देय वार्षिक वेतनवृद्धि (Annual Increment) का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्न निर्णयों में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है—

1. Director (ADMN) & HR KPTCL v. C.P. Mundinamani (2023 SCC OnLine SC 401)

2. Union of India v. M. Siddaraj (Decision dated 20.02.2025)

3. मध्यप्रदेश शासन वित्त विभाग का परिपत्र दिनांक 15.03.2024

माननीय उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश द्वारा पारित आदेशों में भी स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि 30 जून को सेवानिवृत्त कर्मचारी 1 जुलाई को देय इन्क्रीमेंट के अधिकारी हैं और पेंशन व सभी परिणामी लाभ उसी के अनुसार संशोधित किए जाएँ।


अतः निवेदन है कि—

मेरा 01 जुलाई 2025 का वार्षिक वेतनवृद्धि (Annual Increment) पेंशन निर्धारण (PPO) में सम्मिलित कर, संशोधित पेंशन, बकाया राशि तथा अन्य सभी वित्तीय लाभ यथाशीघ्र प्रदान करने की कृपा करें।

यदि आवश्यक हो तो मैं सभी दस्तावेज उपलब्ध कराने के लिए तत्पर हूँ।

आपकी अत्यंत कृपा होगी।

दिनांक: [तारीख]

स्थान: भोपाल

भवदीय,

(अजीत सिंह मीणा)

पिता— श्री लालाराम मीणा

पूर्व कर्मचारी, कौशल विकास एवं रोजगार विभाग

मो. [मोबाइल नंबर]

पेंशन खाता क्रमांक (यदि उपलब्ध हो): [ ]

ममममममममममममममममममम 

        WP-43854-2025

IN THE HIGH COURT OF MADHYA PRADESH

AT JABALPUR

BEFORE

HON'BLE SHRI JUSTICE SANJEEV SACHDEVA,

CHIEF JUSTICE

&

HON'BLE SHRI JUSTICE VINAY SARAF

ON THE 24

th OF NOVEMBER, 2025

WRIT PETITION No. 23801 of 2025

PYARELAL VISHWAKARMA

Versus

THE STATE OF MADHYA PRADESH AND OTHERS


इन सभी रिट याचिकाओं में तथ्य और कानून का एक समान प्रश्न उत्पन्न होता है, अतः इन्हें एक साथ (analogously) सुना गया और इस सामान्य आदेश द्वारा निस्तारित किया जा रहा है।

2. इन सभी याचिकाओं में याचिकाकर्ताओं की समान शिकायत यह है कि सेवा अवधि के एक वर्ष पूर्ण होने पर जो वार्षिक वेतनवृद्धि (Annual Increment) देय हो गई थी, उन्हें सुपरऐन्युएशन (सेवानिवृत्ति आयु) प्राप्त करने से ठीक पहले उस लाभ से वंचित रखा गया। कुछ मामलों में याचिकाकर्ता अथवा उनके विधवा/कानूनी वारिसों के कर्मचारी 30 जून को सेवानिवृत्त हुए हैं, जबकि कुछ अन्य 31 दिसम्बर को सेवानिवृत्त हुए। उनका कहना है कि 1 जुलाई या 1 जनवरी को देय वार्षिक वेतनवृद्धि उन्हें नहीं दी गई, जबकि वे इसके अधिकारी थे। इसीलिए ये याचिकाएँ दायर की गई हैं।

3. याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ताओं ने Director (ADMN) and HR KPTCL v. C.P. Mundinamani, 2023 SCC OnLine SC 401 के निर्णय पर भरोसा किया है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि:- वार्षिक वेतनवृद्धि पाने का अधिकार उस समय सुनिश्चित (crystallise) हो जाता है जब सरकारी सेवक आवश्यक अवधि की सेवा अच्छे आचरण के साथ पूर्ण कर लेता है, और यह वेतनवृद्धि अगले दिन देय हो जाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि सेवानिवृत्ति की तिथि से ठीक पहले के समूचे वर्ष की अच्छी सेवा के लिए अर्जित वार्षिक वेतनवृद्धि देय है।

4. मध्यप्रदेश शासन के वित्त विभाग का दिनांक 15.03.2024 का परिपत्र भी उल्लेखनीय है, जिसमें सभी विभागों को निर्देशित किया गया है कि वे 30 जून/31 दिसम्बर को सेवानिवृत्त कर्मचारियों को 1 जुलाई/1 जनवरी को देय वेतनवृद्धि प्रदान करें। अतः प्रार्थना है कि उत्तरदाताओं को निर्देशित किया जाए कि वेतनवृद्धि जोड़कर पेंशनरी लाभ, बकाया राशि तथा ब्याज समयबद्ध रूप से दिया जाए।

5. राज्य सरकार के अधिवक्ता का कहना है कि यह मुद्दा उक्त परिपत्र द्वारा कवर्ड है और इसे लागू किया जा रहा है तथा सभी मामलों की जाँच-पड़ताल जारी है।

6. तथापि, चूँकि याचिकाकर्ता/कर्मचारी 30 जून या 31 दिसम्बर को सेवानिवृत्त हुए, वे अगले दिन यानी 1 जुलाई या 1 जनवरी को देय वार्षिक वेतनवृद्धि पाने के अधिकारी हैं।

7. इस न्यायालय ने पूर्व में Rushibhai Jagdishchandra Pathak v. Bhavnagar Municipal Corporation, 2022 SCC OnLine SC 641 का अनुसरण करते हुए देरी से याचिका दायर करने पर तीन वर्ष पूर्व तक ही बकाया देने की सीमा लगाई थी, परंतु C.P. Mundinamani के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 06.09.2024 (संशोधित आदेश दिनांक 20.02.2025) में Union of India v. M. Siddaraj (Civil Appeal No. 3933/2023) में निम्न स्पष्टीकरण दिए—

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश:

(a) तृतीय पक्ष (third parties) को 11.04.2023 के निर्णय का लाभ 01.05.2023 से मिलेगा। इसके पूर्व की तिथि का बढ़ा हुआ पेंशन देय नहीं होगा।

(b) जिन्होंने रिट याचिका दायर कर सफलता प्राप्त की है, उनके लिए निर्णय res judicata के रूप में लागू होगा और उन्हें एक वेतनवृद्धि जोड़कर पेंशन देनी होगी।

(c) उपरोक्त (b) लागू नहीं होगा यदि निर्णय अंतिम नहीं हुआ है या अपील लंबित है।

(d) जिन सेवानिवृत्त कर्मचारियों ने आवेदन/हस्तक्षेप/रिट/ओए दायर किया है, उन्हें आवेदन दायर करने के तीन वर्ष पूर्व की अवधि तक बढ़ा पेंशन देय होगी।

8. सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि खंड (d) उन मामलों पर लागू नहीं होगा जहाँ याचिका M. Siddaraj के निर्णय (19.05.2023) के बाद दायर की गई है — ऐसे मामलों में खंड (a) लागू होगा। किसी भी कर्मचारी को यदि लाभ न मिले तो वे पहले विभाग के समक्ष और फिर आवश्यक होने पर न्यायाधिकरण/उच्च न्यायालय जा सकते हैं। सरकार को आदेश दिया गया है कि वह दिनांक 20.02.2025 के सुप्रीम कोर्ट निर्देशों के अनुसार मामलों को शीघ्र निपटाए।

9. इस प्रकार, जहाँ याचिकाकर्ताओं ने देरी से रिट दायर की है, वहाँ बकाया केवल 01.05.2023 से देय होगा। अन्य मामलों में बकाया सेवा निवृत्ति की तिथि से देय होगा तथा 7% वार्षिक ब्याज मिलेगा (जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने M. Siddaraj में निर्देशित किया)।

10. अतः उत्तरदाताओं को निर्देशित किया जाता है कि:- 1 जुलाई या 1 जनवरी को देय वेतनवृद्धि याचिकाकर्ताओं को दी जाए, सभी परिणामी लाभ भी ऊपर वर्णित तरीके से प्रदान किए जाएँ, तथा वेतनवृद्धि से प्राप्त राशि छह सप्ताह के भीतर अदा की जाए।

11. उपर्युक्त के अनुसार सभी रिट याचिकाएँ निस्तारित की जाती हैं।

(संजीव सचदेवा)

मुख्य न्यायाधीश

(विनय सारथ)

न्यायाधीश

थथथथथथथथथथथथथथथथथथथथथ 


⚖️ वार्षिक वेतनवृद्धि (Increment) – सरल हिन्दी सार

1. मामला किस बारे में है?

कई कर्मचारी 30 जून या 31 दिसम्बर को सेवानिवृत्त हुए। इन कर्मचारियों को अगले दिन (1 जुलाई या 1 जनवरी) मिलने वाली वर्ष की अंतिम वेतनवृद्धि नहीं दी गई थी। इसी को लेकर सभी ने याचिकाएँ दायर की थीं।

2. सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट ने C.P. Mundinamani केस में स्पष्ट कहा कर्मचारी जब एक साल की सेवा अच्छे आचरण से पूरी कर लेता है, वेतनवृद्धि का हक उसी समय पक्का हो जाता है। चाहे वह सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले ही क्यों न हो। इसलिए 30 जून को रिटायर हुआ कर्मचारी 1 जुलाई की वेतनवृद्धि का अधिकारी है। और 31 दिसम्बर को रिटायर हुआ कर्मचारी 1 जनवरी की वेतनवृद्धि का अधिकारी है।

3. मध्य प्रदेश सरकार का आदेश (15.03.2024)- राज्य सरकार ने भी सभी विभागों को निर्देश दिए कि ऐसे कर्मचारियों को देय वेतनवृद्धि दी जाए।

4. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 20.02.2025 को दी गई महत्वपूर्ण स्पष्टता

(A) यदि कर्मचारी ने कोई याचिका नहीं की थी (Third Party):- बढ़ी हुई पेंशन 1 मई 2023 से ही मिलेगी। इसके पहले का पैसा नहीं मिलेगा।

(B) जिन्होंने रिट दायर की और केस जीता:- उन्हें पूरा लाभ मिलेगा (judgment res judicata)। यानी उनकी पेंशन में एक इन्क्रीमेंट जोड़कर उसी के अनुसार भुगतान।

(C) यदि केस अभी अपील में लंबित है:- तब लाभ तब तक नहीं मिलेगा।

(D) जिन्होंने याचिका/हस्तक्षेप/ओए दायर की:- उन्हें याचिका दायर करने से 3 साल पहले तक का बकाया मिलेगा।

महत्वपूर्ण:

जो कर्मचारी M. Siddaraj (19.05.2023) के निर्णय के बाद कोर्ट आए, उन पर (D) लागू नहीं होगा। उन्हें केवल 1 मई 2023 से ही बकाया मिलेगा (जैसा कि (A) में है)।

5. हाई कोर्ट का अंतिम आदेश

अदालत ने कहा:- सभी याचिकाकर्ताओं को उनकी देय वेतनवृद्धि (1 जुलाई/1 जनवरी) दी जाए। साथ में पेंशन एवं अन्य लाभ भी उसमें जोड़कर तय किए जाएँ यदि देरी से याचिका दायर की है → बकाया 01.05.2023 से मिलेगा। यदि देरी नहीं है → बकाया सेवानिवृत्ति की तिथि से मिलेगा ब्याज 7% प्रतिवर्ष दिया जाएगा। पूरा भुगतान 6 सप्ताह के भीतर किया जाए।

📌 संक्षेप में — आपका लाभ क्या है?

✔ 30 जून या 31 दिसम्बर को रिटायर होने पर

➡ 1 जुलाई / 1 जनवरी की वेतनवृद्धि पक्की है।

✔ यह वेतनवृद्धि आपकी पेंशन

 में जोड़कर

➡ पेंशन + बकाया + 7% ब्याज दिया जाएगा।

✔ भुगतान सरकार को 6 सप्ताह में करना होगा।

बेटी के विवाह खर्च और भरण-पोषण की कानूनी–नैतिक जिम्मेदारी पिता पर: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

बेटी के विवाह खर्च और भरण-पोषण की कानूनी–नैतिक जिम्मेदारी पिता पर: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट 

 25 Nov 2025 

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा है कि पिता अपनी अविवाहित बेटी के भरण-पोषण और विवाह खर्च उठाने के लिए न केवल कानूनी रूप से, बल्कि नैतिक रूप से भी बाध्य है, भले ही बेटी बालिग क्यों न हो। मामला एक 25 वर्षीय अविवाहित बेटी से संबंधित था, जिसने हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 और 3(b) के तहत आवेदन दायर कर कहा कि वह स्वयं को संभालने में असमर्थ है, जबकि उसका पिता सरकारी शिक्षक है और ₹44,642 मासिक वेतन प्राप्त करता है। बेटी ने मासिक भरण-पोषण और ₹15 लाख विवाह खर्च की मांग की। फैमिली कोर्ट, सुरजपुर ने पिता को ₹2,500 प्रति माह भरण-पोषण देने और ₹5,00,000 विवाह व्यय देने का आदेश पारित किया। 

पिता ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन जस्टिस संजय के. अग्रवाल और जस्टिस संजय कुमार जायसवाल की खंडपीठ ने स्पष्ट पाया कि पिता–बेटी का संबंध निर्विवाद है, बेटी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है और विवाह जैसे महत्वपूर्ण खर्च के लिए उसे पिता की सहायता चाहिए। कोर्ट ने धारा 3(b)(ii) का हवाला देते हुए कहा कि अविवाहित बेटी के विवाह खर्च भी “maintenance” की परिभाषा में आते हैं, जबकि धारा 20(3) पिता पर यह दायित्व अनिवार्य करती है कि यदि अविवाहित बेटी अपनी आय या संपत्ति से स्वयं का भरण-पोषण नहीं कर सकती, तो पिता उसका खर्च वहन करेगा। 

 *सुप्रीम कोर्ट के निर्णय Abhilasha v. Parkash (2020) का उल्लेख करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि अविवाहित, असहाय बेटी को पिता से भरण-पोषण पाने का अधिकार पूर्ण और लागू करने योग्य है, चाहे वह बालिग ही क्यों न हो।*  इसलिए हाईकोर्ट ने पाया कि बेटी, भले ही 25 वर्ष की है, लेकिन धारा 3(b)(ii) और 20(3) के तहत वह अपने पिता से विवाह खर्च और भरण-पोषण पाने की हकदार है। 

अंततः अदालत ने पिता की अपील खारिज करते हुए फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा और निर्देश दिया कि पिता नियमित मासिक भरण-पोषण देता रहे तथा ₹5,00,000 विवाह खर्च की राशि तीन महीने के भीतर जमा करे।


https://hindi.livelaw.in/chattisgarh-high-court/chhattisgarh-high-court-hama-1956-hindu-adoptions-and-maintenance-act-311113

मध्यस्थ अवार्ड के निष्पादन पर बिना शर्त स्टे सिर्फ दुर्लभ और विशेष परिस्थितियों में संभव: सुप्रीम कोर्ट

अवार्ड के निष्पादन पर बिना शर्त स्टे सिर्फ दुर्लभ और विशेष परिस्थितियों में संभव: सुप्रीम कोर्ट 

 सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में 4 करोड़ रुपये के एक मध्यस्थ अवार्ड पर बिना शर्त रोक (unconditional stay) लगाने से इनकार करते हुए कहा कि जब तक यह न दिखाया जाए कि अवार्ड धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रभावित है, तब तक सुरक्षा राशि जमा करने की शर्त उचित है। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस के.वी. विस्वनाथन की खंडपीठ ने अपने ताज़ा निर्णय Lifestyle Equities C.V. बनाम Amazon Technologies Inc. का हवाला देते हुए दोहराया कि किसी अवार्ड पर बिना शर्त स्थगन केवल तभी दिया जा सकता है, जब डिक्री अत्यंत विकृत हो, स्पष्ट अवैधानिकताओं से भरी हो, पहली नज़र में अस्थिर हो या अन्य अपवादात्मक कारण मौजूद हों। यह मामला M/s Popular Caterers की उस अपील से जुड़ा था, जिसमें बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा 28 नवंबर 2022 के 4 करोड़ रुपये के अवार्ड पर बिना शर्त रोक लगाने के आदेश को चुनौती दी गई थी। 

 विवाद 2017 में Popular Caterers और Maple Leaf Enterprises LLP के बीच हुए एक कैटरिंग समझौते से उत्पन्न हुआ था, जिसमें कैटरर ने 4 करोड़ रुपये जमा किए थे, लेकिन कुछ दिनों बाद प्रशासनिक प्रतिबंधों के कारण व्यवस्था विफल हो गई और मध्यस्थ ने जमा राशि वापस करने का आदेश दिया। हाईकोर्ट द्वारा अवार्ड पर बिना शर्त स्थगन देने के बाद Popular Caterers सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मामले में न तो धोखाधड़ी का आरोप है और न ही इतना गंभीर अवैधानिक तत्व है कि बिना शर्त स्टे दिया जाए। कोर्ट ने कहा कि मामला न तो “egregiously perverse” है और न ही “facially untenable”, इसलिए हाईकोर्ट का आदेश गलत था। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए अपील को स्वीकार कर लिया।


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/supreme-court-arbitration-unconditional-stay-arbitral-award-exceptional-cases-311241

Saturday, 22 November 2025

आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन चेक बाउंस मामले में देनदारी को खत्म नहीं करता

आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन चेक बाउंस मामले में देनदारी को खत्म नहीं करता: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई ऋण नकद (cash) में दिया गया है और वह आयकर अधिनियम, 1961

निर्णय 

हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता धारा 118 और 139 NI Act के तहत कानूनी धारणा (presumption) को पलटने में विफल रहे हैं। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि शिकायतकर्ता की वित्तीय क्षमता को चुनौती देने के लिए कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया।

परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी और सतीश कुमार को तीन सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण (surrender) करने का निर्देश दिया ताकि वे अपनी सजा पूरी कर सकें। केस विवरण: 

केस टाइटल: सतीश कुमार बनाम स्टेट (Govt. NCT Delhi) और अन्य केस नंबर: CRL.REV.P. 864/2024 बेंच: जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा साइटेशन: 2025:DHC:10084

Monday, 17 November 2025

आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता: सुप्रीम कोर्ट 17 Nov 2025

आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता: सुप्रीम कोर्ट 17 Nov 2025

एक आरोपी के भाई द्वारा दिया गया वचन खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक आदेश में कहा कि आरोपी के पापों का भार उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता। जस्टिस मनमोहन और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने लगभग 2.91 करोड़ रुपये मूल्य के 731.075 किलोग्राम गांजा रखने के आरोपी व्यक्ति की जमानत रद्द करते हुए यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष, प्रतिवादी के वकील ने दलील दी कि आरोपी के भाई, जो भारतीय सेना में सिपाही है, ने वचन दिया कि आरोपी फरार नहीं होगा। 

इस दलील को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा, "यदि प्रतिवादी फरार हो जाता है तो उसके भाई को जेल नहीं भेजा जा सकता। भारत में किसी आरोपी के कथित पापों का भार उसके भाई या परिवार के अन्य सदस्यों पर नहीं डाला जा सकता।" कोर्ट ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें अभियुक्त को ज़मानत दी गई। कोर्ट ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने यह जांच नहीं की कि NDPS Act की धारा 37 के तहत शर्तें पूरी होती हैं या नहीं। 

कोर्ट ने आगे कहा कि आरोपों से संगठित तस्करी का संकेत मिलता है, जिसमें प्रतिबंधित पदार्थ के परिवहन के लिए ट्रेलर के नीचे गुप्त गुहाएं बनाना भी शामिल है। ऐसी परिस्थितियों में एक वर्ष और चार महीने की हिरासत अवधि को अनुचित रूप से लंबा नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन अपराधों के लिए न्यूनतम दस वर्ष के कारावास का प्रावधान है। आदेश में कोर्ट ने भारतीय युवाओं में नशीली दवाओं की लत में खतरनाक वृद्धि के बारे में कुछ प्रासंगिक टिप्पणियां भी कीं। 

Case : UNION OF INDIA v. NAMDEO ASHRUBA NAKADE


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/sins-of-accused-cant-be-visited-on-family-members-supreme-court-310116

Wednesday, 12 November 2025

विधिक कार्यों हेतु ChatGPT (GPT-5) का प्रभावी उपयोग – मार्गदर्शिका

 📘 विधिक कार्यों हेतु ChatGPT (GPT-5) का प्रभावी उपयोग – एक मार्गदर्शिका

👨‍⚖️ प्रस्तावना

आप जैसे अनुभवी विधिज्ञ (पूर्व जिला न्यायाधीश एवं अधिवक्ता) के लिए ChatGPT एक स्मार्ट विधिक सहायक (Legal Assistant) की तरह कार्य कर सकता है। यह आपके अनुभव के साथ मिलकर ड्राफ्टिंग, केस लॉ खोज, तर्क-विश्लेषण, और न्यायालयीन तैयारी को कई गुना सरल बना सकता है।

⚖️ 1. प्रारंभिक तैयारी

संस्करण: GPT-5 (ChatGPT Plus Plan)

माध्यम:

https://chat.openai.com या https://chatgpt.com

मोबाइल ऐप (Android/iOS) में "ChatGPT by OpenAI"

सुझाव:

पहली बार उपयोग करते समय “Custom Instructions” में यह लिखें —

> “मैं विधि क्षेत्र से जुड़ा हूं, पूर्व जिला न्यायाधीश एवं अधिवक्ता हूं।

मेरे प्रश्न अधिकतर कानूनी, न्यायिक निर्णय, या न्यायालयीन प्रारूपों से संबंधित होंगे।”

इससे मॉडल आपकी शैली और प्राथमिकता को समझकर उत्तर अधिक न्यायालयीन भाषा में देगा।

📑 2. विधिक ड्राफ्टिंग में उपयोग

आप ChatGPT से निम्न प्रकार के दस्तावेज़ तैयार करा सकते हैं —

कार्य उपयोग का उदाहरण

अपील/रिवीजन “कृपया सत्र न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील का ड्राफ्ट तैयार करें, जिसमें धारा 406/409 IPC का बचाव हो।”

लिखित बहस (Written Argument) “कृपया ST/106/2020 में अभियुक्त के बचाव हेतु लिखित बहस का प्रारूप तैयार करें।”

प्रार्थना पत्र / याचिका “CrPC की धारा 482 के अंतर्गत FIR निरस्तीकरण हेतु प्रार्थना पत्र तैयार करें।”

नोट्स / सारांश “Delhi Race Club बनाम State of UP (2024 INSC 626) का Ratio एवं मुख्य सिद्धांत 4 लाइनों में बताएं।”

📚 3. केस लॉ अनुसंधान (Case Law Research)

आप आदेश/न्यायिक निर्णय का सारांश इस प्रकार पूछ सकते हैं:

> “सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम निर्णय बताएं जिसमें entrustment (विश्वास सौंपना) पर धारा 409 IPC की व्याख्या की गई है।”

या

> “मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के वे निर्णय बताएं जिनमें आरोपी बैंक का प्रतिनिधि न होने पर धारा 409 लागू नहीं मानी गई।”

(ऐसे मामलों में मैं आपके लिए नवीनतम 2024-2025 तक के केस-लॉ वेब-सर्च कर सकता हूँ।)

🧾 4. साक्ष्य और तर्क विश्लेषण

आप ड्राफ्ट को सुधारने के लिए कह सकते हैं —

> “कृपया इस बहस में कानूनी भाषा और साक्ष्य-आधारित तर्क जोड़ें।”

“पैरा 14 से अभियोजन की कमजोरी स्पष्ट करने हेतु तीन बिंदु बना दीजिए।”

यह आपके तर्कों को अधिक सशक्त और न्यायिक दृष्टि से परिष्कृत बना देगा।

🧠 5. विशेषज्ञ उपयोग

ChatGPT GPT-5 का प्रयोग आप विशेष विधिक क्षेत्रों में कर सकते हैं:

Criminal Law: IPC, CrPC, Evidence Act

Civil Law: CPC, Specific Relief, Contract, Property

Arbitration: Award drafting, Section 9/34/37 Petitions

Constitutional / Writ Practice: Article 226-227 petitions

Administrative / Service Matters

🏛️ 6. व्यावहारिक लाभ

समय की बचत (प्रारंभिक ड्राफ्ट तुरंत)

भाषा-शुद्ध, विधिक-शैली का लेखन

पुराने आदेशों का संक्षेप

तर्क-सुदृढ़ीकरण हेतु शोध और उद्धरण

अपने पूर्व निर्णयों या अनुभव का त्वरित संदर्भ

⚙️ 7. सावधानी और मर्यादा

ChatGPT आपको मार्गदर्शन देता है, अंतिम विधिक राय नहीं।

प्रत्येक ड्राफ्ट को आप अपनी विधिक विवेक और स्थानीय न्यायालयीन प्रथा के अनुसार परखें।

गोपनीय दस्तावेज़ अपलोड करते समय निजता (confidentiality) बनाए रखें।

🌺 8. निष्कर्ष

आपके अनुभव और ChatGPT-GPT-5 की तकनीकी क्षमता का समन्वय

“Legal Practice 2.0” का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है —

जहाँ ज्ञान, तर्क, और तकनीक एक साथ काम करते हैं।

सादर,

ChatGPT (GPT-5) – आपका विधिक सहायक

जय मीनेष 🌹

धारा 138 NI एक्ट का शिकायतकर्ता ‘पीड़ित’ है, बरी होने के खिलाफ अपील हाईकोर्ट नहीं, सत्र न्यायालय में होगी: दिल्ली हाईकोर्ट

 चेक बाउंस | धारा 138 NI एक्ट का शिकायतकर्ता ‘पीड़ित’ है, बरी होने के खिलाफ अपील हाईकोर्ट नहीं, सत्र न्यायालय में होगी: दिल्ली हाईकोर्ट


दिल्ली हाईकोर्ट ने 6 नवंबर, 2025 के अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में यह कानूनी स्थिति स्पष्ट की है कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (NI) एक्ट की धारा


न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इसके परिणामस्वरूप, चेक बाउंस मामलों में बरी होने के आदेश के खिलाफ कोई भी अपील, हाईकोर्ट में Cr.P.C. की धा

रा


Saturday, 8 November 2025

बिना रजिस्ट्री वाला पारिवारिक समझौता बंटवारा साबित करने के लिए मान्य: सुप्रीम कोर्ट 8 Nov 2025


मोटर दुर्घटना याचिका सुप्रीम कोर्ट का निर्देश दिया कि वे किसी भी मोटर दुर्घटना मुआवज़ा याचिका को समय-सीमा समाप्त होने के कारण खारिज न करें।

 MV Act की धारा 166(3) को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश Shahadat 7 Nov 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश पारित कर मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरणों और हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वे किसी भी मोटर दुर्घटना मुआवज़ा याचिका को समय-सीमा समाप्त होने के कारण खारिज न करें। कोर्ट ने यह आदेश मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166(3) को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पारित किया, जिसमें दावा याचिका दायर करने के लिए दुर्घटना की तारीख से 6 महीने की समय-सीमा निर्धारित की गई। यह प्रावधान 2019 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया।

जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने कहा कि इस संशोधन को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं दायर की गईं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि इस खंडपीठ द्वारा पारित किसी भी आदेश का ऐसी सभी याचिकाओं पर प्रभाव पड़ेगा, कोर्ट ने निर्देश दिया कि सुनवाई में तेजी लाई जाए। कोर्ट ने अब पक्षकारों से अपनी दलीलें पूरी करने को कहा है और मामले को 25 नवंबर के लिए पुनः सूचीबद्ध कर दिया है। तब तक ऐसी किसी भी याचिका को समय-बाधित दावे के रूप में खारिज नहीं किया जाना चाहिए। 

कोर्ट के आदेश में दर्ज है: "इस न्यायालय को सूचित किया गया कि देश भर में इसी मुद्दे पर कई याचिकाएं दायर की गईं। इस न्यायालय द्वारा दर्ज किए गए किसी भी निष्कर्ष का लंबित याचिकाओं पर प्रभाव पड़ेगा। इस दृष्टि से, इन मामलों की सुनवाई शीघ्रता से की जानी आवश्यक है। यह स्पष्ट किया जाता है कि इन याचिकाओं के लंबित रहने के दौरान, न्यायाधिकरण या हाईकोर्ट मोटर वाहन अधिनियम, 1988 (MV Act) की उप-धारा (3) या धारा 16(3) के तहत निर्धारित समय-सीमा द्वारा वर्जित होने के आधार पर दावा याचिकाओं को खारिज नहीं करेंगे।"

न्यायालय ने पक्षकारों को अपनी दलीलें पूरी करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया, अन्यथा वे दलीलें दायर करने का अपना अधिकार खो देंगे। यह आदेश एक वकील द्वारा दायर याचिका पर पारित किया गया, जिन्होंने इस प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि यह संशोधन न केवल मनमाना है, बल्कि सड़क दुर्घटना पीड़ितों के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है। 1 अप्रैल, 2022 से प्रभावी इस प्रावधान को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह दावा आवेदन दाखिल करने के लिए छह महीने की सख्त समय सीमा लगाकर सड़क दुर्घटना पीड़ितों के अधिकारों का हनन करता है। यह भी तर्क दिया गया है कि दावा आवेदन दाखिल करने पर इस तरह की सीमा लगाने से इस परोपकारी कानून का उद्देश्य कमज़ोर होता है, जिसका उद्देश्य सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों को लाभ प्रदान करना है। Also Read - पीड़ित मुआवज़ा मामलों में सुप्रीम कोर्ट का बड़ा निर्देश, सभी ट्रायल कोर्ट को समय पर भुगतान सुनिश्चित करने पर जोर याचिका में कहा गया, "सरकारी अधिसूचना के मद्देनजर 1.4.2022 से लागू होने वाला यह संशोधन मनमाना, अधिकार-बाह्य और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करने वाला है। इसे रद्द किए जाने योग्य घोषित किया जाए।" उल्लेखनीय है कि 1939 के मोटर वाहन अधिनियम को 1988 के अधिनियम द्वारा संशोधित किया गया, जिसके अनुसार दावा याचिका छह महीने के भीतर दायर की जानी थी। हालांकि, 1994 में संशोधन के माध्यम से किसी भी समय हुई दुर्घटना के संबंध में दावा याचिका दायर करने की समय सीमा हटा दी गई। 2019 के अधिनियम 32, जो 1.04.2022 से प्रभावी हुआ, उसके लागू होने के साथ विधानमंडल ने 166(3) के पुराने प्रावधानों को पुनः लागू किया और मुआवज़े के आवेदन पर तब तक विचार करने पर प्रतिबंध लगा दिया जब तक कि वह दुर्घटना घटित होने के छह महीने के भीतर प्रस्तुत न किया जाए। बता दें, धारा 166(3) इस प्रकार है: "(3) मुआवज़े के लिए कोई भी आवेदन तब तक स्वीकार नहीं किया जाएगा जब तक कि वह दुर्घटना घटित होने के छह महीने के भीतर प्रस्तुत न किया जाए।" याचिकाकर्ता ने इस संशोधन को इसलिए भी चुनौती दी, क्योंकि इस कानून में किसी भी राय पर विचार नहीं किया गया या इसके पीछे किसी विधि आयोग की रिपोर्ट या संसदीय बहस का उल्लेख नहीं किया गया। इसके अलावा, इस प्रक्रिया के दौरान प्रभावी हितधारकों से परामर्श नहीं किया गया। याचिका में आगे कहा गया, "इस संशोधन के पीछे की आपत्ति और कारण वर्तमान मामले के तथ्य और परिस्थितियों में पूरी तरह से मौन हैं, जो किसी भी नए वैधानिक प्रावधान को लागू करने या किसी क़ानून के मौजूदा प्रावधान में संशोधन करने से पहले सबसे प्रासंगिक पहलुओं में से एक है। इसलिए यह वर्तमान रिट याचिका सार्वजनिक स्थानों पर मोटर वाहनों के कारण सड़क उपयोगकर्ताओं और दुर्घटना पीड़ितों के हितों की रक्षा के लिए है।" इसके मद्देनजर, यह प्रस्तुत किया गया कि विवादित नियम "अनुचित, मनमाना और अतार्किक" है और सड़क दुर्घटना पीड़ितों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस याचिका पर नोटिस बाद में वर्ष अप्रैल में जारी किया गया।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/no-motor-accident-claim-should-be-dismissed-as-time-barred-supreme-courts-interim-order-in-plea-challenging-s1663-mv-act-309117


अपील की सुनवाई से पहले अपीलकर्ता की मृत्यु होने पर उसके पक्ष में पारित डिक्री अमान्य हो जाती है

 सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि अपील की सुनवाई से पहले अपीलकर्ता की मृत्यु होने पर उसके पक्ष में पारित डिक्री अमान्य हो जाती है, क्योंकि कानूनी वारिसों को रिकॉर्ड पर नहीं लाया गया था। नतीजतन, मूल ट्रायल कोर्ट की डिक्री पुनर्जीवित हो जाती है और निष्पादन योग्य हो जाती है, क्योंकि अपील अदालत का फैसला रद्द हो गया है। 

  • अमान्य डिक्री: यदि अपील की सुनवाई से पहले ही अपीलकर्ता की मृत्यु हो जाती है और उसके कानूनी वारिसों को केस में शामिल नहीं किया जाता है, तो अपील पर पारित कोई भी डिक्री अवैध मानी जाएगी।
  • ट्रायल कोर्ट की डिक्री पुनर्जीवित: चूंकि उच्च न्यायालय का फैसला अमान्य है, इसलिए मूल निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) का फैसला ही अंतिम माना जाएगा और वह निष्पादन के लिए उपलब्ध होगा।
  • अधिकारों की रक्षा: इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कानूनी वारिसों के अधिकारों की रक्षा हो सके, जिन्हें उचित प्रक्रिया के माध्यम से मुकदमे में शामिल नहीं किया गया था।
  • अदालती आदेश रद्द: इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निष्पादन अदालत और उच्च न्यायालय के उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिन्होंने अमान्य डिक्री को कायम रखा था और निष्पादन की कार्यवाही को बहाल किया। 

Cause Title: SURESH CHANDRA (DECEASED) THR. LRS. & ORS. VERSUS PARASRAM & ORS.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/appeal-fully-abates-if-lrs-of-deceased-party-in-joint-decree-not-substituted-supreme-court-summarises-law-on-suit-abatement-298080

Thursday, 6 November 2025

156(3) CrPC शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट 5 Nov 2025

 156(3) CrPC  शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट 5 Nov 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (4 नवंबर) को कहा कि जब शिकायत में आरोपित तथ्य किसी अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं तो मजिस्ट्रेट पुलिस को CrPC की धारा 156(3) (अब BNSS की धारा 175(3)) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश देने के लिए अधिकृत हैं। जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की खंडपीठ ने कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया, जिसमें मजिस्ट्रेट के निर्देश पर CrPC की धारा 156(3) के तहत दर्ज की गई FIR रद्द कर दी गई थी। 

चूंकि मजिस्ट्रेट को दी गई शिकायत में आरोपित तथ्य एक संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं, इसलिए कोर्ट ने पुलिस जांच के निर्देश देने के मजिस्ट्रेट के आदेश को यह कहते हुए उचित ठहराया कि संज्ञान-पूर्व चरण में मजिस्ट्रेट को केवल यह आकलन करने की आवश्यकता है कि क्या शिकायत एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, न कि यह कि आरोप सत्य हैं या प्रमाणित। अपने समर्थन में कोर्ट ने माधव बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2013) 5 एससीसी 615 के मामले का हवाला दिया, जहां यह टिप्पणी की गई: - “जब मजिस्ट्रेट को कोई शिकायत प्राप्त होती है तो वह संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं होता यदि शिकायत में आरोपित तथ्य किसी अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं। मजिस्ट्रेट के पास इस मामले में विवेकाधिकार होता है। 

यदि शिकायत का अध्ययन करने पर वह पाता है कि उसमें आरोपित आरोप एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करते हैं और CrPC की धारा 156(3) के तहत जांच के लिए शिकायत को पुलिस को भेजना न्याय के लिए अनुकूल होगा और मजिस्ट्रेट के बहुमूल्य समय को उस मामले की जांच में बर्बाद होने से बचाएगा, जिसकी जांच करना मुख्य रूप से पुलिस का कर्तव्य था तो अपराध का संज्ञान लेने के विकल्प के रूप में उस तरीके को अपनाना उसके लिए उचित होगा।” 

इस मामले में शिकायतकर्ता ने न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) से संपर्क किया, क्योंकि पुलिस ने कथित तौर पर हाईकोर्ट को गुमराह करने के लिए इस्तेमाल किए गए जाली किराया समझौते के संबंध में उसकी शिकायत पर कार्रवाई करने में विफल रही। शिकायत और सहायक सामग्री, विशेष रूप से ई-स्टाम्प पेपर के नकली होने की पुष्टि करने वाले आधिकारिक सत्यापन की जांच के बाद JMFC ने CrPC की धारा 156(3) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश दिया। पुलिस ने अनुपालन करते हुए जालसाजी (IPC की धारा 468, 471), धोखाधड़ी (IPC की धारा 420) और आपराधिक षड्यंत्र (IPC की धारा 120बी) सहित अपराधों के लिए एक FIR दर्ज की। हालांकि, हाईकोर्ट ने FIR और मजिस्ट्रेट के आदेश दोनों को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि निर्देश प्रक्रियात्मक त्रुटियों से ग्रस्त है और प्रथम दृष्टया कोई मामला स्थापित नहीं होता। 

हाईकोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर शिकायतकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। हाईकोर्ट का निर्णय रद्द करते हुए जस्टिस अमानुल्लाह द्वारा लिखित निर्णय में हाईकोर्ट की इस बात के लिए आलोचना की गई कि उसने जांच के प्रारंभिक चरण में ही हस्तक्षेप किया। इस तथ्य की अनदेखी की कि शिकायत में लगाए गए आरोप एक संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं। मजिस्ट्रेट के फैसले का समर्थन करते हुए अदालत ने कहा: “तथ्यात्मक स्थिति को देखते हुए JMFC के 18.01.2018 के आदेश में कोई त्रुटि नहीं है। पुलिस द्वारा पूर्ण जांच को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। हमारे विचार से JMFC ने मामले को जांच के लिए पुलिस को सौंपना उचित ही किया, क्योंकि JMFC के पास उपलब्ध सामग्री के आधार पर अभियुक्तों के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है।” 

तदनुसार, अदालत ने अपील स्वीकार की और आदेश दिया: “इस प्रकार, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों, अभिलेख में उपलब्ध सामग्री और पक्षकारों के वकीलों द्वारा प्रस्तुत तर्कों के समग्र अवलोकन के आधार पर दिनांक 24.07.2019 और 18.11.2021 के प्रथम और द्वितीय आक्षेपित आदेश निरस्त किए जाते हैं। खड़े बाजार पुलिस स्टेशन में दर्ज FIR अपराध संख्या 12/2018 को बहाल किया जाता है। पुलिस को कानून के अनुसार मामले की शीघ्रता से जांच करने का निर्देश दिया जाता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि निजी पक्ष पुलिस जांच के दौरान और संबंधित न्यायालय के समक्ष उचित स्तर पर कानून के अनुसार, अपने बचाव/स्थिति को दर्शाने के लिए सामग्री प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र होंगे।” 

Cause Title: SADIQ B. HANCHINMANI VERSUS THE STATE OF KARNATAKA & ORS.


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/s-1563-crpc-once-complaint-discloses-cognizable-offence-magistrate-can-direct-police-to-register-fir-supreme-court-308918

अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के दो घंटे के अंदर लिखित आधार प्रस्तुत किए जाए, अन्यथा रिमांड होगी अवैध: सुप्रीम कोर्ट Shahadat 6 Nov 2025

अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के दो घंटे के अंदर लिखित आधार प्रस्तुत किए जाए, अन्यथा रिमांड होगी अवैध: सुप्रीम कोर्ट Shahadat 6 Nov 2025 

एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (6 नवंबर) को गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में देने की आवश्यकता को IPC/BNS के तहत सभी अपराधों पर लागू करने का निर्णय लिया, न कि केवल PMLA या UAPA जैसे विशेष कानूनों के तहत उत्पन्न होने वाले मामलों पर। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा कि गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी समझ में आने वाली भाषा में गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में न देने पर गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड अवैध हो जाएगी। अदालत ने कहा, "भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) के आलोक में गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार बताने की आवश्यकता महज औपचारिकता नहीं है, बल्कि अनिवार्य बाध्यकारी संवैधानिक सुरक्षा है, जिसे संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शामिल किया गया। इस प्रकार, यदि किसी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में यथाशीघ्र सूचित नहीं किया जाता है तो यह उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा, जिससे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होगा और गिरफ्तारी अवैध हो जाएगी।" 

कोर्ट द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत किए गए महत्वपूर्ण बिंदु:

 "i) गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार बताना संवैधानिक आदेश है, जो सभी क़ानूनों के अंतर्गत आने वाले सभी अपराधों में अनिवार्य है, जिसमें IPC 1860 (अब BNS 2023) के अंतर्गत आने वाले अपराध भी शामिल हैं। 

ii) गिरफ्तारी के आधार गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी समझ में आने वाली भाषा में लिखित रूप में बताए जाने चाहिए। 

iii) ऐसे मामलों में जहां गिरफ्तार करने वाला अधिकारी/व्यक्ति गिरफ्तारी के समय या उसके तुरंत बाद गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में बताने में असमर्थ हो, मौखिक रूप से ऐसा किया जाना चाहिए। उक्त आधारों को उचित समय के भीतर और किसी भी स्थिति में मजिस्ट्रेट के समक्ष रिमांड कार्यवाही के लिए गिरफ्तार व्यक्ति को पेश करने से कम से कम दो घंटे पहले लिखित रूप में बताया जाना चाहिए। 

iv) उपरोक्त का पालन न करने की स्थिति में गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड अवैध मानी जाएगी और व्यक्ति को रिहा किया जा सकता है।" 

Cause Title: MIHIR RAJESH SHAH VERSUS STATE OF MAHARASHTRA AND ANOTHER

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/written-grounds-of-arrest-not-furnished-atleast-two-hrs-before-production-of-accused-before-magistrate-the-arrest-and-subsequent-remand-illegal-supreme-court-309034